1.4 दिशा परिवर्तन: अपनें मंत्र की सिद्धि और स्वयं की प्रसिद्धि से मैं बड़ा ही प्रफुल्लित अनुभव करता। पर यह बिल्कुल सत्य है कि 17/18 वर्ष की आयु में ही मैं अपने को बहुत बुजुर्ग और बुद्धिमान समझने लगा था। कहते हैं कि जब कोई अहंकार के वशीभूत हो जाता है तो यह स्थिति आती है। निश्चित रूप से यह पतन का मार्ग ही प्रशस्त करता है, पर ईश्वर सम्हलने के भी अनेक अवसर देता है बस हमें पहचान लेने की ही आवश्यकता होती है। एक दिन मुझसे दो कक्षा पीछे पढ़ने बाला फुल्लु पटेल मेरे पास आकर बोला, पंडितजी, आज अपना भोजन न बनाना। मैने पूछा क्यों? वह बोला शर्मा जी ने आपको आमंत्रित किया है, वह हमेशा विद्यार्थियों को भोजन कराते हैं। मैंने सोचा चलो अच्छा हुआ एक दिन का कष्ट दूर हुआ। मैं फुल्लु के बताये अनुसार समय और स्थान पर जा पहुंचा, वहां फुल्लु पहले से ही मेरी प्रतीक्षा कर रहा था। भीतर जा कर देखा कि एक 70-75 की उम्र के विल्कुल विनोबा भावे की आकृति के खादी के कुर्ताधारी लंबी सफेद दाढ़ी वाले सज्जन अकेले ही भोजन पका रहे थे और कुछ बच्चे खाना खा रहे थे। फुल्लु ने परिचय कराया, मैंने नमस्कार किया और उन्होंने हाथ के इशारे से एक ओर बैठाने हेतु फुल्लु को निर्देशित किया । एक, 12 गुणित 12 के कमरे में जहां मैं बैठा था वहां सामने की दीवार पर लिखा हुआ था ‘‘हाथ हत्या के लिये नहीं हैं ’’ ‘‘सत्यं वद, प्रियं वद‘‘ आदि। दूसरी ओर एक लकड़ी के पटे पर सफेद कपड़ा बिछाकर चतुर्भुज विष्णु का चित्र रखा था, अन्य दीवार की ओर शर्मा जी के बैठने और सोने के लिये पृथ्वी पर ही सफेद चादर वाला विस्तर था।
मेरे बाद लगभग शर्माजी की ही उम्र के गौतम जी आए। थोड़ी ही देर में शर्मा जी ने हम लोगों को भोजन कराया। जब हम लोगों ने शर्मा जी से भी साथ ही में भोजन करने का आग्रह किया तो वह बोले, अभी अन्य लोग आने वाले हैं, उन्हें भोजन कराने के बाद ही मैं भेाजन करूंगा। जब मैं जाने लगा तो शर्माजी ने पूछा, किस कक्षा में पढ़ते हो? मैंने कहा, बीएससी फस्र्ट यीअर। उन्होंने फिर पूछा, भगवद्गीता पढ़ते हो? मैंने कहा, एक साल पहले पढ़ने की कोशिश की थी पर कुछ समझ में नहीं आया इसलिये आगे प्रयास ही नहीं किया। वह बोले फिर से पढ़ना। मैं आश्वाशन देता घर आ गया, पर बार बार शर्मा जी के द्वारा अचानक भोजन के लिये बुलाना और गीता पढ़ने का निर्देश देना इस पर चिन्तन लगातार चलता रहा। एक दो माह बाद शर्माजी अचानक बाजार में दिखे तो मैंने आदर पूर्वक नमस्कार किया। उन्होंने प्रत्युत्तर देते हुए फिर पूछा, क्यों? श्रीमद्भगवद्गीता पढ़ना शुरु किया कि नहीं? मैंने कहा नहीं, मैथ्स फिजिक्स आदि पढ़ते पढ़ते समय ही नहीं बच पाता। वह बोले, समय तो निकालना पड़ता है, तुम्हारे पास गीता है या नहीं? नहीं