190 किस रास्ते पर चलें?
प्रकृति के आधीन रहकर तदनुसार अपना कार्य व्यवहार करने वाले जीवधारी जब, क्रमशः प्रगति की धारा में आगे बढ़ते हुए मनुष्य स्तर तक आ जाते हैं तब, वे मन प्रधान होने के कारण अपने बुद्धि और विवेक का प्रयोग करने लगते हैं और प्रकृति के बंधनों से छूटने का उपाय ढॅूंड़ने लगते हैं। इस तरह जितने प्रकार के मन उतनी ही प्रकार की विचारधाराएं सामने आती हैं और वह निर्णय नहीं कर पाता कि क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए। इस समस्या का निराकरण करने के लिए महाभारत में एक दृष्टान्त दिया गया है; यक्ष ने युधिष्ठिर से पूछा, ‘‘कः पंथा?’’ अर्थात् रास्ता कौन सा उचित है? युधिष्ठिर ने मनुष्य मात्र की मनःस्थिति को दर्शाते हुए अपना विचार इस प्रकार प्रस्तुत कियाः-
‘‘श्रुतियो विभिन्ना स्मृतियो विभिन्ना, नैको मुनिर्यस्य मतम् न भिन्नम्।
धर्मस्य तत्वम् निहितम् गुहायां , महाजनो येन गतः स पन्था।’’
अर्थात् , ‘‘श्रुतियाॅं (वेद) एक नहीं चार चार हैं और सभी अलग अलग बातें करते हैं, स्मृतियाॅं (धर्मशास्त्र) एक नहीं अठारह हैं वे भी अलग अलग निर्देश देते हैं, इतना ही नहीं एक भी मुनि (विद्वान) ऐसा नहीं है जिसका मत दूसरे मुनि से भिन्न न हो। इस स्थिति में मन का भ्रमित हो जाना स्वाभाविक है परन्तु मेरे विचार से धर्मतत्व तो हमारे ‘‘मैं पन’’ के पीछे हृदय की गहराई में छिपा होता है इसलिए महाजन (जिन्होंने धर्मतत्व का व्यावहारिक अनुभव किया है ) जिस रास्ते पर चलकर अपने लक्ष्य को पा लिए हैं वही रास्ता उचित है।’’
इस युग में भी सबकी यही समस्या है परन्तु सच्चे व्यावहारिक ज्ञान के मार्गदर्शक न मिलने के कारण सभी अपनी अपनी ढपली और अपना अपना राग अलाप रहे हैं , उसी को सर्वश्रेष्ठ बता कर दम्भ प्रकट कर रहे हैं और जनसामान्य को भ्रमित कर रहे हैं। मूलतः सभी का लक्ष्य है परमपुरुष को पाना परन्तु इसका चिंतन और चर्चा न कर भौतिक वस्तुओें और सुख साधनों को पाने का लालच देकर अतार्किक, अवैज्ञानिक और अविवेकपूर्ण सिद्धान्तों केा प्रचार प्रसार किया जा रहा है। आइए हम सब, अब तक के सभी महाजनों के मतों पर तार्किक चिन्तन करें और देखें कि किसका आधार वैज्ञानिक है ताकि विवेकपूर्ण चयन कर अपने लक्ष्य को पाने का प्रयास कर सकें।
वैदिक साहित्य की प्राचीनता पर शोध करनेवाले विद्वानों के अनुसार आज से सात हजार वर्ष पूर्व भगवान ‘सदाशिव’ ने बिखरे हुए तन्त्र विज्ञान को एकीकृत किया और नए सिरे से पूर्णतः वैज्ञानिक आधार पर ‘शैव’ पद्धति से आत्मसाक्षात्कार करना सिखाया जो आज से 3500 वर्ष पूर्व आए महासम्भूति ‘कृष्ण’ के काल तक आते आते फिर से बिखरने लगा जिसे कृष्ण ने फिर से व्यवस्थित कर कर्मयोग पर आधारित ‘वैष्णव तन्त्र ’ स्थापित किया। शैवतन्त्र को आधार बनाकर वैष्णवतन्त्र ने व्यापक महत्व और प्रसार पाया परन्तु 2500 वर्ष पूर्व आए भगवान ‘महावीर’ (497-425 या 599-527 बीसीई0) के ‘जैन मत’ और इन्हीं के समकालीन भगवान ‘गौतम बुद्ध’ (563-480 या 483-400 बीसीई0)के ‘बौद्ध मत’ के प्रभाव से इसमें अनेक परिवर्तन हुए और अवैज्ञानिक, अव्यावहारिक पद्धतियों का समावेश होने लगा। 