Friday, 23 August 2019

263
‘गंगा’, ‘यमुना’ के तीर पर बैठे,
टूटती जुड़ती लहरों के व्यतिकरण में,
तुझे देखा है कई लोगों ने।

और मैं ने, ‘बेबस’ और ‘धसान’ में गोता लगाते
बार बार इस पार से उस पार जाते, आते, हृदयंगम किया है।

जबकि अन्यों को तू गिरिराज की
तमपूर्ण खोहों में छिपा मिला।

मेरे नितान्त एकान्तिक क्षणों में क्या
तू मेरे चारों ओर प्रभामंडल की तरह नहीं छाया रहा?

आज तुझे उनमें भी लयबद्ध पाया
जिन्हें लोग कहते हैं कुत्सित, घृणित और अस्पृश्य।
तेरी विराटता और सूक्ष्मता का
ऐसा आश्चर्यजनक मिश्रण
कर रहा है बार बार भ्रमित,
तथाकथित विद्वज्जनों को।

फिर भी वे, शान से....
बिना चकित हुए, तेरी माया पर
दिये जा रहे हैं लगातार..... व्याख्यान.....
ढकेल रहे हैं इस जगत को,
सत्य से पृथक,
मिथ्यात्व में।

Monday, 19 August 2019

262 ‘चिकित्सा’ सेवा या व्यवसाय?

 ‘चिकित्सा’ सेवा या व्यवसाय ?

