114 बाबा की क्लास (तन्मात्राएं और ओंकार )
इन्दु- यह क्यों होता है कि एक ही व्यक्ति या वस्तु , अलग अलग स्थान या समय के अनुसार अच्छी या बुरी लगती है?
बाबा- इस संसार की प्रत्येक रचना प्रकृति ने अपने तीन गुणों सत, रज अैर तम से बनाई है इसलिये सभी में इन गुणों का समावेश होता है परन्तु विभिन्न अनुपात में। इसलिए किसी भी वस्तु या व्यक्ति में भले ही किसी भी गुण का आधिक्य हो उसे अन्य लोग, स्थान और समय के अनुसार भिन्न ही देखते और अनुभव करते हैं। यही कारण है कि संसार का एक ही पक्ष एक सी परिस्थितियों में किसी को अच्छा, किसी को बुरा और किसी को अप्रभावी अनुभव होता है।
रवि- क्या इस कथन को अधिक स्पष्ट कर सकते हैं?
बाबा- मानलो कोई सत्वगुण की प्रधानता वाला किसी स्थान पर मेजिस्ट्रेट है, तो उसे शाॅंतिप्रिय लोग पसंद करेंगे, दुष्ट लोगों को वह नापसंद होगा और वे जो उसकी अधिकार सीमा से बाहर होंगे उन लोगों को उससे कोई मतलब न होगा। सुन्दर स्त्री उसके पति के लिए प्रिय है सौत के लिए शत्रु और अन्य लोग उसके प्रति उदासीन होंगे। जो सात्विकी होगा उसे सभी में सात्विक गुण दिखाई देंगे और रजोगुणी और तमोगुणी को क्रमशः रजो और तमोगुणी। काशी में जाने पर सात्विकी व्यक्ति गंगा के किनारे सन्तों और साधुओं से मिलेगा, एक टूरिस्ट चारों ओर घूमकर कहेगा अन्य शहरों जैसा ही यह भी शहर है और धूर्त कहेगा अपने कामधंधे के लायक अच्छा है। एक ही शहर, अलग अलग स्वभाव के लोगों ने अलग अलग ढंग से देखा ।
राजू- तो हमें क्या करना चाहिए?
बाबा- हमें सदा ही अपने मन को जड़ता की ओर जाने से बचाना चाहिए क्योंकि उच्च स्तर की ओर उन्नत होने के लिए हमें उसके विरुद्ध ही संघर्ष करना पड़ता है। इसलिए यह ध्यान रखना चाहिए कि आन्तरिक रूप से अपनी उन्नति करने के लिए तमोगुणी जड़ता के साथ लगतार संघर्ष करने में सत्वगुण ही सहायक होता है। यदि सत्वगुण की सहायता नहीं ली गई तो जड़ता से बाहर आना असंभव हो जाएगा।
चन्दू- ये सत , रज और तमोगुण आदि नाम अनेक बार सुन चुका हॅूं लेकिन सही सही अभीतक नहीं समझ पाया ?
बाबा- वास्तव में प्रकृति जब अपने गुण , निर्गुण पुरुष में आरोपित करती है तो पुरुष सगुण कहलाते अर्थात् आकार ले लेते हैं । गुणों के आरोपण की क्रिया के समय पुरुष के सगुण रूप में अलौकिक, अभूतपूर्व और सम्मोहक कम्पन उत्पन्न होने लगते हैं। इन कम्पनों की विभिन्न तरंग लंबाइयाॅं जिन्हें तन्मात्राएं कहते हैं, हमें बाहरी संसार का आभास शब्द, स्पर्श, गंध, रंगरूप और रस के माध्यम से इन्द्रियों द्वारा कराती हैं। कम्पन का यह बल घटने के साथ जड़ता आती है अतः तमोगुण का रंग काला होता है। वास्तव में काला कोई रंग नहीं वह तो सभी रंगों की अनुपस्थिति को दर्शाता है। जहाॅं सभी रंग उपस्थित होते हैं वह सफेद रंग कहलाता है, सत्वगुण सफेद रंग को प्रदर्शित करता है। इस प्रकार के स्पंदनों में सबसे सूक्ष्म तन्मात्रा ध्वनि की होती है और कास्मिक माइंड के द्वारा जो ध्वनि अपने निर्गुण से सगुण अवस्था में रूपान्तरित होते समय उत्पन्न की जाती है उसे ही ओंकार ध्वनि कहते हैं।
रवि- ओंकार के बारे में और विस्तार से बताइए ?
