Tuesday, 29 May 2018

195 चक्र और मनोवृत्तियाॅं

195 चक्र और मनोवृत्तियाॅं
आध्यात्मिक प्रगति के लिये चक्रों की महत्वपूर्ण भूमिका है यथार्थतः चक्रों की शुद्धि और नियंत्रण करना। चक्र क्या है? ग्रंथियों और उपग्रंथियों का समूह। सभी प्राणियों में इन चक्रों की अलग अलग स्थितियाॅं होती हैं। मनुष्यों में ये सूक्ष्म ऊर्जाकेन्द्र, इडा, पिंगला और सुषुम्ना नाड़ियों के परस्पर संपर्क बिंन्दुओं पर  स्थित होते हैं । मनुष्यों के मन में अनेक प्रकार के विचार आते जाते रहते हैं जो उनके संस्कारों द्वारा उत्पन्न वृत्तियों से निर्मित होते हैं। इन वृत्तियों का नियंत्रण और प्रवाह इन चक्रों पर निर्भर होता है। मुख्यतः 50 वृत्तियाॅं भीतर और बाहर, इन्हीं चक्रों की ऊर्जा द्वारा कार्यरत रहती हैं। इनके क्रियाशील हाने से उत्पन्न कंपनों के कारण विभिन्न ग्रंथियाॅं हारमोन्स का स्राव करती हैं । वृत्तियों का सामान्य या असामान्य  होना इन हारमोनों के सामान्य या असामान्य स्राव पर निर्भर होता है। मानव मन तभी तक कार्य करता है जब तक ये वृत्तियाॅं प्रदर्शित  होती हैं, इनके समाप्त होते ही मन भी समाप्त हो जाता है। विभिन्न चक्रों के नाम और उनके क्षेत्र इस प्रकार हैं।

मूलाधार चक्र- भौम मंडल। स्वाधिष्ठान चक्र-तरल मंडल। मणिपूर चक्र-अग्नि मंडल। अनाहतचक्र-सौर मंडल। विशुद्ध चक्र- नक्षत्र मंडल। आज्ञाचक्र-चंद्रमंडल। (संस्कृत में मंडल को वृत्त, थायरायड ग्लेंड को बृहस्पति ग्रंथी, हारमोन्स को ग्रंथी रस, पैराथायरायड को बृहस्पति उपग्रंथी, पिट्यूटरी ग्लेंड को मायायोगिनी ग्रंथी और पीनियल ग्लेंड को सहस्त्रार ग्रंथी कहते हैं। )
चक्र अपने भीतर अनेक वृत्तियों और उनके ध्वन्यात्मक स्वरों को समेटे रहते हैं।जैसे,
मूलाधार चक्र में चार वृत्तियाॅं धर्म, अर्थ, काम, और मोक्ष की होती हैं और उनके ध्वन्यात्मक स्वर क्रमशः  व,श ,ष और स होते हैं।

स्वाधिष्ठान चक्र में छः वृत्तियाॅं अवज्ञा, मूर्छा, प्रणाश , अविश्वास , सर्वनाश , क्रूरता आदि होती हैं इनके ध्वन्यात्मक स्वर क्रमशः  ब, भ, म, य, र, ल होते हैं।

मनीपुर चक्र में दस वृत्तियाॅं लज्जा, पिशूनता, ईर्ष्या , सुषुप्ति, विषाद, क्षय, तृष्णा, मोह, घृणा और भय की होती हैं और उनके ध्वन्यात्मक स्वर क्रमशः  दा, धा, ना, त, थ, द, ध, न, प, फ होते हैं।

अनाहत चक्र में बारह वृत्तियाॅं आशा , चिंता, चेष्टा, ममता, दम्भ, विवेक, विकलता, अहंकार, लोलता, कपटता, वितर्क, अनुताप की होती हैं इनके ध्वन्यात्मक स्वर कंमशः  क, ख, ग, घ, डॅ., च, छ, ज, झ, ´, ता, था, आदि होते हैं। यह चक्र श्वसन  प्रणाली को प्रभावित करता हैं यहाॅं पर धनात्मक माइक्रोवाईटा अधिक प्रभावी हो जाते हैं जो आध्यात्मिक प्रगति में सहायक होते हैं इससे नीचे के चक्रों पर नकारात्मक माइक्रोवाइटा प्रभावी होते हैं जो आध्यात्मिक प्रगति में बाधक होते हैं।

विषुद्ध चक्र में सोलह वृत्तियाॅं षडज, ऋषभ, गाॅंधार, मध्यम, पंचम, धैवत्, निषाद, ओम, हुंम, फट्, वौषट, वषट्, स्वाहा, नमः, विष और अमृत की होती हैं। प्रत्येक प्राणी अपनी लाक्षणिक विशेषताओं से नियंत्रित होते हैं अतः इस चक्र की प्रथम सात ध्वनियाॅं संबंधित प्राणियों से ली गई हैं। बायें कान के नीचे से दाॅंयें कान के नीचे तक का क्षेत्र इस चक्र का होता है इसमें धनात्मक माइक्रोवाईटा संपर्क में आते हैं। विशुद्ध चक्र में 16 उपग्रंथियाॅं होती हैं जो चारों दिशाओं में 4, 4, 4, 4 की संख्या में होती हैं , इनके माध्यम से मित्र और शत्रु दोनों प्रकार के माइक्रोवाइटा  सक्रिय होते हैं।

