हमारे प्राचीन संस्कृत साहित्य में मनुष्य के जीवन का उद्देश्य ‘‘मोक्ष’’ को पाना बताया गया है जिसे समय समय पर अनुसंधानकर्ता ऋषियों ने अपने अनुभवों से अनेक प्रकार की विधियों द्वारा समझाते हुए विभिन्न ग्रंथों की रचना की है। आचार्य शंकर ने अपने समकालीन सभी प्रकार के मतानुयायियों से विधिवत् शास्त्रार्थ करने के उपरान्त निष्कर्ष निकाला कि ‘‘ मोक्षकारणसमग्रयाम भक्तिरेव गरीयसी’’। अर्थात् मोक्ष पाने के सभी तरीकों में से ‘भक्ति’ का तरीका सर्वश्रेष्ठ है। तो यह भक्ति कौन सी विधि है?
सभी ग्रंथों का तार्किक और वैज्ञानिक आधार पर भलीभांति अध्ययन करने के बाद यह स्पष्ट होता है कि, वास्तव में ‘मोक्ष’ है, किसी व्यक्ति विशेष द्वारा अपनी व्यक्तिगत भौतिक अनुभूति को पहले जड़ मन में निलंबित करना अर्थात् उसमें मिला देना फिर उसे सूक्ष्म मन में मिला देना फिर सूक्ष्म मन को ‘‘शुद्ध मैं’’ की अनुभूति से मिला देना फिर इसे आत्मा में मिला देना। अर्थात् जब किसी व्यक्ति के ‘मैंपन’ का बोध ‘विशुद्ध आत्मा’ के क्षेत्र में प्रवेश पा लेता है तो उस क्षण विशेष को मोक्ष की स्थिति कहते हैं। सरल शब्दों में कहा जा सकता है कि ‘‘अशुद्ध मैं’’(इकाई मन) को ‘‘विशुद्ध मैं’’(विराट् मन) में मिला देना ही मोक्ष है जिसे पाने के लिए सभी प्रकार की विधियों में से ‘भक्ति’ श्रेष्ठ है। श्रुतियाॅं स्पष्टतः कहती हैं कि ‘‘यच्छेद्वांग्मनसी प्रज्ञस्तद यच्छेद्ज्ञानात्मनि, ज्ञानात्मनि महति नियच्छेत्तदयच्छेच्छान्तात्मनि।’’
अर्थात् बुद्धिमान व्यक्ति को चाहिए कि पहले वह अपनी इंद्रियों को चित्त में मिलाये फिर इस चित्त को अहम में और फिर अहम को महत में मिला कर इसे जीवात्मा में मिला दे और अंतिम रूप से परमचेतना में मिला दे। मतलब वही है कि आध्यत्मिक उत्साही व्यक्ति अपनी इंद्रियों के आभास को पहले अपने मन के भीतर एकत्रित करे ले जहाॅं से उन्हें वह सूक्ष्म मन की ओर जाने का निर्देश दे यहाॅं क्रियाशील मन या व्यक्तिगत अहंकार के रूप में इसको अपने शुद्ध मैंपन की ओर ले जाकर सभी को इस प्रकार निर्देशित करे कि वे सभी विशुद्धात्मा के साथ एकीकृत हो जाएं। यह एकीकरण की पद्धति ज्ञान, कर्म और भक्ति की सहायता से प्रभावित हो सकती है।
प्रश्न यह उठता है कि यह एकीकरण करने की विधि क्या है?
