भगवान सदाशिव का समाज के लिए क्या योगदान है?
यदि आप किसी भी तथाकथित विद्वान से भगवान शिव के योगदान के संबंध में पूंछते हैं तो वह विभिन्न पुराणों की कहानियां सुनार बताएगा कि उन्होंने इस राक्षस को मारा उसको मारा, लोगों की रक्षा की , वे अवढरदानी थ,े आदि पर समाज के लिए उनके योगदान के बारे में ‘वे तो भगवान है’ कहकर चुप हो जाते हैं। आइए आज इस पर ही कुछ चर्चा की जाए-
विद्यातंत्र की स्थापना :
ऋग्वेद 15000 वर्ष पहले से 7500 वर्ष पहले के बीच रचा गया माना जाता है। ऋग्वेद काल की समाप्ति और यजुर्वेद काल के प्रारंभ में भगवान सदाशिव का भौतिक आविर्भाव माना जाता है। इन्हीं के समय आर्य लोग उत्तर पश्चिम दिशा से भारत में आये। इस प्रकार संस्कृत और वैदिक भाषा का एक दूसरे पर प्रभाव पड़ा। ‘‘शिव’’ का शाब्दिक अर्थ है कल्याण, अस्तित्व का चरम बिंदु तथा 7000 वर्ष पहले धरती पर आये महासंभूति सदाशिव। उन्होंने विद्यातंत्र को सुव्यवस्थित किया क्योंकि गौड़ीय और कश्मीरी तन्त्र के रूप में वह पहले से अव्यवस्थित और बिखरा हुआ था।
पारस्परिक झगड़ों की समाप्ति :
उस समय जनसामान्य, पहाड़ों पर रहा करते थे और प्रत्येक पहाड़ का एक मुखिया होता था जो ऋषि कहलाता था। संस्कृत में पहाड़ को गोत्र कहते हैं अतः वह मुखिया गोत्र पिता के नाम से जाना जाता था इसी कारण गोत्र बताने की प्रथा चली जो किसी समूह विशेष की पहचान हेतु अभी भी प्रचलन में है। शिव के काल में विभिन्न गोत्रों में अपने आप को एक दूसरे से श्रेष्ठ सिद्ध करने की होड़ में लड़ाइयां होती रहती थी। जब एक समूह अर्थात् गोत्र दूसरे को लड़ाई में जीत लेता था तो हारने वाले को जीतने वाले का गोत्र मानना पड़ता था। जीतने वाला गोत्र समूह हारने वाले समूह की सम्पत्ति और स्त्रियों को बल पूर्वक ले जाते थे और पुरुषों को दास बनाकर उनके गोत्र बदल दिये जाते थे जिन्हें उपगोत्र अर्थात् प्रवर कहा जाता था। वर्तमान में विवाह के समय वर और वधू को कपड़े से बांधना और महिलाओं की मांग लाल रंग से भरना वास्तव में उस काल में लड़कर जीतने और बंधक बनाने की प्रथा का ही बदला रूप है। शिव ने विवाह व्यवस्था का नया रूप देकर इस प्रकार के लड़ाई झगड़े बंद कराये ।
‘विवाह’ संस्कार की स्थापना :
वास्तव में विवाह नाम की संकल्पना शिव ही की देन है। उनके पूर्व यह प्रथा थी ही नहीं, यही कारण है कि माता को तो पहचाना जा सकता था पर पिता को नहीं । शिव ने विवाह नाम की संस्था को स्थापित कर समाज में इस पर आधारित ‘‘विशेष व्यवस्था के अंतर्गत जीवन निर्वाह करना‘‘ सिखाया। इसलिये वह सर्व प्रथम विवाहित पुरुष के नाम से भी जाने जाते हैं। ‘महाशिवरात्रि’ का पर्व भगवान शिव के विवाह दिवस की स्मृति में