Thursday, 23 October 2014

1.3  प्रतिष्ठा का पोषण: जहां मैं पढ़ते समय किराये से रहता था वहां चारों तरफ सब्जी भाजी के बगीचे थे। बगीचे के बीच में एक मंदिर था जहां पर कुछ पत्थरों के नाल, जिन्हें उठाकर पास पडौस के कुछ लोग लगभग रोज ही आकर अपना अपना अभ्यास किया करते थे, और कुछ मुग्दर भी थे जिन्हें विभिन्न प्रकारों से घुमाकर अपने कंधों और हांथों को मजबूत बनाने का अभ्यास किया करते थे। आठवीं कक्षा तक तो मैं बड़ा कमजोर और दुबला पतला था जिससे मेरे सहपाठी प्रायः मुझे डरा धमका कर गणित के सबाल पूछा करते और न बताने पर मारते भी थे। मैंने सातवीं कक्षा में हिन्दी की पुस्तक के ‘सैनिक शिक्षा ’ नामक पाठ में पढ़ा था कि ‘‘वसुंधरा का भोग वही करता है जो बली है वीर है, कहते हैं कि दुर्बल पर और तो और दैव भी घात लगाये रहता है’’  अतः मैं भी उन अभ्यास करने बालों के साथ अपनी उपस्थिति नियमित रूप से देने लगा था।

एक दिन  बगीचे के पटैल का एक 10 -12 साल का बच्चा मंदिर के भीतर मुग्दर उठाने घुसा ही था कि पैर पटकता चिल्लाता हुआ वापस दौड़ा। वह कह रहा था ‘ अरे मर गये, बिच्छू ने काट लिया ’। लोगों की भीड़ लग गई। कुछ लोग डाक्टर के पास ले जाने की सलाह दे रहे थे, कुछ झाड़ फूंक करने बालों के नाम और पते बता रहे थे। मैं डर रहा था कि कहीं मैंने झाड़ देनें के लिये यदि उसे रोका तो सभी हंसेंगे, पर जब उसका दर्द देखा नहीं गया तो मैंने झटसे अपना सफेद तौलिया लेकर उसके पास जाकर झाड़ना शुरु कर दिया। सभी लोग मुझे देखते और उस लड़के को। थोड़ी देर में ही लड़के का चिल्लाना बंद हो गया। लड़के के दांयें पैर की छोटी अंगुली में बिच्छू ने काट लिया था। मैंने ज्योंही अपनी आवृत्ति बंद की वह फिर से चिल्लाने लगा। मैंने एकबार फिर से आवृत्तियां प्रारंभ की। वह फिर से चुप हो गया। मैंने ज्यों ही अपना तौलिया उसके पैर पर हिलाना बंद किया, वह फिर से रोने लगा। मैं बड़े ही संकट में पड़ गया। मैंने नन्हें की बताई विधि से मंत्राधीन देवता को कसम दिलाई तब कहीं वह ठीक हुआ।

सभी लोग मेरी तारीफ करने लगे, पर मैंने कहा अभी तो देवता की तारीफ करो उन्हें नारियल चढ़ाओ और प्रसाद सब को बांट दो। लड़के के पिता ने फौरन नारियल लेने किसी को भेजा, नारियल आने पर देवता को भेंटकर सबको प्रसाद बांट दिया। इस घटना से मेरा बड़ा प्रचार हुआ। लोग मुझे पंडितजी कहने लगे। कुछ माह बाद रूपसिंह जो कि दूसरे बगीचे में रहता था, लगभग 9-10 बजे रात में मेरे घर आया और बोला, पंडितजी मेरे घर चलिये, मेरी मां की तबियत गड़बड़ हो गई है, कुछ का कुछ बड़बड़ा रहीं हैं। मैंने कहा कि सबेरे देख लेंगे अभी तो मुझे कल का सबक तैयार करना है, इसलिये पढ़ने दो। परंतु वह नहीं माना और मुझे साथ ही ले गया। मैंने जाकर देखा कि उसकी मां एक खाट पर आराम से लेटी है, उसका छोटा भाई मां के पैरों को दबा रहा है। उसकी मां के चेहरे की ओर देखकर मैंने पूछा क्या हुआ? वह बोली कुछ नहीं, डर लग रहा है। मैंने कहा किस का डर लग रहा है? वह मुसकाई और अपने सिर पर साड़ी का छोर डालते हुए बोली, तुम क्या जानो। मैने उसके बांयें हाथ की अनामिका पकड़ी और मंत्र पढ़ने के लिये सफेद तौलिया लिया ही था कि वह उठ कर बैठ गई  और हंसने लगी । उसकी कुटिल हंसी से मुझे पता नहीं कैसे यह लगा कि वह सबको मूर्ख बना रही है, अतः मैंने रूपसिंह से कहा कि तुम्हारी मां को कुछ नहीं हुआ है, वह ठीक हैं, और मैं चला गया । अगले ही दिन वह डाक्टर को दिखाने का बोलकर किसी आदमी के साथ गई तो फिर वापस नहीं आई। रूपसिंह के पिता सहित सभी ने खूब पता लगाया पर कहीं भी पता नहीं लग पाया। लोग कहते सुने गये कि देखो तो 6 बच्चों की मां को क्या सूझी। रूपसिंह मेरी ही उम्र का था, उससे 2 बहनें बड़ी थीं, 3 भाई बहिन छोटे थे। इस घटना से मेरे मन में अनेक बिचार आ रहे थे, मुख्यतः यह कि रूपसिंह की मां आखिर क्यों और कहां चली गई? मुझे इसी प्रकार की एक घटना और याद आ गई, जो कि एक प्रतिष्ठित सम्पन्न और उच्च जाति से संबंधित थी परंतु किसी ने भी यह नहीं बताया कि इस का क्या कारण है। मैने भी अधिक माथापच्ची न करते हुए अपनी पढ़ाई में ध्यान देना शुरु किया।

