Thursday 10 May 2018

192 ओंकार ध्वनि (अनहद नाद)


 192 ओंकार ध्वनि (अनहद नाद)
                                             
‘ध्वनि’ कहने से प्रायः सुनने की सीमा अर्थात् ‘आॅडिएबिल रेन्ज’ में आने वाली तरंगों को ही माना जाता है। परन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि जो ध्वनि तरंगें हमारे कान नहीं सुन पाते उनका अस्तित्व ही नहीं होता। अनेक प्राणी पाए जाते हैं जो ‘अल्ट्रासोनिक और इन्फ्रासोनिक’ तरंगों के प्रति संवेदनशील होते हैं । हमारे दूरसंचार के जितने भी माध्यम हैं वे इस सिद्धान्त पर कार्य करते हैं कि यदि किसी साधन से उत्पन्न ध्वनि तरंगें, चाहे वे सुनाई दें या नहीं , किसी अन्य वस्तु की मूल आवृत्ति वाली तरंगों से मेल कर सकती हैं तो अनुनादित अवस्था में उस वस्तु के द्वारा ग्रहण की जा सकती हैं चाहे वह उसी के पास हो या बहुत दूर। इस सिद्धान्त को व्यवहार में उतारते समय यह समस्या आती है कि ध्वनि तरंगें केवल 332 मीटर प्रति सेकेंड चल पाती हैं और थोड़ी दूर तक ही सुनाई देती हैं फिर अपने आप समाप्त हो जाती हैं तो हजारों किलोमीटर दूर बैठा कोई व्यक्ति उन्हें कैसे सुन सकता है? उपाय निकाला गया कि ‘वायरलेस तरंगें’ जो तीन लाख किलोमीटर प्रतिसेकेंड चल सकती हैं उनके साथ ध्वनि तरंगों को विद्द्युतीय  तरंगों में बदलकर भेजें तो काम बन सकता है। इस प्रकार ध्वनि तरंगों को माइक्रोवेव या वायरलैस तरंगों के साथ मिलाकर (इस कार्य को वैज्ञानिक शब्दावली में माडुलेशन कहते हैं) उन्हें कितनी ही दूर भेजा जा सकता है और उसी आवृत्ति को उस स्थान पर उत्पन्न कर उन भेजी गई तरंगों के साथ अनुनादित (रेजोनेट) कर पकड़ लिया ( इसे डिमाडुलेशन कहा जाता है ) जाता है और श्रव्यसीमा में लाकर उन्हें सुना जाता है। यही कारण है कि माइक्रोवेव्ज को केरियर वेव्ज भी कहते हैं क्योंकि वे अपने साथ अन्य तरंगों को ले जाने का कार्य करती हैं।
आध्यात्मिक विज्ञान में  ‘अनुनाद’ की प्रक्रिया बहुत पहले से प्रयुक्त की जाती है अन्तर यह है कि आधुनिक वैज्ञानिक इस कार्य में विद्द्युत और विद्द्युतीय  उपकरणों का सहारा लेते हैं और उच्च आवृत्ति की तरंगों को प्रयुक्त करते हैं, जबकि आध्यात्मिक वैज्ञानिक यह सब कार्य अपने ‘मन’ से ही करते हैं और निम्न आवृत्तियों का उपयोग करते हैं । आध्यत्मिक वैज्ञानिक यह मानते हैं कि मनुष्य जीवन का लक्ष्य परमपुरुष के साथ साक्षात्कार करना है, जिसे वे अपने ‘यूनिट माइंड’ को परमपुरुष के माइंड अर्थात् ‘काॅस्मिक माइंड’ के साथ रेजोनेंस स्थापित कर, कर सकते हैं । उनकी यह प्रक्रिया, अर्थात् ध्वन्यात्मक लय के साथ मन की तरंगों की समानांतरता (parallelism between   mental and acaustic rhythm) ‘‘प्रणिधान’’ कहलाती है तथा, ईश्वर  की मूल तरंगों के साथ मन की तरंगों की समानान्तरता  (parallelism between   mental and fundamental devine rhythm)  ‘‘ ईश्वर प्रणिधान’’ कहलाती है। हजारों वर्ष पुरानी और प्रतिष्ठा प्राप्त हमारी संस्कृति में समय समय पर अनेक महापुरुषों ने इस सिद्धान्त को अपने अपने