वर्तमान युग में मिथ्या अर्थात् असत्य को ही सत्य के रूप में चलाये जाने का नियम सा बन गया है जो चालाक बुद्धि के बिना सम्भव नहीं है। जैसे, दंड से बचने के लिए ‘चोर’ पुलिस के सामने और न्यायालय में चालाक बुद्धि का सहारा लेता है इसी से असत्य का संसार निर्मित होता है। इसलिए आध्यात्मिक पथ पर चलने की इच्छा रखने वाले आध्यात्मिकता को अच्छी तरह समझने बाद ही नैतिकवादी हो सकते हैं। सहज नैतिकता और आध्यात्मिक नैतिकता के बीच का अन्तर महाभारत के कुछ चरित्रों के उदाहरणों से स्पष्ट हो सकता है। जैसे,
(1) भीष्म और कर्ण, दोनों ही तत्कालीन प्रचलित सहज नैतिकता के धनी थे और अजेय योद्धा थे परन्तु इसी सहजनैतिकता का लाभ कुटिल बुद्धि दुर्योधन ने लिया। भीष्म और कर्ण, दोनों ही जानते थे कि दुर्योधन अधार्मिक आचरण करता है फिर भी वे युद्ध में उसके साथ थे । यहाॅं उनके मन में सहज नैतिकता का आधार वाक्य यह था कि उन्होंने ‘दुर्योधन का नमक खाया है’। यदि वे आध्यात्मिक नैतिकता का आश्रय लिये होते तो कह सकते थे कि दुर्योधन ! तुम्हारा नमक खाया है इसलिए सुझाव दे रहा हूॅ कि धर्म के रास्ते पर चलो अन्यथा, हम तुम्हारा साथ छोड़ देंगे। कर्ण सहजनैतिकता के प्रभाव से अपने आशीर्वादी कवच और कृंडल भी दान में दे बैठे जबकि वह जानते थे कि यह विप्र कवच और कुण्डल नहीं उनकी मृत्यु माॅंगने आया है । यदि वे आध्यात्मिक नैतिकता का सहारा लेते तो कह सकते थे कि अभी तो मैं युद्ध में जा रहा हॅूं लौट कर आऊॅंगा तब ले जाना।
(2) अर्जुन ने प्रतिज्ञा की ‘कि जयद्रथ को सूर्यास्त के पहले नहीं मारा तो आत्मदाह कर लूॅंगा’ । सूर्यास्त हो गया अतः तत्कालीन प्रचलित सहजनैतिकता के कारण आत्मदाह की चिता पर बैठे अर्जुन को देखने के लिए सभी नागरिक एकत्रित हो गए, इतना तक कि स्वयं जयद्रथ भी निर्भय होकर सामने आ गया। चूॅंकि कृष्ण चाहते थे पाप का अन्त और धर्म की संस्थापना अतः आध्यात्मिक नैतिकता आधारित उन्होंने अपनी इच्छा से सूर्य को काले बादल से इस प्रकार ढंक दिया कि लगने लगा सचमुच सूर्यास्त हो गया और ज्योंही जयद्रथ अर्जुन के सामने आया कृष्ण की ही इच्छा से बादल हटा और जयद्रथ का भी अन्त हो गया ।
(3) गाॅंधारी का चरित्र सहज और आध्यात्मिक नैतिकता के बीच संतुलन बनाता है। जब उन्हें पता चला कि उनका होने वाला पति जन्माॅंध है तो उन्होंने सहज नैतिकता में आकर तत्काल अपनी आँखों पर भी पट्टी यह कहते हुए बाॅंध ली कि जब मेरा पति नहीं देख सकता तो मैं इस संसार को अपनी आँखों से क्यों देखूॅं , परन्तु युद्ध में जाते हुए अपने पुत्रों को विजय का आशीर्वाद न देकर आध्यात्मिक नैतिकता का पालन करते हुए यह कहा ‘‘ यतो कृष्णः ततो धर्मः, यतो धर्मः ततो जयः ’ अर्थात् जहाॅं कृष्ण हैं वहाॅं धर्म है और जहाॅं धर्म है वहीं विजय है।
