210 भागवत धर्म
जिसने आपको बाॅंध कर जड़ पदार्थों, पेड़ पौधों, कीड़े मकोड़ों ,पक्षियों और पशुओं से अलग अस्तित्व अर्थात् मानव होने का बोध कराया है उसे मानवधर्म कहा गया है। वैसे ही जैसे, अग्नि का ‘ज्वलन’ धर्म और जल का ‘शीतलन’ धर्म। यदि अग्नि, ज्वलनशीलता और जल, शीतलता को त्याग दे तो उन्हें अग्नि और जल नहीं कहा जा सकता। इसलिए मानवोचित लक्षण ही मनुष्य को दूसरों से पृथक करते हैं अतः यही लक्षण उसका धर्म कहलाते हैं। मानव सभ्यता के प्रथम चरण में भौगोलिक और पर्यावरणीय परिस्थितियाॅं आज जैसी नहीं थीं अतः उस समय से आज तक की यात्रा में मानव मन की बढ़ती जिज्ञासाओं के कारण उसके लक्षणों में बहुत परिवर्तन हुए है और होते जाएंगे। मानव मन की जिज्ञासा शारीरिक, शारीरमानसिक, मानसाध्यात्मिक और आध्यात्मिक इन चार प्रकार से व्यक्त होती रही है जिनका अभिव्यक्तिकरण काव्य, पुराण, इतिकथा और इतिहास आदि में मिलता है। सरस और प्राॅंजल भाषा में व्यक्त भावों को ‘काव्य’ कहा जाता है ‘‘ वाक्यं रसात्मकं काव्यं’’ । ‘पुराण’ में वर्णित घटनाएं वास्तविक न भी हों तो भी उनमें लोक शिक्षा की प्रधानता होती है। ‘इतिकथा’ में घटनाओं का क्रमशः तिथिवार संग्रह कर धारावाहिक विवरण होता है। इन घटनाओं से लोकशिक्षा हो भी सकती है और नहीं भी, परन्तु इसके पढ़ने पर पुराकालीन सामाजिक अवस्था के बारे में जाना जा सकता है और वर्तमान से उसकी तुलना की जा सकती है। ‘इतिकथा’ के संस्कृत में अनेक पर्यायवाची शब्द हैं जैसे, पुराकथा, इतिवृत्त, पुरावृत्त आदि, पर अंग्रेजी में एक ही शब्द है ‘‘हिस्ट्री’’। ‘‘इति हसति इत्यर्थे इतिहासः’’ ; हस् धातु का अर्थ है हॅंसना, विकसित होना, लिखना। इसलिए इतिहास , इतिकथा का सोद्देश्य विकसित रूप है।
इतिकथात्मक सभी रचनाएं इतिहास नहीं हैं, इतिहास सोद्देश्य लेखन होता है जबकि इतिकथा प्रामाणिक घटनाओं का मात्र पंजीकरण। इतिहास के बारे में शास्त्रों में कहा गया है ‘‘ धर्मार्थकाममोक्षाार्थं नीतिवाक्य समन्वितम्, पुरावृत्तकथायुक्तं इतिहासं प्रचक्षते।’’ अतः इतिहास पुरावृत्त कथाओं की ऐसी प्रस्तुति है जिसके अनुशीलन से काम, अर्थ, धर्म, मोक्ष चारों की प्राप्ति होती है। काम का संबंध है शरीर से जैसे, धन, मान, यश, आहार, वस्त्र आदि के प्रति आसक्त होना। अर्थ का संबंध है शरीर और मन दोनों से जैसे, भूख लगने पर रुपये से कुछ खरीद कर खा लिया तो भूख शाॅंत हुई , मानसिक स्तर पर यदि किसी शब्द का अर्थ नहीं समझ में आ रहा है और शब्दकोष की मदद से उसे जान लिया तो मन को शाॅंति मिल गई । अर्थ अर्थात् धन, शारीरिक और मानसिक कष्ट को अस्थायी रूप से ही दूर कर पाता