हिसाब से पारिभाषित किया ,समझा और परमपुरुष को पाने के अपने अपने तरीके सिखाने लगे, जिसका कारण अपने नाम को अपने सिद्धान्त से जोड़कर अपने अनुयायियों के माध्यम से दूसरों की अपेक्षा श्रेष्ठ सिद्ध करने के अलावा और क्या हो सकता है। इस प्रकार मूल सिद्धान्त में अनेक विकृतियाॅं आ गईं और अब तो यह स्थिति है कि इन सिद्धान्तों के मूल प्रवर्तक आकर इन्हें समझना चाहें तो वे भी इनसे भ्रमित हो जाएंगे। एक उदाहरण देखिए,
उपनिषदों के अनुसार ,जब परमपुरुष के विचारों को मूर्तरूप देने के लिए उनके नाभिक अर्थात् काॅस्मिक न्युक्लियस, से कोई रचनात्मक तरंग उत्सर्जित  होती है तो वह अपने संकोच विकासी स्वरूप के साथ विकसित होने के लिये प्रमुख रूप से दो प्रकार के बलों का सहारा लेती है। 1. चितिशक्ति 2. कालिकाशक्ति। वास्तव में पहला बल उसे आधार जिसे हम ‘‘स्पेस‘‘ कहते हैं, देता है और दूसरा बल ‘‘टाइम‘‘ अर्थात् कालचक्र में बाॅंधता है, इसके बाद ही उस तरंग का स्वरूप, विशेष आकार पाता है। (ध्यान रहे, इस कालिकाशक्ति का तथाकथित कालीदेवी से कोई संबंध नहीं है, ‘‘काल’’अर्थात समय , eternal time factor  के माध्यम से अपनी क्रियाशीलता बनाये रखने के कारण ही इसे ‘कालिकाशक्ति’ दार्शनिक नाम दिया गया है)  . इस प्रकार टाइम और स्पेस के बनने के साथ ही निर्माण की प्रक्रिया प्रारंभ हुई  जिसमें ब्लेक होल, गैलेक्सियाॅं, तारे, नक्षत्र और जीव जगत क्रमागत रूप से आए । ब्राह्मिक मन पर उसकी क्रियात्मक शक्ति, जिसे प्रकृति कहा जाता है, जब सृष्टि, स्थिति और लय की तरंगे ( अर्थात् ब्रह्माॅंड के निर्माण करने के समय ) उत्पन्न करती हैं, उसे वेदों में ‘‘ओंकार ध्वनि’’ के नाम से जाना जाता है।  इसमें ‘उत्पत्ति’, ‘पालन’ और ‘संहार’ तीनों सम्मिलित हैं इसलिए इसे ‘‘कास्मिक साउंड आफ क्रिएशन प्रिजर्वेशन एंड डिस्ट्रक्शन ’’ कहा जाता है और दार्शनिक भाषा में ‘ अनहद या अनाहत नाद’ या ‘प्रणव’। इसकी अनेक आवृत्तियों में से मानव कानों की श्रव्यसीमा में आने वाली ध्वनि तरंगें विश्लेषित करने पर पचास प्रकार की पाई जाती हैं जिन्हें ‘काल’ अर्थात् ‘समय का वर्णक्रम’ कहा जाता है । परन्तु ,पश्चात्वर्ती विद्वानों ने  इन्हें स्वर ‘अ‘ से प्रारंभ (निर्माण का बीज मंत्र) और व्यंजन ‘म‘ (समाप्ति का बीज मंत्र) में अंत मानकर काल को ‘अखंड’ रूप में प्रकट करने के लिये अथर्ववेदकाल में भद्रकाली की कल्पना कर उसके हाथ में ‘अ‘ उच्चारित करता मानव मुॅंह बनाया गया, अन्य स्वरों और व्यॅंजनों में सेे प्रत्येक के एक एक मुॅंह बनाकर शेष 49 अक्षरों के मुॅंहों की माला, भद्रकाली को पहनाई गई और कालचक्र पूरा किया गया! यद्यपि अथर्ववेदकाल में लिखना पढ़ना लोगों ने सीख लिया था परंतु वेदों के लिखने पर प्रतिबंध था अतः पूर्वोक्त मानव मुॅंहों को ही वर्णमाला/अक्षमाला का प्रतिनिधि उदाहरण माना गया क्योंकि  उच्चारण मुॅंह से ही किया जाता है। और, इसके बाद  पौराणिक काल में इसे काल्पनिक कालीदेवी से जोड़कर वीभत्स ढंग से प्रस्तुत किया गया और मूल सिद्धान्त को तिलाॅंजलि दे दी गई।

