Wednesday, 22 October 2014

1.2 अहंकार का उद्गम : सागर शहर में आकर मुझे पूर्णतः नये परिवेश  में रहने का अवसर मिला, यहाॅं का शहरी खड़ी बोली का अभ्यास मुझे नहीें था इस कारण मुझे अपने सहपाठियों से बातचीत करने में बहुत ही अटपटा लगता था। सभी लड़के मेरी बुंदेलखंडी बोली पर बहुत हॅंसते जबकि मैं उन लोगों से बडे़ ही सावधानी और आदर के साथ बोला करता था। इस के बाद भी वे मेरा मजाक ही उड़ाते। गाॅंव के स्कूल स्तर पर मैं पड़ने लिखने में अपने को बहुत ही होशियार  समझता था परंतु यहाॅं गवर्नमेंट मल्टीपरपज स्कूल के स्तर से मैं सबसे कमजोर अनुभव करता था। यहां के टीचर्स भी अंग्रेजी को अंग्रेजी में ही पढ़ाते, हिन्दी का एक शब्द भी नहीं बोलते। फिजिक्स, केमिस्ट्री , मैथ्स भी लगभग अंग्रेजी ही होती थी। थोड़ा अभ्यास करने पर पढ़ाई तो समझ में  आने लगी पर साथियों का व्यवहार अभी भी उपेक्षापूर्ण ही था। मुझे समझ में नहीं आता था कि इसके लिये क्या करूं। कभी कभी मन में आता कि मजाक उड़ाने बाले लड़कों के लिये मंत्र का उपयोग कर मार ही डालूं, परंतु डरता भी था। कभी कभी गुस्सा आ जाता तो लड़ भी बैठता था। मैं प्रयास कर रहा था कि मैं भी अंग्रेजी मिश्रित शुद्ध हिन्दी में यहाॅं के लड़कों की तरह बोलने लगूॅं तो मुझे न केवल छात्रों का सहयोग मिलेगा वरन् शिक्षकों का भी विश्वाश  अर्जित करने में सफल हो सकूूंगा। यह बात पूर्णतः सही है कि वातावरण का प्रभाव सभी पर पड़ता है। मैंने खूब प्रयास कर के शिक्षकों द्वारा पूछे जाने वाले प्रश्नो  के उत्तर कक्षा के अन्य छात्रों  की तुलना में शीघ्र देने में कुशलता प्राप्त कर सहपाठियों के मन पर भी प्रभाव डालने  में सफलता प्राप्त कर ली। हिन्दी के शिक्षक तो सबसे पहले मुझे ही पाठ पढ़ने को कहते। हुआ यह कि बीएड के प्रशिक्षणार्थियों को उन्हें माडल लेसन प्रस्तुत करने के लिये प्राचार्य ने कहा। उन्होंने वर्षा ऋतु पर कोई कविता तैयार की जिसे वह हमारी कक्षा में डिमान्स्ट्रेट  करना चाहते थे, इसी के अभ्यास के बीच शिक्षक  को किसी छात्र से यह प्रश्न  पूछना था कि वर्षा ऋतु पर किसी अन्य कविता की चार लाइनें सुनाओ? कक्षा के 45 छात्रों में से किसी को भी यह याद नहीं थी, मुझे पता नहीं कहां से 8वीं कक्षा की ‘पावस’ नामक कविता याद बनी रही और मैंने बड़े लय के साथ कक्षा में सुना दी। 