है। इसलिए मानसाध्यात्मिकता जिसे ‘धर्म’ कहा जाता है वह इन कष्टों का स्थायी हल निकालने में मदद करता है। परन्तु मनुष्य का मन सीमित सुख और आनन्द से संतुष्ट नहीं होता अतः अनन्त सुख और आनन्द पाने का अन्तिम स्तर कहलाता है ‘मोक्ष’ जिसमें इकाई मन, परमात्मा में विलीन हो जाता है। परन्तु इतिहास में ये बातें सैद्धान्तिक रूप से ही बताई जाती हैं अतः उन्हें व्यवहार में उतारने के लिए ‘नीति’ का सहारा लिया जाता है जिसे पुराकथा या पुरावृत्त से जोड़कर ‘महाभारत’ जैसे इतिहास की रचना संभव हो पाती है।
सभ्यता के उद्गम स्तर पर सबसे बलिष्ठ व्यक्ति के संरक्षण में लोगों का समूह पहाड़ोें पर रहा करता था । संस्कृत में पहाड़ को गोत्र कहते हैं अतः उस व्यक्ति के नाम से उस पहाड़ पर रहने वाले सभी लोग अपना गोत्र परिचय दिया करते थे। जो व्यक्ति जीवनोपयोगी किसी वस्तु को खोज लेता या संरक्षण करता उसे आदर देने के लिए उन्हें ऋषि कहा जाता। एक प्रकार से ऋषिगण अनुसंधानकर्ता ही होते थे। जो इन अनुसंधानकर्ताओं को नियंत्रण और मार्गदर्शन करता उसे महर्षि कहा जाता । इन ऋषियों को, उच्च चिन्तन करने की अवस्था में जो कुछ नया बोधज्ञान होता उसे वे सबको समझाते और कहे गए वाक्यों को ‘आप्तवाक्य’ नाम देते। इन आप्त वाक्यों को आधार मानकर जीवनयापन करने की पद्धति को ‘आर्षधर्म’ कहा गया। जीवन के अनुभवों को इन्हीं आप्त वाक्यों के द्वारा संग्रहित कर याद रखा जाने लगा जिसे ऋषिगण अपने से पीछे आने वालों को समझाकर याद रखने का निर्देश देते जो कालान्तर में ऋग्वेद के नाम से जाना गया। इस वैदिकयुग में आदरणीय व्यक्ति के लिये ‘आर्य’ कहकर सम्बोधित किया जाता था जो समयानुसार भाषाओं में परिवर्तन होने से अपभ्रंश होकर प्राकृत में ‘आय्य ’ होते हुए ‘अज्ज’, ‘अज्जि’, ‘अजी’ और अब ‘जी’ हो गया । भाषाएं इसी प्रकार जनप्रवाह में बिगड़ती बनती रही हैं। ऋग्वैदिक काल आज से पन्द्रह हजार वर्ष पूर्व से सात हजार वर्ष पूर्व तक माना जाता है अतः ऋग्वेद में आठ हजार से भी अधिक वर्षों का ज्ञान (विशेषतः शिल्प, चित्र, स्थापत्य, शिक्षा, ललितकलाओं और चिकित्सा के संबंध में) अव्यवस्थित रूप से संग्रहीत था । विशेषज्ञ अपने महत्व को बनाए रखने के लिए बहुत सी विद्याएं दूसरों को पूर्णतः नहीं बताया करते थे इसलिए बहुत सा महत्वपूर्ण ज्ञान लुप्त ही हो गया।
