Tuesday, 26 November 2019

280 भावजड़ता

भावजड़ता
= = =
अहंमन्यता की तलैया में
मूर्खता की कीचड़ से जन्म ले
ए भावजड़ता !
तू कमल की तरह खिलती है।

अपने आकर्षण के भ्रमजाल में उलझाती है ऐसे,
कि सारी जनता
लहरों पर सवार हो बस तेरे गले मिलती है।

झूठ सच के विश्लेषण की क्षमता हरण कर
आडम्बर ओढ़े,
गढ़ती है नए रूप।

धनी हों या मानी, गुणी हों या ज्ञानी
तेरे कटाक्ष से सब होते हैं घायल
क्या साधू क्या फक्कड़ , बड़े बड़े भूप।

भू , समाज और भूसमाज भावना
के अस्त्र चलाकर हर दिशा में ,
बड़े चाव से देखती है अपना प्रसार,
सँकुचित मानसिकता में उलझाकर सबको।

धूल में मिलते खानदानों की आहें
सुनती है तू, कान खोलकर
भैरवी की तरह।

फिर भी तेरी ‘प्रज्ञा‘ प्रस्फुटित नहीं होती ,
और न होती है भंग तेरी तन्द्रा
उषाकाल की नीरवता में
‘प्रभाती‘ की गुनगुनाहट से।
-
डा टी आर शुक्ल, सागर।
18 जून 2008

Monday, 18 November 2019

279 विरोधी बल और प्रगति

  विरोधी बल और प्रगति
सामान्यतः यह माना जाता है कि विपरीत लगने वाला बल गति में बाधक होता है परन्तु यह पूर्णतः सही नहीं है। पृथ्वी पर हम आगे तभी चल पाते हैं जब घर्षण बल हमारी अग्रगति का विरोध करता है। इस घर्षणबल का महत्व हमें तभी समझ में आता है जब हम किसी घर्षणरहित तल पर चलने का प्रयास करते हैं या तेज गति से चलते हुए रुकना चाहते हैं। अन्तरिक्ष में  गति करने पर गुरुत्वाकर्षण हमारा विरोध करता है और अंतरिक्ष से जब किसी पिंड पर उतरते हैं तो गति को धीमा करने के लिए उसके विरुद्ध बल (brake) लगाने के लिए छोटे छोटे राकेट अपनी गति की दिशा में ही चलाना पड़ते है। स्पष्ट है कि विरोधी बल हमारे लिए लाभदायक भी होते हैं इसलिए हमें अनुकूलता और प्रतिकूलता दोनों से प्रेम होना चाहिए न कि केवल अनुकूल या केवल प्रतिकूल से। आध्यात्मिक जगत में भी हमें इन दोनों प्रकार के बलों का सामना करना पड़ता है जिन्हें दर्शनशास्त्र में विद्या और अविद्या कहा गया है।
किसी भी प्रभावी क्षेत्र (गुरुत्वीय, विद्युतीय, चुंबकीय या नाभिकीय) में गति करने वाला कण अन्ततः उस क्षेत्र के गुरुत्वकेन्द्र के चारों ओर चक्कर लगाने लगता है और उस पर दो प्रकार के बल एकसाथ कार्य करने लगते हैं, एक उसे केन्द्र की ओर खींचने का प्रयास करता है इसे वैज्ञानिक ‘‘सेन्ट्रीपीटल फोर्स’’ कहते हैं और  दूसरा उस कण को बाहर की ओर ले जाने को तत्पर रहता है इसे वैज्ञानिक ‘‘सेन्ट्रीफ्यूगल फोर्स’’ कहते हैं। 
आध्यात्मिक क्षेत्र में गति करने पर हमारा मन भी कण की तरह उसके गुरुत्वकेन्द्र (अर्थात् परमसत्ता) के चारों ओर चक्कर लगाता है और उस पर भी  सेंट्रीपीटल फोर्स ‘‘विद्या’’ और सेन्ट्रीफ्यूगल फोर्स ‘‘अविद्या’’ एकसाथ ही कार्य करते हैं। इनमें सेंट्रीपीटल फोर्स परमसत्ता की ओर और सेन्ट्रीफ्यूगल फोर्स परमसत्ता से दूर ले जाने के लिए सक्रिय रहता है। यहाॅं सेन्ट्रीफ्यूगल फोर्स की पहचान उसकी दो प्रकार की गतिविधियों से की जा सकती है एक है ‘आवरण या पर्दा डालना’ और दूसरी है ‘विच्छेपित करना’; अर्थात् यह हमें अपने गन्तव्य लक्ष्य पर या तो पर्दा डालने का काम करता है या उससे भटका देता है। इसी प्रकार सेंट्रपीटल फोर्स की पहिचान भी उसकी दो प्रकार की गतिविधियों से की जा सकती है एक को कहा जाता है ‘संवित’ और दूसरी को ‘ह्लादिनी’; अर्थात् संवित हमें समय समय पर आघात देकर होश में ले आती है और याद दिलाती है कि लक्ष्य से क्यों भटक रहे हो और ह्लादिनी, लक्ष्य की ओर तेज गति से बढ़ने की प्रेरणा देते हुए आनन्द की अनुभूति कराने लगती है। 

