111 बाबा की क्लास ( आधार और सप्त लोक )
राजू- बाबा ! आपने अनेक कठिन तथ्यों को सरल कर समझाया है पर मेरे मन में अभी भी यह बात समझ में नहीं आई कि परमपुरुष की साधना के लिए आधार किसे बनाया जाय ?
बाबा- साधना का प्रारंभ और अन्त एक ही बिन्दु पर टिका होता है, वह है आधार की शुद्धता और पवित्रता। यह आधार ही जीवों के अभावों और दुखों का कारण बनता है। यदि आधार द्रढ़ है तो अभावों और कष्टों का अस्तित्व ही नहीं रहता। एक बात यह भी है कि आधार प्रत्येक सीमित विषय या वस्तु के लिये अपरिहार्य होता है उसी के अनुसार ही हम एक दूसरे को पहचान पाते हैं।
रवि- परन्तु कोई भी वस्तु यह आधार कहाॅं से और कैसे पाती है ?
बाबा- किन्हीं भी दो जीवों का एक समान आधार नहीं होता, अपना अस्तित्व बनाए रखने के लिए वे अपने अपने संस्कारों के अनुसार , परमसत्ता के परम मन से ही विशिष्ट आधार पाते हैं। इसे ही काया या शरीर कहते हैं।
इन्दु- कैसे ?
बाबा- संस्कृत में ‘काया‘ शब्द का अर्थ है ‘चयन‘ अर्थात् चुनना। परमब्रह्म केे मानसिक शरीर से सभी जीव अपना अपना आधार काट लेते हैं इसलिये सभी जीव उनकी मानस संतानें हैं। परमपुरुष के ऊपर प्रकृति के अत्यधिक प्रभाव पड़ने से उनका मानसिक शरीर बनता है इसीलिए जीवों की भौतिक देह प्रकृति की ही रचना है अतः उन्हें प्रकृति के नियमों से बंधे रहना होता है जबकि अनन्त परमपुरुष को भौतिक देह की आवश्यकता नहीं होती, उनकी केवल मानसिक देह होती है। जिनका अस्तित्व सीमित है अर्थात् अनन्त नहीं हैं उन्हें ही भौतिक देह की आवश्यकता होती है।
चन्दू- तो परमपुरुष को यह कौन अनुभव कराता है कि वह हैं, या करते हैं, या कोई विषय हैं?
बाबा- प्रकृति के तीन गुण सत्व, रज और तम होते हैं। इन तीनों के संयुक्त प्रभाव से परम मन में यह सभी अनुभव होते हैं। यदि इन तीन में से कोई भी अक्रिय होता है तो परम मन में किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं होता। सच्चाई यही है कि प्रकृति अपने को मिटा कर परमपुरुष में लगातार बदलती जा रही है जिसका प्रमाण यही है कि ये तीनों गुण पूरे ब्रह्माॅंड को चला रहे हैं।
रवि- लेकिन कुछ विद्वानों ने तो ब्रह्माॅंड के सात लोकों की चर्चा की है, क्या वे अलग हैं ?
बाबा- वास्तव में ये सब मन की अपरिपक्वावस्था से सूक्ष्मता के क्रम में अलग अलग स्थितियाॅं ही हैं जिन्हें क्रमशः भूः , भुवः, स्वः, महः, जनः, तपः और सत्यम लोक कहा जाता है। परम मन के जिस भाग में प्रकृति के तमोगुण का अधिक प्रभाव होता है, रजोगुण का सामान्य और सतोगुण अप्रभावी होता है उसे संस्कृत में ‘ भूर्लोक ‘ कहा जाता है। दूसरे जिस भाग पर तमोगुण तो प्रभावी होता है पर रजोगुण नगण्य और सत्वगुण सामान्य होता है उसे ‘भुवर्लोक‘ कहते हैं। इसमें ही इकाई मन, भौतिक देह को संकल्प विकल्प, भूख प्यास, सोने और जागने तथा अनेक अन्य प्रकार के स्पंदनों के अनुभव करने में लगाए रहता है। यहाॅं इकाई मन की सबसे अपरिपक्व अवस्था होती है जिसे कामदेह या काममय कोश कहते हैं। परम मन की कोई पंचभौतिक देह नहीं होती पर वह अपने द्वारा कल्पित इसी भुवर्लोक में मानसिक रूपसे यह सभी अनुभव करता हैे।
राजू- स्वर्लोक का क्या अर्थ है और वह कहाॅं होता है?
