Monday, 30 September 2019

268 मानव जीवन का प्रधान पथ ‘‘ईश्वर’’

मानव जीवन का प्रधान पथ ‘‘ईश्वर’’
विश्व के सभी दर्शनों, सभी सिद्धान्तों और व्यावहारिक पद्धतियों में ‘‘ईश्वर’’ का पथ ही मान्यता प्राप्त है। इस पर चलने के लिए मनुष्य की चार प्रकार की आन्तरिक इच्छाएं धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष होती हैं। इसलिए आध्यात्मिक चाहत, मानव मन की मौलिक उत्चेतना है।
मानव का मन, उत्चेतना(urge) उत्वृत्ति(passion) वृत्ति(propensity) और भावप्रवणता(sentiment) इन चार प्रकार के तथ्यों/भावनाओं से मार्गदर्शित होता है। मानलो किसी व्यक्ति ने अपने मित्र से कहा कि वह कलकत्ता जाना चाहता है और उसका मित्र उसे अनेक आपत्तियाॅं बता कर रोकता है फिर भी वह उसकी बात न मानकर कलकत्ता चला जाता है तो इसे उस व्यक्ति की उत्चेतना(urge) कहते हैं। अब, यदि वह व्यक्ति अपने मित्र के रोके जाने पर उसे धमकी देता है तो इसे उसकी उत्वृत्ति(passion) कहेंगे। यदि वह व्यक्ति अपने मित्र से कलकत्ता उसके साथ चलने के लिए आग्रह करता है और कहता है कि वहाॅं जाकर ही उसकी अनेक आशाओं और इच्छाओं की पूर्ति सम्भव है तो यह उसकी वृत्ति(propensity)  कहलाएगी; परन्तु यदि मित्र उस व्यक्ति को समझाता है कि उस महानगर में बड़ी मंहगाई है, रहने के लिए स्थान मिलना कठिन है, आर्द्रता रहने से तुम्हारा स्वास्थ्य खराब हो सकता है आदि आदि तर्क सुनने के बाद भी वह कलकत्ता चला जाता है तो यह कहलाएगी उस व्यक्ति की भावप्रवणता(sentiment)।
मानव समाज के विभिन्न समूहों का अपना अपना मनोविज्ञान होता है परन्तु किसी प्रकार के सामाजिक आर्थिक सिद्धान्त को मानव मनोविज्ञान के मूल तत्वों के विरुद्ध नहीं होना चाहिए। अभी तक विश्व में जितने भी सामाजिक आर्थिक सिद्धान्त प्रचलित हैं वे मानव मनोविज्ञान के इन मौलिक तत्वों को ध्यान में रखकर नहीं बनाए गए हैं अतः वे असफल हो रहे हैं और समाज कष्ट भोग रहा है।