बाबा- ओंकार के केन्द्र में ही ब्रह्माॅंड की सभी ध्वनियाॅं बीज रूप में रहती हैं। ओंकार ध्वनि कास्मिक माइंड से उत्पन्न होती है और उसी में मिल जाती है। इसीलिए ऋषिगण कहते हैं कि जो कोई भी उस परमसत्ता को पाना चाहते हैं उन्हें अपनी सभी प्रकार की ऊर्जाओं को ओंकार ध्वनि के साथ अनुनादित करना चाहिए जिससे वे उसके मूल श्रोत तक जा सकते हैं और परम सत्ता का साक्षात्कार कर सकते हैं। ओंकार का दूसरा नाम प्रणव भी है जिसका अर्थ है उत्साह पूर्वक उपासना। ओंकार ही वर्णमाला के सभी अक्षरों का उद्गम है और वही ब्रह्म को साक्षात् कराता है इसलिए शब्द को ही ब्रह्म कहा गया है। कहा गया है कि प्रणव को धनुष और इस जीवात्मा को तीर मानकर ब्रह्म रूपी लक्ष्य पर संधान करना चाहिए। इसलिए तमोगुण की मरीचिका में न भटकते हुए सत्वगुण के सूक्ष्म कम्पनों के सहारेे ओंकार से साम्य बैठाने का प्रयास करना चाहिए।
इन्दु- अनेक विद्वानों को हिंदी वर्णमाला का बड़ा ‘ऊॅं ‘ को ही ईश्वर बताया जाता है और ‘ओंम‘ इस प्रकार उच्चारित करना सिखाया जाता है, यह क्या वही है?
बाबा- अभी अभी बताया गया है कि ओंकार में सभी प्रकार की ध्वनियाॅं सम्मिलित हैं और हमारी श्रव्यसीमा में आने वाली सभी ध्वनियाॅं वर्णमाला के पचास अक्षरों के द्वारा प्रदर्शित की गई हैं। मनुष्य अपने गले से इन सभी पचास ध्वनियों को एकसाथ कैसे उत्पन्न कर सकता है? इसलिए ओंम ओंम चिल्लाने का कोई आध्यात्मिक लाभ नहीं है।
राजू- तो, यह जो ‘ऊॅं ‘ के सम्बंध में पूरा आध्यात्मिक साहित्य भरा पड़ा है वह व्यर्थ है?
बाबा- नहीं, सही सही समझ जाने पर ही उसका महत्व जाना जा सकता है अन्यथा सचमुच व्यर्थ है।
रवि- तो आप, हम लोगों को वही सब कुछ सही सही समझाइए न ?
बाबा-हमारे देश में स्वार्थी विद्वान अपने अपने मत को श्रेष्ठ बताते हुए कोई सगुण ब्रह्म की उपासना को महत्व देते हैं और कोई निर्गुण को । परन्तु ब्रह्म की मूल अवस्था तो अव्यक्त है उसे शब्दों में कोई बता ही नहीं सकता। परन्तु विद्यातन्त्र में सगुण और निर्गुण अवस्था को एक साथ प्रदर्शित करने के लिए ‘ऊॅं ‘ यह संकेताक्षर स्वीकृत किया गया है। यह ‘ अ ‘, ‘ उ ‘ और ‘ म ‘ इन तीन अक्षरों तथा चंद्र रेखा के साथ बिंदु के द्वारा व्यक्त किया गया है। ‘‘अ ‘‘ उत्पत्ति, ‘‘उ‘‘ पालन और ‘‘म‘‘ विनाश, को प्रकट करते हैं यही संयुक्त रूप में सगुण ब्रह्म का द्योतक है तथा चंद्र रेखा सगुण और निर्गुण के बीच की विभाजक सीमा को दर्शाती है और बिंदु निर्गुण ब्रह्म को।
चन्दू- जब ब्रह्म निर्गुण अर्थात् निराकार हैं तो फिर उन्हें बिन्दु का आकर देना भी किस प्रकार उचित है?
बाबा- अच्छा , बताओ गणित में बिन्दु की परिभाषा क्या है?