अब क्या था सब का ध्यान मेरी ओर केन्द्रित हो गया, लय और उस भावपूर्ण कविता को सुनकर न केवल शिक्षक ने बल्कि सभी श्रोताओं ने चार लाइनों के स्थान पर पूरी कविता सुनने की इच्छा प्रकट की और मैं सुनाता चला गया। इस तरह मेरा कुछ कुछ इंप्रेशन
 साथियों पर भी जमने लगा। सितंबर में तिमाही परीक्षा आई, मैंने खूब तैयारी की और आशा  करने लगा कि हमेशा  की तरह मुझे सबसे अधिक अंक मिलेंगे पर यह क्या ? रिजल्ट खुला तो मेरा नंबर 18 वाॅं आ पाया। इतना ही नहीं पास होने वालों में मेरा नंबर भी अंतिम था। मुझे बहुत ही बुरा लग रहा था परंतु कर ही क्या सकता था। पहले नंबर पर जो छात्र आया था उसे मुझसे 117 नंबर अधिक प्राप्त हुये थे। मुझे इतना खराब लगरहा था कि अनेक बार इच्छा हुई कि मंत्र चला कर उसे मार ही डालूं पर फौरन ही यह बात मन में आ जाती थी कि कितने लोगों को मारोगे तुम से आगे तो 17 छात्र हैं। गांव के स्कूल में मुझसे आगे कोई नहीं आ पाता था इसलिये मैं अपने को बहुत ही इंटेलीजेंट समझता था, यहां आकर असलियत पता चली। कापियां देखने पर पता चला कि छोटी छोटी गल्तियों  पर गांव के शिक्षक जहां ध्यान नहीं देते थे यहां उन पर अंक काटे गये थे। मेरा मन इतना क्षुब्ध होगया था कि अंजुली में पानी ले कर फर्स्ट  आने वाले लड़के पर मंत्र चलाने के लिये तैयार ही हो गया था कि अचानक प्रिंसिपल साहब सामने आ गये और मैं रुक गया। 

जब किसी के पास कोई  शक्ति आ जाती है तो वह अपने लाभ के लिये किसी का कुछ भी अहित कर सकता है। अचानक मुझे मंत्र सिखाने वाले नन्हें की बात याद आई कि शक्ति का दुरुपयोग करने पर वह समाप्त हो जाती है तथा स्वयं को भी नुकसान पहुंचाती हैं। मैने निश्चय  किया कि अब और परिश्रम करूंगा ताकि आगे अर्धवार्षिक परीक्षा में पहले नंबर पर आ सकूं। बहुत  मेंहनत करनें के बाद भी छःमाही परीक्षा में केवल 15वें नंबर पर आ पाया जबकि प्राप्ताॅंकों का प्रतिशत तो तिमाही से अधिक था। मैं बार बार सोचा करता था कि आखिर कहाॅं गलती होती है पर कुछ भी समझ में नहीं आता था, बातचीत के दौरान ‘स्वतंत्र रावत‘ ने बताया कि आगे आने वाले सभी लड़कों के बड़े भाइयों ने इन्हें गर्मियों की छुट्टियों में पूरा कोर्स पढ़ा दिया हैै इसलिये ये अधिक नंबर लाते हैं। मुझे यह जानकर बड़ा ही आश्चर्य  हुआ कि ये सब गर्मियों में भी पढ़ते रहते हैं, क्योंकि गर्मियों में तो हम देहात के लड़के सिबाय खेलने कूदने के और कुछ करते ही नहीं थे। 

मेरे सामने समस्या यह थी कि बड़े भैया गणित विषय लिये नहीं थे इसलिये वह कोई मदद कर ही नहीं सकते थे, पुस्तकें भी पुराने कोर्स वाली थीं तैयारी कैसे की जाय? मैंने नये कोर्स की किताबें  खरीदीं और क्लास में पढ़ायी गई विषय वस्तु को कक्षा में नोट कर घर जाकर पुस्तकों में से कईकई बार दुहराता और अगले दिन क्या पढ़ाया जाना है उसे भी पढ़ लिया करता था, इसतरह धीरे धीरे मैंने सभी विषयों को कईबार पूरा पढ़ लिया। वार्षिक परीक्षा में मेरी स्थिति 11वें नंबर पर आ पाई। प्रारम्भ  के पाॅंच लड़कों के 80 से 75 प्रतिशत के बीच उसके बाद बाले पाॅंच लड़कों के 75 से 70 प्रतिशत के बीच प्राप्तांक थे जबकि मेरे 69.6 
प्रतिशत । मेरे मन में बारबार यह विचार आता था कि आखिर ये इतने नंबर कैसे लाते हैं क्या ये कोई गलती नहीं करते। इन लोगों से पूंछता तो वे कुछ भी बताने के स्थान पर मेरा मजाक उड़ाते या फिर बात ही न करते। एक दिन एक लड़के से एक रहस्य और मालूंम हुआ वह यह कि ये सब संपन्न परिवारों के लड़के हैं कई लेखकों की पुस्तकें पढ़ते हैं ट्यूशन भी पढ़ते हैं , घर का कोई काम नहीं करना पड़ता, कैसे अधिक नंबर नहीं आयेंगे? 

