Friday, 31 March 2017

116 लौकी

116  लौकी
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‘‘ अरे, सेठजी ! नमस्कार। अच्छा हुआ आप यहीं सब्जी बाजार में मिल गए, मैं तो आपके ही घर जा रहा था। समाचार यह है कि महाराज जी पधारे हैं, उनका कहना है कि इस एरिया में अहिंसा मंदिर का निर्माण कराना है जिसमें आपका सहयोग... ..।‘‘
‘‘ जी बिलकुल ! मेरी ओर से ग्यारह हजार , शाम को आपके पास पहुॅंचा दूॅंगा।‘‘
यह सुनकर, सब्जी का थैला टाॅंगे सेठजी के शिष्यनुमा नौकर से न रहा गया वह बोला,
‘‘सेठजी ! अभी आपने सब्जी की दूकान पर लौकी लेते समय लम्बी बहस के बाद, पूरे बाजार में बीस रुपये प्रति किलो रेट वाली लौकी पन्द्रह रुपये में खरीद कर ही साॅंस ली, जबकि इनके एक इशारे पर ग्यारह हजार रुपये दे दिए ?‘‘
‘‘ अरे तू नहीं समझेगा, पाॅंच रुपया अधिक देता तो वह पता नहीं उनका किस प्रकार दुरुपयोग करता , बीड़ी या शराब पीने में लगाता, परन्तु इस प्रकार बचाकर हमने मंदिर के काम में लगा दिया उससे तो सब लोगों का भला ही होगा ?‘‘
‘‘ पर आपने ही तो सिखाया है कि किसी को भी मन, कर्म और वचन से कष्ट पहॅंुचाना हिंसा कहलाती है। आपने उस किसान को आर्थिक नुकसान पहुॅंचाकर मानसिक कष्ट दिया जो लाभ के लिये नहीं अपनी आजीविका के लिए सब्जी बेचने बाजार में आया है। तो, इस प्रकार हिंसा करके जोड़ा गया धन अहिंसा मंदिर में लगाने पर क्या उसकी पवित्रता खंडित न होगी ? ‘‘
‘‘ अरे! प्रवचन न दे, चल आगे, अभी और बहुत कुछ खरीदना है, तू क्या यह नहीं जानता कि सब्जी उगाने से लेकर बेचने तक की क्रियाओं में किसानों के द्वारा कितने जीवों की हिंसा होती है ? तो क्या सब्जी भाजी खाना छोड़ देना चाहिए ? ‘‘
‘‘ वही तो मैं कह रहा हॅूं कि आप अहिंसा अहिंसा चिल्लाते हैं पर हिंसा से अर्जित भोजन करने से चूकते नहीं । आपकी कथनी और करनी में अन्तर क्यों है, मुझे आपके यहाॅं नौकरी नहीं करना। सम्हालो अपना थैला , मैं तो चला, इस माह के चार दिन का मेरा वेतन भी मेरी ओर से मंदिर को दे देना।‘‘

115 शास्त्रार्थ

115  शास्त्रार्थ
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दर्शनशात्रियों द्वारा ‘ मोक्ष के साधन ‘ विषय पर आयोजित एक सभा में देश विदेश के प्रकाण्ड विद्वानों ने तीन दिन तक अपने धुआँधार व्यख्यानों और वक्तृत्व कला से सबका मन मोह लिया। अन्त में निर्णायक मंडल के अध्यक्ष बोले,

‘‘ विद्वानो ! यद्यपि आप सबने अपने कौशल का प्रदर्शन दक्षता के साथ किया है परन्तु दुख है कि किसी की भी व्याख्या सर्वश्रेष्ठ घोषित करने योग्य नहीं पाई गई है । ‘‘

  जहाॅं रोज साधो ! साधो ! और वाह ! वाह ! की ध्वनियाॅं गूंजती थी वहाॅं अब श्मशान का सन्नाटा था। एक विद्वान से यह न सहा गया अतः अपने गंभीर स्वर से इसे भंग करते हुए बोल ही पड़े,

‘‘ इस पवित्र समारोह के समापन को घिनापन में क्यों बदल रहे हो ? यदि किसी एक विद्वान के पक्ष में निर्णय कर पाने में कठिनाई अनुभव करते हैं तो दो या तीन  विद्वानों को संयुक्त रूपसे श्रेष्ठ घोषित करने में क्या कष्ट है ?‘‘

 अध्यक्ष बोले,

‘‘ विद्वानो ! आपका मनोद्वेग उचित है, परन्तु अपके द्वारा प्रदर्शित किया गया ज्ञान उस काठ की हाॅंडी के समान है जो बच्चों के खेल में तो अनेक प्रकार से प्रयुक्त हो सकती है परन्तु व्यवहार में लाये जाने पर स्वयं नष्ट होती है, पकाये गए भोजन को नष्ट करती है और चूल्हे को भी बुझा देती है ।‘‘

इतना सुनकर कुछ विद्वान आगबबूला होते हुए बोले,

‘‘ तो आपके अनुसार क्या हमसब बज्रमूर्ख हैं ?‘‘

 ‘‘ नहीं । आपका ज्ञान और व्याख्यान कौशल, शास्त्रार्थ के लिए तो उचित है परन्तु प्रदत्त विषय  को व्यावहारिक रूपसे प्रकाशित नहीं कर पाता है।‘‘

Sunday, 26 March 2017

114 बाबा की क्लास (तन्मात्राएं और ओंकार )

114 बाबा की क्लास (तन्मात्राएं और ओंकार ) 

