Tuesday, 28 October 2014


1.5 सन्मार्ग प्रेरण : शर्मा जी की प्रेरणा से मैं श्रीमद्भग्वदगीता को समय समय पर पढ़ता रहता और अच्छे लगने बाले श्लोकों को दीवार पर लिख लेता ताकि दूर से देख देख कर उन्हें याद किया जा सके। इस तरह मेरे कमरे की दीबारों पर या तो गणित और फिजिक्स के फारमूले लिखे रहते या गीता के श्लोक। शर्मा जी के स्वास्थ्य को दृष्टिगत रखते हुए उनके पारिवारिक सदस्य उन्हें जबलपुर ले गये अतः अब मेरी जिज्ञासाओं के समाधान का साधन भी नहीं बचा, परंतु उनके द्वारा बताया गया यह कथन याद रखे रहा कि जब कभी कोई कठिनाई आए तो परमपुरुष से कातर हृदय होकर एकाग्रता से मन ही मन प्रार्थना करना चाहिए, वे किसी न किसी माध्यम से समाधान करा देंगे। इसतरह अपनी यूनीवर्सिटी की परीक्षायें देते हुए फ्री टाइम में गीता का अध्ययन जारी रहा पर उसमें वर्णित अनेक तथ्य सैद्धान्तिक या सांकेतिक ही पाये जाने से बार बार उनकी व्यावहारिकता की विधियां तलाशने में मन यहां वहां डोलता रहता था। युनीवर्सिटी की लायब्रेरी से अनेक लेखकों की पुस्तकें पढ़ने के लिये लाता और उनमें अपनी शंकाओं का समाधान खोजता पर संतोषजनक उत्तर नहीं मिलता था। इसी बीच मेरे साथ कुछ अजीब सी घटनायें होने लगीं। चूंकि गीता में भूत प्रेतों के संबंध में यथार्थता जानकर अब उनके संबंध में बताये गये नियमों को मैंने पालन करना छोड़ दिया था इस कारण जब कभी भी मैं एकांत में लेटा होता मुझे तत्काल नींद आ जाती और इस बीच यदि कोई मुझे थोड़ा सा भी स्पर्श  करता या आवाज देकर जगाने की कोशिश  करता तो अचानक ही बड़े जोर की  डरावनी आवाज मेरे मुंह से निकलती जिसे सुनकर आस पास के लोग एकत्रित हो जाते , मैं आश्चर्य  में पड़ जाता और उन लोगों से पूछने लगता कि क्या बात है?  और, लोग मुझपर हंसने लगते । उन क्षणों में जब आवाज निकल रही होती मुझे ऐंसा आभास होता जैसे कोई मुझे अपार कष्ट दे रहा हो, और भय से आवाजें जोर की चीख की तरह निकल पड़तीं थीं। इस पर कई बार मुझे घर वालों से डांट  खाना पडी़।

अब मैं बड़ा ही परेशान रहने लगा और सोते समय बड़ा ही सावधान रहता ताकि कोई बीच में ही न जगा पाये। शर्माजी के बताये अनुसार मैंने अपनी इस ज्वलंत समस्या का समाधान  गीता में ढूंढते हुए एक स्थान पर पढ़ा कि दुविधाजनक स्थिति आजाने पर एक मात्र परमसत्ता को लगातार स्मरण करते हुए, किये हुए हर अच्छे बुरे कार्य को उन्हें ही समर्पित करते जाना चाहिये। भगवद्गीता सचमुच अनूठा ग्रंथ है, परंतु अधिकांश  महत्वपूर्ण तथ्यों का विवरण सांकेतिक  रूप से ही होने के कारण हर व्यक्ति अपने अपने ढंग से अर्थ निकालता है इससे बड़ा ही भ्रम उत्पन्न होता है। कई विद्वानों ने इस ग्रंथ पर अनेक प्रकार से टीकायें की हैं, पर विज्ञान का विद्यार्थी होने के कारण मुझे अतार्किक बातें स्वीकार करने में कठिनाई होती। सैद्धांतिक तथ्यों को व्यावहारिक आधार देने के लिये मन ही मन सोचता कि यह कैसे संभव होगा। विश्वविद्यालय   की कक्षाओं के नियमित अध्ययन के साथ साथ अपनी इस समस्या का भी समाधान ढूढ़ने के लिये अनेक अन्य ग्रंथों का भी अध्ययन जारी रहा। इस प्रकार डा. राधाकृष्णन द्वारा विदेशों में दिये गये भारतीय दर्शन पर ब्याख्यानों, स्वामी विवेकानंद के साहित्य, स्वामी रामतीर्थ के साहित्य, महात्मा गांधी का दार्शनिक  साहित्य आदि का अध्ययन करने के पश्चात् एक बात सभी में उभयनिष्ठ पाई कि सभी ने उपनिषदों का कहीं न कहीं अवश्य ही संदर्भ दिया है और स्वामी रामतीर्थ को छोड़कर अन्य सभी के द्वारा संदर्भित  संस्कृत श्लोक का अर्थ बताकर आगे की राह लेते जाने की विधि ही अपनाई गई है। स्वामी रामतीर्थ ने गणित और विज्ञान का सहारा लेकर सभी तथ्यों को समझाते हुए अपनी बात कहने की चेष्टा ईमानदारी से की है।

मेरा भी यही सोच रहता कि ग्रंथों का संदर्भित अंश ब्याख्याकार ने अपने जीवन में कैसे उतार पाया इसकी विधि का विवरण ही पाठक को सही मार्गदर्शन दे सकता है अन्य सब तो ग्रंथ के अंश का मात्र दुहरावा ही हुआ, अतः इस अर्थ में मुझे स्वामी राम तीर्थ की बातें अधिक प्रभावकारी लगीं। मन में जब उत्कट जिज्ञासा होती है तो अवश्य ही वह किसी न किसी माध्यम से समाधान हो जाती है। मैं अपना आध्यात्मिक अध्ययन जारी रखते हुए इस तलाश में था कि कोई ईश्वर जीव व जगत के बारे में वैज्ञानिक रूप से मेरी जिज्ञासाओं का समाधान कर दे, क्योंकि पूर्वोक्त महानुभावों के ग्रंथों में बार बार ईश्वर , माया, संसार और विभिन्न जीवों के बारे में जो भी विवरण मैंने पढ़ा, वह मेरी उत्सुकता और ज्ञानपिपासा को संतुष्ठ नहीं कर पाया । जितना मैं अलग अलग विद्वानों के मतों का अध्ययन करता उतना ही उलझता जाता, समझ में नहीं आता था कि क्या करूं, क्या करना चाहिये ,क्या नहीं करना चाहिये? बार बार गीता का वह श्लोक भी याद कर लेता कि ‘‘ कर्मणोह्यपि बोद्धब्यम्, बोद्धब्यम च विकर्मणः, अकर्मणश्च बोद्धव्यम गहना कर्मणेा गतिः।’’ अर्थात् कर्म अकर्म तथा विकर्म सभी का ज्ञान होना चाहिये क्यों कि कर्म की गति बड़ी ही गहन है।

इसी उधेड़बुन में उलझे मन को एक दिन कुछ संतुष्ठि का अनुभव प्राप्त हुआ जब अचानक आचार्य शुद्धसत्वानन्द अवधूत से मुलाकात हुई। जब मैंने उनसे अपनी पूर्वोक्त जिज्ञासाओं के बारे में पूछा तो उन्होंने बताया कि सबसे पहले तो यह मानलो कि पृथ्वी पर जितने आदमी रहते हैं उतने ही प्रकार के विचार, मत, और मतवाद संसार में भरे हुए हैं। सबके पास मन और मस्तिष्क है अतः सभी के विचारों को सुन समझ कर विश्लेषण करते रहना चाहिए और विश्लेषण के आधार पर जो सर्वोत्तम लगे उसे ही अपनाना चाहिये। यह बात मुझे अच्छी लगी क्योंकि उन्होंने अपने मत को मानने या न मानने की स्वतंत्रता दी, कहीं भी यह नहीं कहा कि वह जो कह रहे हैं वही ब्रह्म वाक्य हैं । उन्होंने यह भी बताया कि वह जिस विचारधारा का पालन करते हैं वह विश्व में प्रचलित सभी मतों दर्शनों और विचारों का निचोड़ है। यह एक मनोआत्मिक पद्धति है जिसमें किसी भी स्तर पर चेला मेकिंग सिस्टम नहीं है और यही इसकी विशेषता है। इस समग्र मनोआत्मिक दर्शन के प्रवर्तक को पिता और अनुयायियों को उनके पुत्र पुत्रियों का स्थान प्राप्त है। अनुयायी परस्पर गुरुभाई और गुरुभगिनी के संबंध से जुड़े हुए हैं और एक दूसरे को दादा और दीदी के नाम से तथा प्रवर्तक को बाबा सम्बोधित करते हैं। इस दर्शन में जाति, रंग, भाषा, देश और तथाकथित वर्तमान में प्रचलित धर्मों का कोई भेद नहीं है।

उनके अनुसार मानव मानव एक है तथा मानव का धर्म भी एक है, उस धर्म को भागवत धर्म कहा गया है। मानव का वह स्वभाव जो उसे ईश्वराभिमुख  करता है और ईश्वर  के प्रति अकृत्रिम  प्रेम और आकर्षण जगा देता है, भागवत् धर्म कहलाता है। वस्तुतः प्रत्येक व्यक्ति के भीतर ईश्वर  के लिये प्रेम और आकर्षण निहित रहता है। जो इस आकर्षण का अनुभव नहीं करता वह मनुष्य नहीं कहा जा सकता वह मनुष्येतर प्राणी मात्र है। भागवत् धर्म ही मनुष्य को पशु  से पृथक करता है, यदि किसी चोर या पापी के हृदय में ईश्वर  के प्रति प्रेम है तो वह मनुष्य कहला सकता है परंतु यदि तथाकथित धार्मिक नीति निपुण के हृदय में ईश्वर  के लिये आकर्षण नहीं है तो उसे मनुष्य नहीं कहा जा सकता। ‘‘ आहारनिद्राभयमैथुनंच सामान्यमेतद् पशुभिर्नराणाॅं, धर्मोंहितेशामधिको विशेषो धर्मेणहीना पशुभिः समानाः।’’ इसलिये जो मानवता के कल्याण की भावना पूरे मन से भरते हैं वे भागवत् धर्म का पालन अवश्य  ही करेंगे। भागवत्धर्म की नीव इन तीन मूलसत्ताओं पर आधारित हैः-(1)विस्तार (2)रस (3)सेवा,।

'विस्तार' का अर्थ है मन की विस्त्रिति अर्थात् मन को वृहदामुखी करना। इस स्थिति में सब प्रकार के छुद्र भाव, वर्ण, जाति भेद, और अंधविश्वाशों  के विरुद्ध संग्राम करना पड़ता है मन जब संकीर्णता और अंधविश्वाशों  में घिरा रहता है तो चारों ओर का वातावरण दूषित हो जाता है किन्तु मनके व्यापक होने पर पुण्य की द्युति स्वप्रकाशित होती है।  ‘‘विस्तारः सर्व भूतस्य विष्णोर्विश्वमिदम्  जगत् द्रष्टव्यमात्मवत्तस्माद भेदेन विचक्षणैः।’मनुष्य ही मननचिन्तन कर सकता है, प्रत्येक जीव मनुष्य के शरीर के लिये लालायित रहता है। क्योंकि इस शरीर में ही भागवत साधना करपाना संभव है। इसीलिये शास्त्र में कहा कि भागवतधर्म का पालन कुमार अवस्था से ही करणीय है। भागवत धर्म का आश्रय लेने वाले संसार की समस्त अभिव्यक्तियों को भगवानका विग्रह मानकर प्यार करते हैं, क्योंकि उनका प्रेम परमपुरुष के साथ होता है। ‘‘अनन्यममता,विष्णोर्ममता  प्रेमसंगता’’ तुम्हारा प्रेम  उनके साथ है जिनकी मानस सत्ता के बीच पूरा जगत स्थित है। उन्होंने जगत की रचना कर अपने को उसी में विलय कर दिया है। एक छुद्र कण, घास का पत्ता और प्राणी सब उन्हीं का विस्तार है इसलिये भागवतधर्म के अनुयायी साधकों के लिये अपने मनका इतना विस्तार करना होगा कि जगत की प्रत्येक वस्तु से प्रेम करें घृणा नहीं। भागवत धर्म में विभिन्नता को कोई स्थान नहीं है। यह संश्लेषण  का पथ है।

'रस'-विश्व  में जो कुछ होरहा है चाहे प्राकृतिक हो या अतिप्राकृतिक सबकुछ परमपुरुष की इच्छा से ही होरहा है। उनके मन का प्रक्षेप यह जगत, उनकी मानस तरंग से उत्पन्न हुआ है। हमारे अणुमन से उनके भूमामन (cosmic mind) का पार्थक्य यह है कि हमारी कल्पना का रूपान्तरण वाह्य मानस प्रक्षेप के रूप में होता है जबकि भूमा मन में वाहृय कुछ भी नहीं है। समस्त जगत उसकी मानस सत्ता के मध्य स्थित है इसलिये उसकी मानस तरंग हमें वाह्य प्रतीत होती हैं। परमपुरुष का मानस चिन्तन उनका स्वरस है। विभिन्न चिन्तनों के कारण अणुमन में जो तरंगें बनती हैं वे उसका स्वरस हैं। इस स्वरसगत पृथकता के कारण ही प्रत्येक जीव एक दूसरे से अलग अलग होता है। जैसे, बाजार से जाते हुए तुमको एक जूते बनाने बाला तुम्हारे पैरों की ओर, नाई सिर की ओर और धोबी कपड़ों की ओर देखता है। द्रष्टि की यह भिन्नता अपने अपने स्वरस के कारण होती है। प्रत्येक अणुमन का स्वरस परमपुरुष के द्वारा प्रत्यक्ष रूप से नियंत्रित होता रहता है, तुम चाहो या नहीं उनके चारों ओर घूमना ही पड़ेगा । तुम्हारा स्वरस यदि उनके स्वरस के साथ साम्य स्थापित नहीं करता तो तुम्हारी इच्छा कभी पूरी नहीं हो सकती। तुम तो हजारों इच्छायें प्रति दिन करते हो पर उनमें से कितनी पूरी हो पाती हैं? इसलिये सफलता पाने के लिये भूमा तरंग(cosmic wave) और तुम्हारी स्वरस तरंग(psychic wave) में सामंजस्य होना चाहिये।जब मनुष्य परमपुरुष के प्रेम में जकड़ जाता है तो वह उनका स्वभाव जान जाता है और वह अपने स्वभाव को परमपुरुष के स्वभाव में मिला देता है जिससे वह जगत में प्रतिद्वन्द्वता से दूर हो जाता है और अपने क्षेत्र में विजयी होता है। दूसरे समझते हैं कि वह महान पुरुष है पर वह जानता है कि उसकी सफलता का रहस्य क्या है। इसलिये रस साधना का मूल मंत्र यह है कि अपनी इच्छा को परमपुरुष की ओर प्रवाहित कर दो। शास्त्र  में इसी को रासलीला कहा गया है। तुम्हारी बुद्धि, शिक्षा, मान सब व्यर्थ हो जायेंगे यदि उन्हें परमपुरुष की ओर परिचालित नहीं करते हो। साधक को चाहिये कि वह यह भावना रखे कि हे प्रभो मेरे जीवन में तुम्हारी इच्छा पूरी हो।

’सेवा'- जब किसी को कुछ देकर उसके बदले में प्रत्याशा  रखी जाती है तो यह कहलाता है व्यवसाय और जब पाने की प्रत्याशा  नहीं की जाती तब वह सेवा कहलाती है। यह दो प्रकार की हो सकती है एक आन्तरिक और दूसरी बाह्य। बाह्य सेवा के लिये संपूर्ण जगत को परमेश्वर  का विग्रह जानकर प्रत्येक प्राणी की सेवा करना होगी, चाहे गृहस्थ हो या संन्यासी, जीव को शिव  जानकर सेवा करना ही होगी। जीव की सेवा के समय मन में रखना होगा कि परमपुरुष की ही सेवा कर रहे हो, यदि जीव रूप में वह नहीं आते तो यह अवसर कहां मिलता। रोगी, भिखारी के रूप में वे तुम्हारे पास आते हैं और तुम्हारी सेवा की आशा  करते हैं, तुम्हारी सेवा से वे कृतज्ञ नहीं होते वरन् तुम ही होते हो क्योंकि यदि वह सेवा का अवसर न देते तो तुम क्या करते? वाह्य सेवा सब कर सकते हैं। आन्तरिक सेवा, जपक्रिया और ध्यान से सम्पन्न होती है। ध्यान और जप के समय सेवा की मनोवृत्ति जाग्रत रखना होगी, प्रत्याशा  का त्याग करना होगा। साधना में सोचना होगा कि परमपुरुष की सेवा कर रहे हैं। साधना में सेवा भाव होने पर एकाग्रता सहज ही आ जाती है सेवा भाव नहीं रहने पर योगी की साधना भी निरर्थक हो जायेगी। जब आन्तरिक सेवा ठीक नहीं होती तब वाह्य सेवा भी संभव नहीं है।