ऋग्वैदिक काल की समाप्ति और यजुर्वैदिक काल के प्रारम्भ में भगवान शिव जैसी अद्वितीय सत्ता का आविर्भाव हुआ जिन्होंने सामाजिक संगठन का सूत्रपात किया और सभी विधाओं तथा ललितकलाओं के आदि गुरु होकर मानव मनीषा के विकास के सभी क्षेत्रों में नियमवद्ध प्रणाली की स्थापना की। भगवान शिव की साधुता, सरलता और तेजस्विता के प्रभाव से समाज के सभी स्तरों के लोग उन तक सीधी पहॅुच रखते थे इतना ही नहीं पेड़पौधों सहित सभी प्राणियों और पशुओं को भी उनका संरक्षण प्राप्त था । उनका प्रभाव इतना था कि सभी "आर्ष " धर्मावलम्बी एक ही मंत्र जपने लगे ‘‘सर्व गोत्रान् परित्यज्य शिव गोत्रं प्रविशतु’’ अर्थात् सभी गोत्रों को त्यागकर शिव गोत्र में प्रवेश करो। उन्होंने ऋग्वेद के ‘आर्षधर्म’ के सैद्धान्तिक रूप को व्यावहारिक बनाया और विद्यातन्त्र के साथ शिल्प, चित्र, स्थापत्य, शिक्षा, ललितकलाओं, संगीत अर्थात् वाद्य, नृत्य और गीत आदि को पूरे जम्बूद्वीप (जो उस समय, आज के अफगानिस्तान से फिलीपीन्स तक अर्थात् सम्पूर्ण दक्षिण पूर्व एशिया तक फैला था) में पार्वती, भैरव, भैरवी, कार्तिकेय, विश्वकर्मा, नन्दी, धन्वन्तरी, भरत और कुबेर के माध्यम से प्रचारित कर स्थापित किया जो कालान्तर में ‘शैव धर्म’ के नाम से विख्यात हुआ। भगवान शिव के बाद अथर्ववैदिक काल में लिपि का अनुसंधान हो जाने पर भी वेदों के ज्ञान को परम्परा के नाम पर मौखिक ही सिखाया जाता था, लिखने नहीं दिया जाता था । ऋषि अथर्वा ने अपने साथियों अंगिरा, अंगिरस और वैदर्भि के सहयोग से छिप छिप कर वेदों को लिखने का कार्य किया । आज से तीन हजार पाॅंच सौ वर्ष पूर्व जब समाज में विकृतियाॅं आने लगीं थी उस समय भगवान शिव की तरह विराट व्यक्तित्व के धनी भगवान श्रीकृष्ण का आविर्भाव हुआ जिन्होंने व्यक्ति के स्वतंत्र विकास के साथ एकीकृत समाजबद्ध जीवन पद्धति का सूत्रपात किया और बताया कि धर्म ही हर व्यक्ति को समाज के रूप में धारण करता है, ‘‘ धर्मो धारयते प्रजाः’’। इस प्रकार धर्म के नाम पर प्रचलित अनेक विधियों के बड़े बड़े ऋषियों, मुनियों, अविद्यातन्त्र के उपासकों, शैव और विद्यातान्त्रिकों, शाक्तों, कौल साधकों और बड़े बड़े गुरुकुलों के कुलपतियों को एक सूत्र में बाॅंधकर भगवान शिव के द्वारा स्थापित शैव धर्म को आधार बनाकर ‘‘भागवत धर्म’’ में प्रवेश दिलाया और समाज को नयी दिशा दी। भागवत धर्म कालान्तर में ‘वैष्णव तंत्र’ या ‘सनातन धर्म’ के नाम से जाना गया। कृष्ण के समय में ही कृष्णद्वैपायन व्यास ने जिन्हें वेदव्यास के नाम से जाना जाता है, वेदों के अस्तव्यस्त ज्ञान को व्यवस्थित कर कालक्रम के अनुसार चार भागों ऋक, यजुः, अथर्व और साम में विभाजित किया। सामवेद पृथक से वेद नहीं है वह तीनों वेदों में से पद्यात्मक भाग को अलग कर एक साथ रखकर चौथे वेद के नाम से जाना जाता है।