धरती पर चिकित्सकों को, भगवान के बाद का स्तर प्राप्त है परन्तु आज हम इनमें सेवाभाव की कमी और व्यवसाय की अधिकता ही देखते हैं। यद्यपि कुछ चिकित्सकों में मानवीयता के लक्षण देखे जाते हैं परन्तु उनकी संख्या अत्यल्प ही है। यह प्रवृत्ति उन देशों में सबसे अधिक पायी जाती है जहाॅं पूॅंजीवादी व्यवस्था ने समाज पर नियंत्रण बना रखा है। सभी चिकित्सकों को अपने ‘बही खाते और शुभलाभ’ की तख्ती को निहारते देखा जा सकता है। औषधि निर्माण करने वाली कंपनियों  के मालिक भी पॅूंजीपति होते हैं और  केवल आर्थिक लाभ देने वाले शोधकार्य को प्राथमिकता देते हैं और चिकित्सा पर होने वाला खर्च अनेक गुना कर देते हैं । उनकी दृष्टि में रोगी उनके जैसे मानव नहीं हैं जिन्हें उनकी देखभाल कर आवश्यकता है वरन् वे उनकी दवाओं के खरीददार ग्राहक के अलावा कुछ नहीं होते हैं।
विश्वसनीय डाक्टर भी जिनसे हमें आशा हो कि इनकी चिकित्सा से लाभ होगा उनकी फीस इतनी अधिक होती है कि जनसामान्य उन तक पहॅुंच ही नहीं पाता। चिकित्सक का मन सेवाभाव से पूर्ण होना चाहिए न कि धनार्जन प्रेरित। परन्तु यदि वे धन न लें तो क्या हवा पर जीवित रहेंगे, यह पूछा जा सकता है। लेकिन सोचने की बात यह भी है कि वे कितना धन लें? न्याय संगत धन उन्हें शासकीय /अर्धशासकीय सेवा संस्थाओं से दिया ही जाता है परन्तु उनका लालची मन अतिरिक्त धनार्जन करने से अपने को बचा नहीं पाता जिसका मूल कारण है पॅूंजीवादी व्यवस्था। एक बेरोजगार व्यक्ति के लिए चिकित्सा कार्य जीवन यापन का साधन हो सकता है परन्तु किसी भी परिस्थिति में व्यावसायिक धंधा तो कभी भी स्वीकार्य नहीं हो सकता।
उन डाक्टरों का तो कहना ही क्या है जिनके स्वयं के क्लीनिक हैं। ये छोटी छोटी सी बीमारियों के लिए अनेक दवाओं की लिस्ट देंगे, दवाएं भी मंहगी होंगी। मेडीकल स्टोर्स के मालिकों से उनकी सांठगाॅंठ रहेगी और उनसे अच्छा कमीशन मिलेगा, इतना ही नहीं रोग से संबंधित न होने पर भी अनेक जाॅंचें करने हेतु मरीज को कहा जाता है और जाॅंच करने वाली प्रयोगशाला के मालिकों से उनका लाभाॅंश नियत रहता है। इसे धनलोलुपता नहीं तो और क्या कहा जा सकता है। इस मानसिकता के पीछे क्या है? पॅूंजीवाद ने ही सब के मन में बेईमानी के बीज बोए हैं और अब वे बड़ा वृक्ष बन चुके हैं। अस्पतालों में भी रोगियों के साथ अच्छा वर्ताव नहीं किया जाता, नर्सें, नौकर और स्वीपर तक, तब तक रोगी की देखरेख नहीं करते जब तक उन्हें टिप नहीं मिल जाती। मरीजों को दिया जाने वाला भोजन भी पौष्टिक नहीं होता और उसके साथ मिलने  वाले फल और दूध को  अस्पताल का स्टाफ खा जाता है। इस प्रकार की शिकायतों की लम्बी लिस्ट है जो अविश्वासनीय सी लगती है पर भुक्तभोगी ही  जानते हैं कि यह सभी सच है। 
सभी लोग चाहेंगे कि यह स्थिति दूर हो जाए परन्तु यह तब तक संभव नहीं है जब तक चिकित्सा उद्योग में सेवोन्मुख भावना को नहीं जगाया जाता। एक दृश्य यह भी है कि बड़ी बड़ी कम्पनियाॅं दुर्लभ बीमारियों (जैसे, विटिलिगो, टेस्टीकुलर केंसर, गेस्ट्रिक लिम्फोमा और अनेक) पर अनुसंधान करने में व्यय न कर हाईब्लडप्रेशर जैसी बीमारियों पर नई नई दवाएं खोजने में पूँजी  लगाती हैं क्योंकि इनसे उन्हें अधिक लाभ मिलता है; जबकि इसे दूर करने के लिए सबसे अच्छा मार्गदर्शन यह है कि रोगी को अपनी जीवन पद्धति (भोजन, व्यायाम और मेडीटेशन आदि) में सुधार करने को कहा जाए। पर वे यह नहीं करेंगे क्योंकि ब्लड प्रेशर  की दवा तो सोने की खदान है, रोगी को इसे आजीवन लेते रहने सलाह दी जाती है और करोड़ों लोगों के द्वारा रोज ही इसका उपयोग किया जाता है। डक्टरों की भावना यह हो गई है कि अधिक से अधिक लोग बीमार होते रहें और उनकी दूकानदारी दौड़ती रहे। इस प्रकार की स्वार्थमय भावना जहाॅं घर कर गई हो, जहाॅं मानवता से कोई प्रेम न हो, वहाॅं चिकित्सा व्यवसाय करने वालों से समाज सेवा की आशा कैसे की जा सकती है। इस मानसिकता के लोग यह सिद्धान्त भूल जाते हैं कि एक स्तर के बाद धन महत्वहीन हो जाता है और जब तक, यह समझ में  आता है तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। भोजन, वस्त्र, आवास, चिकित्सा और शिक्षा ये मानव मात्र की मूलभूत आवश्यकताएं हैं इनसे किसी को भी खिलवाड़ करने का अधिकार नहीं होना चाहिए।

