Sunday, 30 July 2017

141 बाबा की क्लास ( माइक्रोवाइटम या अणुजीवत् -4, माइक्रोवाइटा और गंध)


 141 बाबा की क्लास ( माइक्रोवाइटम या अणुजीवत् -4, माइक्रोवाइटा और गंध)

रवि- आपने बताया है कि माइक्रोवाइटा तन्मात्राओं के माध्यम से गति करते हैं ?
बाबा- हाॅं,   तन्मात्रा जितनी सूक्ष्म होती है वह सुगंध को उतनी ही सरलता से ले  जा सकती है। परंतु यदि अपक्व अर्थात् क्रूड, तन्मात्रा किसी सूक्ष्म के साथ मिल जाती है तो वह धनात्मक माइक्रोवाइटा वाहित करने के लिये अच्छा साधन बन जाती है और यदि वह क्रूड के साथ सम्बद्ध हो जाती है तो ऋणात्मक माइक्रोवाइटा को ले जाने का साधन बन जाती हैं। इसलिये बुद्धिमान व्यक्ति को चाहिये कि क्रूड विचारों को त्यागकर सूक्ष्म विचारों का साथ करे ।

राजू- तो क्या गंध तन्मात्रा के आधार पर किसी के आध्यात्मिक स्तर को जाना जा सकता है?
बाबा- हाॅं, किसी सीमा तक ही इसे माना जा सकता है । जैसे, उचित साधना करने वालों और बहुत अधिक कीर्तन करने वालों के अनाहत, विशुद्ध और आज्ञा चक्रों से चमेली, जूही या पके हुए कटहल जैसी सुगंध आती है। वास्तव में ईश्वर  के प्रति कोई कितना भक्तिभाव रखता है इसी मधुर सुगंध से जाना जाता है। जब कोई एकान्त में बैठ कर ईश्वर  की उपस्थिति का अनुभव करने का प्रयास करता है वह हलकी मधुर सुगंध का अनुभव करता है, यह और कुछ नहीं नाक की नोक पर स्रावित होकर  संचित सुगंधित द्रव्य के अलावा कुछ नहीं । यद्यपि यह अनुभव केवल मनोवैज्ञानिक ही है पर इसे ईश्वर  की कृपा के अलावा और क्या कहा जा सकता है।

नन्दू- परन्तु सुगंध कहो या दुर्गंध, पक्षियों और अन्य प्राणियों के शरीर से भी निकलती है?
बाबा- कुछ जीवों और पक्षियों के शरीर से भी चावल जैसी सुगंध आती है जबकि कोबरा के शरीर से तिक्त गंध आती है। जो लोग बहुत जल्दी गुस्से में आ जाते हैं उनके शरीर से भी तिक्त गंध आती है, कभी कभी उनके शरीर से भी इसी प्रकार की गंध आती है जो बहुत साहसी होते हैं। यदि ये साहसी लोग धार्मिक और सद् गुणी  होते हैं तो उनके शरीर से गेंदे जैसी सुगंध आती हैं, पर यदि वे सदगुणी  नहीं होते तो उनके शरीर से वर्षाऋतु में फुहार पड़ने पर मिट्टी की गंध की तरह गंध निकलती है। कोबरा जब बहुत उम्र के हो जाते हैं तो उनके शरीर से धूप में सुखाये चावलों जैसी गंध आती है।

चन्दू- तन्मात्राओं विशेषतः ‘गंध‘ का अनुभव सभी को एक समान होता है या भिन्न?
बाबा- सुगंध तन्मात्रा की प्रकृति कैसी भी क्यों न हो व्यक्ति अपनी नासिका में घाण ग्रहण करने की तन्त्रिकाओं की शक्ति के अनुसार उन्हें ग्रहण करता है और अपने अपने संस्कारों के अनुसार अनुभव करता है। मुश्क  हिरण ठंडे देशों  में पाया जाता है और कुरूप होता है पर उसकी ग्रंथियों से हारमोन निकलकर नाभि के पास जमा हो जाते हैं जो जितने सूखकर ठोस होते जाते हैं उतने ही सुगंध विखेरते हैं। मादा हिरण में यह नहीं होता है।

इन्दु- लेकिन मनुष्य की घ्राण शक्ति तो सीमित होती है?
बाबा- हाॅं, मनुष्येतर अनेक प्राणियों में मनुष्य की तुलना में गंध पहचानने की अधिक क्षमता पाई जाती है जैसे कुत्ता, शेर, भेड़िया, मक्खियाॅं। वास्तव में प्रत्येक अप्रिय गंध ऋणात्मक और प्रिय गंध धनात्मक माइक्रोवाइटा से उत्पन्न होती है और वह भी सूंघने वाले की सूंघने की शक्ति और संस्कारों पर सापेक्षिक रूप से निर्भर करती है।

रवि- आपके अनुसार किन मनुष्यों को आध्यात्मिक सुगंध का अनुभव होता है?
बाबा- वे जो संयोजन का पथ अपनाते हैं आध्यात्मिक सुगंध अवश्य  ही अनुभव करते हैं यह सुगंध संसार की किसी भी सुगंध से मेल नहीं खाती हाॅं, हम यह कह सकते हैं कि लगभग चंपा से या चमेली से या रातरानी जैसी लगती है। पर यह याद रखना चाहिये कि आध्यात्मिक साधना परमपुरुष को पाने के लिये की जाती है सुगंध के लिये नहीं।

