Sunday 19 March 2017

113 बाबा की क्लास ( ओतयोग और प्रोतयोग)

113 बाबा की क्लास ( ओतयोग और प्रोतयोग) 
रवि- आपने अनेक बार ‘परम . मन अर्थात् कास्मिक माइन्ड‘ और ‘इकाई मन अर्थात् यूनिट माइन्ड‘ इन शब्दों का उपयोग किया है, इनमें संबंध है तो कैसा? और भिन्नता है तो किस प्रकार?
बाबा- निर्पेक्ष परमब्रह्म जब अपनी परमाप्रकृति के प्रभाव में आ जाते हैं तब उनकी चेतना के थोड़े से भाग में अस्तित्वबोध जागता है इसे ‘महततत्व‘ कहा जाता है, प्रकृति के और अधिक प्रभाव से महततत्व में कर्तापन का बोध जागता है इसे ‘अहमतत्व‘ कहते हैं और क्रियारत प्रकृति के अगले आघात से कृतित्वबोध आता है इसे ‘चित्त‘ कहते हैं। महततत्व, अहमतत्व और चित्त ये दार्शनिक नाम हैं और जहाॅं ये तीनों उपस्थित रहते हैं उसे कास्मिक माइन्ड या परम . मन कहते हैं। बृह्माण्ड की रचना प्रक्रिया में चित्त पर प्रकृति के तमोगुण के प्रभाव से जड़ ठोस पदार्थ जैसे गेलेक्सी, तारे और अन्य पिंड बनने लगते हैं। इस अवस्था में चित्त अपने भीतर समेटे महत और अहम तत्वों का सहयोग लेकर अपने घनत्व के बढ़ते क्रम में पाॅंच भागों में विभाजित हो जाता है जिन्हें क्रमशः हिरण्यमय , विज्ञानमय, अतिमानस, मनोमय और काममय कोश कहते हैं। इकाई सत्ता के लिए ये भौतिक परन्तु परमसत्ता के लिए यह मानसिक ही होते हैं। इस तरह हिरण्यमय कोश इकाई सत्ता और परमसत्ता का उभयनिष्ठ स्तर होता है उसके ऊपर से परमसत्ता अपना नियंत्रण स्थापित कर पाते हैं इसलिए सभी कुछ कास्मिक माइन्ड के भीतर ही होता है उसके बाहर कुछ नहीं है। परमसत्ता का काममय कोश पाॅंच मौलिक भौतिक घटकों द्वारा प्रदर्शित होता है जो कि इकाई सत्ता के भौतिक शरीर या अन्य पदार्थों के आकार में दिखाई देता है। इसे इकाई सत्ता का अन्नमय कोश कहा जाता है । कास्मिक माइंड की कल्पना का प्रवाह इकाई मन में वास्तविकता का बोध कराता है परन्तु इकाई मन का काममय कोश कल्पना कर वास्तविकता को निर्मित नहीं कर सकता। इकाई मन के काममय और मनोमय भाग क्रमशः स्थूल और सूक्ष्म मन कहलाते हैं और सैद्धान्तिक रूपसे अतिमानस, विज्ञानमय और हिरण्यमय कारण मन कहलाते हैं। इकाई सत्ता का अलग से कोई कारण मन नहीं होता यह केवल कास्मिक माइण्ड के लिये ही दार्शनिक नाम दिया गया है।

राजू- लेकिन असंख्य इकाई मनों और किसी विशेष इकाई मन पर, कास्मिक माइंड एक साथ नियंत्रण कर, किस प्रकार लेखा जोखा रख पाता है?
बाबा- कास्मिक माइंड जब किसी विशेष इकाई मन से जुड़ता है तो ओतयोग अर्थात् व्यष्टिभाव और सामूहिक मनों से जुड़ने के समय प्रोतयोग अर्थात् समष्टिभाव का सहारा लेता है और एक साथ सभी पर नियंत्रण और निर्देशन जारी रखता है।

नन्दू- जिन्हें स्थूल, सूक्ष्म और कारण मन कहा गया है क्या उन्हें आधुनिक मनोविज्ञान के कान्शस, सबकान्शस और अनकान्शस माइंड कहा जा सकता है?
बाबा- तारतम्यता सही नहीं है क्योंकि योगविज्ञान में कारण मन को भी अतिमानस, विज्ञानमय और हिरण्यमय में विभाजित किया गया है जो मनोविज्ञान के अनकान्शस माइंड से स्पष्ट नहीं होते ।

इन्दु- यदि इकाई मन की स्थूल, सूक्ष्म और कारण अवस्थाएं व्यष्टिभाव को प्रदर्शित करें तो यही अवस्थाएं समष्टिभाव में क्या कहलाएंगी?
बाबा-  ओत ओतयोग या व्यष्टिभाव में स्थूल, सूक्ष्म और कारण अवस्थाएं क्रमशः जागृत, स्वप्न और सुसुप्तावस्था कहलाती हैं जो समष्टिभाव या प्रोतयोग में क्रमशः क्षीरसागर, गर्भोदक और कारणार्णव कहलाती हैं।

चन्दू- ओतयोग और प्रोतयोग में इन तीनों अवस्थाओं में जो सत्ता साक्ष्य रूपमें या बीज रूपमें नियंत्रण करती है उन्हें क्या कहते हैं?
बाबा- ओतयोग की जागृत, स्वप्न और सुसुप्तावस्था में क्रमशः विश्व, तैजस और प्राज्ञ बीज रूप में रहते हैं तथा प्रोतयोग की क्षीरसागर, गर्भोदक और कारणार्णव अवस्था में क्रमशः विराट या वैश्वानर, हिरण्यगर्भ और ईश्वर या सूत्रेश्वर बीज रूप में रहते हैं।