Saturday, 10 August 2019

261 बौद्ध और जैन दर्शन का समाज पर प्रभाव

 बौद्ध और जैन दर्शन का समाज पर प्रभाव

यदि सावधानी पूर्वक परीक्षण किया जाय तो हम पाते हैं कि लगभग 2500  वर्ष पूर्व  वेदों के ‘‘ज्ञानकाण्ड’’ जिसमें ‘आरण्यक और उपनिषद’ आते हैं अपनी कठिनता के कारण धीरे धीरे जनसामान्य की रुचि से हट रहे थे और ‘‘कर्मकाण्ड’’ जिसमें ‘ब्राह्मण और मंत्र’ का समावेश किया गया है, अपनी ओर अकर्षित कर रहे थे।  इनके प्रभाव के विरोध में लगभग उसी समय  हुए ‘ऋषि चार्वाक’ ने आवाज उठाई। महावीर और बुद्ध की आयु में लगभग 50 वर्ष का अन्तर था और ‘चार्वाक’ के शिष्य ‘अजितकुसुम’ जो  बुद्ध के समकालीन थे उनका तर्क था कि ‘‘जब थोड़ी दूर खड़े व्यक्ति को कोई वस्तु देने पर वह उसके पास नहीं पहुँचती  तो जो मर चुके हैं उन्हें  घी, चावल और शहद देने पर कैसे पहुॅंचेगी?’’ समाज का एक बड़ा भाग कर्मकाण्ड के प्रभाव में आज भी देखा जा सकता है। इस तरह तात्कालिक चार्वाक के सिद्धान्तों से प्रभावित समाज में महावीर और बुद्ध ने अपनी अपनी शिक्षाओं को प्रचारित करने का कष्टसाध्य कार्य किया। स्वभावतः दोनों को समाज के पूर्ववर्ती अनुकरणकर्ताओं का विरोध झेलना पड़ा।
पर, भगवान बुद्ध ने पूरे संसार में बड़ी ही समस्या उत्पन्न कर दी, विशेषतः  दुखवाद का सिद्धान्त और अहिंसा की गलत परिभाषा देकर। यही कारण है कि मेडीकल साईंस की प्रगति अर्थात सर्जरी और अन्य औषधीय अनुसंधान  सैकड़ों वर्ष पिछड़ गये । इसका कारण यह था कि बौद्ध  शिक्षाओं में शव को अपवित्र बताया गया है इसलिए उसे छू कर डिसेक्शन  करना और आंतरिक  ज्ञान प्राप्त करना निषिद्ध कर दिया गया था। यही नहीं बौद्ध धर्म के द्वारा लोग भीरु हो गये। यही बात भगवान महावीर के जैन धर्म की भी है। ये दोनों ही धर्म समय की कसौटी पर खरे नहीं उतर सके। गौतम बुद्ध ईश्वर  के बारे में स्पष्ट मत नहीं दे सके और न ही यह बता सके कि जीवन का अंतिम उद्देश्य  क्या है, इतना ही नहीं वे अपने सिद्धान्तों पर आधारित मानव समाज का भी निर्माण नहीं कर सके।

आदिकाल के लोग अपने शरीर को नहीं ढंकते थे परंतु मौसम के अनुसार वे अपने शरीर को ढंकने लगे। महावीर जैन ने भी सबसे पहले तो निर्ग्रन्थवाद  अर्थात् नग्न रहने पर बहुत जोर दिया पर अब, जब कि वे अपने शरीर को ढंकने के अभ्यस्थ हो गये तो उन्हें नग्न रहने में शर्म आने लगी। इसलिये महावीर का दर्शन  जनसमान्य  का समर्थन नहीं पा सका। इसके अलावा उन्होंने दया और क्षमा करने पर बहुत अधिक बल दिया, उन्होंने यह सिखाया कि अपने जानलेवा शत्रु साॅंप और विच्छू को भी क्षमा करना चाहिये । इस शिक्षा के कारण लोगों ने समाज के शत्रुओं से लड़ना छोड़ दिया।
इस प्रकार महावीर और बुद्ध की शिक्षायें यद्यपि भावजड़ता पर आधारित नहीं थीं और न ही उन्होंने लोगों को जानबूझकर गलत दिशा  दी परंतु कुछ समय के बाद वे असफल हो गये क्योंकि उनकी शिक्षायें पर्याप्त व्यापक और संतुलित नहीं थीं।  इसके वावजूद सत्य के अनुसन्धानकर्ताओं ने बुद्ध की ‘अष्टाॅंग योग‘ और ‘चक्षुना संवरो साधो‘ तथा अन्य विवेकपूर्ण शिक्षाओं को मान्यता दी है। महावीर की शिक्षा ‘‘ जिओ और जीने दो‘‘ को भी मान्यता दी गई है परंतु इसका अर्थ यह नहीं है कि इन दोनों चिंतकों की समग्र विचारधाराओं को मान्यता दी गई है।

