Tuesday, 28 August 2018

210 भागवत धर्म

210 भागवत धर्म

जिसने आपको बाॅंध कर जड़ पदार्थों, पेड़ पौधों, कीड़े मकोड़ों ,पक्षियों और पशुओं से अलग अस्तित्व अर्थात् मानव होने का बोध कराया है उसे मानवधर्म कहा गया है। वैसे ही जैसे, अग्नि का ‘ज्वलन’ धर्म और जल का ‘शीतलन’ धर्म। यदि अग्नि, ज्वलनशीलता और जल, शीतलता को त्याग दे तो उन्हें अग्नि और जल नहीं कहा जा सकता। इसलिए मानवोचित लक्षण ही मनुष्य को दूसरों से पृथक करते हैं अतः यही लक्षण उसका धर्म कहलाते हैं। मानव सभ्यता के प्रथम चरण में भौगोलिक और पर्यावरणीय परिस्थितियाॅं आज जैसी नहीं थीं अतः उस समय से आज तक की यात्रा में मानव मन की बढ़ती जिज्ञासाओं के कारण उसके लक्षणों में बहुत परिवर्तन हुए है और होते जाएंगे। मानव मन की जिज्ञासा शारीरिक, शारीरमानसिक, मानसाध्यात्मिक और आध्यात्मिक इन चार प्रकार से व्यक्त होती रही है जिनका अभिव्यक्तिकरण काव्य, पुराण, इतिकथा और इतिहास आदि में मिलता है। सरस और प्राॅंजल भाषा में व्यक्त भावों को ‘काव्य’ कहा जाता है ‘‘ वाक्यं रसात्मकं काव्यं’’ । ‘पुराण’ में वर्णित  घटनाएं वास्तविक न भी हों तो भी उनमें लोक शिक्षा की प्रधानता होती है। ‘इतिकथा’ में घटनाओं का क्रमशः तिथिवार संग्रह कर धारावाहिक विवरण होता है। इन घटनाओं से लोकशिक्षा हो भी सकती है और नहीं भी, परन्तु इसके पढ़ने पर पुराकालीन सामाजिक अवस्था के बारे में जाना जा सकता है और वर्तमान से उसकी तुलना की जा सकती है। ‘इतिकथा’ के संस्कृत में अनेक पर्यायवाची शब्द हैं जैसे, पुराकथा, इतिवृत्त, पुरावृत्त आदि, पर अंग्रेजी में एक ही शब्द है ‘‘हिस्ट्री’’। ‘‘इति हसति इत्यर्थे इतिहासः’’ ; हस् धातु का अर्थ है हॅंसना, विकसित होना, लिखना। इसलिए इतिहास , इतिकथा का सोद्देश्य विकसित रूप है।

इतिकथात्मक सभी रचनाएं इतिहास नहीं हैं, इतिहास सोद्देश्य लेखन होता है जबकि इतिकथा प्रामाणिक घटनाओं का मात्र पंजीकरण। इतिहास के बारे में शास्त्रों में कहा गया है ‘‘ धर्मार्थकाममोक्षाार्थं नीतिवाक्य समन्वितम्, पुरावृत्तकथायुक्तं इतिहासं प्रचक्षते।’’ अतः इतिहास पुरावृत्त कथाओं की ऐसी प्रस्तुति है जिसके अनुशीलन से काम, अर्थ, धर्म, मोक्ष चारों की प्राप्ति होती है। काम का संबंध है शरीर से जैसे, धन, मान, यश, आहार, वस्त्र आदि के प्रति आसक्त होना। अर्थ का संबंध  है शरीर और मन दोनों से जैसे, भूख लगने पर रुपये से कुछ खरीद कर खा लिया तो भूख शाॅंत हुई , मानसिक स्तर पर यदि किसी शब्द का अर्थ नहीं समझ में आ रहा है और शब्दकोष की मदद से उसे जान लिया तो मन को शाॅंति मिल गई । अर्थ अर्थात् धन, शारीरिक और मानसिक कष्ट को अस्थायी रूप से ही दूर कर पाता है। इसलिए मानसाध्यात्मिकता जिसे ‘धर्म’ कहा जाता है वह इन कष्टों का स्थायी हल  निकालने में मदद करता है। परन्तु मनुष्य का मन सीमित सुख और आनन्द से संतुष्ट नहीं होता अतः अनन्त सुख और आनन्द पाने का अन्तिम स्तर कहलाता है ‘मोक्ष’ जिसमें इकाई मन, परमात्मा में विलीन हो जाता है। परन्तु इतिहास में ये बातें सैद्धान्तिक रूप से ही बताई जाती हैं अतः उन्हें व्यवहार में उतारने के लिए ‘नीति’ का सहारा लिया जाता है जिसे पुराकथा या पुरावृत्त से जोड़कर ‘महाभारत’ जैसे इतिहास की रचना संभव हो पाती है।