इस तरह निष्कर्ष निकलता है कि हमें विद्या और अविद्या को अपनी आध्यात्मिक प्रगति में परस्पर सम्पूरक मानते हुए समन्वय स्थापित कर आगे बढ़ना चाहिए न कि किसी एक को पकड़कर उसी पर आश्रित रहना चाहिए। उपनिषदों का भी कथन है,
‘‘अन्धं तमः प्रविशन्ति ये अविद्यां उपासते, ततोभूय एव ते तमो य उ विद्यायां रतः।’’
अर्थात् केवल ‘अविद्या’ की उपासना करने वाले गहरे अंधे कुए में गिरते हैं और उससे भी गहरे अंधे कुए में वे गिरते हैं जो केवल विद्या की उपासना में लगे रहते हेैं।

Thursday, 14 November 2019

278 बोझ, मोह का !

बोझ, मोह का !
बाल्यावस्था से ही,  जंगल से सूखी लकड़ियों का गट्ठा सिर पर लाद कर लाना और शहर में बेचना यही दिनचर्या थी बेनीबाई की । इस प्रकार जीविका चलाते चलाते बृद्धावस्था भी आ पहॅुंची। एक दिन अनेक प्रयास करने पर भी जब गट्ठा सिर पर रखते न बना तो हताश बेनी बाई बोली, 
‘‘ हे भगवान ! अब तो भेज दो मौत को ? बहुत हो चुका। अरे! बहरे हो गए हो क्या ? कब सुनोगे ?‘‘
कहने की देर ही हुई थी कि यमराज सामने आकर बोले,
‘‘ चलो, बेनीबाई ! मैं आ गया ‘‘
‘‘ लेकिन कहाॅं?‘‘
‘‘ अरे ! तुम्हीं ने तो भगवान से कहा कि मौत को भेज दो, मैं हूॅं यमराज, उनकी आज्ञा से मैं  तुम्हें ले जाने के लिए आया हॅूं, चलो.. ‘‘
‘‘ ये तो बहुत अच्छा किया भैया, चलो, जरा अपना एक हाथ इस गट्ठे पर लगा कर मेरे सिर पर रखवा देा । ‘‘ 

Wednesday, 13 November 2019

277 गहराई जड़ों की !