गौतम बुद्ध ने ईश्वर  के बारे में स्पष्ट मत नहीं दिया जबकि वे स्वयं परमसत्ता अर्थात् ईश्वर का ध्यान करते थे और उन्हें अनुभूत किया; इसका क्या कारण यह हो सकता है? वास्तव में उन दिनों चार्वाक के अनुयायियों को पराजित करने के प्रयासों में ईश्वर के नाम पर बहुत शोषण हो रहा था, लोभी पंडों और पुजारियों द्वारा जनसामान्य को मूर्ख बनाया जा रहा था, अतः ईश्वर या भगवान का नाम सुनते ही लोग विपरीत प्रतिक्रिया करने लगे थे। इन झंझटों से बचने के लिए बुद्ध ने खुले रूप में ईश्वर के बारे में कुछ नहीं कहा परन्तु इससे उनकी शिक्षाओं में गहरे मतभेद आ गए और परिणामतः बुद्ध का दर्शन या धर्म अनीश्वरवादी घोषित हो गया। भौतिकवादियों के लिए वह अनीश्वर धर्म बन गया अतः वर्तमान में कुछ लोग इसी कारण बौद्ध धर्म का पालन करने लगे हैं क्योंकि उनके अनुसार वहाॅं ईश्वर का कोई भय नहीं है। इसी से मिलता जुलता दृश्य चर्चों में भी देखा जा सकता है जहाॅं अनुचित व्यवहार, ‘डोगमा’ और संकीर्ण मानसिकता से ऊबकर क्रिश्चियन अनुयायी ‘‘ गाड ‘‘ अर्थात् भगवान नाम से ही चिड़ने लगे हैं । वे पूर्णतः भौतिकवादी और स्वयंकेन्द्रित दृष्टिकोण अपनाने लगे हैं।

Friday, 2 August 2019

260 ईश्वरप्रणिधान

ईश्वरप्रणिधान
जप क्रिया में केवल ध्वन्यात्मक लय होता है जैसे, राम राम, राम राम.... परन्तु ईश्वरप्रणिधान में इष्ट मंत्र का ध्वन्यात्मक लय मानसिक लय के साथ समानान्तरता बनाए रखता है। इसका अर्थ है कि मानसिक रूप से राम, राम राम तो कहते ही हैं परन्तु साथ ही साथ राम के बारे में सोचते भी हैं अन्यथा जप क्रिया में समानान्तरता नहीं रह पाएगी। समानान्तरता न रहने से शब्द राम अर्थात् परमपुरुष का उच्चारण करने पर ज्योंही ‘रा’ का उच्चारण किया जाता है तत्काल ‘म’ और इसके तत्काल बाद फिर से ‘रा’ उच्चारण करते समय द्वितीय स्तर पर वह ‘मरा ’ हो जाता है अतः इष्ट मंत्र परमपुरुष के स्थान पर ‘मरा अर्थात् मृत्यु’ का जाप बन जाता है। इसलिए इस प्रकार की जप क्रिया व्यर्थ हो जाती है। अतः जब तक मानसिक लय और ध्वन्यात्मक लय के बीच साम्य या समानान्तरता नहीं होगी वह ईश्वरप्रणिधान नहीं कहला सकता। इसलिये ‘ईश्वर प्रणिधान’ और ‘नाम जाप’ में जमीन आसमान का अन्तर है। ईश्वरप्रणिधान से चैतन्य हुए बीजमंत्र से उत्पन्न मानसिक तरंगें, ओंकार ध्वनि के साथ सरलता से अनुनादित हो जाती हैं और इसी अनुनाद की अवस्था में आत्मानुभूति होती है अन्यथा नहीं ।