इन्दु- क्या एक ही व्यक्ति के शरीर से दो प्रकार की गंध निकल सकती है ?
बाबा- सभी वस्तुओं में चाहे वे सजीव हों या निर्जीव उनमें संयुक्त और व्यक्तिगत गंध होती है। व्यक्तिगत गंध संबंधित के संस्कारों, भोजन, और भौतिक मनोआत्मिक अभ्यास पर निर्भर होती है। मानव शरीर के सूक्ष्म भाग से जो गंध निकलती है वह क्रूड भाग से निकलने वाले भाग से भिन्न होती है। ऋणात्मक माइक्रोवाइटा मानव शरीर और मन में गंध ,ध्वनि, स्पर्श  ,रूप और स्वाद के आधार पर बीमारियाॅं फैलाते हैं। कंजंक्टिवाइटिस, कोलेरा, स्मालपाक्स और इनफ्लुऐंजा आदि बीमारियाॅं ऋणात्मक माइक्रोवाइटा से ही फैलती हैं। स्मरण रहे ऋणात्मक माइक्रोवाइटा गंध तन्मात्रा को और धनात्मक माइक्रोवाइटा ध्वनि तन्मात्रा को अपने वाहन के रूप में प्राथमिकता देते हैं।

Thursday, 27 July 2017

140 अग्रदूतों को सदा ही विरोध सहना पड़ता है।

140 अग्रदूतों को सदा ही विरोध सहना पड़ता है।
वेदों को एक दूसरे से सुनकर ही याद रखना होता था इसीलिए वे श्रुति कहलाते हैं। प्रारम्भ में लिपि का ज्ञान नहीं था इसलिए ऐसा किया जाना ठीक था परन्तु जब लिपि का ज्ञान हो चुका तो, फिर भी अनेक शताब्दियों तक लिखने पर पाबंदी रही। डर डर कर, छिप छिपकर ऋषि अथर्वा और उनके साथियों ने उन्हें लिखने का कार्य किया । हजारों साल पुराना यह सामाजिक दोषपूर्ण सोच आज से चार सौ पचास साल पहले तक भी जोर पकड़े रहा जब धार्मिक साहित्य को बंगाली में अनुवादित करने का कष्टसाध्य कार्य तत्कालीन विद्वानों ने करना चाहा। नबाब हुसैन शाह व्यक्तिगत रूप से बंगाली को विकसित करने में लग गए। उनके ही सहयोग से कृत्तिवास ओझा ने रामायण का , काशीराम दास ने महाभारत और मालधर वसु ने भागवत को संस्कृत से बंगाली में अनुवाद किया। इससे विद्वानों में जोश उमड़ा और उन्होंने हुसैन शाह को हिन्दु धर्म में तोड़फोड़ करने वाला घोषित कर दिया क्योंकि वे मानते थे कि पवित्र धार्मिक साहित्य को बंगाली में अनुवाद करने से हिन्दु धर्म दूषित हो जाएगा। मालधर वसु को तो परिवर्तित मुसलमान होने का कलंक भी झेलना पड़ा । लोग उन्हें गुणरंजन खान कहने लगे थे। कृत्तिवास ओझा से तो विद्वान इतने चिढ़ गए थे कि उन्हें अपवित्रीकरण का दोषी घोषित कर जाति से पृथक कर दिया गया था। इतना ही नहीं लगभग इसी काल में गोस्वामी तुलसीदास को भी अपने रामचरितमानस को स्थानीय अवधि और बृज भाषाओं में लिखने पर तत्कालीन संस्कृत के विद्वानों की ओर से अपार विरोध का सामना करना पड़ा था।

139 औषधीय पौधे और उनका उपयोग

139 औषधीय पौधे और उनका उपयोग

चंद्रमा का प्रकाश सूर्य के प्रकाश की तरह औषधि नहीं है परन्तु वह मन में विभिन्न प्रकार की भावनाओं को जन्म देता है। चंद्रमा के प्रकाश में एक महत्वपूर्ण बात यह भी है कि औषधीय जड़ीबूटियों और पौधों में औषधीय गुणों का संचार उसके प्रकाश की तीब्रता के अनुसार आता है अर्थात् कृष्ण पक्ष या शुक्ल पक्ष के अनुसार। यही कारण है कि उन पौधों को उखाड़ने और उनसे औषधियाॅं बनाते समय विशेष नियमों का पालन करना पड़ता है। उनमें औषधीय गुणों का परिवर्तन दिन के विभिन्न प्रहरों के अनुसार होता रहता है इसका भी औषधि का प्रयोग करने के समय मन में विचार रखना होता है। जिन औषधियों के गुण चाॅंद्र दिन या ग्रहीय स्थिति के कारण परिवर्तित होते हैं वे ‘‘कुल्या‘‘ कहलाते हैं। प्राचीन काल से ही मनुष्य केवल जड़ी बूटियों के पदार्थों से औषधियों का निर्माण नहीं करते थे वरन् प्राणियों से भी उनका प्रचुर निर्माण किया जाता था। आयुर्वेदिक, वैद्यक और यूनानी पद्धतियों में प्राणियों के लिवर, तीतर का मास आदि  प्रयुक्त होता रहा है। बकरे के मास और उसके सींग से निकाले गए तेल से औषधियों का निर्माण होता है। विभिन्न प्राणियों के लिवर और पेंक्रियाज से एलोपैथी विधियों से भी दवायें बनायी जाती हैं। वर्तमान में इन्सुलिन बनाने में उनका उपयोग होता है। काडलिवर आइल और शार्कआइल बहुत बार प्रयोग में लाया जाता है। इनसे टेबलेट ही नहीं इंजेक्शन भी बनाए जाते हैं। होमियोपैथी की ‘नाज‘ ‘चिना‘ और ‘एपिस‘ दवाएं पूर्णतः प्राणियों से ही बनाई जाती हैं। मनुष्य की जान बचाने के लिए प्राणियों की हत्या की जाना उचित नहीं माना जा सकता परन्तु इसे तभी किया जाना चाहिए जब कोई अन्य विकल्प न हो।  यह सार्वभौतिक स्वीकृत सिद्धान्त है कि  जब प्राणियों को मार कर ही औषधि बनाया जाना हो तो जहाॅं तक संभव हो उन प्राणियों को मारा जाना चाहिए जो मानव के जन्मजात शत्रु हैं, परन्तु मानव के मित्र प्राणियों को नहीं मारा जाना चहिए।

Sunday, 23 July 2017

138 बाबा की क्लास ( माइक्रोवाइटम या अणुजीवत् -3, कुछ अन्य गुण )