उन्होंने बताया कि भागवतधर्म के पालन करने वालों का लक्ष्य होता है,‘‘आत्ममोक्षार्थं जगद्हितायच’’, इसका प्रथम भाग, आन्तरिक सेवा से अपूर्ण व्यक्तिगत जीवन को पूर्ण करने और द्वितीय भाग वाह्य सेवा से  जगत को कल्याण पथ पर अग्रसर करने का प्रयोजन है। बाहरी सेवा से मन शुद्ध होता   है और इसी शुद्ध  मन द्वारा इष्ट की सेवा करना होती है। इन दोनों प्रकार की सेवाओं के करने का अधिकार सब को है। सभी अपनी मानस तरंग(mental wave) को भूमा मन की तरंग (cosmic wave) में मिलाने का चिन्तन कर सकते हैं। साधना और कुछ नहीं, है केवल केन्द्र विन्दु से अपनी परिधि को कम कर लेना। व्यक्तिगत स्वरस से स्नायुओं द्वारा विभिन्न ग्रंथियों की संरचना होती रहती है। मन की विभन्न विचारधाराओं में विभिन्न स्वरसों के संपर्क में आने से भाव उत्पन्न होता है कि मैं ब्रह्मवत् हूॅं। जानकर या अनजाने में ही प्रत्येक जीव ‘‘ मैं वही, वही मैं’’, 'सोअहं' के बीच आवर्तित होता रहता है। वह शिव  से पृथक नहीं है। जब तक वह सोचता है कि वह ब्रह्म से पृथक है उसे घूमते रहना पड़ेगा । जब उभय प्रेम  का चिन्ह मात्र दूर हो जाता है तब और पृथकता नहीं रहती दोनों मिलकर एक हो जाते हैं। जब तक ऐंसा नहीं होता कोल्हू के बैल की तरह घूमते रहना पड़ेगा। किन्तु जब कोईं  व्यक्ति विस्तार रस और सेवा के द्वारा भागवत् धर्म में प्रतिष्ठित हो जाता है, तब उसकी यात्रा समाप्त हो जाती है और उसे समझ में आ जाता है कि परमपुरुष की लीला क्या थी।

आचार्यजी की प्रेरणादायक इस वार्ता ने मेरे मन को एक नया मोड़ दिया और लगने लगा कि जिस वैज्ञानिक आधार पर समझी जा सकने वाली पद्धति की तलाश मैं कर रहा था वह यही है। परंतु अपनी जिज्ञासा को शांत करने के लिये मैनें आचार्य जी से पूंछा कि हमारे देश में जो मंदिरों में पूजा होती है या यज्ञ अैोर हवन आदि का क्या कोई मूल्य नहीं है? उन्होंने कहा कि प्रारंभिक स्तर पर तो ठीक है परंतु आगे कठिनाई जाती है, क्योंकि उससे मन भौतिक पदार्थों की ओर ही आकर्षित बना रहता है अतः पूर्णरूप से लक्ष्य की उपलब्धि नहीं हो पाती और बार बार जन्म लेना पड़ता है। हवन और तथाकथित यज्ञों की बात भी जैसी कही और की जाती है, उससे तो यही कहूंगा कि किसी भी वस्तु को जलाने पर कार्बनडाईआक्साइड के अलावा कुछ उत्पन्न नहीं होता,यह एक विज्ञान सम्मत बात है, इससे कोई भी असहमत नहीं हो सकता । अब आपको स्वतंत्रता है कि आप घी को जलाकर वातावरण में कार्बनडाईआक्साइड की मात्रा बढ़ाकर अपना और अन्य सबका जीवन कठिन करते जायें या इसे भूखे को खिलाकर उसे व उस जैसेां को स्वस्थ और शक्तिशाली बनायें ताकि वह भी अपने जीवन का सदुपयोग कर सके। मैंने पुनः पूछाकि शास्त्रों में यज्ञ से वर्षा होने की बात का उल्लेख पाया जाता है, तथा जितने भी अवतार सनातन धर्मावलम्बी मानते हैं उन्हें एक दूसरे की मूर्ति बनाकर पूजा करने का विवरण भी पाया जाता है यह क्या गलत है? इस पर उन्होंने मुझसे पूछा कि क्या मैंने श्रीमद्भगवद्गीता का कभी अध्ययन किया हेै? यदि हां तो अवश्य ही पढ़ा होगा कि ‘‘अन्नाद् भवति भूतानि, पर्जन्यादन्न संभवः, यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञः कर्मसमुद्भवः।’’ जिससे स्पष्ट हेैे कि अन्न से जीव, जल से अन्न, यज्ञसे वर्षा और यज्ञ कर्म से संभव होता है। इस श्लोक के केवल तृतीय चतुर्थांश को तो आप उल्लेख करते हैं पर अंतिम चतुर्थांश पर ध्यान नहीं देते जिसमें कहा गया  है कि यज्ञ, कर्म से ही संभव होता हेै। अर्थात् इस प्रकार के कर्म करो जिससे वर्षा हो, जिससे अन्न हो, जिससे जीवधारियों का पोषण हो। अब सोचिये कि क्या घी में मिश्रित वनस्पतियों के जलाने पर यज्ञ करना कहलायेगा? रही अवतारों  के द्वारा एक दूसरे की मूर्ति बना कर पूजा करने की बात वह पुराणकार की कल्पना ही कही जायेगी क्योंकि वेदों में कहीं भी मूर्तिपूजा की चर्चा नहीं की गई है। इतना तक कि वेदों के अंतिम भाग जिन्हें उपनिषद कहा गया है, उनमें तो स्पष्टतः ध्यान मनन और चिन्तन का ही महत्व बताया गया है। आपको यह तो याद रहता है कि शिव, राम और अन्य देवी देवताओं को एक दूसरे की प्रतिमाओं की कर्मकांडी विधि से पूजन करते हुये दर्शाया जाता है पर यह ध्यान में क्यों नहीं आता कि शिव, राम अथवा कृष्ण पद्मासन में बैठे हुए आंखें बंद किये किस का ध्यान करते हेैं? वास्तव में ध्यान जैसी कठिन विधि प्रारंभिक स्तर पर लोगों को समझ में नहीं आती, खासकर जो बौद्धिक स्तर पर उन्नत नहीं होते, अतः कुछ मनीषियों ने उनके लिये यह सरल विधि बनाई ताकि कालांतर में जब वे बार बार इसे करते हुए आगे बढ़ेंगे और सोचेंगे कि इतने वर्ष यह सब करते हो गया पर उपलब्धि कुछ नहीं हुई तब वे इसकी चाह में उपयुक्त जानकार मार्गदर्शक की तलाश करेंगे और आगे की प्रगति करेंगे। परंतु इस पद्धति का कर्मकांडियों ने दुरुपयोग कर इसे अपने जीवन यापन का साधन बना लिया और बार बार पहली कक्षा में प्रथम श्रेणी में प्रथम आते रहने पर भी वे उन्हें पहली कक्षा में ही रहने देना चाहते हैं क्योंकि उनके पास आगे की कोई जानकारी नहीं होती है तो वे वेचारे क्या करें।

मैंने पूछा कि पूर्वकाल की बात को जाने दीजिये, अठारहवीं शताब्दि में हुये महान संत रामकृष्ण परमहंस भी तो मां काली की मूर्ति पूजा करते थे वह भी कर्मकांडी विधि से, फिर उन्हें क्या आत्मसाक्षात्कार नहीं हुआ और आपकी द्रष्टि में उनकी आराधना व्यर्थ गई होगी? वह बोले , नहीं, आपको याद होना चाहिये कि रामकृष्ण को आत्मसाक्षात्कार करनें में उनकी मूर्तिपूजा ही बाधक बनी थी, जब उन्होंने तोतापुरी जी से ध्यान की विद्यातांत्रिक पद्धति में दीक्षा ली तभी उन्हें पूर्णता प्राप्त हुई। मैंने फिर पूछा कि क्या तीर्थ आदि का कोई महत्व नहीं है? गंगा स्नान, बड़े बड़े मंदिरों में हीरे जवाहर की श्रंगारित मूर्तियों के दर्शन करने का कोई महत्व है या नहीं? आचार्य जी ने कहा, तीर्थ माने विभिन्न स्थानों पर बने भव्य मंदिरों में स्थापित मूल्यवान मूर्तियों के दर्शन करना नहीं है क्योंकि वे सब मनुष्यों  के द्वारा ही बनाई  और सजाई गई हैं , तीर्थ का अर्थ है तीरस्थ, अर्थात् जो किनारे पर स्थित है, तीरे स्थितः यः स तीर्थः। जैसे नदी के किनारे पहुंचकर देखना, एक कदम आगे बढ़ाओगे तो पानी में पहुंच जाओगे पर एक कदम पीछे हटोगे तो जमीन पर आ जाओगे बस यही है असली तीर्थ का मतलब। पानी है यह भौतिक जगत, जिसमें जाने पर वह अंगप्रत्यंग में चिपक जाता है ओैेर अपने में डुबो देता है। और स्थल है आध्यात्मिक जगत जिसमें जाने पर वास्तविकता का ज्ञान होता है कि मैं कौन हूं, कहां से आया हूं और कहां जाना है। अतः ऐंसे व्यक्ति, स्थान अथवा अन्य साधन जो भौतिक जगत और आध्यात्मिक जगत के विभेदन की सीमा पर ला देते हैं मेरी द्रष्टि में तीर्थ कहलाने योग्य हैं। इस सीमा के आगे जाने पर आप अपने को जान जाते हैं तथा पीछे हटने पर इसी संसार में उलझे रहते हैं। कहा भी गया है ‘‘इदमतीर्थम् इदमतीर्थम् भ्रामयन तमसा जनाः, आत्मतीर्थम् न जानन्ति कथं मोक्ष वरानने।’’ अज्ञानी लोग इस तीर्थ से उस तीर्थ में व्यर्थ ही भटकते रहते हैं, जबतक आत्मतीर्थ का ज्ञान नहीं होता उन्हें मोक्ष कैसे मिल सकता है। आत्मतीर्थ का ज्ञान कैसे होता है? मैने पूछा। वह बोले  आत्मसाक्षात्कारी व्यक्ति से दीक्षा लेने पर उसके बताये अनुसार लगातार अभ्यास करते रहने और सत्संग करने पर आत्म ज्ञान होता है। यह दीक्षा क्या है? और आत्म साक्षात्कारी की क्या पहचान है? वे बोले ‘‘ दीपज्ञानम् यतो दद्यात् कुर्यात् पापक्षयम्, तस्मात्दीक्षेति प्रोक्तव्यम् सर्व तंत्र सम्मतम्’’ अर्थात् जिस कार्य के द्वारा सच्चा ज्ञान दिया जाकर सभी पापों का क्षय कर दिया जाता है उसे ही दीक्षा कहते हैं। यह सबके बस की बात नहीं केवल आत्मसाक्षात्कारी गुरु ही किसी किसी पर कृपा कर दीक्षा देते हैं। गुरु बनना भी इतना सरल नहीं जैसा कि हम इस संसार में देखा करते हैं। गुरवः वहवः संन्ति, वित्त हर्ता न तु चित्त हर्ता। अतः जो आपका चित्त हर ले वही असली गुरु है बाकी तो वित्त हर्ता लालची गुरु हैं जो चेला मेकिंग सिस्टम में ही विश्वास करते हैं, आप भी नष्ट होते हैं और चेलों को भी ले डूबते हैं। मैने फिर पूछा, क्या आपने आत्मसाक्षात्कार किया है? उत्तर मिला, मैं अपने गुरुदेव के निर्देशन में आत्मसाक्षात्कार की ओर लगातार बढ़ता जा रहा हूं। उन्होंने अवश्य ही आत्मसाक्षात्कार किया है। हम लोग उनकी आज्ञा से ही देश विदेश में उनकी दी हुई इस पुनीत विद्या को विश्व के हर व्यक्ति को सिखाने के लिये कृतसंकल्प हैं। मैंने कहा कि जब आपने स्वयं आत्मसाक्षात्कार नहीं किया है तो फिर आप से कोई क्यों इसे सीखना चाहेगा? उन्होने बताया कि गुरुदेव के द्वारा हम लोगों को साधना की उन्नत स्थितियों का अनुभव करा दिया गया है तथा इस विद्या के प्रचार प्रसार के साथ साथ जिज्ञासुओं की शंकाओं का समाधान करते हुए उन्हें सिखाने के लिये भी विशेष रूप से आचार्य और अवधूत की दीक्षा देकर हमें कृतार्थ किया है। मैंने पूछा कि आपने भी अपने शिष्य बनाये होंगे, वह बोले हम जिन जिज्ञासुओं को साधना पद्धति सिखाते हैं वह हमारा नहीं हमारे गुरुदेव का ही शिष्य कहलाता है, हमारा तो वह गुरुभाई ही होता है। क्या आपके गुरुदेव से मिल सकते हैं? वह कहां हैं? वह बोले हाॅं मिल सकते हैं पर वह तो कलकत्ता में रहते हैं, समय समय पर धर्ममहाचक्र के अवसर पर वह समारोह स्थल पर पहुंच जाते हैं। उन्होंने विश्वव्यापी सामाजिक मनोआध्यात्मिक संगठन बनाया है जिसका नाम है ‘‘आनन्दमार्ग’’ इसमें मेरी तरह हजारों उच्च शिक्षित नवयुवकों ने अपने गुरु के आह्वान पर अपने जीवन को उनके आध्यात्मिक दर्शन के प्रचार प्रसार के लिये पूर्णतः समर्पित कर दिया है।

कहीं यह क्षणिक वैराज्ञ तो नहीं ? वह बोले नहीं, क्योंकि हम वित्तहर्ता गुरु के शिष्य नहीं चित्तहर्ता गुरु के बेटे हैं। वह हमें पल पल देख रहे हैं और सदैव ही हमारे साथ हैं। क्या वह मुझे भी दीक्षा दे सकते हैं, मैंने फिर पूछा। वह बोले उनकी ही आज्ञा से हम ही आपको दीक्षा दे सकते हैं, एक बार दीक्षित हो जाने पर उनसे मिलना भी सरल हो जायेगा और सब प्रश्नों के उत्तर भी एक साथ ही मिल जायेंगे। क्या साधना सीखने के लिये कोई विशेष शिक्षा या क्वालीफिकेशन होना अनिवार्य है? वह बोले नहीं केवल मनुष्य का शरीर ही प्रथम योग्यता है, शेष अपने आप होने लगता है, जैसे सात्विक भेाजन, यम नियम का पालन, सेवा भाव आदि, परंतु यम नियमों का प्रारंभ से ही पालन करने पर प्रगति में तेजी आ जाती है। ये यम नियम क्या हैं? वह बोले , हमारी साधना पद्धति अष्टाॅंगयोग कहलाती है जो श्रीमद्भगवद्गीता में वर्णित है। इसके आठ अंग हैं, यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि। क्रमानुसार अभ्यास के द्वारा साधक को आगे बढ़ने के लिये गुरु सहायता करते हैं। यम और नियम पांच पांच प्रकार के हैं, अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, और अपरिग्रह ये यम कहलाते हैं। शौच, संतोष, स्वाध्याय, तप और ईश्वरप्रणिधान ये नियम कहलाते हैं। सबसे पहले साधक को उसके संस्कारों के परीक्षणोपरांत उचित मंत्र देकर प्रथम पाठ में दीक्षित किया जाता है, इसमें अभ्यस्थ हो जाने पर द्वितीय फिर तृतीय और क्रमशः अभ्यास के दृढ़ होते जाने पर चतुर्थ, पंचम और षष्ठम पाठ में पारंगित कराया जाता है। मैंने कहा यह तो लंबी प्रक्रिया है, वर्षों लग जायेंगे? वह बोले लगने को तो अनेक जन्म भी कम पड़ेंगे और कहो तो एक वर्ष में ही सबकुछ हो सकता है, यह सब इस बात पर निर्भर करता है कि आपकी लगन कितनी है आपके संस्कार कितने सहायक या बाधक हैं।

