Tuesday 29 May 2018

195 चक्र और मनोवृत्तियाॅं

195 चक्र और मनोवृत्तियाॅं
आध्यात्मिक प्रगति के लिये चक्रों की महत्वपूर्ण भूमिका है यथार्थतः चक्रों की शुद्धि और नियंत्रण करना। चक्र क्या है? ग्रंथियों और उपग्रंथियों का समूह। सभी प्राणियों में इन चक्रों की अलग अलग स्थितियाॅं होती हैं। मनुष्यों में ये सूक्ष्म ऊर्जाकेन्द्र, इडा, पिंगला और सुषुम्ना नाड़ियों के परस्पर संपर्क बिंन्दुओं पर  स्थित होते हैं । मनुष्यों के मन में अनेक प्रकार के विचार आते जाते रहते हैं जो उनके संस्कारों द्वारा उत्पन्न वृत्तियों से निर्मित होते हैं। इन वृत्तियों का नियंत्रण और प्रवाह इन चक्रों पर निर्भर होता है। मुख्यतः 50 वृत्तियाॅं भीतर और बाहर, इन्हीं चक्रों की ऊर्जा द्वारा कार्यरत रहती हैं। इनके क्रियाशील हाने से उत्पन्न कंपनों के कारण विभिन्न ग्रंथियाॅं हारमोन्स का स्राव करती हैं । वृत्तियों का सामान्य या असामान्य  होना इन हारमोनों के सामान्य या असामान्य स्राव पर निर्भर होता है। मानव मन तभी तक कार्य करता है जब तक ये वृत्तियाॅं प्रदर्शित  होती हैं, इनके समाप्त होते ही मन भी समाप्त हो जाता है। विभिन्न चक्रों के नाम और उनके क्षेत्र इस प्रकार हैं।

मूलाधार चक्र- भौम मंडल। स्वाधिष्ठान चक्र-तरल मंडल। मणिपूर चक्र-अग्नि मंडल। अनाहतचक्र-सौर मंडल। विशुद्ध चक्र- नक्षत्र मंडल। आज्ञाचक्र-चंद्रमंडल। (संस्कृत में मंडल को वृत्त, थायरायड ग्लेंड को बृहस्पति ग्रंथी, हारमोन्स को ग्रंथी रस, पैराथायरायड को बृहस्पति उपग्रंथी, पिट्यूटरी ग्लेंड को मायायोगिनी ग्रंथी और पीनियल ग्लेंड को सहस्त्रार ग्रंथी कहते हैं। )
चक्र अपने भीतर अनेक वृत्तियों और उनके ध्वन्यात्मक स्वरों को समेटे रहते हैं।जैसे,
मूलाधार चक्र में चार वृत्तियाॅं धर्म, अर्थ, काम, और मोक्ष की होती हैं और उनके ध्वन्यात्मक स्वर क्रमशः  व,श ,ष और स होते हैं।

स्वाधिष्ठान चक्र में छः वृत्तियाॅं अवज्ञा, मूर्छा, प्रणाश , अविश्वास , सर्वनाश , क्रूरता आदि होती हैं इनके ध्वन्यात्मक स्वर क्रमशः  ब, भ, म, य, र, ल होते हैं।

मनीपुर चक्र में दस वृत्तियाॅं लज्जा, पिशूनता, ईर्ष्या , सुषुप्ति, विषाद, क्षय, तृष्णा, मोह, घृणा और भय की होती हैं और उनके ध्वन्यात्मक स्वर क्रमशः  दा, धा, ना, त, थ, द, ध, न, प, फ होते हैं।

अनाहत चक्र में बारह वृत्तियाॅं आशा , चिंता, चेष्टा, ममता, दम्भ, विवेक, विकलता, अहंकार, लोलता, कपटता, वितर्क, अनुताप की होती हैं इनके ध्वन्यात्मक स्वर कंमशः  क, ख, ग, घ, डॅ., च, छ, ज, झ, ´, ता, था, आदि होते हैं। यह चक्र श्वसन  प्रणाली को प्रभावित करता हैं यहाॅं पर धनात्मक माइक्रोवाईटा अधिक प्रभावी हो जाते हैं जो आध्यात्मिक प्रगति में सहायक होते हैं इससे नीचे के चक्रों पर नकारात्मक माइक्रोवाइटा प्रभावी होते हैं जो आध्यात्मिक प्रगति में बाधक होते हैं।

विषुद्ध चक्र में सोलह वृत्तियाॅं षडज, ऋषभ, गाॅंधार, मध्यम, पंचम, धैवत्, निषाद, ओम, हुंम, फट्, वौषट, वषट्, स्वाहा, नमः, विष और अमृत की होती हैं। प्रत्येक प्राणी अपनी लाक्षणिक विशेषताओं से नियंत्रित होते हैं अतः इस चक्र की प्रथम सात ध्वनियाॅं संबंधित प्राणियों से ली गई हैं। बायें कान के नीचे से दाॅंयें कान के नीचे तक का क्षेत्र इस चक्र का होता है इसमें धनात्मक माइक्रोवाईटा संपर्क में आते हैं। विशुद्ध चक्र में 16 उपग्रंथियाॅं होती हैं जो चारों दिशाओं में 4, 4, 4, 4 की संख्या में होती हैं , इनके माध्यम से मित्र और शत्रु दोनों प्रकार के माइक्रोवाइटा  सक्रिय होते हैं।