इसके लिए ऋषिगण कहते हैं कि सबसे पहले स्तर पर यह जानने का अभ्यास करना चाहिए कि ‘‘क्या करना है, कैसे करना है, क्यों करना है ।’’ जब इनका उचित उत्तर प्राप्त होने लगता है तो यह कहलाती है ‘‘ज्ञान साधना’’। इस प्रारंभिक ज्ञान के दो प्रकार हैं, एक है भौतिक ज्ञान जैसे, इंजीनियरिंग साइंस, मेडीकल साइंस, आर्ट, आर्कीटेक्चर, लिटरेचर आदि। और, दूसरा है आध्यात्मिक विज्ञान।
दूसरे स्तर पर पूर्वोक्त प्राप्त ज्ञान के अनुसार आध्यात्मिक साधक को कर्म करना होता है। कैसा कर्म? जो व्यावहारिक हो, जो प्रायोगिक हो। इस ज्ञानपूर्वक कर्म को ही कहा जाता है ‘‘कर्मसाधना’’। इस प्रकार ज्ञानसाधना और कर्मसाधना के संयुक्त परिणाम के रूप में भक्ति का उदय होता है। इसलिए भक्ति कोई अलग से साधना नहीं है, वह कोई अभ्यास करने की विधि नहीं है वह तो ज्ञान और तदनुसार कर्म का अभ्यास करने के फलस्वरूप मिलने वाला फल है। स्पष्ट है कि पहले स्तर पर ज्ञान ही मार्गदर्शन करता है फिर दूसरे स्तर पर कर्म और अन्तिम स्तर पर मार्गदर्शक बनाता है भक्ति तत्व। अब पूछा जा सकता है कि कई लोगों में भक्ति का उदय बाल्यकाल से ही देखा जाता है जबकि उस समय तक उन्होंने न तो ज्ञान प्राप्त किया होता है और न ही कर्म? इसका उत्तर है कि उन्होंने ज्ञान और कर्म साधना पिछले जन्म में की है जिसका परिणाम उन्हें बाल्यावस्था से ही मिलने लगा है। इसलिए ज्ञान कर्म और भक्ति यह तीन घटक ही मोक्ष पाने के लिए आवश्यक हैं परन्तु भक्ति सर्वश्रेष्ठ मानी जाती है क्योंकि वह अंतिम परिणाम स्वरूप मिलती है और सबसे सूक्ष्म होती है। इसलिए सब प्रकार की ज्ञान साधना और सब प्रकार की कर्म साधना करने का मूल उद्देश्य यह है कि वह इकाई मन को भक्ति साधना के शीर्ष पर ले जाए। इसलिए भक्ति पाने के लिये कोई पृथक अभ्यास नहीं है पर वह ज्ञान और कर्म के अभ्यास से प्राप्त होती है जिसके बिना परमपुरुष के संपर्क में आना संभव नहीं है। इसलिए ईशतत्व का आनन्द लेने के लये भक्तिमान बनना ही पड़ेगा।
जिन्होंने आध्यात्मिक साधना का अभ्यास नहीं किया होता है वे बुढ़ापे के कष्ट अनुभव करने पर कहते हैं अब मर जाना ही उचित है। इतना ही नहीं कई बार ये लोग छोटी उम्र में ही आत्महत्या करते देखे जाते हैं यदि उनके मन को कोई गहरी चोट लगती है या लगने की आशंका होती है। व्यावहारिक मनोविज्ञान के अनुसार, इस प्रकार के लोगों को अनुसरण करने के लिए उच्च लक्ष्य नहीं होता अतः वे अपने मन में मनमानापन और एकांगी सोच उत्पन्न कर लेते हैं। इस मनमानेपन से बचने का क्या उपाय है? वह है, मन के विषयपरक भाग को ऐसा विषय दे देना जो अनन्त हो। इसका पािरणाम यह होगा कि वे जब इस विषय के संपर्क में आऐंगे वे किसी भी प्रकार का मनमानापन विकसित नहीं कर पाऐंगे। वे हर समय नया, और नया ही पाते जाऐंगे क्योंकि परमपुरुष चिरनवीन हैं, सदा ही उज्जवल हैं । इसलिए यह सभी का कर्तव्य है कि वे अपने मन में इस प्रकार की मोनोटोनी को उत्पन्न न होने दें।
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