Monday, 8 December 2025

453 बाबा की क्लास ( महासम्भूति श्रीकृष्ण- 10)

  पिछली क्लास से आगे ......

बाबा की क्लास ( महासम्भूति श्रीकृष्ण- 10)

राजू - सभी जीवधारी अनुभव करते हैं कि उनका अस्तित्व है, यह उन्हें समझाने की आवश्यकता नहीं होती। यदि कोई विशुद्ध अद्वैतवाद के अनुसार किसी से कहे कि तुम्हारा अस्तित्व नहीं है तो वह तत्काल कहेगा कि तुम बात किससे कर रहे हो? इस तरह क्या यह दर्शन की त्रुटियॉं नहीं हैं? 

बाबा- प्रारंभ में लोग दर्शन शास्त्र के प्रति जागरूक नहीं थे धीरे धीरे यह जागरूकता बढ़ती गयी और वे  अनुभव करने लगे कि संसार है और उसका संचालनकर्ता भी है। भले ही उसके बारे में अधिक जानकारी नहीं है हमें उसकी ओर बढ़ना चाहिये। द्वैतवाद इस प्रकार की विचारधारा में आगे बढ़ा। इस तरह दो का अस्तित्व एक भक्त और दूसरा भगवान माना गया इसके और आगे क्या इस पर चिंतन नहीं किया गया। राधा भाव द्वैतवाद का प्रतिपादन करता है। इसके अनुसार जीव भाव को सॉंद्रित कर एक विंदु पर एकत्रित कर दिया जाय तो उसे राधा भाव कहते हैं । जीव का यही भाव ‘‘इकाई मैं‘‘ कहलाता है इसे परम पुरुष की ओर आगे बढ़ाना होता है। 

नन्दू- इस प्रकार का आगे बढ़ते जाना समाप्त कब और कहॉं होता है? 

बाबा- जीवों का अस्तित्व एक बिदु में है यह समझने के लिये बिंदु की परिभाषा को याद रखना होगा कि बिंदु वह है जिसकी स्थिति तो होती है पर परिमाण नहीं। जब इकाई जीव का ‘मैं बोध‘ बढ़ने लगता है, जैसे, मैंने इतना ज्ञान प्राप्त कर लिया, मैं इतना धनवान हॅूं, मैं लोगों पर नियंत्रण कर सकता हॅूं आदि, पर उनका यह सब सोच एक बिंदु के चारों ओर ही होता है जिसकी स्थिति तो होती है पर परिमाण नहीं। जबकि परमपुरुष का परिमाण अमाप्य है, जो हम सोचते हैं वह भी और जो नहीं सोच पाते वह भी परमपुरुष है और ध्यान देने की बात यह है कि सार्वभौमिक केन्द्रक जो परमपुरुष की सार्वत्रिक उपस्थिति को नियंत्रित करता है वह भी एक बिंदु ही है। जीव भाव जब बिंदु के रूप में आ जाता है तो उसे राधा भाव कहते हैं, जो जीवों के अस्तित्व को प्रकट करता है। परम सत्ता का केन्द्रक भी एक बिंदु है और जीव का यह बिंदु इस परम सत्ता के पास अकेले ज्ञान और कर्म से नहीं वरन् भक्ति से आ पाता है । भक्ति को प्राप्त करने के लिये ज्ञानपूर्वक कर्म करना होता है। 

इन्दु- लेकिन आपने तो एक बार यह बताया था कि भक्ति के सहारे भक्त परम पुरुष की ओर बढ़ते हैं और जैसे जैसे वे उनके और निकट आते हैं वे अपना अस्तित्व खोकर उनके अस्तित्व मे मिल जाकर वही हो जाते हैं, एक हो जाते हैं तब द्वैत कहॉं बचता है?

बाबा- बिलकुल सही । देखो ! द्वैतवादी कहते हैं कि मैं हॅूं और मेरा स्वामी । मैं उनमें मिलना नहीं चाहता क्यों कि मैं शक्कर नहीं बनना चाहता, मैं तो शक्कर का स्वाद लेते रहना चाहता हॅूं। परंतु यह एक खतरनाक विचार है क्योंकि जब अधिक समय तक कोई किसी के अधिक निकट रहता है तो वह अपना अस्तित्व खो देता है, जब तक शक्क्र का स्वाद लिया जाता है तब तक दो सत्तायें रहती हैं, एक शक्कर और दूसरा स्वाद, पर ज्योंही शक्कर गले के आगे पेट में चली जाती है तब एक ही सत्ता बचती है दोनों एक ही हो जाते हैं। कोई भी शक्कर को अधिक देर तक स्वाद लेने के लिये जीभ पर रखे नहीं रह सकता। इसी प्रकार जब कोई परमपुरुष को अपनी शक्कर मानकर आगे बढ़कर पास पहुंचता है वह उनसे मिलकर एक ही हो जाता है। पहली अवस्था में एक धन एक बराबर दो, दूसरी अवस्था में एक धन एक बराबर एक और तीसरी अवस्था में एक धन एक बराबर क्या? पता नहीं। यही अंतिम अवस्था है।

रवि- परन्तु हम इसे बृजकृष्ण पर कैसे लागू कर सकते हैं?

बाबा- बृजकृष्ण एक केन्द्र हैं वह सब को अपनी ओर आकर्षित करते हैं और सभी जाकर उनके पास अपनत्व और महानता का अनुभव करते हैं। साधक जब सहस्रार में पहुंचता है तो वह परमपुरुष से गहरी निकटता का अनुभव करता है और वह अपना पृथक अस्तित्व नहीं रख पाता। अतः बृजकृष्ण और द्वैतवाद में बहुत अंतर है। 

चन्दू- तो क्या पार्थसारथी पर द्वैतवाद लागू हो सकता है ? 

बाबा- चलो पार्थसारथी को द्वैतवाद के परिप्रेक्ष्य में परखते हैं। किसी भी महापुरुष के व्यक्तित्व को परखने के लिये तीन बातों पर ध्यान देना आवश्यक होता है, 1.उसने क्या कहा है, 2.उसने क्या किया है (भले कुछ न कहा हो,) और 3.उसके चुप रहने से (भले ही उसने कुछ न कहा हो और कुछ न किया हो)। देखिये, पार्थसारथी ने क्या कहा है, ‘‘सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकम् शरणम् बृज। अहम् त्वॉम् सर्वपापेभ्यो मोक्षिस्यामी मा शुचः।‘‘ मनुष्य का मूल धर्म है परमपुरुष की ओर आनन्दपूर्वक जाना। जीवन के लिये भोजन, वस्त्र, आवास, चिकित्सा और शिक्षा जैसी अन्य आवश्यकताओं के लिये जो कर्म हैं वे सब उपधर्म हैं। अतः सर्वप्राथमिक धर्म है परमपुरुष की शरण में जाना फिर अन्य उपधर्मों में जुड़ना। जब जैव तत्व परमपुरुष की अधिक निकटता में आता है तो वह पृथक नहीं रह सकता एक ही हो जाता है, अतः पार्थसारथी का कहना है कि सब द्वितीयक धर्मां को प्राथमिकता न देकर प्राथमिक धर्म परम पुरुष की ओर आनन्दपूर्वक चलने का अभ्यास करो। इसकी चिंता न करो कि पूर्व में पाप हो गये हैं उनका क्या होगा ! मैं उन्हें क्षय कर दूॅंगा। कितनी बड़ी गारन्टी। यह न तो पूर्व काल में किसी महापुरुष ने कहा है और न भविष्य में कहेगा। इसी से प्रकट होता है कि वह क्या थे , वे साक्षात् परमपुरुष ही थे। केवल वह ,एकमेव, अद्वितीय।

राजू - आपने प्राथमिक और द्वितीयक नाम के नये धर्म बताकर थोड़ा कन्फ्यूज सा नहीं कर दिया ? 

बाबा- यथार्थतः प्राथमिक धर्म वही परमपुरुष हैं और उन्हें ‘एक‘  और अन्य द्वितीयक धर्म ‘शून्य‘ से प्रकट किये जाते हैं। हम जानते हैं कि यदि एक के बाद शून्य अंकित करते हैं तो उस संख्या का मान दस गुना बढ़ जाता है और यदि एक के पहले शून्य अंकित करते हैं तो संख्या अपरिवर्तित रहती है। अतः पहले प्राथमिक धर्म बाद में द्वितीयक धर्म का पालन करने पर ही जीवन में परमपुरुष की प्राप्ति हो सकेगी। प्राथमिक धर्म की ओर भी आनन्द पूर्वक बढ़ना होगा ‘‘बृज का अर्थ है आनन्द पूर्वक आगे बढ़ना‘‘ इसीलिये इसे बृज परिक्रमा कहते हैं। परम पुरुष का आश्रय प्राप्त करने के लिये उनकी ओर आनन्द पूर्वक बढ़ते जाना ही प्रारंभिक धर्म है अन्य सब द्वितीयक। इस प्रकार प्रारंभिक धर्म ‘परमपुरुष‘ को लक्ष्य रखकर द्वितीयक धर्मों के साथ जो लोग आगे बढ़ते जाते हैं उन्हें परमपुरुष अपने आपमें एकीकृत कर लेते हैं, यह पार्थसारथी की वचन है जो स्पष्टतः द्वैतवाद से पृथक है । 

रवि- तो क्या पार्थसारथी अद्वैतवादी हैं?

बाबा- हॉं उस प्रकार के अद्वैतवादी हैं जो प्रारंभ में अन्य सब जीवों का सापेक्षिक अस्तित्व मानते हुए अंत में अपनी अनन्त दिव्यता में उन्हें समाहित कर लेते हैं। अतः पार्थसारथी कृष्ण के व्यक्तित्व को द्वैतवाद के परिप्रेक्ष्य में परीक्षित करना ही निस्सार है।  

क्रमशः.... 


Sunday, 7 December 2025

452 बाबा की क्लास ( महासम्भूति श्रीकृष्ण- 9)

 पिछली क्लास से आगे.......

बाबा की क्लास ( महासम्भूति श्रीकृष्ण- 9)

रवि-    ब्रह्मॉंड में फैले पदार्थ और वनस्पति या जीवजन्तुओं सहित मनुष्यों के बीच कुछ अन्तर है या नहीं ? 

बाबा-   पदार्थ और चेतना में थोड़ा सा ही अंतर है, पदार्थों की संरचना के समय पड़ने वाले परस्पर दबाव और संघर्ष के परिणाम स्वरूप अर्थात् परमसत्ता की संचरक्रिया के समय, चित्त अथवा जड़ात्मक मन की उत्पत्ति होती है। यही जड़ात्मक मन, इकाई संरचना को प्रतिसंचर क्रिया के माध्यम से बहुकोशीय संरचनाओं तक ले जाकर ब्रह्मचक्र पूरा करता है। बहुकोशीय संरचना वाले मनुष्य का मन सूक्ष्म चिंतन कर सकने और उस परमसत्ता के आकर्षण से उच्चतर स्थितियों की ओर जाता है। लाखों वर्ष पहले मनुष्य ने धरती पर जन्म लिया और तब से अब तक बहुत परिवर्तन उसकी संरचना में होते गये और आगे भी होते जायेंगे। प्रकृति का यह अटल नियम है कि जो आया है उसे जाना ही पड़ेगा। 

राजू-     तो वह परमसत्ता मनुष्यों पर किस प्रकार नियंत्रण कर पाती है? 

बाबा-     मनुष्य की संरचना में पचास छोटेबड़े ग्लेंड्स या ऊर्जा केन्द्र हैं जो भीतर बाहर और दसों दिशाओं में सक्रिय रहते हैं, इस प्रकार सब मिलाकर एक हजार वृत्तियॉेंं को नियंत्रित करने के लिये पीनियल ग्लेंड या सहस्त्रार चक्र सक्रिय रहता है। हर ग्लेंड अपने से नीचे के ग्लेंड पर नियंत्रण करता है। मनुष्य की भाभुकता का नियंत्रण इकाई चेतना करती है और इन सभी इकाई चेतनाओं पर, परमचेतना इस सहस्रार चक्र से नियंत्रण रखती है।

इन्दु-    और सम्पूर्ण ब्रह्मांड पर नियंत्रण किस प्रकार होता है?

बाबा-   परमपुरुष समस्त ब्रह्मॉंड पर नियंत्रण करते हैं। सबके अपने अपने नियंत्रणकर्ता और आश्रय हैं। कोई भी निराश्रय नहीं है क्योंकि आश्रयहीनता का अर्थ है महामृत्यु। परंतु महामृत्यु नहीं होती रूपान्तरण होता रहता है। सभी जीव परम सत्ता के चारों ओर चक्कर लगाते हैं क्यों कि वे सब उनसे अकर्षित होते है। प्रकृति में भी अन्य पिंड अपने अपने नियंत्रक तारों से आकर्षक होकर  उनके चारों ओर चक्कर लगाते हैं। इस प्रकार सभी कार्बनिक और अकार्बनिक  पदार्थ और जीव, जानते हुए या अनजाने में  परम पुरुष के ही चक्कर लगाते हैं। जो सचेत हैं वे अपने प्रयत्नों  से अपने केन्द्र की ओर जाने की गति बढ़ाने का प्रयास करते हैं और अंत में अपने उद्गम परमपुरुष तक पहुॅंच जाते हैं, जो नहीं करते वे नकारात्मक प्रतिसंचर में जाकर केन्द्र से दूरी बढ़ाते जाते हैं और भटकते रहते हैं। 

नन्दू-   परन्तु हम तो कृष्ण को दर्शनों के परिप्रेक्ष्य में समझने का प्रयास कर रहे थे, वह भी अद्वैतवाद के विशेष प्रकारों के आधार पर?

बाबा-   हॉं, अब मूल विषय पर आया जाय। यद्यपि अभी जो चर्चा की गई है उसका सम्बन्ध भी किसी न किसी प्रकार से मूल विषय से आगे जुड़ ही जायेगा फिर भी विशुद्ध अद्वैतवाद और विशिष्ठाद्वैतवाद में अंतर यह है कि विशिष्ठाद्वैतवाद परिपक्व है इसने संसार को माया कहकर दूर नहीं फेका है। विशिष्ठाद्वैतवाद के अनुसार ब्रह्मॉंड के नियंत्रक के रूप में परम सत्ता को स्वीकार किया गया है परंतु इसके अंतर्गत महाविष्णुवाद जोड़ा गया है जो कहता है कि ब्रह्मॉंड के केन्द्र में परमपुरुष हैं जो हर प्रकार से पूर्ण, मधुर और साहसी हैं। वे कभी कभी शत्रुओं को मारने के लिये शस्त्र भी उठा लेते हैं, पर वे कोमल हृदय भी है अतः उन्हें नष्ट नहीं करते वरन् उन्हें अपने में सुधार  करने का अवसर भी देते हैं। उनसे अग्नि की सैकड़ों िंचगारियॉं निकलती रहती हैं, सभी जीवधारी यही चिंगारियॉं ही हैं, उन्हीं की प्रेरणा से सब जीव कार्य करते हैं। इन चिंगारियों को उन तक वापस लौटना आवश्यक नहीं है, पर कुछ लौट भी सकते हैं। परंतु बृजकृष्ण तो सभी को अपनी ओर बुलाते हैं वे कहते हैं कि आओ मेरे और निकट आओ मैं तुम्हारा हॅूं और तुम हमारे। तुम्हारा भविष्य उज्जवल है। अतः बृजकृष्ण, महाविष्णुवाद के विपरीत हैं। इसलिए विशिष्ठाद्वैतवाद भी बृज कृष्ण के साथ संबंधित नहीं किया जा सकता क्योंकि जो भी उनके निकट आता है वह उन्हीं में मिल जाता है, उसका व्यक्तिगत अस्तित्व उन्हीं की आभा में मिलकर एक हो जाता है भले वह आज न हो सौ वर्ष बाद हो पर होगा अवश्य। पर विशिष्ठाद्वैतवाद के अनुसार जीवों का वापस आना अनिवार्य नहीं है।

चन्दू-   तो पार्थसारथी का विशिष्ठाद्वैतवाद के साथ सम्बन्ध जोड़ा जला सकता है या नहीं?

बाबा-   अच्छा, अब पार्थसारथी को इस परिप्रेक्ष्य में देखें। सामान्यतः लोगों में नया और अद्भुद करने का पर्याप्त साहस नहीं होता परंतु यदि कोई व्यक्ति इस प्रकार के सर्वजनहिताय कार्य को करने का साहस करता है तो अन्य सद्गुणी व्यक्ति भी उसे सहायता करने लगते हैं। पार्थसारथी के पास यह आदर्श गुण था कि वे समाज के हित में जो भी उत्तम होता उसे अवश्य ही करते थे। लोगों की भावनाओं और आशाओं , अपेक्षाओं को पूरा करने का सद्गुण उनमें था। सद्गुणी लोगों की अपेक्षायें भी पवित्र होती हैं, इन्हें पूरा करने का कार्य कौन कर सकता है? परमपुरुष। पार्थसारथी इन पवित्र लोगों के मन ही चुरा लेते थे और वे आज भी यह करते हैं। महाविष्णुवाद के अनुसार उनसे चिनगारियॉं निकलने के बाद अपने श्रोत में कभी नहीं लौट पाती, पर पार्थसारथी की शिक्षा अच्छे बुरे सभी प्रकार के मनुष्यों को आध्यात्मिक प्रगति को ओर ले जाकर उनके मूल श्रोत तक पहुंचाने के लिये है। वे कहते हैं कि चाहे कोई कितना ही दुराचारी क्यों न हो, यदि वह अनन्य भाव से मेरी ओर आता है तो मैं उसे पाप से मुक्त करता हॅूं, धर्म की संस्थापना और दुष्टों का विनाश करने और साधुओं की रक्षा करने के लिये बार बार आता हॅूं। अर्थात् वे विनाश की बात तो करते हैं परंतु प्रणाश की नहीं जबकि महाविष्णुवाद प्रणाश का समर्थन करता है। विनाश का अर्थ है कि संबंधित को उचित परिस्थितियॉं देकर आगे बढ़ने का अवसर देना जबकि प्रणाश का अर्थ है सम्पूर्णतः नष्ट करना। जब एक युग समाप्त हो रहा होता है और दूसरे का प्रारंभ होने को होता है तो बीच के समय अर्थात् संधी काल में लोग अनिर्णय की स्थिति में होते हैं, वे नहीं समझ पाते कि क्या सही है और क्या गलत क्योंकि एक प्रकार के मूल्य समाप्त हो रहे होते हें और दूसरे प्रकार के स्थापित हो रहे होते हैं। इस अवस्था में पार्थसारथी जैसे बहादुर और कुशाग्र बुद्धि के व्यक्तित्व की समाज को आवश्यकता होती है जो उसे उचित दिशा दे सके। पार्थसारथी अपने भक्तों को अपनी ओर आकर्षित कर उनकी आशाओं के अनुरुप संरक्षण देते हैं और समाज को दूषित करने वाले दुष्टों को दंड देते हैं ताकि वे सही रास्ते पर आ सके, उनका भी वे प्रणाश नहीं करते। इस तरह विशिष्ठाद्वैतवाद और पार्थसारथी कृष्ण में कोई संबंध स्थापित नहीं किया जा सकता। 

क्रमशः ..