बाबा- मनोमय संसार को ही ‘‘स्वर्लोक‘‘ कहते हैं यहाॅं इकाई मन सुख दुख का अनुभव करता है। संस्कृत में स्वर्लोक और स्वर्गलोक समानार्थी हैं। कुछ लोगों की धारणा होती है कि वे अच्छे कार्य इसलिये करते हैं ताकि मरने के बाद वे स्वर्ग का सुख पाएं। इस मनोमय संसार में रजोगुण अल्प मात्रा में होता है और संस्कारों का निर्माण भी इसी में होता है। क्रिश्चियन, इस्लाम, जैन और कर्मकांडी हिंदुओं का यह विश्वास है कि अच्छे कर्मोका फल स्वर्ग में मिलता है। जबकि, यह हमारा ही मनोमय कोष होता है स्वर्ग का कहीं अलग से अस्तित्व नहीं होता।
चन्दू- इसके आगे क्या होता है?
बाबा- मन का वह स्तर जहाॅं रजोगुण अधिक प्रभावी होता है सतोगुण अपेक्षतया कम प्रभावी होता है और तमोगुण लगभग शून्य होता है उसे ‘‘महर्लोक ‘‘ कहते हैं। मन का यह उच्च स्तर होता है इसलिए इसे ‘ अतिमानस ‘ भी कहते हैं। इस स्तर पर संस्कार अपनी प्रतिक्रिया को अनुभव करने के लिए पहला स्पन्दन पाते हैं। जैसे, मानलो कोई व्यक्ति उस स्थान पर जाना चाहता है जहाॅं बीमारी फैली हो तो कोई व्यक्ति उसके कान में आकर कह देगा कि वहाॅं जाने पर वह रोग तुम्हें भी हो सकता है और वहाॅं जाकर वह सचमुच उस बीमारी से ग्रस्त हो जाता है। परमपुरुष की साधना करने की तीब्र इच्छा भी इसी अतिमानस में जागती है। इसी क्षेत्र में आत्मा की प्रेरणा सबसे पहले सक्रिय होती है , यही कारण है कि इसी क्षेत्र में साधना करने की भिन्न भिन्न क्षमताएं और लोगों के वर्गीकरण का उद्गम होता है।
इन्दु- ये तो अब तक चार ही हुए, आगे के तीन और लोक या मानसिक स्तर कौन कौन से हैं?
बाबा- इसके आगे मन के और अधिक सूक्ष्म स्तर आते हैं। ‘जनर्लोक ‘ में सत्वगुण अधिक सक्रिय, रजोगुण अक्रिय और तमोगुण अल्प सक्रिय होता है। इसे विज्ञानमय कोश कहते हैं इसमें ही ज्ञान, कौशल और त्याग करने की भावनाऐं इकाई मन में आती हैं। कभी कभी भौतिकवादी लोगों के मन में भी यह भाव आते हैं परन्तु इनको भूः, भुवः आदि स्तर रुकावटें डालते हैं। इसके बाद आता है ‘तपर्लोक‘ जिसे हिरण्यमय कोश कहते हैं। यहाॅं सत्व गुण सबसे अधिक, रजोगुण कम और तमोगुण सबसे कम सक्रिय होता है। यहाॅं ज्ञान अव्यक्त स्तर पर होता है, इतना तक कि ‘मै ‘ की भावना भी नहीं प्रकट होती वह गुप्त रूपसे रहती है। इसके आगे होता है ‘सत्य‘ लोक जिसमें प्रकृति के तीनों गुण होते तो हैं परन्तु प्रकट नहीं होेते। यहाॅं पुरुष, प्रकृति के ऊपर प्रभावी हो जाता है। सत्य लोक निर्गुण ब्रह्म की अवस्था है। इस व्यक्त ब्रह्माॅंड में यही सात लोक होते हैं परन्तु सत्य लोक के अलावा वे सभी अपने अपने गुणों के अनुपात में परिवर्तन के अनुसार आभासित होते है।
राजू- बाबा ! आपने अनेक कठिन तथ्यों को सरल कर समझाया है पर मेरे मन में अभी भी यह बात समझ में नहीं आई कि परमपुरुष की साधना के लिए आधार किसे बनाया जाय ?