आज्ञाचक्र में दो वृत्तियाॅं अपरा और परा होती हैं इनके ध्वन्यात्मक स्वर क्रमशः  क्ष और ह होते हैं। दोनों नेत्रों के बीच अर्थात् त्रिकुटी का क्षेत्र इस का प्रभावी क्षेत्र होता है । मानव शरीर के ऊपरी भाग और नाभि के नीचे का भाग चंद्रमा के परावर्तित प्रकाश  से प्रभावित होता है । आज्ञा चक्र का बायाॅं भाग नाभि से नीचे वाह्य प्रभावों से संबंधित होता है और उसका स्वर क्ष होता है। दायाॅं भाग शरीर के ऊपरी भाग से संबंधित वाह्य प्रभावों से संबद्ध होता है और उसका स्वर ह होता है। चंद्रमा का विशेष स्वर ‘‘था‘‘ है जो ह और क्ष को नियंत्रित करता है आज्ञाचक्र को नहीं।

मानव शरीर में असंख्य नाड़ियाॅं और सैल होते हैं जिनका नियंत्रण चक्रों द्वारा होता है चक्रों में होने वाले कंपनों से ग्रंथियों में हारमोन्स का निस्सारण संतुलित होता है जिससे शरीर और मन संतुलित रहता है पर यदि किसी कारण से इनमें  असंतुलन हो जाता है तो अनेक समस्यायें उत्पन्न हो जाती हैं । जैसे यदि इफेरेन्ट और अफेरेन्ट नाड़ियों में असंतुलन उत्पन्न हो जाये तो व्यक्ति की विभेदन क्षमता प्रभावित होती है और वह निर्णय नहीं कर पाता कि क्या करे। स्वप्न में भयभीत होने पर जाग्रत अवस्था में भी डर बना रहता है। यदि योगासनों को नियमित रूप से सही ढंग से किया जाये तो मनुष्य निरोगी रहने के साथ साथ अपनी वृत्तियों पर नियंत्रण रख सकता है क्योंकि आसनों से चक्रों पर या तो दबाव बढ़ता है या घटता है अतः हारमोन्स का संतुलन बनाये रखकर वे संबंधित वृत्तियों को कम या अधिक कर सकते है। जैसे किसी को भाषण देने में डर लगता है और वह मयूरासन नियमित रूप से करने लगे तो वह मनीपूर चक्र को प्रभावित कर हारमोन्स में संतुलन लाकर भय वृत्ति को कम कर देगी।

हारमोन्स के अधिक स्राव होने पर वृत्तियाॅं बढ़ती हैं और कम होने पर घट जाती हैं। अनाहत चक्र हृदय को, लिंफेटिक ग्लेंड भौतिकता को और थायरायड तथा पैराथायरायड ग्लेंड मानसिक और बौद्धिक स्तर को प्रभावित करते हैं। गुरु चक्र पर ध्यान करने से शरीर और मन दोनों पर नियंत्रण हो जाता है। जब कोई महापुरुष आशीष देता है तो वह अपना हाथ उस व्यक्ति के सहस्त्रार चक्र पर रखता है जिसका अनुकूल प्रभाव पड़ता है इससे उच्च वृत्तियाॅं बढ़ जाती हैं। यदि मौखिक ही बोलकर आशीर्वाद दिया जाता है तो भी अच्छा प्रभाव पड़ता है। किसी महान व्यक्तित्व को साष्टाॅंग प्रणाम करने पर उसके द्वारा हाथ से स्पर्श  कर या बोलकर ध्वनि से ही आशीष दिया जाता है तो उसका धनात्मक प्रभाव पड़ता है। आप जिन्हें चाहते हैं उन्हें ही आशीष देंवे, यदि जिन्हें नहीं चाहते और उनके प्रणाम स्वीकार कर आशीष देते हैं तो उसके नकारात्मक संस्कार और कुवृत्तियाॅं आपके मन में आ सकते हैं । इसलिये आपको यह अधिकार नहीं है कि जिस चाहे को आशीष दे दो और जिस चाहे का प्रणाम स्वीकार कर लो। महिलाओं का क्रेनियम पुरुषों से थोड़ा छोटा होता है अतः उसमें नर्व सैल भी संख्या में कम होते हैं अतः यदि समान स्तर के महिला और पुरुष एक सी गति और सच्चाई से साधना करते हैं तो महिला के 99 प्रतिशत नर्व सैल प्रयुक्त होते हैं जब कि पुरुष के अपेक्षतया कम, पर महिलाओं में संतान के प्रति पुरुषों की अपेक्षा अधिक प्रेम होता है। किसी भी एक वृत्ति की अधिकता हानिकारक होती है अतः सबको चाहिये कि सभी वृत्तियों को परमपुरुष की ओर संम्प्रेषित करता जाये जिससे सभी कुछ संतुलन में बना रहेगा और समाज की अग्रगति होगी।