Tuesday, 2 December 2025

451 बाबा की क्लास ( महासम्भूति श्रीकृष्ण- 8)

 पिछली कक्षा के आगे....

बाबा की क्लास ( महासम्भूति श्रीकृष्ण- 8)


नन्दू- परन्तु इसके बाद आए अनेक दर्शनों में कृष्ण का स्थान कहॉं पर आता है?

बाबा- यद्यपि प्रचलित दार्शनिक सिद्धान्त कृष्ण के बहुत बाद में अस्तित्व में आये परंतु उनकी दोनों भूमिकाओं की परख इन दर्शनों के आधार पर करने के लिये क्रमानुसार विश्लेषण करना उचित होगा। जैसे, विशुद्ध अद्वैतवाद या मायावाद को प्रारंभ में उत्तरमीमॉंसा के नाम से जाना जाता था जो वादरायण व्यास के द्वारा प्रतिपादित हुआ और बाद में शंकराचार्य ने विस्तारित किया। इसके अनुसार ‘‘ब्रह्म सत्य है , जगत मिथ्या और जीव भी ब्रंह्म से भिन्न नहीं है।‘‘ इसके विश्लेषण और व्याख्या करने वाले तार्किक कहते हैं कि यह किसी भी प्रकार अद्वैत नहीं वरन् द्वैत है क्योंकि यदि अद्वैत का कोई प्रमाण है तो वह क्या है? और यदि नहीं है तो फिर अद्वैत क्या है? यदि वह माया है तो भी वह ब्रह्म से भिन्न होकर दूसरा कुछ हुआ अतः फिर भी अद्वैत कहॉ? फिर कहते हैं कि माया के कारण पदार्थों में भेद होने से अनेकता दिखाई देती है। इस प्रकार अपने आप में उलझा यह दर्शन सॉंख्य और न्याय दर्शन के अनुसार जीव और परमपुरुष की पृथकता को स्वीकार करेगा अर्थात् ब्रंह्म और जीव में कोई आकर्षण नहीं होगा, जो कि सामान्य वैज्ञानिक सिद्धान्त के विपरीत होगा। 


राजू- तो क्या इस सिद्धान्त के आधार पर बृजकृष्ण की भूमिका को नहीं समझाया जा सकता ?

बाबा- ठीक है बृजकृष्ण की भूमिका को लेते हैं। बृजकृष्ण तो अद्वैत के ब्रह्म और संसार के जीव भी नहीं  हैं, वह तो इन दोनों से ऊपर स्वयं पुरुषोत्तम है, वे जाने अनजाने सब को अपनी ओर आकर्षित करते हैं, लोग उनके बिना रह नहीं सकते। ब्रह्मॉंड में भी सभी एक दूसरे को आकर्षित किये हुए हैं और यदि इस आकर्षण में थोड़ा सा भी परिवर्तन हो जावे तो समग्र ब्रह्मॉंड का संतुलन बिगड़ जावेगा। बृजकृष्ण का यह प्रदर्शन विशुद्ध अद्वैतवाद के ब्रह्म और जीव की एकता के विपरीत है। परमपुरुष सभी जीवों को आकर्षित करते हैं और जीव उनमें ही आश्रय पाकर उनके चारों ओर चक्कर लगाते हैं, जैसे जैसे केन्द्रभिसारी बल के प्रभाव से जीव ब्रह्म के पास आते जाते हैं उनमें भक्ति जाग्रत हो जाती है और उनके बीच का अन्तर घटता जाता है। निकट आने पर जीव अनुभव करता है कि कृष्ण कोई व्यक्ति नहीं है वह तो भावस्वरूप हैं जो मनोआत्मिक समान्तरता से प्राप्त होते है । भक्ति का आवेग और बढ़ने पर अनुभव होता है कि कृष्ण तो जीवों के जीवन हैं और उनके बिना जीवों का कोई अस्तित्व नहीं ,वे हैं अतः अन्य सब हैं। इस प्रकार हम देखते हैं कि बृज कृष्ण के सामने इस दर्शन का महत्व नहीं रह जाता है। अतः विशुद्ध अद्वैतवाद जैसे दोषपूर्ण दर्शन से उन्हें किस प्रकार समझा जा सकता है? 


इन्दु- परन्तु मायावाद तो कुछ प्रकाश डाल सकता है कि नहीं?

बाबा- इसी के साथ मायावाद की भी चर्चा की जाती है। ध्यान देने की बात यह है कि जितने भी उदाहरण मायावदियों ने माया के समर्थन में दिये हैं वह सब इस जगत के ही हैं जबकि वे इस जगत को मिथ्या कहते हैं। जबकि वास्तविकता यह है कि सॉंसारिक वस्तुऐं  सदा एकसी नहीं रहती समय के साथ वे बदलती रहती हैं इसीलिये संसार को जगत कहते हैं अर्थात् जो गतिशील है रुका नहीं है। बृजकृष्ण के लिये सारा संसार मधुर है वे प्रत्येक अणु और परमाणु सहित सब जीवों को अपनी ओर बॉंसुरी के स्वर से आकर्षित करते हैं । जबकि मायावादी, शब्दों के जादू से जगत को ही झूठा सिद्ध करते हैं। बृज कृष्ण के लिये कोई छोटा या बड़ा नहीं वे जो कृष्ण का मनन करते हैं तत्काल उनकी बॉंसुरी सुनते है पर जो सांसारिकता में उलझे रहते हैं वे नहीं। यथार्थ यह है कि यह संसार भी सापेक्षिक सत्य है और माया भी परम पुरुष की माया है। ब्रह्म के चारों ओर घूमते हुए सभी पर केन्द्राभिसारी अर्थात् केन्द्र की ओर और केन्द्रापसारी अर्थात् केन्द्र से बाहर की ओर बल लगते हैं। केन्द्र के बाहर की ओर जो बल लगता है उसे अविद्यामाया और भीतर की ओर जो बल लगता है उसे विद्यामाया कहते हैं। अविद्यामाया विक्षेप और आवरणी शक्ति से जीवों को परमपुरुष के केन्द्र से दूर ले जाती है और विद्यामाया संम्बित और ह्लादनी शक्ति से परमपुरुष की ओर खींचती है। इस तरह वे पृथक नहीं वरन् संतुलन बनाये रखने के लिये आवश्यक हैं। अतः परमपुरुष और उनकी माया अलग अलग नहीं हैं, जो परमपुरुष को चाहते हैं वे माया के प्रभाव में नहीं पड़ते। इस तरह हम देखते हैं कि विशुद्ध अद्वैतवाद व्यावहारिक या आध्यात्मिक रूप से महत्वहीन हो जाता है अतः बृजकृष्ण के सामने नगण्य प्रतीत होता है। 


चन्दू- तो पार्थसारथी की भमिका क्या मायावाद के अनुकूल हो सकती है?

बाबा- जहॉं तक पार्थसारथी का प्रश्न है वह तो अत्यंत सक्रिय और व्यावहारिक हैं जब कि मायावाद या विशुद्ध अद्वैतवाद तो इसके बिलकुल ही विपरीत है।  पार्थसारथी ने अपना अधिकतम समय और ऊर्जा का उपयोग भोजन, वस्त्र, आवास, शिक्षा और चिकित्सा के क्षेत्र और मानसिक तथा आध्यात्मिक क्षेत्र में सभी लोगों की उन्नति के लिये किया। शॉंति और प्रगति के लिये उन्होंने विवेकी राजाओें और साधारण नागरिकों को एक ही प्लेटफार्म पर लाकर धर्मराज्य की स्थापना की। अतः मायावाद के अनुसार उनके व्यक्तित्व को हम कैसे नाप सकते हैं? वह तो वैसा ही होगा जैसे, इंचीटेप से दूध को नापना। पार्थसारथी कृष्ण सार्वभैमिक सत्ता, परमपुरुष थे। मानसिक संसार में भी हजारों भावनायें और अनुभूतियॉं होती हैं वे इन्हीं परमपुरुष से ही प्रेरणा पाती हैं। एक अन्य संसार होता है वह है आध्यात्मिक संसार । किसी का आध्यात्मिक स्तर कितना ही क्यों न हो उसके हृदय में हीरे की तरह चमकती एक इकाई चेतना रहती है इसे भी परमपुरुष से ही प्रेरणा प्राप्त होती है। परंतु मायावाद कहता है पिता नहीं, माता नहीं, कैसे भाई कैसे मित्र? अतः मायावाद के अनुसार पार्थसारथी को परखने का प्रयास करना ही व्यर्थ है क्योंकि जब इन सब का अस्तित्व ही नहीं है तो उनमें पारस्परिक भौतिक, मानसिक या आध्यात्मिक संबंधों  के होने अथवा वे कहॉं से आये हैं इसका कोई महत्व ही नहीं है।


राजू- अर्थात् पार्थसारथी ने तात्कालिक किसी भी दर्शन को आधार नहीं बनाया?

बाबा-पार्थसारथी का उद्गम वैदिक युग की समाप्ति के बाद हुआ जब अवसरवादियों के द्वारा मानवता का शोषण किया जाना चरम सीमा पर था, उस समय यह मायावाद सिखाना सार्थक होता या कराहती मानवता के ऑंसू पोंछना? पार्थसारथी ने पलायनवाद नहीं सिखाया वरन् वह सब की भलाई के लिये सब को एकत्रित करके शोषण के बिरुद्ध संघर्ष करने के लिये कटिबद्ध रहे हैं। अतः मायावाद की शिक्षायें पार्थसारथी की शिक्षाओं से विपरीत हैं। पार्थसारथी ने सिखाया कि शरीर और ऊर्जा में पारस्परिक संबंध है उसे मजबूत कर मानवता को हानि पहुचाने वाली शक्तियों के विरुद्ध संग्राम करो वे हमेशा उनके साथ हैं। मायावाद उपाधिवाद को भी स्थापित करता है जो भावजड़ता का ही पोषक है। पार्थसारथी ने धर्मराज्य की स्थापना के साथ मानसिक मुक्ति की भी शिक्षा दी। उन्होंने बताया कि अवसरवादियों के द्वारा अतार्किक, अमनोवैज्ञानिक और अविवेकपूर्ण विचारों को मन में संक्रमित कर दिया जाता है जिससे वे अनन्त काल तक जनसामान्य का शोषण करते रहें। जैसे, सब लोग जानते हैं कि महामारी/बीमारी का इलाज दवाईयों से होता है पर इन संक्रमित किये गये डागमेटिक विचारों से लोग देवी देवताओं की पूजा करके इसे दूर करना चाहते हैं और  सबको तथाकथित प्रसाद बॉंटकर महामारी को उनके घर तक पहुंचा देते हैं। इसलिये पार्थसारथी ने स्पष्ट कहा कि इस प्रकार की मानसिक बीमारियों को पनपने ही न दो। इस प्रकार पार्थसारथी मायावाद या उपाधिवाद या विशुद्ध अद्वैतवाद के विपरीत थे।

क्रमशः ....


Saturday, 29 November 2025

450 बाबा की क्लास ( महासम्भूति श्रीकृष्ण- 7)

 पिछली क्लास से आगे...

बाबा की क्लास ( महासम्भूति श्रीकृष्ण- 7)


राजू- सॉंख्य दर्शन में क्या कहा गयाहै?

बाबा-सॉंख्य दर्शन के अनुसार इस संसार की संरचना कुल मिलाकर चौबीस तत्वों से हुई है और इन पर नियंत्रण करने के लिये जन्यईश्वर और समग्र कार्यों को सम्पन्न करने के लिये प्रकृति को उत्तरदायी माना गया है। जन्य इंर्श्वर या पुरुष को केवल उत्प्रेरक की तरह निष्क्रिय माना जाता है जैसे मकरध्वज का निर्माण करते समय स्वर्ण। 


नन्दू- तो क्या कृष्ण को इस मत  के अनुसार जन्यईश्वर कहा जा सकता है?

बाबा- इस दर्शन के प्रकाश में बृज कृष्ण को देखें तो हम पाते हैं कि यहॉं पुरुष तो केवल एक ही है और प्रकृति अर्थात् जीव अनेक । जब जीव का मन एक केन्द्रित होता है तो वे केवल परमपुरुष की ओर ही दौड़ पड़ते हैं। इकाई मन में केवल परमपुरुष के प्रति आकर्षण होना राधा भाव कहलाता है। बृज कृष्ण की ओर सभी दौड़ पड़ते थे और अनुभव करते थे कि वे उनके बिना एक क्षण भी नहीं रह सकते, यह थी उन की आराधना और अंतर्निहित भाव था राधा भाव। राधा भाव, बृज कृष्ण के अलावा और कहीं दिखाई नहीं देता। 


चन्दू- तो आपके अनुसार बृज कृष्ण सॉख्य दर्शन के अनुकूल हैं?

बाबा- बृजकृष्ण सान्त्वना के साक्षात् स्वरूप थे जो कि तारक ब्रह्म का ही लक्षण है और यह सॉंख्य दर्शन में कहीं  भी दिखाई नहीं देता। सॉंख्य का पुरुष अक्रिय जबकि बृजकृष्ण सदैव सक्रिय, बिना किसी भेदभाव के वे सबको पास बुलाते और उन्हें मधुरता का अनुभव कराते । उनमें जैवधर्म, मानव धर्म और भागवत धर्म का समन्वय कराते। सभी कृष्ण के साथ रहना चाहते, वे अपने आपको भूलकर केवल कृष्ण को पाकर अपने सब दुखदर्द और शंकायें, समस्यायें सब भूल जाते।


रवि- लेकिन बृज कृष्ण की गतिविधियों को तो उनकी बाल लीलाओं में ही गिना जाता है?

बाबा- बृज कृष्ण के समय में ही भक्ति का उद्गम हुआ। भिन्न भिन्न लोगों ने अपने अपने संस्कारों के अनुसार एक ही कृष्ण को अलग अलग मधुरभाव से चाहा जैसे नन्द और यशोदा ने वात्सल्य भाव से जबकि उनके वास्तविक पिता बसुदेव देवकी को यह अवसर प्राप्त नहीं हुआ। गोप गोपियों को मित्र भाव में , राधा ने मधुर भाव में अनुभव किया। बृज कृष्ण के पहले किसी ने भी इस मधुर भाव की अनुभूति नहीं कराई । इस तरह हम देखते हैं कि बृजकृष्ण सॉंख्यदर्शन से बहुत ऊपर हैं, सॉंख्य दर्शन में उन्हें नहीं बॉंधा जा सकता। 


इन्दू-  तो क्या पार्थ सारथी की भूमिका सॉंख्य दर्शन के अनुकूल मानी जा सकती है?

बाबा- यह जानने के लिये यह ध्यान में रखना होगा कि सारथी का अर्थ रथ चलाने वाला नहीं वरन् ‘‘बुद्धिंतु सारथिम् विद्धि‘‘  से लिया गया बुद्धि तत्व है, पार्थसारथी की बुद्धि से ही जगत के सब मनुष्य बुद्धि पाते हैं। मनुष्य का अर्थ केवल मानव शरीर होना नहीं है। वरन् मूलभूत आवश्यकताओं के लिये संघर्ष करने के साथ मन का होना भी है जो अन्ततः आत्मा से ही प्रेरणा पाता है। जीवन के उतार चढाव़, सुखदुख और संघर्ष में सही दिशा देना किसका काम है? इस स्तर की बौद्धिक क्षमता किसके पास है? एक ही स्थान पर यह सब जहॉं पाया जा सकता है वह पार्थसारथी  के अलावा कोई नहीं है । सॉंख्य का पुरुष अक्रिय है जबकि पार्थसारथी की सक्रियता ने लोगों की जीवन पद्धति में आमूलचूल परिवर्तन कर दिया, महाभारत का युद्ध, जन सामान्य को अनुशासित रहने की शिक्षा और कर्म की ओर प्रेरित कर लोक शिक्षा देना जैसे सक्रिय कार्य सॉंख्य के जन्यईश्वर में कहीं दिखाई नहीं देते। अतः इस अद्वितीय व्यक्तित्व को किसी दर्शन में क्या बॉंधा जा सकता है? पार्थसारथी यद्यपि राजाओं से ही मेल मिलाप करते थे पर उनके मनमें हमेशा जनसामान्य के सुख दुख और मौलिक आवश्यकताओं की पूर्ति करने के विचार रहते थे जिन्हें मूर्तरूप देने में वे हमेशा सक्रिय रहते थे । मानवता की रक्षा के लिये उन्होंने धर्मराज्य की स्थापना की । इसके लिये उन्होंने नैतिक और अनैतिक राजाओं का ध्रुवीकरण कर धर्मयुद्ध कराया और जन सामान्य की नैतिक मूल्यों में आस्था को स्थापित किया।  वे ओत और प्रोत योग से सामूहिक और व्यक्तिगत रूपसे सब से जुड़े रहे जो बच्चों का खेल नहीं है। अतः सॉंख्य के जन्यईश्वर या पुरुष, पार्थसारथी जो कि पुरुषोत्तम थे, के समक्ष कहीं नहीं टिकते ।

क्रमशः...

Wednesday, 26 November 2025

449 बाबा की क्लास ( महासम्भूति श्रीकृष्ण- 6)


पिछली क्लास से आगे...

449 बाबा की क्लास ( महासम्भूति श्रीकृष्ण- 6)

रवि- लेकिन आपने तो बताया था कि कृष्ण से पहले सदाशिव ने तन्त्र की व्यवहारिकता का ज्ञान समाज को दिया था, तो क्या वह कपिल के प्रपत्तिवाद से पृथक था?