इन्दु- यह क्यों होता है कि एक ही व्यक्ति या वस्तु , अलग अलग स्थान या समय के अनुसार अच्छी या बुरी लगती है?
बाबा- इस संसार की प्रत्येक रचना प्रकृति ने अपने तीन गुणों सत, रज अैर तम से बनाई है इसलिये सभी में इन गुणों का समावेश होता है परन्तु विभिन्न अनुपात में। इसलिए किसी भी वस्तु या व्यक्ति में भले ही किसी भी गुण का आधिक्य हो उसे अन्य लोग, स्थान और समय के अनुसार भिन्न ही देखते और अनुभव करते हैं। यही कारण है कि संसार का एक ही पक्ष एक सी परिस्थितियों में किसी को अच्छा, किसी को बुरा और किसी को अप्रभावी अनुभव होता है।

रवि- क्या इस कथन को अधिक स्पष्ट कर सकते हैं?
बाबा- मानलो कोई सत्वगुण की प्रधानता वाला किसी स्थान पर मेजिस्ट्रेट है, तो उसे शाॅंतिप्रिय लोग पसंद करेंगे, दुष्ट लोगों को वह नापसंद होगा और वे जो उसकी अधिकार सीमा से बाहर होंगे उन लोगों को उससे कोई मतलब न होगा। सुन्दर स्त्री उसके पति के लिए प्रिय है सौत के लिए शत्रु और अन्य लोग उसके प्रति उदासीन होंगे। जो सात्विकी होगा उसे सभी में सात्विक गुण दिखाई देंगे और रजोगुणी और तमोगुणी को क्रमशः रजो और तमोगुणी। काशी में जाने पर सात्विकी व्यक्ति गंगा के किनारे सन्तों और साधुओं से मिलेगा, एक टूरिस्ट चारों ओर घूमकर कहेगा अन्य शहरों जैसा ही यह भी शहर है और धूर्त कहेगा अपने कामधंधे के लायक अच्छा है। एक ही शहर, अलग अलग स्वभाव के लोगों ने अलग अलग ढंग से देखा ।

राजू- तो हमें क्या करना चाहिए?
बाबा- हमें सदा ही अपने मन को जड़ता की ओर जाने से बचाना चाहिए क्योंकि उच्च स्तर की ओर उन्नत होने के लिए हमें उसके विरुद्ध ही संघर्ष करना पड़ता है। इसलिए यह ध्यान रखना चाहिए कि आन्तरिक रूप से अपनी उन्नति करने के लिए तमोगुणी जड़ता के साथ लगतार संघर्ष करने में सत्वगुण ही सहायक होता है। यदि सत्वगुण की सहायता नहीं ली गई तो जड़ता से बाहर आना असंभव हो जाएगा।

चन्दू- ये सत , रज और तमोगुण आदि नाम अनेक बार सुन चुका हॅूं लेकिन सही सही अभीतक नहीं समझ पाया ?
बाबा- वास्तव में प्रकृति जब अपने गुण , निर्गुण पुरुष में आरोपित करती है तो पुरुष सगुण कहलाते अर्थात् आकार ले लेते हैं । गुणों के आरोपण की क्रिया के समय पुरुष के सगुण रूप में अलौकिक, अभूतपूर्व और सम्मोहक कम्पन उत्पन्न होने लगते हैं। इन कम्पनों की विभिन्न तरंग लंबाइयाॅं जिन्हें तन्मात्राएं कहते हैं, हमें बाहरी संसार का आभास शब्द, स्पर्श, गंध, रंगरूप और रस के माध्यम से इन्द्रियों द्वारा कराती हैं। कम्पन का यह बल घटने के साथ जड़ता आती है अतः तमोगुण का रंग काला होता है। वास्तव में काला कोई रंग नहीं वह तो सभी रंगों की अनुपस्थिति को दर्शाता है। जहाॅं सभी रंग उपस्थित होते हैं वह सफेद रंग कहलाता है, सत्वगुण सफेद रंग को प्रदर्शित करता है। इस प्रकार के स्पंदनों में सबसे सूक्ष्म तन्मात्रा ध्वनि की होती है और कास्मिक माइंड के द्वारा जो ध्वनि अपने निर्गुण से सगुण अवस्था में रूपान्तरित होते समय उत्पन्न की जाती है उसे ही ओंकार ध्वनि कहते हैं।

रवि- ओंकार के बारे में और विस्तार से बताइए ?
बाबा- ओंकार के केन्द्र में ही ब्रह्माॅंड की सभी ध्वनियाॅं बीज रूप में रहती हैं। ओंकार ध्वनि कास्मिक माइंड  से उत्पन्न होती है और उसी में मिल जाती है। इसीलिए ऋषिगण कहते हैं कि जो कोई भी उस परमसत्ता को पाना चाहते हैं उन्हें अपनी सभी प्रकार की ऊर्जाओं को ओंकार ध्वनि के साथ अनुनादित करना चाहिए जिससे वे उसके मूल श्रोत तक जा सकते हैं और परम सत्ता का साक्षात्कार कर सकते हैं। ओंकार का दूसरा नाम प्रणव भी है जिसका अर्थ है उत्साह पूर्वक उपासना। ओंकार ही वर्णमाला के सभी अक्षरों का उद्गम है और वही ब्रह्म को साक्षात् कराता है इसलिए शब्द को ही ब्रह्म कहा गया है। कहा गया है कि प्रणव को धनुष और इस जीवात्मा को तीर मानकर ब्रह्म रूपी लक्ष्य पर संधान करना चाहिए। इसलिए तमोगुण की मरीचिका में न भटकते हुए सत्वगुण के सूक्ष्म कम्पनों के सहारेे ओंकार से साम्य बैठाने का प्रयास करना चाहिए।

इन्दु- अनेक विद्वानों को हिंदी वर्णमाला का बड़ा ‘ऊॅं ‘ को ही ईश्वर बताया जाता है और ‘ओंम‘ इस प्रकार उच्चारित करना सिखाया जाता है, यह क्या वही है?
बाबा- अभी अभी बताया गया है कि ओंकार में सभी प्रकार की ध्वनियाॅं सम्मिलित हैं और हमारी श्रव्यसीमा में आने वाली सभी ध्वनियाॅं वर्णमाला के पचास अक्षरों के द्वारा प्रदर्शित की गई हैं। मनुष्य अपने गले से इन सभी पचास ध्वनियों को एकसाथ कैसे उत्पन्न कर सकता है? इसलिए ओंम ओंम चिल्लाने का कोई आध्यात्मिक लाभ नहीं है।