हो तो साथी बुक डिपो से 20 पैसे की छोटे आकार वाली खरीद लेना और समय निकाल कर पढ़ना। मैं, हां कहकर चलता बना। बार बार रास्ते में सोचता जाता था कि शर्मा जी गीता पढ़ने पर क्यों जोर दे रहे हैं, और अंततः साथी बुक डिपो जाकर गोयंका द्वारा अंग्रेजी में अनुवादित गीताप्रेस द्वारा प्रकाशित छोटी पुस्तिका खरीद लाया। संस्कृत के श्लोकों को अंग्रेजी में समझाए जाने के कारण समझने में सरलता हुई।
एक जगह मैंने पढ़ा,‘ यान्ति देव व्रता देवान्, पित्रृन यान्ति पित्रव्रता। भूतानि यान्ति भूतेज्या, यान्ति मद्याजिनो पि माम्। ’ अर्थात्,देवों को पूजने वाले देवताओं को प्राप्त होते हैं, पितरों को पूजने वाले पितरों को प्राप्त होते हैं, भूतों को पूजने वाले भूतों को प्राप्त होते हैं पर मेरे भक्त मुझे ही प्राप्त होते हैं। मैं फौरन शर्मा जी के पास पहुंचा और पूरी तरह अर्थ समझाने के लिए आग्रह किया। उन्होंने समझाया कि संपूर्ण बृह्माॅंड के निर्माता और नियंता एक ही हैं। अन्य देवी देवता और भूत प्रेतगण आदि स्थानीय मान्यतायें हैं जो कि काल्पनिकहैं और मनोवैज्ञानिक आधार पर कार्य करते हैं, सब को ही अपना लक्ष्य महानतम् रखना चाहिए न कि तुच्छ। अपने लक्ष्य को ध्यान में रखते हुए ही संसार के कार्य करना चाहिए ताकि हम वहां सरलता से पहुंच सकें, उसे पा सकें । जिसने अपना जैसा लक्ष्य निर्धारित कर लिया वह निश्चय ही वहीं पहुंचता है। इसलिए देवता पितर अथवा भूतप्रेतों को छोड़कर परम ब्रह्म की उपासना करना ही लक्ष्य बनाना चाहिए। उन्होंने बताया कि इस श्लोक में कृष्ण परम ब्रह्म के द्योतक हैं अतः उनका ‘‘माम् अर्थात मुझे ’’ कहना सार्वभौमिक सत्ता की ओर सूचित करता है।
यह ब्याख्या सुनकर मेरे कान खड़े हो गए। मेरे मन में बार बार यह बिचार आ रहा था कि इतने दिनों तक मैं जो प्रेतों की साधना कर रहा था वह व्यर्थ सिद्ध हुई, इतना समय क्यों नष्ट किया, शर्मा जी से पहले ही मुलाकात क्यों नहीं हो गई आदि आदि। शर्मा जी अचानक बोल पड़े अभी कुछ नहीं बिगड़ा है, कई बार गीता पढ़ो हर बार नया ही मिलेगा, गांधी जी तो अपनी सभी समस्याओं का हल इसी में ढूढ़ लेते थे। मैने मन ही मन उस परम सत्ता को धन्यवाद किया कि मुझे सन्मार्ग की ओर प्रेरणा उसने शर्माजी जैसे परम भक्त के माध्यम से दिलाई। अब तो जब भी समय मिलता मैं गीता ही पढ़ने बैठ जाता, इतना तक कि जो भी श्लोक मुझे अच्छा लगता मैं उसे याद करने के लिये दीवाल पर सीस पेंसिल से लिख देता ताकि बार बार देखने से याद हो जाए। समय समय पर शर्मा जी के पास जा कर कठिनाई दूर कर लेता। मैं शर्माजी के पास तभी जाता था जब मेरे पास कम से कम दो घंटे का समय होता था क्योंकि उनके पास बैठकर उनके अनेक अनुभवों की बहुत ही प्रेरणादायक कहानियां भी सुनने को मिल जाती थीं।
