140 अग्रदूतों को सदा ही विरोध सहना पड़ता है।
वेदों को एक दूसरे से सुनकर ही याद रखना होता था इसीलिए वे श्रुति कहलाते हैं। प्रारम्भ में लिपि का ज्ञान नहीं था इसलिए ऐसा किया जाना ठीक था परन्तु जब लिपि का ज्ञान हो चुका तो, फिर भी अनेक शताब्दियों तक लिखने पर पाबंदी रही। डर डर कर, छिप छिपकर ऋषि अथर्वा और उनके साथियों ने उन्हें लिखने का कार्य किया । हजारों साल पुराना यह सामाजिक दोषपूर्ण सोच आज से चार सौ पचास साल पहले तक भी जोर पकड़े रहा जब धार्मिक साहित्य को बंगाली में अनुवादित करने का कष्टसाध्य कार्य तत्कालीन विद्वानों ने करना चाहा। नबाब हुसैन शाह व्यक्तिगत रूप से बंगाली को विकसित करने में लग गए। उनके ही सहयोग से कृत्तिवास ओझा ने रामायण का , काशीराम दास ने महाभारत और मालधर वसु ने भागवत को संस्कृत से बंगाली में अनुवाद किया। इससे विद्वानों में जोश उमड़ा और उन्होंने हुसैन शाह को हिन्दु धर्म में तोड़फोड़ करने वाला घोषित कर दिया क्योंकि वे मानते थे कि पवित्र धार्मिक साहित्य को बंगाली में अनुवाद करने से हिन्दु धर्म दूषित हो जाएगा। मालधर वसु को तो परिवर्तित मुसलमान होने का कलंक भी झेलना पड़ा । लोग उन्हें गुणरंजन खान कहने लगे थे। कृत्तिवास ओझा से तो विद्वान इतने चिढ़ गए थे कि उन्हें अपवित्रीकरण का दोषी घोषित कर जाति से पृथक कर दिया गया था। इतना ही नहीं लगभग इसी काल में गोस्वामी तुलसीदास को भी अपने रामचरितमानस को स्थानीय अवधि और बृज भाषाओं में लिखने पर तत्कालीन संस्कृत के विद्वानों की ओर से अपार विरोध का सामना करना पड़ा था।
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