138 बाबा की क्लास ( माइक्रोवाइटम या अणुजीवत् -3, कुछ अन्य गुण )

राजू- तो माइक्रोवाइटा को हम अपना मित्र मानें या शत्रु?
बाबा- वास्तव में माइक्रोवाइटा न तो मनुष्य के मित्र होते हैं और न ही शत्रु। उनकी मित्रता या शत्रुता इस
 बात पर निर्भर करती है कि वे किस प्रकृति के मनुष्यों द्वारा नियंत्रित किये जा रहे हैं।  कुछ माइक्रोवाइटा आकाश , कुछ मानसिक, और कुछ अतिमानसिक स्पेस को ग्रहण कर सकते हैं , वे आध्यात्मिक क्षेत्र को प्रभावित नहीं कर सकते पर भौतिक और मानसिक क्षेत्र को प्रभावित करते हैं।  माइक्रोवाइटा रात को अधिक सक्रिय होते हैं जब मनुष्य सो जाते हैं।

रवि-   माइक्रोवाइटा अपना प्रभाव डालते समय नर और मादा शरीरों का भेद रखते हैं या नहीं?
बाबा-  नर और मादा शरीरों में माइक्रोवाइटा की संख्या और प्रकार भिन्न भिन्न होते हैं, इसीलिये उनकी
शारीरिक संरचना भिन्न होती है। वे लड़के, लड़कियाॅं जिनके शरीर में अभी शुक्राणुओं का निर्माण प्रारंभ नहीं हुआ है वे किसी भी प्रकार के माइक्रोवाइटा के आघात को नहीं सह सकते। परंतु  जिनके शरीर में टेस्टिस ग्रंथियाॅं सक्रिय हो चुकी हैं माइक्रोवाइटा उन्हें नुकसान नहीं पहुंचा पाते। वे  यदि परमपुरुष को संतुष्ठ करते हैं अर्थात् उनकी ओर जाने का प्रयास करते हैं तो उनकी कृपा भी उन पर होती है। मनुष्य की शक्ति परमपुरुष से बहुत कम होती है।

नन्दू- माइक्रोवाइटा की रचना के संबंध में कुछ बताइए?
बाबा- माइक्रोवाइटा सबसे छोटी संरचना हैं अतः परमाणु या सोलर सिस्टम की तरह उनकी संरचना नहीं है। चूंकि वे इकाई अस्तित्व हैं उन्हें संरचना की कोई आवश्यकता  नहीं। प्रकृति के अनुसार वे ‘पदार्थ‘ की अपेक्षा ‘ऊर्जा‘ अधिक हैं, यही कारण है कि वे तन्मात्राओं के माध्यम से गति कर सकते हैं जबकि अन्य कोई नहीं। मनुष्यों का मन एक्टोप्लाज्म का बना होता है पर इसमें गति आती है माइक्रोवाइटा की गति के कारण और माइक्रोवाइटा गति करते हैं वृत्तीय गति में, परमसत्ता के निर्देश  पर ।

इन्दु- तो फिर धनात्मक और ऋणात्मक माइक्रोवाइटा किस प्रकार अलग हैं?
बाबा- धनात्मक माइक्रोवाइटा पदार्थ की अपेक्षा एक्टोप्लाज्म अधिक हैं और ऋणात्मक माइक्रोवाइटा मन और एक्टोप्लाज्म की अपेक्षा अधिक पदार्थ हैं। धनात्मक माइक्रोवाइटा एक्टोप्लाज्मिक होने के कारण पहले मानसिक स्तर पर क्रियाशील होते हैं फिर भौतिक पदार्थ की ओर आते हैं जबकि ऋणात्मक माइक्रोवाइटा पदार्थ पर पहले सक्रिय होते हैं और फिर मन और एक्टोप्लाज्म और एन्डोप्लाज्म की ओर।

चन्दू- अपनी भिन्नता के कारण यह माइक्रोवाइटा मानव शरीर को किस प्रकार प्रभावित करते हैं?
बाबा- यदि किसी के शरीर में एक साथ अधिक संख्या में ऋणात्मक माइक्रोवाइटा प्रवेश  कर जायें  तो वह तत्काल मर जायेगा। जिन महिलाओं के मन अत्यधिक संवेदनशील होते हैं वे ऋणात्मक या धनात्मक किसी भी प्रकार के माइक्रोवाइटा को सहन नहीं कर सकतीं अतः उनकी तत्काल मृत्यु हो जायेगी। मासाहारी शरीर भी धनात्मक माइक्रोवाइटा प्राप्त नहीं कर सकता। माइक्रोवाइटा ग्रंथियों को सीधे प्रभावित करते हैं अतः हारमोन्स और स्मृति को भी प्रभावित करते हैं।

राजू- मानव शरीर को प्रभावित करने के लिए इनके क्षेत्र निर्धारित हैं या नहीं?
बाबा- आज्ञा चक्र धनात्मक माइक्रोवाइटा के लिये सबसे उच्च बिंदु  है यदि वे उससे आगे बढ़ा दिये जाते हैं तो इसे गुरुकृपा कहते हैं और जब उन्हें आज्ञाचक्र से सहस्त्रार तक लाया जाता है तो इसे परमपुरुष या गुरु की करुणा कहते हैं। बिना कृपा के करुणा नहीं होती अतः सभी को उनकी कृपा की चाह रखना चाहिये रुष्टि अथवा ऋणात्मक माइक्रोवाइटा की नहीं।

