Tuesday 28 October 2014


1.5 सन्मार्ग प्रेरण : शर्मा जी की प्रेरणा से मैं श्रीमद्भग्वदगीता को समय समय पर पढ़ता रहता और अच्छे लगने बाले श्लोकों को दीवार पर लिख लेता ताकि दूर से देख देख कर उन्हें याद किया जा सके। इस तरह मेरे कमरे की दीबारों पर या तो गणित और फिजिक्स के फारमूले लिखे रहते या गीता के श्लोक। शर्मा जी के स्वास्थ्य को दृष्टिगत रखते हुए उनके पारिवारिक सदस्य उन्हें जबलपुर ले गये अतः अब मेरी जिज्ञासाओं के समाधान का साधन भी नहीं बचा, परंतु उनके द्वारा बताया गया यह कथन याद रखे रहा कि जब कभी कोई कठिनाई आए तो परमपुरुष से कातर हृदय होकर एकाग्रता से मन ही मन प्रार्थना करना चाहिए, वे किसी न किसी माध्यम से समाधान करा देंगे। इसतरह अपनी यूनीवर्सिटी की परीक्षायें देते हुए फ्री टाइम में गीता का अध्ययन जारी रहा पर उसमें वर्णित अनेक तथ्य सैद्धान्तिक या सांकेतिक ही पाये जाने से बार बार उनकी व्यावहारिकता की विधियां तलाशने में मन यहां वहां डोलता रहता था। युनीवर्सिटी की लायब्रेरी से अनेक लेखकों की पुस्तकें पढ़ने के लिये लाता और उनमें अपनी शंकाओं का समाधान खोजता पर संतोषजनक उत्तर नहीं मिलता था। इसी बीच मेरे साथ कुछ अजीब सी घटनायें होने लगीं। चूंकि गीता में भूत प्रेतों के संबंध में यथार्थता जानकर अब उनके संबंध में बताये गये नियमों को मैंने पालन करना छोड़ दिया था इस कारण जब कभी भी मैं एकांत में लेटा होता मुझे तत्काल नींद आ जाती और इस बीच यदि कोई मुझे थोड़ा सा भी स्पर्श  करता या आवाज देकर जगाने की कोशिश  करता तो अचानक ही बड़े जोर की  डरावनी आवाज मेरे मुंह से निकलती जिसे सुनकर आस पास के लोग एकत्रित हो जाते , मैं आश्चर्य  में पड़ जाता और उन लोगों से पूछने लगता कि क्या बात है?  और, लोग मुझपर हंसने लगते । उन क्षणों में जब आवाज निकल रही होती मुझे ऐंसा आभास होता जैसे कोई मुझे अपार कष्ट दे रहा हो, और भय से आवाजें जोर की चीख की तरह निकल पड़तीं थीं। इस पर कई बार मुझे घर वालों से डांट  खाना पडी़।

अब मैं बड़ा ही परेशान रहने लगा और सोते समय बड़ा ही सावधान रहता ताकि कोई बीच में ही न जगा पाये। शर्माजी के बताये अनुसार मैंने अपनी इस ज्वलंत समस्या का समाधान  गीता में ढूंढते हुए एक स्थान पर पढ़ा कि दुविधाजनक स्थिति आजाने पर एक मात्र परमसत्ता को लगातार स्मरण करते हुए, किये हुए हर अच्छे बुरे कार्य को उन्हें ही समर्पित करते जाना चाहिये। भगवद्गीता सचमुच अनूठा ग्रंथ है, परंतु अधिकांश  महत्वपूर्ण तथ्यों का विवरण सांकेतिक  रूप से ही होने के कारण हर व्यक्ति अपने अपने ढंग से अर्थ निकालता है इससे बड़ा ही भ्रम उत्पन्न होता है। कई विद्वानों ने इस ग्रंथ पर अनेक प्रकार से टीकायें की हैं, पर विज्ञान का विद्यार्थी होने के कारण मुझे अतार्किक बातें स्वीकार करने में कठिनाई होती। सैद्धांतिक तथ्यों को व्यावहारिक आधार देने के लिये मन ही मन सोचता कि यह कैसे संभव होगा। विश्वविद्यालय   की कक्षाओं के नियमित अध्ययन के साथ साथ अपनी इस समस्या का भी समाधान ढूढ़ने के लिये अनेक अन्य ग्रंथों का भी अध्ययन जारी रहा। इस प्रकार डा. राधाकृष्णन द्वारा विदेशों में दिये गये भारतीय दर्शन पर ब्याख्यानों, स्वामी विवेकानंद के साहित्य, स्वामी रामतीर्थ के साहित्य, महात्मा गांधी का दार्शनिक  साहित्य आदि का अध्ययन करने के पश्चात् एक बात सभी में उभयनिष्ठ पाई कि सभी ने उपनिषदों का कहीं न कहीं अवश्य ही संदर्भ दिया है और स्वामी रामतीर्थ को छोड़कर अन्य सभी के द्वारा संदर्भित  संस्कृत श्लोक का अर्थ बताकर आगे की राह लेते जाने की विधि ही अपनाई गई है। स्वामी रामतीर्थ ने गणित और विज्ञान का सहारा लेकर सभी तथ्यों को समझाते हुए अपनी बात कहने की चेष्टा ईमानदारी से की है।