सभ्यता के उद्गम स्तर पर सबसे बलिष्ठ व्यक्ति के संरक्षण में लोगों का समूह पहाड़ोें पर रहा करता था । संस्कृत में पहाड़ को गोत्र कहते हैं अतः उस व्यक्ति के नाम से उस पहाड़ पर रहने वाले सभी लोग अपना गोत्र परिचय दिया करते थे। जो व्यक्ति जीवनोपयोगी किसी वस्तु को खोज लेता या संरक्षण करता उसे आदर देने के लिए उन्हें ऋषि कहा जाता। एक प्रकार से ऋषिगण अनुसंधानकर्ता ही होते थे। जो इन अनुसंधानकर्ताओं को नियंत्रण और मार्गदर्शन करता उसे महर्षि कहा जाता । इन ऋषियों को, उच्च चिन्तन करने की अवस्था में जो कुछ नया बोधज्ञान होता उसे वे सबको समझाते और कहे गए वाक्यों को ‘आप्तवाक्य’ नाम देते। इन आप्त वाक्यों को आधार मानकर जीवनयापन करने की पद्धति को ‘आर्षधर्म’ कहा गया। जीवन के अनुभवों को इन्हीं आप्त वाक्यों के द्वारा संग्रहित कर याद रखा जाने लगा जिसे ऋषिगण अपने से पीछे आने वालों को समझाकर याद रखने का निर्देश देते जो कालान्तर में ऋग्वेद के नाम से जाना गया। इस वैदिकयुग में आदरणीय व्यक्ति के लिये ‘आर्य’ कहकर सम्बोधित किया जाता था जो समयानुसार भाषाओं में परिवर्तन होने से अपभ्रंश होकर प्राकृत में ‘आय्य ’  होते हुए ‘अज्ज’, ‘अज्जि’, ‘अजी’ और अब ‘जी’ हो गया । भाषाएं इसी प्रकार जनप्रवाह में बिगड़ती बनती रही हैं। ऋग्वैदिक काल आज से पन्द्रह हजार वर्ष पूर्व से सात हजार वर्ष पूर्व तक माना जाता है अतः ऋग्वेद में आठ हजार से भी अधिक वर्षों का ज्ञान (विशेषतः शिल्प, चित्र, स्थापत्य, शिक्षा, ललितकलाओं और चिकित्सा के संबंध में) अव्यवस्थित रूप से संग्रहीत था । विशेषज्ञ अपने महत्व को बनाए रखने के लिए बहुत सी विद्याएं दूसरों को पूर्णतः नहीं बताया करते थे इसलिए बहुत सा महत्वपूर्ण ज्ञान लुप्त ही हो गया।

ऋग्वैदिक काल की समाप्ति और यजुर्वैदिक काल के प्रारम्भ में भगवान शिव जैसी अद्वितीय सत्ता का आविर्भाव हुआ जिन्होंने  सामाजिक संगठन का सूत्रपात किया और सभी विधाओं तथा ललितकलाओं के आदि गुरु होकर मानव मनीषा के  विकास के सभी क्षेत्रों में नियमवद्ध प्रणाली की स्थापना की। भगवान शिव की साधुता, सरलता और तेजस्विता के प्रभाव से समाज के सभी स्तरों के लोग उन तक सीधी पहॅुच रखते थे इतना ही नहीं पेड़पौधों सहित सभी प्राणियों और पशुओं को भी उनका संरक्षण प्राप्त था । उनका प्रभाव इतना था कि सभी "आर्ष "  धर्मावलम्बी एक ही मंत्र जपने लगे ‘‘सर्व गोत्रान् परित्यज्य शिव गोत्रं प्रविशतु’’ अर्थात् सभी गोत्रों को त्यागकर शिव गोत्र में प्रवेश करो। उन्होंने ऋग्वेद के ‘आर्षधर्म’ के सैद्धान्तिक रूप को व्यावहारिक बनाया और विद्यातन्त्र के साथ शिल्प, चित्र, स्थापत्य, शिक्षा, ललितकलाओं, संगीत अर्थात् वाद्य, नृत्य और गीत आदि को पूरे जम्बूद्वीप (जो उस समय, आज के अफगानिस्तान से फिलीपीन्स तक अर्थात् सम्पूर्ण दक्षिण पूर्व एशिया तक फैला था) में पार्वती, भैरव, भैरवी, कार्तिकेय, विश्वकर्मा, नन्दी, धन्वन्तरी, भरत और कुबेर के माध्यम से प्रचारित कर स्थापित किया जो कालान्तर में ‘शैव धर्म’ के नाम से विख्यात हुआ। भगवान शिव के बाद अथर्ववैदिक काल में लिपि का अनुसंधान हो जाने पर भी वेदों के ज्ञान को परम्परा के नाम पर मौखिक ही सिखाया जाता था, लिखने नहीं दिया जाता था । ऋषि अथर्वा ने अपने साथियों अंगिरा, अंगिरस और वैदर्भि के सहयोग से छिप छिप कर वेदों को लिखने का कार्य किया । आज से तीन हजार पाॅंच सौ वर्ष पूर्व जब समाज में विकृतियाॅं आने लगीं थी उस समय भगवान शिव की तरह विराट व्यक्तित्व के धनी भगवान श्रीकृष्ण का आविर्भाव हुआ जिन्होंने व्यक्ति के स्वतंत्र विकास के साथ एकीकृत समाजबद्ध जीवन पद्धति का सूत्रपात किया और बताया कि धर्म ही हर व्यक्ति को समाज के रूप में धारण करता है, ‘‘ धर्मो धारयते प्रजाः’’। इस प्रकार धर्म के नाम पर प्रचलित अनेक विधियों के बड़े बड़े ऋषियों, मुनियों, अविद्यातन्त्र के उपासकों, शैव और विद्यातान्त्रिकों, शाक्तों, कौल साधकों और बड़े बड़े गुरुकुलों के कुलपतियों को एक सूत्र में बाॅंधकर भगवान शिव के द्वारा स्थापित शैव धर्म को आधार बनाकर ‘‘भागवत धर्म’’ में प्रवेश दिलाया और समाज को नयी दिशा दी। भागवत धर्म कालान्तर में ‘वैष्णव तंत्र’ या ‘सनातन धर्म’ के नाम से जाना गया। कृष्ण के समय में ही कृष्णद्वैपायन व्यास ने जिन्हें वेदव्यास के नाम से जाना जाता है, वेदों के अस्तव्यस्त ज्ञान को व्यवस्थित कर कालक्रम के अनुसार चार भागों ऋक, यजुः, अथर्व और साम में विभाजित किया। सामवेद पृथक से वेद नहीं है वह तीनों वेदों में से पद्यात्मक भाग को अलग कर एक साथ रखकर चौथे  वेद के नाम से जाना जाता है।

