Sunday, 12 March 2017

112 बाबा की क्लास ( आधार और सप्तलोक - 2)

112 बाबा की क्लास ( आधार और सप्तलोक - 2)

रवि- क्या ये लोक या कोश या आधार होना अनिवार्य है?
बाबा- हर जीवधारी का आधार होना आवश्यक होता है अन्यथा वह अपने पृथक अस्तित्व का अनुभव नहीं कर सकेगा और इस ब्रह्माॅंड नामक महासागर में ही डूबा रहेगा। जैसे, मानलो किसी बर्तन में पानी भरकर किसी तालाब में डुबा दिया जाय तो जब तक बर्तन रहेगा बर्तन के भीतर पानी भी रहेगा परन्तु ज्योंही बर्तन नष्ट कर दिया जाता है, पानी तालाब में ही मिल जाता है। इसलिए उस पानी का आधार वह बर्तन है जो उसे अपने में समेटे हुए है । इसी प्रकार जीवात्मा का आधार समाप्त कर देने पर वह ब्रह्म में ही मिल जाता है।

राजू- यह आधार उत्पन्न करने में किसकी भूमिका प्रमुख होती है?
बाबा- हर जीव अपना भौतिक शरीर भूर्लाेक से पाता है, जहाॅं प्रकृति का तमोगुण अधिक  प्रभावी होता है, रजोगुण साधारण तथा सत्व गुण नगण्य प्रभावी होता है। चूंकि शरीर का पोषण अन्न से होता है अतः इस शरीर को ही अन्नमय कोश कहा जाता है।

चन्दु- तो इसमें काममय कोश कैसे बनता है?
बाबा- शरीर पर प्रकृति के तमोगुण के अधिक प्रभावी होने, रजोगुण के नगण्य होने और सत्वगुण के साधारण प्रभाव से मन बनता है जिसे अपरिपक्व मानसिक शरीर कहते हैं। इसे ही काममय कोश कहते हैं।

इन्दु- इसका अर्थ यह हुआ कि प्रकृति के तीनों गुणों में से जिसकी प्रधानता होती है उसी प्रकार कोश बनते जाते हैं?
बाबा- हाॅं, जैसे मनोमय कोश के बनने के लिए काममय कोश पर रजोगुण अधिक प्रभावी, तमोगुण साधारण और सत्वगुण नगण्य होता है। इसी प्रकार अतिमानस कोश के लिए रजोगुण अधिक प्रभावी, सत्वगुण साधारण और तमोगुण नगण्य प्रभावी होता है । यह दोनों कोश क्रमशः ब्रह्म के स्वर्लोक और महर्लोक से प्रभावित होते हैं।

नन्दू- विज्ञानमय और हिरण्यमय कोश के बनते समय क्या होता है?
बाबा-विज्ञानमय कोश में ही संस्कार संचित रहते हैं, यहाॅं प्रकृति का सत्वगुण प्रभावी, तमोगुण साधारण और रजोगुण नगण्य होता है । यह स्तर ब्रह्म के जनर्लोक से प्रभावित होता है । इसी प्रकार जब सत्वगुण अधिक प्रभावी, रजोगुण सामान्य और तमोगुण नगण्य होता है तब हिरण्यमय कोश बनता है और यह ब्रह्म के तपर्लोक से प्रभावित होता है। हिरण्यमय कोश मनुष्य शरीर की सूक्ष्मतम अवस्था है। हिरण्यमय का अर्थ है सुनहला। हिरण्यमय कोश के ऊपर सत्यलोक होता है जिसमें निर्पेक्ष परमसत्य के अलावा कुछ नहीं होता, यहाॅं द्वैत के होने का कोई कारण नहीं बचता। जीवात्मा अपने सूक्ष्मतम स्तर पर यहीं निवास करता है।

इन्दु- जब एक ही ब्रह्म पर प्रकृति के प्रभाव से सातों लोक बनते हैं तो उन्हीं में से एक भूर्लोक (अर्थात् ब्रह्म का सबसे अधिक अपरिपक्व प्रत्यक्षीकरण) के पांच  तत्वों को लेकर इकाई जीवात्मा अपना भौतिक देह ( अर्थात् अन्नमय कोश) किस प्रकार चुन पाता है ?
बाबा- यथार्थतः सभी कुछ एक ही सार्वभौमिक ब्रह्म ही है परन्तु ब्रहद् अहम् अर्थात् महततत्व के साथ जुड़े रहने के कारण जो परमात्मा कहलाता है वही छुद्र अहम् के साथ जुड़ने के कारण जीवात्मा कहलाता है। इस छुद्र अहम् के प्रभाव से बने संस्कारों के अनुकूल ही इकाई जीव  पंचभौतिक देह पाता है । अन्नमय कोश या भौतिक शरीर के द्वारा ही जीव बाहरी संसार की वस्तुओं से आनन्द का अनुभव करता है और नए नए संस्कार निर्मित करता है जिन्हें भोगने के लिए ही बार बार, नए नए शरीर पाता है। उसमें यह भिन्नता स्वगुणार्थ ही होती है, इस भिन्नता को दूर कर देने पर वह ब्रह्म में ही मिल जाता है।

राजू- इस भिन्नता को दूर कैसे किया जा सकता है?
बाबा- इसके लिए ही योगसाधना करना आवश्यक होता है, साधना वह उपाय है जिससे सत्य और असत्य में अन्तर का ज्ञान हो जाता है। ये सभी लोक और कोश परमसत्य नहीं हैं ये ब्रह्म का विकारात्मक अभिव्यक्तिकरण मात्र हैं।