मैंने फिर पूछा कि मानलो मैंने आपसे गुरुमंत्र ले लिया अभ्यास भी सच्चाई से करने लगा फिर दूसरा और तीसरा या आगे के पाठ हेतु आपको हम कहां खोजेंगे? वह बोले यह तो सही है परंतु तब आपको अपनी आध्यात्मिक समस्या जैसे पाठ में बृद्धि या दुहरावा आदि की जरूरत पड़ने पर हममें से कोई न कोई आचार्य आप तक कहीं न कहीं पहुंच ही जायेगा आपको इसकी चिन्ता नहीं करना पड़ेगी। हमारी साधना विधि की यही विशेषता है कि वह हम सबको गुरुदेव से सीधे ही जोड़े रहती है, और वह हमारी सभी जरूरतों को यथासमय पूरा करते रहते हैं जैसे माता पिता अपने छोटे बच्चों की इच्छाओं को समझकर उन्हें यथासमय पूरा करते हैं।

मैंने बहुत सोच विचार किया और आचार्य जी से निवेदन किया कि वह मुझे प्रथम पाठ में दीक्षित कर दें। उन्होने  कहा कि अभी हमारे द्वारा कही गई्र बातों पर चिंतन मनन करो, कल शाम को सात बजे आ जाना हम आपको दीक्षित कर देंगे। मैं आचार्य जी की बातों पर लगातार दिन रात विचार करता रहा तथा हर बार यह परिणाम पाता रहा कि आचार्य का कथन विज्ञान सम्मत और विश्वसनीय लगता है अतः मैं मंत्र लेने हेतु निर्धारित समय और स्थान पर पहुंच गया। वहां पर पहले से ही अनेक व्यक्ति जिनमें अधिकांशतः मिलिटरी के जवान थे। एक के बाद एक वे दीक्षा लेकर बाहर आते जाते थे, बाहर उनके कोई अधिकारी भी बैठे थे जिनके द्वारा उनसे पूछा जाता कि क्यों? कैसा लगा? वे सब प्रसन्नता से अपने अपने अनुभवों को बताते जाते । साधना सीखने में कमसे कम एक व्यक्ति को आधा घंटा अवश्य लगता। मैंने अपना अनुरोध और उपस्थित हो चुकने की सूचना उन तक पहुंचाई। जबाब मिला थोड़ा रुकना पड़ेगा। प्रतीक्षा करते करते दो घंटे बीत गये पर मेरा नंबर नहीं आ पाया अतः मैंने पुनः संदेश भिजवाया तो आचार्य जी स्वयम् बाहर आये और मुझसे बोले इन लोगों को समय से अपनी यूनिट में पहुंचना है क्योंकि मिलिटरी डिसीप्लिन का पालन करना होता है, अन्यथा बेचारे दंडित होंगे वह भी एक अच्छे कार्य से जुड़ने के कारण। इसलिये आप रुकिये क्योंकि आपकी दीक्षा इनकी तुलना में भिन्न होगी।

 मैं चुपचाप अपने क्रम की प्रतीक्षा करने लगा और रात का अंधेरा लगातार घना होता गया। लगभग ग्यारह बजे जब सब लोग जा चुके तब मेरा नंबर आया और साढ़े बारह बजे तक मेरी दीक्षा का कार्य चला । मंत्र सिखाने के बाद आचार्य ने अपने साथ साधना कराई, इससे मुझे अवर्णनीय अनुभूति हुई जिसे आनन्द के अलावा अन्य कोई नाम नहीं दिया जा सकता । आचार्य ने प्रणाम करने से लेकर उठने बैठने , पानी पीने, नहाने, भोजन करने आदि के संबंध में भी विज्ञान सम्मत बातें साथ साथ ही सिखाईं। प्रतीक के दोनों त्रिभुजों सूर्य और स्वस्तिक के अर्थ भी अलग अलग समझाए, जिसका सम्मिलित अर्थ है कि ‘‘ज्ञान का विस्तार कर उसके अनुरूप कर्म की एकाग्रता लाने पर अपने इष्ट के प्रति समर्पण होता है जिससे भक्ति का प्रकाश चारों ओर फैलने लगता है और अंत में लक्ष्य प्राप्त होने पर विजयोल्लास की अनुभूति होती है।’’  आचार्य ने शपथ ग्रहण कराई कि मैं अपने आचार्य के अलावा साधना की इस विधि के संबंध में किसी अन्य से कोई चर्चा नहीं करूंगा। मैंने शपथ ग्रहणकर बताई गई विधि से प्रतीक और आचार्य को प्रणाम किया, आचार्य के अनुसार उन्होने  वह प्रणाम गुरुदेव तक पहुंचाया। गुरु दक्षिणा के संबंध में पूछे जाने पर आचार्य बोले हम लोग साधना सिखाने की कोई फीस नहीं लेते, सबकुछ तो हमारे गुरुदेव का ही है, यदि कुछ देना ही है तो उन्हें वचन दो कि सारा जीवन अपने धर्म का पालन करूंगा और अन्यों को सन्मार्ग की ओर प्रेरित करता रहूंगा।

अगले दिन आचार्य जी चले गये और मुझसे अपेक्षा करते गये कि अगले विजिट तक मैं दूसरे पाठ के लिये अपने को तैयार रखूंगा। ईश्वर आराधन की वैज्ञानिक विधि पाकर मैं नयेपन का अनुभव करने लगा तथा जो भी मुझे सात्विक व्यक्ति प्रतीत होता मैं उसे अवश्य ही आनन्द मार्ग की साधना विधि सीख लेने का आग्रह करता। मैं पूरे मनोयोग से आचार्य द्वारा बतायी गई विधि से नियमित साधना करने लगा तथा सभी मित्रों को इस संबंध में विस्तार से बताया करता कई मित्रों ने तो तत्काल ही साधना सीख लेने की जिद की पर मैं असहाय था क्योंकि आचार्य के आने पर ही यह संभव हो सकता था। अब तो हम लोग आचार्य के ही आने की प्रतीक्षा करने लगे जबकि उनके आने का कोई भी समय निर्धारित नहीं रहता था।  कुछ लोग तो इतने उत्सुक थे कि वे हर दूसरे दिन ही पूछा करते कि आचार्य जी आये या नहीं? लगभग सात आठ माह बाद आचार्य जी सागर आये और सोलंकी जी जिन्होंने इस क्षेत्र में पहले साधना प्राप्त करने का गौरव पाया, के घर रुके और उन्होंने मेरे बारे में उन से पूछा। सोलंकीजी मुझे खोजते हुए मेरे पास आये और समाचार पाते ही मै आचार्यजी के पास अन्य मित्रों के साथ पहुँचा।  हम सभी युनीवर्सिटी में पढ़ने बाले छात्र ही थे। यद्यपि अपने साथियों की अनेक जिज्ञासायें तो मैं अपने आधार पर समझा चुका था पर आचार्य के द्वारा पुनः उनका समाधान किया गया।

इच्छुक सभी लोगों ने साधना सीखी और मेरे लिये दूसरा पाठ सीखने का अवसर प्राप्त हुआ। इसबार आचार्य को अधिक दिन सागर में नहीं रुकना था उनका तो निर्धारित कार्यक्रम ग्वालियर जाने का था परंतु उन्होंने एक दिन का प्रोग्राम सागर का बना लिया  और यहां रुककर हमलोगों की प्रगति की समीक्षा भी करली। वास्तविकता यह थी कि उस दिन अमावश्या थी और उस दिन सभी आचार्य/ अवधूत चैबीस घंटे तक निर्जल उपवास रखते हैं, तथा अर्ध रात्रि में श्मशान में अपनी विशेष साधना करते हैं। बातचीत से यह भी पता चला कि निर्जल उपवास तो प्रत्येक माह की दोनों एकादशियों को भी रखा जाता है पर विशेष पूजा अमावश्या को ही की जाती है। मुझे बहुत ही आश्चर्य हुआ क्योंकि मुझे तो साधारण उपवास भी बहुत कठिन लगता है फिर निर्जल तो और भी असंभव है। खैर, निर्जल उपवास की बात तो समझ में आ भी जाये पर अमावश्या को श्मशान में विशेष साधना का क्या अर्थ है यह हम सब को न केवल आश्चर्यचकित करने वाला था बल्कि विचित्र भी लग रहा था, अतः हममें से एक ने पूछा कि आचार्यजी, हम लोग जो साधना करते हैं वही तो पूजा है फिर आपके लिये कौन सी विशेष साधना की आवश्यकता होती है ? क्या हम लोग जान सकते हैं कि इसे श्मशान में ही क्यों किया जाता है? वह बोले, श्मशान के साथ दो बातें घनिष्ठता से जुड़ी हैं पहली अपवित्रता और दूसरी भय। हम कापालिक साधना करते हैं जिसमें हम किसी भी वस्तु ,व्यक्ति अथवा स्थान से घृणा नहीं कर सकते अतः श्मशान में जाकर हम घृणा को जीतने का अभ्यास करते हैं। सभी लोग मौत का नाम भी नहीं सुनना चाहते, वे सब उससे जितना डरते हैं कि अन्य किसी से नहीं, हम कापालिक मौत को जीतने का अभ्यास करते हैं, भय को जीतने का अभ्यास करते है इसीलिये प्रत्येक माह की अमावश्या के अंधकार में रात्रि के ग्यारह बजे से दो बजे के बीच ही हमें यह एक से दो घंटे की साधना वहीं बैठकर करना होती है। इसके अलावा हमें यह भी टेस्ट करना होता है कि एक माह में हमारी आध्यात्मिक उन्नति हुई या नहीं। यह बहुत ही उच्च स्तर की साधना है, हमारे गुरुबाबा की हम पर बहुत कृपा है जो उन्होंने हमें यह साधना सिखाई। तुमलोग अभी प्रारंभिक अभ्यास में ही मन लगाओ सभी शंकाओं का समाधान यथा समय सुपात्र व्यक्ति आकर करते रहेंगे।

1.4 दिशा परिवर्तन

1.4 दिशा  परिवर्तन: अपनें मंत्र की सिद्धि और स्वयं की प्रसिद्धि से मैं बड़ा ही प्रफुल्लित अनुभव करता। पर यह बिल्कुल सत्य है कि 17/18 वर्ष की आयु में ही मैं अपने को बहुत बुजुर्ग और बुद्धिमान समझने लगा था। कहते हैं कि जब कोई अहंकार के वशीभूत हो जाता है तो यह स्थिति आती है। निश्चित  रूप से यह पतन का मार्ग ही प्रशस्त करता है, पर ईश्वर  सम्हलने के भी अनेक अवसर देता है बस हमें पहचान लेने की ही आवश्यकता  होती है। एक दिन मुझसे दो कक्षा पीछे पढ़ने बाला फुल्लु पटेल मेरे पास आकर बोला, पंडितजी, आज अपना भोजन न बनाना। मैने पूछा क्यों? वह बोला शर्मा जी ने आपको आमंत्रित किया है, वह हमेशा  विद्यार्थियों को भोजन कराते हैं। मैंने सोचा चलो अच्छा हुआ एक दिन का कष्ट दूर हुआ। मैं फुल्लु के बताये अनुसार समय और स्थान पर जा पहुंचा, वहां फुल्लु पहले से ही मेरी प्रतीक्षा कर रहा था। भीतर जा कर देखा कि एक 70-75 की उम्र के विल्कुल विनोबा भावे की आकृति के खादी के कुर्ताधारी लंबी सफेद दाढ़ी वाले सज्जन अकेले ही भोजन पका रहे थे और कुछ बच्चे खाना खा रहे थे। फुल्लु ने परिचय कराया, मैंने नमस्कार किया और उन्होंने हाथ के इशारे से एक ओर बैठाने हेतु फुल्लु को निर्देशित किया । एक, 12 गुणित 12 के कमरे में जहां मैं बैठा था वहां सामने की दीवार पर लिखा हुआ था ‘‘हाथ हत्या के लिये नहीं हैं ’’ ‘‘सत्यं वद, प्रियं वद‘‘ आदि। दूसरी ओर एक लकड़ी के पटे पर सफेद कपड़ा बिछाकर चतुर्भुज विष्णु का चित्र रखा था, अन्य दीवार की ओर शर्मा जी के बैठने और सोने के लिये पृथ्वी पर ही सफेद चादर वाला विस्तर था।

मेरे बाद लगभग शर्माजी की ही उम्र के गौतम जी आए। थोड़ी ही देर में शर्मा जी ने हम लोगों को भोजन कराया। जब हम लोगों ने शर्मा जी से भी साथ ही में भोजन करने का आग्रह किया तो वह बोले, अभी अन्य लोग आने वाले हैं, उन्हें भोजन कराने के बाद ही मैं भेाजन करूंगा। जब मैं जाने लगा तो शर्माजी ने पूछा, किस कक्षा में पढ़ते हो? मैंने कहा, बीएससी फस्र्ट यीअर। उन्होंने फिर पूछा, भगवद्गीता पढ़ते हो? मैंने कहा, एक साल पहले पढ़ने की कोशिश  की थी पर कुछ समझ में नहीं आया इसलिये आगे प्रयास ही नहीं किया। वह बोले फिर से पढ़ना। मैं आश्वाशन  देता घर आ गया, पर बार बार शर्मा जी के द्वारा अचानक भोजन के लिये बुलाना और गीता पढ़ने का निर्देश  देना इस पर चिन्तन लगातार चलता रहा। एक दो माह बाद शर्माजी अचानक बाजार में दिखे तो मैंने आदर पूर्वक नमस्कार किया। उन्होंने प्रत्युत्तर देते हुए फिर पूछा, क्यों? श्रीमद्भगवद्गीता पढ़ना शुरु किया कि नहीं? मैंने कहा नहीं, मैथ्स फिजिक्स आदि पढ़ते पढ़ते समय ही नहीं बच पाता। वह बोले, समय तो निकालना पड़ता है, तुम्हारे पास गीता है या नहीं? नहीं हो तो साथी बुक डिपो से 20 पैसे की छोटे आकार वाली खरीद लेना और समय निकाल कर पढ़ना। मैं, हां कहकर चलता बना। बार बार रास्ते में सोचता जाता था कि शर्मा जी गीता पढ़ने पर क्यों जोर दे रहे हैं, और अंततः साथी बुक डिपो जाकर गोयंका द्वारा अंग्रेजी में अनुवादित गीताप्रेस द्वारा प्रकाशित छोटी पुस्तिका खरीद लाया। संस्कृत के श्लोकों को अंग्रेजी में समझाए जाने के कारण समझने में सरलता हुई।

 एक जगह मैंने पढ़ा,‘ यान्ति देव व्रता देवान्, पित्रृन यान्ति पित्रव्रता।  भूतानि यान्ति भूतेज्या, यान्ति मद्याजिनो पि माम्। ’ अर्थात्,देवों को पूजने वाले देवताओं को प्राप्त होते हैं, पितरों को पूजने वाले पितरों को प्राप्त होते हैं, भूतों को पूजने वाले भूतों को प्राप्त होते हैं पर मेरे भक्त मुझे ही प्राप्त होते हैं। मैं फौरन शर्मा जी के पास पहुंचा और पूरी तरह अर्थ समझाने के लिए आग्रह किया। उन्होंने समझाया कि संपूर्ण बृह्माॅंड के निर्माता और नियंता एक ही हैं। अन्य देवी देवता और भूत प्रेतगण आदि स्थानीय मान्यतायें हैं जो कि काल्पनिकहैं  और मनोवैज्ञानिक आधार पर कार्य करते हैं, सब को ही अपना लक्ष्य महानतम् रखना चाहिए न कि तुच्छ। अपने लक्ष्य को ध्यान में रखते हुए ही संसार के कार्य करना चाहिए ताकि हम वहां सरलता से पहुंच सकें, उसे पा सकें । जिसने अपना जैसा लक्ष्य निर्धारित कर लिया वह निश्चय  ही वहीं पहुंचता है। इसलिए देवता पितर अथवा भूतप्रेतों को छोड़कर परम ब्रह्म की उपासना करना ही लक्ष्य बनाना चाहिए। उन्होंने बताया कि इस श्लोक में कृष्ण परम ब्रह्म के द्योतक हैं अतः उनका ‘‘माम् अर्थात मुझे ’’ कहना सार्वभौमिक सत्ता की ओर सूचित करता है।

