Wednesday, 26 May 2021

352 तुम


तुमने कहा,

बृन्दावनम् परित्यज्य पादमेकम् न गच्छामी-

अर्थात् मैं बृन्दवन को छोड़कर एक पद भी कहीं नहीं जाता।

मैंने बृन्दावन का कोना कोना छान मारा, तुम कहीं न मिले!

फिर तुमने कहा,

मनोलोक के बृन्दावन में ढूड़ना था, वहाॅं क्यों भटके?

मैं फिर, मन के बृन्दावन में खोजने लगा,

वहाॅं भी तुम नदारत थे!

अब, तुम कहते हो भावलोक में जाकर देखो वहीं मिलूंगा।

मैं ‘भवसागर’ में गोता लगाते

बड़ी बड़ी युक्तियों के सहारे, मुश्किल से

‘‘भावसागर’’ के तट पर बैठा तुम्हारी राह देखता रहा।

तुम्हारी कहीं छाया भी नहीं दिखी!

मैं कभी तट पर तो कभी सतह पर दौड़ता दौड़ता,

बहुत थककर, निराशा में डूबा गया। 

तुम फिर बोले, 

सतह पर नहीं! गहराई में, बहुत गहराई में गोता लगाओ ।

डूबने के डर से मैं सतह पर ही घूमता रहा।

अचानक एक बड़ी सी लहर ने अपने में लपेटा

और ले गयी न जाने कहाॅं!

क्षण भर में, मैं वहाॅं पहुॅंचा जहाॅं तुम,

तुम नहीं थे ....... 

बस, मैं ही मैं था,

विशुद्ध मैं।


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