रवि- मानलो किसी का शरीर ऋणात्मक माइक्रोवाइटा की चपेट में आ गया तो उन्हें नियंत्रित कैसे किया जा सकता है?
बाबा- ऋणात्मक माइक्रोवाइटा को धनात्मक माइक्रोवाइटा से ही नियंत्रित किया जा सकता है।  मानलो कोई ऋणात्मक माइक्रोवाइटा से होने वाली बीमारी पीलिया से ग्रस्त है तो यदि रोगी के द्वारा उचित तरीके से ध्यान किया जाता है तो बीमारी जल्दी ठीक हो जायेगी। पेट के केंसर रोग के लिये इसके साथ कुछ भोजन संबंधित नियम दृढ़ता से पालन करना होंगे और पेट में दर्द होने पर ध्यान में बैठने के पहले थोड़ा सा मीठा फलों का रस पीना चाहिये और ध्यान की समाप्ति पर पहले से भिन्न प्रकार का मीठा रस पीने पर दर्द ठीक हो जायेगा। खट्टा रस नहीं पीना चाहिये। मरीज को गैस बनाने वाले पदार्थ जैसे पापड़ गोभी आदि से परहेज करना चाहिये।

राजू- क्या इसका अर्थ यह है कि धनात्मक माइक्रोवाइटा असाध्य रोगों को दूर कर सकते हैं, अतः वे शारीरिक रूप से स्थायी विकृतियों को भी दूर कर सकते हैं?
बाबा- यदि सदगुरु अर्थात् महाकौल गुरु कुछ कह रहे हैं और कोई गूंगा और बहरा उसे सुनना चाहे तो उसे उनकी वराभय मुद्रा पर गहराई से ध्यान केन्द्रित करना चहिये इससे धनात्मक माइक्रोवाइटा का सीधा प्रभाव होगा और उसे सुनाई देने लगेगा। वराभय मुद्रा से माइक्रोवाइटा उत्सर्जित होते हैं यह आन्तरिक रहस्य है। धनात्मक माइक्रोवाइटा यदि आज्ञा चक्र के आगे तेज गति करने लगता है तो आध्यात्मिक प्रगति तेज हो जाती है चाहे नर हो या नारी, परंतु उसे शाकाहारी होना चाहिये। माइक्रोवाइटा से ग्लेंड और उपग्लेंड, चक्र, नाभिक और नर्वसैल सभी प्रभावित होते हैं अतः उनसे काया का रूपान्तरण भी किया जा सकता है।

नन्दू- इनका निर्माता घटक क्या हो सकता है?
बाबा- यदि कोई कहे कि परमाणु , पदार्थ का निर्माता घटक है तो इसी प्रकार कहा जा सकता है कि विचार, माइक्रोवाइटम का निर्माता घटक है। इसलिये माइक्रोवाइटा पदार्थ की प्रारंभिक अवस्था हैं और पदार्थ और विचार के बीच चमकदार रेखा हैं भले ही वे पदार्थ की अपेक्षा विचारों की वास्तविकता के अधिक निकट होते हैं।

चन्दू- माइक्रोवाइटा किसी के विचारों को किस प्रकार प्रभावित करते हैं?
बाबा- माइक्रोवाइटा सभी ,उन्नत अथवा अनुन्नत, जीवों पर अपना प्रभाव समान रूप से डालते हैं। धनात्मक माइक्रोवाइटा जीवन के सभी क्षेत्रों में सफलता लाने के विचार पैदा करता है जबकि ऋणात्मक माइक्रोवाइटा स्वार्थी विचार भरता है। ऋणात्मक माइक्रोवाइटा भौतिक धन संपत्ति और सुख सुविधाओं की चाह जगाते हैं। साॅंसारिक राजनैतिक आर्थिक और सामाजिक बंधनों से मुक्ति के विचार ऋणात्मक माइक्रोवाइटा से और समग्र मुक्ति के विचार धनात्मक माइक्रोवाइटा से आते हैं। ऋणात्मक माइक्रोवाइटा से प्रेरित  होकर कोई अन्याय को सहता है और धनात्मक माइक्रोवाइटा से प्रेरित होकर अन्याय नहीं सहता है। इंद्रियों की सीमा से परे किसी को मान्यता न देने की मानसिकता ऋणात्मक और किसी क्षणिक और निर्पेक्ष गति को न मानने की मानसिकता धनात्मक माइक्रोवाइटा से आती है और यह संस्कार वृत्तियाॅं स्वधिष्ठान चक्र से संबंधित होती हैं। जब किसी के आज्ञा चक्र पर धनात्मक माइक्रोवाइटा से ऋणात्मक माइक्रोवाइटा का प्रभाव अधिक क्रियारत हो जाता है तो उसे मानसिक बीमारियाॅं घेर लेती हैं। इसे दूर करने का उपाय केवल आध्यात्म साधना ही है । जो आध्यात्मिक साधना करते हैं वे मानसिक बीमारियों से मुक्त रहते हैं।

रवि- माइक्रोवाइटा का पर्यावरण और स्पेस पर क्या प्रभाव पड़ता है?
बाबा- दोनों प्रकार के माइक्रोवाइटा ब्रह्मांड में संतुलन बनाये रखते हैं पर जब ऋणात्मकों का संयुक्त प्रभाव धनात्मकों से अधिक हो जाता है तो समाज में अराजकता और अनैतिकता बढ़ती है और धानात्मकों का संयुक्त प्रभाव बढ़ जाने पर धार्मिक उन्नति होती है। इसलिये कुछ अच्छा और प्रभावी काम करने के लिये धनात्मक माइक्रोवाइटा को उत्साहपूर्वक संग्रहित करने का उपाय करना होगा।

Sunday, 16 July 2017

137 बाबा की क्लास ( माइक्रोवाइटम या अणुजीवत् -2 , मन पर प्रभाव )

137 बाबा की क्लास ( माइक्रोवाइटम या अणुजीवत् -2 , मन पर प्रभाव )

राजू- विभिन्न प्रकार के माइक्रोवाइटा क्या एक ही प्रकार का कार्य करते  हैं?
बाबा-  तीन प्रकार के माइक्रोवाइटा में से जो सबसे कम सूक्ष्म होते हैं वे पूरे ब्रह्माॅंड में जीवन के बीज वाहक का कार्य करते हैं। अलग अलग स्तरों पर संघर्ष के कारण भौतिक संरचना में परिवर्तन होते हैं और विभिन्न प्रकार के जीव जन्तु और मनुष्य पैदा होते हैं। सूक्ष्म माइक्रोवाइटा की एक श्रेणी आभासी संसार में तन्मात्राओं के द्वारा क्रियाशील होती है और दूसरी सीधे ही मानव मन पर प्रभाव डालती है।

