135 बाबा की क्लास ( इच्छा और कर्म )
नन्दू- क्या कोई बिना इच्छा के कर्म कर सकता है?
बाबा- इच्छा के अभाव में कोई कर्म नहीं हो सकता। किसी भी कर्म के लिए इच्छा प्रथम सीढ़ी का काम करती है। इसीलिए वह प्राथमिक कर्म कहलाती है।
इन्दु- परन्तु भौतिक जगत में अनेक कर्म इस प्रकार देखे जाते हैं जिनमें किसी व्यक्ति विशेष की कोई प्रत्यक्ष या परोक्ष इच्छा नहीं दिखाई देती?
बाबा- हाॅं, संसार में कुछ कर्म व्यक्ति की इच्छा पर निर्भर होते हैं और कुछ परमसत्ता की। मानव अपनी इच्छा से चलता है परन्तु वायु परमपुरुष की इच्छा से। यथार्थतः मनुष्यों के द्वारा किये जाने वाले अधिकाॅंश कर्म अपनी इच्छा से होते पाये जाते हैं। कुछ कर्म मनुष्यों द्वारा परोक्ष इच्छा से किए जाते हैं जैसे छाती को पीटना। जब परोक्ष इच्छाएं समाप्त हो जाती हैं तब माना जाता है कि उसके व्यक्तिगत संस्कार क्षय हो चुके हैं। इस स्थिति में उस व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है जिसे महामृत्यु कहते हैं।
रवि- कुछ लोग आत्महत्या करते देखे जाते हैं, यह क्या है?
बाबा- वे लोग जो आत्महत्या करते हैं उनकी जीने की इच्छा नहीं होती, परन्तु उनकी परोक्ष इच्छा आंशिक रूप से जीवित रहती है जो जीवन में सहे गए दुख दर्द और अपमानों से भरी रहती है। इसी कारण उनके मन में गहराई से यह परोक्ष इच्छा छिपी रहती है कि वे उच्च स्तर का नया शरीर पाएं। यह परोक्ष इच्छा ही उन्हें आत्म हत्या करने के लिए उकसाती है।
इन्दु- आत्महत्या करने के बाद उनकी स्थिति क्या होती है, क्या उनकी परोक्ष इच्छा तुरंत पूरी हो जाती है?
बाबा- आत्महत्या करने वाले शरीरहीन होकर अपने मन, बुद्धि, अहंकार और संस्कारों के साथ अन्तरिक्ष में भटकते रहते हैं जब तक उन्हें अपनी परोक्ष इच्छाओं को अभिव्यक्त करने के लिए प्रकृति उचित शरीर उपलब्ध नहीं करा देती। उनकी इस अवस्था को सूक्ष्म शरीर या ‘ल्यूमिनस बाॅडी‘ कहते हैं।
चन्दू- सभी छोटे या बड़े, आन्तरिक या वाह्य कर्मों का उद्गम कहाॅं से होता है?
बाबा- यह सभी प्रकार के कर्म व्यक्ति के मन के भीतर गुप्त रूप से बीज के रूप में संचित रहते हैं और किसी अनुकूल दिन परोक्ष इच्छा की सहायता से वे बाहरी संसार में व्यक्त होने लगते हैं। मानलो किसी ने किसी को कष्ट दिया, इसकी प्रतिक्रिया स्थितिज ऊर्जा के रूप में उसके भीतर तब तक बनी रहेगी जब तक उसे प्रकट करने के लिए उचित वातावरण, समय और स्थान नहीं मिल जाता ।
बिन्दु- इस प्रकार तो जीना बड़ा ही कठिन लगता है, क्या किया जाना चाहिए?
बाबा- सरलतम उपाय यह है कि सभी कार्य करते हुए स्मरण रखना चाहिए कि वह साक्षीस्वरूप परमसत्ता हर पल हमें देख रही है । इसलिए सभी अच्छे या बुरे कर्म उन्हीं को समर्पित करते जाना चाहिए क्योंकि हम जिन प्रतिफलों को भोग रहे होते हैं वह हमारे पूर्व कर्मों का ही परिणाम होता है भले ही हमें उनका मूल कारण ज्ञात नहीं होता।
रवि- हमें अपने ही कर्म का मूलकारण ज्ञात क्यों नहीं रहता?
बाबा- तुम यह जानते हो कि हमारा जीवन केवल इन्हीं पचास, साठ या सौै वर्षों तक सीमित नहीं है। यह ब्रह्म चक्र अर्थात् ‘काॅस्मिक साइकिल‘ के साथ प्रारंभ हुआ है और विभिन्न स्तरों से होता हुआ प्रतिसंचर धारा में अपने मूल स्वरूप की ओर बढ़ता जा रहा है। स्पष्ट है कि पिछले विभिन्न जन्मों की मूल इच्छाएं और तत्संबंधी कर्म, संचर और प्रतिसंचर गतियों में अनेक प्रकार के संघात से गुजरे होते हैं अतः याद नहीं रह पाते हैं।
राजू- यदि कोई व्यक्ति किसी को भौतिक रूप से कोई कष्ट नहीं देता पर केवल मन में ऐसा करने का विचार लाता है तो क्या उसकी प्रतिक्रिया घटित होगी?