मैने अपने को अध्ययन में एक प्रतियोगी की भाॅति मान कर अन्य सब तरफ से मन हटा कर जुटे रहने में ही भलाई समझी। अपने इसी अभ्यास में लगे हुए एक दिन मैनेे अपने घर गोपीचंद जी को देखा। ये मेरे बड़े भाई के साथ बी. ए. में  पढ़ते थे वे उन्हीं से मिलने आये थे, परंतु वह किसी इंटरव्यु के सिलसिले में बाहर गये हुए थे। पूछने पर पता चला कि वह अपने छोटे भाई को किसी प्रेत द्वारा की जा रही प्रताड़ना से बचाने के लिए उनसे झाड़फूंक  कराने के लिए आये थे । मैंने कहा कि यह काम तो मैं भी कर सकता हूॅं। यद्यपि उन्हें आश्चर्य  हो रहा था परंतु कुछ भी न कहते हुए उन्होंने मुझे साथ चलने को कहा। मैं उनके  साथ उनके घर पहुंचा। वहां पर बहुत भीड़ थी, जब गोपीचंद जी ने मेरा परिचय कराया तो उनके पिताजी ने उन्हें एक ओर ले जाकर कान में कुछ कहा, शायद यह, कि ये किस लड़के को पकड़ लाये हो । वहाॅं उपस्थित लोगों को जब मेरे बारे में पता चला तो वे सभी गोपीचंद जी की इस बचकानी हरकत से हॅंसे बिना न रह सके। स्वाभाविक ही था एक 14/15 साल के लड़के को भूतप्रेत झाड़ने के योग्य स्वीकार करना किसे समझ में आता। गोपीचंदजी के समझाने पर वे सब मुझसे झाड़फूंक कराने के लिए तैयार हो गए। मैं लोगों की फुसफुसाहट स्पष्ट सुन रहा था, वे कह रहे थे, ‘‘यह छोकरा कहां से पकड़ लाये बड़े बड़े गुनियां ;अर्थात् ओझा झाड़ कर थक गये, यह क्या करेगा, ये गोपी भी क्या क्या खेल कर रहा है अरे किसी डाक्टर को दिखाते तो जल्दी ठीेक हो जाता आदि आदि।‘‘

 खैर, मुझे गोपीचंद जी प्रेतप्रभावित अपने भाई के पास ले गये। मैंने देखा कि मेरी ही उम्र का एक लड़का अपनी आॅंखें बंद किये जमीन पर बैठा है, मैंने ज्योंही उसके दाॅंये हाथ की अनामिका अपने हाथ में पकड़ने के लिये स्पर्श  किया   कि वह बड़े जोर से अट्टहास करने लगा और कहने लगा कि हः हः हः ये मुझे क्या झाड़ेगा, हः हः हः। बाहर से देखने वाले भी बिचलित हो उठे, थोड़ी देर के लिये तो मैं भी डर गया क्यों कि इस प्रकार का यह मेरा पहला एक्सपेरीमेंट था। मैंने पूरी ताकत से उसकी अनामिका अंगुली को पकड़ लिया, उसने भी जोर से छुड़ाने का पूरा प्रयास किया पर मैं नन्हें की बताई गई रीति से मंत्र पढ़ने लगा और जोर से उसे ललकारा। क्या था थोड़ा इधर उधर हाथ झटका, जब नहीं छुड़ा पाया तब शांत हो गया। लोगों की फुसफुसाहट कम हुई। मैं अपना मंत्र पढ़ते हुए यथा विधि अपनी गति पकड़े हुए था। कुछ क्षणों में वह औरतों की भॅाति रोने लगा, वह यह भी कह रहा था कि मुझे मत मारो मत मारो। मैंने क्या बिगाड़ा है, मैं तो अपने घर में बैठी थी, इसने मेरे पास आकर पेशाब कर दी, अब तो मैं इसी के साथ रहूॅंगी, इसे ले जाऊंगी।