रवि-  मानव मन को प्रभावित करने वाले माइक्रोवाइटा कौन हैं और वे कैसे कार्य करते हैं?
बाबा- जो व्यक्ति अधिक से अधिक धन संग्रह करने की इच्छा रखते हैं ,वे यक्ष माइक्रोवाइटा के प्रभाव में होते हैं । वे इस मानसिक बीमारी से इतने  ग्रस्त हो जाते हैं कि धन संग्रह ही उनके जीवन का लक्ष्य बन जाता हैं। जब कोई व्यक्ति बिना किसी आदर्श  के धन संग्रह करने को अपना लक्ष्य बना लेता है तो यक्ष माइक्रोवाइटा उसके मन में उथल पुथल मचाने लगते हैं और उसकी यह मानसिक बीमारी यक्ष्मा से भी घातक हो जाती है।

इन्दु- तो क्या माइक्रोवाइटा व्यक्ति के लक्ष्य और संबंधित के कार्य के अनुसार ही मन को प्रभाकवित करते हैं?
बाबा- हाॅं,
1. जो व्यक्ति संगीत और नृत्य को ही अपने जीवन का लक्ष्य बना लेता है तो उसके मन में गंधर्व माइक्रोवाइटा सक्रिय हो जाते हैं ये मित्रवत व्यवहार करते हैं और व्यक्ति को सूक्ष्म ज्ञान की ओर ले जाकर सफलता दिलाते हैं।
2. जिन्हें सुन्दरता की भूख होती है उनके मन पर किन्नर माइक्रोवाइटा सवार हो जाते हें और वे भौतिकता की ओर ले जाकर उन्हें पतित कर सकते हैं। ये नकारात्मक माइक्रोवाइटा होते हैं।
3. वे , जो मन में नाम, यश  और ज्ञान की इच्छाओं को पालते हैं, विद्याधर माइक्रोवाइटा से प्रभावित हो जाते हैं और समाज में अच्छे कार्यों और अपने सद् गुणों  के द्वारा समाज में सम्मान पाते हैं। ये घनात्मक माइक्रोवाइटा होते हैं।
4. जो भौतिक जगत के सुखों और जड़ता के कामों में ही आनन्द पाते हैं और उन्हीं में रहना चाहते हें, उच्च विचारों और ईश्वर  संबंधी ज्ञान और कार्यों से दूर बने रहते हैं , वे प्रकृतिलीन माइक्रोवाइटा से प्रभावित होकर जड़ता की ओर बढ़ने लगते हैं। ये ऋणात्मक माइक्रोवाइटा कहलाते हैं।
5. परमपुरुष से दूर रहकर जिनके मन हमेशा  भौतिक पदार्थों, और लाभ की तलाश  में चारों ओर एक स्थान से दूसरे स्थान पर भटकते रहते है। कोल्हू के बैल की तरह उनके मन बेचैन रहते हैं ऐसे व्यक्ति विदेहलीन माइक्रोवाइटा की चपेट में रहते हैं और हमेशा  उलझे रहते हैं। ये नकारात्मक माइक्रोवाइटा कहलाते हैं।

चन्दू- क्या माइक्रोवाइटा आध्यात्मिक प्रगति में सहायता नहीं करते?
बाबा- वे लोग जो आत्म साक्षात्कार के उद्देश्य  से अपना सब कुछ त्यागने और रहस्यात्मक अनभूतियों को जानने की तीब्र इच्छायें रखते हैं वे सिद्ध माइक्रोवाइटा के प्रभाव में होते हैं जो धनात्मक माइक्रोवाइटा कहलाते हैं। ये व्यक्ति को अनेक प्रकार से उचित मार्गदर्शन  देते हुये परम सत्ता से मेल कराने में सहयोग करते हैं। जो भी भक्त इन सिद्ध माइक्रोवाइटा के संपर्क में आये हैं और उन्हें समझ पाये हैं वे कहते हैं कि तथाकथित धार्मिक देवता विष्णु के हाथ में जो चक्र है वह और कुछ नहीं वल्कि सिद्ध माइक्रोवाइटा का साॅंकेतिक नाम है। स्पष्ट है कि माइक्रोवाइटा मनुष्यों के द्वारा निर्मित नहीं किये जा सकते वे परम सत्ता के द्वारा ही उत्सर्जित किये जा सकते हैं।

राजू- यदि वर्तमान वैज्ञानिक इन्हें खोज लेते हैं तो क्या पूरा रसायन विज्ञान ही बदल जाएगा ?
बाबा- माइक्रोवाइटा के कारण रसायन विज्ञान और समाज में भी परिवर्तन होगे जैसे, फैरस सल्फेट को   FeSO 7H2O      न लिख कर  उसके साथ माइक्रोवाइटा के ग्रुप और संख्या को भी लिखा जायेगा। जैसे, FeSO 7H2O   (group A mv 20 million)  आदि। अतः केवल रासायनिक समीकरण बदलेगा बाकी वही रहेगा। जीवन का उद्गम कार्बन परमाणु को न माना जाकर कहा जायेगा कि प्रोटोप्लाज्मिक सैल असंख्य माइक्रोवाइटा का एकत्रित ठोस रूप है। इस प्रकार प्रोटोप्लाज्मिक सैलों के माइक्रोवाइटा पर नियंत्रण कर मनुष्यों के शरीरों में भी परिवर्तन लाये जा सकेंगे। साधारण मनुष्य को असाधारण बनाया जा सकेगा। एक्टोप्लाज्मिक सैलों के माइक्रोवाइटा पर नियंत्रण कर मन और शरीरों पर अच्छे से अच्छे तरीके से नियंत्रण किया जा सकेगा। पदार्थों की संरचना वही रहते हुए उनके माइक्रोवाइटा की संख्या में परिवर्तन कर  आन्तरिक गुणों में परिवर्तन लाया जा सकेगा।