बाबा- सत्य है, तंत्र के प्रवर्तक हैं भगवान ‘‘सदाशिव‘‘। स्थानीय रूप से इसमें दो भाग हैं एक गौड़ीय और दूसरा कश्मीरी। गौड़ीय में व्यावहारिकता अधिक और कर्मकॉंड शून्य है जबकि कश्मीरी में कर्मकॉंड अधिक और व्यावहारिकता कम। व्यावहारिकता के परिप्रेक्ष्य में विश्लेषण करने पर पता चलता है कि तंत्र के पॉंच विभाग हैं, शैव, शाक्त, वैष्णव, सौर एवं गाणपत्य। कहा जाता है कि शैवतंत्र में ज्ञान और सामाजिक चेतना पर अधिक जोर दिया जाता है, शाक्त तंत्र में शक्ति को प्राप्त कर उसे न्यायोचित ढंग से प्रयुक्त करने पर जोर रहता है, वैष्णवतंत्र में मधुर दिव्यानन्द को प्राप्त करने की ओर बल दिया जाता है पर सामाजिक चेतना की ओर कम, सौर तंत्र में चिकित्सा और ज्योतिष को ही महत्व दिया जाता है तथा गाणपत्य तंत्र में विभक्त समाज के गुटों को एकीकृत रहकर आगे बढ़ने को प्रोत्साहित किया जाता है। जहॉं तक प्रपत्ति का प्रश्न है वैष्णव तंत्र में बृज कृष्ण की तरह, दिव्यानन्द की मधुरता का स्वाद लेने को दौड़ना स्पष्टतः दिखाई देता है। इस अवस्था में ज्ञान और कर्म की कठिनाई से लड़ना संभव नहीं है। 

राजू- क्या कृष्ण का ज्ञानमार्ग, शैवतंत्र के ज्ञान मार्ग और वैष्णवतंत्र के मधुर दिव्यानन्द से कुछ समानता रखता है या नहीं ?

बाबा- पार्थसारथी कृष्ण ने अर्जुन को अपने प्रकॉंड ज्ञान का दर्शन कराया पर उसमें नकारात्मकता या पलायनवाद कहीं पर नहीं था। उन्होंने बताया कि जीवधारी विशेषतः मनुष्य दो संसारों में जीते हैं, एक संसार उनके छोटे ‘मैं‘ का और दूसरा परम पुरुष का। वह अपने छोटे संसार का स्वमी होकर अनगिनत आशायें और अपेक्षायें पाले रहता है पर ये सब उसी प्रकार होतीं हैं जैसे एक छोटा सा बुलबुला महॉंसागर में तैरता है। इस छोटे से बुलबुले की इच्छायें तभी पूरी हो सकती हैं जब वह परमपुरुष के संसार अर्थात् महासागर में अपने को मिलाकर आपना पृथक अस्तित्व समाप्त कर देता है अन्यथा नहीं। स्पष्ट है कि मनुष्य की इच्छाओं की तरंगें जब तक परमपुरुष की इच्छातरंगों से मेल नहीं करती उनका पूरा होना संभव नहीं है। यह पूर्णप्रपत्ति है पर जब प्रारंभ में वे ज्ञान और दर्शन का विवरण प्रस्तुत करते हैं तो यही बात विप्रपत्ति जैसी अनुभव होती है, पर जब वह समझाते हैं कि सब कुछ तो उन्होंने ही योजित कर रखा है तो यह अप्रपत्ति की तरह लगता है और जब वे कहते हैं कि तुम्हारी इच्छा का कोई मूल्य नहीं मैं ही सब कुछ करता हॅूं तब वह स्पष्टतः प्रपत्ति ही है। मामेकम शरणम् व्रज , यह कहने पर तो सब कुछ प्रपत्ति का ही समर्थन हो जाता है।

इन्दु- तो क्या शैवतंत्र का दार्शनिक ज्ञान और वैष्ण्वों की प्रपत्ति दर्शन क्या भिन्न हैं? 

बाबा- शैवों का दर्शन ज्ञान, लक्ष्य को प्राप्त कराने के लिये विभिन्न सकारात्मक और नकारात्मकताओं में संघर्ष करने और कार्य कारण सिद्धान्त के विश्लेषण के आधार पर आगे बढ़कर लक्ष्य तक ले जाने की बात कहता है अतः प्ररंभ में विप्रपत्ति प्रतीत होती है पर अंत में जब लक्ष्य प्राप्त हो जाता है तब न तो अप्रपत्ति न प्रपत्ति और न ही विप्रपत्ति बचती है।

चन्दु- आपने शिव को तारक ब्रह्म कहा है, इस पद का अर्थ क्या है?

बाबा- अपनी असाधारण बुद्धि, व्यक्तित्व, चतुराई और संगठनात्मक क्षमता के कारण जो समग्र समाज का नेतृत्व  करते हैं वे समाजप्रर्वतक कहलाते हैं। वे, जो कुल अर्थात् तंत्र साधना कर अन्तर्ज्ञान के सहारे सूक्ष्म ऋणात्मकता को विराट धनात्मकता में बदलकर अपने इकाई मन को परमसत्ता के  मन के स्तर तक ऊंचा कर सकते हैं कौल कहलाते हैं। वे, जो अपने अभ्रान्त ज्ञान के मार्गदर्शन से दूसरों को कौल बना देते हैं वे महाकौल कहलाते हैं। परंतु तारक ब्रह्म इन सबसे भिन्न विशेष सत्ता होते हैं जो एकसाथ समाज प्रवर्तक, आध्यात्मिक प्रवर्तक, कौल और महाकौल सबकुछ होते हैं इतना ही नहीं वह इन सब से भी अधिक होते हैं वे समाज के प्रत्येक भाग के लिये दिशानिर्देशक की तरह कार्य करते हैं। भगवान सदाशिव तारक ब्रह्म थे। क्रमश:......


448 बाबा की क्लास ( महासम्भूति श्रीकृष्ण- 5)

 पिछली क्लास से आगे....


448 बाबा की क्लास ( महासम्भूति श्रीकृष्ण- 5)


राजू- क्या कृष्ण के समय तक दर्शन अर्थात् फिलासफी का उद्गम हो चुका था?

बाबा- भारतीय दर्शन के मान्यता प्राप्त प्रथम दार्शनिक कपिल शिव के बहुत बाद में और कृष्ण के कुछ समय पहले हुए। उन्होंने बताया कि विश्व की उत्पत्ति और विकास चौबीस तत्वों से हुआ है और उन्हें नियंत्रित करने वाली सत्ता हैं ‘‘जन्यईश्वर‘‘। संख्या से संबद्ध होने के कारण इसे सॉंख्य दर्शन कहा गया है।


रवि- तो क्या उस समय के विद्वानों ने उनकी इस बात को स्वीकार कर लिया?

बाबा-  कपिल ने जन्यईश्वर के संबंध में कुछ स्पष्ट नहीं कह पाया इसलिये कुछ लोगों ने इसका विरोध प्रारंभ कर दिया और तर्क दिया कि जिसकी इच्छा से पत्ता भी नहीं हिल सकता कपिल उनके बारे में कैसे बोल सकते हैं । अतः नयी विचारधारा का जन्म हुआ इसे प्रपत्तिवाद के नाम से जाना जाता है, जिसका अर्थ्ा है परम सत्ता के प्रति सम्पूर्ण समर्पण कर स्वयम् को उनके हाथों का खिलौना समझना। मानव बुद्धि और अन्तर्ज्ञान के क्षेत्र में एक उत्तम विचार है ‘‘प्रपत्ति‘‘ का। निश्चय ही इसी के साथ इसका विरोधी पक्ष विप्रपत्ति लेकर आया और जो उदासीन रहे वे अप्रपत्ति की विचारधारा को मानने लगे।


इन्दु- तो क्या कृष्ण के समय तक यह दर्शन स्थापित हो चुका था या समाप्त हो चुका था या कृष्ण ने अलग कोई अपना दर्शन प्रस्तुत किया ?

बाबा- कृष्ण का आगमन इसी प्रकार के दार्शनिक वातावरण में हुआ । यद्यपि वे कोई दार्शनिक नहीं थे पर बृजकृष्ण और पार्थसारथी दोनों की भूमिकाओं में वे एक सक्रिय और व्यावहारिक व्यक्तित्व थे।  यहॉं यह याद रखने योग्य है कि भागवतशास्त्र जिसमें प्रपत्तिवाद को प्रत्यक्ष या परोक्ष रूपमें कृष्ण से समर्थित बताया गया है वह कृष्ण के बहुत बाद में अस्तित्व में आया।  बृजकृष्ण ने मौखिक रूप से प्रपत्ति, ज्ञान या कर्म के पक्ष या विपक्ष में कुछ नहीं कहा, पर उनकी सब गतिविधियॉं और कार्यव्यवहार संपूर्ण प्रपत्ति का द्योतक है। वास्तव में विराट के आकर्षण से भक्त का मन खि्ांचकर अनुनादित हो जाता है और फिर वह उनके बिना नहीं रह सकता। बृज कृष्ण की बॉंसुरी सुनकर सभी लोग उन की ओर ही दौड़ पड़ते थे उन्हें लगता था कि वह बॉसुरी उनका नाम लेकर पुकार रही है, फिर दौड़ते भागते रास्ते में क्या है पत्थर या कॉंटे उन्हें कोई ध्यान नहीं रहता था, यह प्रपत्ति नहीं तो और क्या है। इस प्रकार लोग आगे बढ़ते गये। पर पार्थसारथी ने कहा कि तुम्हें हाथ पैर दिये गये हैं शरीर दिया गया है, यह सबसे अच्छी मशीन है इसका अधिकतम उपयोग करो, कर्म करो परंतु फल की इच्छा मत करो। कर्म करना तुम्हारा जन्मसिद्ध अधिकार है , यदि फल पाने में असफल होते हो तो भी चिंता की बात नहीं है क्यों कि फल देना तुम्हारे हाथ में नहीं है। फल की चिंता करते हुए किये गये कार्य में सफलता मिलना संदेहपूर्ण होता है। यह क्या है ? कर्मवाद। अतः पार्थसारथी यहॉं फिर बृजकृष्ण से अलग हैं।


चन्दू- प्रश्न उठता है कि क्या पार्थसारथी का कर्मवाद प्रपत्ति के पक्ष में है या विपक्ष में? 

बाबा- यदि हम ध्यान से सोचें तो स्पष्ट होगा कि यह हाड़ मास का तन, मन ,मस्तिष्क और आत्मा सब कुछ परमपुरुष से ही अपना उद्गम पाते हैं। अतः यदि हम शरीर मन और आत्मा जो कि परम पुरुष के द्वारा दिये गये उपहार हैं, को उपयोग में लाते हैं तो हम प्रपत्ति का ही अनुसरण करते हैं। क्योंकि यदि उन्होंने इससे भिन्न सोचा होता तो इनके स्थान पर और कुछ होता क्यों कि सब कुछ तो उन्हीं की इच्छा से होता है। अतः जब उन्होंने कृपा कर यह मन बुद्धि और आत्मा के उपहार हमें दिये हैं तो उनका उचित उपयोग करना प्रपत्ति के अनुकूल ही है। इस प्रकार कर्म प्रारंभ में तो प्रपत्ति के प्रतिकूल जाता प्रतीत होता है पर वह उसका शत्रु नहीं वरन् उसके अनुकूल ही है। यदि बृज कृष्ण की बॉसुरी के आनन्द उठाते समय कोई अकृपा का स्थान नहीं है तो पार्थसारथी के कर्मयोग की पुकार में भी अक्रियता के लिये कोई स्थान नहीं है। क्रमशः....


447 बाबा की क्लास ( महासम्भूति श्रीकृष्ण- 4)

 पिछली क्लास से आगे......


447  बाबा की क्लास ( महासम्भूति श्रीकृष्ण- 4)


रवि - क्या बृजकृष्ण और पार्थसारथी कृष्ण दोनों ने इन छहों स्तरों पर भक्तों को अपनी अनुभति कराई है?

बाबा - बृजकृष्ण और पार्थसारथी कृष्ण दोनों ने सार्ष्ठी को अनुभव कराया पर बृजकृष्ण ने जहॉं मधुर भाव से सालोक्य से सार्ष्ठी तक क्रमशः प्रगति कराई वहीं पार्थसारथी ने सामाजिक चेतना और कर्मयोग के माध्यम से पराक्रम और समर्पण आधारित सालोक्य से सीधे ही सार्ष्ठी उपलब्ध करा दी। इस मामले में बृज कृष्ण यदि आम के फल हैं तो पार्थसारथी बेल के फल। बेल, आम की तुलना में पेट के लिये अधिक गुणकारी होता है परंतु स्वाद में आम की तुलना में कम मीठा होता है और तोड़कर खाने में आम की तुलना में अधिक पराक्रम करना पड़ता है। दोनां का ही उद्देश्य परम पुरुष की ओर ले जाने का है पर एक की विधि कोमलता और मध्ुरता भरी है तो दूसरे की कठिनाई भरी। 


नन्दू - यह स्थितियाँ तो दार्शनिक अधिक लगती हैं क्या इसे वैज्ञानिक आधार प्राप्त है?

बाबा - हॉं, एक बात ध्यान देने की है वह यह कि विश्व में जो भी व्यक्त रूप में आया है वह अपनी विशेष तरंग दैर्घ्यां से युक्त होता है, इन सभी छः स्तरों की अनुभूति तभी होती है जब साधक अभ्यास करते करते  अपनी तरंग दैर्घ्य को सूक्ष्म बनाकर बिलकुल सरल रेखा में ले आता है इस अवस्था में भक्त, पार्थसारथी को भी अपना निकटतम मित्रवत अनुभव करने लगता है। जब किन्हीं दो व्यक्तियों के बीच स्नेह का बंधन इतना प्रगाढ़ होता है कि वे एक दूसरे का विछोह क्षण भर भी नहीं सह सकते तो उन्हें बंधु कहते हैं। जब दो व्यक्ति हमेशा एक सी विचारधारा के होते हैं और किसी भी विषय पर मतभिन्नता नहीं होती तो वे सुहृद, जब दो व्यक्ति एक से व्यवसाय या काम से जुड़े होते हैं तो वे मित्र और जब प्रगाढ़ता और निकटता इतनी होती है कि उनके प्राण भी एक जैसे दिखाई देते है तो उन्हें सखा कहते हैं। कृष्ण अर्जुन के सखा थे। अर्जुन ने ही वास्तविक कृष्ण को क्रमागत रूपसे सालोक्य से सार्ष्ठी तक पाया परंतु उन्हें अपार शारीरिक और मानसिक कष्ट सहना और अथक पराक्रम करना पड़ा। 


चन्दू- कृष्ण की इन दोनों भूमिकाओं में सार्ष्ठी का अनुभव करने वाला भक्त क्या हर स्तर पर एक समान अनुभव करता है या भिन्न भिन्न?

बाबा- बृज कृष्ण अपनी बॉंसुरी के मधुर स्वर सुनाते सुनाते सबसे पहले झींगुर जैसी, फिर समुद्र जैसी दहाड़, फिर बादलों की गड़गड़ाहट, फिर ओंकार ध्वनि के साथ सार्ष्ठी की अनुभ्ूति क्रमागत रूपसे सभी स्तरों को पार कराते हुए अनुभव कराते हैं। ओंकार ध्वनि बिना किसी ठहराव या रुकावट के लगातार सुनाई देती है, पर इस अवसर पर भी साधक मधुर बॉंसुरी ही सुनता रहता है इसे ही सार्ष्ठी कहते हैं यहॉं साधक की विचारधारा यह होती है कि हे परम पुरुष तुम हो , मैं हॅूं और इतनी निकटता है कि मैं तुम ही हो गया हॅूं। पार्थसारथी भी सार्ष्ठी की अनुभूति निःसंदेह कराते हैं पर इस प्रकार की नहीं । यहॉं साधक अनुभव करता है कि प्रभु तुमने मुझे विशेष रूपसे अपना बना लिया है और अब दूर रह पाना कठिन है, मैं तो तुम्हारे हाथ का खिलौना हॅूं और जैसा तुम चाहते हो वैसे हर काम के लिये मैं सदा ही प्रस्तुत हॅूं। अर्जुन के साथ सबसे पहले तो सामान्य वार्तालाप हुआ और फिर अचानक जोर की पॉंचजन्य की ध्वनि कानों में गॅूंजने लगी और उन्हें आत्मसाक्षात्कार हुआ।


इन्दु- तारक ब्रह्म शिव ने भी तो भक्तों को आत्मसाक्षात्कार कराया, क्या उनकी विधियॉं कृष्ण से भिन्न थीं?

बाबा- शिव के समय लोगों में बौद्धिक विकास इतना नहीं था कि वे दर्शन अर्थात् फिलासफी को समझ सकें अतः शिव ने विखरे हुए समुदायों को एक साथ रहने, स्वस्थ और प्रसन्न रहने के लिये तन्त्र का प्रवर्तन करते हुए शिक्षित किया, उन्होंने धन्वन्तरी को वैद्यक शास्त्र और भरत मुनि को संगीत अर्थात् नृत्य वाद्य और गीत की विद्या में पारंगत कर सब को सिखाने के लिये तैयार किया, पर दर्शन की कोई चर्चा नहीं की।क्रमशः....


446 बाबा की क्लास ( महासम्भूति श्रीकृष्ण- 3)

 पिछली क्लास से आगे....


446 बाबा की क्लास ( महासम्भूति श्रीकृष्ण- 3)


इन्दु- बाबा ! सभी प्रकार के विद्वानों को यह कहते सुना जाता है कि कृष्ण परमपुरुष ही हैं, परन्तु इन रूपों में उन्होंने अपने निकट रहने वालों को किस प्रकार अनुभव कराया कि वे परमपुरुष ही हैं?

बाबा- जब परमपुरुष किसी संक्रॉंतिकाल में अपने को तारक ब्रह्म के रुप मे पृथ्वी पर अवतरित करते हैं तो समकालीन व्यक्ति कुछ विशेष प्रकार की अनुभूतियॉं करते हैं जो परमपुरुष के अवतार होने का प्रमाण देती है। इन्हें इन छः प्रकारों से अनुभव किया जाता है। सालोक्य, सामीप्य, सारूप्य, सायुज्य, सार्ष्ठी और केवल्य।


रवि- बाबा ! ‘सालोक्य‘ क्या है और उसकी अनुभूति किस प्रकार होती है?