2000 वर्ष पूर्व आए ‘जीसस क्राइस्ट’ (04-30/33 बीसी0) के ‘ईसाई मत’ ने ‘‘प्रेम और सेवा’’ की बात करते हुए स्वर्ग नर्क जैसी अवधारणा कल्पित की और इसे स्थायी मान्यता प्राप्त हो सके, उन्होंने अपने को ईश्वर का पुत्र घोषित कर दिया। इसी का 1500 वर्ष पूर्व आए ‘मोहम्मद पैगम्बर’(570-632 ई0) के ‘इस्लाम मत’ ने भी समर्थन किया और अपने को ईश्वर का दूत घोषित कर ‘‘अल्लाह एक है’’ की विचारधारा को ही मानने के लिए अपने अनुयायियों के साथ छल, बलपूर्वक जन सामान्य को अपने मत की ओर घसीटने लगे। धीरे धीरे विश्व के सभी मतों में स्वर्ग और नर्क की कल्पना ने लोगों को भयग्रस्त कर दिया और फिर ईश्वर को दंडाधिकारी की तरह प्रस्तुत किया गया। इसके साथ ही यह भी कहा गया है कि सभी ईश्वर की सन्तान हैं और वह सबके पिता हैं, परमपिता हैं। सोचिए, यदि वह हमारे परमपिता हैं तो निश्चय ही हमें प्यार करते हैं इसलिए केवल दंडाधिकारी की तरह होंगे यह किसी भी प्रकार मान्य नहीं किया जा सकता। अवश्य ही, वह हमारे सबसे प्रिय और निकटतम संबंधी हैं जिन्हें जानना, पहचानना और मिलना हमारा लक्ष्य है तो वह हमें स्वर्ग के आकर्षण और नर्क के भय को दिखाकर हमसे पृथक नहीं रह सकते। इसी प्रकार जैन मत में शैव मत के आठ भागों में से ‘पाँच यमों’ में से केवल ’अहिंसा और ‘पाॅंच नियमों’ में से केवल ‘तप’ पर विशेष जोर देकर ‘जियो और जीने दो’ को लक्ष्य वक्य बनाकर शेष को छोड़ दिया गया और तन्त्र को अव्यावहारिक बना दिया गया। बौद्ध मत में शैव और वैष्णव तन्त्र के अष्टाॅंग योग के कुछ अंशों को लिया गया और उसे दुखवाद से प्रेरित कर जनसामान्य की रसमयता पर गहरा आधात पहुॅंचाया गया जबकि ‘ईश्वर’ के होने या न होने बारे में कुछ कहा ही नहीं गया ।
इस प्रकार हम देखते हैं कि जीवन की सच्चाई को जानने, समझने और अनुभव करने के लिए आध्यात्मविज्ञान के पुरोधा ऋषियों ने अपने अनुभवों के आधार पर अष्टाॅंगयोग की विधि को प्रतिपादित कर मनुष्यों को नयी दिशा दी थी पर कालक्रम में अनेक विद्वानों ने अपने अपने मत और संप्रदायों की अहंकार भरी भावनाओं से उस विधि में अनेक विकृतियाॅं कर डाली और सरलता लाने के प्रयास में खंड खंड में विभाजित कर उसे अप्रभावी कर डाला। कुछ विद्वानों ने वामाचार और कुछ ने दक्षिणाचार को अपनाया। लक्ष्य हो या नहीं अंधकार के विरुद्ध संघर्ष करता जाऊॅंगा और अंत में माया नष्ट कर सिद्धि लाभ करूॅंगा इस भावना को वामाचार कहते हैं, इसमें साधक को विपत्ति में पड़ने और अधोगति में जाने की सम्भावना होती है क्योंकि वामाचारी साधक अपनी अर्जित शक्तियों का दुरुपयोग करने लगता है और पशुत्व की ओर गति कर बैठता है। दक्षिणाचार में साधक प्रकृति से अनुनय विनय कर प्रकृति को वश में करना चाहते हैं। वे कहते हें कि हे प्रकृति! तुम अपना अॅंधकार समेट लो और मेरे लिये मार्ग बना दो। इस प्रकार क्या किसी की खुशामद से मुक्ति पाई जा सकती है? खुशामद भीरु का लक्षण है। शक्तिशाली व्यक्ति, भीरु की खुशामद से प्रसन्न हो कुछ सुविधा दे सकता है पर पूरी स्वाधीनता नहीं दे सकता । इन विधियों के दोषों को दूर करने के लिये आया मध्यमाचार। इसके अनुसार विद्या की सहायता से संघर्ष करते हुए अविद्या को हरा कर, विद्या और अविद्या दोनों को त्याग कर ब्रह्म की चरमावस्था में स्थित होना पड़ता है।