यह ब्याख्या सुनकर मेरे कान खड़े हो गए। मेरे मन में बार बार यह बिचार आ रहा था कि इतने दिनों तक मैं जो प्रेतों की साधना कर रहा था वह व्यर्थ सिद्ध हुई, इतना समय क्यों नष्ट किया, शर्मा जी से पहले ही मुलाकात क्यों नहीं हो गई आदि आदि। शर्मा जी अचानक बोल पड़े अभी कुछ नहीं बिगड़ा है, कई बार गीता पढ़ो हर बार नया ही मिलेगा, गांधी जी तो अपनी सभी समस्याओं का हल इसी में ढूढ़ लेते थे। मैने मन ही मन उस परम सत्ता को धन्यवाद किया कि मुझे सन्मार्ग की ओर प्रेरणा उसने शर्माजी जैसे परम भक्त के माध्यम से दिलाई।  अब तो जब भी समय मिलता मैं गीता ही पढ़ने बैठ जाता, इतना तक कि जो भी श्लोक  मुझे अच्छा लगता मैं उसे याद करने के लिये दीवाल पर सीस पेंसिल से लिख देता ताकि बार बार देखने से याद हो जाए। समय समय पर शर्मा जी के पास जा कर कठिनाई दूर कर लेता। मैं शर्माजी के पास तभी जाता था जब मेरे पास कम से कम दो घंटे का समय होता था क्योंकि उनके पास बैठकर उनके अनेक अनुभवों की बहुत ही प्रेरणादायक कहानियां भी सुनने को मिल जाती थीं।

ऐंसी ही एक मुलाकात के समय ब्रह्मचर्य पर एक आंखों देखी घटना उन्होंने इस प्रकार सुनाई- एक संपन्न सेठ की अचानक मृत्यु हो जाने पर ब्यापार का पूरा काम उसके इकलौते लड़के के ऊपर आ गया, वह भी अपने पिता के अनुसार बनाई गई ब्यवस्था का पालन करते हुए सफलता पाने लगा, उसकी योग्यता के कारण एक अत्यंत सम्पन्न घराने की सुंदर कन्या से उसका विवाह हो गया। एक बार लड़के को ब्यापार के सिलसिले में 10-15 दिन के लिए शहर से दूर जाना पड़ा, दोनों यौवनावस्था के उस दौर में थे कि एक दूसरे से एक दिन भी दूर नहीं रह सकते थे फिर इतने दिन की दूरी तो साक्षात् मौत ही थी। लड़के की पत्नी  बोली आप इतने दिन के लिये हमसे  दूर जा रहे हो, मैं अकेली कैसे रह पाऊंगी? वह बोला घर में सबकुछ है, नौकर चाकर हैं, कोइ्र्र कठिनाई नहीं आयेगी, काम पूरा होते ही आ जाऊंगा। उसकी पत्नि कामुक प्रकृति की थी, उसपर नई नई शादी और इतना लंबा बिछोह कैसे सहेगी, उसकी यही समस्या थी। वह बोली, जिस आवश्यकता  की पूर्ति केवल आप ही कर सकते हों वह इन नौकरों और सब साधनों से क्या संभव हो सकेगी? यदि किसी दिन कामुकता ने प्राणघातक हमला कर दिया तो मैं क्या करूंगी? लड़का बोला चिन्ता की बात नहीं, उस दिन तुम छत पर जाकर सूर्योदय से पहले दक्षिण दिशा  में देखना जो ब्यक्ति सबसे पहले उस इमली के पेड़ के पास दिखे उसे बुलाकर अपनी इच्छा की पूर्ति कर लेना , यह मेरी सहमति है। यह कहकर सेठ पुत्र यात्रा पर चला गया। इधर तीन चार दिन ही मुश्किल  से बीते होंगे कि उसकी पत्नि कामाग्नि से पीडि़त हुई, जब रहा न गया तो उसने सूर्योदय से पहले ही छत पर पहुँच कर दक्षिण दिशा  में दृष्टि दौड़ाई, उसे एक अत्यंत बृद्ध आदमी केवल  लंगोटी पहने, हाथ में  एक मिट्टी का करवा लिए तेजी से जाता दिखाई दिया। उसने फौरन दो नौकरों के लिये उस ओर दौड़ाया और कहा कि उन सज्जन को आदर पूर्वक यहां आने के लिये मेरा निवेदन पहुंचा दो। तत्काल दोनों नौकर उस आदमी के पास पहुंचे और सेठ जी की बहू का संदेश  पहुंचाया, वह भी तत्काल नौकरों के साथ आ गये, बहू ने उन्हें नमस्कार करते हुए ऊपर चलने के लिये सीढि़यों की ओर इशारा किया, वह बिना झिझक ऊपर चढ़ने लगे, चार पांच सीढि़यां चढ़ ही पाये थे कि उनके हाथ का करवा (मिट्टी का छोटा लोटेनुमा घड़ा) जमीन  पर गिर कर चूर चूर हो गया, वे तत्काल मुड़े और वापस लौटने लगे, बहू बोली, महोदय क्या हुआ, वह तो मिट्टी का था इसलिए टूट गया, मैं आपको सोने चांदी जिसका कहें बढि़या लोटा दे दूंगी पर बापस न लौटिए, मेरे साथ चलिये। सज्जन बोले, उस मिट्टी के करवे ने ही मुझे सांगोपांग देखा था, अब दूसरा कोई देखे इससे पहले ही मैं अपना अस्तित्व करवे की भांति छिन्न भिन्न कर देने में ही भलाई समझता हूँ । इतना कहकर वह चले गए पर सेठ की बहू का मस्तिष्क सक्रिय कर गये, वह सोचने लगी कि जब यह आदमी एक निर्जीव वस्तु के साथ अपनी एकनिष्ठता नहीं तोड़ सकता तो मैं अपने प्राणप्रिय के साथ यह क्या करने जा रही थी? उसने अपने को धिक्कारा और ई्रश्वर  को धन्यवाद दिया कि उसने इस आदमी के माध्यम से सद्ज्ञान देकर मुझे पतन होने से बचा लिया।


  शर्मा जी किसी सेठ के यहां मुनीमी करते हुए रिटायर हो गये थे, उनके बड़े बड़े लड़के बच्चे थे, पत्नि और अन्य रिश्तेदार  भी थे पर वे वानप्रस्थ जीवन यापन करते थे, उनकी ईमानदारी और कर्तव्यनिष्ठा के कारण सेठ ने आजीवन उनका पूरा खर्च अपने ऊपर ले लिया था, यद्यपि उनके बच्चे व रिश्तेदार  अपने साथ रखने के लिये अनेक बार आग्रह कर चुके थे पर वह तो शर्माजी थे, वे निर्पेक्ष रूप से अकेले ही रहते थे और इतनी अधिक उम्र में भी सभी काम अपने हाथ से ही किया करते थे। समय समय पर मैं शर्माजी के पास जाकर अपनी शंकाओं का समाधान कर लेता और उनकी प्रेरणादायक अनुभूतियों से अभिभूत हो वापस आ जाता। शर्माजी के समझाने का अलग ही ढंग होता था, कभी वे अपनी दाढ़ी पर हाथ फेरते हुए बोलते, कभी वे मूंछों पर ताव देकर बड़े प्रभावी ढंग से सिर हिला कर प्रश्न  भी पूछ लेते। प्रायः उनके पास फुल्लु और आस पास के  प्रायमरी या मिडिल में पढ़ने बाले बच्चे पाये जाते। जब कभी मैं पहुंचता तो प्रायः कोइ्र्र न कोई प्रेरक प्रसंग ही छेड़ देते थे, कभी कभी उन्हें हंसी आती तो उनके नकली दांत बाहर ही आ जाते पर तत्काल ब्यवस्थित कर अपनी बात जारी रखते। अनुशासन का ध्यान सबको रखना पड़ता।

एक बार फुल्लु किसी लड़के को विज्ञान के किसी तथ्य को समझा रहा था पर वह लड़का बार बार, वह क्या? वह कैसा? आदि पूंछता जाता। शर्माजी थोड़ा ऊंचा सुनते थे पर हर समय नहीं। फुल्लु के बार बार समझाने पर भी जब वह लड़का नहीं समझ पा रहा था तो शर्मा जी बोले, जैसा समझने वाला बैसा ही  समझाने बाला, और हंसने लगे। वे बोले जन्मांध माने जानते हो क्या? फुल्लु बोला, जो जन्म से ही अंधा हो, जिसे कुछ भी न दिखता हो। शर्मा जी ने कहा हाॅं, सुनो, एक थे जन्मांध, एक सज्जन ने उनसे पूछा, सूरदासजी! खीर खाओगे? सूरदास बोले, खीर क्या? सज्जन बोले अरे वह सफेद सफेद, सूरदास बोले, ये सफेद क्या? वे बोले, बिल्कुल बगुले जैसी, सूरदास ने पूंछा ये बगुला क्या? वह सज्जन  अब अपने दांयें हाथ के पंजे को बगुले की आकृति में मोड़कर सूरदास के पास जाकर बताने लगे- ऐंसा। सूरदास ने अपने दोनों हाथों से उनका हाथ पकड़ा और अंगुलियों की ओर से केहुंनी तक टटोलकर देखा, सूरदास बोले अरे यह तो बड़ी ही टेड़ी है, यह नहीं खा सकते, यह तो गले में ही अटक जायेगी। शर्माजी बोले ‘‘टेड़ी खीर’’ की तरह न तो तुम्हें समझाना आता है और न इसे समझना। यह कहानी सुनकर मुझे यह पहली बार मालूंम हुआ कि ‘‘टेड़ी खीर’’ मुहावरा इस प्रकार बना।

इसी प्रकार एक बार ‘‘ दीवारों के भी कान होते हैं’’ के ऊपर उन्होंने बर्रुचि की कहानी सुनाई। वे बोले , राजा भोज के पास भरी सभा में एक ब्यक्ति एक पत्र लाया और कहने लगा कि यह पत्र मेरे लड़के ने भेजा है पर मेरी समझ में नहीं आ रहा है कृपया इसे पढ़कर सुना दीजिए। उस पत्र में केवल चार अक्षर ही लिखे थे ‘‘ अ, प्र, शि,  ख ’’ राजा ने पढ़कर देखा परंतु कुछ भी समझ में न आने के कारण उसे सभासदों की ओर पढ़ने के लिए पहुंचा दिया। सभी सभासदों ने एक एक कर उसे पढ़ने की कोशिश  की पर किसी से भी अर्थ समझाते नहीं बना। राजा बड़ा ही परेशान  हुआ कि इतने बड़े बड़े विद्वान क्यों इसका अर्थ नहीं बता पा रहे हैं, कुछ न कुछ रहस्य जरूर है। राजा ने आज्ञा दी कि आप लोग आज रात में खूब अध्ययन कर लें कल सभा के प्रारंभ में ही इस पर बिचार किया जायेगा, इस का समाधान कारक उत्तर प्राप्त नहीं होगा तो तुम सब को मृत्यु दंड दिया जायेगा। सभी विद्वान अपने अपने घर जाकर सोच विचार में डूब गये, कुछ आडंबरी तो डर के कारण रात का अंधेरा होते ही राज्य की सीमा से बाहर भाग गये, कुछ डटे रहे पर जब आधीरात तक अर्थ न निकाल पाये तो आधी रात तक भाग गए, बर्रुचि नाम के  विद्वान भी आधी रात के बाद भागने बालों में से थे। भागते भागते जब अन्य देश  की सीमा थोड़ी दूर रह गयी तो सोचने लगे कि अब तो सूर्योदय के पहले दूसरे राज्य में पहुंच ही जायेंगे अतः कुछ विश्राम कर लेना चाहिए ओैेर एक बट वृक्ष के नीचे आराम करने लगे।

बट वृक्ष पर दो गिद्ध आपस में बात कर रहे थे, बर्रुचि को पक्षियों की भाषा समझ में आ जाती थी, अतः उसने सुना कि एक गिद्ध दूसरे से कह रहा है कि क्या अच्छा होता यदि कल मनुष्यों का मास खाने मिल जाता। दूसरे ने कहा, अरे क्यों चिन्ता करता है कल राजा भोज अपने राज्य में विद्वानों को मृत्यु दंड देने बाला है, हम कल अपनी उड़ान उसी ओर भरेंगे, तुम्हारी इच्छा पूरी हो जायेगी। पहला गिद्ध हंसा और बोला, क्या मजाक करते हो,  राजा भोज कभी विद्वानों को मृत्यु दंड  दे ही नहीं सकता। दूसरा बोला , अरे तूं क्यों भूल गया, एक माह पहले नर्मदा के किनारे चट्टान बाली गुफा में एक मित्र ने अपने ही गांव के सहपाठी मित्र को कृपाण से मार डाला था। पहले ने कहा मुझे कुछ याद ही नहीं, इस पर दूसरा बोला, उदयपुर के ब्राह्मण परिवारों के दो लड़के गुरु के पास पढ़ने के लिये उज्जयनी गये थे उनमें से एक तो गुरु के पास रह कर पढ़ता रहा परंतु दूसरा बीच में ही छोड़कर भाग आया और डाकू बन गया। अपनी विद्या पूरी कर धन कमाते हुए पहला लड़का बापस अपने घर जा रहा था तो रात्रि में विश्राम करने के लिये गुफा में रुका जहां पर उसका दस्यु मित्र पहले से ही रुका हुआ था। वर्षों बाद एक दूसरे से मिलने के बाद भी दोनों तत्काल पहचान गए और बड़ी ही आत्मीयता से गले मिले। दस्यु से उसका मित्र बोला, तू ने बड़ी ही गलती की जो पूरी विद्या प्राप्त किए विना ही भाग आया, लूट पाट कर तुझे कितना धन मिल पाता होगा, डर कर जंगलों में रहना पड़ता है, अपमानित होना पड़ता है। मैंने दीक्षान्त के पश्चात  एक माह में ही इतना कमा लिया है कि एक वर्ष तक कुछ न करूं तो भी कोई कमी न होगी। दस्यु बोला, तुम ठीक कहते हो मित्र, मैंने बड़ा ही अनर्थ कर डाला है पर अब क्या हो सकता है? मित्र बोला , क्यों नहीं , तुम चाहो तो मेरे साथ रह कर विद्या सीख लो और प्रतिष्ठित जीवन जिओ, पर दस्यु बोला मित्र, अब तो यह जंगली जीवन ही ठीक है, अगले जन्म में यदि फिर से तुम्हारा साथ मिला तो जरूर पढ़ूंगा। इस प्रकार बातें करते करते दोनों सो गये। जब दस्यु का मित्र खर्राटे भरने लगा तो दस्यु उठकर उसकी छाती पर जा बैठा और कृपाण निकाल कर मारने को तैयार हुआ ही था कि उसका मित्र जाग गया। वह बोला, यह क्या? तुम मुझे मारकर मेरा धन लेना चाहते हो ? बैसे ही ले लो, मैं तो फिर कमा लूँगा , तुम्हें जब भी आवश्यकता  पड़े मैं मदद भी करता रहूंगा , पर जान लेने से तो तुम्हें कुछ भी नहीं मिलेगा। दस्यु बोला, नहीं मित्र, बात धन की नहीं , मेरे पिता की प्रतिष्ठा की है। जब तुम घर बापस पहुंचकर मेरे पिता को बताओगे कि मैं बीच में ही पढ़ाई छोड़कर भाग गया और नर्मदा के जंगलों में दस्यु हो गया हूं तो मेरे पिता को सहन नहीं होगा, वह मुझसे बहुत कुछ आशाएँ  रखते थे। इसलिए मैं चाहता हूं कि गांव में किसी को भी न तो तुम्हारे बारे में पता चले और न ही मेरे बारे में , तुम जीवित रहोगे तो सब को सब कुछ पता चल जाएगा, तुम्हें मरना ही होगा। मित्र बोला, अच्छा तुम मुझे मार डालो लेकिन मेरे मरने की सूचना तो मेरे घर भिजवा दोगे? दस्यु बोला यह कैसे संभव होगा, मित्र बोला मैं तुम्हें एक पत्र लिख कर दे देता हूं तुम उसे भिजवा देना। दस्यु ने कहा पहले मैं उसे पढ़ूंगा यदि ठीक लगा तो अवश्य  भिजवा दूंगा। मित्र ने ‘‘अ, प्र, शि,  ख’’ इन चार अक्षरों का पत्र ज्यों ही दस्यु को दिया तो पढ़ने पर उसे कुछ भी समझ में नहीं आया अतः उसने इस पत्र को मित्र के घर भिजवाने का वचन देते हुए कृपाण के एक ही आघात से उसके प्राण ले लिये।

यह वही पत्र है जो राजा भोज के सभासदों को पढ़ने दिया गया था, परंतु कोई नहीं पढ़ सका है इस कारण राजा ने सभी विद्वानों को कल सुवह होते ही राज सभा में मृत्यु दंड देने की घोषणा की है। बर्रुचि ने गिद्धों की बातें सुनी और तत्काल बापस लौटकर राजा के दरबार में पत्र में लिखे चारों अक्षरों का अर्थ इसप्रकार बताकर इनाम पाया, और बेचारे गिद्ध आशा  लगाए दिन भर भूखे बैठे रहे।
‘‘नेन तव पुत्रं प्रसुप्तस्य वनान्तरे,। शिखा बंधाय वेगेन डगेन निहितम् शिरः ’’।। अर्थात्, इस प्रकार  जंगल में सोते हुए तुम्हारे पुत्र की तेजी से खड्ग मारकर हत्या कर दी गई।