मनाया जाता है। उस समय आर्य , मंगोल और द्रविड़ सभ्यतायें थीं और उनके सदस्य अपने अपने को श्रेष्ठ सिद्ध करने के लिये आपस में लड़ाई झगड़े किया करते थे। शिव के काल में मातृसत्तात्मक सामाजिक प्रणाली समाप्ति की ओर थी और पितृसत्तात्मक प्रणाली उत्थान की ओर थी। फिर भी मातृ सम्पत्ति अधिकार की प्रथा शिव के काल से बुद्ध और महावीर जैन के काल अर्थात् 2500 वर्ष पहले तक प्रचलित रही। उन्होंने परस्पर झगड़ने वाले आर्य, मंगोल और द्रविड़ों को एकीकृत करने की द्रष्टि से तीनों सभ्यताओं की क्रमशः पार्वती, गंगा और काली नाम की कन्याओं से विवाह किया। इस प्रकार उन्होंने परिवार को आदर्श स्वरूप देने के लिये पुरुष को उसके पालन पोषण का उत्तादायित्व देकर ‘भर्ता‘ और पत्नी को इस कार्य में उसके साथ समान रूप से सहभागी बनाने के लिये ‘कलत्र‘ कहा। ये दोनों ही शब्द पुल्लिंग में हैं अतः उन्होंने कभी भी लिंग के आधार पर भेदभाव को नहीं माना और न ही महिलाओं को पुरुषों से कम। इस प्रकार समाज को व्यवस्थित कर उसे उन्नत किये जाने को नया आयाम दिया।
शिव की शिक्षाएं और तत्कालीन विद्वान ऋषिगणों का आकर्षण :
महासंभूति शिव ने सबसे पहले यह बताया कि ‘‘परमब्रह्म अर्थात् ‘कॉस्मिक एंटिटी’, अपने क्रियात्मक पक्ष जिसे हम प्रकृति अर्थात् ‘नेचर’ के नाम से जानते हैं, की सहायता से आकार देकर ब्रह्मॉंड का संपूर्ण सृजन करता है। प्रकृति सात्विक बल अर्थात् ‘सेंटिएंट फोर्स’ को आधार बनाकर राजसिक अर्थात् ‘म्यूटेटिव’ और तामसिक अर्थात् ‘स्टेटिक’ बलों की मदद से द्रश्य प्रपंच रचती है। यथार्थतः आधार(परमब्रह्म) अद्रश्य सा ही रहता है केवल राजसिक और तामसिक बलों की ही जड़ानुभूति सबको होती रहती है और द्वन्द्वों का आभास होता रहता है। जबकि इन द्वन्द्वों का अस्तित्व उस सात्विक बल पर ही टिका रहता है। यदि इनमें असंतुलन हो जाये तो वे सब अस्तित्वहीन हो जावेंगे।’’
अधिक सरल शब्दों में इसका अभिप्राय यह है कि प्रत्येक जड़ वस्तु चाहे वह सूर्य, और आकाशगंगायें हों या छुद्र इलेक्ट्रान, सबका अस्तित्व है परंतु वे अपने अस्तित्व का अनुभव नहीं करते हैं। जबकि मनुष्य, चीटी, केंचुआ ये सब जानते और अनुभव करते हैं कि उनका अस्तित्व है। यह एग्जिस्टेंशियल फीलिंग ही वह आधार है जिस पर जीव व जगत टिका हुआ है। इसलिये ‘‘मैं हूं‘‘ इसके साक्षीबोध में उस परमपुरुष की सत्ता अद्रश्य रूप में रहती है। इसे समझने के लिये हम भौतिकी के ‘‘बलों के त्रिभुज नियम‘‘ को ले सकते हैं जिसके अनुसार दीवार पर संतुलन में टंगी तस्वीर के दो छोरों पर बंधी रस्सी से दो बलों को प्रदर्शित किया जाता है पर तीसरा बल जो तस्वीर में से लगता हुआ संतुलन बनाये रखता है दिखाई नहीं देता जबकि तस्वीर दिखती है। यही अद्रश्य ‘सेंटिऐंट’ बल वह आधार है जो तस्वीर को टांगे रहता है।