जब वेदव्यास ने शिव के विद्यातन्त्र और कृष्ण के भागवत धर्म आधारित शिक्षाएं देना प्रारंभ की तब तत्कालीन जनसमाज को उन्हें पूर्णतः समझने में कठिनाई हुई इसलिए उस ज्ञान को उन्होंने सरल भाषा में काल्पनिक कहानियों के द्वारा समझाना  शुरु किया जिसे लिपिबद्ध कर अठारह पुराणों में लिखा गया है। इस प्रकार की लम्बी यात्रा में आर्षधर्म> विद्यातन्त्र > शैवधर्म > भागवत धर्म > वैष्णव तंत्र > सनातन धर्म  आदि में रूपान्तरित होता रहा जिसके आधार में शिवतन्त्र सदा भूमिगत जलप्रवाह की तरह बना रहा। कृष्ण के बाद एक हजार वर्ष तक ‘भागवत धर्म’ अपनी पराकाष्ठा पर बना रहा परन्तु आज से दो हजार पाॅंच सौ वर्ष पूर्व वर्धमान महावीर के द्वारा अहिंसा और तप केन्द्रित जैन धर्म के प्रभाव में उनके अनुयायी पराक्रम से दूर होकर भीरु होने लगे और उनकी मूर्ति बनाकर काल्पनिक देवी देवताओं को अपना आराध्य मान कर उपासना करने लगे। भागवत धर्म नैपथ्य में चला गया । इसी काल में गौतम बुद्ध का भी आविर्भाव हुआ जिन्होंने जैन धर्म की तुलना में कुछ सरल विचारधारा रखी और उनके अनुयायी कुछ जैन तथा कुछ अपनी काल्पनिकता के आधार पर बुद्ध की प्रतिमाओं को नये नये नामों से पूजने लगे परन्तु शैवतन्त्र भूमिगत जल की तरह इन सब के साथ ही बहता रहा। इसका सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि चाहे वे जैन देवी देवता हों या बौद्ध सभी का सम्बंध शिव से किसी न किसी प्रकार जोड़े रखा गया है जिसका कारण था कि शिव से जोड़े बिना उन्हें कोई महत्व न मिलता, शिव तो जन जन के महादेव थे। वर्धमान महावीर और गौतम बुद्ध के बाद आज से एक हजार दो सौ वर्ष पूर्व आए ‘शंकराचार्य’ ने धर्म के नाम पर चल रहे वितण्डावाद को शास्त्रार्थ के बल पर धराशायी कर दिया और नए सिरे से ‘‘वैष्णव तन्त्र’’ आधारित ‘पौराणिक धर्म’ की स्थापना की जिसमें सामाजिक समन्वय के दृष्टिकोण से कुछ जैन और कुछ बौद्ध धर्म के काल्पनिक देवी देवताओं को समावेशित किया गया । उनके जाने के बाद पुराणों में वर्णित मूल तथ्यों को भूल कर लोग कर्मकाण्ड आधारित काल्पनिक देवी देवताओं की उपासना में ही आज भी लगे हुए देखे जा सकते हैं। सर्वविदित है कि कालान्तर में क्रमशः मुसलमानों और अंग्रेजों के प्रभाव में ‘‘भारत’’ ( ‘भर्’’= भरण पोषण, और ‘‘तन्’’= विस्तार कर क्रम से बढ़ने वाला के अर्थ से भर् + अल् + तन्= भारत ) ‘‘सिंधु नदी / इन्डस नदी’’ के नाम से सिन्दोस्तान / इन्डिया से संयुक्त होकर हिन्दोस्तान कहलाने लगा। इस प्रकार इनके शासन काल में ही भागवत धर्म से रूपान्तरित हुए पौराणिक धर्म को ‘हिन्दु धर्म’ नाम दे दिया गया  । अब, हमारे देश भारत का मूल भागवत धर्म विकृत होकर तथाकथित हिन्दुधर्म के नाम पर अपने आॅंसू बहा रहा है। 

Monday, 20 August 2018

209 ये यथा माम् प्रपद्यन्ते ..

ये यथा माम् प्रपद्यन्ते ..