बाबा- ‘सालोक्य‘ अवस्था में व्यक्ति अनुभव करते हें कि वे उस समय धरती पर आये जब परमपुरुष ने भी अवतार लिया। इस प्रकार के विचार में जो आनन्दानुभूति होती है उसे सालोक्य कहते हैं। जो भी बृज कृष्ण या पार्थ सारथी कृष्ण के संपर्क में आया उन्होंने अनुभव किया कि वह उनके अधिक निकट है । यहॉं एक उदाहरण से यह समझा जा सकता है। सालोक्य की अनुभूति दुर्योधन की अपेक्षा अर्जुन को अधिक थी, कुरुक्ष्ेत्र के युद्ध में सहायता के लिये दुर्योधन, अर्जुन से पहले कृष्ण के पास पहुंचे पर कृष्ण ने पहले देखा अर्जुन को बाद में दुर्याधन को, इस तरह अर्जुन कृष्ण की सहायता लेने में सफल हुए। यहॉं पार्थसारथी और बृज कृष्ण में अन्तर  स्पष्ट होता है क्योंकि यदि बृजकृष्ण पार्थसारथी के स्थान पर होते तो वे तो अपनी जादुई वॉंसुरी बजाकर दुर्याधन और अर्जुन दोनों को ही अपने पास ले आते।


राजू- तो फिर ‘सामीप्य‘ और ‘सालोक्य‘ एक समान हैं या भिन्न?

बाबा- ‘सामीप्य‘ अवस्था में लोग परमपुरुष से इतनी निकटता अनुभव करते हैं कि वे अपनी एकदम व्यक्तिगत बातों को या समस्याओं को उनसे मित्रवत् कह सकते हैं और उनका समाधान पा सकते हैं। यहॉं ध्यान देने की बात यह है कि बृज कृष्ण के समीप आने वाले अत्यन्त सामान्य स्तर के थे जबकि पार्थ सारथी के पास तो अत्यंत उच्चस्तर के सन्त , विद्वान या राजा लोग ही जा पाते थे। अन्य किसी के पास यह सामर्थ्य नहीं था। यह भी स्पष्ट है कि सालोक्य या सामीप्य की अनुभूति करने के लिये अनेक कठिनाईयों का समना करना पड़ता है। बृज कृष्ण के पास जितनी सहजता है पार्थसारथी के पास उतनी ही अधिक कठिनता। यह भी आवश्यक नहीं कि यदि किसी ने पार्थसारथी के सालोक्य का अनुभव कर लिया है तो वह सामीप्य पाने में भी सफल हो ही जायेगा ।


नन्दू- बड़ा ही सूक्ष्म अन्तर है, लेकिन ‘सायुज्य‘ तो बिलकुल अलग ही होगा?

बाबा- ‘सायुज्य‘ की िर्स्थति में उन्हें स्पर्श करना भी संभव होता है, जैसे बृजकृष्ण के साथ गोपगापियॉं साथ में नाचते, गाते, खेलते, खाते थे जबकि पार्थ सारथी के साथ यह बहुत ही कठिन था पॉंडवों में से केवल अर्जुन को ही यह कृपा प्राप्त थी अन्य किसी को नहीं।


चन्दू- परमपुरुष को अनुभव करने की अगली स्थिति है ‘सारूप्य‘ क्या है?

बाबा- ‘सारूप्य‘ में भक्त यह सोचता है कि मैं उनके न केवल पास हॅू बल्कि उन्हें अपने आसपास सभी दिशाओं में देखता भी हॅूं। इस प्रकार की स्थिति तब आती है जब भक्त परमपुरुष को अपने निकटतम संबंध से जैसे, पिता, माता, पुत्र, पुत्री, मित्र या पत्नि के रूप में प्रिय संबंध स्थापित करके साधना करते हैं।


रवि- यदि ऐंसा है तो परमपुरुष के साथ जो शत्रु के रूप में सम्बन्ध बनाते हैं, क्या वे सारूप्य के योग्य माने जा सकते हैं?

बाबा- परमपुरुष को शत्रु के रूप में संबंध बना कर भी पाया जा सकता है जैसे, कंस, पर यह बड़ा ही दुखदायी होता है व्यक्ति या तो पागल हो जाता है या मर जाता है, और समाज हमेशा उसे धिक्कारता है। कहा जाता है कि अपनी मृत्यु के एक सप्ताह पहले कंस हर एक वस्तु में कृष्ण को देखता था और पागल हो चुका था। इसलिये सामीप्य अनुभव करने के लिये परमपुरुष के साथ अपना निकटतम संबंध जोड़कर सभी वस्तुओं और स्थानों में उन्हीं को देखना चाहिये। जब किसी के मन में उन्हें पाने के लिये अत्यंत तीब्र इच्छा जागती है तो यह अवस्था बहुत आनन्ददायी होती है उसकी बेचैनी बढ़ती जाती है और अनिरुद्ध चाहत से वह आगे बढता जाता है तो संस्कृत में इसे आराधना कहते हैं और जो आराधना करता है उसे राधा कहते हैं, यहॉं राधा का तात्पर्य भक्त के मन से है। बृज के निवासियों ने उन्हें अपने हर कार्य और विचारों में पाया और देखा। जबकि, पार्थसारथी को पॉंडवों ने अपने मित्र के रूप में तथा कौरवों ने अपने शत्रु के रूप में पाया। 


इन्दु- अनुभूति का अगला स्तर कौन सा है?

बाबा- अगला स्तर है ‘ सार्ष्ठी ‘इसमें भक्त परमपुरुष को सभी संभावित तरीकों और कल्पनाओं से अनुभव करता है। भावना यह रहती है कि प्रभु तुम हो मैं भी हॅूं और हमारे बीच संपर्क भी है। अर्थात् कर्ता है कर्म है और संबंध जोड़ने के लिये क्रिया भी है। सार्ष्ठी का यही सही अर्थ है। यहॉं ध्यान देने वाली बात यह है कि परमपुरुष और भक्त के बीच यहॉं बहुत निकटता का संबंध होता है पर द्वैत भाव भी होता है। अनेक वैष्णव ग्रंथों  में इसी द्वैत को महत्व देने में यह तर्क दिया गया है कि ‘‘मैं शक्कर नहीं होना चाहता क्योंकि यदि हो गया तो उसका स्वाद कौन लेगा।‘‘ इस प्रकार वे सार्ष्ठी को ही उच्चतम अवस्था मानते हैं। पर कुछ वैष्णव दर्शन यह भी मानते हैं कि हे प्रभु केवल तुम ही हो, इस अवस्था को ‘कैवल्य‘ कहते हैं जो अनुभूति की सर्वोत्तम और सर्वोच्च अवस्था स्वीकार की गयी है। क्रमशः....


445 बाबा की क्लास ( महासम्भूति श्रीकृष्ण- 2)

 पिछली क्लास से आगे...

445  बाबा की क्लास ( महासम्भूति श्रीकृष्ण- 2)


राजू- तो क्या वह युद्ध करने और कराने के लिये ही पार्थसारथी की भूमिका में आये थे?

बाबा- कंस का अर्थ है दूसरों के अस्तित्व के लिये जो खतरनाक हो, जो दूसरों के सार्वभौमिक भलाई और विकास में बाधा पहुंचाता हो। और कृष्ण का अर्थ है जो दूसरों को पूर्णता की ओर ले जाता हो, जो विध्वंस कारक विचारों को सहन नहीं कर सकता हो, जो पूर्णेपलब्धि की ओर सबको ले जाता हो। अतः सब के भौतिक, मानसिक और आध्यात्मिक दुखों को दूर करने के लिये और धर्म के रास्ते में बाधायें उत्पन्न करने वाले विध्वंसी बलों को समाप्त करने के लिये ही उन्हें पार्थसारथी की भूमिका निभाना पड़ी , क्योंकि बृज कृष्ण की भूमिका में यह संभव नहीं था। उसके लिये बृज भूमि उचित नहीं थी कुरुक्षेत्र ही उचित था।


राजू-  बाबा ! पार्थ का अर्थ क्या है?

बाबा-पार्थ का अर्थ है पृथा का पुत्र, पृथा या पृथि नाम के राज्य की राजकुमारी कुन्ती का पुत्र अर्थात् कौन्तेय। प्राचीन भारत में आर्यों के आगमन से पहले तक कुल माता के नाम से पुत्रों के परिचय देने की परम्परा चलती थी। सारथी का अर्थ है जो रथ की देखभाल अपने पुत्र की भॉंति करता है। उपनिषदों में शरीर को रथ, मन को लगाम और बुद्धि को सारथी तथा आत्मा को रथ का स्वामी कहा गया है। अतः आगे बढ़ने के लिये इन चारों में से किसी को भी नगण्य नहीं माना जा सकता। किसी एक के भी अप्रसन्न हो जाने पर सब कुछ नष्ट हो जायेगा। इसी के अनुरूप युद्ध भूमि में पार्थ के सारथी कृष्ण हुए और उन्होंने रथ सहित रथ की सवारी करने वाले की देखरेख अपने पुत्र की भॉंति की। धर्म की रक्षा की।


नन्दू- क्या वे यह कार्य बृजकृष्ण से पार्थसारथी बने बिना नहीं कर सकते थे?

बाबा- कृष्ण के समय में मुट्ठी भर लोगों के द्वारा छोटे छोटे राज्यों जैसे , अंग, बंग, कलिंग, सौराष्ट्र , मगध आदि को बना लिया गया था और आपस में ही लड़ते झगड़ते रहते थे, जब कि सामान्य जन उनकी मौलिक आवश्यकताओं जैसे, भोजन, वस्त्र, आवास, चिकित्सा और शिक्षा आदि के लिये तरसते थे। अतः एकीकृत  और सामूहिक समाज के महत्व को कृष्ण ने समझा और इस महती जिम्मेवारी को निभाने के लिये उन्होंने पार्थसारथी की भूमिका को चयन किया। जन समान्य की सामाजिक आर्थिक और आघ्यात्मिक उन्नति करने के लिये छोटे छोटे राजाओं को नैतिक रूप से एक समान सहयोग के आधार पर संघीय ढॅांचे में एकीकृत करने का महान लक्ष्य कृष्ण के सामने था जिसके लिये बृजकृष्ण से पार्थसारथी कृष्ण में परिवर्तित होना उनके लिये अनिवार्य हो गया था । अन्य कारण यह भी था कि बृज कृष्ण कोमलता, मधुरता और भक्ति के मिश्रण थे, अतः युद्धों के लिये आवश्यक द्रढ़ता और कठोरता उनमें नहीं आ सकती थी।


चन्दू- बृज कृष्ण और पार्थसारथी कृष्ण में से कौन श्रेष्ठ हैं?

बाबा- जहॉ बृज कृष्ण मानवता को अपरोक्ष अनुभूति के द्वारा मानवता की उच्चतम अनुभूति कराना चाहते थे वहीं पार्थसारथी कृष्ण परोक्ष अनुभूति से अपरोक्ष अनुभूति कराते हुए मानवता की उच्चतम अवस्था को अनुभव कराना चाहते थे। चॅूंकि अब तक लोगों के पास उन्नत मस्तिष्क और ज्ञान आधारित समाज था , योग विज्ञान की भी व्यावहारिकता से वे परिचित हो चुके थे अतः उन्हें कर्म योग के माध्यम से परमपुरुष के प्रति शरणागति कैसे पाई जाती है इसकी शिक्षा देने के लिये पार्थसारथी की भूमिका ही उचित थी। यही वह अवस्था है जिसमें प्रत्यक्ष और परोक्ष दोनों अनुभूतियॉं मिलकर एक हो जाती हैं। स्पष्ट है कि एक भूमिका में संसार को मधुरता और प्रेम से भक्ति की ओर अर्थात् राधा भाव की ओर ले जाने का कार्य किया और दूसरी भूमिका में यह अनुभव कराया कि जीवन का सार संधर्ष में ही है । इस भूमिका से उन्होंने सिखाया कि जीवन की मधुरता को संघर्ष पूर्वक प्राप्त कर  परम मधुरता परमपुरुष को कैसे पाया जाता है। इस प्रकार दोनों भूमिकायें एक दूसरे से बहुत भिन्न हैं एक बिलकुल कोमल और मधुर तथा दूसरी द्रढ़ और कठोर। इनमें से कौन सी भूमिका श्रेष्ठ है यह पूछना व्यर्थ है क्योंकि दोनों ही भूमिकायें अपने अपने समय की आवश्यकतायें थीं। क्रमशः....


444 बाबा की क्लास ( महासम्भूति श्रीकृष्ण- 1)

 मित्रो! कुछ दिनों पहले मैं ने ‘भगवान शिव’ के संबंध में उन तथ्यों पर चर्चा की जिनके संबंध में ग्रंथों या विद्वानों के द्वारा कम ही बताया जाता है। अब मैं क्रमागत रूप से ‘‘महासम्भूति कृष्ण’’ के संबंध में इसी प्रकार के तथ्यों को प्रकट करूंगा। इस हेतु एक क्लास में बैठे जिज्ञासु बच्चों को प्रश्न पूछते और गुरु द्वारा उनके उत्तर देकर समाधान करते, दृश्यांकित किया गया है ताकि कृष्ण के जटिल व्यक्तित्व को समझने में सरलता हो। आशा है आप सब इस नई जानकारी से लाभान्वित होंगे-

 444 बाबा की क्लास ( महासम्भूति श्रीकृष्ण- 1)

रवि - अनेक ग्रंथों में भगवान श्रीकृष्ण के सम्बन्ध में भी अनेक तरह से व्याख्यायें पाई जाती हैं, फिर भी उनकी आकर्षक और विलक्षण कार्यशैली के सभी प्रशंसक हैं। क्या ‘शिव‘ की तरह आप, नवीन शोधों के अनुसार श्रीकृष्ण से सम्बन्धित अब तक सर्वथा अज्ञात तथ्यों पर प्रकाश डाल सकते हैं?

बाबा- हॉं , सबसे पहले तो उस काल में जो सामाजिक व्यवस्था थी उसके सम्बन्ध में अच्छी तरह समझ लो। गर्ग, वसुदेव और नन्द का एक ही परिवार था वे चचेरे भाई थे। गर्ग ने ही कृष्ण का नाम कृष्ण रखा था क्योंकि वे बहुत ही अकर्षक थे। कृष्ण का अर्थ है जो आकर्षण करने वाला है या  सबको अपनी ओर खींचता हो। उस समय केवल वर्ण परम्परा ही प्रचलित थी जातियॉं नहीं थीं। गुणों तथा कर्मों के अनुसार ही लोगों के वर्ण परिवर्तित होते रहते थे। इस प्रकार एक ही माता पिता की अनेक सन्ताने भिन्न भिन्न वर्ण की हो सकती थीं। जैसे गर्ग बौद्धिक स्तर पर अन्य भाइयों से उन्नत और विद्या अध्ययन और अध्यापन के कार्य में संलग्न होने के कारण उन्हें विप्र वर्ण में, वसुदेव शारीरिक बल और शस्त्रों के परिचालन में प्रवीणता रखते थे और अभिरक्षा कार्य में संलग्न थे अतः वे क्षत्रिय, और नन्द व्यावसायिक बौद्धिक स्तर के थे और पशुपालन तथा कृषि कार्य करते थे अतः वैश्य वर्ण में प्रतिष्ठित हुये।

नन्दू- तो हमें कृष्ण के व्यक्तित्व को किस प्रकार समझने का प्रयत्न करना चाहिए?

बाबा- कृष्ण के बहुआयामी व्यक्तित्व को समझने के लिये हमें दो भागों में अध्ययन करना सहायक होगा क्योंकि वे दो भाग अपने आप में पृथक भूमिका वाले और उनके व्यक्तित्व के सम्पूरक हैं। पहला है ‘‘बृज कृष्ण‘‘ अर्थात् उनका बाल्यावस्था का चरित्र और दूसरा है ‘‘पार्थसारथी कृष्ण‘‘ अर्थात् उनका युवा शासक का चरित्र। बृज कृष्ण बहुत मधुर और सबको आकर्षक करने वाली भूमिका है जिसमें वे प्रत्येक को बिना किसी भेद भाव के आत्मिक आकर्षण में बॉंध कर आत्मीय सुख और संतुष्ठि प्रदान करते थे। पार्थसारथी की भूमिका में उनके पास सब नहीं जा सकते थे केवल राजा और राज्य कार्य से जुड़े लोग ही अनुशासन में सीमित रहते हुए निकटता पा सकते थे। उनकी यह कठोरता आध्यात्मिकता से मिश्रित होती थी। इस तरह उनकी दोनोंं प्रकार की भूमिकायें अतुलनीय थीं। 

राजू- परन्तु कृष्ण को तो महाभारत के कारण ही माना जाता है? 

बाबा-महाभारत में कृष्ण के पूरे जीवन चरित्र को सम्मिलित नहीं किया गया है पर यह सत्य है कि कृष्ण के बिना महाभारत और महाभारत के बिना कृष्ण नहीं रह सकते। यदि हम कृष्ण चरित्र से मूर्खतापूर्वक महाभारत को घटा दें तो कृष्ण का व्यक्तित्व थोड़ा कम तो हो जाता है पर फिर भी उनका महत्व बना रहता है।

चन्दू- परन्तु अधिकॉंश भक्तों ने तो उनकी बाल लीलाओं में ही अपनी साधना को केन्द्रित रखा है, और कहा जाता है कि उन्हें उनका साक्षात्कार हुआ है, तो अन्य भूमिकाओं की आवश्यकता क्यों हुई?

बाबा-बृज कृष्ण में माधुर्य, साहस, बल, तेज और सभी प्रकार के सद्गुण थे परंतु मधुरता से सबको अपनी वॉंसुरी की तान से आकर्षित कर लेना उनका अधिक प्रभावशाली गुण था। इतना ही नहीं जरूरत के समय अपने मित्रों और अनुयायियों की रक्षार्थ शस्त्र भी उठा लेने में भी वे संकोच नहीं करते थे। गोपियॉं उन्हें अपने से बहुत ऊॅंचा और श्रेष्ठ समझतीं थीं पर यह भी कहती थीं कि वह तो हमारा ही है, हमारे बीच का ही है। इस प्रकार जो अपने भक्तों के साथ इतना निकट और सुख दुख में साथ रहा हो उसने शीघ्र ही यह अनुभव किया कि इस प्रकार तो मानवता की अधिकतम भलाई नहीं की जा सकती। अतः तत्कालीन समय की असहाय, अभिशप्त और नगण्य समझी जाने वाली मानवता की कराह सुन कर उन्होंने यह भूमिका त्याग कर पार्थसारथी की भूमिका स्वीकार की। क्रमशः....

Sunday, 2 November 2025

443 अभिवादन का सही तरीका क्या है?