इन्दु- वह आकृति जिसकी स्थिति तो होती है परन्तु विमायें अर्थात् लम्बाई ,चैड़ाई, ऊंचाई या द्रव्यमान नहीं होता।
बाबा- हाॅं , यही कारण है कि निर्गुण ब्रह्म को सिद्धान्तः बिन्दु से दर्शाया गया है । उनका अस्तित्व है परन्तु उनका मापन किसी भी भौतिक साधन से नहीं किया जा सकता।
राजू- तो जो लोग ओंम ओंम जपते हैं उन्हें इसका कुछ लाभ होता है या नहीं?
बाबा- अभी बताया है न, कि ओंम पचास अक्षरों की सम्मिलित ध्वनि है जिसे कोई भी व्यक्ति अपने गले से उच्चारित नहीं कर सकता । इसलिए ओंम ओंम कहने का कोई लाभ नहीं होता। यह तो सृष्टि के निर्माण के समय उत्पन्न हुई ध्वनि है जो आज भी यथावत है उसे मन को एकाग्र कर अनुभव करना होता है और गुरु द्वारा बताये गए इष्ट मन्त्र के सहारे उसके उद्गम तक पहुंचने का प्रयत्न करना होता है इसीलिए ओंकार का महत्व है।
रवि- परन्तु कुछ विद्वान तो ब्रह्मा को उत्पत्तिकर्ता, विष्णु को पालनकर्ता और महेश को संहारकर्ता कहते हैं क्या यह गलत है?
बाबा- निर्गुण ब्रह्म जब अपने आपको प्रकृति के प्रभाव में लाकर अनेक रूप में प्रकट करते हैं तो वह ब्रह्म से ब्रह्मा कहलाते हैं क्योंकि ‘‘अ‘‘ निर्माण का बीज है। वही जब अपनी प्रत्येक रचना के प्रत्येक अणु और परमाणु में प्रवेश कर उसे पालन करते हैं तो विष्णु कहलाते हैं क्योंकि ‘‘उ‘‘ पालन का बीज मंत्र है और वही जब अपनी सभी रचनाओं को वापस अपने में ही लय कर लेते हैं अर्थात् मिला लेते हैं तब वे महेश कहलाते हैं क्योंकि ‘‘म‘‘ विनाश का बीज मंत्र है। प्रकृति के कार्य सिद्धान्त को समझाने के लिए ही उन्हें यह दार्शनिक नाम दिए गए हैं, इनका कोई पृथक आकार और अस्तित्व नहीं है।
इन्दु- यह क्यों होता है कि एक ही व्यक्ति या वस्तु , अलग अलग स्थान या समय के अनुसार अच्छी या बुरी लगती है?
बाबा- इस संसार की प्रत्येक रचना प्रकृति ने अपने तीन गुणों सत, रज अैर तम से बनाई है इसलिये सभी में इन गुणों का समावेश होता है परन्तु विभिन्न अनुपात में। इसलिए किसी भी वस्तु या व्यक्ति में भले ही किसी भी गुण का आधिक्य हो उसे अन्य लोग, स्थान और समय के अनुसार भिन्न ही देखते और अनुभव करते हैं। यही कारण है कि संसार का एक ही पक्ष एक सी परिस्थितियों में किसी को अच्छा, किसी को बुरा और किसी को अप्रभावी अनुभव होता है।
रवि- क्या इस कथन को अधिक स्पष्ट कर सकते हैं?
बाबा- मानलो कोई सत्वगुण की प्रधानता वाला किसी स्थान पर मेजिस्ट्रेट है, तो उसे शाॅंतिप्रिय लोग पसंद करेंगे, दुष्ट लोगों को वह नापसंद होगा और वे जो उसकी अधिकार सीमा से बाहर होंगे उन लोगों को उससे कोई मतलब न होगा। सुन्दर स्त्री उसके पति के लिए प्रिय है सौत के लिए शत्रु और अन्य लोग उसके प्रति उदासीन होंगे। जो सात्विकी होगा उसे सभी में सात्विक गुण दिखाई देंगे और रजोगुणी और तमोगुणी को क्रमशः रजो और तमोगुणी। काशी में जाने पर सात्विकी व्यक्ति गंगा के किनारे सन्तों और साधुओं से मिलेगा, एक टूरिस्ट चारों ओर घूमकर कहेगा अन्य शहरों जैसा ही यह भी शहर है और धूर्त कहेगा अपने कामधंधे के लायक अच्छा है। एक ही शहर, अलग अलग स्वभाव के लोगों ने अलग अलग ढंग से देखा ।
राजू- तो हमें क्या करना चाहिए?
