191 इष्टमंत्र, भगवान और उनके नाम
अपने अपने संज्ञानात्मक प्रक्षेप के अनुसार लोग एक ही परमसत्ता को विभिन्न नाम दे देते हैं। आध्यात्मिक साधक को इन नामों और उनसे जुड़ी महामनस्कता के झगड़े में नहीं पड़ना चाहिये क्योंकि इन सबके भीतर एकसमान आत्मा रहती है। आइए अब हम परमसत्ता के अनेक नामों पर विचार करें,
(1) ‘‘नारायण‘‘। यह ‘नार‘ और ‘अयन‘ इन दो शब्दों से मिलकर बना है, और उसका आन्तरिक अर्थ है परमपुरुष। नार शब्द के संस्कृत में तीन अर्थ हैं, पहला है भक्ति, जैसे नारद माने भक्ति देने वाला। दूसरा अर्थ है पानी, और तीसरा अर्थ है प्रकृति अर्थात् परम क्रियात्मक शक्ति। और अयन माने आश्रय, इसलिये नारायण माने प्रकृति का आश्रय। परम क्रियात्मक शक्ति का आश्रय अर्थात् परमपुरुष।
(2) शिव। शिव और शक्ति एक ही वास्तविकता के दो पक्ष हैं। शक्ति कोई पृथक सत्ता नहीं वह सार्वभौमिक तथ्य है और शिव अखंडसत्ता। शक्ति‘ का अर्थ है क्रियात्मक सत्ता। किसी भी क्रिया में दो सिद्धान्त होते हैं एक ज्ञानात्मक और दूसरा क्रियात्मक। मानलो आप कोई मशीन चला रहे हैं, इसमें दो सिद्धान्त हैं एक मशीन को मस्तिष्क की सहायता से दिशा निर्देश देना अर्थात् संज्ञानात्मकता और दूसरा मासपेशियां जो संज्ञान के दिशा निर्देश पर मशीन संचालित करतीं हैं अर्थात् क्रियात्मकता। ब्रह्माॅंड भी संज्ञानात्मक सिद्धान्त और क्रियात्मक सिद्धान्त दोनों से मिलकर बना है। संज्ञानात्मक सिद्धान्त हैं परमपुरुष और क्रियात्मक सिद्धान्त है परमाप्रकृति। सिद्धान्ततः यह दो पृथक सत्ताओं के होने का आभास कराता है पर आन्तरिक रूप से वे एक ही हैं। शिव और शक्ति का सम्मिलित नाम है ब्रह्म। इसलिये शिव हुए परम चेतना, नारायण भी परमचेतना हैं अतः शिव और नारायण में कोई अंतर नहीं है।
(3) ‘माधव‘ । संस्कृत में ‘मा‘ के तीन अर्थ हैं, पहला है ‘‘नहीं‘‘ जैसे मा गच्छ, अर्थात् मत जाओ। अन्य अर्थ है इंद्रियाॅं। इसलिये जीभ को भी ‘मा‘ कहते हैं, और तीसरा है परम क्रियात्मक सत्ता, परमाप्रकृति, लक्ष्मी। ‘धव‘ माने नियंत्रक या पति, इसी कारण जिस महिला का पति नहीं होता उसे विधवा कहते हैं। ‘धव‘ का अन्य अर्थ सफेद भी है। इसलिये माधव का मतलब हुआ जो परमाप्रकृति को नियंत्रित करता है अर्थात् परमपुरुष।
(4) ‘कृष्ण‘ । इसका अर्थ है आकर्षण करने वाला, अतः वह जो विश्व ब्रह्माॅंड के संपूर्ण अस्तित्व को अपनी ओर खींच रहे हैं वह कृष्ण हैं। सभी जाने अंजाने उन्हीं के आकर्षण में बंधे हुए हैं इसलिये कृष्ण परमपुरुष हैं। इस प्रकार कृष्ण/माधव भी शिव और नारायण की तरह एक ही सत्ता को प्रदर्शित करते हैं।