Sunday, 9 July 2017

136 बाबा की क्लास ( माइक्रोवाइटम या अणुजीवत् -1 सामान्य गुण )

136 बाबा की क्लास ( माइक्रोवाइटम या अणुजीवत् -1 सामान्य गुण )

राजू- आपने अनेक बार ‘‘माइक्रोवाइटा‘‘ का उल्लेख किया है, यह है क्या?
बाबा- प्रकृति अपनी संचर क्रिया में सूक्ष्म से स्थूल और प्रतिसंचर क्रिया में स्थूल से सूक्ष्म की ओर अपनी गतिविधियाॅं जारी रखती है जिसे ब्रह्म चक्र कहते हैं। स्थूलता से सूक्ष्मता की ओर जाने पर परमाणु के भीतर इलेक्ट्रान, प्रोटान और न्युट्रान आदि आवेशित  या अनावेशित  कणों के बारे में ही भौतिक विज्ञान से जानकारी मिल पाती  है पर इन कणों से भी सूक्ष्म अस्तित्व का होना संभावित है। ठीक उसी प्रकार मानसिक क्षेत्र में भी एक्टोप्लाज्म से या उसके बाहरी आवरण एन्डोप्लाज्म से भी सूक्ष्म अस्तित्व के होने को अस्वीकार नहीं किया जा सकता। योग के बल पर यह अनुभव किया गया है कि भौतिक क्षेत्र के वे अस्तित्व जो इलेक्ट्रानों अथवा प्रोटानों से और मानसिक क्षेत्र के वे अस्तित्व जो एक्टोप्लाज्म से भी सूक्ष्म होते हैं उनका प्रभाव अनुभव किया जाता है। इन्हें अंग्रेजी में एकवचन में ‘माइक्रोवाइटम‘ कहा जा सकता है। ये माइक्रोवाइटा प्रोटान और एक्टोप्लाज्म के बीच स्थान पा सकते हैं पर न तो ये प्रोटो प्लाज्मिक क्रम के होते हैं और न ही इलेक्ट्रान। परंतु इन्हें इस विश्व  के जीवनदाता के प्रारंभिक स्तर पर माना जा सकता है। चूंकि इस विश्व  में जीवन का क्षेत्र कार्बन से उद्भूत हुआ है अतः इनका संबंध कार्बन एटमों से अवश्य  हो सकता है। चूंकि इनके लक्षणों की जानकारी नहीं है अतः उन्हें ब्रह्माॅंड का रहस्यमय उत्सर्जन ही माना जाना चाहिये।

इन्दु- माइक्रोवाइटा को पहचानने के लिए उसके सामान्य गुण क्या हो सकते हैं?
बाबा- इनकी सघनता और सूक्ष्मता एकसमान नहीं होती। कुछ को उच्च विभेदन क्षमता के माइक्रोस्कोप से देखा जा सकता है पर कुछ को नहीं, परंतु उनके कार्य व्यवहार से उन्हें अनुभव किया जा सकता है। कुछ की सूक्ष्मता इतनी अधिक हो सकती है कि वे सीधे ही हमारे अनुभव में नहीं आ सकते पर विशेष प्रकार की यौगिक विधियों से पकड़ में आ सकते हैं ।इस प्रकार माइक्रोवाइटा को मोटे तौर पर तीन श्रेणियों में बाॅंटा जा सकता है। एक तो वे जो माइक्रोस्कोप से देखे जा सकते हैं, दूसरे वे जो अपनी गतिविधियों के स्पंदन से पहचाने जा सकते हैं और तीसरे वे विशेष प्रकार के अवभास (जो वास्तव में अपनी ही सीमा में संकल्पना का परावर्तन होते है) द्वारा जाने जा सकते हैं। ये अवभास आध्यात्मिक झुकाव के उच्च विकसित मनों के द्वारा अनुभव किये जा सकते हैं।

रवि- तो क्या ये ‘वाइरस‘ ही हैं?
बाबा-  माइक्रोस्कोप की पकड़ में आ जाने वाले माइक्रोवाइटा को आजकल ‘‘वाइरस‘‘ कहते हैं परंतु इसका सही नाम माइक्रोवाइटम होना चाहिये वाइरस नहीं। ये माइक्रोवाइटा पूरे ब्रह्माॅंड में एक विश्व  से दूसरे में बिना किसी रोकटोक के आ जा सकते हैं। अन्य मनोभौतिक जीवों की तरह वे भी अपने अस्तित्व का अनुभव करते हैं अपनी संख्या में बृद्धि करते हैं और मरते हैं । उनके आवागमन पर किसी भी प्रकार के भौतिक ताप या दाब या परिवर्तन को कोई प्रभाव नहीं पड़ता।

चन्दू- ठीक है , पर क्या इनकी गति असीमित होती है? या किसी माध्यम विशेष पर निर्भर करती है?
बाबा-ये माइक्रोवाइटा एकसाथ अनेक माध्यमों में गति कर सकते हैं। ये विचारों और तन्मात्राओं अर्थात् शब्द, स्पर्श , रूप, रस, और गंध आदि के द्वारा गति कर सकते हैं। अत्यंत सूक्ष्म माइक्रोवाइटा उन्नत मस्तिष्क वाले व्यक्ति के विचारों द्वारा किसी ग्रह या अन्य ग्रहों तक भेजे जा सकते हैं।

रवि- तो क्या एक ग्रह से दूसरे ग्रह पर जीवन का संचार करने में इनकी कुछ भूमिका है या नहीं?
बाबा-एक सौर परिवार से दूसरे सौर परिवार में या एक ग्रह से दूसरे ग्रह में जीवन का संचार करने या जीवन वाहक के रूप मे सूक्ष्म माइक्रोवाइटम ही सक्रिय रहते हैं। वे इस ब्रह्माॅंड के किसी भी कोने के किसी भी भौतिक शरीर के मन या विकसित या अविकसित देहधारी को नष्ट कर सकते हैं। इससे यह कहा जा सकता है कि जीवन के उद्गम का श्रोत यूनीसेल्युलर प्रोटोजोआ या इकाई प्रोटोप्लाज्मिक सैल नहीं बल्कि यही इकाई माइक्रोवाइटम है।