Saturday, 19 May 2018

194 पतन का कारण, निदान और समाधान

194 पतन का कारण, निदान और समाधान

 मन की विशेषता यह है कि वह उन प्रवृत्तियों की ओर बार बार जाता है जो उसे अच्छी लगती हैं और अच्छी लगने वाली वृत्तियाॅं नीचे की ओर अर्थात् पतन की ओर ले जाने वाली ही होती हैं। चॅूकि मनष्य जीवन पशुजीवन से उन्नत हुआ है अतः मन में पूर्व जीवनों के संस्कार चिपके रहना स्वाभाविक है। उन्नत संस्कारों या वृत्तियों की ओर मन को जाने में कठिनाई का अनुभव होता है अतः वह निम्न वृत्तियों की ओर जाकर आनन्द पाता है। आलस्य, ईर्ष्या  , लोभ ,जुगुप्सा, कामुकता आदि अनेक निम्नोमुखी वृत्तियाॅं मन को घेरे ही रहती हैं। इसी कारण कुछ लोगों में इस प्रकार की आन्तरिक कमजोरियाॅं उनके पतन का कारण बनती हैं। इन वृत्तियों की विशेषता यह होती है कि ये लगातार बढ़ती ही जाती हैं क्योंकि इनसे जुड़ते ही मन को लगता है कि उसे कोई नहीं देखता है या उसे कोई कुछ नहीं कह या कर सकता। जेल जाने वाला चोर प्रारम्भ में वैसा नहीं होता पर धीरे धीरे चोर वृत्ति बढ़ते बढ़ते उसे जेल तक ले जाती है। यदि सजा का भान उसे पहले ही हो जाता तो वह चोर वृत्ति से दूर रहने की ही सोचता। इसी प्रकार प्रारम्भ में नीच विचार छोटा होता है पर जैसे ही मन उसमें रुचि लेने लगता है वह लगातार गुणोत्तर श्रेणी में बढ़ता जाता है। नेता कभी मन में ये विचार नहीं लाते कि एक दिन उनके कुकर्मो की पोल खुल जाएगी, कोई महिला या पुरुष पहले से यह नहीं सोचता कि विवाहेतर संबंध बनाने पर वे पकड़े जा सकते हैं और सामाजिक अपमान सहना पड़ सकता है, कोई विद्यार्थी नकल करने के लिए चिट ले जाते समय यह नहीं सोचता कि परीक्षा में वह पकड़ा जा सकता है और उसका भविष्य खराब हो सकता है, सात्विक कर्म से जुड़े साधु सन्त भी कहाॅं सोचते हैं कि वे किसी आन्तरिक कमजोरी को दबाए हुए हैं जो अवसर पाकर ज्वालामुखी की तरह फूट पड़ेगी , आदि आदि अनेक वृत्तियाॅं हैं, जो धीरे धीरे कमजोर विचारों को जन्म देती हैं और थोड़ी सी चूक हो जाने पर पतन का कारण बनती हैं। इसलिए हम सभी को इस मामले को सूक्ष्मता से पहिचानना चाहिए और सतर्क रहकर उनपर विजय पाने के लिये उचित तरीके अपनाना चाहिए। इसलिए, छोटी हों या बड़ी इन राक्षसी कुप्रवृत्तियों के प्रभाव से बचने के लिए एकमात्र उपाय है परमपुरुष का आश्रय लेना। परमपुरुष का आश्रय लेने का तात्पर्य यह नहीं है कि हाथ पर हाथ रखकर उन्हीं के भरोसे बैठ जाना। इसमें, अपनी पूरी सामर्थ्य  से जीवन यापन सम्बन्धी सभी काम करते हुए मन में धारणा रखना होती है कि वह परमपुरुष हमें निकटता से देख रहे हैं और हमारे छोटे बड़े सभी विचार जान रहे हैं। इस प्रकार बार बार उन्हीं को स्मरण करने का आशय है उनका आश्रय लेना । स्मरण रहे , राक्षसी वृत्तियों वाले ‘रावण’ का विनाश ‘राम’ ही कर सकते हैं।

Saturday, 12 May 2018

193 आश्चर्य !

193
आश्चर्य !

 ‘‘तुम युद्ध जीतने वाले योद्धाओं को शूरवीर नहीं मानते, और न ही बड़ी बड़ी डिग्रियों वाले  पढ़े लिखे लोगों को विद्वान पंडित, आखिर क्यों ?’’

‘‘ इतना ही नहीं, मैं तो उनको अच्छा वक्ता भी नहीं मानता जो लच्छे पुच्छेदार भाषा बोलकर प्रभावित करते हैं और, उन्हें दानदाता भी नहीं मानता जो बहुत धन का दान करते हैं।’’

‘‘ अजीब बात है! तो फिर तुम शूरवीर और विद्वान पंडित किसे कहते हो?’’

‘‘ जिसने अपनी इंद्रियों पर विजय प्राप्त कर ली है वही शूरवीर है और जो मानवीय गुणों से भरपूर धर्माचरण करते हैं उन्हें मैं पंडित कहता हॅूं।’’

‘‘ अच्छा ! तो वक्ता और दानदाता किसे कहोगे?’’

‘‘ जो दूसरों के हित की बात करे वही मेरी दृष्टि में वक्ता है और, जो दूसरों को सम्मान देता है वही दानदाता है।’’

Thursday, 10 May 2018

192 ओंकार ध्वनि (अनहद नाद)


 192 ओंकार ध्वनि (अनहद नाद)
                                             