राजू- तो, यह जो ‘ऊॅं ‘ के सम्बंध में पूरा आध्यात्मिक साहित्य भरा पड़ा है वह व्यर्थ है?
बाबा- नहीं, सही सही समझ जाने पर ही उसका महत्व जाना जा सकता है अन्यथा सचमुच व्यर्थ है।

रवि- तो आप, हम लोगों को वही सब कुछ सही सही समझाइए न ?
बाबा-हमारे देश में स्वार्थी विद्वान अपने अपने मत को श्रेष्ठ बताते हुए कोई सगुण ब्रह्म की उपासना को महत्व देते हैं और कोई निर्गुण को । परन्तु ब्रह्म की मूल अवस्था तो अव्यक्त है उसे शब्दों में कोई बता ही नहीं सकता। परन्तु विद्यातन्त्र में सगुण और निर्गुण अवस्था को एक साथ प्रदर्शित करने के लिए ‘ऊॅं ‘ यह संकेताक्षर स्वीकृत किया गया है। यह ‘ अ ‘, ‘ उ ‘ और ‘ म ‘ इन तीन अक्षरों तथा चंद्र रेखा के साथ बिंदु के द्वारा व्यक्त किया गया है। ‘‘अ ‘‘ उत्पत्ति, ‘‘उ‘‘ पालन और ‘‘म‘‘ विनाश, को प्रकट करते हैं यही संयुक्त रूप में सगुण ब्रह्म का द्योतक है तथा चंद्र रेखा सगुण और निर्गुण के बीच की विभाजक सीमा को दर्शाती है और बिंदु निर्गुण ब्रह्म को।

चन्दू- जब ब्रह्म निर्गुण अर्थात् निराकार हैं तो फिर उन्हें बिन्दु का आकर देना भी किस प्रकार उचित है?
बाबा- अच्छा , बताओ गणित में बिन्दु की परिभाषा क्या है?

इन्दु- वह आकृति जिसकी स्थिति तो होती है परन्तु विमायें अर्थात् लम्बाई ,चैड़ाई, ऊंचाई या द्रव्यमान नहीं होता।
बाबा- हाॅं , यही कारण है कि निर्गुण ब्रह्म को सिद्धान्तः बिन्दु से दर्शाया गया है । उनका अस्तित्व है परन्तु उनका मापन किसी भी भौतिक साधन से नहीं किया जा सकता।

राजू- तो जो लोग ओंम ओंम  जपते हैं उन्हें इसका कुछ लाभ होता है या नहीं?
बाबा- अभी बताया है न, कि ओंम पचास अक्षरों की सम्मिलित ध्वनि है जिसे कोई भी व्यक्ति अपने गले से उच्चारित नहीं कर सकता । इसलिए ओंम  ओंम कहने का कोई लाभ नहीं होता। यह तो सृष्टि के निर्माण के समय उत्पन्न हुई ध्वनि है जो आज भी यथावत है उसे मन को एकाग्र कर अनुभव करना होता है और गुरु द्वारा बताये गए इष्ट मन्त्र के सहारे उसके उद्गम तक पहुंचने का प्रयत्न करना होता है इसीलिए ओंकार का महत्व है।

रवि- परन्तु कुछ विद्वान तो ब्रह्मा को उत्पत्तिकर्ता, विष्णु को पालनकर्ता और महेश को संहारकर्ता कहते हैं क्या यह गलत है?
बाबा- निर्गुण ब्रह्म जब अपने आपको प्रकृति के प्रभाव में लाकर अनेक रूप में प्रकट करते हैं तो वह ब्रह्म से ब्रह्मा कहलाते हैं क्योंकि ‘‘अ‘‘ निर्माण का बीज है। वही जब अपनी प्रत्येक रचना के प्रत्येक अणु और परमाणु में प्रवेश कर उसे पालन करते हैं तो विष्णु कहलाते हैं क्योंकि ‘‘उ‘‘ पालन का बीज मंत्र है और वही जब अपनी सभी रचनाओं को वापस अपने में ही लय कर लेते हैं अर्थात् मिला लेते हैं तब वे महेश कहलाते हैं क्योंकि  ‘‘म‘‘ विनाश का बीज मंत्र है। प्रकृति के कार्य सिद्धान्त को समझाने के लिए ही उन्हें यह दार्शनिक नाम दिए गए हैं, इनका कोई पृथक आकार और अस्तित्व नहीं है।

Sunday, 19 March 2017

113 बाबा की क्लास ( ओतयोग और प्रोतयोग)