 जो मुझे जिस प्रकार भजते हैं मैं भी उन्हें वैसे ही भजता हॅूं, यह कथन है गीता में श्रीकृष्ण का।
देखा जाता है कि लोग भगवान की पूजा , भजन, आरती , कीर्तन आदि, कुछ न कुछ पाने के लिए ही करते हैं। वे कहा करते हैं, हे भगवान मैं धनी हो जाऊॅं, सुखी रहूँ , कोई कष्ट न हो, मेरे सभी शत्रु नष्ट हो जाएं, परीक्षा में पास हो जाएं, पुत्र पुत्रियों की नौकरी लग जाए, उनकी अच्छे घर  में शादी हो जाय, और न जाने क्या क्या....। जबकि, प्रकृति के विकास क्रम में यह मनुष्य शरीर हमें ‘उनकी’ कृपा से ही प्राप्त हुआ है, उन्हें ही अनुभव करते हुए उन्हीं को पाने के लिए। पर कितना आश्चर्य है कि उन्हें पाने की जगह हम उनसे भौतिक जगत की अनेक वस्तुएं और सुख साधन माॅंगते नहीं थकते। "उन्हें" पाने का तो कभी विचार ही नहीं आता। अब मानलो कोई व्यक्ति कहता है कि हे भगवान ! मैं ‘राजा’ हो  जाऊं, तो हो सकता है, अगले जन्म में वह किसी गरीब के घर जन्म लेकर ‘राजा’ नाम का व्यक्ति कहलाए। वह राजा बनना चाहता था इसलिए वह हो गया। इसका स्पष्ट अर्थ यह है,  कि किसी भी प्रकार की इच्छा करते समय बहुत ही सावधान रहना चाहिए।

इस संबंध में एक दृष्टाॅंत है, ‘‘किसी व्यक्ति ने भगवान शिव से अमर हो जानें का वरदान माॅंगा। शिव ने कहा, अमर होना तो असंभव है; गहराई से विचार कर कुछ और माॅंग लो । वह बोला, ठीक है, मैं न दिन में मरूं और न रात में। तो, वह मरा संध्याकाल में।’’

सच तो यह है कि परमपुरुष से कुछ माॅंगा ही न जाय अर्थात् भौतिक जगत की कोई चीज माॅंगने का क्या औचित्य क्यों कि अगले एक सेकेंड का भी तो किसी को नहीं मालूम कि क्या होगा, वह जिएगा भी या नहीं। हम स्वयं अपने भविष्य की आवश्यकताओं को नहीं जानते तो कुछ भी माॅंगने से क्या लाभ। इसलिए सबसे अच्छा तो यह कहना होता है कि "हे प्रभु ! मेरे जीवन में आपकी इच्छा पूरी हो।"  यदि कुछ माॅंगना ही हो तो सर्वोच्च भक्ति ‘पराभक्ति’ माॅंगना चाहिए।

Tuesday, 14 August 2018

208 आचरण

  आचरण

भावजड़ता में डूबे धर्मान्ध अनुयायी गण, समाज के तथाकथित उच्च वर्ग और वर्ण के कहे जाने वाले लोगों के शिकार होते रहे हैं। पीले या गेरुए वस्त्रों वाले किसी भी व्यक्ति को वे सदाचारी मानकर दंडवत प्रणाम करते हैं भले ही वे गाॅंजा और हशीस का धूम्रपान करते हों, मास खाते हों , शराब पीते हों, अफीम खाते हों , तामसी भोजन और प्याज, लहसुन की तो बात ही क्या करना वह तो उनके रोचक खाद्य पदार्थ होते हैं। यदि उनसे तर्क करें तो पिटा पिटाया जबाब होता है, ‘‘ हम तो उनकी पोशाक को प्रणाम करते हैं उन्हें नहीं।

किसी के भी आचरण को देखकर यह सरलता से जाना जा सकता है कि वह ईश्वर के दिव्य प्रेम में कितना डूबा है, जो इस दिव्य प्रेम का रसपान कर चुकता है वह दूसरों का शोषण कभी नहीं कर सकता। इस प्रकार के लोग हर प्रकार के अन्याय, अत्याचार ओर शोषण के बिरुद्ध अपनी आवाज बुलन्द करते हैं। वे जो अनीति के विरुद्ध साहस पूर्वक खड़े नहीं हो सकते उन्हें आचरणवान नहीं कहा जा सकता।