Sunday, 22 September 2019

267 पराभक्ति

 पराभक्ति
सभी लोग अपनी अपनी मान्यताओं के अनुसार जिसमें आस्था रखते है उसके प्रति पूज्य भाव उत्पन्न कर लेते हैं । इसी आधार पर वे अनेक अपेक्षाएं भी पाल लेते हैं और चाहते हैं कि उनके द्वारा की जा रही पूजा से उन्हें  वाॅंछित फल मिल जाएगा। अर्थात् यदि वाॅंछित फल के पाने की संभावना न हो तब वे पूजा करना नहीं चाहेंगे। कुछ लोग इसी आशा में अनेक प्रकार के देवी देवताओं को पूजते देखे जा सकते हैं। पूजा करने के समय उनके निवेदन लगभग इस प्रकार के होते हैं।  
‘‘हे प्रभु! मुझे अपार दौलत और सुखोपभोग की वस्तुऐं प्राप्त हो जाएं, 
मैं उच्च पद को प्राप्त कर लॅूं, 
मैं परीक्षा में पास हो जाऊं, 
मेरी अच्छी नौकरी लग जाए, 
मेरा स्वास्थ्य ठीक हो जाए, 
मैं कोर्टकेस जीत जाऊं, 
मेरी बेटी की शादी अच्छे घर में हो जाए, 
मेरे सभी शत्रुओं का अन्त हो जाए.... आदि ।’’ 
इस प्रकार की अनेक इच्छाओं की पूर्ति वे अपने चंदन, फूल, माला, नारियल, अगरबत्ती और मिष्ठान्न आदि की भेंट के बदले में कराना चाहते हैं। अब यदि उनकी मान्यताओं के अनुसार देवता या भगवान उनकी प्रत्येक इच्छा की पूर्ति करने बैठ जाएं तो क्या होगा?
भगवान इस प्रकार की याचना की पूर्ति कर भी सकते हैं और नहीं भी, परन्तु मेरे विचार से अधिकतर मामलों में वे उदासीन ही रहते हैं। सोचने की बात है कि उन्होंने आपको शरीर, मन, बुद्धि, विवेक सब कुछ देकर उनका अधिकतम उपयोग करने के लिए धरती पर भेजा है; पराक्रम कर अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करते हुए अपने लक्ष्य को पाने के लिए। यदि लक्ष्य भूलकर हम अन्य किसी की याचना करते हैं तब उसका पूरा हो पाने की संभावना न्यून ही हो जाती है।
ईश्वर ने यह सृष्टिचक्र बहुत ही व्यवस्थित बनाया है जिसमें अधिकांशतः प्रकृति अपने गुण और स्वभाव से लगातार रूपान्तरण करते हुए इसे पूरा करती है। वनस्पति और मनुष्येतर प्राणी पूर्णतः प्रकृति पर आश्रित होकर आगे बढ़ते हैं जबकि मनुष्य अपने विवेक का उपयोग कर प्रकृति की सहायता ले, उस पर नियंत्रण पाकर अपने लक्ष्य को पा सकता है। पर प्रश्न यह है कि मनुष्य अपनी अग्रगति के लिए ईश्वर से कुछ मांगे या नहीं? इसका उत्तर है भौतिक जगत की किसी भी वस्तु को तो नहीं ही मांगना चाहिए। हाॅ, उनसे केवल ‘‘पराभक्ति’’ ही मांगना चाहिए जिसमें स्वयं को उनके प्रेम में आत्मसमर्पित किया जाता है। आत्मसमर्पित किए हुए भक्त के समक्ष, उसके भगवान सदा ही उपलब्ध रहते हैं और जिसके साथ भगवान स्वयं हों उसे अन्य किसी की आवश्यकता ही कैसे हो सकती है। हम सबका लक्ष्य ईशोपलब्धि करने का ही होना चाहिए।  