113 बाबा की क्लास ( ओतयोग और प्रोतयोग) 
रवि- आपने अनेक बार ‘परम . मन अर्थात् कास्मिक माइन्ड‘ और ‘इकाई मन अर्थात् यूनिट माइन्ड‘ इन शब्दों का उपयोग किया है, इनमें संबंध है तो कैसा? और भिन्नता है तो किस प्रकार?
बाबा- निर्पेक्ष परमब्रह्म जब अपनी परमाप्रकृति के प्रभाव में आ जाते हैं तब उनकी चेतना के थोड़े से भाग में अस्तित्वबोध जागता है इसे ‘महततत्व‘ कहा जाता है, प्रकृति के और अधिक प्रभाव से महततत्व में कर्तापन का बोध जागता है इसे ‘अहमतत्व‘ कहते हैं और क्रियारत प्रकृति के अगले आघात से कृतित्वबोध आता है इसे ‘चित्त‘ कहते हैं। महततत्व, अहमतत्व और चित्त ये दार्शनिक नाम हैं और जहाॅं ये तीनों उपस्थित रहते हैं उसे कास्मिक माइन्ड या परम . मन कहते हैं। बृह्माण्ड की रचना प्रक्रिया में चित्त पर प्रकृति के तमोगुण के प्रभाव से जड़ ठोस पदार्थ जैसे गेलेक्सी, तारे और अन्य पिंड बनने लगते हैं। इस अवस्था में चित्त अपने भीतर समेटे महत और अहम तत्वों का सहयोग लेकर अपने घनत्व के बढ़ते क्रम में पाॅंच भागों में विभाजित हो जाता है जिन्हें क्रमशः हिरण्यमय , विज्ञानमय, अतिमानस, मनोमय और काममय कोश कहते हैं। इकाई सत्ता के लिए ये भौतिक परन्तु परमसत्ता के लिए यह मानसिक ही होते हैं। इस तरह हिरण्यमय कोश इकाई सत्ता और परमसत्ता का उभयनिष्ठ स्तर होता है उसके ऊपर से परमसत्ता अपना नियंत्रण स्थापित कर पाते हैं इसलिए सभी कुछ कास्मिक माइन्ड के भीतर ही होता है उसके बाहर कुछ नहीं है। परमसत्ता का काममय कोश पाॅंच मौलिक भौतिक घटकों द्वारा प्रदर्शित होता है जो कि इकाई सत्ता के भौतिक शरीर या अन्य पदार्थों के आकार में दिखाई देता है। इसे इकाई सत्ता का अन्नमय कोश कहा जाता है । कास्मिक माइंड की कल्पना का प्रवाह इकाई मन में वास्तविकता का बोध कराता है परन्तु इकाई मन का काममय कोश कल्पना कर वास्तविकता को निर्मित नहीं कर सकता। इकाई मन के काममय और मनोमय भाग क्रमशः स्थूल और सूक्ष्म मन कहलाते हैं और सैद्धान्तिक रूपसे अतिमानस, विज्ञानमय और हिरण्यमय कारण मन कहलाते हैं। इकाई सत्ता का अलग से कोई कारण मन नहीं होता यह केवल कास्मिक माइण्ड के लिये ही दार्शनिक नाम दिया गया है।

राजू- लेकिन असंख्य इकाई मनों और किसी विशेष इकाई मन पर, कास्मिक माइंड एक साथ नियंत्रण कर, किस प्रकार लेखा जोखा रख पाता है?
बाबा- कास्मिक माइंड जब किसी विशेष इकाई मन से जुड़ता है तो ओतयोग अर्थात् व्यष्टिभाव और सामूहिक मनों से जुड़ने के समय प्रोतयोग अर्थात् समष्टिभाव का सहारा लेता है और एक साथ सभी पर नियंत्रण और निर्देशन जारी रखता है।

नन्दू- जिन्हें स्थूल, सूक्ष्म और कारण मन कहा गया है क्या उन्हें आधुनिक मनोविज्ञान के कान्शस, सबकान्शस और अनकान्शस माइंड कहा जा सकता है?
बाबा- तारतम्यता सही नहीं है क्योंकि योगविज्ञान में कारण मन को भी अतिमानस, विज्ञानमय और हिरण्यमय में विभाजित किया गया है जो मनोविज्ञान के अनकान्शस माइंड से स्पष्ट नहीं होते ।

इन्दु- यदि इकाई मन की स्थूल, सूक्ष्म और कारण अवस्थाएं व्यष्टिभाव को प्रदर्शित करें तो यही अवस्थाएं समष्टिभाव में क्या कहलाएंगी?
बाबा-  ओत ओतयोग या व्यष्टिभाव में स्थूल, सूक्ष्म और कारण अवस्थाएं क्रमशः जागृत, स्वप्न और सुसुप्तावस्था कहलाती हैं जो समष्टिभाव या प्रोतयोग में क्रमशः क्षीरसागर, गर्भोदक और कारणार्णव कहलाती हैं।

चन्दू- ओतयोग और प्रोतयोग में इन तीनों अवस्थाओं में जो सत्ता साक्ष्य रूपमें या बीज रूपमें नियंत्रण करती है उन्हें क्या कहते हैं?
बाबा- ओतयोग की जागृत, स्वप्न और सुसुप्तावस्था में क्रमशः विश्व, तैजस और प्राज्ञ बीज रूप में रहते हैं तथा प्रोतयोग की क्षीरसागर, गर्भोदक और कारणार्णव अवस्था में क्रमशः विराट या वैश्वानर, हिरण्यगर्भ और ईश्वर या सूत्रेश्वर बीज रूप में रहते हैं।

इन्दु- ये सभी तो हिरण्यमय कोश तक ही सीमित हैं फिर सत्यलोक का औचित्य क्या है?
बाबा- हिरण्यमय कोश से ऊपर नियंत्रक सत्ता को पुरुषोत्तम कहते हैं । जिसे प्रोतयोग में तुरीयावस्था कहते हैं उसमें पूर्वोक्त ईश्वर भी ग्रस्त हो जाता है अतः वहाॅं बीज रूप में जो सत्ता होती है उसे ईश्वरग्रास कहते हैं । यहाॅं यह ध्यान रखना चाहिए कि कारण मन का अस्तित्व केवल दार्शनिक स्तर पर ही माना गया है इसलिए उसका स्तर ही सत्यलोक माना गया है। परमब्रह्म के सगुण रूप इस बह्माँड को पुरुषोत्तम ही नियंत्रित करते हैं, वही विभिन्न स्तरों पर दिये गए विभिन्न नामों से जाने जाते हैं और सबके साक्षीसत्ता हैं।