259 उम्र और साधना


उम्र और साधना 
जब कोई भी साधना करता है और षोडश विधि  का अनुसरण करता है तो उसके गुण लगातार  बढ़ते जाते हैं। वे अधिक से अधिक मानवीय गुणों से पूर्ण  हो जाते हैं। यह अद्वितीय समीकरण है, क्योंकि ब्रह्मांडीय विचारधारा की मदद से, मन की परिधि बढ़ती है- उन्हें अधिक समझदार और गतिशील बनाती  है। इस तरह से, वरिष्ठ नागरिक स्वार्थ से  अपनी इकाई "मैं " में  ही सीमित नहीं रहते यही कारण है कि अधिकांश मामलों में, अपने बुढ़ापे में अच्छे साधक समाज की सेवा के लिए अधिक से अधिक समय समर्पित करते हैं।
लेकिन जब लोग  भौतिकवाद  की मानसिकता  से भर जाते हैं , तो बुढ़ापे का मतलब है दूसरों के लिए 'सिरदर्द' होना। यही कारण है कि यूरोपीय और कई पश्चिमी देशों में, बड़े होकर बच्चे अक्सर अपने बुजुर्ग माता-पिता के साथ रहना पसंद नहीं करते क्योंकि, जब प्रारम्भ से ही वे  वरिष्ठ नागरिकों को  सिर्फ अपनी ही स्वार्थी गतिविधियों में शामिल होते देखते रहे होते हैं तब निश्चित रूप से वे उनके बुढ़ापे में  उनके  कल्याण के बारे में सोचना नहीं चाहते। उनके मन और मस्तिष्क  भौतिकवाद के आत्म-केंद्रित दर्शन में  डूब चुके होते हैं। हालांकि, ऐसे कई अन्य देशों में जो इतने भौतिकवादी नहीं हैं, यह स्थिति नहीं है। उन समुदाय उन्मुख समाजों में वृद्ध लोग अन्य  सभी के  विकास का ध्यान  रखते हैं अतः  उस समाज में हर कोई वृद्ध सदस्यों का सम्मान करता है।
और, एक साधक का जीवन तो और भी अधिक उन्नत होता  है क्योंकि कई  वर्षों से मन को आध्यात्मिक तरीके से प्रशिक्षण देने के बाद, उनके उन्नत वर्षों में वह  पूरी तरह से परमपुरुष  के विचारों और अपने बच्चों के  कल्याण करने में लीन हो जाता है।  इस वातावरण में रहने वाले  पुराने साधक निस्स्वार्थ  होते हैं  सभी के प्रति उदार होते हैं। स्वाभाविक रूप से  हर कोई  उनकी  कंपनी में रहना पसंद करता है।
उम्र बढ़ने की प्रक्रिया पर  रोक : आसन, ताण्डव और कौशिकी  
मानव अस्तित्व के तीन पहलू हैं: शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक। 39 सालों के बाद, भौतिक शरीर धीरे धीरे बुढ़ापे  की ओर बढ़ने लगता  है। लेकिन आसन, कौशिकी , और तांडव  करके यह अधिकांश डिग्री तक  नियंत्रित या कम किया जा  सकता है।जो लोग अपने आसन, कौशिकी और तांडव  का अभ्यास अनेक वर्षों से करते  रहे हैं, वे उसे  अपने आगे के वर्षों में भी जारी रख सकते हैं। यह उनके शरीर को सुचारू, लचीला और ऊर्जावान रखता है।  साधक  अपनी  वास्तविक उम्र से अपने को ज्यादा युवा अनुभव करते  हैं।
यह  उन लोगों के लिए ऐसा नहीं है, जिन्होंने इस तरह के योग अभ्यास कभी नहीं किए। उनके शरीर अधिक  कठोर हो जाते हैं और यहां तक कि अगर उनकी  ऐसा करने  की इच्छा भी होती है तो वे 65 या 75 वर्ष की उम्र में तांडव शुरू नहीं कर सकते हैं - निश्चित रूप से 95 साल में तो और भी नहीं, क्योंकि उनके शरीर इस क्षेत्र में  अभ्यस्त नहीं होते हैं जबकि साधक तो 100  की उम्र में भी कौशिकी और  तांडव कर सकते हैं और अपने जीवन को बनाए रख सकते हैं।