‘टाइम और स्पेस ’ को यथार्थतः समझने के लिए आज के वैज्ञानिक भी अपना सिर खपा रहे हैं, लगातार शोध जारी हैं फिर भी वे  न तो इन्हें और न ही गुरुत्वाकर्षण बल के श्रोत और कारण को जान पा रहे हैं। परन्तु, आध्यात्मिक वैज्ञानिकों के द्वारा दिया गया स्पष्टीकरण तर्कसंगत होते हुए भी व्याख्याकारों की अयोग्यता के कारण धूल खाते खाते विलुप्त हो गया है। वास्तव में ‘काल या समय’, क्रिया की गतिशीलता का मानसिक परिमाप है और यह अनन्त ध्वनियों/तरंगों का सम्मिलित रूप होने से अखंड नहीं है, यह अलग बात है कि हम अपने कानों से उन सभी को नहीं सुन पाते। आधुनिक वैज्ञानिक परमपुरुष या ‘‘काॅस्मिक एन्टिटी’’ को नहीं मानते परन्तु ब्रह्माॅंड की उत्पत्ति को ‘‘बिगबेंग थ्योरी’’ के आधार पर समझाते हुए कहते हैं कि ब्रह्माॅंड की उत्पत्ति के समय बिगबेंग की घटना विस्फोट की तरह नहीं हुई बल्कि10E15 Kelvin (अर्थात् एक के आगे पन्द्रह शून्य लगाने से बनने वाली संख्या) ताप के विकिरण के साथ ‘स्पेस टाइम’ में फैलता हुआ अचानक ही अस्तित्व में आया। इसके तत्काल बाद 10E-29 Second (अर्थात् एक सेकेंड का, एक के आगे उन्तीस शून्य लगाने से बनने वाली संख्या वाॅं भाग ) में स्पेस का एक्पोनेशियल विस्तार10E27  (अर्थात् एक के आगे सत्ताइस शून्य लगाने से बनने वाली संख्या)  अथवा अधिक के गुणांक में हुआ, जो कि काॅस्मिक इन्फ्लेशन कहलाता हैं । ब्रह्माॅड का ताप 10,000 केल्विन से अधिक सैकड़ों हजार वर्ष रहा जिसे रेसेड्युअल कास्मिक माइक्रोवेव बेकग्राऊंड कहते हैं।

अब यदि आधुनिक वैज्ञानिकों की उपर्युक्त बातों पर चिंतन किया जाय तो स्पष्ट होता है कि ब्रह्माॅंड की उत्पत्ति अकल्पनीय रूप से सूक्ष्म समय में ही हो जाना क्या आध्यात्मिक वैज्ञानिकों के इस कथन से मेल नहीं करती कि यह द्रश्य जगत और सभी आकाशीय पिंड परमपुरुष के मन अर्थात् काॅस्मिक माइंड की विचार तरंगें हैं जिनके उत्पन्न होने और समाप्त होने का समयान्तर इसी प्रकार अकल्पनीय रूप से अल्प है। इससे स्पष्ट है कि भले ही आज आधुनिक वैज्ञानिक काॅस्मिक माइंड और कास्मिक एंटिटि को न माने परन्तु आने वाले निकट भविष्य में उन्हें इसे मानना ही होगा। ब्रह्मविज्ञान के अनुसार इस जगत में जिस प्रकार सभी उत्पन्न होते हैं, कुछ समय तक रहते हैं और फिर समाप्त हो जाते हैं उसी प्रकार ब्रह्माॅंडीय पिंड और स्वयं ब्रह्माॅंड भी कास्मिक माइंड में ही उत्पन्न होते , कुछ समय तक रहते और नष्ट होते रहते हैं। आज के वैज्ञानिक भी यह कहते हैं कि सभी गेलेक्सियाॅं ब्लेकहोल में जाकर नष्ट होती जा रही हैं और ‘ब्लेक होल’ अन्य ‘बड़े ब्लेक होल’ में । ब्रह्मविज्ञान में ‘‘उत्पत्ति, पालन और संहार’’ के तीनों गुणों वाले इस संपूर्ण ब्रह्माॅंड को निर्पेक्षब्रह्म (या निर्गुणब्रह्म) का, सापेक्षिक (या सगुण ) रूप कहा है (सर्वं खल्विदं ब्रह्म)। इसकी समग्रता संकेताक्षर ‘‘ उँ या ॐ  ’’ से प्रकट की जाती है। सामान्यतः इसे ‘‘ओम’’ इस  तरह, उच्चारित किया जाता है परन्तु यह वर्णमाला के सभी स्वर और व्यंजन सहित पचास प्रकार की ध्वनियों का मिश्रण होने के कारण मनुष्य के गले से उच्चारित नहीं किया जा सकता । इसे हृदय में अनुभव करना होता है तब इसकी गॅूंज कानों में सुनाई देती अनुभव होती है। यह संकेताक्षर,  ‘अ’ उत्पत्ति का बीज, ‘उ’ पालन का बीज और ‘म’ मृत्यु का बीज तीनों को मिलाकर ब्रह्म की सगुणता को और ‘चंद्राकार रेखा’ सगुण और निर्गुणब्रह्म के बीच पार्थक्य को और ‘विन्दु’ निर्गुण ब्रह्म को प्रदर्शित करते हैं। विन्दु का विषद वर्णन नहीं किया जा सकता है क्योंकि उसका अस्तित्व तो होता है परन्तु परिमाप नहीं। इस प्रकार, इसका अर्थ सहित चिन्तन करने से अनुभव की जाने वाली ओंकार ध्वनि पर साधक अपने मन की आवृत्तियों को समानान्तर करने की चेष्टा करता है जिसे ही साधना या पूजा करना कहा जाता है। असली पूजा यही है। सगुण से निर्गुण ब्रह्म की ओर बढ़ने का यह अभ्यास दृढ़ हो जाने पर काॅस्मिक फ्रीक्वेंसी अर्थात् ब्राह्मिक आवृत्तियों से अनुनाद होते ही ‘यूनिट माइंड’, ‘काॅस्मिक माईड’ के साथ एकीकृत हो जाता है जिसे आत्मसाक्षात्कार करना कहा जाता है। स्पष्ट है कि ‘ओम ओम’ चिल्लाने से नहीं इस पर चिन्तन, मनन करने से निकली ओंकार ध्वनि की तरंगों को हृदय में अनुभव करने पर ही ईशोपलब्धि होती है अन्यथा केवल समय ही नष्ट होता है।