रवि- यूनिट माइंड और कास्मिक माइंड को यदि आधुनिक वैज्ञानिक भाषा में समझना हो तो किस प्रकार संभव है?
बाबा- यह तो स्पष्ट ही है कि दृश्य ब्रह्माॅंड में या तो पदार्थ है या ऊर्जा । वैज्ञानिक कहते हैं कि पदार्थ और कुछ नहीं यह ऊर्जा का ही सघन रूप है अर्थात् कन्डेस्ड फार्म आफ इनर्जी है। इतना ही नहीं वे यह भी कहते हैं कि इनर्जी अर्थात् ऊर्जा, आवृत्ति अर्थात् फ्रीक्वेसी की समानुपाती होती है । अब प्रश्न उठता है कि यह आवृत्ति कौन उत्पन्न करता है जिससे पदार्थ और यह ब्रह्माॅंड निर्मित होता है ? विज्ञान यह नहीं बता पाता, परन्तु तन्त्र विज्ञान के अनुसार यह कम्पन (या फ्रीक्वेंसी) कास्मिक माइन्ड में उत्पन्न होते हैं और इसी क्रम में इकाई संरचना के आकार लेते ही उसके संगत कम्पन समूह बनाकर अलग अलग अस्तित्व का अनुभव करने लगते हैं जिसे हम इकाई मन कहते हैं।

राजू- तो सब कुछ कास्मिक माइंड और असंख्य इकाई मनों के कम्पनों का खेल है यह पूरा संसार ?
बाबा- सही कहा। इकाई मन की मूल आवृत्ति को तन्त्र विज्ञान में बीज मंत्र कहा गया है  और जिसे साधना कहते हैं वह और कुछ नहीं इकाई मन की इस फंडामेंटल फ्रीक्वेसी को कास्मिक फ्रीक्वेंसी के साथ अनुनादित करना ही है। दूसरे शब्दों में इकाई मन की तरंग लम्बाई को कास्मिक माइंड की तरंग लम्बाई के समानान्तर करना।

इन्दु- परन्तु हम सबके इकाई मन तो अलग अलग हैं, उनकी अलग अलग फ्रक्विेसी भी होगी, इसे हम किस प्रकार जान सकते हैं ? कास्मिक माइंड की फ्रीक्वेंसी को जाने बिना हम अनुनाद  करने का अभ्यास कैसे कर सकते हैं ?
बाबा- यह कार्य महाकौल गुरु या उनके द्वारा पुरश्चरण की क्रिया में पारंगत किए गए कौल गुरु के द्वारा ही संभव होता है। कौल गुरु के पास यह सामथ्र्य होता है कि वह किसी अक्षर को शक्तिसम्पन्न कर मंत्र बना सकते हैं। पुरश्चरण के द्वारा वही सबकी अलग अलग फ्रीक्वेंसी को पहचान पाते हैं जो वह दीक्षा के समय दिये जाने वाले इष्टमंत्र में ही सम्मिलित कर देते हैं। वे ही कास्मिक फ्रीक्वेंसी अर्थात् ओंकार से परिचित कराते हैं और इससे अपनी आवृत्ति को अनुनादित करने की क्रिया भी सिखाते हैं । इसे सीख लेने पर ही विद्या तन्त्रदीक्षा पूरी होती है।

रवि- हमें महाकौल गुरु या कौल गुरु कहाॅं मिल सकते हैं ? उन्हें हम कैसे पहचानेंगे?
बाबा- मन में जिस क्षण परमपुरुष से मिलने की उत्कट इच्छा जागृत हो जाती है उपयुक्त गुरु स्वयं ही पास आकर तन्त्रदीक्षा देते हैं और अपनी देखरेख में अभ्यास कराते हैं । उन्हें ढूढ़ने के लिए कहीं नहीं जाना पड़ता, केवल उन्हें पाने की तीब्र इच्छा ही उनसे मिला देती है। उनकी सबसे बड़ी पहचान यह है कि वे वित्तहर्ता नहीं चित्तहर्ता होते हैं। वे सर्वज्ञाता होते हैं, अतः भाषाऐं उन्हें बाधक नहीं बनती। उनसे मिलकर लगता है अब और कुछ पाने की आवश्यकता नहीं है । जिन्हें महाकौल गुरु मिल गए उनका मानव जीवन और जन्म धन्य हो गया।

Sunday, 12 March 2017

112 बाबा की क्लास ( आधार और सप्तलोक - 2)

112 बाबा की क्लास ( आधार और सप्तलोक - 2)

रवि- क्या ये लोक या कोश या आधार होना अनिवार्य है?
बाबा- हर जीवधारी का आधार होना आवश्यक होता है अन्यथा वह अपने पृथक अस्तित्व का अनुभव नहीं कर सकेगा और इस ब्रह्माॅंड नामक महासागर में ही डूबा रहेगा। जैसे, मानलो किसी बर्तन में पानी भरकर किसी तालाब में डुबा दिया जाय तो जब तक बर्तन रहेगा बर्तन के भीतर पानी भी रहेगा परन्तु ज्योंही बर्तन नष्ट कर दिया जाता है, पानी तालाब में ही मिल जाता है। इसलिए उस पानी का आधार वह बर्तन है जो उसे अपने में समेटे हुए है । इसी प्रकार जीवात्मा का आधार समाप्त कर देने पर वह ब्रह्म में ही मिल जाता है।

राजू- यह आधार उत्पन्न करने में किसकी भूमिका प्रमुख होती है?
बाबा- हर जीव अपना भौतिक शरीर भूर्लाेक से पाता है, जहाॅं प्रकृति का तमोगुण अधिक  प्रभावी होता है, रजोगुण साधारण तथा सत्व गुण नगण्य प्रभावी होता है। चूंकि शरीर का पोषण अन्न से होता है अतः इस शरीर को ही अन्नमय कोश कहा जाता है।

चन्दु- तो इसमें काममय कोश कैसे बनता है?
बाबा- शरीर पर प्रकृति के तमोगुण के अधिक प्रभावी होने, रजोगुण के नगण्य होने और सत्वगुण के साधारण प्रभाव से मन बनता है जिसे अपरिपक्व मानसिक शरीर कहते हैं। इसे ही काममय कोश कहते हैं।