राजू- माइक्रोवाइटा की खोज अभी हुई है या हमारे पूर्वकालिक ग्रंथों में भी इसका विवरण पाया जाता है?
बाबा- पूर्वकाल के ऋषियों ने अपने योगबल से उनकी प्रकृति और सूक्ष्मता के आधार पर इन माइक्रोवाइटा को सात भागों में विभाजित किया है वे हैं, यक्ष, गंधर्व, विद्याधर, किन्नर, सिद्ध, प्रकृतिलीन और विदेहलीन। अतः साधना के द्वारा इनकी खोज की जाकर यदि नियंत्रण पा लिया जाता है तो संसार में बलसाम्य और भारसाम्य बनाये रखने में बहुत मदद मिल सकती है।

नन्दू- जब यह माइक्रोवाइटा और वाइरस लगभग समान ही हैं तो क्या इन्हें प्रदूषण के लिए उत्तरदायी माना जा सकता है?
बाबा- प्रदूषण से माइक्रोवाइटम का परोक्ष संबंध है, पानी और हवा में प्रदूषण न भी हो तो भी माइक्रोवाइटा उत्पन्न होते रहते हैं । वृत्तीय आकार के माइक्रोवाइटा जड़ता युक्त मन में अर्थात् काममय कोष में सक्रिय हो जाते हैं। इन नकारात्मक माइक्रोवाइटा को दूर करने के लिये सामूहिक रूपसे किये गये शुद्धतापूर्ण विचारों के आधात प्रयुक्त किये जा सकते हैं। इसलिये सामूहिक रूप से, उन्नत मन और विचारों वाले व्यक्तियों का समाज में होना अनिवार्य हो जाता हैं।  आध्यात्मिक रूपसे उन्नत व्यक्ति अपने विचारों से शत्रु माइक्रोवाइटा को समाप्त कर सकते हैं। सभी प्रकार की दुर्गंधों में, सड़े गले पदार्थो में , नकारात्मक माइक्रोवाइटा होते हैं। दूध से दही का निर्माण माइक्रोवाइटा ही करते हैं, 48 घंटों तक दही धनात्मक माइक्रोवाइटा के प्रभाव में होता है, इस अवधि में उसके सर्वाधिक पोषक तत्व रहते हैं पर इसके बाद नकारात्मक माइक्रोवाइटा सक्रिय हो जाते हैं अतः उससे दुर्गंध आने लगती है और मनुष्यों के उपयोग के लिये नहीं रहता। दही में जब तक धनात्मक माइक्रोवाइटा रहते हैं तभी तक उसका उपयोग करना चाहिए।

रवि- मनुष्य के शरीर पर माइक्रोवाइटा का क्या प्रभाव पड़ता है ?
बाबा- अपनी प्रकृति के अनुसार माइक्रोवाइटा ऋणात्मक, साधारण और धनात्मक होते हैं। ऋणात्मक माइक्रोवाइटा अपने आप प्रकृति में क्रियाषील होते हैं जबकि धनात्मक माइक्रोवाइटा विशेष प्रकार की निर्मित तरंगों के द्वारा क्रियाशील होते हैं।  ऋणात्मक माइक्रोवाइटा मूलाधार और स्वाधिष्ठान चक्रों में ही कार्य करते हैं और धीरे धीरे ऊपर बढ़ते हैं। यदि सीधे ही इन्हें ऊपरी चक्रों पर क्रियाशील कर दिया जावे तो मनुष्य की मृत्यु हो जावेगी। ऋणात्मक माइक्रोवाइटा के सक्रिय होने पर कमर , किडनी आदि निम्न भागों की बीमारियाॅं या दर्द होते हैं। सामान्य माइक्रोवाइटा किडनी, लीवर, छाती और पेट को प्रभावित करते हैं जबकि धनात्मक माइक्रोवाइटा प्रकृति के द्वारा कभी नहीं फैलते वे सद् गुरु  के चाहने पर वह अपनी तरंगों के द्वारा 24 वर्ष से अधिक आयु के पुरुष पर ही आरोपित करते हैं क्योंकि इस आयु के बाद ही उनकी नाड़ियाॅं इन्हें प्राप्त करने के लिये पर्याप्त द्रढ़ हो पाती हैं। धनात्मक माइक्रोवाइटा सत्संग से भी प्राप्त होते हैं।

Monday, 3 July 2017

135 बाबा की क्लास ( इच्छा और कर्म )

135 बाबा की क्लास ( इच्छा और कर्म )

नन्दू- क्या कोई बिना इच्छा के कर्म कर सकता है?
बाबा- इच्छा के अभाव में कोई कर्म नहीं हो सकता। किसी भी कर्म के लिए इच्छा प्रथम सीढ़ी का काम करती है। इसीलिए वह प्राथमिक कर्म कहलाती है।

इन्दु- परन्तु भौतिक जगत में अनेक कर्म इस प्रकार देखे जाते हैं जिनमें किसी व्यक्ति विशेष की कोई प्रत्यक्ष या परोक्ष इच्छा नहीं दिखाई देती?
बाबा- हाॅं, संसार में कुछ कर्म व्यक्ति की इच्छा पर निर्भर होते हैं और कुछ परमसत्ता की। मानव अपनी इच्छा से चलता है परन्तु वायु परमपुरुष की इच्छा से। यथार्थतः मनुष्यों के द्वारा किये जाने वाले अधिकाॅंश कर्म अपनी इच्छा से होते पाये जाते हैं। कुछ कर्म मनुष्यों द्वारा परोक्ष इच्छा से किए जाते हैं जैसे छाती को पीटना। जब परोक्ष इच्छाएं समाप्त हो जाती हैं तब माना जाता है कि उसके व्यक्तिगत संस्कार क्षय हो चुके हैं। इस स्थिति में उस व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है जिसे महामृत्यु कहते हैं।