ताॅंडव और कौशिकी भौतिक शरीर के लिए उत्तम भूमिका निभाते हैं। वे बुढ़ापे को रोकते हैं अतः उचित तरीके से सीखे गए तांडव को नियमित रूप से करने का प्रयास करते रहना चाहिए। तीन प्रकारों के ताण्डव में से, जो युवा हैं उन्हें रुद्र, और जो प्रौढ़ हो चुके हैं उन्हें विष्णु और ब्रह्मा ताण्डव ही करना चाहिए। मूलतः प्रारंभिक स्तर पर पूर्वात्य नृत्य ताण्डव ही है जो इतना सरल नहीं है। उछलते हुए जब पैरों के घुटने नाभि से ऊपर तक ही जाते हैं तब यह ब्रह्मा ताण्डव, जब छाती से ऊपर जाते हैं तब विष्णु, और जब गले से ऊपर जाने लगते हैं तब इसे रुद्र ताण्डव कहते हैं। रुद्र ताण्डव करना सरल नहीं इसके लिए लगातार लम्बा अभ्यास करने की आवश्यकता होती है। सद्गुरु बाबा आनन्दमूर्ति का कहना है कि ताण्डव नर्तक का शरीर यदि कुछ सेकेंड के लिए भी हवा में रहता है तब भी उससे बहुत लाभ मिलता है। इसका अर्थ यह है कि जब अच्छा ताण्डव किया जाता है तब शरीर बार बार हवा में उछाला जाता है और शरीर जितने अधिक समय तक हवा में रहता है उतना ही अधिक लाभ शरीर, मस्तिष्क और सूक्ष्म तन्तुओं को मिलता है। इसी प्रकार कौशिकी में भी शरीर को दाॅंयें और बाॅंये 45 डिग्री पर मोड़ा जाता है तभी अधिकतम लाभ मिलता है। ये दोनांे नृत्य और नियमित साधना से जीवन का लक्ष्य पाने में सफलता मिलती है अतः इस कार्य को युवा अवस्था से ही प्रारंभ कर देना चाहिए बुढ़ापे के लिए नहीं छोड़ देना चाहिए क्योंकि उम्र के अधिक हो जाने से शरीर के अवयव कठोर होते जाते हैं जिससे उस अवस्था में ताण्डव और कौशिकी करना संभव नहीं हो पाता ।


मस्तिष्क पुराना हो जाता है - अंतर्ज्ञान कालातीत होता है
 बुढ़ापे की प्रक्रिया न केवल हाथों  और पैरों को प्रभावित करती है, बल्कि मस्तिष्क सहित पूरे शरीर को भी जो  हमारा  मानसिक केंद्र है । यही कारण है कि 50 या 60 साल की आयु पार करने के बाद, आम लोगों की बुद्धि कमजोर पड़ती है। उनकी तंत्रिका कोशिकायें अधिक से अधिक  कमजोर हो जाती हैं। लोग अपनी स्मृति और मनोवैज्ञानिक संकाय धीरे धीरे  एक दिन खो देते हैं और एक दिन  उनके दिमाग भी काम करना बंद कर देते हैं।  यह कई गैर साधक के साथ होता है जब वे बहुत बूढ़े हो जाते हैं। हालांकि, भक्तों के मामले में, यह नहीं है। बाबा कहते हैं,  "आपको केवल बुद्धि पर ही निर्भर नहीं होना चाहिए क्योंकि बुद्धि में इतनी  दृढ़ता नहीं होती है। अगर आपके पास भक्ति है, तो अंतर्ज्ञान विकसित होगा और इसके साथ, आप समाज को बेहतर और बेहतर सेवा करने में सक्षम होंगे। "
इसलिए मानसिक क्षेत्र में, भक्त अंतर्ज्ञान पर अधिक निर्भर करते हैं - और यह कभी भी क्षय नहीं होता। क्योंकि अंतर्ज्ञान ब्रह्मांडीय विचार है और जब मन को सुदृढ़ किया जाता है , उस सूक्ष्म दृष्टिकोण की ओर निर्देशित किया जाता  है, तो वह  "पुराना हो रहा है" इसका प्रश्न ही नहीं उठता मन अपना विस्तार करना  जारी रखता है जिससे वह  अधिक तेज और अधिक एकाग्र  हो जाता है परन्तु जो लोग केवल बुद्धि पर निर्भर होते हैं वे बहुत कष्ट पाते हैं।  क्योंकि बुढ़ापे की शुरुआत से ही  उनका  मानसिक संकाय अधिक से अधिक कमजोर  होता  जायेगा, जब तक कि आखिरकार उनकी बुद्धि पूरी तरह से नष्ट होने  की संभावना हो जाय जबकि जो लोग अपने दिल में भक्ति कर रहे हैं वे आसानी से परमपुरुष  द्वारा अंतर्ज्ञान पाने का  आशीर्वाद प्राप्त कर लेते  हैं।
अगर किसी ने अपनी युवा अवस्था  से ही उचित साधना की है  और मन को आध्यात्मिक  अभ्यास  में प्रशिक्षण दिया  है तो उसकी  प्राकृतिक प्रवृत्ति परमार्थ  की ओर बढ़ने की हो जाती है।  इस प्रकार  साधना करते हुए  उसे अंतिम सांस तक कोई समस्या आने का कोई प्रश्न नहीं उठता उनका मन  आसानी से ब्रह्मांडीय लय और  ताल में बह जाएगा और साधना क्रिया स्वाभाविक  सरल होगी इसके विपरीत यदि कोई कहे कि साधना करना तो बुढ़ापे का कार्य है तो उसे बहुत कठिनाई होगी।