इन्दु- ये सभी तो हिरण्यमय कोश तक ही सीमित हैं फिर सत्यलोक का औचित्य क्या है?
बाबा- हिरण्यमय कोश से ऊपर नियंत्रक सत्ता को पुरुषोत्तम कहते हैं । जिसे प्रोतयोग में तुरीयावस्था कहते हैं उसमें पूर्वोक्त ईश्वर भी ग्रस्त हो जाता है अतः वहाॅं बीज रूप में जो सत्ता होती है उसे ईश्वरग्रास कहते हैं । यहाॅं यह ध्यान रखना चाहिए कि कारण मन का अस्तित्व केवल दार्शनिक स्तर पर ही माना गया है इसलिए उसका स्तर ही सत्यलोक माना गया है। परमब्रह्म के सगुण रूप इस बह्माँड को पुरुषोत्तम ही नियंत्रित करते हैं, वही विभिन्न स्तरों पर दिये गए विभिन्न नामों से जाने जाते हैं और सबके साक्षीसत्ता हैं।

रवि- यूनिट माइंड और कास्मिक माइंड को यदि आधुनिक वैज्ञानिक भाषा में समझना हो तो किस प्रकार संभव है?
बाबा- यह तो स्पष्ट ही है कि दृश्य ब्रह्माॅंड में या तो पदार्थ है या ऊर्जा । वैज्ञानिक कहते हैं कि पदार्थ और कुछ नहीं यह ऊर्जा का ही सघन रूप है अर्थात् कन्डेस्ड फार्म आफ इनर्जी है। इतना ही नहीं वे यह भी कहते हैं कि इनर्जी अर्थात् ऊर्जा, आवृत्ति अर्थात् फ्रीक्वेसी की समानुपाती होती है । अब प्रश्न उठता है कि यह आवृत्ति कौन उत्पन्न करता है जिससे पदार्थ और यह ब्रह्माॅंड निर्मित होता है ? विज्ञान यह नहीं बता पाता, परन्तु तन्त्र विज्ञान के अनुसार यह कम्पन (या फ्रीक्वेंसी) कास्मिक माइन्ड में उत्पन्न होते हैं और इसी क्रम में इकाई संरचना के आकार लेते ही उसके संगत कम्पन समूह बनाकर अलग अलग अस्तित्व का अनुभव करने लगते हैं जिसे हम इकाई मन कहते हैं।

राजू- तो सब कुछ कास्मिक माइंड और असंख्य इकाई मनों के कम्पनों का खेल है यह पूरा संसार ?
बाबा- सही कहा। इकाई मन की मूल आवृत्ति को तन्त्र विज्ञान में बीज मंत्र कहा गया है  और जिसे साधना कहते हैं वह और कुछ नहीं इकाई मन की इस फंडामेंटल फ्रीक्वेसी को कास्मिक फ्रीक्वेंसी के साथ अनुनादित करना ही है। दूसरे शब्दों में इकाई मन की तरंग लम्बाई को कास्मिक माइंड की तरंग लम्बाई के समानान्तर करना।

इन्दु- परन्तु हम सबके इकाई मन तो अलग अलग हैं, उनकी अलग अलग फ्रक्विेसी भी होगी, इसे हम किस प्रकार जान सकते हैं ? कास्मिक माइंड की फ्रीक्वेंसी को जाने बिना हम अनुनाद  करने का अभ्यास कैसे कर सकते हैं ?
बाबा- यह कार्य महाकौल गुरु या उनके द्वारा पुरश्चरण की क्रिया में पारंगत किए गए कौल गुरु के द्वारा ही संभव होता है। कौल गुरु के पास यह सामथ्र्य होता है कि वह किसी अक्षर को शक्तिसम्पन्न कर मंत्र बना सकते हैं। पुरश्चरण के द्वारा वही सबकी अलग अलग फ्रीक्वेंसी को पहचान पाते हैं जो वह दीक्षा के समय दिये जाने वाले इष्टमंत्र में ही सम्मिलित कर देते हैं। वे ही कास्मिक फ्रीक्वेंसी अर्थात् ओंकार से परिचित कराते हैं और इससे अपनी आवृत्ति को अनुनादित करने की क्रिया भी सिखाते हैं । इसे सीख लेने पर ही विद्या तन्त्रदीक्षा पूरी होती है।

रवि- हमें महाकौल गुरु या कौल गुरु कहाॅं मिल सकते हैं ? उन्हें हम कैसे पहचानेंगे?
बाबा- मन में जिस क्षण परमपुरुष से मिलने की उत्कट इच्छा जागृत हो जाती है उपयुक्त गुरु स्वयं ही पास आकर तन्त्रदीक्षा देते हैं और अपनी देखरेख में अभ्यास कराते हैं । उन्हें ढूढ़ने के लिए कहीं नहीं जाना पड़ता, केवल उन्हें पाने की तीब्र इच्छा ही उनसे मिला देती है। उनकी सबसे बड़ी पहचान यह है कि वे वित्तहर्ता नहीं चित्तहर्ता होते हैं। वे सर्वज्ञाता होते हैं, अतः भाषाऐं उन्हें बाधक नहीं बनती। उनसे मिलकर लगता है अब और कुछ पाने की आवश्यकता नहीं है । जिन्हें महाकौल गुरु मिल गए उनका मानव जीवन और जन्म धन्य हो गया।

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