बाबा- अवश्य। विचार चाहे जैसे ही भी हों वे संस्कारों के रूप में अर्थात् ‘‘पोटेंशियल फार्म‘‘ में संचित होते जाते हैं और अनुकूल अवसर पाते ही कार्य रूप में आ जाते हैं। इसलिए किसी के संबंध में अच्छे या बुरे जो भी विचार मन में आते हैं निश्चय ही उनकी प्रतिक्रिया होगी ही।
रवि- क्या यह हो सकता है कि कर्म कोई करे और प्रतिफल किसी और को मिले?
बाबा- नहीं । कर्मफल स्वयं को ही भोगना पड़ता है।
चन्दू- मानलो ‘अ‘ ने ‘ब‘ को चाॅंटा मारा, यह ‘ब‘ का कर्मफल है या ‘अ‘ का मूल कर्म?
बाबा- यहाॅं यह ध्यान देने की बात है कि बिना कारण के कोई क्रिया नहीं हो सकती। यदि ‘ब ‘ के किसी कार्य की प्रतिक्रिया में ‘अ‘ ने यह कार्य किया है तो वह ‘ब‘ का कर्मफल है परन्तु यदि ‘अ‘ की चाॅंटा मारने के पहले इस प्रकार की कोई इच्छा ही नहीं थी और फिर भी यह घटना घटित होती है तो इसे ‘अ‘ की परोक्ष इच्छा का परिणाम माना जाएगा जो ‘ब‘ के द्वारा ‘अ‘ के प्रति कभी किए गए कर्म का ही प्रतिफलन कहलाएगा।
बिन्दु- यह तो बड़ा ही घातक है, हमें हर पल सावधान रहने की आवश्यकता है?
बाबा- बिलकुल। यही कारण है कि बुद्धिमान लोग संसार के सभी प्राणियों की भलाई की प्रार्थना करते हैं।
‘‘ सर्वेसां मंगलम् काॅंक्ष्ये‘‘ । जो लोग इस प्रकार नहीं कर पाते वे अपनी तुच्छ मानसिकता के कारण अन्तहीन संस्कारों को भोगते हुए कष्ट पाते हैं।
नन्दू- क्या कोई बिना इच्छा के कर्म कर सकता है?
बाबा- इच्छा के अभाव में कोई कर्म नहीं हो सकता। किसी भी कर्म के लिए इच्छा प्रथम सीढ़ी का काम करती है। इसीलिए वह प्राथमिक कर्म कहलाती है।
इन्दु- परन्तु भौतिक जगत में अनेक कर्म इस प्रकार देखे जाते हैं जिनमें किसी व्यक्ति विशेष की कोई प्रत्यक्ष या परोक्ष इच्छा नहीं दिखाई देती?
बाबा- हाॅं, संसार में कुछ कर्म व्यक्ति की इच्छा पर निर्भर होते हैं और कुछ परमसत्ता की। मानव अपनी इच्छा से चलता है परन्तु वायु परमपुरुष की इच्छा से। यथार्थतः मनुष्यों के द्वारा किये जाने वाले अधिकाॅंश कर्म अपनी इच्छा से होते पाये जाते हैं। कुछ कर्म मनुष्यों द्वारा परोक्ष इच्छा से किए जाते हैं जैसे छाती को पीटना। जब परोक्ष इच्छाएं समाप्त हो जाती हैं तब माना जाता है कि उसके व्यक्तिगत संस्कार क्षय हो चुके हैं। इस स्थिति में उस व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है जिसे महामृत्यु कहते हैं।
रवि- कुछ लोग आत्महत्या करते देखे जाते हैं, यह क्या है?
बाबा- वे लोग जो आत्महत्या करते हैं उनकी जीने की इच्छा नहीं होती, परन्तु उनकी परोक्ष इच्छा आंशिक रूप से जीवित रहती है जो जीवन में सहे गए दुख दर्द और अपमानों से भरी रहती है। इसी कारण उनके मन में गहराई से यह परोक्ष इच्छा छिपी रहती है कि वे उच्च स्तर का नया शरीर पाएं। यह परोक्ष इच्छा ही उन्हें आत्म हत्या करने के लिए उकसाती है।
इन्दु- आत्महत्या करने के बाद उनकी स्थिति क्या होती है, क्या उनकी परोक्ष इच्छा तुरंत पूरी हो जाती है?