शिव की शिक्षाओं का प्रसार प्रचार :
वे ऋषि गण जो शिव से सबसे पहले प्रभावित हुए वे ऋषि थे भरत, धनवन्तरि, विश्वकर्मा, नन्दी आदि। शिव ने इन्हें उनकी रुचि के अनुसार क्रमशः संगीत, वैद्यकशास्त्र, भवन निर्माण शिल्प अर्थात् स्थपत्य कला और कृषि तथा पशुपालन करने की विद्या में पारंगत किया और फिर जनसाधारण को सिखाने के कार्य में उन्हें लगा दिया। उन्होंने पार्वती से अपने पुत्र भैरव को और काली से अपनी पुत्री भैरवी को विद्यातंत्र में पारंगत कर क्रमशः पुरुषों और महिलाओं को शिक्षित करने का कार्य सोंपा और गंगा से अपने पुत्र कार्तिकेय को सुरक्षा, सेन्य विज्ञान और अस्त्र शस्त्र का ज्ञान कराकर अन्य योग्य व्यक्तियों को प्रशिक्षित करने का कार्य दिया।
संगीत अर्थात् नृत्य, गीत और वाद्य यह सब शिव का मौलिक अनुसंधान :
शिव ने निरीक्षण कर सात प्रकार के प्राणियों से संगीत के स्वरों को जोड़ा जैसे, मोर षड़ज, बैल ऋषभ, बकरा गंधार, घोड़ा मध्यम, कोयल पंचम, गधा धैवत्य, और हाथी निषाद। इनके प्रथम अक्षर लेकर स्वर सप्तक बनाया, सा रे ग म प ध नि आदि। इस प्रकार शिव ने समाज को संगीत अर्थात् नृत्य, गीत और वाद्य दिया। उन्होंने श्वास, प्रश्वास आधारित लय के साथ मुद्रा को जोड़ा और अनेक प्रकार की नृत्य मुद्राओं का अनुसंधान किया। वैदिक काल में छंद था पर मुद्रा नहीं, वैदिक ज्ञान के 6 भाग थे, छंद, कल्प, निरुक्त, ज्योतिष, व्याकरण, आयुर्वेद या धनुर्वेद। उन्होंने महर्षि भरत को संगीत विद्या में प्रवीण कर इच्छुक व्यक्तियों को संगीत की शिक्षा का कार्य सौंपा।
वैदिक युग में सात प्रकार के छंदों में वार्ता और आराधना करने की प्रथा थी वे गायत्री, उष्निक, त्रिष्टुप, अनुष्टुप, जगति, ब्रहति और पंक्ति के नाम से जाने जाते हैं। ऋग्वेद के तीसरे मंडल के दसवें सूक्त में परम पुरुष के लिये लिखित सावित्र ऋक गायत्रीछंद में लिखा गया है। लोग गलती से उसे गायत्री मंत्र कहते हैं, यद्यपि प्रार्थना के रूप में वह सर्वोत्तम है।
शिव ने ही सर्वप्रथम धर्म की अवधारणा को स्थापित किया जिसके अनुसार नैतिकता और आध्यात्मिक अभ्यास के द्वारा परमसत्ता को पाने की ललक ही वास्तविक धर्म है। आप लोगों को शायद मालूम हो कि वेदों में किसी धर्म विशेष का उल्लेख नहीं है, उनमें विभिन्न ऋषियों की शिक्षाआें ंका संग्रह है अतः समय के अनुसार उनकी शिक्षायें बदलती रही हैं। ‘ऋग्वेद’ का आर्ष धर्म अर्थात् ऋषियों का कथन ‘यजुर्वेद’ से भिन्न है। मंत्रों का उच्चारण और जप क्रिया भी भिन्न भिन्न है। बंगाली यजुर्वेदी तथा गुजराती ऋग्वेदीय विधियों का पालन करते हैं।
शैव धर्म क्या है?