मेरा भी यही सोच रहता कि ग्रंथों का संदर्भित अंश ब्याख्याकार ने अपने जीवन में कैसे उतार पाया इसकी विधि का विवरण ही पाठक को सही मार्गदर्शन दे सकता है अन्य सब तो ग्रंथ के अंश का मात्र दुहरावा ही हुआ, अतः इस अर्थ में मुझे स्वामी राम तीर्थ की बातें अधिक प्रभावकारी लगीं। मन में जब उत्कट जिज्ञासा होती है तो अवश्य ही वह किसी न किसी माध्यम से समाधान हो जाती है। मैं अपना आध्यात्मिक अध्ययन जारी रखते हुए इस तलाश में था कि कोई ईश्वर जीव व जगत के बारे में वैज्ञानिक रूप से मेरी जिज्ञासाओं का समाधान कर दे, क्योंकि पूर्वोक्त महानुभावों के ग्रंथों में बार बार ईश्वर , माया, संसार और विभिन्न जीवों के बारे में जो भी विवरण मैंने पढ़ा, वह मेरी उत्सुकता और ज्ञानपिपासा को संतुष्ठ नहीं कर पाया । जितना मैं अलग अलग विद्वानों के मतों का अध्ययन करता उतना ही उलझता जाता, समझ में नहीं आता था कि क्या करूं, क्या करना चाहिये ,क्या नहीं करना चाहिये? बार बार गीता का वह श्लोक भी याद कर लेता कि ‘‘ कर्मणोह्यपि बोद्धब्यम्, बोद्धब्यम च विकर्मणः, अकर्मणश्च बोद्धव्यम गहना कर्मणेा गतिः।’’ अर्थात् कर्म अकर्म तथा विकर्म सभी का ज्ञान होना चाहिये क्यों कि कर्म की गति बड़ी ही गहन है।

इसी उधेड़बुन में उलझे मन को एक दिन कुछ संतुष्ठि का अनुभव प्राप्त हुआ जब अचानक आचार्य शुद्धसत्वानन्द अवधूत से मुलाकात हुई। जब मैंने उनसे अपनी पूर्वोक्त जिज्ञासाओं के बारे में पूछा तो उन्होंने बताया कि सबसे पहले तो यह मानलो कि पृथ्वी पर जितने आदमी रहते हैं उतने ही प्रकार के विचार, मत, और मतवाद संसार में भरे हुए हैं। सबके पास मन और मस्तिष्क है अतः सभी के विचारों को सुन समझ कर विश्लेषण करते रहना चाहिए और विश्लेषण के आधार पर जो सर्वोत्तम लगे उसे ही अपनाना चाहिये। यह बात मुझे अच्छी लगी क्योंकि उन्होंने अपने मत को मानने या न मानने की स्वतंत्रता दी, कहीं भी यह नहीं कहा कि वह जो कह रहे हैं वही ब्रह्म वाक्य हैं । उन्होंने यह भी बताया कि वह जिस विचारधारा का पालन करते हैं वह विश्व में प्रचलित सभी मतों दर्शनों और विचारों का निचोड़ है। यह एक मनोआत्मिक पद्धति है जिसमें किसी भी स्तर पर चेला मेकिंग सिस्टम नहीं है और यही इसकी विशेषता है। इस समग्र मनोआत्मिक दर्शन के प्रवर्तक को पिता और अनुयायियों को उनके पुत्र पुत्रियों का स्थान प्राप्त है। अनुयायी परस्पर गुरुभाई और गुरुभगिनी के संबंध से जुड़े हुए हैं और एक दूसरे को दादा और दीदी के नाम से तथा प्रवर्तक को बाबा सम्बोधित करते हैं। इस दर्शन में जाति, रंग, भाषा, देश और तथाकथित वर्तमान में प्रचलित धर्मों का कोई भेद नहीं है।

उनके अनुसार मानव मानव एक है तथा मानव का धर्म भी एक है, उस धर्म को भागवत धर्म कहा गया है। मानव का वह स्वभाव जो उसे ईश्वराभिमुख  करता है और ईश्वर  के प्रति अकृत्रिम  प्रेम और आकर्षण जगा देता है, भागवत् धर्म कहलाता है। वस्तुतः प्रत्येक व्यक्ति के भीतर ईश्वर  के लिये प्रेम और आकर्षण निहित रहता है। जो इस आकर्षण का अनुभव नहीं करता वह मनुष्य नहीं कहा जा सकता वह मनुष्येतर प्राणी मात्र है। भागवत् धर्म ही मनुष्य को पशु  से पृथक करता है, यदि किसी चोर या पापी के हृदय में ईश्वर  के प्रति प्रेम है तो वह मनुष्य कहला सकता है परंतु यदि तथाकथित धार्मिक नीति निपुण के हृदय में ईश्वर  के लिये आकर्षण नहीं है तो उसे मनुष्य नहीं कहा जा सकता। ‘‘ आहारनिद्राभयमैथुनंच सामान्यमेतद् पशुभिर्नराणाॅं, धर्मोंहितेशामधिको विशेषो धर्मेणहीना पशुभिः समानाः।’’ इसलिये जो मानवता के कल्याण की भावना पूरे मन से भरते हैं वे भागवत् धर्म का पालन अवश्य  ही करेंगे। भागवत्धर्म की नीव इन तीन मूलसत्ताओं पर आधारित हैः-(1)विस्तार (2)रस (3)सेवा,।