Friday, 13 September 2019

266 मदन मर्दन

(हिन्दी दिवस पर)
मित्रो! इस घटना के सत्य होने का दावा मैं नहीं करता परन्तु इसे मेरे नानाजी ने मुझे पचास वर्ष पहले (जब मैं विश्वविद्यालय की प्रारंभिक कक्षाओं का छात्र था)  इस प्रकार सुनाई थी कि उसके सत्य होने में मुझे कोई शंका नहीं हुई। इसके साथ जुड़े अन्य उपाख्यानों और उनकी शब्दावली को मैं ने संपादित कर बुंदेली की एक अलंकारिक रचना से जोड़ दिया है जिसके रचियता का नाम ज्ञात नहीं है; इसे कक्षा नौ में पढ़ते समय मेरे हिंदी विषय के शिक्षक ने सवैया छंद की मात्राओं की गणना करने का अभ्यास करने के लिए दी थी। कहानी के साथ इसका रसास्वादन कीजिए और अपना मत व्यक्त कीजिए।
मदन मर्दन
एक संस्कार सम्पन्न सेठ की अचानक मृत्यु हो जाने पर ब्यापार का पूरा काम उसके इकलौते लड़के के ऊपर आ गया।  वह भी अपने पिता के अनुसार बनाई गई ब्यवस्था का पालन करते हुए सफलता पाने लगा। उसकी योग्यता के कारण एक अत्यन्त सम्पन्न घराने की सुन्दर कन्या से उसका विवाह हो गया। एक बार लड़के को ब्यापार के सिलसिले में 10-15 दिन के लिए दूरस्थ शहर जाना पड़ा। दोनों यौवनावस्था के उस दौर में थे कि एक दूसरे से एक दिन भी दूर नहीं रह सकते थे फिर इतने दिन की दूरी तो साक्षात् मौत ही थी। लड़के की पत्नी बोली ‘‘आप इतने दिन के लिये हमसे दूर जा रहे हो, मैं अकेली कैसे रह पाऊंगी?’’ वह बोला ‘‘घर में सबकुछ है, नौकर चाकर हैं, कोई कठिनाई नहीं आयेगी, काम पूरा होते ही आ जाऊँगा।’’ उसकी पत्नी  कामुक प्रकृति की थी और उस पर नई नई शादी, फिर इतना लम्बा बिछोह कैसे सहेगी, उसकी यही समस्या थी। 
वह बोली, ‘‘ जिस आवश्यकता की पूर्ति केवल आप ही कर सकते हों वह इन नौकरों और सब साधनों से क्या सम्भव हो सकेगी? यदि किसी दिन कामुकता ने प्राणघातक हमला कर दिया तो मैं क्या करूंगी?’’ लड़का बोला ‘‘चिन्ता की बात नहीं, उस दिन तुम छत पर जाकर सूर्योदय से पहले दक्षिण दिशा में देखना जो व्यक्ति सबसे पहले उस इमली के पेड़ के पास दिखे उसे बुलाकर अपनी इच्छा की पूर्ति कर लेना, यह मेरी सहमति है।’’ यह कहकर वह  यात्रा पर चला गया। इधर तीन चार दिन ही मुश्किल से बीते होंगे कि उसकी पत्नी  कामाग्नि से पीड़ित हुई। बार बार सबसे ऊपर की छत पर जाती, नीचे आती और सोचती, 
‘‘ परसों कहि कन्त विदेश गए, अजहॅूं न भई परसों नरसों,
इत निष्ठुर यौवन बैरि परो, उत मेघ कहें बरसों बरसों’’
हौं बारहिं बार अटारि चढ़ों, और ठाड़ि रहों तरसों तरसों,
जिय होत उड़ाय के जाय मिलों, पै उड़ो नहिं जात बिना परसों।’’
बहुत प्रयत्न करने पर भी जब रहा न गया तो अगले दिन उसने सूर्योदय से पहले ही छत पर पहुँचकर दक्षिण दिशा  में दृष्टि दौड़ाई; उसे एक आदमी केबल अन्तः वस्त्र पहिने, हाथ में  एक मिट्टी का करवा (लोटा) लिए जाता दिखाई दिया। उसने फौरन नौकर को उस ओर दौड़ाया और कहा ‘‘ उन सज्जन को आदरपूर्वक, यहाँ आने के लिये मेरा निवेदन पहुँचा दो।’’  नौकर उस आदमी के पास पहुँचा और सेठ जी की बहु  का सन्देश  पहुँचाया, वह भी तत्काल साथ आ गये। बहु  ने उन्हें नमस्कार करते हुए ऊपर चलने के लिये सीढ़ियों की ओर इशारा किया। वह बिना झिझक ऊपर चढ़ने लगे, चार पाँच सीढ़ियाँ चढ़ ही पाये थे कि उनके हाथ का करवा (मिट्टी का लोटा) जमीन  पर गिर कर चूर चूर हो गया। 
वे तत्काल मुड़े और वापस लौटने लगे, बहु  बोली, ‘‘महोदय! क्या हुआ, वह तो मिट्टी का था इसलिए टूट गया; मैं आपको सोने, चाँदी, जैसा कहें बढ़िया लोटा दे दूँगी पर बापस न लौटिए, मेरे साथ चलिये।’’ सज्जन बोले, ‘‘उस मिट्टी के करवे ने ही मुझे साँगोपाँग देखा था, अब दूसरा कोई देखे इससे पहले मैं अपना अस्तित्व करवे की भाँति छिन्न भिन्न कर देने में ही भलाई समझता हूँ।’’ 
इतना कहकर वह चले गए पर सेठ की बहु का मस्तिष्क सक्रिय कर गये। वह सोचने लगी कि ‘‘जब यह आदमी एक निर्जीव वस्तु के साथ अपनी एकनिष्ठता नहीं तोड़ सकता तो मैं अपने प्राणप्रिय के साथ यह क्या करने जा रही थी?’’
उसने अपने को धिक्कारा और ईश्वर को धन्यवाद दिया कि उसने इस आदमी के माध्यम से सद्ज्ञान देकर पतन होने से बचा लिया।   