‘ध्वनि’ कहने से प्रायः सुनने की सीमा अर्थात् ‘आॅडिएबिल रेन्ज’ में आने वाली तरंगों को ही माना जाता है। परन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि जो ध्वनि तरंगें हमारे कान नहीं सुन पाते उनका अस्तित्व ही नहीं होता। अनेक प्राणी पाए जाते हैं जो ‘अल्ट्रासोनिक और इन्फ्रासोनिक’ तरंगों के प्रति संवेदनशील होते हैं । हमारे दूरसंचार के जितने भी माध्यम हैं वे इस सिद्धान्त पर कार्य करते हैं कि यदि किसी साधन से उत्पन्न ध्वनि तरंगें, चाहे वे सुनाई दें या नहीं , किसी अन्य वस्तु की मूल आवृत्ति वाली तरंगों से मेल कर सकती हैं तो अनुनादित अवस्था में उस वस्तु के द्वारा ग्रहण की जा सकती हैं चाहे वह उसी के पास हो या बहुत दूर। इस सिद्धान्त को व्यवहार में उतारते समय यह समस्या आती है कि ध्वनि तरंगें केवल 332 मीटर प्रति सेकेंड चल पाती हैं और थोड़ी दूर तक ही सुनाई देती हैं फिर अपने आप समाप्त हो जाती हैं तो हजारों किलोमीटर दूर बैठा कोई व्यक्ति उन्हें कैसे सुन सकता है? उपाय निकाला गया कि ‘वायरलेस तरंगें’ जो तीन लाख किलोमीटर प्रतिसेकेंड चल सकती हैं उनके साथ ध्वनि तरंगों को विद्द्युतीय  तरंगों में बदलकर भेजें तो काम बन सकता है। इस प्रकार ध्वनि तरंगों को माइक्रोवेव या वायरलैस तरंगों के साथ मिलाकर (इस कार्य को वैज्ञानिक शब्दावली में माडुलेशन कहते हैं) उन्हें कितनी ही दूर भेजा जा सकता है और उसी आवृत्ति को उस स्थान पर उत्पन्न कर उन भेजी गई तरंगों के साथ अनुनादित (रेजोनेट) कर पकड़ लिया ( इसे डिमाडुलेशन कहा जाता है ) जाता है और श्रव्यसीमा में लाकर उन्हें सुना जाता है। यही कारण है कि माइक्रोवेव्ज को केरियर वेव्ज भी कहते हैं क्योंकि वे अपने साथ अन्य तरंगों को ले जाने का कार्य करती हैं।
आध्यात्मिक विज्ञान में  ‘अनुनाद’ की प्रक्रिया बहुत पहले से प्रयुक्त की जाती है अन्तर यह है कि आधुनिक वैज्ञानिक इस कार्य में विद्द्युत और विद्द्युतीय  उपकरणों का सहारा लेते हैं और उच्च आवृत्ति की तरंगों को प्रयुक्त करते हैं, जबकि आध्यात्मिक वैज्ञानिक यह सब कार्य अपने ‘मन’ से ही करते हैं और निम्न आवृत्तियों का उपयोग करते हैं । आध्यत्मिक वैज्ञानिक यह मानते हैं कि मनुष्य जीवन का लक्ष्य परमपुरुष के साथ साक्षात्कार करना है, जिसे वे अपने ‘यूनिट माइंड’ को परमपुरुष के माइंड अर्थात् ‘काॅस्मिक माइंड’ के साथ रेजोनेंस स्थापित कर, कर सकते हैं । उनकी यह प्रक्रिया, अर्थात् ध्वन्यात्मक लय के साथ मन की तरंगों की समानांतरता (parallelism between   mental and acaustic rhythm) ‘‘प्रणिधान’’ कहलाती है तथा, ईश्वर  की मूल तरंगों के साथ मन की तरंगों की समानान्तरता  (parallelism between   mental and fundamental devine rhythm)  ‘‘ ईश्वर प्रणिधान’’ कहलाती है। हजारों वर्ष पुरानी और प्रतिष्ठा प्राप्त हमारी संस्कृति में समय समय पर अनेक महापुरुषों ने इस सिद्धान्त को अपने अपने हिसाब से पारिभाषित किया ,समझा और परमपुरुष को पाने के अपने अपने तरीके सिखाने लगे, जिसका कारण अपने नाम को अपने सिद्धान्त से जोड़कर अपने अनुयायियों के माध्यम से दूसरों की अपेक्षा श्रेष्ठ सिद्ध करने के अलावा और क्या हो सकता है। इस प्रकार मूल सिद्धान्त में अनेक विकृतियाॅं आ गईं और अब तो यह स्थिति है कि इन सिद्धान्तों के मूल प्रवर्तक आकर इन्हें समझना चाहें तो वे भी इनसे भ्रमित हो जाएंगे। एक उदाहरण देखिए,
उपनिषदों के अनुसार ,जब परमपुरुष के विचारों को मूर्तरूप देने के लिए उनके नाभिक अर्थात् काॅस्मिक न्युक्लियस, से कोई रचनात्मक तरंग उत्सर्जित  होती है तो वह अपने संकोच विकासी स्वरूप के साथ विकसित होने के लिये प्रमुख रूप से दो प्रकार के बलों का सहारा लेती है। 1. चितिशक्ति 2. कालिकाशक्ति। वास्तव में पहला बल उसे आधार जिसे हम ‘‘स्पेस‘‘ कहते हैं, देता है और दूसरा बल ‘‘टाइम‘‘ अर्थात् कालचक्र में बाॅंधता है, इसके बाद ही उस तरंग का स्वरूप, विशेष आकार पाता है। (ध्यान रहे, इस कालिकाशक्ति का तथाकथित कालीदेवी से कोई संबंध नहीं है, ‘‘काल’’अर्थात समय , eternal time factor  के माध्यम से अपनी क्रियाशीलता बनाये रखने के कारण ही इसे ‘कालिकाशक्ति’ दार्शनिक नाम दिया गया है)  . इस प्रकार टाइम और स्पेस के बनने के साथ ही निर्माण की प्रक्रिया प्रारंभ हुई  जिसमें ब्लेक होल, गैलेक्सियाॅं, तारे, नक्षत्र और जीव जगत क्रमागत रूप से आए । ब्राह्मिक मन पर उसकी क्रियात्मक शक्ति, जिसे प्रकृति कहा जाता है, जब सृष्टि, स्थिति और लय की तरंगे ( अर्थात् ब्रह्माॅंड के निर्माण करने के समय ) उत्पन्न करती हैं, उसे वेदों में ‘‘ओंकार ध्वनि’’ के नाम से जाना जाता है।  इसमें ‘उत्पत्ति’, ‘पालन’ और ‘संहार’ तीनों सम्मिलित हैं इसलिए इसे ‘‘कास्मिक साउंड आफ क्रिएशन प्रिजर्वेशन एंड डिस्ट्रक्शन ’’ कहा जाता है और दार्शनिक भाषा में ‘ अनहद या अनाहत नाद’ या ‘प्रणव’। इसकी अनेक आवृत्तियों में से मानव कानों की श्रव्यसीमा में आने वाली ध्वनि तरंगें विश्लेषित करने पर पचास प्रकार की पाई जाती हैं जिन्हें ‘काल’ अर्थात् ‘समय का वर्णक्रम’ कहा जाता है । परन्तु ,पश्चात्वर्ती विद्वानों ने  इन्हें स्वर ‘अ‘ से प्रारंभ (निर्माण का बीज मंत्र) और व्यंजन ‘म‘ (समाप्ति का बीज मंत्र) में अंत मानकर काल को ‘अखंड’ रूप में प्रकट करने के लिये अथर्ववेदकाल में भद्रकाली की कल्पना कर उसके हाथ में ‘अ‘ उच्चारित करता मानव मुॅंह बनाया गया, अन्य स्वरों और व्यॅंजनों में सेे प्रत्येक के एक एक मुॅंह बनाकर शेष 49 अक्षरों के मुॅंहों की माला, भद्रकाली को पहनाई गई और कालचक्र पूरा किया गया! यद्यपि अथर्ववेदकाल में लिखना पढ़ना लोगों ने सीख लिया था परंतु वेदों के लिखने पर प्रतिबंध था अतः पूर्वोक्त मानव मुॅंहों को ही वर्णमाला/अक्षमाला का प्रतिनिधि उदाहरण माना गया क्योंकि  उच्चारण मुॅंह से ही किया जाता है। और, इसके बाद  पौराणिक काल में इसे काल्पनिक कालीदेवी से जोड़कर वीभत्स ढंग से प्रस्तुत किया गया और मूल सिद्धान्त को तिलाॅंजलि दे दी गई।