वे, जिन्हें समाज ने दूसरों को रास्ता दिखाने का उत्तरदायित्व सौंपा है उनका चरित्र तो सर्वोत्तम होना चाहिए। वे और उनके अनुयायी नियमित रूप से श्रेय और सर्वांगीण विकास का रास्ता चुनते हैं।  ‘‘ आचरणात् पाठयति यः सः आचार्यः ’’ अर्थात् वे, जो अपने व्यवस्थित व्यवहार और आचरण से शिक्षा देते हैं उन्हें ही आचार्य कहते हैं। यह ध्यान रखना चाहिए कि आचार्य की छोटी सी कमजोरी (या आचरण का दोष ) जन सामान्य का बड़ा नुकसान कर सकती है या उन्हें गलत रास्ते की ओर ले जा सकती है। जैसे पिता अपने बच्चों को अपने अच्छे आचरण से शिक्षित करता है उसी प्रकार आचार्य को सदा अपनी वार्ता और क्रियाकलाप से अपने को प्रमाणित करना चाहिए। आचरण से  आदर्श झलकना चाहिए, इसमें किसी की शिक्षा का स्तर या सामाजिक स्तर या आर्थिक स्तर का कोई महत्व नहीं। इसीलिए कहा गया है कि धर्म और कुछ नहीं आपके आचरण का एकीकरण है- आप कैसे खाते हैं, कैसे बोलते हैं, कैसे साधना करते हैं ... । यदि आपका आचरण ठीक है तो आपका धर्म आपके साथ है और नहीं तो धर्म भी आपसे दूर रहता है । जब किसी का धर्म साथ छोड़ देता है तो सर्वनाश निकट आ जाता है अर्थात् उसका भौतिक, मानसिक और आध्यात्मिक पतन हो जाता है। आचरण, धर्म का प्रधान घटक माना जाता है। अच्छे आचरण वाले सदाचारी व्यक्ति को निश्चित ही परमात्मा को पाना सरल हो जाता है।

Tuesday, 7 August 2018

207 ऋग्वेद

ऋग्वेद
ऋग्वेद बहुत पुराना है इसके अतिरिक्त यह भी निश्चित है कि कृष्णद्वैपायन व्यास ने वेदों को उनकी प्राचीनता के अनुसार सबसे पुराना, मध्य, और पश्चात्वर्ती इन तीन अलग अलग भागों में ‘जैन युग’ के बहुत पहले विभाजित कर दिया था। जैन युग का संदर्भ देने का कारण यह है कि वेदों का उल्लेख जैन साहित्य में भी मिलता है जो कि तत्कालीन प्राकृत भाषा में लिखा गया है। वर्धमान महावीर 2500 वर्ष से कुछ पहले हुए थे और प्राकृत भाषा का उद्गम चार से पाॅंच हजार वर्ष के बीच हुआ। इस प्रकार वेदों का जो भी भाग सबसे बाद का माना जाय, वह निश्चय ही पाॅंच हजार वर्ष से कम पुराना नहीं हैं। जैन साहित्य का जहाॅं तक संबंध है उसका कुछ भाग वर्धमान महावीर के पहले, कुछ जैन सन्तों के द्वारा रचित हुआ था तो भी वे किसी भी प्रकार से पाॅंच हजार वर्ष से पहले के नहीं हैं।
ऋग्वेद का रचनाकाल लगभग पन्द्रह हजार वर्ष से दस हजार वर्ष पूर्व के बीच का है जबकि यजुर्वेद का दस हजार से सात हजार वर्ष के बीच का और अथर्ववेद का सात से पाॅंच हजार वर्ष के बीच का माना जाता है। सामवेद कोई वेद नहीं है, शब्द ‘साम’ का अर्थ है ‘गीत या भजन’ । सामवेद को पूर्वोक्त सभी वेदों के संगीत वाले भाग को अलग कर एक साथ प्रस्तुत किया गया जिसे सामवेद का नाम दिया गया है। अर्थात् सामवेद, ऋग्वेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद सभी में पाया जाता है। वेदों का सबसे पहले विभाजन हुआ तब उन्हें ऋक, यजुः और अथर्व नाम दिया गया। परन्तु जैन साहित्य में केवल सामवेद का उल्लेख मिलता है जो प्रकट करता है कि जैन साहित्य के उद्गम से बहुत पहले वेदों को तीन भागों में विभाजित किया जा चुका था और बाद में सभी तीनों भागों में से संगीत वाले भाग को एकत्रित कर सामवेद बनाया गया था।
जैसे लिपि के अभाव में वेदों को लिखा जाना संभव नहीं हो पाया था उसी प्रकार जैन सन्त जितने भी पुराने क्यों न हों वे भी अपनी शिक्षाओं को लिपि के माध्यम से व्यक्त नहीं कर सके। वर्धमान महावीर का जन्म लिपि के अनुसंधान हो जाने के बाद हुआ अतः उनके समय जैन साहित्य तत्कानील प्राकृत भाषा में लिखा गया । उनका जन्म पूर्वी भारत के वैशाली नामक स्थान हुआ था और उन्होंने मगध तथा राढ़ में अपनी शिक्षाओं का प्रचार प्रसार किया था । अतः स्पष्ट है कि उन्होंने जो भी कहा या लिखा था वह तत्समय की प्रचलित प्राकृत भाषा में ही पाया जा सकता है। मुख्य प्राकृत भाषाएं सात प्रकार की हैं और जैन साहित्य की भाषा उनमें से एक है जिसे मागधी प्राकृत कहते हैं। ऋग्वेद और यजुर्वेद  के कार्यकाल में लिपि का अनुसंधान नहीं हुआ था इसलिए उन्हें लिखा नहीं जा सका, लिपि का अनुसंधान अथर्ववेद अर्थात् वेदों के अंतिम भाग के समय हो चुका था परन्तु चॅूंकि ऋक और यजुः को लिखा नहीं गथा इसलिये लोगों ने सोचा कि शायद अथर्ववेद को भी नहीं लिखा जाना चाहिए और वह भाग भी अलिखित रह गया। अथर्ववेद के प्रवर्तक ( उस समय  कहलाते थे ‘आदर्शपुरुष’ ) ब्रह्मर्षि अथर्वा थे ।वह मध्य एशिया के थे और यह कहना आवश्यक नहीं है कि वह भारत के ही मूल निवासी थे। और, यह भी कि अथर्ववेद के अंतिम भाग के प्रवर्तक विशेषतः महर्षि वैदर्भि भारत के ही मूल निवासी थे क्योंकि विदर्भ,  भारत के पश्चिम मध्य भाग की आबादी का नाम था।
कृष्णद्वैपायन व्यास को वेदव्यास के नाम से जाना जाता है क्योंकि उन्होंने वेदों को तीन मुख्य भागों ऋक, यजुः और अथर्व , में बाॅंटा था। इस शब्द ‘व्यास’ के संबंध में मतभिन्नता पाई जाती है। अनेक एतिहासिक व्यक्तियों के व्यास नाम पाए जाते हैं परन्तु सावधानी से विचार करने पर ज्ञात होता है कि  व्यास कोई नाम नहीं है वह वंशानुगत शीर्षक है। वादरायण व्यास, संजय व्यास, विवस्वत व्यास आदि के उपनाम व्यास थे न कि नाम। व्यास, जिन्होंने वेदों के तीन भाग किए उनका नाम था कृष्णद्वैपायन जो कि एक ‘कैवर्त’ परिवार (मत्स्य परिवार) में गंगा और यमुना के बीच प्रयाग के पास काली मिट्टी के द्वीप (कृष्ण द्वीप) पर उत्पन्न हुए थे जिस कारण उनका नाम कृष्णद्वैपायन पड़ा। इन्होंने ही महाभारत ग्रंथ की रचना की जो वेदों के बहुत बहुत बाद में अस्तित्व में आया  पर फिर भी निःसंदेह तीन हजार वर्ष से अधिक पुराना  है। यद्यपि ऋग्वेद में मुख्यतः स्तोत्र हैं परन्तु उसमें कहानियाॅं और दृष्टान्त भी हैं। भले ही ये सभी कहानियाॅं एक से आध्यात्मिक महत्व की न हों पर वे सभी प्राचीन समय के लोगों की संस्कृति का प्रतिनिधित्व करती हैं। उनसे पता चलता है कि समाज की संरचना और विचारधारा का क्रमशः किस प्रकार विकास हुआ। इस दृष्टिकोण से ऋग्वेद की भाषा, साहित्य और अभिव्यक्तिकरण संसार के लिए विशेष महत्व रखता है। यह सत्य है कि उस समय लिपि नहीं थी परन्तु ध्वनिविज्ञान, ध्वनि की अभिव्यक्ति , उनकी क्रमबद्धता और व्यवस्थापन आदि उस समय अस्तित्व में थे। विभिन्न अक्षरों की अनेक प्रकार की ऋग्वैदिक उच्चारण करने की विधियाॅं उस समय प्रचलन में थीं जो समय समय पर अपने गुरुओं से उनके शिष्यगण मौखिक सुन कर याद रखा करते थे। ऋग्वेद में ‘ऋक’ और ‘सूक्त’ के नामकरण का विशेष नियम था। ऋक का नाम, सामान्यतः परमसत्ता के नाम पर सम्बोधन के अनुसार दिया जाता था और जहाॅं परमसत्ता को नाम से सम्बोधित नहीं किया जाता था वहाॅं सूक्त; या कहीं कहीं ऋक भी, पहले शब्द के नाम पर दिया जाता था। अन्य विशेषता यह कि अधिकाॅंतः ऋक को निश्चित छंदों में रचा गया है।