इन्दु- इसका अर्थ यह हुआ कि प्रकृति के तीनों गुणों में से जिसकी प्रधानता होती है उसी प्रकार कोश बनते जाते हैं?
बाबा- हाॅं, जैसे मनोमय कोश के बनने के लिए काममय कोश पर रजोगुण अधिक प्रभावी, तमोगुण साधारण और सत्वगुण नगण्य होता है। इसी प्रकार अतिमानस कोश के लिए रजोगुण अधिक प्रभावी, सत्वगुण साधारण और तमोगुण नगण्य प्रभावी होता है । यह दोनों कोश क्रमशः ब्रह्म के स्वर्लोक और महर्लोक से प्रभावित होते हैं।

नन्दू- विज्ञानमय और हिरण्यमय कोश के बनते समय क्या होता है?
बाबा-विज्ञानमय कोश में ही संस्कार संचित रहते हैं, यहाॅं प्रकृति का सत्वगुण प्रभावी, तमोगुण साधारण और रजोगुण नगण्य होता है । यह स्तर ब्रह्म के जनर्लोक से प्रभावित होता है । इसी प्रकार जब सत्वगुण अधिक प्रभावी, रजोगुण सामान्य और तमोगुण नगण्य होता है तब हिरण्यमय कोश बनता है और यह ब्रह्म के तपर्लोक से प्रभावित होता है। हिरण्यमय कोश मनुष्य शरीर की सूक्ष्मतम अवस्था है। हिरण्यमय का अर्थ है सुनहला। हिरण्यमय कोश के ऊपर सत्यलोक होता है जिसमें निर्पेक्ष परमसत्य के अलावा कुछ नहीं होता, यहाॅं द्वैत के होने का कोई कारण नहीं बचता। जीवात्मा अपने सूक्ष्मतम स्तर पर यहीं निवास करता है।

इन्दु- जब एक ही ब्रह्म पर प्रकृति के प्रभाव से सातों लोक बनते हैं तो उन्हीं में से एक भूर्लोक (अर्थात् ब्रह्म का सबसे अधिक अपरिपक्व प्रत्यक्षीकरण) के पांच  तत्वों को लेकर इकाई जीवात्मा अपना भौतिक देह ( अर्थात् अन्नमय कोश) किस प्रकार चुन पाता है ?
बाबा- यथार्थतः सभी कुछ एक ही सार्वभौमिक ब्रह्म ही है परन्तु ब्रहद् अहम् अर्थात् महततत्व के साथ जुड़े रहने के कारण जो परमात्मा कहलाता है वही छुद्र अहम् के साथ जुड़ने के कारण जीवात्मा कहलाता है। इस छुद्र अहम् के प्रभाव से बने संस्कारों के अनुकूल ही इकाई जीव  पंचभौतिक देह पाता है । अन्नमय कोश या भौतिक शरीर के द्वारा ही जीव बाहरी संसार की वस्तुओं से आनन्द का अनुभव करता है और नए नए संस्कार निर्मित करता है जिन्हें भोगने के लिए ही बार बार, नए नए शरीर पाता है। उसमें यह भिन्नता स्वगुणार्थ ही होती है, इस भिन्नता को दूर कर देने पर वह ब्रह्म में ही मिल जाता है।

राजू- इस भिन्नता को दूर कैसे किया जा सकता है?
बाबा- इसके लिए ही योगसाधना करना आवश्यक होता है, साधना वह उपाय है जिससे सत्य और असत्य में अन्तर का ज्ञान हो जाता है। ये सभी लोक और कोश परमसत्य नहीं हैं ये ब्रह्म का विकारात्मक अभिव्यक्तिकरण मात्र हैं।

इन्दु- विकारात्मक अभिव्यक्तिकरण का सरलीकरण कर दें तो अधिक लाभ होगा ?
बाबा- जैसे किसी नाटक में एक पात्र को राजसी वस्त्र पहनाकर राजा बना दिया जाता है, वहाॅं पूरे नाटक में वह राजा ही होता है, नाटक पूरा होने पर राजसी वस्त्र अलग कर दिए जाते हैं तब वह अपने मूल रूप में ही परिचय पाता है। इसी प्रकार परमात्मा के ऊपर लोकों या कोशों का जो विकार प्रकृति के द्वारा उन्हीं की आज्ञा से लपेट दिया जाता है इसके हट जाने पर वह नित्यसत्य नित्यशुद्ध परमात्मा ही बचते हैं।

चन्दू- तो सत्य और असत्य की पहचान क्या है?
बाबा- सत्य अपरिवर्तनशील होता है, यदि उसमें थोड़ी सी भी परिवर्तन होने की सम्भावना दिखाई देती है तो वह सत्य नहीं है। सत्य वर्तमान , भूत और भविष्य में अपरिवर्तित ही रहता है वह कभी भी बदलता नहीं है। वह टाइम, स्पेस और रूप या आकार के परे होता है, वह अपने खंडों में भी समान होता है उनमें कोई भिन्नता नहीं होती। केवल ब्रह्म ही सत्य है उसका विभाजन नहीं किया जा सकता , उसमें परिवर्तन किया जाना सम्भव नहीं है । इसका अर्थ यह नहीं है कि उनका व्यक्त ब्रह्मांड उनसे भिन्न है, वास्तव में उनके बाहर कुछ है ही नहीं , सभी कुछ उनके भीतर ही है । ब्रह्म अविभक्त और अनन्त हैं अतः जो कोई अपने को उनके बिलकुल समरूप कहता है तो वह भी उनके भीतर ही है बाहर नहीं हो सकता।