‘टाइम और स्पेस ’ को यथार्थतः समझने के लिए आज के वैज्ञानिक भी अपना सिर खपा रहे हैं, लगातार शोध जारी हैं फिर भी वे  न तो इन्हें और न ही गुरुत्वाकर्षण बल के श्रोत और कारण को जान पा रहे हैं। परन्तु, आध्यात्मिक वैज्ञानिकों के द्वारा दिया गया स्पष्टीकरण तर्कसंगत होते हुए भी व्याख्याकारों की अयोग्यता के कारण धूल खाते खाते विलुप्त हो गया है। वास्तव में ‘काल या समय’, क्रिया की गतिशीलता का मानसिक परिमाप है और यह अनन्त ध्वनियों/तरंगों का सम्मिलित रूप होने से अखंड नहीं है, यह अलग बात है कि हम अपने कानों से उन सभी को नहीं सुन पाते। आधुनिक वैज्ञानिक परमपुरुष या ‘‘काॅस्मिक एन्टिटी’’ को नहीं मानते परन्तु ब्रह्माॅंड की उत्पत्ति को ‘‘बिगबेंग थ्योरी’’ के आधार पर समझाते हुए कहते हैं कि ब्रह्माॅंड की उत्पत्ति के समय बिगबेंग की घटना विस्फोट की तरह नहीं हुई बल्कि10E15 Kelvin (अर्थात् एक के आगे पन्द्रह शून्य लगाने से बनने वाली संख्या) ताप के विकिरण के साथ ‘स्पेस टाइम’ में फैलता हुआ अचानक ही अस्तित्व में आया। इसके तत्काल बाद 10E-29 Second (अर्थात् एक सेकेंड का, एक के आगे उन्तीस शून्य लगाने से बनने वाली संख्या वाॅं भाग ) में स्पेस का एक्पोनेशियल विस्तार10E27  (अर्थात् एक के आगे सत्ताइस शून्य लगाने से बनने वाली संख्या)  अथवा अधिक के गुणांक में हुआ, जो कि काॅस्मिक इन्फ्लेशन कहलाता हैं । ब्रह्माॅड का ताप 10,000 केल्विन से अधिक सैकड़ों हजार वर्ष रहा जिसे रेसेड्युअल कास्मिक माइक्रोवेव बेकग्राऊंड कहते हैं।