आर्यों और अनार्यों की लड़ाई में अनार्यों को दास बनाकर उन्हें ‘ओम‘ शब्द के उच्चारण करने पर प्रतिबंध लगाया गया था। महिलायें भी ओम के स्थान पर केवल नमः कह सकतीं थीं। शिव ने इस प्रतिबंध को हटाया और यज्ञों में पशुओं की आहुति देने का विरोध किया। उन्होंने अहिंसा तथा शांति का मार्ग बतलाया जो कि आर्यों के ‘ज्यो और सोसियो सेंटीमेंट‘ से ऊपर था। इसे ही शैव धर्म कहा गया है। विखरे हुये तंत्रयोग को उन्होंने एकीकृत किया और उसके व्यावहारिक पक्ष का महत्व समझाते हुये आव्जेक्टिव और सव्जेक्टिव संसार के बीच आदर्श संतुलन बनाने की व्यवस्था की। इसमें किसी भी वर्णजाति की अवहेलना नहीं की गई, शैव धर्म परमपुरुष के साथ प्रीति करने का धर्म है। इसमें कर्मकांडीय विधियों अथवा घी या प्राणियों की आहुतियों का कोई विधान नहीं है।
असुरों, राक्षसों और भूतों के नाथ, भूतनाथ शिव :
असुर कोई डरावनी सूरत के 50 फीट लंबे या बड़े बड़े नाखूनों और दॉंतां वाले अर्थात् ‘एबनार्मल‘ नहीं थे, ये सेंट्रल एशिया के असीरिया देश के निवासी थे। ये अनार्य थे अतः आर्य इनसे घृणा करते थे और असीरिया के होने के कारण उन्हें असुर कहते थे। अभी भी पलामू जिले(झारखंड) में इनकी समाज पाई जाती है। शिव ने इनकी रक्षा करने की जिम्मेवारी ली और अपने पास ही रखा और बताया कि सभी परमपुरुष की संताने हैं और सबको जीने का अधिकार है। वे लोग शारीरिक रूप से कमजोर और दुबले पतले होते थे इसलिये कहा जाने लगा कि शिव के आस पास तो भूत प्रेत रहते हैं। शायद आप लोग जानते हैं कि भूतों का कोई अस्तित्व नहीं है। भूत का अर्थ है जो कुछ भी जड़ या चेतन भौतिक अस्तित्व में आया है वह भूत है, चूंकि शिव ने न केवल मनुष्यों वरन् पेड़ पौधों और पशुओं को भी संरक्षण दिया था अतः उन्हें आदर से लोग पशुपतिनाथ या भूतनाथ कहने लगे। शिव सबको आदर्श जीवन जीने में सहायता करने के लिये सदा तत्पर रहते थे।
शिव के अन्य महत्वपूर्ण अनुसंधान :
शिव ने जीवन का कोई भी क्षेत्र अनछुआ नहीं छोड़ा, उन्होंने देखा कि जीवन श्वास की आवृत्तियों से बंधा हुआ है। ये प्रतिदिन 21000 से 25000 तक होती हैं जो हर व्यक्ति में बदलती रहती हैं। मनुष्य की श्वास लेने की पद्धति, मन, बुद्धि और आत्मा पर प्रभाव डालती है। इडा, पिंगला, और सुषुम्ना स्वरों की पहचान और किस स्वर में जगत के किस कार्य को करना चाहिये और आसन, प्राणायाम, धारणा, ध्यान आदि कब करना चाहिये यह सब स्वरविज्ञान या स्वरोदय कहलाता है। शिव से पहले यह किसी को ज्ञात नहीं था, बद्ध कुंभक, शून्य कुंभक आदि इसी के अन्तर्गत हैं। उन्होंने बताया कि जब इडा सक्रिय होती है तो वायां स्वर, जब िंपंगला सक्रिय होती है तो दांया स्वर और सुषुम्ना के सक्रिय होने पर दोनों नासिकाओं से स्वर चलते हैं। उन्होंने स्वर विज्ञान के नियमानुसार छंद और मुद्रा के साथ नृत्य करना सिखाया अतः इससे न केवल स्वयं करने वालों को वरन् दर्शकों को भी लाभ पहुंचा।