रवि- तो यह व्यक्त संसार लगातार परिवर्तित होते रहने के कारण असत्य है जैसा कि कुछ विद्वानों का कहना है ‘ जगत मिथ्या‘ ?
बाबा- नहीं, यहाॅं यह ध्यान रखने की बात है कि जो भी ‘टाइम, स्पेस और आकार‘ से बंधा हुआ है वह सापेक्षिक सत्य है। चंद्रमा और सूर्य दूर से देखने पर प्लेट जैसे दिखते हैं पर जैसे ही हम उनकी ओर स्पेस में जाते हैं उनका आकार बढ़ता जाता है । अतः किसी वस्तु का बड़ा या छोटा होना स्पेस या अवलोकनकर्ता से उसकी दूरी पर निर्भर करता है। इसलिए स्पेस और आकार परमसत्य नहीं हो सकते। ‘टाइम‘ के बारे में भी यही कहा जा सकता है। जैसे , सभी जानते हैं कि हम प्रकाश के कारण ही देख पाते हैं, अतः कोई एतिहासिक घटना मानलो महाभारत आज से 3315 वर्ष पहले घटित हुआ, अब यदि किसी तारे से जहाॅं महाभारत काल की प्रकाश तरंगे अभी पहुंचने में आठ सौ साल और लगेंगे तो वहाॅं से टेलिस्कोप से पृथ्वी को देखने पर अभी क्या दिखेगा? वहाॅं लगेगा कि महाभारत अभी हुआ ही नहीं, उसे तो आठ सौ वर्ष बाद होना है। स्पष्ट है कि किसी स्थान पर जो आज वर्तमान है वह कहीं पर भूतकाल था और कहीं पर भविष्य है। इसलिए समय, परम सत्य नहीं हो सकता । यही बात ध्वनि के लिये भी कही जा सकती है अतः स्पष्ट हुआ कि वह सभी जो टाइम स्पेस और आकार से अनुशासित होते हैं मिथ्या नहीं हैं वे सापेक्षिक सत्य हैं।

राजू-  यदि योगसाधना के द्वारा अतिमानस, विज्ञानमय और  हिरण्यमय को समाप्त करते हुए  कोई व्यक्ति सत्य लोक में जा पहुंचे तो उसका क्या होगा?
बाबा- वहाॅं पहुंचकर वह वर्तमान, भूत और भविष्य ही नहीं परमसत्य को भी जान लेगा। उसे कहीं पर भी असमांगता का अनुभव नहीं होगा। यह अलग बात है कि अपने आप को परमचेतना में स्थापित करना बहुत कठिन है। परन्तु एक बार उसमें स्थापित हो जाने पर उसे कहीं पर भी असमांगता का अनुभव नहीं होगा। साधना ही वह साधन है जिसके द्वारा मनुष्य अपने मन को समाप्त कर त्रिकाल दृष्टा बन सकता है। मन को नष्ट करना इसलिए आवश्यक है क्योंकि वह सापेक्षिक सत्य है और वह परमसत्य को अनुभव करने के रास्ते में रुकावट डालता है। मन और शरीर समय से बंधे हैं और समय क्रिया की गतिशीलता का मानसिक मापन है । इसलिए मन और शरीर के पीछे न भागकर उनकी देखरेख रखते हुए उनके ऊपर उठने के काम में लगे रहना ही बुद्धिमत्ता है । इसी के आधार पर ही उस सत्ता में स्थापित हुआ जा सकता है जो समय और स्पेस से ऊपर है।

Sunday, 5 March 2017

111 बाबा की क्लास ( आधार और सप्त लोक )

111  बाबा की क्लास ( आधार और सप्त लोक )

राजू-  बाबा ! आपने अनेक कठिन तथ्यों को सरल कर समझाया है पर मेरे मन में अभी भी यह बात समझ में नहीं आई कि परमपुरुष की साधना के लिए आधार किसे बनाया जाय ?
बाबा- साधना का प्रारंभ और अन्त एक ही बिन्दु पर टिका होता है, वह है आधार की शुद्धता और पवित्रता। यह आधार ही जीवों के अभावों और दुखों का कारण बनता है। यदि आधार द्रढ़ है तो अभावों और कष्टों का अस्तित्व ही नहीं रहता। एक बात यह भी है कि आधार प्रत्येक सीमित विषय या वस्तु के लिये अपरिहार्य होता है उसी के अनुसार ही हम एक दूसरे को पहचान पाते हैं।

रवि- परन्तु कोई भी वस्तु यह आधार कहाॅं से और कैसे पाती है ?
बाबा- किन्हीं भी दो जीवों का एक समान आधार नहीं होता, अपना अस्तित्व बनाए रखने के लिए वे अपने अपने संस्कारों के अनुसार , परमसत्ता के परम मन से ही विशिष्ट आधार पाते हैं। इसे ही काया या शरीर कहते हैं।

इन्दु- कैसे ?
बाबा- संस्कृत में ‘काया‘ शब्द का अर्थ है ‘चयन‘ अर्थात् चुनना। परमब्रह्म केे मानसिक शरीर से सभी जीव अपना अपना आधार काट लेते हैं इसलिये सभी जीव उनकी  मानस संतानें हैं। परमपुरुष के ऊपर प्रकृति के अत्यधिक प्रभाव पड़ने से उनका मानसिक शरीर बनता है इसीलिए जीवों की भौतिक देह प्रकृति की ही रचना है अतः उन्हें प्रकृति के नियमों से बंधे रहना होता है जबकि अनन्त परमपुरुष को भौतिक देह की आवश्यकता नहीं होती, उनकी केवल मानसिक देह होती है। जिनका अस्तित्व सीमित है अर्थात् अनन्त नहीं हैं उन्हें ही भौतिक देह की आवश्यकता होती है।