Sunday, 8 September 2019

265 चिकित्सा पद्धतियाॅं

चिकित्सा पद्धतियाॅं

चिकित्सा के क्षेत्र में आजकल एलोपैथी, आयुर्वेद, नेचुरोपैथी और होमियोपैथी में इलाज करने की पद्धतियाॅं/विधियाॅं प्रयुक्त की जाती हैं। समस्या यह है, कि हमें किस पद्धति को विश्वास पूर्वक अपनाना चाहिए ? एलोपैथी में व्यापक नैदानिक परीक्षण से शल्यक्रिया करने या उपचार की व्यवस्था है परन्तु देखा गया है कि इन दवाओं के साइड इफेक्ट होते हैं और क्रोनिक बीमारियों में तो आजीवन दवा लेना पड़ती है। आयुर्वैदिक दवाएं सचमुच गंभीर बीमारियों को ठीक करते देखी जाती हैं। नेचुरोपैथी में प्राकृतिक रूप से वायु , जल, प्रकाश और भूमि का प्रयोग किया जाता है पर वे कोई दवा का प्रयोग नहीं करते इसलिए यह सीमित हो जाता है क्योंकि मरीजों को इससे अपेक्षित चिकित्सा और सेवा हमेशा प्राप्त नहीं होती। होमियोपैथिक दवाओं की विशेषता यह है कि वे बहुत सूक्ष्म होती हैं और गहराई से कार्यशील होती हैं क्योंकि वे रोगी के लक्षणों के आधार पर निर्धारित की जाती हैं। इसकेे विपरीत एलोपैथिक और आयुर्वेदिक दवाएं रोगी के लक्षणों पर आधारित न होकर बीमारी पर आधारित होती हैं। होमियोपैथिक दवा सूक्ष्म होने के कारण यदि गलत भी दे दी जाए तब भी वह भले लाभ न पहॅुंचाए पर हानि नहीं पहुॅंचाती जबकि एलोपैथी और आयुर्वेदिक दवा गलत दे दी जाय तो घातक ही होती है। होमियोपैथिक दवाओं की एक विशेषता यह भी है कि ये अपेक्षतया सस्ती होती हैं और आधुनिक कम्प्यूटर प्रोग्रामिंग हो जाने के कारण कोई भी व्यक्ति अपने रोग के लक्षणों आधार पर बिना डाक्टर के पास जाए स्वयं ही इन्हें ले सकता है, परन्तु गंभीर मामलों में डाक्टर से ही परामर्श लेना चाहिए।  होमियोपैथी का सिद्धान्त है ‘‘समः समम शाम्यति’’। इसलिए जितनी क्रूड बीमारी होती है उतनी ही सूक्ष्म दवा चयनित की जाती है और वह तेजी से रोग पर प्रभावी होती है। महाभारत काल में भीम को दुर्योधन के द्वारा दिए गये विष की चिकित्सा कृष्ण के सुझाव पर  विष के द्वारा किए जाने के प्रमाण पाए जाते हैं जो ‘‘समः समम शाम्यति’’ के सद्धान्त के अनुसार ही है। उस समय आयुर्वेद में विष चिकित्सा पर शोध के अलावा ‘‘सूचिकाभरण’’ (जिसे आजकल इंजेक्शन कहा जाता है) पर भी प्रचुर जानकारी उपलब्ध थी परन्तु उस समय लोगों में यह अंधविश्वास फैला था कि शरीर में बाहरी द्रव्य सीधे ही नहीं भेजा जाना चाहिए, अतः इस कार्य के विकास में अवरोध आ गया । आधुनिक चिकित्सा विज्ञान में इंजेक्शन से दवा देना सहज माना जाता है। चाहते हुए या न चाहकर भी होमियोपैथी और आयुर्वेद दोनों ही पद्धतियों में विशेषज्ञों द्वारा इंजेक्शन लगाना स्वीकार किया जा चुका है। 