अब यदि आधुनिक वैज्ञानिकों की उपर्युक्त बातों पर चिंतन किया जाय तो स्पष्ट होता है कि ब्रह्माॅंड की उत्पत्ति अकल्पनीय रूप से सूक्ष्म समय में ही हो जाना क्या आध्यात्मिक वैज्ञानिकों के इस कथन से मेल नहीं करती कि यह द्रश्य जगत और सभी आकाशीय पिंड परमपुरुष के मन अर्थात् काॅस्मिक माइंड की विचार तरंगें हैं जिनके उत्पन्न होने और समाप्त होने का समयान्तर इसी प्रकार अकल्पनीय रूप से अल्प है। इससे स्पष्ट है कि भले ही आज आधुनिक वैज्ञानिक काॅस्मिक माइंड और कास्मिक एंटिटि को न माने परन्तु आने वाले निकट भविष्य में उन्हें इसे मानना ही होगा। ब्रह्मविज्ञान के अनुसार इस जगत में जिस प्रकार सभी उत्पन्न होते हैं, कुछ समय तक रहते हैं और फिर समाप्त हो जाते हैं उसी प्रकार ब्रह्माॅंडीय पिंड और स्वयं ब्रह्माॅंड भी कास्मिक माइंड में ही उत्पन्न होते , कुछ समय तक रहते और नष्ट होते रहते हैं। आज के वैज्ञानिक भी यह कहते हैं कि सभी गेलेक्सियाॅं ब्लेकहोल में जाकर नष्ट होती जा रही हैं और ‘ब्लेक होल’ अन्य ‘बड़े ब्लेक होल’ में । ब्रह्मविज्ञान में ‘‘उत्पत्ति, पालन और संहार’’ के तीनों गुणों वाले इस संपूर्ण ब्रह्माॅंड को निर्पेक्षब्रह्म (या निर्गुणब्रह्म) का, सापेक्षिक (या सगुण ) रूप कहा है (सर्वं खल्विदं ब्रह्म)। इसकी समग्रता संकेताक्षर ‘‘ उँ या ॐ  ’’ से प्रकट की जाती है। सामान्यतः इसे ‘‘ओम’’ इस  तरह, उच्चारित किया जाता है परन्तु यह वर्णमाला के सभी स्वर और व्यंजन सहित पचास प्रकार की ध्वनियों का मिश्रण होने के कारण मनुष्य के गले से उच्चारित नहीं किया जा सकता । इसे हृदय में अनुभव करना होता है तब इसकी गॅूंज कानों में सुनाई देती अनुभव होती है। यह संकेताक्षर,  ‘अ’ उत्पत्ति का बीज, ‘उ’ पालन का बीज और ‘म’ मृत्यु का बीज तीनों को मिलाकर ब्रह्म की सगुणता को और ‘चंद्राकार रेखा’ सगुण और निर्गुणब्रह्म के बीच पार्थक्य को और ‘विन्दु’ निर्गुण ब्रह्म को प्रदर्शित करते हैं। विन्दु का विषद वर्णन नहीं किया जा सकता है क्योंकि उसका अस्तित्व तो होता है परन्तु परिमाप नहीं। इस प्रकार, इसका अर्थ सहित चिन्तन करने से अनुभव की जाने वाली ओंकार ध्वनि पर साधक अपने मन की आवृत्तियों को समानान्तर करने की चेष्टा करता है जिसे ही साधना या पूजा करना कहा जाता है। असली पूजा यही है। सगुण से निर्गुण ब्रह्म की ओर बढ़ने का यह अभ्यास दृढ़ हो जाने पर काॅस्मिक फ्रीक्वेंसी अर्थात् ब्राह्मिक आवृत्तियों से अनुनाद होते ही ‘यूनिट माइंड’, ‘काॅस्मिक माईड’ के साथ एकीकृत हो जाता है जिसे आत्मसाक्षात्कार करना कहा जाता है। स्पष्ट है कि ‘ओम ओम’ चिल्लाने से नहीं इस पर चिन्तन, मनन करने से निकली ओंकार ध्वनि की तरंगों को हृदय में अनुभव करने पर ही ईशोपलब्धि होती है अन्यथा केवल समय ही नष्ट होता है।

ओंकार ध्वनि या प्रणव को अनुभव करने के अलग अलग स्तरों पर साधकों ने अपनी स्मृतियों को इस प्रकार बताया है। साधना की प्रगति के प्रथम स्तर पर यह दिव्य ध्वनि ‘‘शान्ति की ध्वनि’’ झींगुर की आवाज जैसी लगती है , इसके अगले स्तर पर लगता है जैसे कोई नूपुर अर्थात् घुंघरु पहनकर नाच रहा हो, इसके बाद बाॅंसुरी जैसी , फिर समुद्र से आने वाली आवाज जैसी, फिर घंटियों जैसी  ‘‘ टं, टं, टं ’’ और अन्त में शुद्ध ओंकार ‘ऊॅं, ऊॅ ’ अर्थात् प्रणव और अन्त में कोई ध्वनि नहीं सुनाई देती क्योंकि इस स्तर पर सगुण का क्षेत्र समाप्त होकर निर्गुण का क्षेत्र प्रारम्भ हो जाता है । विभिन्न प्रकार की स्थितियों में सुनाई देने वाली ध्वनियाॅं साधक के संस्कारों पर निर्भर होती हैं । किसी किसी को बीच की स्थितियों का अनुभव नहीं होता और सीधे ही प्रणव का अनुभव होता है। वेदों में कहा गया है ‘‘ प्रणवात्मकम् ब्रह्म’’ अर्थात् ब्रह्म की प्रकृति प्रणव जैसी ही होती है। प्रणव के सुनते ही साधक निर्गुण के संपर्क में आ जाता है।
प्र - नु + अल  = प्रणव ।  प्रणव का अर्थ है वह सत्ता जो परमपुरुष से सम्पर्क करने के लिए, सहायक होती है ।  संस्कृत में इसीलिए इसे ‘‘शब्द ब्रह्म’’  कहा गया है।
इससे यह स्पष्ट होता है कि हमें आध्यात्म को विज्ञानसम्मत और विज्ञान को आध्यात्मसम्मत बनाते हुए आगे बढ़ना चाहिए।

Tuesday, 1 May 2018

191 इष्टमंत्र, भगवान और उनके नाम


191 इष्टमंत्र, भगवान और उनके नाम

    अपने अपने संज्ञानात्मक प्रक्षेप के अनुसार लोग एक ही परमसत्ता को विभिन्न नाम दे देते हैं। आध्यात्मिक साधक को इन नामों और उनसे जुड़ी महामनस्कता के झगड़े में नहीं पड़ना चाहिये क्योंकि इन सबके भीतर एकसमान आत्मा रहती है। आइए अब हम परमसत्ता के अनेक नामों पर विचार करें,