'विस्तार' का अर्थ है मन की विस्त्रिति अर्थात् मन को वृहदामुखी करना। इस स्थिति में सब प्रकार के छुद्र भाव, वर्ण, जाति भेद, और अंधविश्वाशों  के विरुद्ध संग्राम करना पड़ता है मन जब संकीर्णता और अंधविश्वाशों  में घिरा रहता है तो चारों ओर का वातावरण दूषित हो जाता है किन्तु मनके व्यापक होने पर पुण्य की द्युति स्वप्रकाशित होती है।  ‘‘विस्तारः सर्व भूतस्य विष्णोर्विश्वमिदम्  जगत् द्रष्टव्यमात्मवत्तस्माद भेदेन विचक्षणैः।’मनुष्य ही मननचिन्तन कर सकता है, प्रत्येक जीव मनुष्य के शरीर के लिये लालायित रहता है। क्योंकि इस शरीर में ही भागवत साधना करपाना संभव है। इसीलिये शास्त्र में कहा कि भागवतधर्म का पालन कुमार अवस्था से ही करणीय है। भागवत धर्म का आश्रय लेने वाले संसार की समस्त अभिव्यक्तियों को भगवानका विग्रह मानकर प्यार करते हैं, क्योंकि उनका प्रेम परमपुरुष के साथ होता है। ‘‘अनन्यममता,विष्णोर्ममता  प्रेमसंगता’’ तुम्हारा प्रेम  उनके साथ है जिनकी मानस सत्ता के बीच पूरा जगत स्थित है। उन्होंने जगत की रचना कर अपने को उसी में विलय कर दिया है। एक छुद्र कण, घास का पत्ता और प्राणी सब उन्हीं का विस्तार है इसलिये भागवतधर्म के अनुयायी साधकों के लिये अपने मनका इतना विस्तार करना होगा कि जगत की प्रत्येक वस्तु से प्रेम करें घृणा नहीं। भागवत धर्म में विभिन्नता को कोई स्थान नहीं है। यह संश्लेषण  का पथ है।

'रस'-विश्व  में जो कुछ होरहा है चाहे प्राकृतिक हो या अतिप्राकृतिक सबकुछ परमपुरुष की इच्छा से ही होरहा है। उनके मन का प्रक्षेप यह जगत, उनकी मानस तरंग से उत्पन्न हुआ है। हमारे अणुमन से उनके भूमामन (cosmic mind) का पार्थक्य यह है कि हमारी कल्पना का रूपान्तरण वाह्य मानस प्रक्षेप के रूप में होता है जबकि भूमा मन में वाहृय कुछ भी नहीं है। समस्त जगत उसकी मानस सत्ता के मध्य स्थित है इसलिये उसकी मानस तरंग हमें वाह्य प्रतीत होती हैं। परमपुरुष का मानस चिन्तन उनका स्वरस है। विभिन्न चिन्तनों के कारण अणुमन में जो तरंगें बनती हैं वे उसका स्वरस हैं। इस स्वरसगत पृथकता के कारण ही प्रत्येक जीव एक दूसरे से अलग अलग होता है। जैसे, बाजार से जाते हुए तुमको एक जूते बनाने बाला तुम्हारे पैरों की ओर, नाई सिर की ओर और धोबी कपड़ों की ओर देखता है। द्रष्टि की यह भिन्नता अपने अपने स्वरस के कारण होती है। प्रत्येक अणुमन का स्वरस परमपुरुष के द्वारा प्रत्यक्ष रूप से नियंत्रित होता रहता है, तुम चाहो या नहीं उनके चारों ओर घूमना ही पड़ेगा । तुम्हारा स्वरस यदि उनके स्वरस के साथ साम्य स्थापित नहीं करता तो तुम्हारी इच्छा कभी पूरी नहीं हो सकती। तुम तो हजारों इच्छायें प्रति दिन करते हो पर उनमें से कितनी पूरी हो पाती हैं? इसलिये सफलता पाने के लिये भूमा तरंग(cosmic wave) और तुम्हारी स्वरस तरंग(psychic wave) में सामंजस्य होना चाहिये।जब मनुष्य परमपुरुष के प्रेम में जकड़ जाता है तो वह उनका स्वभाव जान जाता है और वह अपने स्वभाव को परमपुरुष के स्वभाव में मिला देता है जिससे वह जगत में प्रतिद्वन्द्वता से दूर हो जाता है और अपने क्षेत्र में विजयी होता है। दूसरे समझते हैं कि वह महान पुरुष है पर वह जानता है कि उसकी सफलता का रहस्य क्या है। इसलिये रस साधना का मूल मंत्र यह है कि अपनी इच्छा को परमपुरुष की ओर प्रवाहित कर दो। शास्त्र  में इसी को रासलीला कहा गया है। तुम्हारी बुद्धि, शिक्षा, मान सब व्यर्थ हो जायेंगे यदि उन्हें परमपुरुष की ओर परिचालित नहीं करते हो। साधक को चाहिये कि वह यह भावना रखे कि हे प्रभो मेरे जीवन में तुम्हारी इच्छा पूरी हो।