वास्तव में भारत का वैद्यक शास्त्र और आर्यों का आयुर्वेद कृष्ण के काल तक परस्पर मिल कर एक हो गए थे परन्तु आर्यों द्वारा भारत के मूल निवासियों अर्थात् अनार्यों को हेय  दृष्टि  से देखा जाना जारी  था और उन्हें प्रायः राक्षस या म्लेच्छ कहा जाता था। महाभारत काल में कृष्ण के फुफेरे बड़े भाई जरासंध का जन्म सिजेरियन अर्थात शल्यक्रिया के उपरांत ही हुआ था जिसे ‘जरा‘ नाम की महिला डाक्टर ने की थी। इसीलिए वह जरासंध ( अर्थात जिसे  ‘जरा‘ राक्षसी के द्वारा शल्य क्रिया से सिल कर जन्म दिया गया) कहलाये।  ‘जरा’ को राक्षस  कुल की होने के कारण जरा राक्षसी कहा गया है परन्तु जरासंध इस कुल को आदर देते थे और राक्षसी विद्या में पारंगत  हुए। राक्षसी विद्या का अर्थ है सम्मोहन या  हिप्नोटिज्म, इस विद्या में पारंगत  अन्य महिला थीं हिडिम्बा (भीम की पत्नी)। इस विद्या का जानकार  उन्नत मन, अनुन्नत मन पर अपना प्रभाव डालकर अपने आधीन कर सकता है।  विशूचिका (हैजा) रोग के उपचार के लिए सुई लगाने की विधि ‘सूचिकाभरण’ का ज्ञान इसी कुल की अन्य महिला चिकित्सक ‘कर्करि‘ को था। आर्य इन लोगों को हेय मानकर तिरस्कार करते थे। इस प्रकार की अनेक विद्याएँ भारत में बहुत पहले विकसित हो चुकीं थीं परन्तु प्रोत्साहन के आभाव में वे जानकार के साथ ही विलुप्त होती गईं। बौद्धकाल में तो शवच्छेद ( डिसेक्शन) को बहुत ही हीन कार्य और अस्पृश्य माना जाने लगा था अतः उन्नत शल्य चिकित्सा विलुप्त हो गई। आज हम पाश्चात्य देशों से उन्हें जान पाते हैं और उन्हें ही इनकी खोज का श्रेय देते हैं। 
आजकल कोई भी डाक्टर केवल अनुमान ही लगा सकते हैं कि कौनसी दवा बिलकुल उपयुक्त है या कौनसी गलत। इसलिए कोई भी यह दावा नहीं कर सकता कि उसे दी गई दवा सबसे उचित है क्योंकि वह डाक्टर के सर्वश्रेष्ठ अनुमान पर ही आधारित होती है। साथ ही यह भी कि यदि दवा अपरिष्कृत है तो वह हानिकारक हो सकती है इतना तक कि उससे मृत्यु भी हो सकती है। इस दृष्टिकोण से होमियोपैथिक दवाएं अन्य पैथी की दवाओं की तुलना में अधिक सुरक्षित मानी जा सकती हैं। होमियोपैथी में यदि शल्यक्रिया को जोड़ा जा सके तो यह पैथी अधिक सफल और प्रभावी हो सकेगी और सभी प्रकार से मानवों का भला होगा। सभी प्रकार की चिकित्सा पद्धतियों में कोई न कोई विशेषता पाई जाती है अतः सभी को एक ही छत के नीचे लाकर रोग और रोगी के अनुसार परीक्षण कर चिकित्सा की जाना चाहिए जिसमें सभी का लक्ष्य रोगी को स्वस्थ करना ही होना चाहिए।