शर्माजी बोले,इसलिये नीति कहती है कि,
दिवां निरीक्ष्य वक्तव्यं, रात्रौ नैव च नैव च। धूर्ताः तिष्ठंति सर्वत्र बटे बर्रुचिर्यथा । अर्थात् दिन में निरीक्षण करने के बाद ही बोलना चाहिये, रात में कभी नहीं, कभी नहीं। धूर्त लोग हर जगह पाये जाते हैं जैसे बट बृक्ष पर बर्रुचि ।

शर्माजी, अपने सब काम निर्पेक्ष रूप से ही करते थे जैसा कि वैरागी पुरुषों के बारे में शास्त्रों में  कहा गया है। एक मनोवैज्ञानिक तथ्य यह भी है कि बुजुर्गों के पास बहुत ही अनुभव होता है पर उन्हें कोई  न तो सुनना चाहता है और न ही उसे जानने ही की जिज्ञासा प्रकट करता है। इसका फल यह होता है कि उनका बहुमूल्य ज्ञान उन्हीं के साथ चला जाता हैं। शर्माजी जैसे विद्वान कभी भी अपने को प्रचारित नहीं करते, उन्हें तो केवल जिज्ञासुओं की तलाश  होती है, ज्योंही सच्चा ज्ञान पिपासु मिल जाता है वे अपना सारा ज्ञान लुटा देते हैं। हमारे देश  की परंपरा भी कुछ इसी प्रकार की बनाई गई है कि सुपात्र को ही सद्ज्ञान दिया जाना चाहिए नहीं तो उसके दुरुपयोग करने की संभावना बढ़ जाती है, इसी कारण अनेक विद्वान, सुपात्र की तलाश  करते करते अपने ज्ञान के साथ ही चले गये। कभी कभी, गुरुओं ने अपने गुरुत्व को बनाये रखने की महत्वाकांक्षा से पूरा ज्ञान शिष्य  को दिया ही नहीं, कुछ न कुछ बचाए रहे और वह उन्हीं के साथ चला गया, इस पद्धति के प्रभाव से ही आज जो भी ज्ञान दिखाई देता है वह अल्प ही कहा जायेगा क्योंकि पूर्णता किसी के पास नहीं देखी गई है। शर्मा जी की यह अपार कृपा का परिणाम ही कहा जाना चाहिए कि उन्होंने मुझे बिना शर्त अपनी जिज्ञासाएं शांत कर पाने का बार बार अवसर दिया।


    एक बार शर्माजी से मैंने पूछा, दादा ! (हम लोग उन्हें इसी प्रकार संबोधित करते थे) आप एक एक पैसे का हिसाब रखते हैं, बाजार से कुछ खरीदते हैं तो बड़ा ही मोल भाव करते हैं, दूसरों को ही नहीं संबंधियों को भी कुछ देते समय अनेक बार सोचते हैं, इसका क्या रहस्य है? वह यह सुन कर बड़े ही जोर से हंसे और बोले सुनो, आंखों देखी इस घटना के प्रत्येक पहलु पर ध्यान देना। हमारे गांव के मालगुजार रायबहादुर दयाशंकर अंग्रेजों के जमाने के लखपति कहलाते थे। उनकी कंजूसी के किस्से घरघर में सुनने को मिल जाते थे। अपने लड़के का विवाह उन्होंने अपने से भी कईगुना संपन्न परिवार में किया। लड़की को इनकी कंजूसी के अनेक किस्से ज्ञात थे, पर क्या कह सकती थी, भारत में लड़कियों के विवाह तो अभी भी माता पिता की ही मर्जी से होते हैं, फिर वह तो पुराना जमाना था। खैर शादी के बाद बहू अपनी ससुराल आई, उसके मन में बार बार यही घूमता रहता था कि अब तो एक एक पैसे के लिए तरसना पड़ेगा, क्योंकि पिता की आज्ञा के अनुसार जब जब अपने पति को बाजार से सामान लाने पर एक एक पैसे का हिसाब देेते हुए उसने देखा तो उसके तो प्राण ही सूख गए। उसके मन में अपने मायके की याद आती थी कि जहां कभी भी किसी से कोई हिसाब पूछा ही नहीं जाता  विशेषतः  उससे। अब वह अपनी मन मर्जी से कुछ भी नहीं कर सकती, क्या ब्यवस्था बनाई है इस समाज ने आदि आदि। कई माह  निकलने के बाद उससे नहीं रहा गया और उसने ससुरजी की कंजूसी की परीक्षा लेने का विचार किया। एक दिन सबेरे से ही उसने कहला दिया कि उसे बहुत ही सिर दर्द हो रहा है अतः कोई्र भी ज्यादा बात न करे , आराम करने पर वह ठीक हो जायेगा। दयाशंकर जब दोपहर को खाना खाने बैठे और बहु खाना परोसने नहीं आई तो कारण पूछा, बताया गया कि उसका सिर दर्द कर रहा है इस लिए आराम कर रही है। उन्होंने तत्काल नगर के बड़े से बड़े वैद्य को बुलाया और इलाज चालू किया पर शाम हो गई  कोई फायदा नहीं , ससुर जी बार बार पूंछते क्यों बेटा अब दर्द कैसा है? मगर हर बार वही उत्तर मिलता, पिता जी कोई भी फायदा नहीं। दूसरा दिन भी पूरा हो गया पर स्थिति न सुधरी दयाशंकर बड़े ही परेशान-- पर कोई उपाय ही न सूझता, क्या करें, क्या न करें? आखिर उन्होंने बहु  से ही पूंछ लिया कि क्या ऐंसा दर्द पहले भी हुआ है? वह बोली हां हुआ था। तब किस दवा से दूर हुआ था? उसने जबाब दिया कि उस समय मेरे पिताजी ने अनबेधे मोती पीसकर माथे पर लगाये थे, दो घंटे में ठीक हो गया था। दयाशंकर  तत्काल अंदर गये और टोकनी में अनबेधे मोती भर लाए। अपने हाथ से ही सिल पर रखकर पीसने को तैयार हुए ही थे कि बहु ने उठकर उनका हाथ पकड़ लिया और कहने लगी कि अब दर्द ठीक हो गया, रहने दीजिए। वे बोले अरे अभी तो लेप लगाया ही नहीं है फिर दर्द कैसे दूर हो गया? वह बोली, मुझे क्षमा करे,  मै आपके कंजूसी के किस्से सुन सुन कर बड़ी ही परेशान  थी पर आपने आज यह सिद्धकर दिया है कि आप किसी भी प्रकार कंजूस नहीं हैं, आप की तरह सहृदयता विरलों में ही होती है। दयाशंकर बोले बेटा, एक एक पैसा इसलिये बचाया जाता है कि समय आने पर उसे पानी की तरह बहाया जा सके। बिपत्ति के समय अपने पास जो कुछ होता है वही काम आता है, दूसरों से कुछ प्राप्त नहीं हो पाता, यदि मिलता भी है तो उधारी की चिन्ता और उपकार का बोझ। मेरी कोई कितनी ही हंसी क्यों न उड़ाये मैं उससे प्रभावित नहीं होता हूं। मैं तो सभी को यही सिखाता हूं कि व्यर्थ खर्च मत करो, हमेशा  कुछ न कुछ बचाते रहो ताकि जरूरत के समय किसी से मांगना न पडे़ औेर पानी की तरह बहाकर आसन्न संकट से बचा जा सके।

वैसे तो शर्माजी के पास अनेक मूल्यवान अनुभवों का खजाना था परंतु मैं अपने सीमित समय में उनके सान्निध्य से  बहुत कम ही बटोर पाया। फुल्लु के पड़ौस में रहने वाला एक लड़का पाॅंचवी कक्षा में फेल होगया, वह बहुत ही निराश  होकर तीन चार माह बाद भी अपने फेल होने का दुख मना रहा था, उसके माता पिता भी उसे समझाते पर वह बार बार यही सोचता कि मैं अपने साथियों से पिछड़ गया। फुल्लु ने उसे बार बार समझाते समझाते, एक बार गुस्से में कह दिया, बड़े मूर्ख हो पहले पढ़ लेते तो पास क्यों न होते ,अब बार बार यही सोच सोचकर समय नष्ट करते हो, अब फिर फेल हो जाओगे। यह सुनकर लड़का बहुत रोया इतना कि माता पिता भी चुप न करा सके, किसी से वह कुछ न कहता कि रोने का कारण क्या है। मामला शर्माजी तक पहुॅंचा, लड़के ने उन्हें बताया कि फुल्लु भैया ने उसे मूर्ख कहा है और यह भी कि वह फिर से फेल हो जावेगा। क्या मैं सचमुच मूर्ख हूँ ? शर्मा जी ने उसे राजा भोज की कहानी सुनाई। वे बोले, एक बार राजा भोज की पत्नी अर्थात् रानी अपने भाई के साथ बैठकर अपने मायके की बातों में तल्लीन थी कि राजा ने अचानक वहाॅं पहुॅंचकर पूॅंछ लिया, क्या बात है? रानी ने राजा भोज से कहा, तुम बड़े मूर्ख हो। राजा ने उनसे तत्काल कुछ नहीं कहा और वे मन ही मन सोचते रहे कि वह कौन सी गलती है जिस पर रानी ने मुझे मूर्ख कहा जबकि सारा राज्य ही नहीं अन्य राज्यों के राजा और नागरिक मेरी विद्वत्ता के उदाहरण देते हैं। राजा को कोई कारण नहीं मिला जिस पर रानी का कथन जाॅंचा जा सके और सत्यता का पता लग सके। प्रातःकाल जब सभा प्रारंभ होने का समय आया तो वह निर्धारित समय के पहले ही राज्य सभा में अपनी आसन पर जा बैठे, तब तक बहुत कम लोग ही उपस्थित हुए थे। राजा के सभा में पहुंचने की खबर मिलते ही विद्वान सभासदों ने दौड़ लगाकर जल्दी से जल्दी पहुॅंचना प्रारंभ कर दिया। ज्यों ही कोई विद्वान कक्ष में प्रवेश  करता, राजा को देखकर प्रणाम करने की मुद्रा में होता कि राजा उसे कहते.. मूर्ख..। यह क्रम लगातार जारी रहा और आने वाले सभी विद्वानों को राजा उसी प्रकार मूर्ख कह कर चुप हो जाते और आगन्तुक सभासद चुपचाप अपने स्थान पर वैठ कर आश्चर्य  करते, आपस में फुसफुसाते कि आज राजा को क्या हो गया है जो सभी को मूर्ख कह रहे हैं। इसी क्रम में कालीदास नाम के एक सभासद ने प्रवेश  किया और राजा ने उनसे  भी उसी प्रकार मूर्ख कहा, सुनते ही कालीदास ने कहा...

‘‘ गतम् न सोचामि कृतम् न मन्ये, खाद्यम् न गच्छामि हसम् न जलपे।  द्वाभ्याम् तृतिया न भवामि राजन, किंकारणे भोज भवामि मूर्खः।‘‘अर्थात् जो बीत चुका है उसका मैं चिंतन नहीं करता, अपने किये गये कार्य को महत्व नहीं देता, खाते खाते चलता नही, पानी पीते हॅंसता नहीं, दो लोगों के बीच में तीसरा नहीं होता फिर हे राजा भोज! मैं किस प्रकार मूर्ख हुआ?

 शर्माजी बोले, राजा को उनकी त्रुटि का पता चल गया और कालिदास को धन्यवाद देकर वे रानी के पास गये और  अपनी त्रुटि के लिये उनसे क्षमा माॅंगी। अब तुम्हें अपनी गलती समझ में आई? वह लड़का बोला नहीं। शर्माजी वोले, कालीदास ने क्या कहा कि बीती बातों को बार बार सोचने वाले क्या होते हैं? उसने कहा मूर्ख। शर्माजी ने कहा तुम क्या कर रहे हो? बार बार अपने फेल होने की बात सोचकर अपना समय बरबाद कर रहे हो तो क्या मूर्ख नहीं हुए? यही समय बचाकर यदि पढ़ने में मन लगाओ तो तुम अबकी बार प्रथम श्रेणी में पास हो सकते हो। इसलिये सब कुछ भूल कर पढ़ने लिखने के वारे में ही सोचा करो। लड़का चुप होकर अपनी गलती पर पछताया और पढ़ने मैं मन लगाने लगा। इस जमाने में  शर्माजी जैसे सरल प्रेरक विद्वान कम ही दिखाई देते हैं।

Thursday, 23 October 2014

1.3  प्रतिष्ठा का पोषण: जहां मैं पढ़ते समय किराये से रहता था वहां चारों तरफ सब्जी भाजी के बगीचे थे। बगीचे के बीच में एक मंदिर था जहां पर कुछ पत्थरों के नाल, जिन्हें उठाकर पास पडौस के कुछ लोग लगभग रोज ही आकर अपना अपना अभ्यास किया करते थे, और कुछ मुग्दर भी थे जिन्हें विभिन्न प्रकारों से घुमाकर अपने कंधों और हांथों को मजबूत बनाने का अभ्यास किया करते थे। आठवीं कक्षा तक तो मैं बड़ा कमजोर और दुबला पतला था जिससे मेरे सहपाठी प्रायः मुझे डरा धमका कर गणित के सबाल पूछा करते और न बताने पर मारते भी थे। मैंने सातवीं कक्षा में हिन्दी की पुस्तक के ‘सैनिक शिक्षा ’ नामक पाठ में पढ़ा था कि ‘‘वसुंधरा का भोग वही करता है जो बली है वीर है, कहते हैं कि दुर्बल पर और तो और दैव भी घात लगाये रहता है’’  अतः मैं भी उन अभ्यास करने बालों के साथ अपनी उपस्थिति नियमित रूप से देने लगा था।

एक दिन  बगीचे के पटैल का एक 10 -12 साल का बच्चा मंदिर के भीतर मुग्दर उठाने घुसा ही था कि पैर पटकता चिल्लाता हुआ वापस दौड़ा। वह कह रहा था ‘ अरे मर गये, बिच्छू ने काट लिया ’। लोगों की भीड़ लग गई। कुछ लोग डाक्टर के पास ले जाने की सलाह दे रहे थे, कुछ झाड़ फूंक करने बालों के नाम और पते बता रहे थे। मैं डर रहा था कि कहीं मैंने झाड़ देनें के लिये यदि उसे रोका तो सभी हंसेंगे, पर जब उसका दर्द देखा नहीं गया तो मैंने झटसे अपना सफेद तौलिया लेकर उसके पास जाकर झाड़ना शुरु कर दिया। सभी लोग मुझे देखते और उस लड़के को। थोड़ी देर में ही लड़के का चिल्लाना बंद हो गया। लड़के के दांयें पैर की छोटी अंगुली में बिच्छू ने काट लिया था। मैंने ज्योंही अपनी आवृत्ति बंद की वह फिर से चिल्लाने लगा। मैंने एकबार फिर से आवृत्तियां प्रारंभ की। वह फिर से चुप हो गया। मैंने ज्यों ही अपना तौलिया उसके पैर पर हिलाना बंद किया, वह फिर से रोने लगा। मैं बड़े ही संकट में पड़ गया। मैंने नन्हें की बताई विधि से मंत्राधीन देवता को कसम दिलाई तब कहीं वह ठीक हुआ।