मुख्यतः सात प्रकार के छंद पाए जाते हैं, गायत्री, उष्णिक, त्रिष्टुप, अनुष्टुप, ब्रहती, जगती, और पॅंक्ति। इसके अलावा वैदिक भाषा में कोई सर्वस्वीकृत व्याकरण नहीं थी अतः छंदों  और प्रचलित अलिखिम व्याकरण के बीच भिन्नताओं को इस नियम के अनुसार समाधान किया जाता था कि व्यक्ति अपनी सुविधा के अनुसार छंद को काट छाॅंट कर घटा बढ़ाकर ध्वनि को व्यवस्थित कर सकता था जिससे वह छंद यथावत बना रहे। एक उदाहरण स्वीकृत ऋक 310/62 का है, जिसे सामान्यतः गायत्री मंत्र कहा जाता है, जो यथार्थतः सावित्र ऋक है। गायत्री एक विशेष छंद का नाम है, मंत्र का अर्थात् ऋक का नहीं। इस गायत्री में परमपुरुष को ‘‘सविता’’ के नाम से संबोधित किया गया है। इस शब्द की व्युत्पत्ति है , सु + त्रन् या त्रक  इसलिए इसे ‘‘सावित्र ऋक’’ कहा गया है। ऋग्वेद के प्रथम मंडल के एक सूक्त में कहा गया है कि
नासदासीन्नो सदासीतदानीम, नासीद्राजो न व्योमा परो यत।
इसका प्रारंभ शब्द ‘नासद’ से किया गया है इसलिए इसका नाम हुआ ‘नासदीय सूक्त’ । पूर्वोक्त ‘सावित्र ऋक’ गायत्री छंद में रचा गया है जिसमें आठ शब्दाॅंश होते हैं। इसकी तीन लाइनें  हैं इसलिए कुल चौबीस शब्दाॅंश हैं। ऋक इस प्रकार है,
तत्सवितुर्वरेण्यम
भर्गो देवस्य धीमही
धियो यो नः प्रचोदयात्।
‘‘अर्थात्, परम पिता, जिसने सृष्टि को सात स्तरों ( लोकों  ) में निर्मित किया है, उसके दिव्य तेज का हम ध्यान करते हैं जिससे वह हमारी बुद्धि को आनन्दित पथ की ओर जाने में मार्गदर्शन करे।’’