परन्तु मूलतः ‘शैव’ मतानुयायी, कालक्रम के प्रभाव से जैन और बौद्ध के प्रभाव में आते जा रहे थे। जैन तन्त्र की अव्यावहारिकता और बौद्ध तन्त्र की दुखवादिता से जनसामान्य अपने जीवन की रसमयता को खोता जा रहा था । आठवीं सदी के अन्त में आचार्य शंकर (788-820 ) का आविर्भाव हुआ जिन्होंने तत्कालीन प्रचलित और अपने अपने को श्रेष्ठ सिद्ध करने पर तुले सभी मतों को उनसे शास्त्रार्थ करने के लिए चुनौती दी ताकि जो भी शास्त्रार्थ में जीतेगा वही मतवाद श्रेष्ठ मानकर उसी के अनुसार सभी आचरण करेंगे। परन्तु ईसाई, इस्लाम और जैन मतावलम्बी शास्त्रार्थ करने आगे ही नहीं आए और बौद्ध शास्त्रार्थ में पराजित हो गए। आचार्य शंकर ने ‘‘अद्वैतवाद‘‘ का प्रवर्तन किया तथा शैव, जैन और बौद्ध तन्त्र के बीच समन्वय स्थापित करने के लिए नया ‘पौराणिक कल्ट’ स्थापित किया जिसमें पौराणिक कथाओं के आधार पर मानव जीवन के चौसठ प्रकार के अभिव्यक्तिकरण को मान्यता दी। इनमें जैन, और बौद्ध तन्त्र की मान्य देवी देवताओं जैसे अम्बिका, तारा, वाराही और दस महाविद्याएं, आदि को स्थान दिया और उन्हें योगिनियों का नाम देकर तीनों तन्त्रों में समन्वय स्थापित करने का प्रयास किया । यह चौसठ योगिनियाॅं ‘शिव‘ की शक्ति अर्थात् पत्नियों के रूप में स्वीकृत की गई। यहाॅं सोचने की बात यह है कि अद्वैतवाद के प्रवर्तक और अगाध ज्ञान के सागर इन आचार्य श्री ने काल्पनिक देवी देवताओं को मान्यता देकर एकीकरण के लिये पूरे देश के अलग अलग कोनों में चार मठ स्थापित किये! और , कालान्तर में पौराणिक कल्ट के अनुयायी, आचार्य शंकर को ‘शंकराचार्य‘ नाम देकर अद्वैतवाद के मूल मत को ही भूल गए। समन्वय के इस आधार पर उन्होंने मुख्यतः इन पद्धतियों को मान्यता दी है:-
(1) शैवाचार (2) शाक्ताचार (3) वैष्णवाचार (4) गणपत्याचार (5) सौराचार।
शैवाचार का लक्ष्य शिवसमाधि अर्थात् आत्मसाक्षात्कार है, इसमें बाहरी वृत्तियों को आन्तरिक करते हुए अंत में परमात्मा में मिलाने का अभ्यास किया जाता है। ‘‘यच्छेद्वांग्मनसो प्रज्ञस्तद्यच्छेद् ज्ञानात्मनि, ज्ञानात्मनि महती नियच्छेद् तद्यच्छेद्छान्तात्मनि"। अर्थात् मन को बाहरी सभी अकर्षणों से भीतर खींचकर अहं तत्व में फिर अहं तत्व को महत तत्व में और महत तत्व को आत्म तत्व में मिला देना चाहिये। इसका अभ्यास विभिन्न स्तरों पर आत्मसाक्षात्कारी गुरु अपनी देखरेख में कराते हैं। विद्यातन्त्र, कुंडलनी योग , योग विज्ञान, स्वरविज्ञान और नाद विज्ञान इसी के अन्तर्गत आते हैं।
शाक्ताचार के अनुसार तामसिक शक्ति को भवानी या कालिका शक्ति में मिलना चाहिए जिसका बीजमंत्र ‘‘सम्‘‘ है, इसमें से राजसिक शक्ति को निकालकर भैरवीशक्ति में मिलाना चाहिये जिसका बीज मंत्र है ‘‘शम्‘‘। इससे सात्विक शक्ति को खींचकर कौषिकीशक्ति में मिला देना चाहिये। पौराणिक शाक्ताचार के ये क्रमागत पद हैं जिन पर चलकर साधक लाभ पाता है। यहाँ कालिकाशक्ति का आशय दार्शनिक अर्थात् ‘टाइम और स्पेस’ से संबंधित है, शिव की पत्नी काली अथवा बौद्ध और शिवोत्तर तंत्र की कालिकाशक्ति से इसका कोई संबंध नहीं। परन्तु पश्चतवर्ती विद्वानों ने लोलुपतावश इसे पशुबलि आदि से जोड़कर प्रकृतिपूजा और अविद्यातन्त्र की ओर मोड़ दिया है।