रवि- कुछ लोग आत्महत्या करते देखे जाते हैं, यह क्या है?
बाबा- वे लोग जो आत्महत्या करते हैं उनकी जीने की इच्छा नहीं होती, परन्तु उनकी परोक्ष इच्छा आंशिक रूप से जीवित रहती है जो जीवन में सहे गए दुख दर्द और अपमानों से भरी रहती है। इसी कारण उनके मन में गहराई से यह परोक्ष इच्छा छिपी रहती है कि वे उच्च स्तर का नया शरीर पाएं। यह परोक्ष इच्छा ही उन्हें आत्म हत्या करने के लिए उकसाती है।

इन्दु- आत्महत्या करने के बाद उनकी स्थिति क्या होती है, क्या उनकी परोक्ष इच्छा तुरंत पूरी हो जाती है?
बाबा- आत्महत्या करने वाले शरीरहीन होकर अपने मन, बुद्धि, अहंकार और संस्कारों के साथ अन्तरिक्ष में भटकते रहते हैं जब तक उन्हें अपनी परोक्ष इच्छाओं को अभिव्यक्त करने के लिए प्रकृति उचित शरीर उपलब्ध नहीं करा देती। उनकी इस अवस्था को सूक्ष्म शरीर या ‘ल्यूमिनस बाॅडी‘ कहते हैं।

चन्दू- सभी छोटे या बड़े, आन्तरिक या वाह्य कर्मों का उद्गम कहाॅं से होता है?
बाबा- यह सभी प्रकार के कर्म व्यक्ति के मन के भीतर गुप्त रूप से बीज के रूप में संचित रहते हैं और किसी अनुकूल दिन  परोक्ष इच्छा की सहायता से वे बाहरी संसार में व्यक्त होने लगते हैं। मानलो किसी ने किसी को कष्ट दिया, इसकी प्रतिक्रिया स्थितिज ऊर्जा के रूप में उसके भीतर तब तक बनी रहेगी जब तक उसे प्रकट करने के लिए उचित वातावरण, समय और स्थान नहीं मिल जाता ।

 बिन्दु- इस प्रकार तो जीना बड़ा ही कठिन लगता है, क्या किया जाना चाहिए?
बाबा- सरलतम उपाय यह है कि सभी कार्य करते हुए स्मरण रखना चाहिए कि वह साक्षीस्वरूप परमसत्ता हर पल हमें देख रही है । इसलिए सभी अच्छे या बुरे कर्म उन्हीं को समर्पित करते जाना चाहिए क्योंकि हम जिन प्रतिफलों को भोग रहे होते हैं वह हमारे पूर्व कर्मों का ही परिणाम होता है भले ही हमें उनका मूल कारण ज्ञात नहीं होता।

रवि- हमें अपने ही कर्म का मूलकारण ज्ञात क्यों नहीं रहता?
बाबा- तुम यह जानते हो कि हमारा जीवन केवल इन्हीं पचास, साठ या सौै वर्षों तक सीमित नहीं है। यह ब्रह्म चक्र अर्थात् ‘काॅस्मिक साइकिल‘ के साथ प्रारंभ हुआ है और विभिन्न स्तरों से होता हुआ प्रतिसंचर धारा में अपने मूल स्वरूप की ओर बढ़ता जा रहा है। स्पष्ट है कि पिछले विभिन्न जन्मों की मूल इच्छाएं और तत्संबंधी कर्म, संचर और प्रतिसंचर गतियों में अनेक प्रकार के संघात से गुजरे होते हैं अतः याद नहीं रह पाते हैं।


राजू- यदि कोई व्यक्ति किसी को भौतिक रूप से कोई कष्ट नहीं देता पर केवल मन में ऐसा करने का विचार लाता है तो क्या उसकी प्रतिक्रिया घटित होगी?
बाबा- अवश्य। विचार चाहे जैसे ही भी हों वे संस्कारों के रूप में अर्थात् ‘‘पोटेंशियल फार्म‘‘ में संचित होते जाते हैं और अनुकूल अवसर पाते ही कार्य रूप में आ जाते हैं।  इसलिए किसी के संबंध में अच्छे या बुरे जो भी विचार मन में आते हैं निश्चय ही उनकी प्रतिक्रिया होगी ही।


रवि- क्या यह हो सकता है कि कर्म कोई करे और प्रतिफल किसी और को मिले?
बाबा- नहीं । कर्मफल स्वयं को ही भोगना पड़ता है।

चन्दू- मानलो ‘अ‘ ने ‘ब‘ को चाॅंटा मारा, यह ‘ब‘ का कर्मफल है या ‘अ‘ का मूल  कर्म?
बाबा- यहाॅं यह ध्यान देने की बात है कि बिना कारण के कोई क्रिया नहीं हो सकती। यदि ‘ब ‘ के किसी कार्य की प्रतिक्रिया में ‘अ‘ ने यह कार्य किया है तो वह ‘ब‘ का कर्मफल है परन्तु यदि ‘अ‘ की चाॅंटा मारने के पहले इस प्रकार की कोई इच्छा ही नहीं थी और फिर भी यह घटना घटित होती है तो इसे ‘अ‘ की परोक्ष इच्छा का परिणाम माना जाएगा जो ‘ब‘ के द्वारा ‘अ‘ के प्रति कभी किए गए कर्म का ही प्रतिफलन कहलाएगा।


बिन्दु- यह तो बड़ा ही घातक है, हमें हर पल सावधान रहने की आवश्यकता है?
बाबा- बिलकुल। यही कारण है कि बुद्धिमान लोग संसार के सभी प्राणियों की भलाई की प्रार्थना करते हैं।
‘‘ सर्वेसां मंगलम् काॅंक्ष्ये‘‘ । जो लोग इस प्रकार नहीं कर पाते वे अपनी तुच्छ मानसिकता के कारण अन्तहीन संस्कारों को भोगते हुए कष्ट पाते हैं।