बाबा- आत्महत्या करने वाले शरीरहीन होकर अपने मन, बुद्धि, अहंकार और संस्कारों के साथ अन्तरिक्ष में भटकते रहते हैं जब तक उन्हें अपनी परोक्ष इच्छाओं को अभिव्यक्त करने के लिए प्रकृति उचित शरीर उपलब्ध नहीं करा देती। उनकी इस अवस्था को सूक्ष्म शरीर या ‘ल्यूमिनस बाॅडी‘ कहते हैं।
चन्दू- सभी छोटे या बड़े, आन्तरिक या वाह्य कर्मों का उद्गम कहाॅं से होता है?
बाबा- यह सभी प्रकार के कर्म व्यक्ति के मन के भीतर गुप्त रूप से बीज के रूप में संचित रहते हैं और किसी अनुकूल दिन परोक्ष इच्छा की सहायता से वे बाहरी संसार में व्यक्त होने लगते हैं। मानलो किसी ने किसी को कष्ट दिया, इसकी प्रतिक्रिया स्थितिज ऊर्जा के रूप में उसके भीतर तब तक बनी रहेगी जब तक उसे प्रकट करने के लिए उचित वातावरण, समय और स्थान नहीं मिल जाता ।
बिन्दु- इस प्रकार तो जीना बड़ा ही कठिन लगता है, क्या किया जाना चाहिए?
बाबा- सरलतम उपाय यह है कि सभी कार्य करते हुए स्मरण रखना चाहिए कि वह साक्षीस्वरूप परमसत्ता हर पल हमें देख रही है । इसलिए सभी अच्छे या बुरे कर्म उन्हीं को समर्पित करते जाना चाहिए क्योंकि हम जिन प्रतिफलों को भोग रहे होते हैं वह हमारे पूर्व कर्मों का ही परिणाम होता है भले ही हमें उनका मूल कारण ज्ञात नहीं होता।
रवि- हमें अपने ही कर्म का मूलकारण ज्ञात क्यों नहीं रहता?
बाबा- तुम यह जानते हो कि हमारा जीवन केवल इन्हीं पचास, साठ या सौै वर्षों तक सीमित नहीं है। यह ब्रह्म चक्र अर्थात् ‘काॅस्मिक साइकिल‘ के साथ प्रारंभ हुआ है और विभिन्न स्तरों से होता हुआ प्रतिसंचर धारा में अपने मूल स्वरूप की ओर बढ़ता जा रहा है। स्पष्ट है कि पिछले विभिन्न जन्मों की मूल इच्छाएं और तत्संबंधी कर्म, संचर और प्रतिसंचर गतियों में अनेक प्रकार के संघात से गुजरे होते हैं अतः याद नहीं रह पाते हैं।
राजू- यदि कोई व्यक्ति किसी को भौतिक रूप से कोई कष्ट नहीं देता पर केवल मन में ऐसा करने का विचार लाता है तो क्या उसकी प्रतिक्रिया घटित होगी?
बाबा- अवश्य। विचार चाहे जैसे ही भी हों वे संस्कारों के रूप में अर्थात् ‘‘पोटेंशियल फार्म‘‘ में संचित होते जाते हैं और अनुकूल अवसर पाते ही कार्य रूप में आ जाते हैं। इसलिए किसी के संबंध में अच्छे या बुरे जो भी विचार मन में आते हैं निश्चय ही उनकी प्रतिक्रिया होगी ही।
रवि- क्या यह हो सकता है कि कर्म कोई करे और प्रतिफल किसी और को मिले?
बाबा- नहीं । कर्मफल स्वयं को ही भोगना पड़ता है।
चन्दू- मानलो ‘अ‘ ने ‘ब‘ को चाॅंटा मारा, यह ‘ब‘ का कर्मफल है या ‘अ‘ का मूल कर्म?
बाबा- यहाॅं यह ध्यान देने की बात है कि बिना कारण के कोई क्रिया नहीं हो सकती। यदि ‘ब ‘ के किसी कार्य की प्रतिक्रिया में ‘अ‘ ने यह कार्य किया है तो वह ‘ब‘ का कर्मफल है परन्तु यदि ‘अ‘ की चाॅंटा मारने के पहले इस प्रकार की कोई इच्छा ही नहीं थी और फिर भी यह घटना घटित होती है तो इसे ‘अ‘ की परोक्ष इच्छा का परिणाम माना जाएगा जो ‘ब‘ के द्वारा ‘अ‘ के प्रति कभी किए गए कर्म का ही प्रतिफलन कहलाएगा।
बिन्दु- यह तो बड़ा ही घातक है, हमें हर पल सावधान रहने की आवश्यकता है?
बाबा- बिलकुल। यही कारण है कि बुद्धिमान लोग संसार के सभी प्राणियों की भलाई की प्रार्थना करते हैं।
‘‘ सर्वेसां मंगलम् काॅंक्ष्ये‘‘ । जो लोग इस प्रकार नहीं कर पाते वे अपनी तुच्छ मानसिकता के कारण अन्तहीन संस्कारों को भोगते हुए कष्ट पाते हैं।
No comments:
Post a Comment