 

कोई नमस्ते करता है और कोई नमस्कार, कोई राम राम करता है कोई दण्डवत प्रणाम, कोई हाथ मिलाता है कोई दूर से हाथ हिलाता है, आजकल हाय और वाय का बोलबाला है, आखिर अभिवादन का कोई सबसे अच्छा तरीका है या नहीं? ,

उत्तर-

छोटे बड़े का विचार किये बिना, पहले से ही नमस्कार करने का प्रयास होना चाहिये और यह अपेक्षा नहीं करना चाहिये कि वह प्रत्युत्तर देता है या नहीं या पहले सामने वाला नमस्कार करता है या नहीं ।

सभी से, दोनों हाथ जोड़कर दोनों अंगूठों को आज्ञाचक्र अर्थात् त्रिकुटि के पास ले जाकर स्पर्श करके फिर हाथ जोड़े हुए ही अनाहतचक्र अर्थात् हृदय के पास लाते हुए ‘नमस्कार‘ यह शब्द ही उच्चारित करना चाहिये और यह भावना रखना चाहिये कि मैं आपके रूप में उन परमब्रह्म को ही अपने शुद्ध मन और हृदय से प्रणाम करता हॅूं। नमस्कार, ‘नमः करोमि‘ संस्कृत के इस वाक्य का संक्षिप्त रूप है जिसका अर्थ है ‘‘प्रणाम करता हॅूं।‘‘ नमस्ते का अर्थ है ‘तुमको प्रणाम‘, जो कि केवल परमपुरुष के लिये उनके निकटतम भक्तगण ध्यान में ही करते हैं। 

... तो, क्या जो हम लोग अपने से वरिष्ठों के लिये नमस्ते करते हैं वह उचित नहीं है?

...ठीक है,  पर नमस्ते, अर्थात् ‘तुमको प्रणाम‘, कहने पर दिखाई देने वाले शरीर का ही बोध होता है अतः उसके भीतर परमसत्ता के साक्षी होने का स्मरण नहीं रह पाता है, परंतु नमस्कार, अर्थात् ‘‘प्रणाम करता हॅूं‘‘ कहने पर यह त्रुटि नहीं हो पाती क्योंकि वास्तव में किसी को नमस्कार कहने का अर्थ ‘प्रणाम करता हॅूं‘ होता है पर किसे? यह भाव अलग से लेना पड़ता है जबकि नमस्ते का अर्थ ‘तुमको प्रणाम‘ में दिखाई देने वाला शरीर ही प्रधान हो जाता है।  हर समय यह भावना होना चाहिये कि मैं तुम्हारे भीतर उस साक्षीस्वरूप परमब्रह्म को प्रणाम करता हॅूं परंतु यह बड़े अभ्यास करने पर ही संभव होता है।  वर्तमान में इस भावना से कोई भी प्रणाम नहीं करता, केवल करना चाहिये इसलिये नमस्कार, नमस्ते या प्रणाम कह लेते हैं। 

.... आजकल तो हाथ मिलाने और गले मिलने, और हाय वाय का प्रचलन बढ़ता जा रहा है? 

...हाथ मिलाने से बचना चाहिये। शारीरिक संपर्क से संस्कारों का आदान प्रदान होता है। हमें यदि यह पूर्व से ज्ञात है कि अमुक व्यक्ति हमसे आघ्यात्मिक स्तर पर उन्नत है तो उसे चरणस्पर्श प्रणाम करना चाहिये। वह मौखिक या सिर पर हाथ रखकर आशीष देता है तो दोनों प्रकारों का एक समान प्रभाव होता है। ‘‘शुभमस्तु‘‘ कहने पर सभी तीनों प्रकार की उन्नति भौतिक, मानसिक और आध्यात्मिक और  ‘‘कल्याणमस्तु‘‘ कहने  में केवल भौतिक और मानसिक तथा ‘‘क्षेम‘‘ ; अर्थात् प्रसन्न रहो या सुखी रहो आदि कहने में केवल भौतिक प्रगति करने का भाव निहित होता है।

.. एक बात यह याद रखना चाहिये कि जब कोई महापुरुष किसी को आशीर्वाद देता है तो सामान्यतः वह संबंधित के सिर पर हाथ रखकर यह करता है। सिर पर सहस्त्रार चक्र होता है जिस पर सूक्ष्म धनात्मक दबाव पड़ने पर सभी अन्य चक्रों पर भी धनात्मक प्रभाव होता है। इसका परिणाम यह होता है कि सभी उच्चतर वृत्तियॉं बढ़ने लगती हैं और निम्नतर वृत्तियॉं घटने लगती हैं। इस प्रकार का प्रभाव स्पर्श से ही नहीं ध्वनि द्वारा भी होता है। जब किसी आध्यात्मिक रूप से उन्नत व्यक्ति को कोई साष्टॉंग प्रणाम करता है तो मौखिक रूप से आशीष देने का या उसके हाथ से सिर को स्पर्श करने का एक समान प्र्रभाव आध्यात्मिक उन्नति करने के लिये होता है।  इसमें यह ध्यान रखना चाहिये कि आप उसी को आशीष दें जिसे चाहते हैं क्योंकि जिसे नहीं चाहते उसके प्रणाम को स्वीकार करने पर उसके नकारात्मक संस्कार आपके मन में आ सकते हैं जो आपकी शुभ प्रवृत्तियों को घटा कर अशुभ वृत्तियों में वृद्धि कर सकते हैं। इस प्रकार न तो जिस चाहे को आशीर्वाद देना चाहिये और न ही जिस चाहे को साष्टॉंग प्रणाम करना चाहिये।


Sunday, 19 October 2025

442 ध्यान क्या है? इसका वैज्ञानिक सिद्धान्त क्या है? किसका ध्यान करें ?

 ध्यान क्या है?  इसका वैज्ञानिक सिद्धान्त क्या है? किसका ध्यान करें ?

ध्यान के विषय पर वद्वानों की अनेक व्याख्यायें उपलब्ध हैं परन्तु सभी मन को भ्रमित करती हैं क्योंकि वे सब किताबी ज्ञान पर आधारित होती है। आइए आज ध्यान से संबंधित इन तीन बातों पर चर्चा की जाय।

ध्यान का सामान्य अर्थ है मन को किसी विषय पर स्थिर करना। जैसे गणित के किसी सावल का उत्तर खोजने के लिए, पारिवारिक किसी समस्या का समाधान करने के लिए आदि। परन्तु आध्यात्मिक क्षेत्र में इसका अर्थ होता है मन को अपने इष्ट पर स्थिर करना। दोनां ही स्थितियों में मन ही प्रधान होता है, ध्यान करने वाले  मन  को ध्येता और जिस विषय या वस्तु पर ध्यान करना होता है उसे कहते हैं ध्येय। इस प्रकार मन (ध्याता) अपने विषय (ध्येय) पर पहुंचने के लिए जो भी प्रयास करता है वह ध्यान कहलाता है। परन्तु यहॉ केवल मन यह काम नहीं कर सकता क्योंकि वह तो क्षण भर में अनेक स्थानों पर उछलकूद करने में लगा रहता है। इस प्रकार मन अपनी ऊर्जा को सभी ओर विकीर्णित करता रहता है और वह वहीं जाना चाहता है जहॉं उसे अच्छा लगता है। मन को कहॉं अच्छा लगता है? वहीं जहॉं वह पूर्व में जाता रहा है, क्योंकि वहॉ जाने पर उसे कम शक्ति खर्च करना होती है। जिस बिंदु या विषय पर अधिक ऊर्जा की आवश्यकता होती है वहॉ से मन शीघ्र ही भागने लगता है, उसका यही स्वभाव है। इस स्थिति में एक अन्य एजेंट ‘बुद्धि’ की आवश्यकता होती है जो उसे बार बार सचेत करते हुए यह समझाता रहे कि समय बार बार नहीं आएगा, इसका उपयोग कर लो नहीं तो पछताओगे। इस तरह मन और बुद्धि जब पारस्परिक साम्य स्थापित करके किसी विषय पर सक्रिय हो जाते हैं तो यह प्रक्रिया ध्यान कहलाती है और अपने लक्ष्य या इष्ट या समस्या पर समाधान पा लेती है।

यह सब रेजोनेंस (अनुनाद) के सिद्धान्त पर घटित होता है। जैसे, मन सदैव कंपनकारी अवस्था में रहता है अतः उसकी एक फंडामेंटल फ्रीक्वेसी होती है। इसी प्रकार लक्ष्य या समस्या की भी मूलआवृत्ति होती है । अतः यदि मन की आवृत्ति को विषय की आवृत्ति के साथ साम्य (विज्ञान की भाषा में अनुनाद) में लाया जा सके तो समस्या का तत्काल समाधान हो जाता है। आध्यात्मिक क्षेत्र में अपने इष्ट के साथ अनुनादित होने के लिये मन को इष्ट की मूल आवृत्ति जिसे इष्टमंत्र कहा जाता है, के साथ अनुनाद स्थापित करना होता है। आध्यात्मिक क्षेत्र में जो काम इष्टमंत्र का होता है वही कार्य गणित का सवाल हल करने के समय उसका सूत्र (फार्मूला) करता है। इष्टमंत्र व्यक्ति विशेष के पूर्व संस्कारों पर निर्भर करता है जिसे ‘‘कौल गुरु’’ पहचान कर जिज्ञासु को सिखाते हैं और वह बिंदु बताते हैं जहॉं पर मन को बैठाकर इष्टमंत्र का आघात किया जाता है। यह अभ्यास लगातार करते रहना होता है। 

अब प्रश्न उठता है कि किसका ध्यान किया जाय ब्रह्म का, बिंदु का, इष्ट का या गुरु का? चूंकि ध्येय तो परमपुरुष अर्थात् परमब्रह्म ही होते हैं जिन्हें किसी ने देखा ही नहीं है, उनका कोई आकार नहीं है और उन्हें आज तक कोई माप भी नहीं सका है। वह कहॉ हैं, धरती पर शरीर में या अन्तरिक्ष में यह भी कोई नहीं जानता । मन तो केवल उसका ध्यान कर पाता है जिसे उसने पहले कभी देखा होता है, तो ब्रह्म का ध्यान कैसे किया जाय? चूंकि गुरु ही इष्ट,श्इष्टमंत्र और ध्यान करने की प्रक्रिया सिखाते हैं अतः कोई भी व्यक्ति केवल गुरु को ही जान पाता है। उसने उन्हें ही देखा होता है अतः वह गुरु द्वारा बताए गए बिंदु पर गुरु को देखते हुए इष्टमंत्र का आघात करता है।  यहॉ मन इष्टमंत्र के अनुसार कम्पन करता है अर्थात् बार बार उसे दुहराता है और बुद्धि प्रत्येक क्षण मन को उस इष्टमंत्र का अर्थ याद कराती रहती है। इष्टमंत्र की टार्च लेकर ध्याता का मन और बुद्धि, गुरु के द्वारा दिखाए गए रास्ते पर अज्ञान के अंधकार को चीरते हुए आगे बढ़ते जाते है और एक समय आता है जब गुरु की मूल आवृत्ति से ध्याता के मन की मूल आवृत्ति अनुनादित होने लगती है । इस अवस्था में ध्याता, ध्यान, और ध्येय एक ही हो जाते हैं, सब भेद समाप्त हो जाता है केवल आनन्द ही शेष रहता है। विद्वान लोग इसे समाधि का आनन्द कहते हैं। इसलिए कहा गया है कि ‘‘गुरुरेव परम ब्रह्म, तस्मै श्री गुरवे नमः।’’अर्थात् गुरु ही परमब्रह्म हैं उन्हें प्रणाम। स्पष्ट है कि इस स्तर पर पहुंचने के लिए ‘गुरु कृपा ही केवलम्’ अर्थात् केवल गुरु की कृपा ही पर्याप्त है। जिसे सच्चा गुरु मिल गया वही धन्य है, उसी का जीवन धन्य है, उसका परिवार धन्य है, उसी का मानव जीवन पाना सफल है।


Thursday, 25 September 2025

441 धार्मिक अन्धानुकरण और धर्म के नाम पर शोषण किस प्रकार रोका जा सकता है?

 

सभी धर्मों में भौतिक जगत की उपलब्धियों को पाने के लिए ही पूजा पाठ करने की सलाह दी जाती है। इस कारण कुछ लोगों ने अपने को विशेषज्ञ घोषित कर उसकी शिक्षा देने का धँधा अपना लिया है और तदनुसार लोगों को मार्गदर्शित कर सिखाने लगे हैं कि ‘‘विश्वासे मिले वस्तु तर्के बहु दूर...’’ अर्थात् वस्तु की प्राप्ति विश्वास से होती है न कि तर्क से तथा यह भी कि ‘‘मजहब में अकल का दखल नहीं ’’ किया जाता। इसका परिणाम यह हुआ है कि भोले भाले अनुयायी , इन निहित स्वार्थी लोगों के हाथ के हथियार बन गए हैं। यदि सर्वसाधारण के मन में नित्यानित्य विवेक और वैज्ञानिक तर्कज्ञान का द्वार खोल दिया जाए तो धर्म के नाम पर इन्हें धोखा दिया जाना सम्भव नहीं हो सकेगा अथवा स्वर्ग और तीसरे संसार के आनन्द का प्रलोभन नहीं दिया जा सकेगा। परन्तु ये निहित स्वार्थी लोग इस बात को जानते हैं इसलिए वे जन साधारण को अज्ञानता के अन्धकार में ही भटकते रहने देना चाहते हैं। इस प्रकार भोले भाले लोग जो भी अपने खून पसीने से अर्जित करते हैं ये परजीवी तथाकथित विद्वान लोग उनमें भय और हीनता के बोध को जगाकर अपना लाभाँश लूटते रहते हैं। इस विज्ञान के युग में इन ठगों से बचा जा सकता है यदि हम किसी भी बात को या सिद्धान्त को स्वीकार काने से पहले उस पर अपने तर्क, विज्ञान और विवेक के आधार पर विश्लेषण कर लें।


Tuesday, 23 September 2025

440 भगवान सदाशिव की शिक्षाएं, भाग -2 : (शिवोपदेश) शिव का बारहवां उपदेश है कि-

 

‘‘ मय्येव सकलं जातं मयि सर्वं प्रतिष्ठितम्, मयि सर्वं लयं याति तद् ब्रहमाद्वयमस्म्यहम्।’’

अर्थात् ब्रह्मांड की सभी चीजें मुझ से ही उत्पन्न होती हैं, मुझ में ही जीवित रहती हैं, अंत में मुझ में ही मिल जाती हैं और मैं ही वह अद्वितीय ब्रह्म हॅूं।

स्पष्टीकरण :

(1) सर्वोच्च चेतना के अवतार चिदानन्दघनसत्ता शिव कहते हैं कि परमपुरुष का नाभिक ही इस ब्रह्मांड का नाभिक है। अतः सभी सत्ताएं उन्हीं के नाभिक से जन्म पाती हैं और अपने अपने संस्कारों के लय के अनुकूल उन्हीं के विराट ब्राह्मिक शरीर में युगों तक घूमते हुए अंत में उसी नाभिक के मूल बिंदु में मिल जाती हैं। अर्थात् पुरुषोत्तम ही सभी के परम श्रोत हैं। पर यह कहना पर्याप्त नहीं है कि सभी उस परम अस्तित्व के नाभिक से निकलते हैं, वास्तव में उनके इस विराट शरीर ब्रह्मांड में चारों ओर जिस ‘समय’ के साथ लयबद्ध ढंग से घूमते हैं वह ‘समय’ भी इसी नाभिक से उत्पन्न होता है। अर्थात् यह नाभिक न केवल सभी का उद्गम केन्द्र है वरन् सभी के प्रकाशित होने के लिए एकमात्र प्रेरक बल भी है। यह वैसा ही है जैसे कोई लड़का पतंग को उड़ाता है, पहले वह रील से धागे को ढीला छोड़ता जाता है और पतंग हवा में स्वच्छंद उड़ती जाती है। वह सोचती है कि अब मैं बिलकुल स्वतंत्र हॅूं , कहीं पर भी उड सकती हॅूं।़ परन्तु उसी समय वह लड़का धागे में एक झटका देता है और धागे को रील में लपेटने लगता है तथा पतंग उसी रील के पास वापस आ जाती है। इसीलिए शिव ने कहा है कि सभी कुछ मुझसे ही उत्पन्न होते हैं मुझ में ही जीवित रहते हैं और अंत में वापस मुझमें ही समा जाते है। कुछ लोग इसे जानते हैं कुछ नहीं और कुछ लोग तो इसे जानना ही नहीं चाहते। सोचिए, जिनका निर्माण हुआ है वे उस निर्माण करने वाली सत्ता के बाहर कैसे रह सकते हैं? उनके बाहर तो ‘‘समय, स्थान या कोई अस्तित्व’’ है ही नहीं। इसलिए सभी अस्तित्व चाहे वे छोटे हों या बड़े उन्हीं एकमेव निर्माणकर्ता के विराट शरीर के भीतर चलते, खिसकते, दौड़ते और कूदते रहते हैं।

(2) जिसमें सरलता है, सत्य कहने की क्षमता है वह साहस के साथ अपनी छाती ठोक कर कहेगा- मैंने असीम पुरुष की विराट गोद में आश्रय पाया है अन्य कहीं भी मेरा आश्रय नहीं है। जो भीरु है, कापुरुष है, सत्य कहने में जिसकी जीभ जड़ता से स्थिर हो जाती है वह कहेगा - मैंने जिस आश्रय को पाया है और जिसकी स्नेहच्छाया में लालित, पालित और वर्धित हो रहा हॅूं उसे अस्वीकार कर रहा हॅूं। लेकिन शिव का कहना है कि मेरी स्नेहपूर्ण सन्तानें सदा ही मेरी गोद में थीं, हैं और रहेंगी। कोई कितना ही पापी हो, मूर्ख हो, हीनाचारी हो, अपनी संतान को मैं अपनी गोद से अलग कैसे कर सकता हॅूं, ‘‘मयि सर्वं लयं याति’’। शिव कहते हैं कि ‘‘जागतिक कर्तव्य के अन्त में जीव मुझ में ही लौट आता है, मुझ में मिलकर एक हो जाता है और उसके द्वित्वभाव की आनन्दमय परिसमाप्ति हो जाती है।’’ शिव का आगे और भी कहना है कि ‘यह जो जीव की सृष्टि है, उसका माधुर्यमय अस्तित्व है, कर्मतत्परता है और जो उसका आनन्दघन प्रशान्तिमय विश्राम है, यह सभी मुझे ही केन्द्र बनाए हुए हैं और मैं ही अद्वय ब्रह्म हॅूं।’

(3) अद्वय क्यों कहा गया है? इस ब्रह्मांड में परमपुरुष एकमात्र अकेली सत्ता हैं कोई दूसरा है ही नहीं। जब कोई व्यक्ति साधना करते हुए परमपुरुष की कृपा से मुक्ति पा जाता है तो सभी प्रकार का द्वैत समाप्त हो जाता है। इस समय होता यह है कि उसका छुद्र ‘मैं’ समाप्त हो जाता है और कुछ नहीं। छुद्र मैं के चारों ओर मंडराने वाली उसकी तुच्छता विराटता में रूपान्तरित हो जाती है। सभी का अपना अपना छुद्र ‘मैं’ है परन्तु  सभी के लिए ‘बड़ा मैं’ एक ही है। ‘छुद्र मैं’ में द्वैत है पर ‘बड़े मैं’ में नहीं । इसलिए ‘बड़ा मैं’ एक ही है अद्वय है। इसलिए मुक्ति की अवस्था में व्यक्ति का छोटा मैं परमपुरुष के ‘बड़े मैं’ में मिलकर एक ही हो जाता है। ठीक उसी प्रकार जैसे नदियॉं ऊॅंचे पहाड़ों , घाटियों, जंगलां, हरे भरे समतलों में से होते हुए अंत में महासागर में मिल जाती हैं। किसी की भी स्थायी मृत्यु नहीं होती। नदियों की लयवद्ध मधुरता महासागर की लहरों में अलौकिक रूप से स्पंदित होती रहती है। लोग इसे जानते हुए भी भूले रहना चाहते हैं। वे इसे भूले रहना चाहते हैं अतः विछोह के डर से सदा दुखित रहते हैं। यथार्थतः सभी सत्ताएं अनादि काल से अनन्त काल तक उस विराट् के वक्ष में परमशान्ति से चिरकाल के लिए समा जाती हैं, कोई भी विलुप्त नहीं होती न ही कभी नष्ट।


Saturday, 20 September 2025

439 भगवान सदाशिव की शिक्षाएं, भाग -2 : (शिवोपदेश) शिव का ग्यारहवां उपदेश है कि-


‘ इदम तीर्थमिदम तीर्थम् भ्रमन्ति तामसाः जनाः, आत्मतीर्थम् न जानन्ति कथं मोक्ष वराणने।’’

अर्थात् तामसिक लोग तीर्थ यात्रा करने के लिए इस सथान से उस स्थान पर भटकते हैं परन्तु हे बराणने! (पार्वती) आत्मतीर्थ (अपने हृदय के भीतर स्थित वास्तविक तीर्थ) को जब तक नहीं पा जाते उन्हें मोक्ष कैसे मिल सकता है?