 मेरी परीक्षायें समाप्त हुए दो तीन दिन ही हुए थे कि एक सरदारजी मेरे घर आये। उन्होंनेे बताया कि उनकी भाभी को किसी बाहरी बाधा ने तीन दिन से परेशान कर रखा है चल कर देख लीजिए। मैने अपना सफेद तौलिया उठाया और सरदार के साथ चल पड़ा। बिट्ठलनगर पहुंचकर मैने देखा कि एक मोटी ताजी ऊंची पूरी महिला सोफे पर बैठी कभी खिलखिला कर हंसती है कभी दांतो के बीच अंगुली दबाकर बड़े शर्मीले ढंग से मुंह फेरती है, कभी रोने चिल्लाने लगती है। मैं बड़े ही विचित्र बातावरण का अनुभव कर रहा था, उनकी भाषा समझना मेरे लिये कठिन था फिर भी मैने साहस नहीं खोया और उसके बांये हाथ की अनामिका को जोर से पकड़ कर ललकारा। वह फूटफूट कर रोने लगी और अपने दांयें हाथ को मेरे कंधे पर रखते हुए बोली भैया, इन लोगों ने मुझे बहुत मारा है, मुझे बचा लो, देखो ये सब मुझे मारने ही बैठे हैं। सरदार के घरबालों को आश्चर्य  हुआ कि वह इतनी अच्छी तरह हिन्दी कैसे बोल रही है। मैंने मंत्र पढ़ना प्रारंभ किया तो वह चिल्लाकर मेरे ऊपर गिर पड़ने को तत्पर हुई। मैंने जोर से ललकारा तो वह फफक कर छोटे बच्चों की तरह रोने लगी, अगले ही क्षण अपनी ओढ़नी का एक भाग सिर पर डाल कर कहने लगी, भैया बचालो, बचा लो , देखो कितना मारा है । मैने पूछा, तुम हो कौन? वह बोली चमेली। कौन चमेली? अरे जानते नहीं.. सुरेश  की बहिन। लेकिन यहां क्या कर रही हो? अपनी भाभी के पास आई हूॅं। क्या चाहती हो? यहीं रहना। क्यों? वे लोग मुझे बहुत मारते हैं।

इसी बीच कुछ औरतें फुसफुसाने लगीं कि अरे ! सुरेश  की बहिन तो परसों आग लगाकर मर गई है, इसे सुनकर सरदारिन बोली, क्या बकते हो? मैं मरी नहीं हॅू मैं तो अपनी भाभी के यहाॅं  कपड़े सिलवाने आई हूँ , और जोर जोर से हंसने लगी। मैंने फिर से मंत्र की आवृत्ति दुहराई और उसकी अनामिका को जोर से दबाया। वह फिर से चिल्ला उठी अरे कोई मेरी बात क्यों नहीं मानता मुझे मत मारो मैं तो कपड़े लेने आई हूँ।  (वास्तव में वह सरदारिन आस पास की औरतों के कपड़े मुफ्त में सिला करती थी ) मैंने जोर से ललकारा और फिर से मंत्र पढ़ा। अब वह मुस्कुराने का सा मुंह बनाकर दूसरे हाथ की तर्जनी को दाॅतों के बीच दबाये हुए गर्दन को थोड़ा सा तिरछा घुमाकर शरमाती हुई मुद्रा में आई। मैं बड़ी ही विचित्र स्थिति में था बड़ा ही अजीब सा लग रहा था परंतु फिर से मंत्र के देवता को लाज रखने के लिये निवेदन किया। फिर से मंत्र पढ़ने पर वह बोली अच्छा मेरे कपड़े दे दो मैं जाती हूॅ। मैने जोर से ललकारा और कहा कोई कपड़े नहीं हैं, चुपचाप चली जाओ नहीं  तो इतनी मार मारूंगा कि होश  ठिकाने आ जायेंगे। वह बोली, तुझे देखकर ही मेरे होश  उड़ गये, जाती हूॅं, तूॅ भी क्या याद करेगा।

सरदारिन ने गहरी सांस ली और सामान्य होते हुए पूछने लगी, क्यों बे अवतार! आ किस कर के इद्दां दी पीड़ होइ आ? तुसी मू लटकाये उत्थे कि करदे ओ? ते आ का़का साढे कोल कि करने बास्ते आया सी? अवतार अर्थात् सरदारिन का देवर जो मुझे बुलाने आया था, फौरन दौड़कर उसके पास आया-बोला परजाई जी, तुसी चंगी हो जा नहीं? वह बोली, मेनु कि होया? मैं ता चंगी पली कदों दी अपणा कम करनी आॅं? पर तूं दस आ लोकां नूं किस कम तों बलाया वा? अवतार बोला मैं तेनु सब कुछ बाद बिच दस्सांगा परले तू आ दस पि तूं पली चंगी है जा नहीं? वह बोली, हाॅं जी मैं चंगी हाॅं, राणी! इक कुट चाटा छेती तों ला दे फेर मिनु बाजार जाणा वा। राणी चाय लाकर देती कि मैंने पहले ही अवतार से नारियल और प्रसाद उसे खिला देने का संकेत दिया, वह तत्काल प्रसाद बांटनें लगा और सबके साथ अपनी भाभी को भी खिला दिया। मैंने राहत की सांस ली और अवतार से यह कहते हुए विदा ली कि यदि कभी फिर से यह स्थिति बनती है तो तत्काल बुला लेना, फिर भी यदि हो सके तो दो तीन दिन चमेली की चर्चा से दूर ही रखना।

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