जब वेदव्यास ने शिव के विद्यातन्त्र और कृष्ण के भागवत धर्म आधारित शिक्षाएं देना प्रारंभ की तब तत्कालीन जनसमाज को उन्हें पूर्णतः समझने में कठिनाई हुई इसलिए उस ज्ञान को उन्होंने सरल भाषा में काल्पनिक कहानियों के द्वारा समझाना शुरु किया जिसे लिपिबद्ध कर अठारह पुराणों में लिखा गया है। इस प्रकार की लम्बी यात्रा में आर्षधर्म> विद्यातन्त्र > शैवधर्म > भागवत धर्म > वैष्णव तंत्र > सनातन धर्म आदि में रूपान्तरित होता रहा जिसके आधार में शिवतन्त्र सदा भूमिगत जलप्रवाह की तरह बना रहा। कृष्ण के बाद एक हजार वर्ष तक ‘भागवत धर्म’ अपनी पराकाष्ठा पर बना रहा परन्तु आज से दो हजार पाॅंच सौ वर्ष पूर्व वर्धमान महावीर के द्वारा अहिंसा और तप केन्द्रित जैन धर्म के प्रभाव में उनके अनुयायी पराक्रम से दूर होकर भीरु होने लगे और उनकी मूर्ति बनाकर काल्पनिक देवी देवताओं को अपना आराध्य मान कर उपासना करने लगे। भागवत धर्म नैपथ्य में चला गया । इसी काल में गौतम बुद्ध का भी आविर्भाव हुआ जिन्होंने जैन धर्म की तुलना में कुछ सरल विचारधारा रखी और उनके अनुयायी कुछ जैन तथा कुछ अपनी काल्पनिकता के आधार पर बुद्ध की प्रतिमाओं को नये नये नामों से पूजने लगे परन्तु शैवतन्त्र भूमिगत जल की तरह इन सब के साथ ही बहता रहा। इसका सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि चाहे वे जैन देवी देवता हों या बौद्ध सभी का सम्बंध शिव से किसी न किसी प्रकार जोड़े रखा गया है जिसका कारण था कि शिव से जोड़े बिना उन्हें कोई महत्व न मिलता, शिव तो जन जन के महादेव थे। वर्धमान महावीर और गौतम बुद्ध के बाद आज से एक हजार दो सौ वर्ष पूर्व आए ‘शंकराचार्य’ ने धर्म के नाम पर चल रहे वितण्डावाद को शास्त्रार्थ के बल पर धराशायी कर दिया और नए सिरे से ‘‘वैष्णव तन्त्र’’ आधारित ‘पौराणिक धर्म’ की स्थापना की जिसमें सामाजिक समन्वय के दृष्टिकोण से कुछ जैन और कुछ बौद्ध धर्म के काल्पनिक देवी देवताओं को समावेशित किया गया । उनके जाने के बाद पुराणों में वर्णित मूल तथ्यों को भूल कर लोग कर्मकाण्ड आधारित काल्पनिक देवी देवताओं की उपासना में ही आज भी लगे हुए देखे जा सकते हैं। सर्वविदित है कि कालान्तर में क्रमशः मुसलमानों और अंग्रेजों के प्रभाव में ‘‘भारत’’ ( ‘भर्’’= भरण पोषण, और ‘‘तन्’’= विस्तार कर क्रम से बढ़ने वाला के अर्थ से भर् + अल् + तन्= भारत ) ‘‘सिंधु नदी / इन्डस नदी’’ के नाम से सिन्दोस्तान / इन्डिया से संयुक्त होकर हिन्दोस्तान कहलाने लगा। इस प्रकार इनके शासन काल में ही भागवत धर्म से रूपान्तरित हुए पौराणिक धर्म को ‘हिन्दु धर्म’ नाम दे दिया गया । अब, हमारे देश भारत का मूल भागवत धर्म विकृत होकर तथाकथित हिन्दुधर्म के नाम पर अपने आॅंसू बहा रहा है।