बाबा- हमें सदा ही अपने मन को जड़ता की ओर जाने से बचाना चाहिए क्योंकि उच्च स्तर की ओर उन्नत होने के लिए हमें उसके विरुद्ध ही संघर्ष करना पड़ता है। इसलिए यह ध्यान रखना चाहिए कि आन्तरिक रूप से अपनी उन्नति करने के लिए तमोगुणी जड़ता के साथ लगतार संघर्ष करने में सत्वगुण ही सहायक होता है। यदि सत्वगुण की सहायता नहीं ली गई तो जड़ता से बाहर आना असंभव हो जाएगा।
चन्दू- ये सत , रज और तमोगुण आदि नाम अनेक बार सुन चुका हॅूं लेकिन सही सही अभीतक नहीं समझ पाया ?
बाबा- वास्तव में प्रकृति जब अपने गुण , निर्गुण पुरुष में आरोपित करती है तो पुरुष सगुण कहलाते अर्थात् आकार ले लेते हैं । गुणों के आरोपण की क्रिया के समय पुरुष के सगुण रूप में अलौकिक, अभूतपूर्व और सम्मोहक कम्पन उत्पन्न होने लगते हैं। इन कम्पनों की विभिन्न तरंग लंबाइयाॅं जिन्हें तन्मात्राएं कहते हैं, हमें बाहरी संसार का आभास शब्द, स्पर्श, गंध, रंगरूप और रस के माध्यम से इन्द्रियों द्वारा कराती हैं। कम्पन का यह बल घटने के साथ जड़ता आती है अतः तमोगुण का रंग काला होता है। वास्तव में काला कोई रंग नहीं वह तो सभी रंगों की अनुपस्थिति को दर्शाता है। जहाॅं सभी रंग उपस्थित होते हैं वह सफेद रंग कहलाता है, सत्वगुण सफेद रंग को प्रदर्शित करता है। इस प्रकार के स्पंदनों में सबसे सूक्ष्म तन्मात्रा ध्वनि की होती है और कास्मिक माइंड के द्वारा जो ध्वनि अपने निर्गुण से सगुण अवस्था में रूपान्तरित होते समय उत्पन्न की जाती है उसे ही ओंकार ध्वनि कहते हैं।
रवि- ओंकार के बारे में और विस्तार से बताइए ?
बाबा- ओंकार के केन्द्र में ही ब्रह्माॅंड की सभी ध्वनियाॅं बीज रूप में रहती हैं। ओंकार ध्वनि कास्मिक माइंड से उत्पन्न होती है और उसी में मिल जाती है। इसीलिए ऋषिगण कहते हैं कि जो कोई भी उस परमसत्ता को पाना चाहते हैं उन्हें अपनी सभी प्रकार की ऊर्जाओं को ओंकार ध्वनि के साथ अनुनादित करना चाहिए जिससे वे उसके मूल श्रोत तक जा सकते हैं और परम सत्ता का साक्षात्कार कर सकते हैं। ओंकार का दूसरा नाम प्रणव भी है जिसका अर्थ है उत्साह पूर्वक उपासना। ओंकार ही वर्णमाला के सभी अक्षरों का उद्गम है और वही ब्रह्म को साक्षात् कराता है इसलिए शब्द को ही ब्रह्म कहा गया है। कहा गया है कि प्रणव को धनुष और इस जीवात्मा को तीर मानकर ब्रह्म रूपी लक्ष्य पर संधान करना चाहिए। इसलिए तमोगुण की मरीचिका में न भटकते हुए सत्वगुण के सूक्ष्म कम्पनों के सहारेे ओंकार से साम्य बैठाने का प्रयास करना चाहिए।
इन्दु- अनेक विद्वानों को हिंदी वर्णमाला का बड़ा ‘ऊॅं ‘ को ही ईश्वर बताया जाता है और ‘ओंम‘ इस प्रकार उच्चारित करना सिखाया जाता है, यह क्या वही है?
बाबा- अभी अभी बताया गया है कि ओंकार में सभी प्रकार की ध्वनियाॅं सम्मिलित हैं और हमारी श्रव्यसीमा में आने वाली सभी ध्वनियाॅं वर्णमाला के पचास अक्षरों के द्वारा प्रदर्शित की गई हैं। मनुष्य अपने गले से इन सभी पचास ध्वनियों को एकसाथ कैसे उत्पन्न कर सकता है? इसलिए ओंम ओंम चिल्लाने का कोई आध्यात्मिक लाभ नहीं है।
राजू- तो, यह जो ‘ऊॅं ‘ के सम्बंध में पूरा आध्यात्मिक साहित्य भरा पड़ा है वह व्यर्थ है?