’सेवा'- जब किसी को कुछ देकर उसके बदले में प्रत्याशा  रखी जाती है तो यह कहलाता है व्यवसाय और जब पाने की प्रत्याशा  नहीं की जाती तब वह सेवा कहलाती है। यह दो प्रकार की हो सकती है एक आन्तरिक और दूसरी बाह्य। बाह्य सेवा के लिये संपूर्ण जगत को परमेश्वर  का विग्रह जानकर प्रत्येक प्राणी की सेवा करना होगी, चाहे गृहस्थ हो या संन्यासी, जीव को शिव  जानकर सेवा करना ही होगी। जीव की सेवा के समय मन में रखना होगा कि परमपुरुष की ही सेवा कर रहे हो, यदि जीव रूप में वह नहीं आते तो यह अवसर कहां मिलता। रोगी, भिखारी के रूप में वे तुम्हारे पास आते हैं और तुम्हारी सेवा की आशा  करते हैं, तुम्हारी सेवा से वे कृतज्ञ नहीं होते वरन् तुम ही होते हो क्योंकि यदि वह सेवा का अवसर न देते तो तुम क्या करते? वाह्य सेवा सब कर सकते हैं। आन्तरिक सेवा, जपक्रिया और ध्यान से सम्पन्न होती है। ध्यान और जप के समय सेवा की मनोवृत्ति जाग्रत रखना होगी, प्रत्याशा  का त्याग करना होगा। साधना में सोचना होगा कि परमपुरुष की सेवा कर रहे हैं। साधना में सेवा भाव होने पर एकाग्रता सहज ही आ जाती है सेवा भाव नहीं रहने पर योगी की साधना भी निरर्थक हो जायेगी। जब आन्तरिक सेवा ठीक नहीं होती तब वाह्य सेवा भी संभव नहीं है।

उन्होंने बताया कि भागवतधर्म के पालन करने वालों का लक्ष्य होता है,‘‘आत्ममोक्षार्थं जगद्हितायच’’, इसका प्रथम भाग, आन्तरिक सेवा से अपूर्ण व्यक्तिगत जीवन को पूर्ण करने और द्वितीय भाग वाह्य सेवा से  जगत को कल्याण पथ पर अग्रसर करने का प्रयोजन है। बाहरी सेवा से मन शुद्ध होता   है और इसी शुद्ध  मन द्वारा इष्ट की सेवा करना होती है। इन दोनों प्रकार की सेवाओं के करने का अधिकार सब को है। सभी अपनी मानस तरंग(mental wave) को भूमा मन की तरंग (cosmic wave) में मिलाने का चिन्तन कर सकते हैं। साधना और कुछ नहीं, है केवल केन्द्र विन्दु से अपनी परिधि को कम कर लेना। व्यक्तिगत स्वरस से स्नायुओं द्वारा विभिन्न ग्रंथियों की संरचना होती रहती है। मन की विभन्न विचारधाराओं में विभिन्न स्वरसों के संपर्क में आने से भाव उत्पन्न होता है कि मैं ब्रह्मवत् हूॅं। जानकर या अनजाने में ही प्रत्येक जीव ‘‘ मैं वही, वही मैं’’, 'सोअहं' के बीच आवर्तित होता रहता है। वह शिव  से पृथक नहीं है। जब तक वह सोचता है कि वह ब्रह्म से पृथक है उसे घूमते रहना पड़ेगा । जब उभय प्रेम  का चिन्ह मात्र दूर हो जाता है तब और पृथकता नहीं रहती दोनों मिलकर एक हो जाते हैं। जब तक ऐंसा नहीं होता कोल्हू के बैल की तरह घूमते रहना पड़ेगा। किन्तु जब कोईं  व्यक्ति विस्तार रस और सेवा के द्वारा भागवत् धर्म में प्रतिष्ठित हो जाता है, तब उसकी यात्रा समाप्त हो जाती है और उसे समझ में आ जाता है कि परमपुरुष की लीला क्या थी।