ऐंसी ही एक मुलाकात के समय ब्रह्मचर्य पर एक आंखों देखी घटना उन्होंने इस प्रकार सुनाई- एक संपन्न सेठ की अचानक मृत्यु हो जाने पर ब्यापार का पूरा काम उसके इकलौते लड़के के ऊपर आ गया, वह भी अपने पिता के अनुसार बनाई गई ब्यवस्था का पालन करते हुए सफलता पाने लगा, उसकी योग्यता के कारण एक अत्यंत सम्पन्न घराने की सुंदर कन्या से उसका विवाह हो गया। एक बार लड़के को ब्यापार के सिलसिले में 10-15 दिन के लिए शहर से दूर जाना पड़ा, दोनों यौवनावस्था के उस दौर में थे कि एक दूसरे से एक दिन भी दूर नहीं रह सकते थे फिर इतने दिन की दूरी तो साक्षात् मौत ही थी। लड़के की पत्नी बोली आप इतने दिन के लिये हमसे दूर जा रहे हो, मैं अकेली कैसे रह पाऊंगी? वह बोला घर में सबकुछ है, नौकर चाकर हैं, कोइ्र्र कठिनाई नहीं आयेगी, काम पूरा होते ही आ जाऊंगा। उसकी पत्नि कामुक प्रकृति की थी, उसपर नई नई शादी और इतना लंबा बिछोह कैसे सहेगी, उसकी यही समस्या थी। वह बोली, जिस आवश्यकता की पूर्ति केवल आप ही कर सकते हों वह इन नौकरों और सब साधनों से क्या संभव हो सकेगी? यदि किसी दिन कामुकता ने प्राणघातक हमला कर दिया तो मैं क्या करूंगी? लड़का बोला चिन्ता की बात नहीं, उस दिन तुम छत पर जाकर सूर्योदय से पहले दक्षिण दिशा में देखना जो ब्यक्ति सबसे पहले उस इमली के पेड़ के पास दिखे उसे बुलाकर अपनी इच्छा की पूर्ति कर लेना , यह मेरी सहमति है। यह कहकर सेठ पुत्र यात्रा पर चला गया। इधर तीन चार दिन ही मुश्किल से बीते होंगे कि उसकी पत्नि कामाग्नि से पीडि़त हुई, जब रहा न गया तो उसने सूर्योदय से पहले ही छत पर पहुँच कर दक्षिण दिशा में दृष्टि दौड़ाई, उसे एक अत्यंत बृद्ध आदमी केवल लंगोटी पहने, हाथ में एक मिट्टी का करवा लिए तेजी से जाता दिखाई दिया। उसने फौरन दो नौकरों के लिये उस ओर दौड़ाया और कहा कि उन सज्जन को आदर पूर्वक यहां आने के लिये मेरा निवेदन पहुंचा दो। तत्काल दोनों नौकर उस आदमी के पास पहुंचे और सेठ जी की बहू का संदेश पहुंचाया, वह भी तत्काल नौकरों के साथ आ गये, बहू ने उन्हें नमस्कार करते हुए ऊपर चलने के लिये सीढि़यों की ओर इशारा किया, वह बिना झिझक ऊपर चढ़ने लगे, चार पांच सीढि़यां चढ़ ही पाये थे कि उनके हाथ का करवा (मिट्टी का छोटा लोटेनुमा घड़ा) जमीन पर गिर कर चूर चूर हो गया, वे तत्काल मुड़े और वापस लौटने लगे, बहू बोली, महोदय क्या हुआ, वह तो मिट्टी का था इसलिए टूट गया, मैं आपको सोने चांदी जिसका कहें बढि़या लोटा दे दूंगी पर बापस न लौटिए, मेरे साथ चलिये। सज्जन बोले, उस मिट्टी के करवे ने ही मुझे सांगोपांग देखा था, अब दूसरा कोई देखे इससे पहले ही मैं अपना अस्तित्व करवे की भांति छिन्न भिन्न कर देने में ही भलाई समझता हूँ । इतना कहकर वह चले गए पर सेठ की बहू का मस्तिष्क सक्रिय कर गये, वह सोचने लगी कि जब यह आदमी एक निर्जीव वस्तु के साथ अपनी एकनिष्ठता नहीं तोड़ सकता तो मैं अपने प्राणप्रिय के साथ यह क्या करने जा रही थी? उसने अपने को धिक्कारा और ई्रश्वर को धन्यवाद दिया कि उसने इस आदमी के माध्यम से सद्ज्ञान देकर मुझे पतन होने से बचा लिया।
