Sunday, 2 May 2021

349 स्वधर्म और परधर्म


‘‘धर्म’’ की विभिन्न विद्वानों ने अनेक प्रकार से व्यरख्या की है। धर्म को ‘रिलीजन’ का अनुवाद मानकर उन्होंने समाज को अनेक प्रकार से बाॅंट दिया है, जिनमें अपने अपने वर्चस्व को बनाए रखने के लिये झगड़े होना आम बात हो गई है। जबकि सत्य यह है कि धर्म तो सभी को जोड़ता है विभाजन करना उसका स्वभाव ही नहीं है। इससे यह स्पष्ट होता है कि रिलीजन धर्म का पर्याय नहीं बन सकता हाॅं उसे मतवाद अवश्य कहा जा सकता है क्योंकि मतवादों में ही वाद विवाद बने रहने की संभावना रहती है। इस संदर्भ में कुछ विद्वानों को श्रीमद्भग्वदगीता का यह श्लोक उद्धृत करते भी देखा जाता है-

‘‘श्रेयान् स्वधर्मो विगुणः परधर्मात् स्वनिष्ठतात्, स्वधर्मे निधनम् श्रेयः परधर्मो भयावहः। 3/35’’

अर्थात् अपना धर्म चाहे दूसरे की तुलना में निम्न स्तर का अर्थात् हीन ही क्यों न हो, स्वयं के लिए उसे ही निष्ठापूर्वक अन्त तक पालन करना चाहिए क्योंकि स्वधर्म का पालन करते हुए मरना भी श्रेष्ठ होता है जबकि दूसरे का धर्म भयकारक होता है।

धर्म को रिलीजन का पर्याय मानने वालों ने इस श्लोक का मनमाना अर्थ निकालकर समाज में परस्पर वैमनस्य भर दिया है और रोज नए नए तथाकथित धर्म उत्पन्न होते जा रहे हैं और वर्ग संघर्ष बढ़ता जा रहा है। मनुष्य अपने निर्धारित लक्ष्य को पाने के लिये पराक्रम न कर उसके स्थान पर समाज के अन्य वर्गों से व्यर्थ का संघर्ष करने में जीवन नष्ट कर रहे है। 

यदि ध्यानपूर्वक इस श्लोक पर चिंतन किया जाय तो यहाॅं धर्म का अर्थ ‘‘कर्तव्य’’ अर्थात् ड्युटी की सूचना देता है न कि रिलीजन की। उसका कारण यह है कि श्लोक का अर्थ करने के पहले यह देखना चाहिए कि वह किस स्थल पर किसके संदर्भ में कहा गया है अन्यथा सब कुछ गड़बड़ होने की अधिक संभावना हो जाती है। इस श्लोक को श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन को यह समझाने के लिए कहा गया है कि उसका युद्ध करना क्यों उचित है और युद्ध न करने का निर्णय करना अनुचित क्यों है। स्थिति यह है कि सभी प्रकार से युद्ध रोकने के प्रयास जब असफल हो चुके तब युद्ध करना ही अन्तिम उपाय सामने आया और सभी योद्धा युद्ध स्थल में पहुंच भी चुके हैं; यहाॅं एक योद्धा का धर्म अर्थात् ड्युटी स्वाभाविक रूप से क्या होगी? स्पष्टतः पूरे कौशल के साथ शत्रु से युद्ध करना फिर परिणाम चाहे जो कुछ भी हो। अर्जुन का यहाॅं युद्ध न करने का निर्णय, यह कारण बताते हुए कि मैं अपने सगे संबंधियों और गुरुओं की हिंसा करने का पाप नहीं करना चाहता, क्या उचित है? निश्चय ही इसे अपने मूल कर्तव्य अर्थात् ‘‘ क्षत्रिय धर्म’’ का पालन न करते हुए  ‘ब्राह्मण धर्म अहिंसा’ की ओर पलायन करना ही कहा जाएगा। इसीलिए श्रीकृष्ण का यह कहना कि,‘‘ हिंसा की तुलना में अहिंसा भले ही श्रेष्ठ कर्तव्य लगता हो पर वह युद्धस्थल में खड़े एक योद्धा का कर्तव्य नहीं है वह तुम्हारे लिए भयकारक है’’ सर्वथा उचित है। अतः यह बिलकुल स्पष्ट है कि यहाॅं धर्म का अर्थ कर्तव्य ही माना गया है। इसी के पक्ष में अन्य प्रमाण भी श्रीमद्भगवद्गीता में ही दिया गया है जो अर्जुन को लगातार समझाने के बाद अंतिम रूप से कहते हुए श्रीकृष्ण द्वारा इसी श्लोक में थोड़ा सा परिवर्तन कर इस प्रकार कहा गया है-