गहराई जड़ों की !
तीर्थयात्रा पर जा रहे कुछ आध्यात्मिक लोगों की चर्चा से प्रभावित होकर दो शराबियों ने भी उनके साथ तीर्थयात्रा करने का मन बनाया। रास्ते में विश्राम करने के लिए रुकते समय आध्यात्मिक लोग उन स्थानों का चयन करते जहाॅं सत्संग होता हो या अन्य धर्मस्थल हो या प्रवचन होते हों । शराबी लोग उनकी नजर बचाकर उसी स्थान पर शराब की दूकानों का पता और उनकी दूरी के बारे में पूछा करते!

Sunday, 10 November 2019

276 स्वस्थ और अस्वस्थ नींद

स्वस्थ और अस्वस्थ नींद

अनेक लोगों को सही नींद के बारे में उचित ज्ञान नहीं होता, वे देर तक जागकर गप्पें करते फिल्में देखते, वीडिओ गेम्स खेलते और देर से सोकर देर से ही जागते है। वास्तव में नींद हमारे शरीर और मन पर बहुत ही सकारात्मक प्रभाव डालते हुए ताजा बनाये रखने में उपयोगी है इसलिये कब सोना है कब जागना है इसका उचित ध्यान रखना चाहिये। नींद लेना समय की बरबादी नहीं है वरन शरीर को पुनः मौलिक  रूप में लाने का साधन है। इसलिये स्वस्थ रहने के लिये देरतक जागना और दिन में सोने की आदत त्यागना चाहिये। सूर्य का प्रकाश मानव शरीर को निर्माणात्मक और चंद्रमा का प्रकाश थकान का अनुभव कराता है, अतः रात में सोने पर ही शरीर के कोशों, नाड़ियों और ग्रंथियों को यथास्थिति पाने और पुनः ऊर्जावान हो पाने के लिये अनुकूलता मिलती है। इस प्रकार के निद्रा चक्र को बनाये रखने पर प्राकृतिक और जीववैज्ञानिक प्रभाव भी अनुकूल  रहते हैं। यही कारण है कि प्रातः काल सोकर उठने पर ताजगी का अनुभव होता है। दिन का प्रकाश मानव शरीर पर क्रियात्मक और रातें जड़ात्मक प्रभाव डालती हैं, अतः रातें मन और शरीर को अक्रियता और नींद की ओर ले जाती हैं। संध्या काल अर्थात, सूर्योदय, सूर्यास्त , दोपहर और अर्धरात्रि में चित्त पर सात्विक पारदर्शी प्रभाव पड़ता है इसलिये इन समयों में ईश्वर चिंतन करने से लाभ मिलता है। रात में सोने और दिन में काम करने का चक्र नियमित रहने पर शरीर स्वस्थ रहता है और कोई बीमारी होती भी है तो उसे दूर करने में सहायता मिलती है जैसे, एसीडिटी, इनडाइजेशन, हृदय रोग, सफेद कोढ़ और केंसर आदि। इसलिये दिन में सोने और देर तक रात में जागने से बचना चाहिये। लंबे जीवन  के लिये उचित निद्राचक्र का पालन करना अत्यावश्यक है इस संबंध में कुछ उपाय इस प्रकार हैंः-
1/ ज्यों ही नींद का आभास होने लगे तत्काल सो जाना चाहिये, परंतु यह नहीं कि नींद न आ रही हो तब भी सोने का प्रयास करना । 2/ वास्तव में सोने और जागने का निर्धारित समय बना लेना चाहिये । 3/ विस्तर से ब्रह्म मुहूर्त में ही जाग जाना चाहिये।