शर्मा जी किसी सेठ के यहां मुनीमी करते हुए रिटायर हो गये थे, उनके बड़े बड़े लड़के बच्चे थे, पत्नि और अन्य रिश्तेदार भी थे पर वे वानप्रस्थ जीवन यापन करते थे, उनकी ईमानदारी और कर्तव्यनिष्ठा के कारण सेठ ने आजीवन उनका पूरा खर्च अपने ऊपर ले लिया था, यद्यपि उनके बच्चे व रिश्तेदार अपने साथ रखने के लिये अनेक बार आग्रह कर चुके थे पर वह तो शर्माजी थे, वे निर्पेक्ष रूप से अकेले ही रहते थे और इतनी अधिक उम्र में भी सभी काम अपने हाथ से ही किया करते थे। समय समय पर मैं शर्माजी के पास जाकर अपनी शंकाओं का समाधान कर लेता और उनकी प्रेरणादायक अनुभूतियों से अभिभूत हो वापस आ जाता। शर्माजी के समझाने का अलग ही ढंग होता था, कभी वे अपनी दाढ़ी पर हाथ फेरते हुए बोलते, कभी वे मूंछों पर ताव देकर बड़े प्रभावी ढंग से सिर हिला कर प्रश्न भी पूछ लेते। प्रायः उनके पास फुल्लु और आस पास के प्रायमरी या मिडिल में पढ़ने बाले बच्चे पाये जाते। जब कभी मैं पहुंचता तो प्रायः कोइ्र्र न कोई प्रेरक प्रसंग ही छेड़ देते थे, कभी कभी उन्हें हंसी आती तो उनके नकली दांत बाहर ही आ जाते पर तत्काल ब्यवस्थित कर अपनी बात जारी रखते। अनुशासन का ध्यान सबको रखना पड़ता।
एक बार फुल्लु किसी लड़के को विज्ञान के किसी तथ्य को समझा रहा था पर वह लड़का बार बार, वह क्या? वह कैसा? आदि पूंछता जाता। शर्माजी थोड़ा ऊंचा सुनते थे पर हर समय नहीं। फुल्लु के बार बार समझाने पर भी जब वह लड़का नहीं समझ पा रहा था तो शर्मा जी बोले, जैसा समझने वाला बैसा ही समझाने बाला, और हंसने लगे। वे बोले जन्मांध माने जानते हो क्या? फुल्लु बोला, जो जन्म से ही अंधा हो, जिसे कुछ भी न दिखता हो। शर्मा जी ने कहा हाॅं, सुनो, एक थे जन्मांध, एक सज्जन ने उनसे पूछा, सूरदासजी! खीर खाओगे? सूरदास बोले, खीर क्या? सज्जन बोले अरे वह सफेद सफेद, सूरदास बोले, ये सफेद क्या? वे बोले, बिल्कुल बगुले जैसी, सूरदास ने पूंछा ये बगुला क्या? वह सज्जन अब अपने दांयें हाथ के पंजे को बगुले की आकृति में मोड़कर सूरदास के पास जाकर बताने लगे- ऐंसा। सूरदास ने अपने दोनों हाथों से उनका हाथ पकड़ा और अंगुलियों की ओर से केहुंनी तक टटोलकर देखा, सूरदास बोले अरे यह तो बड़ी ही टेड़ी है, यह नहीं खा सकते, यह तो गले में ही अटक जायेगी। शर्माजी बोले ‘‘टेड़ी खीर’’ की तरह न तो तुम्हें समझाना आता है और न इसे समझना। यह कहानी सुनकर मुझे यह पहली बार मालूंम हुआ कि ‘‘टेड़ी खीर’’ मुहावरा इस प्रकार बना।