आचार्यजी की प्रेरणादायक इस वार्ता ने मेरे मन को एक नया मोड़ दिया और लगने लगा कि जिस वैज्ञानिक आधार पर समझी जा सकने वाली पद्धति की तलाश मैं कर रहा था वह यही है। परंतु अपनी जिज्ञासा को शांत करने के लिये मैनें आचार्य जी से पूंछा कि हमारे देश में जो मंदिरों में पूजा होती है या यज्ञ अैोर हवन आदि का क्या कोई मूल्य नहीं है? उन्होंने कहा कि प्रारंभिक स्तर पर तो ठीक है परंतु आगे कठिनाई जाती है, क्योंकि उससे मन भौतिक पदार्थों की ओर ही आकर्षित बना रहता है अतः पूर्णरूप से लक्ष्य की उपलब्धि नहीं हो पाती और बार बार जन्म लेना पड़ता है। हवन और तथाकथित यज्ञों की बात भी जैसी कही और की जाती है, उससे तो यही कहूंगा कि किसी भी वस्तु को जलाने पर कार्बनडाईआक्साइड के अलावा कुछ उत्पन्न नहीं होता,यह एक विज्ञान सम्मत बात है, इससे कोई भी असहमत नहीं हो सकता । अब आपको स्वतंत्रता है कि आप घी को जलाकर वातावरण में कार्बनडाईआक्साइड की मात्रा बढ़ाकर अपना और अन्य सबका जीवन कठिन करते जायें या इसे भूखे को खिलाकर उसे व उस जैसेां को स्वस्थ और शक्तिशाली बनायें ताकि वह भी अपने जीवन का सदुपयोग कर सके। मैंने पुनः पूछाकि शास्त्रों में यज्ञ से वर्षा होने की बात का उल्लेख पाया जाता है, तथा जितने भी अवतार सनातन धर्मावलम्बी मानते हैं उन्हें एक दूसरे की मूर्ति बनाकर पूजा करने का विवरण भी पाया जाता है यह क्या गलत है? इस पर उन्होंने मुझसे पूछा कि क्या मैंने श्रीमद्भगवद्गीता का कभी अध्ययन किया हेै? यदि हां तो अवश्य ही पढ़ा होगा कि ‘‘अन्नाद् भवति भूतानि, पर्जन्यादन्न संभवः, यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञः कर्मसमुद्भवः।’’ जिससे स्पष्ट हेैे कि अन्न से जीव, जल से अन्न, यज्ञसे वर्षा और यज्ञ कर्म से संभव होता है। इस श्लोक के केवल तृतीय चतुर्थांश को तो आप उल्लेख करते हैं पर अंतिम चतुर्थांश पर ध्यान नहीं देते जिसमें कहा गया  है कि यज्ञ, कर्म से ही संभव होता हेै। अर्थात् इस प्रकार के कर्म करो जिससे वर्षा हो, जिससे अन्न हो, जिससे जीवधारियों का पोषण हो। अब सोचिये कि क्या घी में मिश्रित वनस्पतियों के जलाने पर यज्ञ करना कहलायेगा? रही अवतारों  के द्वारा एक दूसरे की मूर्ति बना कर पूजा करने की बात वह पुराणकार की कल्पना ही कही जायेगी क्योंकि वेदों में कहीं भी मूर्तिपूजा की चर्चा नहीं की गई है। इतना तक कि वेदों के अंतिम भाग जिन्हें उपनिषद कहा गया है, उनमें तो स्पष्टतः ध्यान मनन और चिन्तन का ही महत्व बताया गया है। आपको यह तो याद रहता है कि शिव, राम और अन्य देवी देवताओं को एक दूसरे की प्रतिमाओं की कर्मकांडी विधि से पूजन करते हुये दर्शाया जाता है पर यह ध्यान में क्यों नहीं आता कि शिव, राम अथवा कृष्ण पद्मासन में बैठे हुए आंखें बंद किये किस का ध्यान करते हेैं? वास्तव में ध्यान जैसी कठिन विधि प्रारंभिक स्तर पर लोगों को समझ में नहीं आती, खासकर जो बौद्धिक स्तर पर उन्नत नहीं होते, अतः कुछ मनीषियों ने उनके लिये यह सरल विधि बनाई ताकि कालांतर में जब वे बार बार इसे करते हुए आगे बढ़ेंगे और सोचेंगे कि इतने वर्ष यह सब करते हो गया पर उपलब्धि कुछ नहीं हुई तब वे इसकी चाह में उपयुक्त जानकार मार्गदर्शक की तलाश करेंगे और आगे की प्रगति करेंगे। परंतु इस पद्धति का कर्मकांडियों ने दुरुपयोग कर इसे अपने जीवन यापन का साधन बना लिया और बार बार पहली कक्षा में प्रथम श्रेणी में प्रथम आते रहने पर भी वे उन्हें पहली कक्षा में ही रहने देना चाहते हैं क्योंकि उनके पास आगे की कोई जानकारी नहीं होती है तो वे वेचारे क्या करें।