स्पष्टीकरण :

(1) सामान्यतः लोगों को तीर्थो के प्रति अदम्य आकर्षण देखा जाता है, महिलाएं तो तीर्थयात्रा के लिए अपने आभूषण तक बेच देती हैं, कुछ लोग अपनी जमीन और बर्तन तक बेचकर तीर्थ जाने में अपने को धन्य समझते हैं। देखा जाता है कि कुछ को तो चलते नहीं बनाता इतना कि दिखाई भी नहीं देता वे भी किसी न किसी के सहारे तीर्थ जाते हैं और पंडे लोग उन्हें मरे हुए घोंघे की खोल दिखा या स्पर्श करा कर कहते हैं यह नारायण हैं और वे विश्वास कर उसके समक्ष दंडवत प्रणाम कर अपने को धन्य मानते हैं। जब से मनुष्य के मन में भगवान का विचार आया तब से वे तीर्थों के प्रति अदम्य आकर्षण को पाले हुए हैं। अब स्वभावतः प्रश्न उठता है कि आखिर तीर्थ है क्या? तीर्थ का सामान्यतः अर्थ है यात्रा का स्थान। तीर्थ =  तीर $ स्था $ डा  अर्थात् किनारे पर स्थित। तीन काअर्थ है किनारा। नदी का पानी और स्थल भाग जहॉं पर मिलते हैं उसे कहते हैं किनारा, यदि कोई इस किनारे से एक कदम आगे बढ़ता है तो वह पानी में पहुंचता है और पीछे की ओर एक कदम रखता है तो स्थल पर ही रहता है। तीर्थ का सही अर्थ है वह रेखा जहॉं भौतिक और आध्यात्मिक संसार आपस में मिलते हैं जो कि इस भौतिक तीर्थ रेखा से मेल करते हैं। इस प्रकार जो भी एक कदम भौतिक संसार की ओर बढ़ाता है वह संसार में उलझा रहता है और जो आध्यात्म के पानी की ओर अपना कदम बढ़ाता है वह उसके बहाव में बहने लगता है। इसीलिए कह गया है कि सांसारिकता और आध्यात्मिकता के बीच संबंधित बिन्दुओं की रेखा को तीर्थ कहते हैं। ‘‘तीरस्थम् तीर्थमित्याहुह’’। शिव का कहना है कि सामान्यतः चाहे भौतिक जगत हो या आध्यात्मिक, तामसी प्रकृति के लोग अधिक पराक्रम या साधना किए बिना ही सब कुछ पा जाना चाहते हैं। इसलिए जब इस प्रकार के लोग अपना भाग्य बदलना चाहते हैं या मोक्ष चाहते हैं तो वे इस प्रकार के तथाकथित तीर्थों की ओर दौड़ लगाने लगते हैं। वहॉं वे पंडों के कहे अनुसार बछ़ड़े की पूछ पकड़कर तथाकथित वैतरणी पार कर अपने को सौभाग्यशाली मानते हैं। स्थानीय व्यापारी इस बात को भांप कर उनका आर्थिक शोषण करते हैं। जब उन्हें लगता है कि उनकी आध्यात्मिक भूख इस तीर्थ यात्रा के कार्य से नहीं मिटती तब पछताते हैं कि एक तीर्थ से दूसरे तीर्थ में इस प्रकार भागने में इतना समय, पराक्रम और धन व्यर्थ ही खर्च किया।  

(2) तो सच्चा तीर्थ क्या है? वह कहॉं पर स्थित है? शिव ने उत्तर दिया कि हे वराणने (पार्वती)!  ‘मानव हृदय में जिस सुनहरी रेखा पर मानसिक संकल्प और विकल्प उत्पन्न होते हैं और जहॉं वे आध्यात्मिक प्रशान्ति के मधुर भाव में एक दूसरे को स्पर्श करते हैं वही सच्चा तीर्थ कहलाता है। जो भी इस सुनहरी रेखा पर स्थित रहता है उसे कहा जाता है तीरस्थ या तीर्थ। इस स्थान पर वह व्यक्ति और उस स्थान का नियंत्रक देवता एक समान हो जाते हैं। वे जो अपने हृदय की गहराई में स्थित पवित्र तीर्थ में विराजे तीर्थपति, जो कि सदा जाग्रत और स्थायी रूपसे स्थिर लौ के समान सदा प्रकाशमान रहते हैं, को भूलकर भौतिक जगत के तीर्थों के चक्कर लगाते रहते हैं, क्या वे मुक्ति मोक्ष पा सकते हैं? शिव ने स्पष्ट कहा कि नहीं पार्वती! इस प्रकार के लोग इन यात्राओं से मुक्तिमोक्ष नहीं पा सकते। 


Wednesday, 17 September 2025

438 भगवान सदाशिव की शिक्षाएं, भाग -2 : (शिवोपदेश) शिव का दसवां उपदेश है कि-


शिव का दसवां उपदेश है कि- 

‘‘आत्मस्थितं शिवं त्यक्तवा बहिस्थं यःसमर्चयेत् , हस्तस्थं पिंडमुत्सृज्य भ्रमते जीविताशया।’’

अर्थात् अपने हृदय में स्थित परमचैतन्य सत्ता की उपेक्षा कर जो बाहरी पूजा करने का दंभ भरते हैं वे वैसे ही है जो हाथ में रखा हुआ भोजन फेक कर भीख मांगते फिरते हैं।

स्पष्टीकरण :

(1) इस विश्व ब्रह्मांड में कोई भी जीवधारी किसी भी परिस्थिति में न तो अकेला है , न था और न रहेगा। सभी प्रकार के अस्तित्व उस परमसत्ता का आधार पाकर प्रारंभ से अंत तक गतिशील हैं और उन सबपर सदा बज्र से भी कठोर उस परम नियंत्रक  परासत्ता के अत्यंत कोमल हाथ का स्पर्श रहता है। वह एक हाथ से अपने प्रोतयोग से सभी स्तरों पर सभी लोकों से जुड़ा रहता है और दूसरे हाथ से ओतयोग द्वारा प्रत्येक अस्तित्व से। सभी प्राणियों के मनों के सर्वाधिक एकान्त कोने में चमकदार मणि की तरह चमकते रहते हैं। इस संसार का बाहरी और भीतरी आकाश उनके ही प्रकाश से चमक रहा है।

‘‘न तत्र सूर्यो भाति न चंद्र तारकं नेमा विद्युतो भान्ति कुतोयमग्निः।

तदेव भान्तमनुभाति सर्वं तस्य भासा सर्वमिदं विभाति।’’

अर्थात् वह जो बाह्य संसार को प्रकाशित करता है वही सभी तारों और नक्षत्रों को भी प्रकाश देता है। परम पुरुष के अलावा किसी की भी अपनी द्युति अर्थात् चमक नही है। अन्य सभी अस्तित्वों का प्रकाश वास्तव में उस एक ही सत्ता के प्रकाश का परावर्तन मात्र है। उसकी चमक के सामने यह सूर्य भी अंधेरे में लिपट जाता है और चंद्रमा काले पर्दे में छिप जाता है। सबकी चमक अंधेरे में डूब जाती है फिर इस अग्नि की ताकत ही क्या है जो उनके सामने चमक सके। सभी कुछ उसके विकिरण से विकिरित हो रहे हैं उनके लिए कोई भी नगण्य नही है, वे ही सभी के केन्द्र बिन्दु हैं। वह अपनी प्रिय संतानों को आनन्द से भरने के लिए सभी में उन्नत भाव भरकर अपने को उन्हीं के भीतर छिपाए हुए लुका छिपी का खेल खेल रहे हैं।

(2)  ‘ब्रहच्च तद्दिव्यंचिन्त्यस्वरूपम् सूक्ष्माच्च तत् सूक्ष्मतरं विभाति।

         दूरात्सुदूरे तदिहान्तिके च  पश्यत्स्विहैव निहितं गुहायाम्।’’

अर्थात् वह विराट अमाप्य दिव्य सत्ता सूक्ष्म से भी सूक्ष्मतम हो जाती है और दूर से अत्यधिक दूर तथा पास से भी अधिक पास आ जाती है। कोई भी उन्हें अपने हृदय गुफा के भीतर छिपा हुआ पा सकता है।

इसलिए शिव का कहना है कि किसी को भी उस परमसत्ता को बाहर ढूंड़ने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि वह तो आपके अपने अस्तित्व की भावना के भीतर रहते हैं वहॉं जाकर कोई भी उन्हें केवल खोजकर पा सकता है। अतः आन्तरिक संसार के सबसे अधिक चमकदार हीरे को भूलकर जो उसे बाहर तलाशता है वह व्यर्थ ही अपना समय नष्ट करता है।  शिव कहते हैं कि लोग अपना समय इस प्रकार क्यों नष्ट करे? अपने हाथ में रखा भोजन फेक कर भिक्षा पात्र लिये घर घर भीख मांगते क्यों फिरें? अरे! अपने भीतरी संसार में गहरे जाओ, और गहरे उतरो और गहरे.... ।


Sunday, 14 September 2025

437भगवान सदाशिव की शिक्षाएं, भाग -2 : (शिवोपदेश) शिव का नौवां उपदेश है कि-

 भगवान सदाशिव की शिक्षाएं, भाग -2 : (शिवोपदेश)

शिव का नौवां उपदेश है कि- 

‘‘आत्मज्ञानमिदं देवि परं मोक्षैकसाधनम्, सुकृतैर्मानवो भूत्वा ज्ञानी चेन्मोक्षमाप्नुयात्।’’

अर्थात् हे देवी पार्वती! यह आत्मज्ञान ही मोक्ष पाने का सर्वोत्तम साधन है जिसे अनेक जन्मों के सुकृत्यों के परणिमस्वरूप प्राप्त होने वाले इस मानव शरीर में ही इस आत्मज्ञान की साधना करने पर मोक्ष की प्राप्ति हो सकती है अन्य शरीरों में नहीं।

स्पष्टीकरण :

(1) शिव के कार्यकाल के समय जनसामान्य के मन की जिज्ञासाओं को प्रस्तुत करने की प्रतिनिधि थीं शिव की पत्नी पार्वती। वे शिव के समक्ष उन जिज्ञासाओं, परिप्रश्नों (आत्म ज्ञान से संबंधित आध्यात्मिक प्रश्नों) को सबके साने पूछती थी और उनका उत्तर शिव दिया करते थे। पार्वती के प्रश्नों जितने सुंदर होते थे उतने ही सुंदर शिव के उत्तर। पार्वती के इन मूल्यवान प्रश्नों को संग्रहीत कर ‘निगमशास्त्र’ नाम दिया गया तथा शिव के उत्तरों को संग्रहीत कर ‘आगमशास्त्र’ नाम दिया गया है। उत्तम कोटि के इन परिप्रश्नों के उत्तर भले ही शिव की दार्शनिक द्युति से जगमगा रहे हों परन्तु उनके व्यावहारिक मूल्यों ने उनके दार्शनिक मूल्य को ढंक सा लिया है अर्थात् शिव की दार्शनिक व्याख्या व्यावहारिक मूल्यों द्वारा उज्ज्वल हो गई है। निगम और आगम को विद्यातंत्र में हंस के दो पंख कहकर समझाया गया है कि जैसे हंस एक पंख से नहीं उड़ सकता उसे दोनों पंख चाहिए, उसी प्रकार विद्यातंत्र भी निगम और आगम दोनों को मिलाने पर ही सम्पूर्ण होता है। इस श्लोक में शिव, पार्वती के प्रश्न पूछने पर कहते हैं मोक्ष साधना का एकमात्र पथ है उपयुक्त अनुशीलन द्वारा आत्मज्ञान को प्राप्त करना। आत्म ज्ञान के बारे में शिवोपदेश क्रमांक 2 में विस्तार से समझाया जा चुका है जहॉं यह सिद्ध किया गया है कि आत्मज्ञान की साधना को छोड़कर मोक्ष प्राप्त कर पाना असंभवहै। कुछ विद्वान कहते हैं कि आत्मज्ञान प्राप्ति का सर्वोत्कृष्ट पथ है भक्तिमार्ग। परन्तु शिव ने यहॉं भक्ति मार्ग का नाम ही नहीं लिया जिसका कारण है शिव के कार्यकाल में विद्यातंत्र साधना में ‘भक्ति’ का व्यवहार नहीं होता था। साधना मार्ग का मूल्यवान उपदेश ‘‘मोक्षकारणसमग्रयां भक्तिरेव गरीयसी’’ आज से लगभग 1500 वर्ष पूर्व (आचार्य शंकर के समय) का ही है अर्थात् शिव के बहुत बाद प्रकाश में आया। शिव ने पहले ही समझाया है कि आत्मज्ञान प्राप्त करने के लिए निष्ठापूर्वक साधना करना होगी अर्थात् समस्त मन के विचारों को छोड़कर अपने हृदय की मधुरता को परमशिव की मधुरता में पूर्णांजली देने पर मनुष्य को परम श्रेय अर्थात् आत्मज्ञान मिलता है। भक्ति की इससे अधिक अच्छी, मधुर और गंभीर व्याख्या क्या हो सकती है?

(2) इसके बाद पार्वती ने शिव से पूछा अच्छा, तो कौन इस आत्मज्ञान पाने का सबसे अच्छा पात्र है? शिव जाति, पांति, गोत्र, वर्णभेद आदि नहीं मानते थे अतः वे बोले जन्म जन्मान्तर के सुकृत्य अर्थात् अच्छे कर्म करने के फलस्वरूप जब कोई जीवधारी इस दुर्लभ मानव देह को प्राप्त कर लेता है तभी वह इस आत्मज्ञान पाने के लिए योग्य अर्थात् पात्र होता है। अब कुछ विद्वान प्रश्न कर सकते हैं कि प्रतिसंचर (ब्रह्चक्र का द्वितीय अर्धचक्र ) की गतिधारा में प्रत्येक जीवधारी क्रमानुसार मानव शरीर पा ही जाऐंगे फिर भी यह क्यों कहा गया है कि पूर्व जन्मों के सुकृत्यों से मनुष्य शरीर पा जाने  के बाद ही आत्मज्ञान पाने की पात्रता आती है? शिव ने कहा, सही है प्रतिसंचर धारा में सुविन्यस्त पद्धति से जीव आगे बढ़ता हुआ मनुष्य शरीर पा जाता है, वह मनुष्य ही कहलाता है परन्तु वे जो अभी अभी अन्य जीवधारी का शरीर छोड़कर मानव शरीर में आए हैं उनका मन अभी भी पशुत्व और मनुष्यत्व की सीमा रेखा पर उलझा रहता है। उनका शरीर भले ही मनुष्य जैसा हो पर संस्कार पशुजीवन से भरे होने के कारण प्रारंभिक मानव जन्मों में उन्हें आध्यात्म चेतना का स्वर कम ही सुनाई देता है। अतः हर समय उसकी वृत्तियॉं पशुसुलभ क्रिया कलापों की ओर ही दौड़ती हैं। वह अच्छी बातें सुनना ही नहीं चाहता, सुनता है तो समझना नहीं चाहता और समझना भी चाहे तो समझ नहीं पाता। इस प्रकार के लोग शरीरिक तौर पर मनुष्य ही कहलाते हैं परन्तु बौद्धिक स्तर पर वे पूर्ण मनुष्य नहीं होते। इस प्रकार के लोग कहते हैं धर्म अफीम है, इसके बिना भी रहा जा सकता है। उनके लिए कोई भी कर्म पाप कर्म नहीं है। वे अपने और अपनों के स्वार्थ में ही मस्त रहते हैं। यही लोग जब धीरे धीरे सुअवसर मिलते मिलते विभिन्न मानव जन्म लेकर सुकर्म अर्जित करते हुए बौद्धिक स्तर पर उन्नत हो जाते हैं तो उनके पास विश्वविद्यालयों की डिग्री भले न हों वे आत्मज्ञान के लिए अवश्य योग्य पात्र माने जाते हैं। इसका प्रमाण यह है कि अनेक लोगों को देखा गया है कि वे अपने बाल्यकाल से ही आध्यात्म की ओर उन्नति करने लगते हैं क्योंकि उनके पिछले जन्मों के संचित आध्यात्मिक साधना के संस्कार उनके जीवन में प्रारंभ से ही प्रभावी हो जाते हैं। अतः शिव ने ठीक ही कहा है कि अनेक जन्मों के सुकृत्य से जब मनुष्य उन्नत बुद्धि पा लेता है तब वह आत्मज्ञान पाने के लिए योग्य हो जाता है और जिसने आत्मज्ञान पा लिया उसके त्रिविध तापों (भौतिक, मानसिक और आध्यात्मिक) की ज्वाला स्थायी रूप से शांत होकर मोक्ष की ओर ले जाती है।