गोपीचंद जी एक कोने में बैठे हमारे बीच हो रहे वार्तालाप को एक कापी में नोट करते जाते थे। मैंने अनामिका को जोर से दबाते हुए पूंछा कि तुम कौन हो? वह बोली पहले मारना तो बंद करो? मैंने कहा, नहीं। पहले तुम्हें यह बताना होगा कि तुम कौन हो। उसने जोर से हाथ झटका और लगभग मेरे ऊपर गिरने की ही स्थिति में झपटा। सब लोग एकदम घबरा गये, मुझे भी लगा कि अब बात बिगड़ी, तब बात बिगड़ी लेकिन मैंने उसकी अनामिका नहीं छोड़ी। मैंने फिर मंत्र दुहराया और जोर से ललकारा। अब वह अपेक्षतया शांत  हुई परंतु हाथ को ऐंठती रही, मेरी यह स्थिति पहली बार ही हुई थी परंतु इन परिस्थितियों को कैसे निपटाया जाता है इस पर नन्हें  ने पर्याप्त ट्रेनिंग दे दी थी अतः मुझे कोई कष्ट नहीं था पर गोपीचंद जी के घर के सभी सदस्यों के साथ साथ अन्य लोगों को भी लगरहा था कि शायद मैं नियंत्रण न कर पांऊ इसलिये गोपीचंदजी को कुछ लोग इशारे से कह रहे थे कि क्या नाटक कर रहे हो, कहीं कुछ गड़बड़ न हो जाये। गोपीचंदजी भी इशारे से ही रुकिये रुकिए कह देते थे। मैं मंत्र की मार करता जा रहा था कि अचानक उसने बड़े जोर की छलांग लगाई जैसे वह दरवाजे से बाहर जाना चाहता हो। मैंने एक हाथ से अनामिका को पकड़े हुए दूसरे से उसके सिर के बाल पकड़कर जोर से अपनी ओर खींचा और पूंछा कि वह कौन है? 

अब वह फिर रोने लगा और फुसकते हुए उसने बताया कि वह शनीचरी की रहने वाली रज्जो ग्वालिन है, चक्की के पास मुनगा बाले घर में वह रहती थी, उसके दो लड़के मोहन ओैर घनश्याम  अभी भी वहीं रहते हैं। मैंने फिर पूछा कि वह यहां कैसे आ गई्र? उसने कहा कि मैं तो अपने घर में बैठी थी इसने मेरे पास आकर पेशाब कर दी इसलिये अब मैं इसी के साथ रहूंगी, अपने साथ ले जाऊंगी। मैंने फिर से मंत्र पढ़ना चाहा लेकिन इसी बीच वह फिर जोर से चिल्लाई, अरे कोई बचाओ ये मुझे मार डालेगा, बचाओ बचाओ....मैं इन दोनों को ले जाऊंगी और जोर जोर से हंसने लगी। मैंने बाल और अनामिका पकड़े हुए ललकार कर जोर से हिलाया। बाहर  खड़े लोगों को यह लग रहा था कि दो लड़के लड़ रहे हैं। मेरे ललकारने पर वह कुछ शांत हुई, मैंने पूछा सच बता तूं क्या चाहती है? तुझे और पिटना है या वापस जाना चाहती है? उसने कहा इसे लेकर वापस जाना चाहती हूॅं। मैनें पूॅछा इसे क्यों ले जाना चाहती हो, इसने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है? वह बोली यह मेरे घर क्यों आया, वहाॅं पेशाब क्यों की? मैनें पूछा कौन सा घर, इसने तो देखा भी नहीं। वह बोली तालाब के किनारे कोहा के पेड़ के पास। मैंने कहा अभी तो शनीचरी में चक्की  के पास बता रहीं थी? वह बोली, वह भी सही यह भी सही। मैं ने कहा यह कैसे हो सकता है? वह  बोली तुम्हें मालूम नहीें, मेरे घनश्याम  के बाद मेरी लड़की के जन्म के समय मुझे बड़ी अस्पताल में भरती कराया गया था, मेरी तबियत बहुत बिगड़ने पर मैं चिल्लाती रही, कोई मदद के लिये नहीं आया, मैं बेहोश हो गई, मुझे मरा समझकर किसी ने मुझे तालाब में डालकर बहा दिया मैं बहते बहते कोहा के पेड़ के पास आ गई, तब से वहीं रह रही हूँ।  पर इसने मेरे पास आकर पेशाब  क्यों की? अब तो मैं इसे ले ही जाऊंगी। इतना कहते कहते वह एक बार फिर जोर से चिल्लाने लगी , हटो मुझे जाने दो यह मेरा आदमी है इसे ले जाने से मुझे कोई नहीं रोक सकता।