इसी प्रकार एक बार ‘‘ दीवारों के भी कान होते हैं’’ के ऊपर उन्होंने बर्रुचि की कहानी सुनाई। वे बोले , राजा भोज के पास भरी सभा में एक ब्यक्ति एक पत्र लाया और कहने लगा कि यह पत्र मेरे लड़के ने भेजा है पर मेरी समझ में नहीं आ रहा है कृपया इसे पढ़कर सुना दीजिए। उस पत्र में केवल चार अक्षर ही लिखे थे ‘‘ अ, प्र, शि, ख ’’ राजा ने पढ़कर देखा परंतु कुछ भी समझ में न आने के कारण उसे सभासदों की ओर पढ़ने के लिए पहुंचा दिया। सभी सभासदों ने एक एक कर उसे पढ़ने की कोशिश की पर किसी से भी अर्थ समझाते नहीं बना। राजा बड़ा ही परेशान हुआ कि इतने बड़े बड़े विद्वान क्यों इसका अर्थ नहीं बता पा रहे हैं, कुछ न कुछ रहस्य जरूर है। राजा ने आज्ञा दी कि आप लोग आज रात में खूब अध्ययन कर लें कल सभा के प्रारंभ में ही इस पर बिचार किया जायेगा, इस का समाधान कारक उत्तर प्राप्त नहीं होगा तो तुम सब को मृत्यु दंड दिया जायेगा। सभी विद्वान अपने अपने घर जाकर सोच विचार में डूब गये, कुछ आडंबरी तो डर के कारण रात का अंधेरा होते ही राज्य की सीमा से बाहर भाग गये, कुछ डटे रहे पर जब आधीरात तक अर्थ न निकाल पाये तो आधी रात तक भाग गए, बर्रुचि नाम के विद्वान भी आधी रात के बाद भागने बालों में से थे। भागते भागते जब अन्य देश की सीमा थोड़ी दूर रह गयी तो सोचने लगे कि अब तो सूर्योदय के पहले दूसरे राज्य में पहुंच ही जायेंगे अतः कुछ विश्राम कर लेना चाहिए ओैेर एक बट वृक्ष के नीचे आराम करने लगे।
बट वृक्ष पर दो गिद्ध आपस में बात कर रहे थे, बर्रुचि को पक्षियों की भाषा समझ में आ जाती थी, अतः उसने सुना कि एक गिद्ध दूसरे से कह रहा है कि क्या अच्छा होता यदि कल मनुष्यों का मास खाने मिल जाता। दूसरे ने कहा, अरे क्यों चिन्ता करता है कल राजा भोज अपने राज्य में विद्वानों को मृत्यु दंड देने बाला है, हम कल अपनी उड़ान उसी ओर भरेंगे, तुम्हारी इच्छा पूरी हो जायेगी। पहला गिद्ध हंसा और बोला, क्या मजाक करते हो, राजा भोज कभी विद्वानों को मृत्यु दंड दे ही नहीं सकता। दूसरा बोला , अरे तूं क्यों भूल गया, एक माह पहले नर्मदा के किनारे चट्टान बाली गुफा में एक मित्र ने अपने ही गांव के सहपाठी मित्र को कृपाण से मार डाला था। पहले ने कहा मुझे कुछ याद ही नहीं, इस पर दूसरा बोला, उदयपुर के ब्राह्मण परिवारों के दो लड़के गुरु के पास पढ़ने के लिये उज्जयनी गये थे उनमें से एक तो गुरु के पास रह कर पढ़ता रहा परंतु दूसरा बीच में ही छोड़कर भाग आया और डाकू बन गया। अपनी विद्या पूरी कर धन कमाते हुए पहला लड़का बापस अपने घर जा रहा था तो रात्रि में विश्राम करने के लिये गुफा में रुका जहां पर उसका