(1) ‘‘नारायण‘‘। यह ‘नार‘ और ‘अयन‘ इन दो शब्दों से मिलकर बना है, और उसका आन्तरिक अर्थ है परमपुरुष। नार शब्द के संस्कृत में तीन अर्थ हैं, पहला है भक्ति, जैसे नारद माने भक्ति देने वाला। दूसरा अर्थ है पानी, और तीसरा अर्थ है प्रकृति अर्थात् परम क्रियात्मक शक्ति। और अयन माने आश्रय, इसलिये नारायण माने प्रकृति का आश्रय। परम क्रियात्मक शक्ति का आश्रय अर्थात् परमपुरुष।

(2) शिव। शिव और शक्ति एक ही वास्तविकता के दो पक्ष हैं। शक्ति कोई पृथक सत्ता नहीं वह सार्वभौमिक तथ्य है और शिव अखंडसत्ता। शक्ति‘ का अर्थ है क्रियात्मक सत्ता। किसी भी क्रिया में दो सिद्धान्त होते हैं एक ज्ञानात्मक और दूसरा क्रियात्मक। मानलो आप कोई मशीन चला रहे हैं, इसमें दो सिद्धान्त हैं एक मशीन को मस्तिष्क की सहायता से दिशा निर्देश  देना अर्थात् संज्ञानात्मकता और दूसरा मासपेशियां जो संज्ञान के दिशा निर्देश  पर मशीन संचालित करतीं हैं अर्थात् क्रियात्मकता। ब्रह्माॅंड भी संज्ञानात्मक सिद्धान्त और क्रियात्मक सिद्धान्त दोनों से मिलकर बना है। संज्ञानात्मक सिद्धान्त हैं परमपुरुष और क्रियात्मक सिद्धान्त है परमाप्रकृति। सिद्धान्ततः यह दो पृथक सत्ताओं के होने का आभास कराता है पर आन्तरिक रूप से वे एक ही हैं। शिव और शक्ति का सम्मिलित नाम है ब्रह्म। इसलिये शिव हुए परम चेतना, नारायण भी परमचेतना हैं अतः शिव और नारायण में कोई अंतर नहीं है।

(3) ‘माधव‘ । संस्कृत में ‘मा‘ के तीन अर्थ हैं, पहला है ‘‘नहीं‘‘ जैसे मा गच्छ, अर्थात् मत जाओ। अन्य अर्थ है इंद्रियाॅं। इसलिये जीभ को भी ‘मा‘ कहते हैं, और तीसरा है परम क्रियात्मक सत्ता, परमाप्रकृति, लक्ष्मी। ‘धव‘ माने नियंत्रक या पति, इसी कारण जिस महिला का पति नहीं होता उसे विधवा कहते हैं। ‘धव‘ का अन्य अर्थ सफेद भी है। इसलिये माधव का मतलब हुआ जो परमाप्रकृति को नियंत्रित करता है अर्थात् परमपुरुष।

(4) ‘कृष्ण‘ । इसका अर्थ है आकर्षण करने वाला, अतः वह जो विश्व  ब्रह्माॅंड के संपूर्ण अस्तित्व को अपनी ओर खींच रहे हैं वह कृष्ण हैं। सभी जाने अंजाने उन्हीं के आकर्षण में बंधे हुए हैं इसलिये कृष्ण परमपुरुष हैं। इस प्रकार कृष्ण/माधव भी शिव और नारायण की तरह एक ही सत्ता को प्रदर्शित  करते हैं।

(5) ‘राम‘। रमन्ति योगिनः यस्मिन् इति रामः। धातु ‘रम‘ और प्रत्यय ‘घञ´‘ को मिलाकर राम बनता है जिसका अर्थ है परम सुन्दरता का आश्रय अर्थात् परमपुरुष। इसलिये किसी को भी भगवान के नामों की महानता को लेकर झगड़ना नहीं चाहिये। राम का अन्य अर्थ है, राति महीधरा राम अर्थात् अत्यंत चौंधियाने  वाला, चमकदार अस्तित्व। परमपुरुष को सभी अत्यंत चमकदार अर्थात् प्रकाशवान मानते हैं। अन्य अर्थ है, रावणस्य मरणम् इति रामः। रावण क्या है? आप जानते हैं कि मानव मन की सूक्ष्म और स्थूल दोनों प्रकार की प्रवृृत्तियां होती हैं, केवल स्थूल प्रवृत्तियाॅं दस दिशाओं पूर्व, पश्चिम , उत्तर, दक्षिण, ईषान, वायव्य, नैरित्य, आग्नेय, ऊर्ध्व  और अधः में अपना काम करती रहती हैं। इन दसों दिशाओं में भौतिक जगत की वस्तुओं की ओर मन के भटकने के कारण मन के भ्रष्ट होने की संभावना अधिक होती है अतः जीव मन की इस प्रकार की प्रवृत्तियों के साथ संयुक्त रहने को रावण कहते हैं। रावण को दस सिरों वाला इसीलिये माना गया है। अतः आध्यात्मिक उन्नति चाहने वाले साधक को क्या करना चाहिये? साधक को इन भ्रष्ट करने वाली, आत्मिक उन्नति के मार्ग में अंधेरा उत्पन्न करने वाली, प्रवृत्तियों से संघर्ष करना होगा अर्थात् रावण का वध करना होगा। रावणस्य मरणम् इति रामः, अतः साधक रावण को मारकर सार्वभौमिक सत्ता के सतत प्रवाह में आकर राम राज्य पाता है। इसलिये राम माने पुरुषोत्तम। रावण का प्रथम अक्षर ‘रा‘ मरणम का प्रथम अक्षर ‘म‘ इसलिये रावणस्य मरणम माने राम क्योंकि जब आध्यात्मिक साधक राम का चिंतन करता है रावण मर जाता है। इस प्रकार नारायण, शिव, माधव और राम एक ही हैं।