इन्दु- विकारात्मक अभिव्यक्तिकरण का सरलीकरण कर दें तो अधिक लाभ होगा ?
बाबा- जैसे किसी नाटक में एक पात्र को राजसी वस्त्र पहनाकर राजा बना दिया जाता है, वहाॅं पूरे नाटक में वह राजा ही होता है, नाटक पूरा होने पर राजसी वस्त्र अलग कर दिए जाते हैं तब वह अपने मूल रूप में ही परिचय पाता है। इसी प्रकार परमात्मा के ऊपर लोकों या कोशों का जो विकार प्रकृति के द्वारा उन्हीं की आज्ञा से लपेट दिया जाता है इसके हट जाने पर वह नित्यसत्य नित्यशुद्ध परमात्मा ही बचते हैं।

चन्दू- तो सत्य और असत्य की पहचान क्या है?
बाबा- सत्य अपरिवर्तनशील होता है, यदि उसमें थोड़ी सी भी परिवर्तन होने की सम्भावना दिखाई देती है तो वह सत्य नहीं है। सत्य वर्तमान , भूत और भविष्य में अपरिवर्तित ही रहता है वह कभी भी बदलता नहीं है। वह टाइम, स्पेस और रूप या आकार के परे होता है, वह अपने खंडों में भी समान होता है उनमें कोई भिन्नता नहीं होती। केवल ब्रह्म ही सत्य है उसका विभाजन नहीं किया जा सकता , उसमें परिवर्तन किया जाना सम्भव नहीं है । इसका अर्थ यह नहीं है कि उनका व्यक्त ब्रह्मांड उनसे भिन्न है, वास्तव में उनके बाहर कुछ है ही नहीं , सभी कुछ उनके भीतर ही है । ब्रह्म अविभक्त और अनन्त हैं अतः जो कोई अपने को उनके बिलकुल समरूप कहता है तो वह भी उनके भीतर ही है बाहर नहीं हो सकता।

रवि- तो यह व्यक्त संसार लगातार परिवर्तित होते रहने के कारण असत्य है जैसा कि कुछ विद्वानों का कहना है ‘ जगत मिथ्या‘ ?
बाबा- नहीं, यहाॅं यह ध्यान रखने की बात है कि जो भी ‘टाइम, स्पेस और आकार‘ से बंधा हुआ है वह सापेक्षिक सत्य है। चंद्रमा और सूर्य दूर से देखने पर प्लेट जैसे दिखते हैं पर जैसे ही हम उनकी ओर स्पेस में जाते हैं उनका आकार बढ़ता जाता है । अतः किसी वस्तु का बड़ा या छोटा होना स्पेस या अवलोकनकर्ता से उसकी दूरी पर निर्भर करता है। इसलिए स्पेस और आकार परमसत्य नहीं हो सकते। ‘टाइम‘ के बारे में भी यही कहा जा सकता है। जैसे , सभी जानते हैं कि हम प्रकाश के कारण ही देख पाते हैं, अतः कोई एतिहासिक घटना मानलो महाभारत आज से 3315 वर्ष पहले घटित हुआ, अब यदि किसी तारे से जहाॅं महाभारत काल की प्रकाश तरंगे अभी पहुंचने में आठ सौ साल और लगेंगे तो वहाॅं से टेलिस्कोप से पृथ्वी को देखने पर अभी क्या दिखेगा? वहाॅं लगेगा कि महाभारत अभी हुआ ही नहीं, उसे तो आठ सौ वर्ष बाद होना है। स्पष्ट है कि किसी स्थान पर जो आज वर्तमान है वह कहीं पर भूतकाल था और कहीं पर भविष्य है। इसलिए समय, परम सत्य नहीं हो सकता । यही बात ध्वनि के लिये भी कही जा सकती है अतः स्पष्ट हुआ कि वह सभी जो टाइम स्पेस और आकार से अनुशासित होते हैं मिथ्या नहीं हैं वे सापेक्षिक सत्य हैं।

राजू-  यदि योगसाधना के द्वारा अतिमानस, विज्ञानमय और  हिरण्यमय को समाप्त करते हुए  कोई व्यक्ति सत्य लोक में जा पहुंचे तो उसका क्या होगा?
बाबा- वहाॅं पहुंचकर वह वर्तमान, भूत और भविष्य ही नहीं परमसत्य को भी जान लेगा। उसे कहीं पर भी असमांगता का अनुभव नहीं होगा। यह अलग बात है कि अपने आप को परमचेतना में स्थापित करना बहुत कठिन है। परन्तु एक बार उसमें स्थापित हो जाने पर उसे कहीं पर भी असमांगता का अनुभव नहीं होगा। साधना ही वह साधन है जिसके द्वारा मनुष्य अपने मन को समाप्त कर त्रिकाल दृष्टा बन सकता है। मन को नष्ट करना इसलिए आवश्यक है क्योंकि वह सापेक्षिक सत्य है और वह परमसत्य को अनुभव करने के रास्ते में रुकावट डालता है। मन और शरीर समय से बंधे हैं और समय क्रिया की गतिशीलता का मानसिक मापन है । इसलिए मन और शरीर के पीछे न भागकर उनकी देखरेख रखते हुए उनके ऊपर उठने के काम में लगे रहना ही बुद्धिमत्ता है । इसी के आधार पर ही उस सत्ता में स्थापित हुआ जा सकता है जो समय और स्पेस से ऊपर है।

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