शिव ने अवलोकन किया कि मनुष्य शरीर में पायी जाने वाली अनेक ग्रंथियों को यदि उचित अभ्यास कराया जावे तो उनसे निकलने वाला हारमोन न केवल शरीर को वरन् आत्मा को भी लाभ देता है। परंतु कुछ ऐंसे ग्लेंड होते हैं जिन्हें नृत्य, मुद्रा और छंद से लाभ नहीं होता जैसे सोचना, याद करना आदि । अतः शिव ने तांडव नृत्य बनाया और पार्वती के सहयोग से महिलाओं के लिये कौशिकी नृत्य बनाया। तांडव में बहुत उछलना होता है, जब तक नर्तक जमीन से ऊपर होता है उसे अधिक लाभ मिलता है जमीन के संपर्क में आते ही यह लाभ शरीर में समा जाता है। अतः अधिक लाभ लेने के लिये अधिक देर तक जमीन से ऊपर रहना चाहिये। इस तरह छंद, मुद्रा और ग्रंथियों के उचित तालमेल से तांडव नृत्य दिया गया है जो ब्रेन के लिये एकमात्र एक्सरसाईज है जिसका न तो भूतकाल में कोई विकल्प था और न ही भविष्य में कोई विकल्प है।
क्या ‘तांडव‘ भयानक विनाश का समानार्थी नहीं है?
जिन्हें यथार्थता का ज्ञान नहीं है, वे इस प्रकार का प्रचार करते देखे गये हैं। ओखली और मूसल से जब धान से चावल निकाला जाता है तो वह बहुत उछलता है उसे ‘तंदुल‘ कहते हैं । तांडव नृत्य में भी बहुत उछल कूद करना पड़ती है। तांडव शब्द ‘तंदुल‘ से बना है। तुम लोगों को शायद ज्ञात हो कि संस्कृत में बिना पकाया गया चावल ‘तंदुल‘ तथा पकाया गया चावल ‘ओदन‘ कहलाता है। (शुद्धोदन का अर्थ है जिसका पकाया गया चावल शुद्ध हो अर्थात् जो ईमानदारी से अपना भोजन कमाता हो। बुद्ध के पिता का नाम शुद्धोदन था।)
छंद, मुद्रा और ग्रंथियों के उचित तालमेल से तांडव नृत्य बनाया गया है जो ब्रेन के लिये एकमात्र भौतिक एक्सरसाईज है जिसका न तो भूतकाल में कोई विकल्प था और न ही भविष्य में कोई विकल्प है। सभी पुरुषों को इसे सीखकर अभ्यास करते रहना चाहिये इससे मन, शरीर और बुद्धि पर नियंत्रण करना सरल हो जाता है। कौशिकी में शरीर और मन के सूक्ष्म स्तरों को उचित पोषण मिलता है और उनकी क्रियाशीलता से मन बुद्धि और आत्मा के बीच सामंजस्य बनाये रखने में सरलता होती है। यह महिलाओं के लिये विशेष रूप से लाभदायी है। पुरुष, तांडव और कौशिकी दोनां का अभ्यास नियमित रूप से कर सकते हैं परंतु कौशिकी केवल महिलाओं के लिये ही है। शिव ने इसे पार्वती के सहयोग से महिलाओं के हारमोनिक असंतुलन से होने वाले रोगों को दूर करने के लिये बनाया था। महिलायें यदि कौशिकी का नियमित अभ्यास करती हैं तो वे सदा निरोग रहेंगी।