Tuesday, 9 September 2025

436 भगवान सदाशिव की शिक्षाएं, भाग -2 : (शिवोपदेश) का आठवां उपदेश

 भगवान सदाशिव की शिक्षाएं, भाग -2 : (शिवोपदेश) का आठवां उपदेश है कि 

‘‘ जाग्रतस्वप्नसुषुप्त्यादि चैतन्यं यद् प्रकाशते, तद् ब्रह्माहमिति ज्ञात्वा सर्वबंधैः प्रमुच्यते।’’

अर्थात् जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति आदि तीनों अवस्थाएं परमपुरुष की इच्छा से प्रकाशित होती हैं। वह जो इन अवस्थाओं में रहते हुए अनुभव कर लेता है कि ‘वह ब्रह्म ही’ है वह सब प्रकार के बंधनों से मुक्त हो जाता है।

स्पष्टीकरण :

(1) मन की चार अवस्थाएं होती हैं, जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति और तुरीय।  इनमें से प्रथम तीन परमपुरुष की इच्छा से प्रकाशित होती है परन्तु तुरीय अवस्था वह है ‘जब इकाई मन अत्यधिक ईश्वरानुरक्ति में अपने समस्त अस्तित्वबोध ंको, माधुर्यपूर्ण समस्त स्पंदनों को, छन्दमय सभी भाव तरंगों को परमब्रह्म के नित्यानन्द में मिला कर सामयिक रूप से या स्थायी रूप से मानसिक संकल्प विकल्प रहित स्थिति में जा पहुंचता है ’। मन की उच्चतम प्रज्ञा का चितिशक्ति(परमात्मा) के साथ एकत्व ही तुरीय अवस्था कहलाती है जो अलौकिक आनन्द की अवस्था होने के कारण उसका बाहरी प्रकाशन नहीं होता।

जब चेतन मन, आज्ञानाड़ी और संज्ञानाड़ी के माध्यम से, इंद्रिय समूह की सहायता से,  इस भौतिक जगत में भावों के ग्रहण, वर्जन, प्रेषण और निक्षेपण करता है अथवा इंद्रियवर्जित या नाड़ीवर्जित भाव में स्नायुकोष की तरंगों को स्मरण करता है तो उसे जाग्रत अवस्था कहा जाता है। इस अवस्था में मनुष्य के जीवन में घात प्रतिघात हर क्षण आज्ञानाड़ी और संज्ञानाड़ी के माध्यम से स्नायुओं को धक्का देकर कभी सुख और कभी दुख की अनुभूति कराता है। यही कारण है कि मन वास्तविक जगत के तन्मात्रिक स्पंदनों कें स्पर्श की मधुरता या कठोरता को छोड़कर एक क्षण के लिए भी नहीं रह सकता। इस प्रकार ज्रग्रत अवस्था में वह नाड़ी समूह के स्पंदनों के माध्यम से विचारों को सोचता है और याद करता है। परन्तु इन नाड़ियों के विचार और स्मरण आज्ञा और संज्ञा नाडियों की अवधारणा जैसे महान नहीं होते। जब मन की एकाग्रता थोड़ी बढ़ जाती है और वह अन्तर्मुखी हो जाता है तब भौतिक जगत के सुख और दुख सब भूल जाता है अतः इस समय नाड़ियां के प्रभाव से उत्पन्न विचार और स्मरण बढ़ने लगते हैं।ं इस स्थिति में वह व्यक्ति अपने मासिक बल  के द्वारा विशेष विधि का उपयोग कर किसी दूसरे व्यक्ति के मन पर नियंत्रण कर सकता है। इसे ही ‘हिप्नोटिज्म’ कहा जाता है। इस प्रकार तीन अवस्थाओं में मन केवल जाग्रत अवस्था का ही अधिकतम उपयोग करता है अतः वह अपने आन्तरिक विचारों को व्यावहारिक बनाकर संसार के हित में प्रयुक्त कर सकता है। इसलिए जाग्रत अवस्था का अधिक महत्व है। जो लोग अधिक सोते हैं उन्हें उनींदापन घेरे रहता है और वे अपनी शक्ति का बहुत कम ही उपयोग कर पाते हैं। इसलिए कहा गया है-

‘‘षडदोषाः पुरुषेणेह हन्तव्याः भूतिमिच्छता, निद्रा, तंद्रा, भयं, क्रोधं आलस्यम् दीर्घसूत्रता’’

अर्थात् जो व्यक्ति अपनी उन्नति की कामना करता है उसे इन छः दोषों को त्याग देना चाहिए, वे हैं निद्रा, तंद्रा, आलस्य, भय, क्रोध और दीर्घसूत्रता। अब चूंकि मनुष्य यह जाग्रत अवस्था पाता है परमपुरुष की इच्छा से अतः किसी को भी इसके लिए बड़ी बड़ी बातें करते हुए दंभ  प्रदर्शित करने का अधिकार नहीं है।

(2) स्वप्न अवस्था में मन सोते हुए सोच विचार करता है। परन्तु चह हमेशा सोते हुए सोच विचार क्यों नहीं करता? जबकि जागते हुए मन सदा ही सोच विचार करता है, इतना ही नहीं वह जागते हुए ही ध्यान करता है और परमपुरुष के बारे में सोचविचार करता है और जाग्रत अवस्था में सदा ही सक्रिय रहता है, लेकिन सोते हुए हमेशा स्वप्न क्यों नहीं देखता? वास्तव में साने की अवस्था होती है मन को आराम करने करने की। परन्तु यदि सोने के पहले या सोते समय मन पर गहरा दुख या अत्यधिक प्रसन्नता प्रभाव डाले या किसी  बीमारी या किसी काल्पनिक सुख दुख प्रभावित करते हैं तो सोते समय पेट में बनने वाली गैस ऊपर उठकर नाड़ीतंत्र को कंपित कर देती है और मन सोचविचार करते हुए उन्हीं विचारों को स्वप्न के रूप में देखने लगता है। सोते हुए जब किसी कारण से मन की एकाग्रता बढ़ जाती है तब सर्वज्ञाता अचेतन मन नाड़ीतंत्र को सक्रिय कर देता है और स्वप्न द्रष्टा स्वप्न में उन प्रश्नों के उत्तर पा लेता है जिन्हें जानने के लिए वह संघर्ष कर रहा होता है। पर यह उत्तर विभक्त विचार होने पर कभी भी प्राप्त नहीं हो सकते। ध्यान देने की बात यह है कि इस प्रकार के समाधान प्रारंभिक रूप से स्वप्न में और द्वितीयक रूप से जाग्रत अवस्था में आते हैं लेकिन अधिकांशतः स्वप्न के समाप्त होते ही भूल जाया करते हैं, ब्रहुत थोड़ा सा भाग ही जागते हुए याद रह पाता है। वास्तव में जाग्रत अवस्था में  अचेतन मन से अवचेतन मन में द्वितीयक रूप से ही ज्ञान प्रवाहित होता है और अधिकांश मामलों में वह वहीं पर स्थिर रह जाता है और फिर चेतन मन में सरलता से आ जाता है। अनेक बीमार व्यक्ति अपने दुख को दूर करने के लिए मूर्तियों के सामने साष्टांग प्रणाम करते हुए सतत रूप से अपनी बीमारी से हो रहे कष्ट का समाधान करने के लिए सोचने लगते हैं। क्षण भर के लिए यदि उनका मन एकाग्र होजा ता है तो सर्वज्ञाताअचेतन मन समस्या का समाधान तत्काल अवचेतन में तरंगित कर देता है । परन्तु यह अवस्था न तो निद्रा की होती है, न स्वप्न की और न ही जाग्रत की, अतः समस्या का समाधान अवचेतन से चेतन में सरलता से आ जाता है और व्यक्ति समझता है कि अमुक अमुक देवी या देवता ने वरदान में मुझे यह समाधान दिया और मैं ठीक हो गया। पर स्पष्ट है कि यह सत्य नहीं है, यह सब खेल अचेतन और अवचेतन मन का ही होता है। सामान्यतः असथायी या स्थायी एकाग्रता  इन पांच मानसिक क्रियाओं में से किसी एक के द्वारा होती है, ‘क्षिप्त’, ‘मूढ़’, ‘विक्षिप्त’, ‘एकाग्रता’, और ‘निरोध’। मूर्ति के सामने लेटा हुआ व्यक्ति अपने मन की अस्थायी एकाग्रता के फल स्वरूप अचेतन मन से आऐ विचार अवचेतन के माधम से चेतन मन को संप्रेषित कर समस्या का समाधान कर देते हैं, इसमें मूर्ति या देवता का  कोई महत्व नहीं होता है। यद्यपि 95 प्रतिशत से भी अधिक स्वप्न सत्य नहीं होते फिर भी यह विचित्र अवस्था होती है जिसमें क्षण भर में एक राजा, रंक हो जाता है और रंक, राजा। स्वप्न में किसी को अपार कष्ट से कराहते तो किसी को अपनी इच्छाओं के पूरे होने पर अपार आनन्द से हंसते हुए देखा जा सकता है। परन्तु उन लोगों का ही जीवन सफल होता है जो परमपुरुष के स्वप्न देखते हैं। यह हो सकता है कि किसी के जीवन में अपार कष्टों ने आ घेरा हो परन्तु रात में जब वे स्वप्न में अपने इष्ट से मिलते हैं तो सभी कष्ट दूर होकर उनमें आनन्द और उत्साह भर देते हैं। वे जो इस प्रकार के स्वप्न देखते हैं सचमुच भाग्यशाली होते हैं। वे कह उठते हैं मैं उन्हें(अपने इष्ट को) आंखों से नहीं देखता, मैं तो उन्हें अपने मन में ही देखता हॅूं और उस मुलाकात में सभी दुख भूल जाता हॅूं इसलिए जब मैं स्वप्न देखता हॅूं मैं जिंदा रहता हॅूं । जागने पर भी उनका स्मरण बना रहता है और लगता है कि सपना सच हुआ और अब यह जागना उनके लिए व्यर्थ हो जाता है। परन्तु इस प्रकार के व्यक्ति समाज का कल्याण अधिक अच्छी तरह कर सकते हैं क्योंकि उनकी यह उनींदेपन की अवस्था आलस्य या जड़ता भरी नहीं होती बल्कि यह उन्हें सुनहला अवसर होता है कि अपने इष्ट (तारक ब्रह्म) के पैरों को पकड़ कर अपने अस्तित्व का जब तक जीवित हैं उपयोग करे।

(3) इस भौतिक जगत में मनुष्य की पांच वृत्तियॉं सक्रिय रहती हैं वे हैं, आहार, निद्रा, भय, मैंथुन और  धर्म साधना। इन पांच में से प्रथम चार तो जानवरों में भी होती हैं परन्तु पांचवी केवल मनुष्यों ही होती है। प्रथम चार वृत्तियों की विचित्रता यह है कि यदि उन्हें बढ़ाया जाय तो वे तेजी से बढ़ती ही जाती हैं परन्तु यदि उन पर प्रारंभ में ही थोड़ा प्रयत्न कर लिया जाय तो वे नियंत्रण में भी आ जाती हैं। पहली पांच वृत्तियां पाथमिक रूप से शारीरिक और द्वितीयक रूप से मानसिक होती हैं जबकि पांचवी बराबर बराबर शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक होती है। पहली चार वृत्तियों का शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य के लिए न्यूनतम योगदान है जबकि पांचवीं का योगदान इस क्षेत्र में असीमित है और जितना अधिक इसका योगदान लिया जाय उतना ही अधिक अच्छा होता है। इसलिए शिव का कहना है कि प्रथम चार वृत्तियों को धीरे धीरे पांचवीं की ओर प्रवाहित करते रहना चाहिए जिससे बाद में उन पर नियंत्रण हो जाता है ओर उनकी आवश्यकता बिलकुल नहीं रह जाती। शारीरिक, मानसिक और आध्यत्मिक कार्य करते हुए मन थक जाता है तब उसे आराम के लिए नींद की आवश्यकता होती है। जो लोग इन तीनों प्रकार के कार्यों में संतुलन बना लेते हैं उन्हें विस्तर पर जाते ही नींद आ जाती है परन्तु जो यह असंतुलन नहीं बना पाते वे अनिद्रा से पीड़ित रहते हैं। निद्रा की विशेषता यह है कि उसे जितना अधिक प्रश्रय दिया जाता है वह बढ़ती ही जाती है। इस प्रकार को कोई व्यक्ति 24 में से 23 घंटे तक सो सकता है परन्तु क्या यह मौत से कुछ कम है? इस धरी पर मनुष्य धर्म साधना करने के लिए आया है यदि वह सोता रहेगा तो यह महत्वपूर्ण कार्य कब करेगा? मनुष्य के जीवन का उद्देश्य है कि मृत्यु के अंधेरे को दूर करते हुए हृदय की सुनहली प्रकाश तरंगों में आनंदित रहना। यही गतिशील जीवन, आध्यात्मिक तरंगों से प्रेरित होकर जागृत अवस्था में भी अनुभव किया जाता है। इसलिए शिव का कहना यह है कि परमपुरुष के द्वारा ही मनुष्य को जगृत, स्वप्न और सुषुप्ति की अवस्थाएं प्रदान की गई हैं अतः उनके अस्तित्व को मन में रखते हुए उन्हें तुरीयावस्था तक पहुंचने का अभ्यास करना चाहिए । यह अभ्यास धर्म साधना के द्वारा ही संभव है। चूंकि समग्र ब्रह्मांड उन परमपुरुष की तरंगों से ही तरंगायित हा रहा है अतः धर्म साधना के द्वारा व्यक्ति अपनी मानसिक तरंगों को उनकी तरंगों के साथ सरलता से मिला सकता है और उन्हें अनुभव कर सकता है।  साधना में अनुभव करते हुए साधक कहता है, हे प्रभो! आप तो अनन्त हैं, अपरिमाप्य हैं ओर मैं तो अत्यंत छोटा सा आपकी तुलना में नगण्य हॅूं। परन्तु हूं तो आपकी असीमित सत्ता का सूक्ष्म अंश ही अतः मैं अपने सभी संकल्प और विकल्पों को आपके प्रति समर्पित करता हॅूं। अब मेरे और आप के बीच कोई भेद भाव नहीं , कोई भिन्नता नहीं , कोई अलगाव नहीं। मैं तो तुम ही हॅूं। इस प्रकार जब उस परमसत्ता के साथ उसकी व्यक्तिगत सत्ता का भेद समाप्त हो जाता है तो व्यक्ति मुक्त कहा जाता है। उसके भौतिक , मानसिक और आध्यात्मिक सभी प्रकार के बंधन समाप्त हो जाते हैं और वह अलौकिक आनन्द की परम अवस्था को पा लेता है। 


Friday, 5 September 2025

435 भगवान सदाशिव की शिक्षाएं, भाग -2 : (शिवोपदेश) शिव का सातवां उपदेश है कि


‘‘मृच्छिलाधातुदार्वादि मूर्तावीश्वरो बुद्धयो, क्लिश्यन्तस्तपसा ज्ञानम् बिना मोक्षम् न यान्ति ते।’’

अर्थात्, वे लोग जो सोचते हैं कि परमपुरुष मिट्टी, घातु, या लकड़ी की प्रतिमाओं में सीमित रहता है और उनके सामने व्रत उपवास आदि से तपस्या करते हुए अपने शरीर को विभिन्न कष्ट देते हैं, वे निश्चित ही बिना आत्मज्ञान प्राप्त किए मुक्ति नहीं पा सकते। 

स्पष्टीकरण :

(1) छठवें उपदेश में बताया गया था कि मनुष्य किस प्रकार मूर्ति की कल्पना कर उसकी पूजा द्वारा अपनी मनोकामनाओं और आकांक्षाओं को सरलता से पूरा करने का उपाय बता कर स्वयं को धोखा देता है। इस उपदेश में कहा गया है कि मनुष्य इन कल्पित मूर्तियों को केवल अपने मन में ही नहीं रखता वरन् उन्हें मिट्टी, घातु, लकड़ी आदि का बनाकर  विभिन्न आकार प्रकार देकर कीमती साज सज्जा करता है और पूजा अर्चना के लिए बहुत धन भी व्यय करता है। इनकी पूजा को केन्द्रित करते हुए पुरोहित तंत्र पैदा होता है  और जिन परमपुरुष ने सबको बनाया है उनको मिट्टी पत्थर की मूर्तियों में बनाकर स्नान मंत्र से स्नान कराना, भोजन के लिए राजभोग खिलाना, फूलों की शय्या पर सुलाना, उत्सवों के समय राजसी वस्त्रों में सजाना आदि, सब उन्हें तृप्त करने की व्यवस्थाएं बना ली हैं। किसी किसी स्थान पर उस भोग के उपादान को विभिन्न मूल्यों में बेचा जाता है और रात में मंदिर के द्वार को यह कहकर बंद कर दिया जाता है कि अब भगवान सो रहे हैं! कितना आश्चर्य! भगवान सो गए , परमपुरुष सो गए तो इस जगत का कार्य कैसे चल रहा है? कल्पना में भी धोखाधड़ी, जैसे मूर्ति की कल्पना वैसे ही भावना जगत में चोरी। फिर भी मूर्तियों में केन्द्रित देवता के लिए, तीर्थ यात्राओं में कितना कष्ट उठाना पड़ता है, धन व्यय करना पड़ता है क्योंकि वे मूर्ति में ईश्वर को कैद करके, उसका आरोपण करके उससे भौतिक सुख सुविधाओं की आशा लगाए रहते हैं।  कहा जाता है ि कइस विश्व में कुछ भी व्यर्थ नहीं है, पर यह मिट्टी केन्द्रित क्लेशभोग क्या व्यर्थ है? नहीं, यह व्यर्थ नहीं है परन्तु इस प्रकार के दुख भोग का कोई पारमार्थिक मूल्य नहीं है। जिस दिन मनुष्य को यह समझ में आ जाता है  उस दिन से उतावला होकर वह इस प्रकार की भावजड़ता के विरोध में आ जाता है। परिवेश के दबाव से वह कुछ कर नहीं पाता पर मन ही मन आर्तनाद करता है कि हे परमपुरुष! मैं ने अपनी गलती को सुधार लिया है अब आप मुझे अपनी ओर ले चलो। स्पष्ट है कि इस प्रकार के कृच्छ साधनों से लेशमात्र भी आध्यात्मिक उन्नति नहीं हो सकती फिर मुक्ति मोक्ष की आशा करना तो बिलकुल बेकार है। इसलिए शिव का कहना है कि मोक्ष पाने का एकमेव साधन है आत्मज्ञान प्राप्त करना। इस आत्म ज्ञान को प्राप्त करने के लिए बाहर के जीवन में शुद्ध आचार, मानसिक जीवन में शुद्ध विचार तथा आत्मिक जगत में एक सर्वाश्रय परमसत्ता को जीवन का एकमात्र ध्रुवतारा समझकर दृढ़ता से पकड़े रहने की आवश्यकता होती है। 