मैंने पूछा कि पूर्वकाल की बात को जाने दीजिये, अठारहवीं शताब्दि में हुये महान संत रामकृष्ण परमहंस भी तो मां काली की मूर्ति पूजा करते थे वह भी कर्मकांडी विधि से, फिर उन्हें क्या आत्मसाक्षात्कार नहीं हुआ और आपकी द्रष्टि में उनकी आराधना व्यर्थ गई होगी? वह बोले , नहीं, आपको याद होना चाहिये कि रामकृष्ण को आत्मसाक्षात्कार करनें में उनकी मूर्तिपूजा ही बाधक बनी थी, जब उन्होंने तोतापुरी जी से ध्यान की विद्यातांत्रिक पद्धति में दीक्षा ली तभी उन्हें पूर्णता प्राप्त हुई। मैंने फिर पूछा कि क्या तीर्थ आदि का कोई महत्व नहीं है? गंगा स्नान, बड़े बड़े मंदिरों में हीरे जवाहर की श्रंगारित मूर्तियों के दर्शन करने का कोई महत्व है या नहीं? आचार्य जी ने कहा, तीर्थ माने विभिन्न स्थानों पर बने भव्य मंदिरों में स्थापित मूल्यवान मूर्तियों के दर्शन करना नहीं है क्योंकि वे सब मनुष्यों  के द्वारा ही बनाई  और सजाई गई हैं , तीर्थ का अर्थ है तीरस्थ, अर्थात् जो किनारे पर स्थित है, तीरे स्थितः यः स तीर्थः। जैसे नदी के किनारे पहुंचकर देखना, एक कदम आगे बढ़ाओगे तो पानी में पहुंच जाओगे पर एक कदम पीछे हटोगे तो जमीन पर आ जाओगे बस यही है असली तीर्थ का मतलब। पानी है यह भौतिक जगत, जिसमें जाने पर वह अंगप्रत्यंग में चिपक जाता है ओैेर अपने में डुबो देता है। और स्थल है आध्यात्मिक जगत जिसमें जाने पर वास्तविकता का ज्ञान होता है कि मैं कौन हूं, कहां से आया हूं और कहां जाना है। अतः ऐंसे व्यक्ति, स्थान अथवा अन्य साधन जो भौतिक जगत और आध्यात्मिक जगत के विभेदन की सीमा पर ला देते हैं मेरी द्रष्टि में तीर्थ कहलाने योग्य हैं। इस सीमा के आगे जाने पर आप अपने को जान जाते हैं तथा पीछे हटने पर इसी संसार में उलझे रहते हैं। कहा भी गया है ‘‘इदमतीर्थम् इदमतीर्थम् भ्रामयन तमसा जनाः, आत्मतीर्थम् न जानन्ति कथं मोक्ष वरानने।’’ अज्ञानी लोग इस तीर्थ से उस तीर्थ में व्यर्थ ही भटकते रहते हैं, जबतक आत्मतीर्थ का ज्ञान नहीं होता उन्हें मोक्ष कैसे मिल सकता है। आत्मतीर्थ का ज्ञान कैसे होता है? मैने पूछा। वह बोले  आत्मसाक्षात्कारी व्यक्ति से दीक्षा लेने पर उसके बताये अनुसार लगातार अभ्यास करते रहने और सत्संग करने पर आत्म ज्ञान होता है। यह दीक्षा क्या है? और आत्म साक्षात्कारी की क्या पहचान है? वे बोले ‘‘ दीपज्ञानम् यतो दद्यात् कुर्यात् पापक्षयम्, तस्मात्दीक्षेति प्रोक्तव्यम् सर्व तंत्र सम्मतम्’’ अर्थात् जिस कार्य के द्वारा सच्चा ज्ञान दिया जाकर सभी पापों का क्षय कर दिया जाता है उसे ही दीक्षा कहते हैं। यह सबके बस की बात नहीं केवल आत्मसाक्षात्कारी गुरु ही किसी किसी पर कृपा कर दीक्षा देते हैं। गुरु बनना भी इतना सरल नहीं जैसा कि हम इस संसार में देखा करते हैं। गुरवः वहवः संन्ति, वित्त हर्ता न तु चित्त हर्ता। अतः जो आपका चित्त हर ले वही असली गुरु है बाकी तो वित्त हर्ता लालची गुरु हैं जो चेला मेकिंग सिस्टम में ही विश्वास करते हैं, आप भी नष्ट होते हैं और चेलों को भी ले डूबते हैं। मैने फिर पूछा, क्या आपने आत्मसाक्षात्कार किया है? उत्तर मिला, मैं अपने गुरुदेव के निर्देशन में आत्मसाक्षात्कार की ओर लगातार बढ़ता जा रहा हूं। उन्होंने अवश्य ही आत्मसाक्षात्कार किया है। हम लोग उनकी आज्ञा से ही देश विदेश में उनकी दी हुई इस पुनीत विद्या को विश्व के हर व्यक्ति को सिखाने के लिये कृतसंकल्प हैं। मैंने कहा कि जब आपने स्वयं आत्मसाक्षात्कार नहीं किया है तो फिर आप से कोई क्यों इसे सीखना चाहेगा? उन्होने बताया कि गुरुदेव के द्वारा हम लोगों को साधना की उन्नत स्थितियों का अनुभव करा दिया गया है तथा इस विद्या के प्रचार प्रसार के साथ साथ जिज्ञासुओं की शंकाओं का समाधान करते हुए उन्हें सिखाने के लिये भी विशेष रूप से आचार्य और अवधूत की दीक्षा देकर हमें कृतार्थ किया है। मैंने पूछा कि आपने भी अपने शिष्य बनाये होंगे, वह बोले हम जिन जिज्ञासुओं को साधना पद्धति सिखाते हैं वह हमारा नहीं हमारे गुरुदेव का ही शिष्य कहलाता है, हमारा तो वह गुरुभाई ही होता है। क्या आपके गुरुदेव से मिल सकते हैं? वह कहां हैं? वह बोले हाॅं मिल सकते हैं पर वह तो कलकत्ता में रहते हैं, समय समय पर धर्ममहाचक्र के अवसर पर वह समारोह स्थल पर पहुंच जाते हैं। उन्होंने विश्वव्यापी सामाजिक मनोआध्यात्मिक संगठन बनाया है जिसका नाम है ‘‘आनन्दमार्ग’’ इसमें मेरी तरह हजारों उच्च शिक्षित नवयुवकों ने अपने गुरु के आह्वान पर अपने जीवन को उनके आध्यात्मिक दर्शन के प्रचार प्रसार के लिये पूर्णतः समर्पित कर दिया है।

कहीं यह क्षणिक वैराज्ञ तो नहीं ? वह बोले नहीं, क्योंकि हम वित्तहर्ता गुरु के शिष्य नहीं चित्तहर्ता गुरु के बेटे हैं। वह हमें पल पल देख रहे हैं और सदैव ही हमारे साथ हैं। क्या वह मुझे भी दीक्षा दे सकते हैं, मैंने फिर पूछा। वह बोले उनकी ही आज्ञा से हम ही आपको दीक्षा दे सकते हैं, एक बार दीक्षित हो जाने पर उनसे मिलना भी सरल हो जायेगा और सब प्रश्नों के उत्तर भी एक साथ ही मिल जायेंगे। क्या साधना सीखने के लिये कोई विशेष शिक्षा या क्वालीफिकेशन होना अनिवार्य है? वह बोले नहीं केवल मनुष्य का शरीर ही प्रथम योग्यता है, शेष अपने आप होने लगता है, जैसे सात्विक भेाजन, यम नियम का पालन, सेवा भाव आदि, परंतु यम नियमों का प्रारंभ से ही पालन करने पर प्रगति में तेजी आ जाती है। ये यम नियम क्या हैं? वह बोले , हमारी साधना पद्धति अष्टाॅंगयोग कहलाती है जो श्रीमद्भगवद्गीता में वर्णित है। इसके आठ अंग हैं, यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि। क्रमानुसार अभ्यास के द्वारा साधक को आगे बढ़ने के लिये गुरु सहायता करते हैं। यम और नियम पांच पांच प्रकार के हैं, अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, और अपरिग्रह ये यम कहलाते हैं। शौच, संतोष, स्वाध्याय, तप और ईश्वरप्रणिधान ये नियम कहलाते हैं। सबसे पहले साधक को उसके संस्कारों के परीक्षणोपरांत उचित मंत्र देकर प्रथम पाठ में दीक्षित किया जाता है, इसमें अभ्यस्थ हो जाने पर द्वितीय फिर तृतीय और क्रमशः अभ्यास के दृढ़ होते जाने पर चतुर्थ, पंचम और षष्ठम पाठ में पारंगित कराया जाता है। मैंने कहा यह तो लंबी प्रक्रिया है, वर्षों लग जायेंगे? वह बोले लगने को तो अनेक जन्म भी कम पड़ेंगे और कहो तो एक वर्ष में ही सबकुछ हो सकता है, यह सब इस बात पर निर्भर करता है कि आपकी लगन कितनी है आपके संस्कार कितने सहायक या बाधक हैं।