दस्यु मित्र पहले से ही रुका हुआ था। वर्षों बाद एक दूसरे से मिलने के बाद भी दोनों तत्काल पहचान गए और बड़ी ही आत्मीयता से गले मिले। दस्यु से उसका मित्र बोला, तू ने बड़ी ही गलती की जो पूरी विद्या प्राप्त किए विना ही भाग आया, लूट पाट कर तुझे कितना धन मिल पाता होगा, डर कर जंगलों में रहना पड़ता है, अपमानित होना पड़ता है। मैंने दीक्षान्त के पश्चात एक माह में ही इतना कमा लिया है कि एक वर्ष तक कुछ न करूं तो भी कोई कमी न होगी। दस्यु बोला, तुम ठीक कहते हो मित्र, मैंने बड़ा ही अनर्थ कर डाला है पर अब क्या हो सकता है? मित्र बोला , क्यों नहीं , तुम चाहो तो मेरे साथ रह कर विद्या सीख लो और प्रतिष्ठित जीवन जिओ, पर दस्यु बोला मित्र, अब तो यह जंगली जीवन ही ठीक है, अगले जन्म में यदि फिर से तुम्हारा साथ मिला तो जरूर पढ़ूंगा। इस प्रकार बातें करते करते दोनों सो गये। जब दस्यु का मित्र खर्राटे भरने लगा तो दस्यु उठकर उसकी छाती पर जा बैठा और कृपाण निकाल कर मारने को तैयार हुआ ही था कि उसका मित्र जाग गया। वह बोला, यह क्या? तुम मुझे मारकर मेरा धन लेना चाहते हो ? बैसे ही ले लो, मैं तो फिर कमा लूँगा , तुम्हें जब भी आवश्यकता पड़े मैं मदद भी करता रहूंगा , पर जान लेने से तो तुम्हें कुछ भी नहीं मिलेगा। दस्यु बोला, नहीं मित्र, बात धन की नहीं , मेरे पिता की प्रतिष्ठा की है। जब तुम घर बापस पहुंचकर मेरे पिता को बताओगे कि मैं बीच में ही पढ़ाई छोड़कर भाग गया और नर्मदा के जंगलों में दस्यु हो गया हूं तो मेरे पिता को सहन नहीं होगा, वह मुझसे बहुत कुछ आशाएँ रखते थे। इसलिए मैं चाहता हूं कि गांव में किसी को भी न तो तुम्हारे बारे में पता चले और न ही मेरे बारे में , तुम जीवित रहोगे तो सब को सब कुछ पता चल जाएगा, तुम्हें मरना ही होगा। मित्र बोला, अच्छा तुम मुझे मार डालो लेकिन मेरे मरने की सूचना तो मेरे घर भिजवा दोगे? दस्यु बोला यह कैसे संभव होगा, मित्र बोला मैं तुम्हें एक पत्र लिख कर दे देता हूं तुम उसे भिजवा देना। दस्यु ने कहा पहले मैं उसे पढ़ूंगा यदि ठीक लगा तो अवश्य भिजवा दूंगा। मित्र ने ‘‘अ, प्र, शि, ख’’ इन चार अक्षरों का पत्र ज्यों ही दस्यु को दिया तो पढ़ने पर उसे कुछ भी समझ में नहीं आया अतः उसने इस पत्र को मित्र के घर भिजवाने का वचन देते हुए कृपाण के एक ही आघात से उसके प्राण ले लिये।
यह वही पत्र है जो राजा भोज के सभासदों को पढ़ने दिया गया था, परंतु कोई नहीं पढ़ सका है इस कारण राजा ने सभी विद्वानों को कल सुवह होते ही राज सभा में मृत्यु दंड देने की घोषणा की है। बर्रुचि ने गिद्धों की बातें सुनी और तत्काल बापस लौटकर राजा के दरबार में पत्र में लिखे चारों अक्षरों का अर्थ इसप्रकार बताकर इनाम पाया, और बेचारे गिद्ध आशा लगाए दिन भर भूखे बैठे रहे।