(5) ‘राम‘। रमन्ति योगिनः यस्मिन् इति रामः। धातु ‘रम‘ और प्रत्यय ‘घञ´‘ को मिलाकर राम बनता है जिसका अर्थ है परम सुन्दरता का आश्रय अर्थात् परमपुरुष। इसलिये किसी को भी भगवान के नामों की महानता को लेकर झगड़ना नहीं चाहिये। राम का अन्य अर्थ है, राति महीधरा राम अर्थात् अत्यंत चौंधियाने वाला, चमकदार अस्तित्व। परमपुरुष को सभी अत्यंत चमकदार अर्थात् प्रकाशवान मानते हैं। अन्य अर्थ है, रावणस्य मरणम् इति रामः। रावण क्या है? आप जानते हैं कि मानव मन की सूक्ष्म और स्थूल दोनों प्रकार की प्रवृृत्तियां होती हैं, केवल स्थूल प्रवृत्तियाॅं दस दिशाओं पूर्व, पश्चिम , उत्तर, दक्षिण, ईषान, वायव्य, नैरित्य, आग्नेय, ऊर्ध्व और अधः में अपना काम करती रहती हैं। इन दसों दिशाओं में भौतिक जगत की वस्तुओं की ओर मन के भटकने के कारण मन के भ्रष्ट होने की संभावना अधिक होती है अतः जीव मन की इस प्रकार की प्रवृत्तियों के साथ संयुक्त रहने को रावण कहते हैं। रावण को दस सिरों वाला इसीलिये माना गया है। अतः आध्यात्मिक उन्नति चाहने वाले साधक को क्या करना चाहिये? साधक को इन भ्रष्ट करने वाली, आत्मिक उन्नति के मार्ग में अंधेरा उत्पन्न करने वाली, प्रवृत्तियों से संघर्ष करना होगा अर्थात् रावण का वध करना होगा। रावणस्य मरणम् इति रामः, अतः साधक रावण को मारकर सार्वभौमिक सत्ता के सतत प्रवाह में आकर राम राज्य पाता है। इसलिये राम माने पुरुषोत्तम। रावण का प्रथम अक्षर ‘रा‘ मरणम का प्रथम अक्षर ‘म‘ इसलिये रावणस्य मरणम माने राम क्योंकि जब आध्यात्मिक साधक राम का चिंतन करता है रावण मर जाता है। इस प्रकार नारायण, शिव, माधव और राम एक ही हैं।
इष्टमंत्र
अपनी ज्ञानेन्द्रियों द्वारा प्राप्त संकेतों को श्रव्य सीमा में लाने के पूर्व वे स्पन्दन, परा, पश्यन्ति, मध्यमा, द्योतमाना, वाक्, वैखरी और श्रुतिगोचरा आदि स्तरोें से होते हुई हमारे मस्तिष्क तक आ पाते हैं; इन्हें ही भगवान सदाशिव ने वर्णमाला में निहित सभी ‘स्वरों और व्यंजनों’ के रूप में प्रकट किया है। वर्णमाला के सभी पचास अक्षर किसी न किसी अभिव्यक्तिकरण का बीज हैं परन्तु जब इन्हें अकेले या संयुक्त कर शक्तिमान कर दिया जाता है तो ये मन्त्र कहलाते हैं। ‘‘मननात् तारयेत् यः सः मन्त्रः परिकीर्तितः,’’ अर्थात् जिसके मनन करने से मुक्ति मिले वही मन्त्र हैं। साधक के लिये सबसे महत्वपूर्ण उसका इष्टमंत्र ही होता है, उसी के चिंतन मनन और निदिध्यासन से वह परम प्रकाश पाता है। इष्टमंत्र प्रत्येक व्यक्ति का अलग अलग होता है जो उसके संस्कारों के अनुसार चयन किया जाकर गुरुकृपा से प्राप्त होता है। यह कार्य कौलगुरु ही करते हैं क्योंकि वे ही पुरश्चरण की क्रिया में प्रवीण होते हैं। पुरश्चरण का अर्थ है शब्दों को शक्ति सम्पन्न करने की पद्धति । किसी को पिछले जन्म में जो इष्ट मंत्र मिला था और वह मुक्त नहीं हो पाया