Sunday, 1 September 2019

264 डाॅ अंबेडकर ने अन्तिम समय में बौद्ध धर्म अपनाकर क्यों बनाया अपना ‘‘नवयान’’

डाॅ अंबेडकर ने अन्तिम समय में बौद्ध धर्म अपनाकर क्यों बनाया अपना ‘‘नवयान’’
1891 में दलित महार जाति में जन्में भीमराव अंबेडकर के पूर्वज ईस्ट इंडिया कंपनी में सम्मानित पद पर कार्यरत रहे थे अतः अपनी जाति के अन्य परिवारों की तुलना में भीमराव का परिवार समाज में उच्च स्तर पर था। वह पढ़ाई में अपने अन्य भाई बहिनों की तुलना में तेज होने के कारण राज्याश्रय पाकर विदेशों में उच्च अध्ययन कर कानून, अर्थशास्त्र और राजनीति विज्ञान की दक्षता प्राप्त कर सके। बाल्यकाल से ही वे अपनी जाति के लोगों के साथ अन्य उच्च जाति के लोगों का व्यवहार देख जातिवाद के प्रति घृणा करने लगे थे। जाति प्रथा और ऊंच नीच की अवधारणा के पीछे धार्मिक आधार जानने के लिए उन्होंने 25 वर्ष तक सभी धर्मों का अध्ययन किया। आगे जब इस संबंध में उन्होंने खोज की तब अपने तथाकथित हिन्दु धर्म में अनेक अतार्किक, अवैज्ञानिक और अविवेकपूर्ण तथ्यों के आधार पर सत्य को, कर्मकाण्डीय आडम्बर, रूढ़िवाद और डोगमा में छिपाया गया पाया। इतना ही नहीं जातिवाद के माध्यम से उच्च जातियों द्वारा शूद्रों /दलितों को सदा के लिए हीनभावना का शिकार बनाकर गुलामी में जकड़ा गया पाया। उनके इस निष्कर्ष के लिए उपनिषदों के ये दो बिन्दु आधारभूत मार्गदर्शक बने जिन पर हिन्दु धर्म में सार्वजनिक रूप से कभी कोई चर्चा नहीं करता-
(1) ‘‘जन्मना जायते शूद्रः संस्कारात् द्विज उच्चयते।’’ अर्थात् जन्म से तो सभी शूद्र होते हैं संस्कार मिलने पर ही द्विज अर्थात् ब्राह्मण कहलाते हैं। अंबेडकर का तर्क था कि जब संस्कार हीन ब्राह्मण भी शूद्र के समान ही है तो हम तथाकथित शूद्रगण संस्कार पाकर ब्राह्मण क्यों नहीं बन सकते।
(2) ‘‘चातुर्वर्णं मया सृष्टा गुणकर्म विभागशः।’’ अर्थात् मनुष्य समाज में चार वर्णों का विभाजन उनके गुण और कर्मों के अनुसार किया गया है। अंबेडकर का तर्क था कि जब गुणों और कर्मों के अनुसार समाज के चार भाग किए गए हैं तो उनमें अनगिनत जातियों का निर्माण करना स्वार्थ सिद्धि के लिए ही हो सकता है क्यों कि इस सूत्र के अनुसार अपने कर्मों को उन्नत बनाकर एक वर्ण, दूसरे वर्ण का स्थान/स्तर पा सकता है। प्राचीन साहित्य में इस परिवर्तन के अनेक उदाहरण मिलते हैं।
( यहाॅं आपको बताना चाहता हॅूं कि अंबेडकर के ये तर्क गलत नहीं थे, प्रत्येक व्यक्ति के साथ इन चारों वर्णों के कार्य जुड़े रहते हैं, जैसे शरीर की सफाई करते समय शूद्र, आजीविका के साधन हेतु आर्थिक आदान प्रदान वैश्य, अपनी और परिवार की विपत्तियों से रक्षा करते समय क्षत्रिय और दूसरों को सद्मार्ग का प्रेरण करते समय विप्र। कृष्ण के समय तक समाज में कोई जातिप्रथा नहीं थी वरन् व्यक्ति को उसके गुणों और कर्मों के अनुसार ही मान्यता दी जाती थी परन्तु वे घृणास्पद कभी नहीं रहे। एक ही परिवार में चार भाई अलग अलग वर्ण के हो सकते थे। जैसे कृष्ण के पिता वसुदेव, ताउ गर्ग और चाचा नन्द परस्पर चचेरे भाई थे परन्तु विप्रोचित कर्म की प्रधानता होने से गर्ग विप्र, क्षत्रियोचित कर्म से जुड़े होने से वसुदेव क्षत्रिय और पशुपालन और कृषि कार्य से जुड़े होने के कारण नन्द वैश्य के स्तर पर सामाजिक मान्यता प्राप्त थे।)