आज्ञाचक्र में दो वृत्तियाॅं अपरा और परा होती हैं इनके ध्वन्यात्मक स्वर क्रमशः  क्ष और ह होते हैं। दोनों नेत्रों के बीच अर्थात् त्रिकुटी का क्षेत्र इस का प्रभावी क्षेत्र होता है । मानव शरीर के ऊपरी भाग और नाभि के नीचे का भाग चंद्रमा के परावर्तित प्रकाश  से प्रभावित होता है । आज्ञा चक्र का बायाॅं भाग नाभि से नीचे वाह्य प्रभावों से संबंधित होता है और उसका स्वर क्ष होता है। दायाॅं भाग शरीर के ऊपरी भाग से संबंधित वाह्य प्रभावों से संबद्ध होता है और उसका स्वर ह होता है। चंद्रमा का विशेष स्वर ‘‘था‘‘ है जो ह और क्ष को नियंत्रित करता है आज्ञाचक्र को नहीं।

मानव शरीर में असंख्य नाड़ियाॅं और सैल होते हैं जिनका नियंत्रण चक्रों द्वारा होता है चक्रों में होने वाले कंपनों से ग्रंथियों में हारमोन्स का निस्सारण संतुलित होता है जिससे शरीर और मन संतुलित रहता है पर यदि किसी कारण से इनमें  असंतुलन हो जाता है तो अनेक समस्यायें उत्पन्न हो जाती हैं । जैसे यदि इफेरेन्ट और अफेरेन्ट नाड़ियों में असंतुलन उत्पन्न हो जाये तो व्यक्ति की विभेदन क्षमता प्रभावित होती है और वह निर्णय नहीं कर पाता कि क्या करे। स्वप्न में भयभीत होने पर जाग्रत अवस्था में भी डर बना रहता है। यदि योगासनों को नियमित रूप से सही ढंग से किया जाये तो मनुष्य निरोगी रहने के साथ साथ अपनी वृत्तियों पर नियंत्रण रख सकता है क्योंकि आसनों से चक्रों पर या तो दबाव बढ़ता है या घटता है अतः हारमोन्स का संतुलन बनाये रखकर वे संबंधित वृत्तियों को कम या अधिक कर सकते है। जैसे किसी को भाषण देने में डर लगता है और वह मयूरासन नियमित रूप से करने लगे तो वह मनीपूर चक्र को प्रभावित कर हारमोन्स में संतुलन लाकर भय वृत्ति को कम कर देगी।

हारमोन्स के अधिक स्राव होने पर वृत्तियाॅं बढ़ती हैं और कम होने पर घट जाती हैं। अनाहत चक्र हृदय को, लिंफेटिक ग्लेंड भौतिकता को और थायरायड तथा पैराथायरायड ग्लेंड मानसिक और बौद्धिक स्तर को प्रभावित करते हैं। गुरु चक्र पर ध्यान करने से शरीर और मन दोनों पर नियंत्रण हो जाता है। जब कोई महापुरुष आशीष देता है तो वह अपना हाथ उस व्यक्ति के सहस्त्रार चक्र पर रखता है जिसका अनुकूल प्रभाव पड़ता है इससे उच्च वृत्तियाॅं बढ़ जाती हैं। यदि मौखिक ही बोलकर आशीर्वाद दिया जाता है तो भी अच्छा प्रभाव पड़ता है। किसी महान व्यक्तित्व को साष्टाॅंग प्रणाम करने पर उसके द्वारा हाथ से स्पर्श  कर या बोलकर ध्वनि से ही आशीष दिया जाता है तो उसका धनात्मक प्रभाव पड़ता है। आप जिन्हें चाहते हैं उन्हें ही आशीष देंवे, यदि जिन्हें नहीं चाहते और उनके प्रणाम स्वीकार कर आशीष देते हैं तो उसके नकारात्मक संस्कार और कुवृत्तियाॅं आपके मन में आ सकते हैं । इसलिये आपको यह अधिकार नहीं है कि जिस चाहे को आशीष दे दो और जिस चाहे का प्रणाम स्वीकार कर लो। महिलाओं का क्रेनियम पुरुषों से थोड़ा छोटा होता है अतः उसमें नर्व सैल भी संख्या में कम होते हैं अतः यदि समान स्तर के महिला और पुरुष एक सी गति और सच्चाई से साधना करते हैं तो महिला के 99 प्रतिशत नर्व सैल प्रयुक्त होते हैं जब कि पुरुष के अपेक्षतया कम, पर महिलाओं में संतान के प्रति पुरुषों की अपेक्षा अधिक प्रेम होता है। किसी भी एक वृत्ति की अधिकता हानिकारक होती है अतः सबको चाहिये कि सभी वृत्तियों को परमपुरुष की ओर संम्प्रेषित करता जाये जिससे सभी कुछ संतुलन में बना रहेगा और समाज की अग्रगति होगी।

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