(2) विभिन्न देवी देवताओं की मूर्तियां बनाकर और उनको केन्द्रित कर मध्ययुग में अनेक पुराणों की रचना की गईं, जिनकी रचनाओं में व्यासदेव अग्रगण्य माने जाते हैं। व्यास जी को जब अपनी इस गलती का आभास हुआ तब उन्होंने परमपुरुष से इस प्रकार क्षमा याचना की है-

‘‘रूपम् रूपविवर्जितस्य भवतो यद्ध्यानेन वर्णितम्।

स्तुत्यानिर्वचनीयताअखिलोगुरो दूरीकृता यन्मया।

व्यापित्वं च निराकृतमं भगवतो यत्तीर्थयात्रादिना।

क्षन्तव्यं जगदीशो तद्विकलता दोषत्रयम मत्कृतम्।’’

अर्थात् "हे प्रभो! आपका कोई रूप या आकार नहीं है फिर भी मैंने आपको अनेक रूप देकर वर्णन कर डाला, जबकि आप केवल ध्यान के माध्यम से ही जाने जा सकते हो।

आप तो अवर्णनीय हैं आपके बारे में कोई शब्दों में कुछ कह ही नहीं सकता, फिर भी मैंने आपको विभिन्न स्तुतियों और प्रार्थनाओं में बांध डाला। 

आप तो निराकार होकर सर्वव्यापी हैं, और मैं ने आपको तीर्थ स्थानों में बांध दिया।

हे जगत के स्वामी! मेरी मानसिक विकृतियों के कारण मुझसे यह तीन दोष अर्थात् गलतियॉं हो गई हैं, इनके लिए आप मुझे क्षमा कर दें।"

इससे यही निष्कर्ष निकलता है कि  जो समस्त जगत के अस्तित्व, समस्त भावों के मध्यमणि हैं, उन्हें तो हमें अपनी आत्मा को देना है, अपनी सबसे प्रिय वस्तु अस्तित्व वोध की सारसत्ता को देना है। इसलिए व्यर्थ के प्रपंच त्याग कर कहना चाहिए ‘‘ निवेदयामि चात्मानं त्वम् गतिः परमेश्वरा।’’ अपने पन के भाव को निवेदित करके परमपुरुष के भाव को आत्मस्थ करने की जो साधना है वही आत्मज्ञान की साधना है। मोक्ष केवल इसी साधनां से मिल सकेगा। भावना के क्षेत्र में चोरी करके कोई भी वैतरणी पार नहीं कर सकता वह पाप से मुक्ति नहीं पा सकता।  जीवन के समस्त जागतिक और मानसिक स्तरों पर भी यही सार कथा है, अजस्र कथाओं में यही प्रधान कथा है।


Monday, 1 September 2025

434 भगवान सदाशिव की शिक्षाएं, भाग -2 : (शिवोपदेश) :शिव का छठवां उपदेश है कि -



शिव का छठवां उपदेश है कि 

‘‘मनसा कल्पिता मूर्तिः नृणां चेन्मोक्षसाधनी, स्वप्नलब्धेन राज्येन राजानः मानवास्तथा।’’

अर्थात्, जैसे स्वप्न दृष्टा स्वप्न में अपने को राजा बना देखता है पर वह जागते ही राजा नहीं रह जाता उसी प्रकार मनुष्यों के मन से कल्पित मूर्ति मुक्ति कैसे दिला सकती है।

स्पष्टीकरणः

(1)  मन के मुख्यतः दो गुण हैं पहला सोच विचार करना और दूसरा याद रखना। विचार भी अनेक प्रकार के होते हैं जैसे, वर्तमान परिवेश से जुड़े, भूतकाल के परिवेश से जुड़े, किसी भी परिवेश से असंबद्ध और विलक्षण या उद्भट विचार। ‘वर्तमान’ से जुड़े विचार होते हैं घर ग्रहस्थी से जुड़े, पेड़पौधों, मित्रों, आदि से जुड़े; जैसे कोई थोड़ी दूरी पर सांप देख कर सब कुछ भूलकर उसी के बारे में सोचने लगता है, इसी प्रकार भोजन बनाते समय केवल भोजन के संबध में विचार आते हैं और परीक्षा देते समय प्रश्नपत्र से संबंधित, आदि। ‘भूतकाल’ से जुड़े विचारों में जैसे, कोई बचपन में बड़ी सुख सुविधाओं में रहा हो परन्तु  बड़े होने पर उसे अभाव देखना पड़े तो वह अपनी पिछली स्मृतियों में ही बना रहता है, कोई छात्र जो कभी उच्च श्रेणी में पास होता था यदि फेल हो जाए तो वह पुरानी स्थिति पर विचार करते हुए सिसकियॉं भरता है। अधिकारी रिटायर होने के बाद अपने पुराने दिनों के रुतवे को याद करते दूसरों को बताया रहते हैं। ‘किसी भी परिवेश से असम्बद्ध’  विचार हैं, जैसे कोई अपार कष्ट में जीवन बिता रहा है तभी उसके मन में कल्पना की रंगीन पतंग आकाश में उड़ने लगती है और वह उन रंगों में अपनी कल्पना की दुनिया में आनन्दित होने लगता है। अन्य प्रकार के विचार है विलक्षण या उद्भट विचार, जैसे वे काल्पनिक विचार जो किसी अन्य संसार से जुड़े हों। मनुष्य अपने मन में प्रायः वही विचार लाता है जो उसने अपनी इंद्रियों के माध्यम से पूर्व काल में अनुभव किए होते हैं परन्तु इसके अलावा अन्य विचार न आना मानव मन की सबसे बड़ी कमजोरी है। इसलिए इकाई मन और ब्रह्मिक मन के बीच सबसे बड़ा अन्तर यही होता है कि ब्राह्मिक मन में सभी बिचार मौलिक होते है, सदा नए होते हैं, उसे  बाहरी संसार से कोई विचार अपने अंगों के द्वारा अनुभव करने की आवश्यकता नहीं होती। (इसीलिए कहा गया है कि ‘‘भावातीत अभिनव देहि पदम’’ अर्थात् मानव मन के चिन्तन से दूर चिरनवीन हे परमपुरुष मुझे अपने चरणों में स्थान दो।) अतः जब कोई व्यक्ति किसी वस्तु के पूर्ण या किसी भाग को किसी अन्य वस्तु के पूर्ण या किसी भाग से मिला दे और फिर इन सबको किसी तीसरी  और चौथी वस्तु के पूर्ण या किसी भाग से मिलाकर पूरे मिश्रण से अपनी कल्पना का कोई नया रूप रच दे तो इसे कहा जाता है विलक्षण विचार। उद्भट या विलक्षण विचार प्रायः मनुष्य के मन में भय के कारण जन्म लेते हैं। शेर से भय के कारण सिंह देवता, जगल  के भय से बचने के लिए वनदेवी, सापों के भय से नागदेवता, आदि अनेक देवी देवता केवल भय की प्रवृत्ति से ही कल्पित किए गए हैं। सामान्यतः मनुष्य कम परिश्रम किए सब कुछ पाना चाहता है अतः धन का लोभी धनदेवी या लक्ष्मी, छात्र विद्यादेवी या सरस्वती आदि की कल्पना कर बाहरी सामग्री से उनकी पूजा करने लगता है। मनुष्य मौलिक विचार नहीं कर सकता उसे इसी संसार के अनुभवों के आधार पर ही सोचना चड़ता है जबकि परपुरुष का चिंतन मौलिक होता है उन्हें इस संसार से कुछ भी नहीं लेना होता। मनुष्य द्वारा निर्मित काल्पनिक मूर्तियों में तन्मात्रिक अस्तित्व भी नहीं होता फिर पदार्थ का अस्तित्व वे कैसे पा सकती हैं? यदि यह मूर्तियॉं परमसत्ता का मौलिक विचार होतीं तो उन्हें अवश्य ही भौतिक अस्तित्व दिया गया होता। उनका निर्पेक्ष अस्तित्व  भी नहीं होता क्योंकि निर्पेक्ष अस्तित्व तो केवल परमसत्ता का ही है अन्य किसी का नहीं। इस प्रकार मनष्ुय द्वारा कल्पित अस्तित्व तो कल्पनाओं की कल्पनाएं सिद्ध होते हैं। ( मनुष्य परपुरुष की कल्पना हैं और मूर्ति मनुष्य की, अतः मूर्तियॉ ंतो कल्पना की कल्पना हैं।)   इसीलिए श्लोक के पहले भाग में कहा गया है ‘‘मनसा कल्पिता मूर्तिः’’।

(2) आलसी लोग सरलता से बहुत कुछ पाने की लालसा में कल्पनाओं के जाल बुनकार आकाश में उड़ने लगते है पर भूल जाते हैं कि कभी न कभी उसे इस धूल धूसरित धरा पर वापस आना ही पड़ेगा। जिस प्रकार वे भौतिक जगत की वस्तुओं को पाने के लिए दूसरों को धोखा देते हैं, या हाथ पैर जोड़ते हैं, गिड़गिड़ाते है उसी प्रकार वे अपनी मुक्ति मोक्ष की कामना को पूरा करने के लिए इन काल्पनिक मूर्तियों के सामने गिड़ड़िते हैं; जबकि आध्यात्मिक मुक्ति मोक्ष पाना बिलकुल ही भिन्न मामला है।ं सभी जीवधारियों के पास मन होता है किसी का प्रसुप्त, किसी का उन्नत किसी का अतिउन्नत। परन्तु मनुषय का कितना ही उन्नत मन क्यों न हो अंततः वह इकाई मन ही है जबकि सर्वाधिक उन्नत मन परमपुरुष का है जिसे ‘‘भूमा मन’’ कहते हैं। मनुष्य के सभी प्रकार के सुख और दुख इकाई मन में ही आते हैं वहीं पर अनुभव होते हैं। इसीलिए कहा गया है कि ‘‘मन एव मनुष्याणां कारणं बंधमोक्षयोः’’। मनुष्य का मन ही उसे बंधन में डालता है और मुक्त भी करता है। मन ही पुण्य कर्म करता है और मन ही पाप। परन्तु जिनका मन परमपुरुष के विचारों में डूबकर कर्म करता है उसे न तो कुछ भी पाप है और न पुण्य। इसलिए मन ही सुख दुख के बोझ को लादे फिरता है। जब तक इकाई मन के बाहर अन्य अस्तित्व बने रहते हैं उसे सुख, दुख, इच्छाएं, उत्कंठा आदि घेरे रहते हैं। विभिन्न प्रकार के भौतिक और मानसिक आघातों के कारण मन में सुख दुख के बुलबुले बनते और मिटते रहते हैं। परन्तु साधना के द्वारा यदि मनुष्य अपने इकाई मन को परमपुरुष के मन में डुबो देता है तो वह परमपुरुष का ही मन बन जाता है और इकाई अस्तित्व भी परमपुरुष में मिल जाता है । इस स्थिति में उसके बाहर कुछ नहीं बचता, संकल्प विकल्प भी नहीं और न ही भौतिक और मानसिक आघात रह पाते हैं। इस अवस्था को ही मुक्ति या मोक्ष कहा गया है। अब मूर्तियों पर विचार कीजिए, वे सभी इकाई मन के भावों विचारों और कल्पनाओं की छवि को प्रकट करती हैं। वे सभी इकाई मन के भीतर उसकी इच्छा के आधीन ही होती हैं जिस क्षण मन ऐसा नहीं चाहेगा वे नहीं रहेंगी वे मन में ही समा जाएंगी। अब सोचिए क्या वे मानव मन को मानसिक बंधनों से मुक्त कर परमपुरुष के मन के साथ जोड़ सकती हैं, या वे संकल्पों और विकल्पों से मुक्त कर सकती हैं? यह वैसा ही है जैसे कोई अपने पूर्वोक्त चारों प्रकार के विचारों द्वारा अपने स्वप्न में राज्य का निर्माण कर ले तो बाह्य संसार की कठोर वास्तविकता से संपर्क न होने के कारण वह अपने को सच का राजा होना अनुभव करेगा। स्वप्न और कुछ नहीं है, वह है सोते हुए सोचना। अतः जब वह जागता है तो उसकी कल्पनाओं का संसार नष्ट हो जाता है और पाता है कि वह उसी फटी दरी और चद्दर ओढ़े पड़ा है। अतः जिस प्रकार स्वप्न में पाया राज्य वास्तविक नहीं हो सकता उसी प्रकार मानव मन के द्वारा कल्पित उद्भट् विचारों द्वारा निर्मित मूर्तियॉं यथार्थता से संपर्क नहीं करा सकती बल्कि स्वप्न समाप्त होने पर जो स्थिति स्वप्न के राजा की होती है वही मूर्तियों की सच्चाई का पता चलने पर मूर्तिपूजक की होती है। इसीलिए श्लोक के अंत में कहा गया है कि ‘स्वप्नलब्धेन राज्येन राजानः मानवास्तथा।


Teachings of Lord Sadashiva, Part-2: (Shivopadesh)

The sixth sermon of Shiva is that

 “Manasa Kalpita Murti: Nrinaam Chenmokshasadhani, 

Swapnalabdhen Rajyen Rajaanah Manavasthatha.”

That is, just as a dreamer sees himself as a king in his dreams but as soon as he wakes up he ceases to be a king, in the same way how can an imaginary idol liberate people from their minds.

Explanation:

(1) The mind has mainly two qualities, first is thinking and second is remembering. There are many types of thoughts like, related to the present environment, related to the past environment, unrelated to any environment and strange or unique thoughts. Thoughts related to the ‘present’ are related to household, trees, plants, friends, etc.; like someone seeing a snake at a distance forgets everything and starts thinking about it, similarly while cooking food, only thoughts related to food come and while giving the exam, thoughts related to the question paper, etc. In the thoughts related to the ‘past’, like, if someone lived in great comforts in childhood but has to face scarcity when he grows up, then he remains stuck in his past memories, if a student who used to pass with high grades once fails, then he sighs while thinking about the old situation. After retirement, officers keep telling others about their old days of status while remembering them. Thoughts ‘unrelated to any environment’ are such, like when someone is living a life of immense pain, then a colourful kite of imagination starts flying in the sky in his mind and he starts enjoying in his world of imagination in those colours. Other types of thoughts are strange or extraordinary thoughts, like those imaginary thoughts which are related to some other world. Man usually brings in his mind the same thoughts which he has experienced in the past through his senses, but not having any other thoughts apart from this is the biggest weakness of the human mind. Therefore, the biggest difference between the unitary mind and the Brahmic mind is that in the Brahmic mind all the thoughts are original, always new, it does not need to experience any thoughts from the outside world through its organs. (That is why it is said that “Bhavatita Abhinav Dehi Padam” i.e. O Param Purush, who is ever new and far from the thinking of human mind, give me a place in your feet.) Therefore, when a person mixes the whole or a part of an object with the whole or a part of another object and then mixes all these with the whole or a part of a third or fourth object and creates a new form of his imagination with the entire mixture, then it is called unique thought. Unique or unique thoughts usually take birth in the mind of a human being due to fear. Lion God due to fear of lion, Vandevi to avoid the fear of jungle, Nag Devta due to fear of snakes, etc., many gods and goddesses have been imagined only due to the tendency of fear. Generally, man wants to get everything by doing less hard work, hence the greedy of money starts worshiping Dhandevi or Lakshmi, student Vidyadevi or Saraswati etc. by imagining them with external materials. Man cannot think original, he has to think on the basis of experiences of this world only, whereas the thinking of Parapurush is original, he does not want to take anything from this world. The imaginary idols created by man do not even have tantric existence, then how can they have the existence of matter? If these idols were the original thoughts of the Supreme Being, then they would have definitely been given a material existence. They do not have an absolute existence either, because only the Supreme Being has an absolute existence and no one else. In this way, the existences created by man are proved to be imaginations of imaginations. (Man is the imagination of another person and idol is of man, hence idols are the imaginations of imagination.) That is why it is said in the first part of the verse, “Manasaa kalpitaa murtih”.

 (2) In the desire to get a lot easily, lazy people weave webs of imagination and start flying in the sky, but forget that someday they will have to come back to this dusty earth. Just as they cheat others to get the things of the material world, or beg by folding hands and legs, in the same way they beg in front of these imaginary idols to fulfill their desire of salvation. Whereas attaining spiritual liberation and salvation is a completely different matter. All living beings have a mind, some are dormant, some are advanced and some are highly advanced. But no matter how advanced a human being's mind is, ultimately it is the unit mind, whereas the most advanced mind is that of the Supreme Being, which is called "Bhumaa mind". All kinds of happiness and sorrows of a human being come to the unit mind and are experienced there only. That is why it is said that "Man eva manushyaanaam kaaranam bandhamokshayoh". It is the mind of a human being that binds him and also liberates him. It is the mind that does virtuous deeds and it is the mind that sins. But those whose minds are immersed in the thoughts of the Supreme Being and perform deeds, they have neither any sin nor virtue. That is why the mind itself goes about bearing the burden of happiness and sorrow. As long as other existences exist outside the unit mind, happiness, sorrow, desires, longing, etc. surround it. Due to various kinds of physical and mental shocks, bubbles of happiness and sorrow keep forming and disappearing in the mind. But if through sadhana a man immerses his unit mind in the mind of Param Purush then he becomes the mind of Param Purush and unit existence also merges with Param Purush. In this state nothing remains outside him, neither resolution nor option nor physical and mental shocks remain. This state is called Mukti or Moksha. Now consider the idols, they all reveal the image of the unit mind's feelings, thoughts and imaginations. They all are within the unit mind and are subject to its will, the moment the mind does not want it, they will not be there, they will merge in the mind itself. Now think whether they can free the human mind from mental bondages and connect it with the mind of Param Purush.