नींद और स्मृति में परस्पर गहरा संबंध है। कहा गया है ‘अभावप्रत्ययालम्बनी वृत्तिः निद्रा’ अर्थात् नींद वह वृत्ति है जो रिक्तता पर आश्रित होती है, या रिक्तता लाती है। जब कोई गहराई से सोता है तो उसे कुछ भी याद नहीं रहता, यह भी नहीं कि किस क्षण उसे नींद आ गयी। अतः सोने और जागने के समय के बीच स्मृति भंग थी । दिन में सोने से स्मृति की रिक्तता और बढ़ जायेगी और बौद्धिक तीक्ष्णता घटती जायेगी, अतः दिन में सोना त्यागना चाहिये। यह देखा गया है कि यदि सबेरे से 11 बजे तक किसी पाठ को याद किया जाय और थोड़ी देर तक अन्य काम में लग जायें तो याद किया गया पाठ याद बना रहता है परंतु यदि काम में न लग कर सो जायें तो जागने पर बहुत कुछ भूल जाते हैं। स्पष्ट है कि सोने से पहले जो घटनायें सीधे मन पर प्रभाव डाल चुकी हैं वे सोने के बाद जागने पर स्मृति से दूर चली जाती हैं, परंतु यदि जागते रहते हैं तो वे स्मृति में बनी रहती हैं। 24 घंटे में एक बार सोना उचित है परंतु अधिक बार सोना स्मृति को कम कर देता है, जो अधिक सोते हैं वे मूक हो जाते हैं उनकी स्मरण शक्ति कम हो जाती है। 
काम करने के बाद शरीर को आराम देने के लिये समय पर सोना और जागना चाहिये जिससे पुनः स्फूर्ति और ऊर्जा पाकर काम में जुटा जा सके। कुछ लोग कहते हैं कि अधिक सोने से स्वास्थ्य ठीक रहता है, यह गलत है, अधिक सोने वाले कभी जीवन में उत्कृष्ट कार्य नहीं कर पाते क्योंकि उनका अधिकाॅंश जीवन सोने में ही निकल जाता है और उनकी प्रगति अवरुद्ध हो जाती है। कुछ छात्र दिन में सोते और रात में जाग कर पढ़ते हैं यह स्वास्थ्य के लिये उचित नहीं है, उन्हें अपने सोने और जागने का समय निर्धारित कर लेना चाहिये।
अधिक निद्रा बहुत बड़ा दुर्गुण है। निद्रा वह अवस्था है जिसके समाप्त होने पर शून्यता का अनुभव होता है। अर्थात् जागने के तुरन्त बाद लोग नहीं जान पाते कि वे कहाॅं थे, सोने के पहले वे क्या कर रहे थे, समय का आभास नहीं रहता, दिन और रात का भी भान नहीं रहता। यदि कोई बहुत दिनों तक सोता ही रहे तो अन्त में उसका मानसिक विकास लम्बे समय तक अवरुद्ध हो सकता है। इस स्थिति के अधिक बने रहने पर उनकी ग्राह्य और बोध क्षमता घटती जाती है और अन्त में मानसिक शक्ति कमजोर पड़ जाती है, वे डरपोंक हो जाते हैं और अनेक समस्याओं से घिर जाते हैं। उनमें शारीरिक शक्ति भले हो पर साहस घट जाता है। आधुनिक भौतिकता से भरे युग में कहा जाता है कि कम से कम आठ घंटे नींद आवश्यक है पर यह ठीक नहीं है, गहरी नींद के चार घंटे भी पर्याप्त होते हैं । यदि गहरी नींद नहीं आती है तो शरीर अपने आपको ठीक ढंग से पुनः व्यवस्थापित नहीं कर पाता। इसलिए सही नींद के लिये समय का नहीं नींद की गहराई का अधिक महत्व होता है। सही नींद का अर्थ है स्वप्नहीन गहरी निद्रा। गहरी निद्रा में मन पूर्णतः विचारहीन होता है और उसे समय की गतिशीलता का बोध नहीं होता अतः इस अवस्था में कुछ घंटे की नींद ही शरीर और मन को आराम देने के लिए पर्याप्त होती है। 