(4) गाॅंधारी के नैतिक बल का एक और उदाहरण उल्लेखनीय है। नैतिक बल की दृढ, इस महिला ने अपनी आँखों की पट्टी जीवन में केवल दो बार ही खोली, एक बार अपने पति के कहने पर युद्ध में पुत्रों को विजयी होने का आशीर्वाद देने के लिये जिसकी अभी चर्चा हो चुकी । और, दूसरी बार कृष्ण को देखने के लिए; युद्ध समाप्त होने पर युद्धस्थल पर वह मृत पड़े अपने सौ पुत्रों के पास अपनी सभी विधवा पुत्रवधुओं साथ शोक प्रकट कर रही थी। पाॅंडवों के साथ कृष्ण ने उनके पास जाकर कहा, ‘‘ माँ ! आप क्यों रो रही हैं, यह तो प्रकृति का नियम है, सभी एक दिन यहाॅं से चले जाएंगे , अतः रोना क्यों? ’’ गाॅंधारी ने कहा, ‘‘ कृष्ण ! तुम व्यर्थ सान्त्वना क्यों दे रहे हो? यह तुम्हें शोभा नहीं देता ।‘‘ कृष्ण ने पूछा क्यों? वह बोली, ‘‘तुम यदि न चाहते तो मेरे पुत्रों का नाश नहीं होता’’ । कृष्ण ने कहा , ‘‘धर्म की रक्षा और पाप का विनाश करने के लिए यह अनिवार्य हो गया था’’ । वह फिर बोलीं, ‘‘ लेकिन तुम तो तारकब्रह्म हो, अगर चाहते तो अवश्य ही बिना युद्ध किए मेरे पुत्रों के मनोभावों में परिवर्तन कर सकते थे।’’ इस पर कृष्ण चुप रह गए। तो, यह है नैतिक बल का प्रभाव। वास्तव में यह संभव था कि यदि कृष्ण सोचते कि दुर्योधन के मन में परिवर्तन हो जाए, तो हो जाता। परन्तु वह तो जगत के सामने एक दृष्टान्त स्थापित करना चाहते थे कि लोग इस युद्ध से यह शिक्षा ग्रहण करें कि " पाप का पतन अवश्यम्भावी है।" कृष्ण, गाॅंधारी के नैतिक बल को महत्व देना चाहते थे अतः बहुत कुछ कहने को होते हुए भी चुप रह गए।
इन उदाहरणों से हमें कृष्ण के चरित्र से यह शिक्षा लेना चाहिए कि यदि कोई व्यक्ति अन्याय, अत्याचार कर रहा है तो किसी भी परिस्थिति में इसे नहीं स्वीकारें ; उन दुर्नीति परायण लोगों के विरूद्ध संग्राम करना ही होगा, परन्तु यदि कोई व्यक्ति यथार्थ नीतिवादी है, धार्मिक है तो उसके सामने नतमस्तक हो जाने में अपना सम्मान ही बढ़ेगा, इसमें कोई बुराई नहीं है। वर्तमान युग तो कपटनीति का है, चुनाव के समय सैकड़ों प्रतिज्ञाएं की जाती हैं, चुनाव जीतने के बाद सब भूल जाते हैं। दैनिक उपभोग की हों या व्यावसायिक सभी के उत्पादन पर जो लागत होती है उसका अनेक गुना लाभ लेने और जनसामान्य के हितों की अनदेखी करना आज के व्यवसायियों का मूल मंत्र है। अनेक शोधकर्ता विद्वान यह मानते हैं कि महाभारत युद्ध होने के पीछे एक कारण यह भी था कि व्यापारियों ने युद्ध सामग्री को बड़े पैमाने पर निर्मित और आयात करने में अपनी अधिकाॅंश पूॅंजी लगा ली थी अतः यदि युद्ध न होता तो वे कंगाल हो जाते। आध्यात्मिक नैतिकता का पालन करने वालों को एकजुट होकर, कृष्ण के बताए अनुसार इनके विरुद्ध धर्मयुद्ध छेड़े बिना मानव जीवन दूभर होता जाएगा।