अब यदि हम इस ऋक का विश्लेषण करें तो दूसरी लाइन में आठ शब्दाॅंश- भर, गो, दे, व, स्य, धी, म और ही ; तथा तीसरी लाइन में भी आठ शब्दाॅंश - धि, यो, यो, नः, प्र, चो, द और यात् पाए जाते हैं। परन्तु पहली लाइन में केवल सात शब्दाॅंश - तत् स, वि, तुर, व, रे, और न्यं पाए जाते हैं अर्थात् इस लाइन में एक शब्दाॅंश की कमी है अतः इसे उच्चारित करने के समय आज अथवा तत्समय भी तत्कालीन प्रचलित अलिखित व्याकरण नियमों का उल्लंघन होता है। इसलिए इसे इस प्रकार उच्चारित किया जाता है कि आठ शब्दाॅंश हो जाएं, जैसे, तत् स, वि, तुर, व, रे, नि, अम् ।
मंत्र के प्रारंभ में ‘‘ओम् भूर्भुवः स्वः ओम् ’’ जोड़ दिया जाता है और अन्त में ओम् जोड़ा जाता है। यह मूलतः ऋग्वेद में नहीं है, ये अथर्ववेद में है। यह मंत्र परमब्रह्म के सप्त लोकों की सृष्टि का सामूहिक अभिव्यक्तिकरण है- भूर्भुवः, स्वः, महः, जनः, तपः, और सत्य। परन्तु जहाॅं स्थूल , सूक्ष्म और कारण नामक लोकों को संक्षिप्त रूप में प्रयुक्त किया जाता है वहाॅं केवल ‘‘भूभुर्वः.स्वः’’ इन तीन नामों का ही उच्चारण किया जाता है जिनके लिए ‘‘महाव्याहृति’ (अर्थात् परमोच्चारण) शब्द का उपयोग किया जाता था। ये मूलतः ऋग्वैदिक ‘सावित्र ऋक’ के भाग नहीं हैं। सावित्र ऋक के उच्चारण का अभ्यास करने के लिए
‘‘ ओम भूभुर्वः स्वः
ओम् तत्सवितुर्वरेण्यं
भर्गो  देवस्य धीमही
धियो यो नः प्रचोदयात् ओम्’’
 इस प्रकार महाव्याहृति को जोड़कर ‘‘सावित्र ऋक ’’ का अर्थ प्रबल किया जाता है। इसे जोड़ने का कारण यह है-  महाव्याहृति के जोड़ने पर मंत्र का अर्थ स्पष्ट हो जाता है जैसे, ‘‘इन, भूः भुवः स्वः अर्थात् स्थूल, सूक्ष्म और कारण लोकों में हम सविता (अर्थात् परमपिता) के प्रखर तेज का ध्यान कर रहे हैं जिससे वह हमारी ‘धी’ अर्थात् बुद्धि को सच्चाई के रास्ते पर चलाए रखने  में मार्गदर्शन करें ।’’ परमपुरुष से इस मंत्र के द्वारा आध्यात्मिक दिशा पाने के लिए प्रेरणा पाने का प्रयत्न करना ‘‘वैदिक दीक्षा’’ कहलाता है। बाद में जब व्यक्ति आध्यात्मिक रास्ते पर चलने के लिए तत्संबंधी उचित निर्देश पा जाता है तो इसे ‘‘तान्त्रिकी दीक्षा’’ कहते हैं।

ऋग्वेद को प्राचीन काल में प्रमुख वेद माना जाता था केवल इसलिए नहीं कि वह सबसे पुराना था वरन् इसलिए कि वैदिक दीक्षा ऋग्वेद के सावित्र ऋक पर न्यूनाधिक रूप से आधारित थी यद्यपि आध्यात्मिक साधक के लिए भौतिक संसार और आध्यात्मिक संसार में संतुलन बनाए रखकर आगे बढ़ने के क्षेत्र में सहायक होने के दृष्टिकोण से यजुर्वेद, ऋग्वेद का अतिक्रमण कर जाता है। यजुर्वेद में शब्दों का उच्चारण और ध्वनि विज्ञान, ऋग्वेद से बिलकुल भिन्न है। यजुर्वेद, तन्त्र के अधिक निकट है और अथर्व भी लगभग हर पद पर तन्त्र से मिश्रित पाया जाता है। एक समय तो ऐसा था जब रूढ़ीवादी पंडितों ने अथर्ववेद के अनुयायियों को सामाजिक रूप से वहिष्कृत कर दिया था और वे कहते थे कि
‘‘ अथर्वान्नाम मा भुन्जीथाः’’
अर्थात् अथर्ववेद के अनुयायियों का भोजन स्वीकार नहीं करना चाहिए ! ! !

