सभी प्रकार के चिंतक अनैकिता, अवैज्ञानिकता, अतार्किकता और भ्रष्टाचार का विरोध करने के लिये प्रोत्साहित करते हैं परन्तु किसमें यह साहस है कि सामाज में व्याप्त इस केंसर को दूर करने का बीड़ा उठाये? उत्तर है, वे इस कार्य के लिये सक्षम हैं जो सही अर्थ में नैतिक हैं, सद्विप्र हैं, तेजस्वी हैं। यहाॅ भर्तृहरि की यह उक्ति प्रासंगिक है कि,
यदचेनोपिपादैः स्पृष्टः प्रज्ज्वलति सवितुरिकान्तः, तत्तेजस्वी पुरुषःपरकृतनिकृतिं कथं सहते।
अर्थात् जब एक निर्जीव पत्थर का टुकड़ा सूर्य की किरणों से आहत होता है तब स्वयं गर्म होकर चारों ओर अपना विरोध प्रकट कर सकता है तो फिर सद्गुणी तेजस्वी पुरुष इन भ्रष्टाचारियों का विरोध क्यों नहीं कर सकते? उनकी क्रूरता को सहते ही क्यों हैं?
पॅूंजीवादियों द्वारा आर्थिक, सामाजिक और राजनैतिक शोषण किया जाना हमारे देश का ही नहीं, पूरे संसार का रोग है। क्या यह सद्गुणी लोगों का कर्तव्य नहीं है कि वे इन सरल और सताए हुए लोगों को इस प्रकार के शोषण से बचाने का उपाय करें? ये निरपराधी लोग बली का बकरा बनने के लिए क्यों विवश हों? यह असहनीय है। इसलिये यदि आप सच्चे अर्थ में मानव हैं तो एक ओर तो अथक आध्यात्मिक साधना कर आत्मसाक्षात्कार की ओर बढ़ते जाएं और उतनी ही तेज गति से बाहरी संसार में फैलाए जा रहे अविवेकपूर्ण, अवांछनीय और क्षतिकारक सिद्धान्तों रोकने के लिये कटिबद्ध हों। हमारा मनुष्य होना तभी सार्थक कहलाएगा जब संसार का प्रत्येक व्यक्ति आर्थिक रूप से स्वतंत्र हो जाएगा।
कुछ लोगों का मानना है कि अविकसित देशों में अशिक्षा के कारण लोग अपने अधिकारों के बारे में नहीं जानते इसलिए वे बुराई को सहते रहते हैं और भ्रष्टाचार की समस्या बढ़ती जाती है। पर क्या यह सही है? इन अविकसित देशों के पढ़े लिखे लोग भी विभिन्न राजनैतिक पार्टियों को विश्वसनीयता से समर्थन देते पाए जाते हैं जबकि वे जनसामान्य को अपना नेतृत्व देकर अनीति के विरुद्ध एकत्रित कर सकते हैं। भले ही वे पूरे समाज को प्रेरित न कर पाएं परन्तु कुछ समस्याओं का तो अवश्य ही समाधान कर सकते हैं। वे यह क्यों नहीं करते ? कारण सरल है। समाज के उन्नत स्तर का एक बड़ा घटक भ्रष्टाचार में लिप्त रहता है इसलिए वे उनके सामने यह साहस ही नहीं जुटा पाते कि उनके विरुद्ध आवाज उठाएं, अनैतिकता को रोकें और समाज के हर स्तर पर सक्रिय भ्रष्टाचारियों में सुधार लाने का प्रयास करें। देखा गया है कि लिपिक, शिक्षक, इंजीनियर, सरकारी अधिकारी और व्यवसायी जो कि समाज में तथाकथित पढ़े लिखे माने जाते हैं, अधिकांश अनैतिक कामों और अपने अपने कर्तव्यक्षेत्रों में भ्रष्टाचार में लिप्त पाए जाते हैं। उनका कमजोर मन परोक्षतः अन्याय की आलोचना करता है परन्तु आमना सामना करने से डरता है। चोर लोग अपने चोरों के समूह में चोरों की आलोचना कर सकते हैं परन्तु वे ईमानदार लोगों के समूह में अपना कोई सुझाव नहीं दे सकते क्यों कि ऐसा करने में उनके ओठ थरथराएंगे, उनका हृदय धड़कने लगेगा। विकसित देशों के उच्च स्तरीय समाज में भी पढ़े लिखे भ्रष्टाचारियों की दशा भी ऐसी ही है। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद से तो स्थिति और भी जटिल हो गई है। भारतीय दर्शन की गाइड लाइन्स के आधार पर इस प्रकार के लोगों के आचरण में परिवर्तन लाकर ईमानदार बनाना होगा अन्यथा समाज की कोई भी बुराई दूर नहीं होगी और न ही कोई समस्या हल होगी। कोरोना के इस संकट ने बाजारी संस्कृति की पोल खोल दी है और बता दिया है कि व्यापारी किस प्रकार धन के पीछे भागकर मानवता से खिलवाड़ करने भी नहीं चूकते। इस समय कोरोना से शिक्षा लेने की आवश्यकता है जिसने स्वच्छता से रहने ,अनावश्यक भीड़ न बढ़ाने और सात्विक जीवन जीने को विवश कर दिया है। हमें हर हाल में राष्ट्रीय चरित्र का निर्माण कर ऐसा आर्थिक दर्शन स्थापित करने के लिये आगे आना होगा जो विश्वव्यापी भ्रष्टाचार को मिटा सके। यह आशा करना कि केवल सरकर ही इन बुराइयों को दूर करने का कोई जादू कर सकती है, पागलपन ही कहा जाएगा । “भारतीय दर्शन’ सभी को महान लक्ष्य की ओर प्रेरित करते हुए सेवाभाव सिखाता है और अपना सब कुछ अपने ’’इष्ट’’ के ही इस सगुण रूप ‘विश्व’ के प्रति के देने का आव्हान करता है न कि धन संग्रह कर अपना घर भरते जाने का। इसलिए नैतिक और सच्चरित्र लोगों को ही आगे आकर अपनी दक्षता को आजमाना होगा, दूसरा कोई उपाय नहीं है।
हम महर्षि पतंजलि से भी प्रेरणा ले सकते हैं, जिन्होंने 2500 वर्ष पहले कहा था, ‘‘जब आप किसी महान उद्देश्य से प्रेरित होते हैं, कुछ असाधारण करने की इच्छा से प्रेरित होते हैं, तो आपके विचार अपने सारे बंधनों को तोड़ देते हैं। आपका मन सीमाओं के परे चला जाता है। आपकी चेतना हर दिशा में फैल जाती है और आप खुद को एक नई, महान और शानदार दुनिया में पाते हैं। आपके अंदर सुसुप्त ताकतें और हुनर जाग जाते हैं और आप पाते हैं कि आप इतने महान व्यक्ति बन चुके हैं, जिसकी कल्पना आपने सपनों में भी नहीं की थी।’’
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