हिन्दु धर्म से इसी कारण उन्हें वितृष्णा हुई और वे खोजने लगे धर्म की वह व्यवस्था जिसमें जाति और ऊंच नीच की भावना न हो और उनके दलित समाज को भी अन्य वर्गो की तरह समाज में सम्मान प्राप्त हो। इस प्रयास में उन्होंने, इस्लाम और ईसाई धर्म में वर्णित ‘क़यामत’ और ‘रेप्चर’ तथा स्वर्ग नर्क की अवधारणा पाई जिससे वे सहमत नहीं थे तथा उनमें परस्पर सामाजिक  भेद और असमानता के गंभीर लक्षण भी पाए। अतः इन धर्मो की ओर से भी मन हट गया। सिख धर्म में यद्यपि जातिभेद नहीं है परन्तु उनके आर्थिक स्तर पर पहुॅंच पाने के लिए दलित समाज के सभी लोगों के पास न तो व्यवसाय के लिए पूंजी थी और न ही कृषि के लिए जमीन इसलिए वे उससे दूर ही रहे। जैन धर्म का निर्ग्रन्थवाद  उन्हें नहीं भाया, अतः एकमात्र बचे बौद्ध धर्म पर उनकी दृष्टि टिक गई। उसकी सरलता और भेदभाव रहित जातिहीन व्यवस्था उन्हें पसन्द आई पर संशोधन के साथ। बुद्ध की मूल शिक्षाओं को उन्होंने माना परन्तु पश्चात्वर्ती विभाजनों में प्रवर्तकों के स्वार्थ और अपने अपने को श्रेष्ठ सिद्ध करने की होड़ में जुटे महायान, हीनयान, तंत्रयान या मंत्रयान से दूर रहकर उन्होंने अपना अलग ‘नवयान’ बनाया । वे ‘‘बुद्धं शरणं गच्छामी’’ तो कहते थे पर कभी भी ‘‘संघं शरणं गच्छामी’’ नहीं कहा। 13 अक्तूबर 1956 को आम्बेडकर ने एक पत्रकार वार्ता में कहा था, मैं भगवान बुद्ध और उनके मूल धर्म की शरण में जा रहा हूँ। मैं प्रचलित बौद्ध पन्थों से तटस्थ हूँ। मैं जिस बौद्ध धर्म को स्वीकार कर रहा हूँ, वह ‘‘नव बौद्ध धर्म या नवयान ’’ है।,
दलित समाज के स्तर को ऊंचा उठाने के लिए वे आजीवन प्रयास करते रहे इसलिए स्वतंत्रता प्राप्ति के पहले से ही उनका अखिल भारतीय दलित संगठन बन चुका था। जहाॅं कहीं भी अवसर मिलता वे अपने इस उद्देश्य को पाने का प्रयास करना कभी नहीं भूलते थे। जैसे, देश को स्वतंत्रता पाने के बाद प्रथम चुनाव के लिए दलितों में से ही दलितों के द्वारा वोट देने का अधिकार देने वाला बिल लाना। परंतु जब यह बिल संसद में पास न करा सके  तो अंग्रजों द्वारा बनाया गया ‘‘मिन्टो मारले सुधार कानून 1919‘‘ जिसमें हिन्दु और मुसलमानों को पृथक पृथक मतदाताओं की तरह व्यवस्था बनाई गई थी उसी में इसी वर्ष लाये गये ‘‘मान्टेज. केमस्फोर्ड‘‘ सुधार कानून को संशोधत कर इसमें अन्य अल्पसंख्यकों जैसे क्रिश्चियन, सिख और एंग्लो इंडियन्स के लिये भी जोड़ दिया गया था; उसी में दलितों के लिए आरक्षण की व्यवस्था कर अंबडकर ने अपने समाज के उत्थान के लिए पहला बड़ा लक्ष्य पा लिया।
अपनी मृत्यु से लगभग दो माह पहले, 6 अक्टूबर 1956 को, नागपुर के एक होटल में डॉ. भीमराव आंबेडकर की यह घोषणा, कि “मैं बौद्ध के सिद्धांतों को मानता हूॅं और उसका पालन करूंगा। पर मैं अपने लोगों (महार) को दोनों उसके धार्मिक पंथों जैसे  हीनयान और महायान आदि के विचारों से दूर रखूँगा। हमारा बौद्धधर्म एक नया बौद्ध धम्म है- नवयान,’’ यह  प्रकट करता है कि ‘नवयान’ या ‘नया तरीका’  भारतीय बौद्ध धर्म का एक आधुनिक संप्रदाय है जिसने भारत में मृतप्राय बौद्ध धर्म को नया जन्म दिया। नवयान में जातिप्रथा, वर्णभेद, लिंगभेद, अंधविश्वास तथा कुरितीयों को कोई स्थान नहीं हैं। बौद्ध धर्म में दीक्षा