वैष्णवाचार में विश्व की सभी वस्तुओं में विष्णु को व्याप्त मानकर उपासना की जाती है, ‘विस्तारः सर्वभूतस्यविष्नोरविष्वमिदम जगत्, द्रष्टव्यमआत्मवत् तस्माद्भेदेन विचक्षनैः। अर्थात् यह विस्त्रित द्रश्य अदृश्य प्रपञ्च सभी कुछ विष्णु ही है अतः स्वयं सहित सभी में उनको अनुभव करने का अभ्यास करना चाहिये। पौराणिक काल्पनिक कथाओं के द्वारा इसी सिद्धान्त को लोक शिक्षा के लिए सरल ढंग से समझाने का प्रयास किया गया है परन्तु वह सब कर्मकान्ड ने चपेट लिया है और लोगों को पथभ्रमित कर दिया है।
गणपत्याचार में प्राचीनकाल के समूह नेतृत्व वाले गणपति को चुनकर समूह के स्थान पर विश्व के नेता का भाव दिया गया और इन्हें ही परमपुरुष के रूपमें उपासना हेतु कहा गया है। परंतु आजकल इन्हें काल्पनिक आकार प्रकार देकर आडम्बर फैलाया जाता है।
सौराचार मूलतः सूर्य की उपासना से संबंधित है जो दक्षिण रूस के सेक्डोनिया से आये ब्राह्मणों की उपासना पद्धति है। सेक्डोनियन ब्राह्मण वेद या अन्य कोई पद्धति नहीं मानते थे वे केवल ज्योतिष और आयुर्वेद को ही मान्यता देते थे । उनके सूर्य ही उपास्य देवता थे क्योंकि वे मानते थे कि सूर्य से ही पृथ्वी, चंद्र और अन्य ग्रहों की उत्पत्ति हुई है अतः विश्व के नियन्ता सूर्य ही हैं। यह मत सीमित क्षेत्रों में ही माना गया है ।
इस प्रकार इन पौराणिक मान्यताओं को व्यापक प्रसार नहीं मिल पाया क्योंकि इसके कुछ भागों को दार्शनिक मान्यता थी और कुछ को नहीं। यह विवरण प्रकट करता है कि विद्यातन्त्र और उपनिषदों में वर्णित अद्वितीय, निष्कल, सच्चिदानन्दघनसत्ता परमपुरुष , को पाने के उपायों को तथ्यों सहित शैवाचार के अलावा कोई भी पद्धति , पूर्णतः सम्मिलित नहीं कर पाती वरन् एक दूसरे से श्रेष्ठ सिद्ध करने के प्रयासों में आडम्बर और परस्पर वैमनस्यता को ही बढ़ावा देती है। बीसवीं सदी में आए महासम्भूति श्री श्री आनन्दमूर्ति (1921- 1990) ने इन सभी दर्शनों की अव्यावहारिक बातों को अलग कर शेष को पुनः एकीकृत कर ‘‘नव्यमानवतावाद’’ आधारित ‘‘प्रउत दर्शन’’ (प्रगतिशील उपयोगी तत्व) दिया जिसमें अष्टाॅंग योग के सिद्धान्तों को ‘‘शिव’’ के द्वारा स्थापित मूल विद्यातन्त्र के आधार पर व्यावहारिक बनाया गया है। शंकराचार्य के ‘‘ब्रह्म सत्यम जगन्मिथ्या’’ को उन्होंने संशेधित कर कहा ‘‘ब्रह्म सत्यम् जगदपिसत्यमापेक्षिकम्।’’ अर्थात् ब्रह्म सत्य है और यह जगत भी सापेक्षिक सत्य है। इस तन्त्र के मर्मज्ञ अपने व्यावहारिक ज्ञान को इस प्रकार समझाते हैं, ‘‘उत्तमो ब्रह्म सद्भावो, मध्यो ध्यान धारणा । अधमो स्तुति अर्चना चा मूर्तिपूजाधमोधमा।’’ अर्थात् सर्वोत्तम है ब्रह्म सद्भाव, मध्यम है ध्यान धारणा, निम्न है स्तुति अर्चना और निम्नतम है मूर्तिपूजा।
अब आप युधिष्ठिर के बताए अनुसार इन पद्धतियों में से अपने रुचिकर रास्ते का तर्क, विज्ञान और विवेक से चयन कर सकते हैं।