इष्टमंत्र
     अपनी ज्ञानेन्द्रियों द्वारा प्राप्त संकेतों को श्रव्य सीमा में लाने के पूर्व वे स्पन्दन, परा, पश्यन्ति, मध्यमा, द्योतमाना, वाक्, वैखरी और श्रुतिगोचरा आदि स्तरोें से होते हुई हमारे मस्तिष्क तक आ पाते हैं; इन्हें ही भगवान सदाशिव ने वर्णमाला में निहित सभी ‘स्वरों और व्यंजनों’ के रूप में प्रकट किया है। वर्णमाला के सभी पचास अक्षर किसी न किसी अभिव्यक्तिकरण का बीज हैं परन्तु जब इन्हें अकेले या संयुक्त कर शक्तिमान कर दिया जाता है तो ये मन्त्र कहलाते हैं। ‘‘मननात् तारयेत् यः सः मन्त्रः परिकीर्तितः,’’ अर्थात् जिसके मनन करने से मुक्ति मिले वही मन्त्र हैं। साधक के लिये सबसे महत्वपूर्ण उसका इष्टमंत्र ही होता है, उसी के चिंतन मनन और निदिध्यासन से वह परम प्रकाश  पाता है। इष्टमंत्र प्रत्येक व्यक्ति का अलग अलग होता है जो उसके संस्कारों के अनुसार चयन किया जाकर गुरुकृपा से प्राप्त होता है। यह कार्य कौलगुरु ही करते हैं क्योंकि वे ही पुरश्चरण  की क्रिया में प्रवीण होते हैं। पुरश्चरण  का अर्थ है शब्दों को शक्ति सम्पन्न करने की पद्धति ।  किसी को पिछले जन्म में जो इष्ट मंत्र मिला था और वह मुक्त नहीं हो पाया तो इस जन्म में उसे उसी मन्त्र के अभ्यास से आगे बढ़ना होगा अन्यथा उसका पिछला अभ्यास व्यर्थ जाएगा। कौलगुरु इसे पहचानने में प्रवीण होते हैं अतः उसी प्रकार संबंधित व्यक्ति को उचित शब्दों का चयन कर शक्ति सम्पन्न इष्टमंत्र सिखाते हैं। अपने अपने इष्टमंत्र का श्वास प्रश्वास  की सहायता से नियमित रूपसे जाप करते रहने का इतना अभ्यास करना होता है कि यह जाप नींद में भी चलता रहे। इसे ही साधना करना या पूजा करना कहते हैं। इस स्थिति को प्राप्त होने पर ओंकार ध्वनि (cosmic sound of creation preservation and destruction) के साथ अनुनाद स्थापित करने में कठिनाई नहीं होती। अनुनाद की यही स्थिति जब स्थिर या स्थायी हो जाती है तो इसे ही समाधि कहते हैं।
शक्तिमान शब्द ही मंत्र कहलाते हैं जो कौलगुरु साधक को उसके संस्कारों के अनुसार इष्टमंत्र के रूप में कृपापूर्वक देते हैं और मंत्रचैतन्य हो जाने पर अर्थात् उपरोक्तानुसार ओंकार के साथ अनुनाद स्थापित हो जाने पर, उन्हीं की कृपा से परमपुरुष से साक्षात्कार होता है। जिसे सक्षम गुरु से इष्टमंत्र मिल गया वही धन्य है उसी का जीवन सफल है। अन्य सब तो प्रदर्शन  मात्र है। ‘कौलगुरु’ का अर्थ है, जो कुंडलनी योग का अभ्यास करते हुए आत्म साक्षात्कार कर, पुरश्चरण में प्रवीणता पाकर बिलकुल शुद्ध हो चुके हैं ।

व्यक्तिगत इष्टमन्त्र के महत्व को एक दृष्टान्त के द्वारा समझा जा सकता है। जैसे, ‘राम’ और ‘रावण’ का इष्टमंत्र शिव और ‘सदाशिव’ तथा ‘हनुमान’ का इष्टमंत्र राम था । ‘नारद’ का इष्टमंत्र था नारायण। एक दिन हनुमान और नारद की भेंट हुई तब नारद ने पूछा, हनुमान जी! ‘श्रीनाथ’ और ‘जानकीनाथ’ क्या अलग अलग हैं? उत्तर मिला , नहीं, बिलकुल नहीं श्रीनाथ माने नारायण और जानकीनाथ माने भी नारायण , दोनों एक ही हैं। नारद बोले तो फिर आप सदा ही ‘राम, राम, राम ही क्यों कहते हो कभी भूल से भी नारायण नहीं कहते? हनुमान जी बोले,
‘‘ श्रीनाथे जानकी नाथे चाभेद परमात्मने, तथापि मम सर्वस्व श्रीराम कमललोचनः’’
अर्थात्, श्रीनाथ और जानकीनाथ में कोई भेद नहीं, दोनों ही परमात्मा के नाम हैं । परन्तु, मेरे लिए तो कमललोचन राम ही सर्वस्व हैं। मैं किसी नारायण को नहीं जानता।  इसलिए , सभी को प्रयास करना चाहिए कि उन्हें शीघ्र ही इष्टमंत्र मिल जाय और फिर उसके अलावा सबकुछ भूल कर द्रुतगति से आगे बढ़ते जाएं। ध्यान रहे, पुस्तक में पढ़ कर या किसी व्यक्ति का अनुसरण कर, प्राप्त किए  किसी अक्षर या शब्दनाम से अभ्यास करना समय नष्ट करने के अलावा कुछ नहीं है क्योंकि पहले ही बताया जा चुका है कि प्रत्येक व्यक्ति का इष्टमंत्र उसके संस्कारों के अनुसार अलग अलग ही होता हैं।