का कोई प्रावधान नहीं है परन्तु अंबेडकर जानते थे कि अनेक जन्मों के हिन्दुवादी लौकिक देवी देवताओं की मान्यताएं और संस्कार उन्हें तब तक संतोष नहीं देंगे जब तक उनकी मान्यताओं के अनुसार व्यवस्था न बनाई जाय। अतः उन्होंने दलित समाज के लाखों लोगों को बाइस प्रतिज्ञाओं के बंधन में बाॅंधते हुए दीक्षा दिलाई। यह प्रतिज्ञाएं हिंदू धर्म की त्रिमूर्ति में अविश्वास, अवतारवाद के खंडन, श्राद्ध-तर्पण, पिंडदान के परित्याग, बुद्ध के सिद्धांतों और उपदेशों में विश्वास, ब्राह्मणों द्वारा निष्पादित होने वाले किसी भी समारोह न भाग लेने, मनुष्य की समानता में विश्वास, बुद्ध के आष्टांगिक मार्ग के अनुसरण, प्राणियों के प्रति दयालुता, चोरी न करने, झूठ न बोलने, शराब के सेवन न करने, असमानता पर आधारित हिंदू धर्म का त्याग करने और बौद्ध धर्म को अपनाने से संबंधित थीं।
महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि उन्होंने जब विश्व के सभी धर्मों का अध्ययन कर बहुत पहले यह भली भाॅंति समझ लिया था कि उन्हें बौद्ध धर्म ही श्रेष्ठ लगता है तब अपने जीवन के अन्तिम समय में ही क्यों उसे अपनाया और सार्वजनिक घोषणा की?
जैसा पहले ही कहा जा चुका है कि वे दलित समाज को उन्नत करने के लिए बाल्यकाल से ही प्रयत्नशील थे अतः उन्होंने सरकारी नौकरियों में आरक्षण तथा अन्य सुविधाएं दिलाने के लिए अपने राजनैतिक प्रभाव और अधिकारों का सफल प्रयास किया। अपने जीवन के अन्तिम आठ वर्षों में उन्हें ‘डायबिटीज’ ने प्रताड़ित करना प्रारंभ कर दिया अतः वे दलितों के हित में अन्य जो कुछ करना चाहते थे स्वास्थ्य कारणों से उनमें बाधाएं अनुभव करने लगे। भारतीय दर्शन का एक सिद्धान्त है कि जो व्यक्ति सदा से जैसा सोचता रहता है अन्त समय में भी वैसे ही विचार मन में आते हैं। अतः बार बार मन में यह विचार आने से कि वे अपने समाज को सामाजिक स्तर पर अन्यों के समकक्ष लाने के लिए कुछ नहीं कर पाए; अतः उन्होंने  बुद्ध धर्म के मूल सिद्धान्तों को आधार बनाकर ‘नवयान’ नामक नया पंथ बनाकर स्वयं को बौद्ध धर्म का अनुयायी घोषित कर दिया।  इससे उनकी भावना के अनुसार समाज के अन्य लोग भी वैसा ही करने के लिए सहर्ष तैयार हो गए क्योंकि किसी समूह या समाज का नेता या वरिष्ठ व्यक्ति, जैसा कार्य करता है वैसा ही अनुकरण उसके अनुयायी करते हैं। इस तरह अपने मूल उद्देश्य को पाने के प्रयासों में , महाप्रयाण के कुछ समय पहले ही लाखों लोगों को अपने नवयान में दीक्षित कर गए जिससे उनका समाज दूसरे समाजों की तरह अपना अलग और सम्मानित स्तर बनाए रख सके। अपने समाज के उत्थान के लिए उनका यह कार्य निस्वार्थ सेवा का श्रेष्ठ उदाहरण माना जा सकता है। संसार के बौद्ध अपनी संख्या की गणना में इन नव बौद्धों को भले सम्मिलित करने में उत्सुकता दिखाएं परन्तु उसकी अनेक शाखाओं के अनुयायी अपनी अपनी प्रतिष्ठा और वर्चस्व को बनाए रखने के लिए वे अपने को इनसे अलग ही मानते हैं , यही कारण है कि  यह नवयान केवल दलितों के बीच ही सीमित रह गया। हिन्दु धर्म से घृणा की नीव पर स्थापित इस संप्रदाय के प्रवर्तक भीमराव अंबेडकर, नवयानी बौद्धों के लिए किसी अवतार से कम नहीं। यद्यपि उन्होंने अवतारवाद को कभी मान्य नहीं किया लेकिन हिन्दुओं ने बुद्ध को अवतार मान लिया है।