सभी लोग मेरी तारीफ करने लगे, पर मैंने कहा अभी तो देवता की तारीफ करो उन्हें नारियल चढ़ाओ और प्रसाद सब को बांट दो। लड़के के पिता ने फौरन नारियल लेने किसी को भेजा, नारियल आने पर देवता को भेंटकर सबको प्रसाद बांट दिया। इस घटना से मेरा बड़ा प्रचार हुआ। लोग मुझे पंडितजी कहने लगे। कुछ माह बाद रूपसिंह जो कि दूसरे बगीचे में रहता था, लगभग 9-10 बजे रात में मेरे घर आया और बोला, पंडितजी मेरे घर चलिये, मेरी मां की तबियत गड़बड़ हो गई है, कुछ का कुछ बड़बड़ा रहीं हैं। मैंने कहा कि सबेरे देख लेंगे अभी तो मुझे कल का सबक तैयार करना है, इसलिये पढ़ने दो। परंतु वह नहीं माना और मुझे साथ ही ले गया। मैंने जाकर देखा कि उसकी मां एक खाट पर आराम से लेटी है, उसका छोटा भाई मां के पैरों को दबा रहा है। उसकी मां के चेहरे की ओर देखकर मैंने पूछा क्या हुआ? वह बोली कुछ नहीं, डर लग रहा है। मैंने कहा किस का डर लग रहा है? वह मुसकाई और अपने सिर पर साड़ी का छोर डालते हुए बोली, तुम क्या जानो। मैने उसके बांयें हाथ की अनामिका पकड़ी और मंत्र पढ़ने के लिये सफेद तौलिया लिया ही था कि वह उठ कर बैठ गई  और हंसने लगी । उसकी कुटिल हंसी से मुझे पता नहीं कैसे यह लगा कि वह सबको मूर्ख बना रही है, अतः मैंने रूपसिंह से कहा कि तुम्हारी मां को कुछ नहीं हुआ है, वह ठीक हैं, और मैं चला गया । अगले ही दिन वह डाक्टर को दिखाने का बोलकर किसी आदमी के साथ गई तो फिर वापस नहीं आई। रूपसिंह के पिता सहित सभी ने खूब पता लगाया पर कहीं भी पता नहीं लग पाया। लोग कहते सुने गये कि देखो तो 6 बच्चों की मां को क्या सूझी। रूपसिंह मेरी ही उम्र का था, उससे 2 बहनें बड़ी थीं, 3 भाई बहिन छोटे थे। इस घटना से मेरे मन में अनेक बिचार आ रहे थे, मुख्यतः यह कि रूपसिंह की मां आखिर क्यों और कहां चली गई? मुझे इसी प्रकार की एक घटना और याद आ गई, जो कि एक प्रतिष्ठित सम्पन्न और उच्च जाति से संबंधित थी परंतु किसी ने भी यह नहीं बताया कि इस का क्या कारण है। मैने भी अधिक माथापच्ची न करते हुए अपनी पढ़ाई में ध्यान देना शुरु किया।

 मेरी परीक्षायें समाप्त हुए दो तीन दिन ही हुए थे कि एक सरदारजी मेरे घर आये। उन्होंनेे बताया कि उनकी भाभी को किसी बाहरी बाधा ने तीन दिन से परेशान कर रखा है चल कर देख लीजिए। मैने अपना सफेद तौलिया उठाया और सरदार के साथ चल पड़ा। बिट्ठलनगर पहुंचकर मैने देखा कि एक मोटी ताजी ऊंची पूरी महिला सोफे पर बैठी कभी खिलखिला कर हंसती है कभी दांतो के बीच अंगुली दबाकर बड़े शर्मीले ढंग से मुंह फेरती है, कभी रोने चिल्लाने लगती है। मैं बड़े ही विचित्र बातावरण का अनुभव कर रहा था, उनकी भाषा समझना मेरे लिये कठिन था फिर भी मैने साहस नहीं खोया और उसके बांये हाथ की अनामिका को जोर से पकड़ कर ललकारा। वह फूटफूट कर रोने लगी और अपने दांयें हाथ को मेरे कंधे पर रखते हुए बोली भैया, इन लोगों ने मुझे बहुत मारा है, मुझे बचा लो, देखो ये सब मुझे मारने ही बैठे हैं। सरदार के घरबालों को आश्चर्य  हुआ कि वह इतनी अच्छी तरह हिन्दी कैसे बोल रही है। मैंने मंत्र पढ़ना प्रारंभ किया तो वह चिल्लाकर मेरे ऊपर गिर पड़ने को तत्पर हुई। मैंने जोर से ललकारा तो वह फफक कर छोटे बच्चों की तरह रोने लगी, अगले ही क्षण अपनी ओढ़नी का एक भाग सिर पर डाल कर कहने लगी, भैया बचालो, बचा लो , देखो कितना मारा है । मैने पूछा, तुम हो कौन? वह बोली चमेली। कौन चमेली? अरे जानते नहीं.. सुरेश  की बहिन। लेकिन यहां क्या कर रही हो? अपनी भाभी के पास आई हूॅं। क्या चाहती हो? यहीं रहना। क्यों? वे लोग मुझे बहुत मारते हैं।

इसी बीच कुछ औरतें फुसफुसाने लगीं कि अरे ! सुरेश  की बहिन तो परसों आग लगाकर मर गई है, इसे सुनकर सरदारिन बोली, क्या बकते हो? मैं मरी नहीं हॅू मैं तो अपनी भाभी के यहाॅं  कपड़े सिलवाने आई हूँ , और जोर जोर से हंसने लगी। मैंने फिर से मंत्र की आवृत्ति दुहराई और उसकी अनामिका को जोर से दबाया। वह फिर से चिल्ला उठी अरे कोई मेरी बात क्यों नहीं मानता मुझे मत मारो मैं तो कपड़े लेने आई हूँ।  (वास्तव में वह सरदारिन आस पास की औरतों के कपड़े मुफ्त में सिला करती थी ) मैंने जोर से ललकारा और फिर से मंत्र पढ़ा। अब वह मुस्कुराने का सा मुंह बनाकर दूसरे हाथ की तर्जनी को दाॅतों के बीच दबाये हुए गर्दन को थोड़ा सा तिरछा घुमाकर शरमाती हुई मुद्रा में आई। मैं बड़ी ही विचित्र स्थिति में था बड़ा ही अजीब सा लग रहा था परंतु फिर से मंत्र के देवता को लाज रखने के लिये निवेदन किया। फिर से मंत्र पढ़ने पर वह बोली अच्छा मेरे कपड़े दे दो मैं जाती हूॅ। मैने जोर से ललकारा और कहा कोई कपड़े नहीं हैं, चुपचाप चली जाओ नहीं  तो इतनी मार मारूंगा कि होश  ठिकाने आ जायेंगे। वह बोली, तुझे देखकर ही मेरे होश  उड़ गये, जाती हूॅं, तूॅ भी क्या याद करेगा।

सरदारिन ने गहरी सांस ली और सामान्य होते हुए पूछने लगी, क्यों बे अवतार! आ किस कर के इद्दां दी पीड़ होइ आ? तुसी मू लटकाये उत्थे कि करदे ओ? ते आ का़का साढे कोल कि करने बास्ते आया सी? अवतार अर्थात् सरदारिन का देवर जो मुझे बुलाने आया था, फौरन दौड़कर उसके पास आया-बोला परजाई जी, तुसी चंगी हो जा नहीं? वह बोली, मेनु कि होया? मैं ता चंगी पली कदों दी अपणा कम करनी आॅं? पर तूं दस आ लोकां नूं किस कम तों बलाया वा? अवतार बोला मैं तेनु सब कुछ बाद बिच दस्सांगा परले तू आ दस पि तूं पली चंगी है जा नहीं? वह बोली, हाॅं जी मैं चंगी हाॅं, राणी! इक कुट चाटा छेती तों ला दे फेर मिनु बाजार जाणा वा। राणी चाय लाकर देती कि मैंने पहले ही अवतार से नारियल और प्रसाद उसे खिला देने का संकेत दिया, वह तत्काल प्रसाद बांटनें लगा और सबके साथ अपनी भाभी को भी खिला दिया। मैंने राहत की सांस ली और अवतार से यह कहते हुए विदा ली कि यदि कभी फिर से यह स्थिति बनती है तो तत्काल बुला लेना, फिर भी यदि हो सके तो दो तीन दिन चमेली की चर्चा से दूर ही रखना।

Wednesday, 22 October 2014

1.2 अहंकार का उद्गम : सागर शहर में आकर मुझे पूर्णतः नये परिवेश  में रहने का अवसर मिला, यहाॅं का शहरी खड़ी बोली का अभ्यास मुझे नहीें था इस कारण मुझे अपने सहपाठियों से बातचीत करने में बहुत ही अटपटा लगता था। सभी लड़के मेरी बुंदेलखंडी बोली पर बहुत हॅंसते जबकि मैं उन लोगों से बडे़ ही सावधानी और आदर के साथ बोला करता था। इस के बाद भी वे मेरा मजाक ही उड़ाते। गाॅंव के स्कूल स्तर पर मैं पड़ने लिखने में अपने को बहुत ही होशियार  समझता था परंतु यहाॅं गवर्नमेंट मल्टीपरपज स्कूल के स्तर से मैं सबसे कमजोर अनुभव करता था। यहां के टीचर्स भी अंग्रेजी को अंग्रेजी में ही पढ़ाते, हिन्दी का एक शब्द भी नहीं बोलते। फिजिक्स, केमिस्ट्री , मैथ्स भी लगभग अंग्रेजी ही होती थी। थोड़ा अभ्यास करने पर पढ़ाई तो समझ में  आने लगी पर साथियों का व्यवहार अभी भी उपेक्षापूर्ण ही था। मुझे समझ में नहीं आता था कि इसके लिये क्या करूं। कभी कभी मन में आता कि मजाक उड़ाने बाले लड़कों के लिये मंत्र का उपयोग कर मार ही डालूं, परंतु डरता भी था। कभी कभी गुस्सा आ जाता तो लड़ भी बैठता था। मैं प्रयास कर रहा था कि मैं भी अंग्रेजी मिश्रित शुद्ध हिन्दी में यहाॅं के लड़कों की तरह बोलने लगूॅं तो मुझे न केवल छात्रों का सहयोग मिलेगा वरन् शिक्षकों का भी विश्वाश  अर्जित करने में सफल हो सकूूंगा। यह बात पूर्णतः सही है कि वातावरण का प्रभाव सभी पर पड़ता है। मैंने खूब प्रयास कर के शिक्षकों द्वारा पूछे जाने वाले प्रश्नो  के उत्तर कक्षा के अन्य छात्रों  की तुलना में शीघ्र देने में कुशलता प्राप्त कर सहपाठियों के मन पर भी प्रभाव डालने  में सफलता प्राप्त कर ली। हिन्दी के शिक्षक तो सबसे पहले मुझे ही पाठ पढ़ने को कहते। हुआ यह कि बीएड के प्रशिक्षणार्थियों को उन्हें माडल लेसन प्रस्तुत करने के लिये प्राचार्य ने कहा। उन्होंने वर्षा ऋतु पर कोई कविता तैयार की जिसे वह हमारी कक्षा में डिमान्स्ट्रेट  करना चाहते थे, इसी के अभ्यास के बीच शिक्षक  को किसी छात्र से यह प्रश्न  पूछना था कि वर्षा ऋतु पर किसी अन्य कविता की चार लाइनें सुनाओ? कक्षा के 45 छात्रों में से किसी को भी यह याद नहीं थी, मुझे पता नहीं कहां से 8वीं कक्षा की ‘पावस’ नामक कविता याद बनी रही और मैंने बड़े लय के साथ कक्षा में सुना दी। 

अब क्या था सब का ध्यान मेरी ओर केन्द्रित हो गया, लय और उस भावपूर्ण कविता को सुनकर न केवल शिक्षक ने बल्कि सभी श्रोताओं ने चार लाइनों के स्थान पर पूरी कविता सुनने की इच्छा प्रकट की और मैं सुनाता चला गया। इस तरह मेरा कुछ कुछ इंप्रेशन
 साथियों पर भी जमने लगा। सितंबर में तिमाही परीक्षा आई, मैंने खूब तैयारी की और आशा  करने लगा कि हमेशा  की तरह मुझे सबसे अधिक अंक मिलेंगे पर यह क्या ? रिजल्ट खुला तो मेरा नंबर 18 वाॅं आ पाया। इतना ही नहीं पास होने वालों में मेरा नंबर भी अंतिम था। मुझे बहुत ही बुरा लग रहा था परंतु कर ही क्या सकता था। पहले नंबर पर जो छात्र आया था उसे मुझसे 117 नंबर अधिक प्राप्त हुये थे। मुझे इतना खराब लगरहा था कि अनेक बार इच्छा हुई कि मंत्र चला कर उसे मार ही डालूं पर फौरन ही यह बात मन में आ जाती थी कि कितने लोगों को मारोगे तुम से आगे तो 17 छात्र हैं। गांव के स्कूल में मुझसे आगे कोई नहीं आ पाता था इसलिये मैं अपने को बहुत ही इंटेलीजेंट समझता था, यहां आकर असलियत पता चली। कापियां देखने पर पता चला कि छोटी छोटी गल्तियों  पर गांव के शिक्षक जहां ध्यान नहीं देते थे यहां उन पर अंक काटे गये थे। मेरा मन इतना क्षुब्ध होगया था कि अंजुली में पानी ले कर फर्स्ट  आने वाले लड़के पर मंत्र चलाने के लिये तैयार ही हो गया था कि अचानक प्रिंसिपल साहब सामने आ गये और मैं रुक गया। 

जब किसी के पास कोई  शक्ति आ जाती है तो वह अपने लाभ के लिये किसी का कुछ भी अहित कर सकता है। अचानक मुझे मंत्र सिखाने वाले नन्हें की बात याद आई कि शक्ति का दुरुपयोग करने पर वह समाप्त हो जाती है तथा स्वयं को भी नुकसान पहुंचाती हैं। मैने निश्चय  किया कि अब और परिश्रम करूंगा ताकि आगे अर्धवार्षिक परीक्षा में पहले नंबर पर आ सकूं। बहुत  मेंहनत करनें के बाद भी छःमाही परीक्षा में केवल 15वें नंबर पर आ पाया जबकि प्राप्ताॅंकों का प्रतिशत तो तिमाही से अधिक था। मैं बार बार सोचा करता था कि आखिर कहाॅं गलती होती है पर कुछ भी समझ में नहीं आता था, बातचीत के दौरान ‘स्वतंत्र रावत‘ ने बताया कि आगे आने वाले सभी लड़कों के बड़े भाइयों ने इन्हें गर्मियों की छुट्टियों में पूरा कोर्स पढ़ा दिया हैै इसलिये ये अधिक नंबर लाते हैं। मुझे यह जानकर बड़ा ही आश्चर्य  हुआ कि ये सब गर्मियों में भी पढ़ते रहते हैं, क्योंकि गर्मियों में तो हम देहात के लड़के सिबाय खेलने कूदने के और कुछ करते ही नहीं थे। 

मेरे सामने समस्या यह थी कि बड़े भैया गणित विषय लिये नहीं थे इसलिये वह कोई मदद कर ही नहीं सकते थे, पुस्तकें भी पुराने कोर्स वाली थीं तैयारी कैसे की जाय? मैंने नये कोर्स की किताबें  खरीदीं और क्लास में पढ़ायी गई विषय वस्तु को कक्षा में नोट कर घर जाकर पुस्तकों में से कईकई बार दुहराता और अगले दिन क्या पढ़ाया जाना है उसे भी पढ़ लिया करता था, इसतरह धीरे धीरे मैंने सभी विषयों को कईबार पूरा पढ़ लिया। वार्षिक परीक्षा में मेरी स्थिति 11वें नंबर पर आ पाई। प्रारम्भ  के पाॅंच लड़कों के 80 से 75 प्रतिशत के बीच उसके बाद बाले पाॅंच लड़कों के 75 से 70 प्रतिशत के बीच प्राप्तांक थे जबकि मेरे 69.6 
प्रतिशत । मेरे मन में बारबार यह विचार आता था कि आखिर ये इतने नंबर कैसे लाते हैं क्या ये कोई गलती नहीं करते। इन लोगों से पूंछता तो वे कुछ भी बताने के स्थान पर मेरा मजाक उड़ाते या फिर बात ही न करते। एक दिन एक लड़के से एक रहस्य और मालूंम हुआ वह यह कि ये सब संपन्न परिवारों के लड़के हैं कई लेखकों की पुस्तकें पढ़ते हैं ट्यूशन भी पढ़ते हैं , घर का कोई काम नहीं करना पड़ता, कैसे अधिक नंबर नहीं आयेंगे? 