‘‘श्रेयान् स्वधर्मो विगुणः परधर्मात् स्वनिष्ठतात्, स्वभाव नियतं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्विषम्। 18/47’’

श्रीकृष्ण ने, हिंसा के फलस्वरूप होने वाले पाप से भयभीत अर्जुन को आश्वस्त करने के लिए पूर्वोक्त श्लोक में केवल यह जोड़ा है कि ‘‘स्वभाव नियतं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्विषम्’’ अर्थात् स्वाभाविक रूप से जिसे जो कर्तव्य निर्धारित किया गया है उसे निष्ठापूर्वक करते हुए कर्ता को किसी प्रकार का पाप नहीं लगता।

अतः धर्म के नाम पर जनसामान्य को गुमराह करना, धर्म के नाम पर श्रेष्ठता और हीनता की भावना से झगड़े करना और समाज को विभाजित कर प्रगति में बाधा पैदा करना, केवल तुच्छ मानसिकता का प्रदर्शन और धर्म की सही सही समझ न होना ही प्रकट करता है।

अब, स्वाभाविक प्रश्न उठता है कि ‘धर्म’ किसे कहा जाय? इसका उत्तर है किसी व्यक्ति या पदार्थ के आभ्यान्तरिक लक्षण जिन्हें वे धारण करते हैं वही उनका धर्म कहलाता है। जैसे आग की लाक्षणिकता है उसकी दाहिका शक्ति, अतः यह उसका धर्म हुआ। पशुओं का लक्षण है खाना, सोना और मौज मस्ती करना यह पशुओं का धर्म हुआ। मनुष्य पशुओं से उन्नत प्राणी है अतः स्वभावतः पशुओं के गुण उनमें भी हैं परन्तु उसके पास बुद्धि और विवेक भी है जो उन्हें पशुओं से पृथक करता है। वह अपनी बुद्धि और विवेक का उपयोग कर अपनी आगे की प्रगति के आयाम खोज सकता है, यह हुआ मानव धर्म । पशुओं और मनुष्यों में (1)विस्तार- अर्थात् अपने को एक से दो, दो से चार करते हुए विस्तारित करते जाना (2)रस-अर्थात् ऐंद्रिय सुख में लीन रहना (3)सेवा- अर्थात् अपने निकट संबंधियों के प्रति लगाव रखते हुए उनकी सहायता करना; ये तीनों लक्षण आन्तरिक रूप से पाए जाते हैं पर मनुष्य अपनी बुद्धि और विवेक का उपयोग कर एक नए गुण का विकास कर लेता है वह है (4) तद्स्थिति अर्थात् परमसत्ता से अपने आप को जोड़ने का प्रयत्न करते रहना। इन चारों लक्षणों के विवेकपूर्ण समाहार को कहा जाता है ‘भागवत धर्म’। इसलिए ब्रह्मचक्र की विकास धारा में सभी प्राणियों का लक्ष्य है भागवत धर्म में प्रतिष्ठित होना। यही है हम सबका धर्म; अन्य सब तो आडम्बर के पोषक मतवाद मात्र हैं। 


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