Tuesday, 5 November 2019

275 हमारी अज्ञात शक्ति

हमारी अज्ञात शक्ति
पशुओं और मनुष्यों के बीच में विभेदन का सबसे महत्वपूर्ण बिन्दु है स्वतंत्र इच्छा का होना। परमपुरुष ने मनुष्यों को सोचने विचारने और निर्णय करने की स्वतंत्रता दी है जो पशुओं में नहीं है। मनुष्य के रूप में वही एक परमसत्ता पूर्ण रूप में परावर्तित होती है अतः वह स्वतंत्र कार्य कर अच्छे और बुरे में विभेदन कर सकता है। यह विशेष गुण अधिकांश  लोगों को ज्ञात ही नहीं होता जिससे  कि वह अपने जीवन को नियंत्रित कर संभावित प्राकृतिक प्रकोपों और  समस्याओं से जूझ सकता है। परंतु देखा यह गया है कि लगभग 99 प्रतिशत लोग अपनी स्वतंत्र इच्छा का दुरुपयोग करते हैं और नकारात्मक संस्कारों को आमंत्रित करते हैं। इस तरह स्वतंत्र इच्छा दुधारू तलवार की भाॅंति होती है जिसे आनन्द की उचाईयों और नर्क की गहराईयों दोनों  की ओर जाने में प्रयुक्त किया जा सकता है।
यदि कोई दूसरों को सताने के लिये ही यह या वह करने की सोचता है तो उसे सुअर या कुत्ते का शरीर मिल जाता है, इसलिये जो अच्छा सोचता है उसे अच्छा शरीर  अगले जन्म में मिलता है। यदि कोई हमेशा  स्वादिष्ट भोजन खाने के बारे में सोचता है तो परमपुरुष उसे भेड़िया का शरीर  दे देंगे, कोई महिला यदि आभूषणों के श्रंगार से अपने को सुन्दर दिखाने की सोच में ही डूबी रहती है तो परमपुरुष उसे मोर का शरीर दे देंगे और बहेलिया का तीर उसे मार डालेगा। यदि कोई राजा बनना चाहता है तो अगले जन्म में वह किसी गरीब के घर पैदा होगा और उसका नाम राजा रख दिया जायेगा। इसलिये  स्वतंत्र इच्छा से, सोचते समय बड़े सावधान रहने की आवश्यकता  होती है। मनुष्य अपनी इच्छा की शक्ति  को पहचानते नहीं हैं इसलिये वे नाम यश  और भौतिक संम्पत्ति के पाने के लिए  जी तोड़ पराक्रम में लगे रहते हैं और अंत में और अधिक बंधन में पड़ जाते हैं। वे पत्थर पेड़ या अन्य प्राणियों के शरीर भी अपने चिंतन के अनुसार पा जाते हैं। लोभी व्यक्ति बिल्ली का शरीर पा जाते हैं , वह उसकी मनोवृत्ति के अनुकूल होता है क्योंकि बिल्ली डंडे की मार खाकर थोड़ी देर में ही भूल कर वापस वहीं आकर दूध पीने की कोशिष में जुट जाती है। इससे तो यही निष्कर्ष निकलता है कि हमें अपनी स्वतंत्र इच्छा का उपयोग परमपुरुष की चाह में ही करना चाहिये जो त्रिविध तापों को दूर करने का सामर्थ्य  रखते हैं। अर्थ केवल अस्थायी सुख देता है परंतु परमार्थ स्थायी इसलिये हमें परमात्मा कर ही चिंतन करना चाहिये क्योंकि परमार्थ के दाता वही हैं।। मानलो किसी को परमार्थ के विषय में कुछ भी ज्ञान नहीं है और वह अपनी स्वतंत्र इच्छा के बारे में भी कुछ नहीं जानता तब वह केवल परमपुरुष की इच्छा से ही आगे बढ़कर उच्च स्थिति को पा सकता है इसलिये बुद्धिमान को चाहिये कि सबकुछ भूलकर परमपुरुष को ही अपना लक्ष्य मानकर चिंतन करे कि उनकी जो इच्छा हो उसके इसी जीवन में पूरी हो जाये।