ओंकार ध्वनि या प्रणव को अनुभव करने के अलग अलग स्तरों पर साधकों ने अपनी स्मृतियों को इस प्रकार बताया है। साधना की प्रगति के प्रथम स्तर पर यह दिव्य ध्वनि ‘‘शान्ति की ध्वनि’’ झींगुर की आवाज जैसी लगती है , इसके अगले स्तर पर लगता है जैसे कोई नूपुर अर्थात् घुंघरु पहनकर नाच रहा हो, इसके बाद बाॅंसुरी जैसी , फिर समुद्र से आने वाली आवाज जैसी, फिर घंटियों जैसी  ‘‘ टं, टं, टं ’’ और अन्त में शुद्ध ओंकार ‘ऊॅं, ऊॅ ’ अर्थात् प्रणव और अन्त में कोई ध्वनि नहीं सुनाई देती क्योंकि इस स्तर पर सगुण का क्षेत्र समाप्त होकर निर्गुण का क्षेत्र प्रारम्भ हो जाता है । विभिन्न प्रकार की स्थितियों में सुनाई देने वाली ध्वनियाॅं साधक के संस्कारों पर निर्भर होती हैं । किसी किसी को बीच की स्थितियों का अनुभव नहीं होता और सीधे ही प्रणव का अनुभव होता है। वेदों में कहा गया है ‘‘ प्रणवात्मकम् ब्रह्म’’ अर्थात् ब्रह्म की प्रकृति प्रणव जैसी ही होती है। प्रणव के सुनते ही साधक निर्गुण के संपर्क में आ जाता है।
प्र - नु + अल  = प्रणव ।  प्रणव का अर्थ है वह सत्ता जो परमपुरुष से सम्पर्क करने के लिए, सहायक होती है ।  संस्कृत में इसीलिए इसे ‘‘शब्द ब्रह्म’’  कहा गया है।
इससे यह स्पष्ट होता है कि हमें आध्यात्म को विज्ञानसम्मत और विज्ञान को आध्यात्मसम्मत बनाते हुए आगे बढ़ना चाहिए।

2 comments:

  1. Yur contact numb???mai jhingur ki aawJ khule kaan se suntaa hun...9 mahine ke guru mantra ke ajapa saadhnaa ke baad...mine numb...9670430770

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  2. बहुत अच्छा। साधना जारी रखें,आपकी आध्यात्मिक प्रगति शीघ्रता से होगी।

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