 मैनें फिर मंत्र पढ़ा, और नन्हें के बताये अनुसार मंत्र के देवता को लाज रखनें के लिये आह्वान किया। अब क्या था वह रोने लगी और कहने लगी अब मत मारो मुझे साड़ी दे दो मैं चली जाऊंगी। मैंने कहा कुछ नहीं मिलेगा तुम्हें बिना शर्त इसे छोड़ना पड़ेगा नहीं तो और पीटूॅंगा। यह कहते हुए मैंने मंत्र दुहराया और अनामिका को जोर से दबाया, वह बोली अच्छा मैं जाती हूँ  प्रसाद दे दो । मैंने गोपीचंद जी से एक नारियल देने हेतु कहा, उनके बड़े भाई ने तत्काल नारियल मुझे पकड़ाया और मैंने मंत्र के साथ वह नारियल उसे दे दिया। उसने जोर से फेक कर सामने की दीवार में मारा जिससे वह फूट गया। फूटने की आवाज के साथ वह लंबी आह भरते हुए दोनों हाथ ऊपर उठाकर कहने लगी, लो अब चली अगली बार नहीं छोड़ूंगी। अगले ही क्षण गोपीचंद जी का भाई बिलकुल सामान्य हो गया। मैंने उसे नारियल का टुकड़ा दिया जिसे खाते हुए थोड़ी देर बाद वह बाहर खेल रहे लड़कों के साथ कबड्डी खेलने चला गया। 

गोपीचंद जी ने लिखी हुई बातों के आधार पर शनीचरी और ग्वाली मुहल्ले में जाकर कई दिनों तक पता लगाया लेकिन किसी ने कुछ न बता पाया। कहीं मुनगा का पेड़ मिलता तो चक्की न मिलती, चक्की मिलती तो मुनगा का पेड़ न मिलता। एक बार ग्वाली मुहल्ले में ढूंढते हुए वह शाम के समय मेरे स्कूल आ पहुंचे। स्कूल की छुट्टी होने वाली थी।  पूछने पर उन्होंने बताया कि भाई तो ठीक है पर अभी तक उस दिन के वार्तालाप से प्राप्त की गई जानकारी के अनुसार कुछ भी पता ठिकाना नहीं मिला। छुट्टी होने पर मैं उनके साथ ग्वाली मुहल्ले की एक गली में ‘‘रज्जो ग्वालिन‘‘ का घर तलाशते पहुंचा। वहां रहने वाली ‘‘चतरा ग्वालिन‘‘ ने बताया कि चार पांच साल पहले पथरिया की रज्जो मेरे घर में किराये से रहती थी वह डिलीवरी के समय मर गई। उसके बाल बच्चे कहां हैं यह नहीें बता सकते। इससे यह तो कन्फर्म हुआ कि रज्जो नाम की ग्वालिन थी और वह डिलीवरी के समय मरी थी। अब यह पता लगाना बड़ा ही कठिन था कि वह तालाब में किसके द्वारा फेकी गई और बहते हुए धोबी घाट पर कैसे पहुंची? गोपीचंद जी ने बताया कि उनके यहां पैत्रिक धंधा कपड़े धोने का होता है तथा वह छोटा भाई कपड़े धोने धोबी घाट पर जाता है और वहां कोहा का पेड़ भी है। इस तरह उस प्रेतात्मा की कही हुई बातें सही मान कर गोपीचंदजी ने अपना अभियान समाप्त कर दिया। इससे मुझे अपनी विद्या का परीक्षण करने का सुअवसर मिला जो प्रसन्नता दायक सिद्ध हुआ।


-- 

No comments:

Post a Comment