258 बड़ों के मूल्य


बड़ों के मूल्य

यह एक तथ्य है कि हर दिन हम  बड़े होते  जाते हैं - हमारे भौतिक शरीर की  उम्र, शिकन,  भूरे बाल आदि बड़े होने की सूचना देते  हैं। यह एक सामान्य घटना है। फिर भी कोई भी "बूढ़ा हो जाना पसंद नहीं करता।" साथ ही योग में  विभिन्न पद्धतियां हैं जो इस उम्र बढ़ने की प्रक्रिया से जूझकर  शरीर को युवा और जीवंत रखने के लिए प्रयुक्त हो सकती हैं।  इसके अलावा , अधिक उम्र अर्थात बुजुर्ग होना एक सम्मानित विशेषता है। और एक अन्य बिंदु यह है कि हमारा  अंतर्ज्ञान संकाय कालातीत रहता है  - पूरी तरह से काल अर्थात टाइम  से अप्रभावित।

भौतिकवाद और उम्र बढ़ना

विभिन्न देशों में बुजुर्ग या वरिष्ठ नागरिकों के प्रति विभिन्न दृष्टिकोण हैं। लेकिन दुनिया भर में आम भावना यह है कि कोई भी "पुराने" के रूप में वर्णित होना पसंद नहीं करता है। यही कारण है कि यदि कोई , किसी व्यक्ति को "बूढ़ा" कहता है, तो वह व्यक्ति नाखुश हो सकता है या अंदरूनी परेशानी  महसूस कर सकता है। यही कारण है कि यदि कोई बड़े व्यक्ति के प्रति सम्मान करना चाहता है, तो एक बहुत ही विनम्र और सम्मानजनक तरीके से "वरिष्ठ  नागरिक"  इस तरह के शब्द का उपयोग करना होगा। यह , सामान्य समाज के सदस्यों के साथ काम करते समय  विशेष रूप से आवश्यक होता है
उन जगहों पर जहां भौतिकवाद अधिक हावी है, बूढा होना  बहुत तनाव और निराशा लाता है क्योंकि ऐसी जगहों में अक्सर, परिवार अपने वृद्ध सदस्यों को साथ में रखना पसंद नहीं करता है।  नतीजतन, उन बुजुर्ग व्यक्तियों के  जीवन का  अवमूल्यन हो जाता है। इसलिए, बुजुर्गों को "पुराना" कहा जाना पसंद नहीं है क्योंकि  यह पुराना , बेकार समझा जाता  है। भौतिकवादी समाज में उन आम लोगों की यह दुखद और दोषपूर्ण मानसिकता है
इसके अलावा, भौतिकवादी देशों में जहां "सेक्स " प्रभावशाली होता है, बुढ़ापा  यौन अपील की हानि का प्रतीक है, जिससे उस का अस्तित्व  लगभग बेमानी हो जाता है। भौतिकवादी समुदायों में महिलायें  इस रोग से पीड़ित हैं। इसके  सीधे विपरीत, हमारी  आध्यात्मिक जीवन शैली में, परिदृश्य पूरी तरह से अलग है। "एजिंग" सम्मान और गरिमा का प्रतीक माना जाता  है . भारत के प्राचीन इतिहास को देखते हुए, हम पाते हैं कि "वरिष्ठ नागरिकों" का बहुत सम्मान था - युवाओं की तुलना में कहीं ज्यादा। यह परंपरा एक तांत्रिक परंपरा है और विभिन्न महासम्भूतियों ने  भी इसी गुण का सम्मान किया है । यही कारण है कि हमारे विभिन्न समारोहों और कार्यक्रमों में चर्याचर्य  में उल्लिखित निर्देशों के अनुसार ,  वरिष्ठ व्यक्तियों को अधिक से अधिक सम्मान दिया जाता है ।