चन्दू- तो परमपुरुष को यह कौन अनुभव कराता है कि वह हैं, या करते हैं, या कोई विषय हैं?
बाबा- प्रकृति के तीन गुण सत्व, रज और तम होते हैं। इन तीनों के संयुक्त प्रभाव से परम मन में यह सभी अनुभव होते हैं। यदि इन तीन में से कोई भी अक्रिय होता है तो परम मन में किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं होता। सच्चाई यही है कि प्रकृति अपने को मिटा कर परमपुरुष में लगातार बदलती जा रही है जिसका प्रमाण यही है कि ये तीनों  गुण पूरे ब्रह्माॅंड को चला रहे हैं।

रवि- लेकिन कुछ विद्वानों ने तो ब्रह्माॅंड के सात लोकों की चर्चा की है, क्या वे अलग हैं ?
बाबा- वास्तव में ये सब मन की अपरिपक्वावस्था से सूक्ष्मता के क्रम में अलग अलग स्थितियाॅं ही हैं जिन्हें क्रमशः भूः , भुवः, स्वः, महः, जनः, तपः और सत्यम लोक कहा जाता है।  परम मन के जिस भाग में प्रकृति के तमोगुण का अधिक प्रभाव होता है, रजोगुण का सामान्य और सतोगुण अप्रभावी होता है उसे संस्कृत में ‘ भूर्लोक ‘ कहा जाता है। दूसरे जिस भाग पर तमोगुण तो प्रभावी होता है पर रजोगुण नगण्य और सत्वगुण सामान्य होता है उसे ‘भुवर्लोक‘ कहते हैं। इसमें ही इकाई मन, भौतिक देह को संकल्प विकल्प, भूख प्यास, सोने और जागने तथा अनेक अन्य प्रकार के स्पंदनों के अनुभव करने में लगाए रहता है। यहाॅं इकाई मन की सबसे अपरिपक्व अवस्था होती है जिसे कामदेह या काममय कोश कहते हैं। परम मन की कोई पंचभौतिक देह नहीं होती पर वह अपने द्वारा कल्पित इसी भुवर्लोक में मानसिक रूपसे यह सभी अनुभव करता हैे।

राजू- स्वर्लोक का क्या अर्थ है और वह कहाॅं होता है?
बाबा- मनोमय संसार को ही ‘‘स्वर्लोक‘‘ कहते हैं यहाॅं इकाई मन सुख दुख का अनुभव करता है। संस्कृत में स्वर्लोक और स्वर्गलोक समानार्थी हैं। कुछ लोगों की धारणा होती है कि वे अच्छे कार्य इसलिये करते हैं ताकि मरने के बाद वे स्वर्ग का सुख पाएं। इस मनोमय संसार में रजोगुण अल्प मात्रा में होता है और संस्कारों का निर्माण भी इसी में होता है। क्रिश्चियन, इस्लाम, जैन और कर्मकांडी हिंदुओं का यह विश्वास है कि अच्छे कर्मोका फल स्वर्ग में मिलता है।  जबकि, यह हमारा ही मनोमय कोष होता है स्वर्ग का कहीं अलग से अस्तित्व नहीं होता।

चन्दू- इसके आगे क्या होता है?
बाबा- मन का वह स्तर जहाॅं रजोगुण अधिक प्रभावी होता है सतोगुण अपेक्षतया कम प्रभावी होता है और तमोगुण लगभग शून्य होता है उसे ‘‘महर्लोक ‘‘ कहते हैं। मन का यह उच्च स्तर होता है इसलिए इसे  ‘ अतिमानस ‘ भी कहते हैं। इस स्तर पर संस्कार अपनी प्रतिक्रिया को अनुभव करने के लिए पहला स्पन्दन पाते हैं। जैसे, मानलो कोई व्यक्ति उस स्थान पर जाना चाहता है जहाॅं बीमारी फैली हो तो कोई व्यक्ति उसके कान में आकर कह देगा कि वहाॅं जाने पर वह रोग तुम्हें भी हो सकता है और वहाॅं जाकर वह सचमुच उस बीमारी से ग्रस्त हो जाता है। परमपुरुष की साधना करने की तीब्र इच्छा भी इसी अतिमानस में जागती है। इसी क्षेत्र में आत्मा की प्रेरणा सबसे पहले सक्रिय होती है , यही कारण है कि इसी क्षेत्र में साधना करने की भिन्न भिन्न क्षमताएं और लोगों के वर्गीकरण का उद्गम होता है।

इन्दु-  ये तो अब तक चार ही हुए, आगे के तीन और लोक या मानसिक स्तर कौन कौन से हैं?
बाबा- इसके आगे मन के और अधिक सूक्ष्म स्तर आते हैं। ‘जनर्लोक ‘ में सत्वगुण अधिक सक्रिय, रजोगुण अक्रिय और तमोगुण अल्प सक्रिय होता है। इसे विज्ञानमय कोश कहते हैं इसमें ही ज्ञान, कौशल और त्याग करने की भावनाऐं इकाई मन में आती हैं। कभी कभी भौतिकवादी लोगों के मन में भी यह भाव आते हैं परन्तु इनको भूः, भुवः आदि स्तर रुकावटें डालते हैं। इसके बाद आता है ‘तपर्लोक‘ जिसे हिरण्यमय कोश कहते हैं। यहाॅं सत्व गुण सबसे अधिक, रजोगुण कम और तमोगुण सबसे कम सक्रिय होता है। यहाॅं ज्ञान अव्यक्त स्तर पर होता है, इतना तक कि ‘मै ‘ की भावना भी नहीं प्रकट होती वह गुप्त रूपसे रहती है। इसके आगे होता है ‘सत्य‘ लोक जिसमें प्रकृति के तीनों गुण होते तो हैं परन्तु प्रकट नहीं होेते। यहाॅं पुरुष, प्रकृति के ऊपर प्रभावी हो जाता है। सत्य लोक निर्गुण ब्रह्म की अवस्था है। इस व्यक्त ब्रह्माॅंड में यही सात लोक होते हैं परन्तु सत्य लोक के अलावा वे सभी अपने अपने गुणों के अनुपात में परिवर्तन के अनुसार आभासित होते है।