मैने अपने को अध्ययन में एक प्रतियोगी की भाॅति मान कर अन्य सब तरफ से मन हटा कर जुटे रहने में ही भलाई समझी। अपने इसी अभ्यास में लगे हुए एक दिन मैनेे अपने घर गोपीचंद जी को देखा। ये मेरे बड़े भाई के साथ बी. ए. में  पढ़ते थे वे उन्हीं से मिलने आये थे, परंतु वह किसी इंटरव्यु के सिलसिले में बाहर गये हुए थे। पूछने पर पता चला कि वह अपने छोटे भाई को किसी प्रेत द्वारा की जा रही प्रताड़ना से बचाने के लिए उनसे झाड़फूंक  कराने के लिए आये थे । मैंने कहा कि यह काम तो मैं भी कर सकता हूॅं। यद्यपि उन्हें आश्चर्य  हो रहा था परंतु कुछ भी न कहते हुए उन्होंने मुझे साथ चलने को कहा। मैं उनके  साथ उनके घर पहुंचा। वहां पर बहुत भीड़ थी, जब गोपीचंद जी ने मेरा परिचय कराया तो उनके पिताजी ने उन्हें एक ओर ले जाकर कान में कुछ कहा, शायद यह, कि ये किस लड़के को पकड़ लाये हो । वहाॅं उपस्थित लोगों को जब मेरे बारे में पता चला तो वे सभी गोपीचंद जी की इस बचकानी हरकत से हॅंसे बिना न रह सके। स्वाभाविक ही था एक 14/15 साल के लड़के को भूतप्रेत झाड़ने के योग्य स्वीकार करना किसे समझ में आता। गोपीचंदजी के समझाने पर वे सब मुझसे झाड़फूंक कराने के लिए तैयार हो गए। मैं लोगों की फुसफुसाहट स्पष्ट सुन रहा था, वे कह रहे थे, ‘‘यह छोकरा कहां से पकड़ लाये बड़े बड़े गुनियां ;अर्थात् ओझा झाड़ कर थक गये, यह क्या करेगा, ये गोपी भी क्या क्या खेल कर रहा है अरे किसी डाक्टर को दिखाते तो जल्दी ठीेक हो जाता आदि आदि।‘‘

 खैर, मुझे गोपीचंद जी प्रेतप्रभावित अपने भाई के पास ले गये। मैंने देखा कि मेरी ही उम्र का एक लड़का अपनी आॅंखें बंद किये जमीन पर बैठा है, मैंने ज्योंही उसके दाॅंये हाथ की अनामिका अपने हाथ में पकड़ने के लिये स्पर्श  किया   कि वह बड़े जोर से अट्टहास करने लगा और कहने लगा कि हः हः हः ये मुझे क्या झाड़ेगा, हः हः हः। बाहर से देखने वाले भी बिचलित हो उठे, थोड़ी देर के लिये तो मैं भी डर गया क्यों कि इस प्रकार का यह मेरा पहला एक्सपेरीमेंट था। मैंने पूरी ताकत से उसकी अनामिका अंगुली को पकड़ लिया, उसने भी जोर से छुड़ाने का पूरा प्रयास किया पर मैं नन्हें की बताई गई रीति से मंत्र पढ़ने लगा और जोर से उसे ललकारा। क्या था थोड़ा इधर उधर हाथ झटका, जब नहीं छुड़ा पाया तब शांत हो गया। लोगों की फुसफुसाहट कम हुई। मैं अपना मंत्र पढ़ते हुए यथा विधि अपनी गति पकड़े हुए था। कुछ क्षणों में वह औरतों की भॅाति रोने लगा, वह यह भी कह रहा था कि मुझे मत मारो मत मारो। मैंने क्या बिगाड़ा है, मैं तो अपने घर में बैठी थी, इसने मेरे पास आकर पेशाब कर दी, अब तो मैं इसी के साथ रहूॅंगी, इसे ले जाऊंगी।

गोपीचंद जी एक कोने में बैठे हमारे बीच हो रहे वार्तालाप को एक कापी में नोट करते जाते थे। मैंने अनामिका को जोर से दबाते हुए पूंछा कि तुम कौन हो? वह बोली पहले मारना तो बंद करो? मैंने कहा, नहीं। पहले तुम्हें यह बताना होगा कि तुम कौन हो। उसने जोर से हाथ झटका और लगभग मेरे ऊपर गिरने की ही स्थिति में झपटा। सब लोग एकदम घबरा गये, मुझे भी लगा कि अब बात बिगड़ी, तब बात बिगड़ी लेकिन मैंने उसकी अनामिका नहीं छोड़ी। मैंने फिर मंत्र दुहराया और जोर से ललकारा। अब वह अपेक्षतया शांत  हुई परंतु हाथ को ऐंठती रही, मेरी यह स्थिति पहली बार ही हुई थी परंतु इन परिस्थितियों को कैसे निपटाया जाता है इस पर नन्हें  ने पर्याप्त ट्रेनिंग दे दी थी अतः मुझे कोई कष्ट नहीं था पर गोपीचंद जी के घर के सभी सदस्यों के साथ साथ अन्य लोगों को भी लगरहा था कि शायद मैं नियंत्रण न कर पांऊ इसलिये गोपीचंदजी को कुछ लोग इशारे से कह रहे थे कि क्या नाटक कर रहे हो, कहीं कुछ गड़बड़ न हो जाये। गोपीचंदजी भी इशारे से ही रुकिये रुकिए कह देते थे। मैं मंत्र की मार करता जा रहा था कि अचानक उसने बड़े जोर की छलांग लगाई जैसे वह दरवाजे से बाहर जाना चाहता हो। मैंने एक हाथ से अनामिका को पकड़े हुए दूसरे से उसके सिर के बाल पकड़कर जोर से अपनी ओर खींचा और पूंछा कि वह कौन है? 

अब वह फिर रोने लगा और फुसकते हुए उसने बताया कि वह शनीचरी की रहने वाली रज्जो ग्वालिन है, चक्की के पास मुनगा बाले घर में वह रहती थी, उसके दो लड़के मोहन ओैर घनश्याम  अभी भी वहीं रहते हैं। मैंने फिर पूछा कि वह यहां कैसे आ गई्र? उसने कहा कि मैं तो अपने घर में बैठी थी इसने मेरे पास आकर पेशाब कर दी इसलिये अब मैं इसी के साथ रहूंगी, अपने साथ ले जाऊंगी। मैंने फिर से मंत्र पढ़ना चाहा लेकिन इसी बीच वह फिर जोर से चिल्लाई, अरे कोई बचाओ ये मुझे मार डालेगा, बचाओ बचाओ....मैं इन दोनों को ले जाऊंगी और जोर जोर से हंसने लगी। मैंने बाल और अनामिका पकड़े हुए ललकार कर जोर से हिलाया। बाहर  खड़े लोगों को यह लग रहा था कि दो लड़के लड़ रहे हैं। मेरे ललकारने पर वह कुछ शांत हुई, मैंने पूछा सच बता तूं क्या चाहती है? तुझे और पिटना है या वापस जाना चाहती है? उसने कहा इसे लेकर वापस जाना चाहती हूॅं। मैनें पूॅछा इसे क्यों ले जाना चाहती हो, इसने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है? वह बोली यह मेरे घर क्यों आया, वहाॅं पेशाब क्यों की? मैनें पूछा कौन सा घर, इसने तो देखा भी नहीं। वह बोली तालाब के किनारे कोहा के पेड़ के पास। मैंने कहा अभी तो शनीचरी में चक्की  के पास बता रहीं थी? वह बोली, वह भी सही यह भी सही। मैं ने कहा यह कैसे हो सकता है? वह  बोली तुम्हें मालूम नहीें, मेरे घनश्याम  के बाद मेरी लड़की के जन्म के समय मुझे बड़ी अस्पताल में भरती कराया गया था, मेरी तबियत बहुत बिगड़ने पर मैं चिल्लाती रही, कोई मदद के लिये नहीं आया, मैं बेहोश हो गई, मुझे मरा समझकर किसी ने मुझे तालाब में डालकर बहा दिया मैं बहते बहते कोहा के पेड़ के पास आ गई, तब से वहीं रह रही हूँ।  पर इसने मेरे पास आकर पेशाब  क्यों की? अब तो मैं इसे ले ही जाऊंगी। इतना कहते कहते वह एक बार फिर जोर से चिल्लाने लगी , हटो मुझे जाने दो यह मेरा आदमी है इसे ले जाने से मुझे कोई नहीं रोक सकता।

 मैनें फिर मंत्र पढ़ा, और नन्हें के बताये अनुसार मंत्र के देवता को लाज रखनें के लिये आह्वान किया। अब क्या था वह रोने लगी और कहने लगी अब मत मारो मुझे साड़ी दे दो मैं चली जाऊंगी। मैंने कहा कुछ नहीं मिलेगा तुम्हें बिना शर्त इसे छोड़ना पड़ेगा नहीं तो और पीटूॅंगा। यह कहते हुए मैंने मंत्र दुहराया और अनामिका को जोर से दबाया, वह बोली अच्छा मैं जाती हूँ  प्रसाद दे दो । मैंने गोपीचंद जी से एक नारियल देने हेतु कहा, उनके बड़े भाई ने तत्काल नारियल मुझे पकड़ाया और मैंने मंत्र के साथ वह नारियल उसे दे दिया। उसने जोर से फेक कर सामने की दीवार में मारा जिससे वह फूट गया। फूटने की आवाज के साथ वह लंबी आह भरते हुए दोनों हाथ ऊपर उठाकर कहने लगी, लो अब चली अगली बार नहीं छोड़ूंगी। अगले ही क्षण गोपीचंद जी का भाई बिलकुल सामान्य हो गया। मैंने उसे नारियल का टुकड़ा दिया जिसे खाते हुए थोड़ी देर बाद वह बाहर खेल रहे लड़कों के साथ कबड्डी खेलने चला गया। 

गोपीचंद जी ने लिखी हुई बातों के आधार पर शनीचरी और ग्वाली मुहल्ले में जाकर कई दिनों तक पता लगाया लेकिन किसी ने कुछ न बता पाया। कहीं मुनगा का पेड़ मिलता तो चक्की न मिलती, चक्की मिलती तो मुनगा का पेड़ न मिलता। एक बार ग्वाली मुहल्ले में ढूंढते हुए वह शाम के समय मेरे स्कूल आ पहुंचे। स्कूल की छुट्टी होने वाली थी।  पूछने पर उन्होंने बताया कि भाई तो ठीक है पर अभी तक उस दिन के वार्तालाप से प्राप्त की गई जानकारी के अनुसार कुछ भी पता ठिकाना नहीं मिला। छुट्टी होने पर मैं उनके साथ ग्वाली मुहल्ले की एक गली में ‘‘रज्जो ग्वालिन‘‘ का घर तलाशते पहुंचा। वहां रहने वाली ‘‘चतरा ग्वालिन‘‘ ने बताया कि चार पांच साल पहले पथरिया की रज्जो मेरे घर में किराये से रहती थी वह डिलीवरी के समय मर गई। उसके बाल बच्चे कहां हैं यह नहीें बता सकते। इससे यह तो कन्फर्म हुआ कि रज्जो नाम की ग्वालिन थी और वह डिलीवरी के समय मरी थी। अब यह पता लगाना बड़ा ही कठिन था कि वह तालाब में किसके द्वारा फेकी गई और बहते हुए धोबी घाट पर कैसे पहुंची? गोपीचंद जी ने बताया कि उनके यहां पैत्रिक धंधा कपड़े धोने का होता है तथा वह छोटा भाई कपड़े धोने धोबी घाट पर जाता है और वहां कोहा का पेड़ भी है। इस तरह उस प्रेतात्मा की कही हुई बातें सही मान कर गोपीचंदजी ने अपना अभियान समाप्त कर दिया। इससे मुझे अपनी विद्या का परीक्षण करने का सुअवसर मिला जो प्रसन्नता दायक सिद्ध हुआ।


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1.0         भूतों से भक्तों की ओर        


1.1 बाल्यकाल का आकर्षण: उस समय मैं छठवीं कक्षा का छात्र था । मैं अपनें सहपाठियों के साथ गाॅव के नाले पर बन रहे बाॅध को देखने जाया करता था । बाॅध का चैकीदार ‘नन्हेंलाल’ हमारे घर की एक कोठरी में किराये से रहता था । वह हमें घुमाते हुए बाॅध के स्थान स्थान पर घटित हुए कुछ न कुछ मनोरंजक किस्से अवश्य  सुनाया करता था । एक दिन उसने  बताया कि किस प्रकार उसने सात आठ फुट लंबे साॅप के मुंह  को हाथ से पकड़कर उसका जहरीला दाॅत तोड़ सब मजदूरों को दिखलाते हुए छोड़ दिया। अपनी बात को प्रमाणित करने के लिए नन्हें ने वह टूटा हुआ दाॅत भी दिखाया और उसकी बाम्वी भी,जहाॅ साॅप को छोड़ा गया था । हमारे एक साथी ने पूछा ’नन्हें’ तुम्हें साॅप से डर नहीं लगता? नन्हें ने बड़ी सहजता से कहा ’नहीं भैया’ हम तो रोज इनसे खेलते रहते हैं। मैंने पूछा, क्या वह तुम्हें काटता नहीं? वह बोला, काटता तो है परंतु मंत्र के कारण जहर का प्रभाव हम पर नहीं होता है। तो क्या वह मंत्र हमें सिखा सकते हो? नहीं, अभी तुम छोटे हो, नन्हें बोला। 

हम लोग चकित होते हुए लौटे परंतु रास्ते भर नन्हें की विचित्रता पर ही सोचते रहे। अगले दिन बैजनाथ मिला। उसने बताया कि उसे तो रात भर साॅपों के सपनें आते रहे। मैने कहा मुझे तो नींद ही नहीं आई।स्कूल में हम लोग नन्हें की ही बातें करते रहे। हमारी बातों को झूठ समझकर ऋषभ ने हेडमास्टर से हमारी बातों को विस्तार से कह सुनाया कुछ इस तरह कि हमें डाॅट पड़े। परंतु हेडमास्टर ने भी मंत्र के प्रभाव को मान्यता दी और हमें समझाया कि मंत्र यदि सिद्ध हो तो वह  सचमुच प्रभाव डालता है। ’नन्हेंलाल ’ के प्रर्दशन  और हेडमास्टर की स्वीकारोक्ति ने हमें न केवल रोमाॅचित किया वरन् प्रोत्साहित भी किया। अब हम इस तलाश  में लग गये कि कैसे मंत्र सीखा जाये। 

बैजनाथ मुझ से एक कक्षा आगे पढ़ता था। एक दिन वह स्कूल नहीं गया और नन्हेंलाल के पास बैठकर मंत्र सीखने के लिये क्या उपाय करना चाहिये इसके संबंध में पूछता रहा। नन्हेंलाल ने बताया कि यह बड़ा ही कठिन काम है, नदी के ठंडे पानी में गर्दन तक डूबे हुए दीवाली अथवा दशहरा की रात में 12 बजे के बाद गुरु के साथ जाकर सिद्ध करना पड़ता है। गुरु किनारे पर बैठकर पानी में डूबे हुए चेले के एक एक बार मंत्रोच्चार करने के बाद शुद्ध  घी से अग्नि में होम करता जाता है, इसप्रकार 108 बार मंत्रोच्चार और आहुतियाॅ पूरी होने पर पानी से बाहर आकर गुरु को प्रणाम कर नारियल और सफेद वस्त्र देते हुए मंत्र की सक्रियता बनाये रखने के लिये आवश्यक  निर्देश  प्राप्त करता है। मुझसे बैजनाथ आगे कुछ बोलता कि बड़े भैया  जो कि हमसे 4 कक्षाएं आगे पढ़ते थे, आ गये और पूछने लगे कि क्या मंत्र जंत्र की बातें करते हो, ये सब मूर्ख बनाने की बातें हैं, तुम लोग इन बातों में क्यों उलझते हो, जाओ पढ़ने लिखने में मन लगाओ। मैं तो तत्काल भागा  लेकिन बैजनाथ उनसे बड़ी देर तक बातें करता रहा। 

कुछ दिन बाद मैंने देखा कि बड़े भैया  और बैजनाथ नन्हेंलाल की कोठरी में बैठे मंत्र सीखने के संबंध में पूछ रहे थे। नन्हेंलाल अंगीठी पर रोटी सेंकते हुए उन्हें सब बताये जा रहा था। बड़े भैया  और बैजनाथ इतने तल्लीन हो गये थे कि उन्हें यह पता ही नहीं चला कि मैं कब उनके पीछे जा बैठा। उन्हें पता ही नहीं चलता यदि नन्हेंलाल ने मुझे दिखाते हुए यह न कहा होता कि इन्हें सिखा सकते हैं तुम्हें नहीं, परंतु इनकी उम्र कम है। बड़े भैया  ने पूछा कि यह उम्र में छोटा है, इससे इसे नहीं सिखा सकते, मैं उम्र में बड़ा हूॅ तो, मुझे नहीं सिखा सकते आखिर आप कहना क्या चाहते हैं? नन्हेंलाल बोला भैया  जी बात साधना और लगन की है । छोटे भैया  में लगन आप लोगों से अधिक है इसीलिये कहा है। बड़े भैया  ने कहा यदि हम पूरी  लगन से साधना करें तब तो सिखाओगे? नन्हें बोला अच्छा, बिना लिखे केवल सुनकर दो दिन में मंत्र याद कर सकते हो तो सिखा सकते हैं। दोंनों सहमत हुए। उसी दिन से अभ्यास प्रारंभ हुआ, सबसे पहले रोगों या कोई भी  बीमारी को दूर करने का मंत्र सीखना प्रारंभ किया गया। रोज शाम  को नन्हें के साथ साथ हम लोग मंत्र दुहराते दुहराते दो दिन में सीखकर उसे बिना गलती किये बोलने लगे। इसके बाद ओले बरसनें पर उन्हें पानी के रूप में बदलने, किसी को जान से मारने, साॅप या बिच्छू के काटने पर जहर उतारने आदि के मंत्र सीखे। अब प्रतीक्षा थी दशहरे के आने की।