मैंने फिर पूछा कि मानलो मैंने आपसे गुरुमंत्र ले लिया अभ्यास भी सच्चाई से करने लगा फिर दूसरा और तीसरा या आगे के पाठ हेतु आपको हम कहां खोजेंगे? वह बोले यह तो सही है परंतु तब आपको अपनी आध्यात्मिक समस्या जैसे पाठ में बृद्धि या दुहरावा आदि की जरूरत पड़ने पर हममें से कोई न कोई आचार्य आप तक कहीं न कहीं पहुंच ही जायेगा आपको इसकी चिन्ता नहीं करना पड़ेगी। हमारी साधना विधि की यही विशेषता है कि वह हम सबको गुरुदेव से सीधे ही जोड़े रहती है, और वह हमारी सभी जरूरतों को यथासमय पूरा करते रहते हैं जैसे माता पिता अपने छोटे बच्चों की इच्छाओं को समझकर उन्हें यथासमय पूरा करते हैं।

मैंने बहुत सोच विचार किया और आचार्य जी से निवेदन किया कि वह मुझे प्रथम पाठ में दीक्षित कर दें। उन्होने  कहा कि अभी हमारे द्वारा कही गई्र बातों पर चिंतन मनन करो, कल शाम को सात बजे आ जाना हम आपको दीक्षित कर देंगे। मैं आचार्य जी की बातों पर लगातार दिन रात विचार करता रहा तथा हर बार यह परिणाम पाता रहा कि आचार्य का कथन विज्ञान सम्मत और विश्वसनीय लगता है अतः मैं मंत्र लेने हेतु निर्धारित समय और स्थान पर पहुंच गया। वहां पर पहले से ही अनेक व्यक्ति जिनमें अधिकांशतः मिलिटरी के जवान थे। एक के बाद एक वे दीक्षा लेकर बाहर आते जाते थे, बाहर उनके कोई अधिकारी भी बैठे थे जिनके द्वारा उनसे पूछा जाता कि क्यों? कैसा लगा? वे सब प्रसन्नता से अपने अपने अनुभवों को बताते जाते । साधना सीखने में कमसे कम एक व्यक्ति को आधा घंटा अवश्य लगता। मैंने अपना अनुरोध और उपस्थित हो चुकने की सूचना उन तक पहुंचाई। जबाब मिला थोड़ा रुकना पड़ेगा। प्रतीक्षा करते करते दो घंटे बीत गये पर मेरा नंबर नहीं आ पाया अतः मैंने पुनः संदेश भिजवाया तो आचार्य जी स्वयम् बाहर आये और मुझसे बोले इन लोगों को समय से अपनी यूनिट में पहुंचना है क्योंकि मिलिटरी डिसीप्लिन का पालन करना होता है, अन्यथा बेचारे दंडित होंगे वह भी एक अच्छे कार्य से जुड़ने के कारण। इसलिये आप रुकिये क्योंकि आपकी दीक्षा इनकी तुलना में भिन्न होगी।

 मैं चुपचाप अपने क्रम की प्रतीक्षा करने लगा और रात का अंधेरा लगातार घना होता गया। लगभग ग्यारह बजे जब सब लोग जा चुके तब मेरा नंबर आया और साढ़े बारह बजे तक मेरी दीक्षा का कार्य चला । मंत्र सिखाने के बाद आचार्य ने अपने साथ साधना कराई, इससे मुझे अवर्णनीय अनुभूति हुई जिसे आनन्द के अलावा अन्य कोई नाम नहीं दिया जा सकता । आचार्य ने प्रणाम करने से लेकर उठने बैठने , पानी पीने, नहाने, भोजन करने आदि के संबंध में भी विज्ञान सम्मत बातें साथ साथ ही सिखाईं। प्रतीक के दोनों त्रिभुजों सूर्य और स्वस्तिक के अर्थ भी अलग अलग समझाए, जिसका सम्मिलित अर्थ है कि ‘‘ज्ञान का विस्तार कर उसके अनुरूप कर्म की एकाग्रता लाने पर अपने इष्ट के प्रति समर्पण होता है जिससे भक्ति का प्रकाश चारों ओर फैलने लगता है और अंत में लक्ष्य प्राप्त होने पर विजयोल्लास की अनुभूति होती है।’’  आचार्य ने शपथ ग्रहण कराई कि मैं अपने आचार्य के अलावा साधना की इस विधि के संबंध में किसी अन्य से कोई चर्चा नहीं करूंगा। मैंने शपथ ग्रहणकर बताई गई विधि से प्रतीक और आचार्य को प्रणाम किया, आचार्य के अनुसार उन्होने  वह प्रणाम गुरुदेव तक पहुंचाया। गुरु दक्षिणा के संबंध में पूछे जाने पर आचार्य बोले हम लोग साधना सिखाने की कोई फीस नहीं लेते, सबकुछ तो हमारे गुरुदेव का ही है, यदि कुछ देना ही है तो उन्हें वचन दो कि सारा जीवन अपने धर्म का पालन करूंगा और अन्यों को सन्मार्ग की ओर प्रेरित करता रहूंगा।