बाबा- साधना का प्रारंभ और अन्त एक ही बिन्दु पर टिका होता है, वह है आधार की शुद्धता और पवित्रता। यह आधार ही जीवों के अभावों और दुखों का कारण बनता है। यदि आधार द्रढ़ है तो अभावों और कष्टों का अस्तित्व ही नहीं रहता। एक बात यह भी है कि आधार प्रत्येक सीमित विषय या वस्तु के लिये अपरिहार्य होता है उसी के अनुसार ही हम एक दूसरे को पहचान पाते हैं।
रवि- परन्तु कोई भी वस्तु यह आधार कहाॅं से और कैसे पाती है ?
बाबा- किन्हीं भी दो जीवों का एक समान आधार नहीं होता, अपना अस्तित्व बनाए रखने के लिए वे अपने अपने संस्कारों के अनुसार , परमसत्ता के परम मन से ही विशिष्ट आधार पाते हैं। इसे ही काया या शरीर कहते हैं।
इन्दु- कैसे ?
बाबा- संस्कृत में ‘काया‘ शब्द का अर्थ है ‘चयन‘ अर्थात् चुनना। परमब्रह्म केे मानसिक शरीर से सभी जीव अपना अपना आधार काट लेते हैं इसलिये सभी जीव उनकी मानस संतानें हैं। परमपुरुष के ऊपर प्रकृति के अत्यधिक प्रभाव पड़ने से उनका मानसिक शरीर बनता है इसीलिए जीवों की भौतिक देह प्रकृति की ही रचना है अतः उन्हें प्रकृति के नियमों से बंधे रहना होता है जबकि अनन्त परमपुरुष को भौतिक देह की आवश्यकता नहीं होती, उनकी केवल मानसिक देह होती है। जिनका अस्तित्व सीमित है अर्थात् अनन्त नहीं हैं उन्हें ही भौतिक देह की आवश्यकता होती है।
चन्दू- तो परमपुरुष को यह कौन अनुभव कराता है कि वह हैं, या करते हैं, या कोई विषय हैं?
बाबा- प्रकृति के तीन गुण सत्व, रज और तम होते हैं। इन तीनों के संयुक्त प्रभाव से परम मन में यह सभी अनुभव होते हैं। यदि इन तीन में से कोई भी अक्रिय होता है तो परम मन में किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं होता। सच्चाई यही है कि प्रकृति अपने को मिटा कर परमपुरुष में लगातार बदलती जा रही है जिसका प्रमाण यही है कि ये तीनों गुण पूरे ब्रह्माॅंड को चला रहे हैं।
रवि- लेकिन कुछ विद्वानों ने तो ब्रह्माॅंड के सात लोकों की चर्चा की है, क्या वे अलग हैं ?
बाबा- वास्तव में ये सब मन की अपरिपक्वावस्था से सूक्ष्मता के क्रम में अलग अलग स्थितियाॅं ही हैं जिन्हें क्रमशः भूः , भुवः, स्वः, महः, जनः, तपः और सत्यम लोक कहा जाता है। परम मन के जिस भाग में प्रकृति के तमोगुण का अधिक प्रभाव होता है, रजोगुण का सामान्य और सतोगुण अप्रभावी होता है उसे संस्कृत में ‘ भूर्लोक ‘ कहा जाता है। दूसरे जिस भाग पर तमोगुण तो प्रभावी होता है पर रजोगुण नगण्य और सत्वगुण सामान्य होता है उसे ‘भुवर्लोक‘ कहते हैं। इसमें ही इकाई मन, भौतिक देह को संकल्प विकल्प, भूख प्यास, सोने और जागने तथा अनेक अन्य प्रकार के स्पंदनों के अनुभव करने में लगाए रहता है। यहाॅं इकाई मन की सबसे अपरिपक्व अवस्था होती है जिसे कामदेह या काममय कोश कहते हैं। परम मन की कोई पंचभौतिक देह नहीं होती पर वह अपने द्वारा कल्पित इसी भुवर्लोक में मानसिक रूपसे यह सभी अनुभव करता हैे।
राजू- स्वर्लोक का क्या अर्थ है और वह कहाॅं होता है?