 हम अपनी अपनी पढ़ाई में लग गये। समय समय पर नन्हें से अपनी स्मृति को ताजा बनाये रखने के लिये मिलते रहते थे। नन्हेलाल भी अनेक जड़ी बूटियों को एकत्रित करता रहता था, कहता था कि इन्हें दशहरे के दिन जाग्रत करना है। मुझे डर था कि कहीं ये लोग मुझे छोटा मानकर दशहरे के दिन मुझे बिना बताये ही मंत्र सिद्ध करने न चले जायें इसलिये मैं प्रायः नन्हें से अपने बारे में बार बार आश्वाशन  लेता रहता था। खैर, प्रतीक्षा समाप्त हुई। दशहरा के दो दिन पहले से ही हम लोग अपनी परीक्षा की तैयारी में लग गये थे जबकि हमारे अन्य साथी काली उत्सव के नाटकों को देखने में व्यस्त रहते थे। दशहरे के दिन हम तीनों को शुद्ध  घी, नारियल, और सफेद तौलिया लेकर शाम को 8 बजे से ही उपस्थित रहने के लिये नन्हें ने निर्देषित कर दिया था। हमें रात्रि जागरण करना था और निर्देषित समय पर घर से 2 किलोमीटर दूर नाले के एक गहरे कुंड में जाकर गर्दन तक डूबे हुए अपना अपना मंत्र सिद्ध करना था। 

प्रारंभिक एक दो घंटे तक तो अभ्यास ही चलता रहा फिर नन्हें ने बैजनाथ से कहा कि जाओ आॅगन में लगे नदनबन के पेड़ पर टॅंगी पोटली निकालकर लाओ । बैजनाथ घबराया । बात यह थी कि नन्हें की कोठरी से आॅगन में जाने के लिए बाहर निकलकर चबूतरे पर से हेाकर जाना था जो कि एकान्त सा था, रात भी अंधेरी थी इसलिए वह डर रहा था। उस ने कहा कि अकेले नहीं जा सकते, क्योंकि अंधेरा है। नन्हें ने कहा कि बात कुछ और है? उसने कहा, हां मुझे लगता है कि पोटली में सांप होंगे। नन्हे नें कहा अच्छा बड़े भैया के साथ में जाओ। वे दोनों डरते डरते गये और थोड़ी देर में वापस आ गये और बोले वहां पर कोई पोटली नहीं है। अब यह काम मुझे करने को दिया गया। मैं आॅगन में खेलता रहता था अतः किस डाल पर वह टंगी थी मुझे मालूम था, पर वह कुछ उंचाई पर थी फिर भी मैने मना नहीं किया। मैंने बाहर निकलकर दहलान की सांकल खोली और आंगन में जाकर देखा तो पोटली उस डाल पर नहीं थी। अब मैं परेशान हुआ परंतु बिचार कर रहा था कि तुलसीघर पर चढ़ कर देखूं या नहीं, अचानक नानी ने आवाज दी, कौन है? मैंने कहा कि मुझे नन्हें की पोटली ले जाने के लिये उसने भेजा है पर जहां का उसने बताया है वहाॅ नहीं है? नानी बोली,उसने ही बिही के पेड़ पर टाॅग दी थी, वहीं देखो। मैंने बिही के पेड़ पर टॅंगी पोटली को निकाला और नन्हें की कोठरी में जा पहुंचा। 

मैंने जाकर सब को बताया कि पोटली तो बिही के पेड़ पर थी। तपाक से बड़े भैया बोले, तभी तो हम को नहीं मिली। जबकि बात यह थी कि वे  लोग आॅगन तक गये ही नहीं थे डर के कारण। अन्य कोई बात नन्हें ने नहीं पूछी इसी कारण इन लोगों की चालबाजी समझ में नहीं आई। नन्हें ने पोटली में से अनेक जड़ी बूटियों के सेंपल दिखाये और कहा कि इन्हें भी जगाना है, नाम न बताते हुए केवल दिखाया कि यह पीलिया की, यह बहते रक्त को बंद करने की, यह तिजारी की, यह सिर दर्द की आदि आदि अनेक बूटियां छांट छांट कर अलग अलग रखते हुए वह बता रहा था कि उसने कब और कहां से उस जड़ी को प्राप्त किया है। उसने बताया कि इनके जगाने का समय 12 बजे से 2 बजे के बीच है अतः अभी तुम लोग सो जाओ 4 बजे जाग जाना फिर कुंड पर चलकर तुम्हारा मन्त्र  जगा देंगे। हम लोग चले गये और नन्हें अपने काम में लग गया। चार बजते ही हम लोग तो जाग गये पर बैजनाथ नहीं आ पाया क्योंकि वह थोड़ी दूरी पर रहता था। साड़े चार तक वह आया और 5 बजे तक हम लोग कुंड पर पहुंचे, नन्हें बड़बड़ा रहा था, तुम लोगों के साथ यही खराबी है, कोई काम समय पर नहीं कर सकते हो, फिर नुकसान होगा तो हमको दोष देंगे।

कुंड पर पहुंच कर नन्हें ने कहा, केवल चड्डी पहने रहो, सब कपड़े उतार कर पानी के भीतर गर्दन के बराबर पानी आने तक गहराई में खड़े हो जाओ और अपने अपने हाथों में नारियल ले कर पानी के ऊपर किये रहना। तीनों कपड़े उतार कर पानी के भीतर घुसे। मेरी उंचाई कम होने से किनारे से चार कदम भीतर पहुंचते ही छाती तकपानी आ गया। नन्हें ने वहीं रुक जाने को कहा, परंतु बड़े भैया और बैजनाथ को मुझसे दो तीन कदम और आगे जाना पड़ा। किनारे पर बैठ नन्हें ने कंडे पर चकमक से आग सुलगाई और धुएं के शान्त  हो जाने पर हम लोगों से मंत्र को जोर जोर से उच्चारित करने को कहा । कुल मिलाकर 108 आवृत्तियां करना थीं। एक एक आवृत्ति पूरी होने पर नन्हें घी की आहुतियाॅ देता जाता था। पहले मंत्र की चालीस पेंतालीस आवृत्तियां ही हो पाईं थीं कि ‘कन्ना’ जोकि पाट चरानें आ रहा था, की भेंस अचानक कुंड की ओर जा पहुंची। कन्ना दौड़ता हुआ आकर कुंड के पास रुक गया। वह हमको देख कुछ बोलता कि नन्हें ने इशारे से रोक दिया कन्ना बोला तो कुछ नहीं पर अपनी भेंस को भूल हमारी गतिविधियां देखने लगा। दो तीन मिनट में ही वह चला गया, और हमारी मंत्र सिद्धी में कोई विघ्न नहीं आ पाया नहीं तो थोड़ी देर के लिये लगरहा था कि यह चरवाहा कहीं कुछ गड़बड़ न कर दे। खैर, एक एक कर सभी मंत्रों की आवृत्तियां पूरी हुईं और हमें पानी के बाहर आने की अनुमति मिली। पानी से बाहर आ कर हमने वह नारियल नन्हें को दे दिये। सफेद तौलिये से शरीर  पोंछ कर कपड़े बदले। नन्हें का निर्देश  था कि जब भी मंत्र का उपयोग करना पड़े इस तौलिये का एक सिरा सिर पर रखकर दूसरे को हाथ से पकड़ कर मन में मंत्र पढ़ते हुए हवा को उसकी ओर बहाते जाना जिसके लिये मंत्र प्रयुक्त किया जा रहा है। नन्हें ने यह भी बताया कि यह मंत्र तभी तक काम करेगा जब तक ये शर्तें पूरी होती रहेंगी। पहली शर्त  यह है कि कभी भी किसी का दिया प्रसाद न खाना और  दूसरी यह कि जब भी पेशाब करना हो ऐंसा स्थान चुनना जहां से मूत्र आगे की ओर बहे न कि पीछे की ओर आवे।

 इन बिचित्र शर्तों के आधीन हम मंत्र सिद्ध कर उन की परीक्षा करने के लिए बेचैन थे पर 15-20 दिन में ही दीवाली आई और हमें बहुत प्रसाद मिला। नारियल के टुकड़े, पेड़े, लाई, न जाने कितने  प्रकार की खाद्य सामग्री, अनेक जान पहचान और अनजाने व्यक्तियों ने दी पर जीभ ललचाती रही हमें तो शर्त के आधीन कुछ भी ग्रहण करने का  अधिकार नहीं था। बड़े भैया और बैजनाथ के बारे में कुछ नहीं कह सकता परंतु मुझे तो अपार कठिनाई थी फिर भी सब मिठाई और अन्य सामग्री अपनी छोटी बहिन को देता जाता था, इस तरह पहली बार मन चाही बस्तुएं दूसरों को दे देने पर कितना दुख होता है इसका पता चला। दूसरी शर्त के पालन करने में भी बहुत कठिनाई हुई, स्कूल में सभी लड़के कहीं पर भी खड़े होकर या बैठकर पेशाब कर सकते थे पर मुझे उचित स्थान ढूढ़ना पड़ता था। खैर, कुछ कठिनाई तो अवश्य  हुई लेकिन कुछ समय बाद सब ठीक हो गया। 

दीवाली की छुट्टियां समाप्त होते ही बड़े भैया शहर  चले गये क्यों कि वह उस समय 10 वीं में पढ़ते थे और हमारे गांव में केवल 8वीं तक ही स्कूल था वह केवल छुट्टियों में ही आया करते थे। अब हमारे लिये सीखे हुए मंत्रों के परीक्षण करने का अवसर ढूंढना था पर कठिनाई यह थी कि किससे कहा जाये? हम तो उम्र में इतने छोटे थे कि किसी से कुछ भी कहने में डर लगता था। एकाध बार साहस कर किसी सहपाठी से कह दिया कि मैं झाड़फूंक कर लेता हूं तो वह मुझपर बहुत हॅंसा, तब से मैंने चुप रहने में ही भला समझा। कुछ सप्ताह बाद रवि, जो कि मेरे पड़ोस में ही रहता था और मेरी क्लास में ही पढ़ता था, ने उस दिन तो मेरा बहुत मजाक उड़ाया था पर आज उसने लगभग रोते हुए मुझसे कहा कि उसकी मां बहुत तकलीफ में है, क्या मैं मंत्र से उन्हें ठीक कर सकता हूं? मैंने कहा क्यों नहीं, पर उन्हें विश्वाश  होना चाहिए। रवि बोला उसे विश्वाश  इसलिये है क्योंकि कन्ना, जो कि उसकी भैंसें चराता है, ने मुझसे कहा है कि तुम मंत्र जानते हो, उसने तुम लोगों को दशहरे के दिन भदभदा में मंत्र सिद्ध करते हुए देखा था। अब क्या था, मैं अपना मंत्र टेस्ट करने की सोच ही रहा था कि शाम  को नानी ने भी  अचानक मुझसे रवि की मां को झाड़ने के लिए कहा। डरते डरते मैं सुबह होते ही रवि के घर पहुंचा, रवि तो मेरी प्रतीक्षा ही कर रहा था। मैंने बताई गई विधि के अनुसार झाड़ना प्रारंभ किया । तीन दिन तक दोनों समय झाड़ने पर उन्हें आराम मिल गया। नियमानुसार उन्होंने मुझे एक नारियल दिया जिसे मैने स्पर्श  करते हुए रवि से कहा कि वह उसे फोड़कर कन्याओं को बाॅंट दे। मुझे बहुत प्रसन्नता हो रही थी कि मैं अपने टेस्ट में पास हो गया। उधर बैजनाथ ने भी पास रहने बाले हीरा पटैल के लड़के को बिच्छू के काटने पर झाड़ कर ठीक कर दिया था अतः अपने मुहल्ले में वह बड़ा ही महत्वपूर्ण हो गया था । बैजनाथ इस झाड़फूंक में इतना लग गया था कि पढ़ाई लिखाई सब कुछ भूल गया। लोग उसे बहुत आदर देते। मुझे भी अपनी प्रसिद्धि पाने की लालसा बढ़ रही थी परंतु मेरी आयु कम होना इसमें बाधक था। मैं जानता था कि मेरा मंत्र सिद्ध है अतः अब उसे कभी भी उपयोग में ला सकता हूॅं, वर्तमान में पढ़ना लिखना ही अधिक महत्वपूर्ण है इस कारण मैंने अपना पूरा ध्यान पढ़ाई पर लगाया। बैजनाथ स्कूल की परीक्षा में फेल हो गया पर झाड़फूंक में इतना रम गया कि उसने यही धंधा करना अपने जीवन यापन का साधन बना लिया। आठवीं पास करनें के बाद मुझे शहर में आना पड़ा क्यों कि वहाॅं पर आगे स्कूल नहीं था। 


   

Monday, 13 October 2014


संकलन  : डा. टी. आर. शुक्ल

                            विषयानुक्रम

1.0   : आद्य :  भूतों से भक्तों की ओर।
1.1 बाल्यकाल का आकर्षण।
1.2 अहंकार का उद्गम।
1.3 प्रतिष्ठा का पोषण।
1.4 दिशा  परिवर्तन।
1.5 सन्मार्ग प्रेरण।
2.0 : मध्य (भाग एक): आधुनिक विज्ञान का विश्लेषण ।
2.1 ब्रह्माॅंड की उत्पत्ति का बिगबेंग सिद्धान्त।
2.2 सूर्य और हमारा सौर परिवार।
2.3 हमारी आकाश गंगा और अन्य आकाश  गंगायें।
2.4 ब्रह्माॅंडीय माडल।
2.5 ब्रह्माॅंड की आयु और भविष्य।
2.6 बहुब्रह्माॅड और ब्लेक होल।
2.7 आधुनिकतम महाप्रयोग।
3.0 : मध्य (भाग दो): यथार्थ ज्ञान, तथ्य और अवधारणायें।
3.1 परिभाषायें।
3.2 तथ्य।
3.3 अवधारणायें।
3.4  ध्वनि, अक्षर, बीज मंत्र और विचार
4.0 : मध्य (भाग तीन): महासम्भूतियाॅं।
4.1 भगवान सदाशिव।
4.2 भगवान श्रीकृष्ण।
5.0 : मध्य (भाग चार): विशुद्ध  ज्ञान दर्शन ।
5.1 ब्रह्माॅंड उत्पत्ति की तान्त्रिक ब्याख्या।
5.2 समाधियाॅं।
5.3 मानव मन और माया।
5.4 भक्ति।
5.5 कर्म विज्ञान।
5.6 अविद्या।
5.7 तंत्र  साधना और भ्रम।
5.8 परा ज्ञान:: आनन्दसूत्रम् ।
5.9 माइक्रोवाइटमः वैज्ञानिक शोध की नयी चुनौती।

6.0 : मध्य (भाग पाॅंच): मानव शरीर, योग मनोविज्ञान, ब्रह्म विज्ञान।
6.1 मन की संरचना
6.2 मानव शरीर और योग मनोविज्ञान।
6.3 साधारण और असाधारण स्मृति।
6.4 स्वप्न, दूरबोध और अतीन्द्रिय बोध।
6.5 मन की आन्तरिक और बाह्य पहुंच।
6.6 ज्ञान संकाय।
6.7 मन और मानव तन की ऊर्जा ग्रंथियाॅं।
6.8 चिंतन ध्यान और रूपान्तरण। 
6.9 वेद में ब्रह्म विज्ञान।
7.0 : अन्त (भाग एक): विश्लेषण और व्याख्या।
7.1 मानव शरीर जीव वैज्ञानिक मशीन।
7.2 मन की शक्तियाॅं, देवता, देवी शक्ति और ओंकार।
7.3 ब्रह्माॅंड और संसार क्या हैं?
7.4 संसार में लोग कैसे रहें।
7.5 कुछ प्रश्नोत्तर ।
7.6 धर्म, शून्य , अंक, विन्दु और इन्द्र।
8.0 :अन्त (भाग दो): परिणाम और निष्कर्ष।
8.1 ब्रहमाण्ड  की उत्पत्तिः और हम।
8.2 धर्मान्धता और वैज्ञानिकता ।
8.3 मंत्र, योग, विज्ञान और आध्यात्म। 
8.4 नृत्य, आध्यात्म , वर्ण और दुख ।
8.5 भूत प्रेत और विभ्रम।
8.6 मतवाद और मत
8.7 परमपुरुष धरती पर क्यों आते हैं?
8.8 जन्म मृत्यु और संस्कार।

8.9 मन्तब्य।