Saturday, 4 August 2018

206 साधना के समय मन क्यों भटकता है?

साधना के समय मन क्यों भटकता है?

अनेक लोग मन की चतुर्थ अवस्था अर्थात् एकाग्रता से परिचित हैं। इस उन्नत अवस्था में मानव मन कभी कभी दिव्यता की मधुरता अनुभव करता है और कभी कभी इस स्तर तक गिर जाता है कि सब कुछ भूलकर वह नारकीय प्राणी की तरह राक्षसीय व्यवहार करने लगता है। कभी कभी सत्संगति में आकर सोचता है कभी असत्य नहीं बोलूॅंगा पर अगले ही क्षण वह रिश्वत लेता है, मादक द्रव्य पीता है, चरित्रहीन हो जाता है और सोचता है कि ईमानदारी और सद् गुण  मूर्खतापूर्ण हैं, जो मैं कर रहा हॅूं वही सही है। इस प्रकार मन अच्छे और बुरे के बीच गेंद की तरह उछलने लगता है। परन्तु जब वह योग साधना का अभ्यास करने लगता है और उत्साहित होकर ‘श्रेय’ को अपना आदर्श बना लेता है तब उसका मन सत्य की एकाग्रभूमि में स्थापित हो जाता है। इस स्थिति में चित्त से अनेक प्रकार की तरंगे निकलने लगती हैं।

‘‘ शान्तादितौ तुल्यप्रत्यायो चित्तस्यैकाग्रतापरिणाम।  ’’

साधना करने के प्रारंभ में साधक का मन एकाग्र नहीं रह पाता, अपने इष्ट मंत्र के थोड़े से दुहराने के बाद ही मन में हजारों अवाॅंछित विचार आ धमकते हैं। उसे लगता है मैं साधना कर ही नहीं सकॅूंगा वरन् उन विचारों से परेशान होता रहॅूंगा जो मैं नहीं चाहता। हाथ माला फेरते हैं, ओंठ मंत्र जाप करते हैं पर मन नरक की गंदगी की ओर भागता है। जब मन में उठने वाले इस प्रकार के अवांछित विचार हटा दिये जाते हैं तभी एक आनन्ददायी तरंग उत्सर्जित होती है और मन एकाग्रभूमि की अवस्था पा लेता है। साधना करते समय यदि मन एकाग्र नहीं रहता है तो उसका कारण है कि इष्ट मंत्र का उचित प्रकार से जाप नहीं किया जा रहा है। ईमानदारी से नियमित अभ्यास के द्वारा यह जापक्रिया सही सही बनाई जा सकती है।

Friday, 3 August 2018

205 ऋक

ऋक

ऋक+ क्विप= ऋक । वैदिक क्रिया "ऋक" का अर्थ है ‘ महिमामंडन करना ’ (गीत से या सामान्य भाषा में) ‘‘ऋक’’ का संस्कृत में अर्थ है ‘स्तवन’ करना। प्राचीन समय में साधु लोग प्रकृति के विभिन्न रूपों को किसी न किसी देवता का खेल मानते थे अतः उन्होंने उनके लिए स्तवन या भजन करना प्रारंभ किया। जब उन्होंने उषा, इन्द्र,पर्जन्य,मातरिष्वा, वरुण आदि के भजन गाए तब उन्हें ‘साम’ कहा गया। उस समय तक लिपि का अनुसंधान नहीं हुआ था इसलिए शिष्य अपने गुरु से मौखिक शिक्षा को ग्रहण किया करते थे। ये सत्य के वचन थे, ज्ञान के वचन थे अतः उन्हें जानकर तत्कालीन असंस्कृत लोग संस्कृति के प्रकाश की ओर बढ़ने लगे इसलिए उन्हें ‘वेद’ या ‘ज्ञान’ कहा गया।

वैदिक क्रिया ‘विद’ का अर्थ है ‘‘जानना’’ इस में ‘अल’ प्रत्यय जोड़ने से ‘वेद’ शब्द बनता है जिसका अर्थ है ‘‘ज्ञान’’। शब्द ‘वेद’ का लिखित रूप देखकर कुछ स्वरविज्ञानियों का विचार है कि इसे ‘घञ’ प्रत्यय लगाकर बनाया गया है; तो भी, यही सही है कि उसे ‘अल’ प्रत्यय लगाकर बनाया गया है और वह पुल्लिंग है। चूँकि लिपि के अभाव में उसे गुरु से मौखिक सुनकर याद रखा जाता था इसलिए उसका दूसरा नाम ‘श्रुति’ है। श्रु+ क्तिन =श्रुति। क्रिया ‘श्रु’ का अर्थ है, सुनना। इसलिए श्रुति का एक अर्थ है ‘कान’  और इसीलिए कहा गया है कि जो कान से सुनकर याद रखा गया है वह है ‘वेद’ । वेदों के सबसे पुराने भाग के प्रत्येक श्लोक को ‘ऋक’ कहा गया है, जब अनेक श्लोकों को एक साथ रखकर किसी विचार को प्रदर्शित किया जाता है तो उसे कहा गया है ‘सूक्त’  और अनेक सूक्तों को संग्रहित कर बनाया गया है ‘मंडल’ ।