बाबा- नहीं, सही सही समझ जाने पर ही उसका महत्व जाना जा सकता है अन्यथा सचमुच व्यर्थ है।
रवि- तो आप, हम लोगों को वही सब कुछ सही सही समझाइए न ?
बाबा-हमारे देश में स्वार्थी विद्वान अपने अपने मत को श्रेष्ठ बताते हुए कोई सगुण ब्रह्म की उपासना को महत्व देते हैं और कोई निर्गुण को । परन्तु ब्रह्म की मूल अवस्था तो अव्यक्त है उसे शब्दों में कोई बता ही नहीं सकता। परन्तु विद्यातन्त्र में सगुण और निर्गुण अवस्था को एक साथ प्रदर्शित करने के लिए ‘ऊॅं ‘ यह संकेताक्षर स्वीकृत किया गया है। यह ‘ अ ‘, ‘ उ ‘ और ‘ म ‘ इन तीन अक्षरों तथा चंद्र रेखा के साथ बिंदु के द्वारा व्यक्त किया गया है। ‘‘अ ‘‘ उत्पत्ति, ‘‘उ‘‘ पालन और ‘‘म‘‘ विनाश, को प्रकट करते हैं यही संयुक्त रूप में सगुण ब्रह्म का द्योतक है तथा चंद्र रेखा सगुण और निर्गुण के बीच की विभाजक सीमा को दर्शाती है और बिंदु निर्गुण ब्रह्म को।
चन्दू- जब ब्रह्म निर्गुण अर्थात् निराकार हैं तो फिर उन्हें बिन्दु का आकर देना भी किस प्रकार उचित है?
बाबा- अच्छा , बताओ गणित में बिन्दु की परिभाषा क्या है?
इन्दु- वह आकृति जिसकी स्थिति तो होती है परन्तु विमायें अर्थात् लम्बाई ,चैड़ाई, ऊंचाई या द्रव्यमान नहीं होता।
बाबा- हाॅं , यही कारण है कि निर्गुण ब्रह्म को सिद्धान्तः बिन्दु से दर्शाया गया है । उनका अस्तित्व है परन्तु उनका मापन किसी भी भौतिक साधन से नहीं किया जा सकता।
राजू- तो जो लोग ओंम ओंम जपते हैं उन्हें इसका कुछ लाभ होता है या नहीं?
बाबा- अभी बताया है न, कि ओंम पचास अक्षरों की सम्मिलित ध्वनि है जिसे कोई भी व्यक्ति अपने गले से उच्चारित नहीं कर सकता । इसलिए ओंम ओंम कहने का कोई लाभ नहीं होता। यह तो सृष्टि के निर्माण के समय उत्पन्न हुई ध्वनि है जो आज भी यथावत है उसे मन को एकाग्र कर अनुभव करना होता है और गुरु द्वारा बताये गए इष्ट मन्त्र के सहारे उसके उद्गम तक पहुंचने का प्रयत्न करना होता है इसीलिए ओंकार का महत्व है।
रवि- परन्तु कुछ विद्वान तो ब्रह्मा को उत्पत्तिकर्ता, विष्णु को पालनकर्ता और महेश को संहारकर्ता कहते हैं क्या यह गलत है?
बाबा- निर्गुण ब्रह्म जब अपने आपको प्रकृति के प्रभाव में लाकर अनेक रूप में प्रकट करते हैं तो वह ब्रह्म से ब्रह्मा कहलाते हैं क्योंकि ‘‘अ‘‘ निर्माण का बीज है। वही जब अपनी प्रत्येक रचना के प्रत्येक अणु और परमाणु में प्रवेश कर उसे पालन करते हैं तो विष्णु कहलाते हैं क्योंकि ‘‘उ‘‘ पालन का बीज मंत्र है और वही जब अपनी सभी रचनाओं को वापस अपने में ही लय कर लेते हैं अर्थात् मिला लेते हैं तब वे महेश कहलाते हैं क्योंकि ‘‘म‘‘ विनाश का बीज मंत्र है। प्रकृति के कार्य सिद्धान्त को समझाने के लिए ही उन्हें यह दार्शनिक नाम दिए गए हैं, इनका कोई पृथक आकार और अस्तित्व नहीं है।
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