तो इस जन्म में उसे उसी मन्त्र के अभ्यास से आगे बढ़ना होगा अन्यथा उसका पिछला अभ्यास व्यर्थ जाएगा। कौलगुरु इसे पहचानने में प्रवीण होते हैं अतः उसी प्रकार संबंधित व्यक्ति को उचित शब्दों का चयन कर शक्ति सम्पन्न इष्टमंत्र सिखाते हैं। अपने अपने इष्टमंत्र का श्वास प्रश्वास की सहायता से नियमित रूपसे जाप करते रहने का इतना अभ्यास करना होता है कि यह जाप नींद में भी चलता रहे। इसे ही साधना करना या पूजा करना कहते हैं। इस स्थिति को प्राप्त होने पर ओंकार ध्वनि (cosmic sound of creation preservation and destruction) के साथ अनुनाद स्थापित करने में कठिनाई नहीं होती। अनुनाद की यही स्थिति जब स्थिर या स्थायी हो जाती है तो इसे ही समाधि कहते हैं।
शक्तिमान शब्द ही मंत्र कहलाते हैं जो कौलगुरु साधक को उसके संस्कारों के अनुसार इष्टमंत्र के रूप में कृपापूर्वक देते हैं और मंत्रचैतन्य हो जाने पर अर्थात् उपरोक्तानुसार ओंकार के साथ अनुनाद स्थापित हो जाने पर, उन्हीं की कृपा से परमपुरुष से साक्षात्कार होता है। जिसे सक्षम गुरु से इष्टमंत्र मिल गया वही धन्य है उसी का जीवन सफल है। अन्य सब तो प्रदर्शन मात्र है। ‘कौलगुरु’ का अर्थ है, जो कुंडलनी योग का अभ्यास करते हुए आत्म साक्षात्कार कर, पुरश्चरण में प्रवीणता पाकर बिलकुल शुद्ध हो चुके हैं ।
व्यक्तिगत इष्टमन्त्र के महत्व को एक दृष्टान्त के द्वारा समझा जा सकता है। जैसे, ‘राम’ और ‘रावण’ का इष्टमंत्र शिव और ‘सदाशिव’ तथा ‘हनुमान’ का इष्टमंत्र राम था । ‘नारद’ का इष्टमंत्र था नारायण। एक दिन हनुमान और नारद की भेंट हुई तब नारद ने पूछा, हनुमान जी! ‘श्रीनाथ’ और ‘जानकीनाथ’ क्या अलग अलग हैं? उत्तर मिला , नहीं, बिलकुल नहीं श्रीनाथ माने नारायण और जानकीनाथ माने भी नारायण , दोनों एक ही हैं। नारद बोले तो फिर आप सदा ही ‘राम, राम, राम ही क्यों कहते हो कभी भूल से भी नारायण नहीं कहते? हनुमान जी बोले,
‘‘ श्रीनाथे जानकी नाथे चाभेद परमात्मने, तथापि मम सर्वस्व श्रीराम कमललोचनः’’
अर्थात्, श्रीनाथ और जानकीनाथ में कोई भेद नहीं, दोनों ही परमात्मा के नाम हैं । परन्तु, मेरे लिए तो कमललोचन राम ही सर्वस्व हैं। मैं किसी नारायण को नहीं जानता। इसलिए , सभी को प्रयास करना चाहिए कि उन्हें शीघ्र ही इष्टमंत्र मिल जाय और फिर उसके अलावा सबकुछ भूल कर द्रुतगति से आगे बढ़ते जाएं। ध्यान रहे, पुस्तक में पढ़ कर या किसी व्यक्ति का अनुसरण कर, प्राप्त किए किसी अक्षर या शब्दनाम से अभ्यास करना समय नष्ट करने के अलावा कुछ नहीं है क्योंकि पहले ही बताया जा चुका है कि प्रत्येक व्यक्ति का इष्टमंत्र उसके संस्कारों के अनुसार अलग अलग ही होता हैं।
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