बाबा- मनोमय संसार को ही ‘‘स्वर्लोक‘‘ कहते हैं यहाॅं इकाई मन सुख दुख का अनुभव करता है। संस्कृत में स्वर्लोक और स्वर्गलोक समानार्थी हैं। कुछ लोगों की धारणा होती है कि वे अच्छे कार्य इसलिये करते हैं ताकि मरने के बाद वे स्वर्ग का सुख पाएं। इस मनोमय संसार में रजोगुण अल्प मात्रा में होता है और संस्कारों का निर्माण भी इसी में होता है। क्रिश्चियन, इस्लाम, जैन और कर्मकांडी हिंदुओं का यह विश्वास है कि अच्छे कर्मोका फल स्वर्ग में मिलता है। जबकि, यह हमारा ही मनोमय कोष होता है स्वर्ग का कहीं अलग से अस्तित्व नहीं होता।
चन्दू- इसके आगे क्या होता है?
बाबा- मन का वह स्तर जहाॅं रजोगुण अधिक प्रभावी होता है सतोगुण अपेक्षतया कम प्रभावी होता है और तमोगुण लगभग शून्य होता है उसे ‘‘महर्लोक ‘‘ कहते हैं। मन का यह उच्च स्तर होता है इसलिए इसे ‘ अतिमानस ‘ भी कहते हैं। इस स्तर पर संस्कार अपनी प्रतिक्रिया को अनुभव करने के लिए पहला स्पन्दन पाते हैं। जैसे, मानलो कोई व्यक्ति उस स्थान पर जाना चाहता है जहाॅं बीमारी फैली हो तो कोई व्यक्ति उसके कान में आकर कह देगा कि वहाॅं जाने पर वह रोग तुम्हें भी हो सकता है और वहाॅं जाकर वह सचमुच उस बीमारी से ग्रस्त हो जाता है। परमपुरुष की साधना करने की तीब्र इच्छा भी इसी अतिमानस में जागती है। इसी क्षेत्र में आत्मा की प्रेरणा सबसे पहले सक्रिय होती है , यही कारण है कि इसी क्षेत्र में साधना करने की भिन्न भिन्न क्षमताएं और लोगों के वर्गीकरण का उद्गम होता है।
इन्दु- ये तो अब तक चार ही हुए, आगे के तीन और लोक या मानसिक स्तर कौन कौन से हैं?
बाबा- इसके आगे मन के और अधिक सूक्ष्म स्तर आते हैं। ‘जनर्लोक ‘ में सत्वगुण अधिक सक्रिय, रजोगुण अक्रिय और तमोगुण अल्प सक्रिय होता है। इसे विज्ञानमय कोश कहते हैं इसमें ही ज्ञान, कौशल और त्याग करने की भावनाऐं इकाई मन में आती हैं। कभी कभी भौतिकवादी लोगों के मन में भी यह भाव आते हैं परन्तु इनको भूः, भुवः आदि स्तर रुकावटें डालते हैं। इसके बाद आता है ‘तपर्लोक‘ जिसे हिरण्यमय कोश कहते हैं। यहाॅं सत्व गुण सबसे अधिक, रजोगुण कम और तमोगुण सबसे कम सक्रिय होता है। यहाॅं ज्ञान अव्यक्त स्तर पर होता है, इतना तक कि ‘मै ‘ की भावना भी नहीं प्रकट होती वह गुप्त रूपसे रहती है। इसके आगे होता है ‘सत्य‘ लोक जिसमें प्रकृति के तीनों गुण होते तो हैं परन्तु प्रकट नहीं होेते। यहाॅं पुरुष, प्रकृति के ऊपर प्रभावी हो जाता है। सत्य लोक निर्गुण ब्रह्म की अवस्था है। इस व्यक्त ब्रह्माॅंड में यही सात लोक होते हैं परन्तु सत्य लोक के अलावा वे सभी अपने अपने गुणों के अनुपात में परिवर्तन के अनुसार आभासित होते है।
No comments:
Post a Comment