Friday 31 March 2017

115 शास्त्रार्थ

115  शास्त्रार्थ
---------------
दर्शनशात्रियों द्वारा ‘ मोक्ष के साधन ‘ विषय पर आयोजित एक सभा में देश विदेश के प्रकाण्ड विद्वानों ने तीन दिन तक अपने धुआँधार व्यख्यानों और वक्तृत्व कला से सबका मन मोह लिया। अन्त में निर्णायक मंडल के अध्यक्ष बोले,

‘‘ विद्वानो ! यद्यपि आप सबने अपने कौशल का प्रदर्शन दक्षता के साथ किया है परन्तु दुख है कि किसी की भी व्याख्या सर्वश्रेष्ठ घोषित करने योग्य नहीं पाई गई है । ‘‘

  जहाॅं रोज साधो ! साधो ! और वाह ! वाह ! की ध्वनियाॅं गूंजती थी वहाॅं अब श्मशान का सन्नाटा था। एक विद्वान से यह न सहा गया अतः अपने गंभीर स्वर से इसे भंग करते हुए बोल ही पड़े,

‘‘ इस पवित्र समारोह के समापन को घिनापन में क्यों बदल रहे हो ? यदि किसी एक विद्वान के पक्ष में निर्णय कर पाने में कठिनाई अनुभव करते हैं तो दो या तीन  विद्वानों को संयुक्त रूपसे श्रेष्ठ घोषित करने में क्या कष्ट है ?‘‘

 अध्यक्ष बोले,

‘‘ विद्वानो ! आपका मनोद्वेग उचित है, परन्तु अपके द्वारा प्रदर्शित किया गया ज्ञान उस काठ की हाॅंडी के समान है जो बच्चों के खेल में तो अनेक प्रकार से प्रयुक्त हो सकती है परन्तु व्यवहार में लाये जाने पर स्वयं नष्ट होती है, पकाये गए भोजन को नष्ट करती है और चूल्हे को भी बुझा देती है ।‘‘

इतना सुनकर कुछ विद्वान आगबबूला होते हुए बोले,

‘‘ तो आपके अनुसार क्या हमसब बज्रमूर्ख हैं ?‘‘

 ‘‘ नहीं । आपका ज्ञान और व्याख्यान कौशल, शास्त्रार्थ के लिए तो उचित है परन्तु प्रदत्त विषय  को व्यावहारिक रूपसे प्रकाशित नहीं कर पाता है।‘‘

No comments:

Post a Comment