अगले दिन आचार्य जी चले गये और मुझसे अपेक्षा करते गये कि अगले विजिट तक मैं दूसरे पाठ के लिये अपने को तैयार रखूंगा। ईश्वर आराधन की वैज्ञानिक विधि पाकर मैं नयेपन का अनुभव करने लगा तथा जो भी मुझे सात्विक व्यक्ति प्रतीत होता मैं उसे अवश्य ही आनन्द मार्ग की साधना विधि सीख लेने का आग्रह करता। मैं पूरे मनोयोग से आचार्य द्वारा बतायी गई विधि से नियमित साधना करने लगा तथा सभी मित्रों को इस संबंध में विस्तार से बताया करता कई मित्रों ने तो तत्काल ही साधना सीख लेने की जिद की पर मैं असहाय था क्योंकि आचार्य के आने पर ही यह संभव हो सकता था। अब तो हम लोग आचार्य के ही आने की प्रतीक्षा करने लगे जबकि उनके आने का कोई भी समय निर्धारित नहीं रहता था।  कुछ लोग तो इतने उत्सुक थे कि वे हर दूसरे दिन ही पूछा करते कि आचार्य जी आये या नहीं? लगभग सात आठ माह बाद आचार्य जी सागर आये और सोलंकी जी जिन्होंने इस क्षेत्र में पहले साधना प्राप्त करने का गौरव पाया, के घर रुके और उन्होंने मेरे बारे में उन से पूछा। सोलंकीजी मुझे खोजते हुए मेरे पास आये और समाचार पाते ही मै आचार्यजी के पास अन्य मित्रों के साथ पहुँचा।  हम सभी युनीवर्सिटी में पढ़ने बाले छात्र ही थे। यद्यपि अपने साथियों की अनेक जिज्ञासायें तो मैं अपने आधार पर समझा चुका था पर आचार्य के द्वारा पुनः उनका समाधान किया गया।

इच्छुक सभी लोगों ने साधना सीखी और मेरे लिये दूसरा पाठ सीखने का अवसर प्राप्त हुआ। इसबार आचार्य को अधिक दिन सागर में नहीं रुकना था उनका तो निर्धारित कार्यक्रम ग्वालियर जाने का था परंतु उन्होंने एक दिन का प्रोग्राम सागर का बना लिया  और यहां रुककर हमलोगों की प्रगति की समीक्षा भी करली। वास्तविकता यह थी कि उस दिन अमावश्या थी और उस दिन सभी आचार्य/ अवधूत चैबीस घंटे तक निर्जल उपवास रखते हैं, तथा अर्ध रात्रि में श्मशान में अपनी विशेष साधना करते हैं। बातचीत से यह भी पता चला कि निर्जल उपवास तो प्रत्येक माह की दोनों एकादशियों को भी रखा जाता है पर विशेष पूजा अमावश्या को ही की जाती है। मुझे बहुत ही आश्चर्य हुआ क्योंकि मुझे तो साधारण उपवास भी बहुत कठिन लगता है फिर निर्जल तो और भी असंभव है। खैर, निर्जल उपवास की बात तो समझ में आ भी जाये पर अमावश्या को श्मशान में विशेष साधना का क्या अर्थ है यह हम सब को न केवल आश्चर्यचकित करने वाला था बल्कि विचित्र भी लग रहा था, अतः हममें से एक ने पूछा कि आचार्यजी, हम लोग जो साधना करते हैं वही तो पूजा है फिर आपके लिये कौन सी विशेष साधना की आवश्यकता होती है ? क्या हम लोग जान सकते हैं कि इसे श्मशान में ही क्यों किया जाता है? वह बोले, श्मशान के साथ दो बातें घनिष्ठता से जुड़ी हैं पहली अपवित्रता और दूसरी भय। हम कापालिक साधना करते हैं जिसमें हम किसी भी वस्तु ,व्यक्ति अथवा स्थान से घृणा नहीं कर सकते अतः श्मशान में जाकर हम घृणा को जीतने का अभ्यास करते हैं। सभी लोग मौत का नाम भी नहीं सुनना चाहते, वे सब उससे जितना डरते हैं कि अन्य किसी से नहीं, हम कापालिक मौत को जीतने का अभ्यास करते हैं, भय को जीतने का अभ्यास करते है इसीलिये प्रत्येक माह की अमावश्या के अंधकार में रात्रि के ग्यारह बजे से दो बजे के बीच ही हमें यह एक से दो घंटे की साधना वहीं बैठकर करना होती है। इसके अलावा हमें यह भी टेस्ट करना होता है कि एक माह में हमारी आध्यात्मिक उन्नति हुई या नहीं। यह बहुत ही उच्च स्तर की साधना है, हमारे गुरुबाबा की हम पर बहुत कृपा है जो उन्होंने हमें यह साधना सिखाई। तुमलोग अभी प्रारंभिक अभ्यास में ही मन लगाओ सभी शंकाओं का समाधान यथा समय सुपात्र व्यक्ति आकर करते रहेंगे।

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