‘‘अनेन तव पुत्रं प्रसुप्तस्य वनान्तरे,। शिखा बंधाय वेगेन खडगेन निहितम् शिरः ’’।। अर्थात्, इस प्रकार जंगल में सोते हुए तुम्हारे पुत्र की तेजी से खड्ग मारकर हत्या कर दी गई।
शर्माजी बोले,इसलिये नीति कहती है कि,
दिवां निरीक्ष्य वक्तव्यं, रात्रौ नैव च नैव च। धूर्ताः तिष्ठंति सर्वत्र बटे बर्रुचिर्यथा । अर्थात् दिन में निरीक्षण करने के बाद ही बोलना चाहिये, रात में कभी नहीं, कभी नहीं। धूर्त लोग हर जगह पाये जाते हैं जैसे बट बृक्ष पर बर्रुचि ।
शर्माजी, अपने सब काम निर्पेक्ष रूप से ही करते थे जैसा कि वैरागी पुरुषों के बारे में शास्त्रों में कहा गया है। एक मनोवैज्ञानिक तथ्य यह भी है कि बुजुर्गों के पास बहुत ही अनुभव होता है पर उन्हें कोई न तो सुनना चाहता है और न ही उसे जानने ही की जिज्ञासा प्रकट करता है। इसका फल यह होता है कि उनका बहुमूल्य ज्ञान उन्हीं के साथ चला जाता हैं। शर्माजी जैसे विद्वान कभी भी अपने को प्रचारित नहीं करते, उन्हें तो केवल जिज्ञासुओं की तलाश होती है, ज्योंही सच्चा ज्ञान पिपासु मिल जाता है वे अपना सारा ज्ञान लुटा देते हैं। हमारे देश की परंपरा भी कुछ इसी प्रकार की बनाई गई है कि सुपात्र को ही सद्ज्ञान दिया जाना चाहिए नहीं तो उसके दुरुपयोग करने की संभावना बढ़ जाती है, इसी कारण अनेक विद्वान, सुपात्र की तलाश करते करते अपने ज्ञान के साथ ही चले गये। कभी कभी, गुरुओं ने अपने गुरुत्व को बनाये रखने की महत्वाकांक्षा से पूरा ज्ञान शिष्य को दिया ही नहीं, कुछ न कुछ बचाए रहे और वह उन्हीं के साथ चला गया, इस पद्धति के प्रभाव से ही आज जो भी ज्ञान दिखाई देता है वह अल्प ही कहा जायेगा क्योंकि पूर्णता किसी के पास नहीं देखी गई है। शर्मा जी की यह अपार कृपा का परिणाम ही कहा जाना चाहिए कि उन्होंने मुझे बिना शर्त अपनी जिज्ञासाएं शांत कर पाने का बार बार अवसर दिया।
एक बार शर्माजी से मैंने पूछा, दादा ! (हम लोग उन्हें इसी प्रकार संबोधित करते थे) आप एक एक पैसे का हिसाब रखते हैं, बाजार से कुछ खरीदते हैं तो बड़ा ही मोल भाव करते हैं, दूसरों को ही नहीं संबंधियों को भी कुछ देते समय अनेक बार सोचते हैं, इसका क्या रहस्य है? वह यह सुन कर बड़े ही जोर से हंसे और बोले सुनो, आंखों देखी इस घटना के प्रत्येक पहलु पर ध्यान देना। हमारे गांव के मालगुजार रायबहादुर दयाशंकर अंग्रेजों के जमाने के लखपति कहलाते थे। उनकी कंजूसी के किस्से घरघर में सुनने को मिल जाते थे। अपने लड़के का विवाह उन्होंने अपने से भी कईगुना संपन्न परिवार में किया। लड़की को इनकी कंजूसी के अनेक किस्से ज्ञात थे, पर क्या कह सकती थी, भारत में लड़कियों के विवाह तो अभी भी माता पिता की ही मर्जी से होते हैं, फिर वह तो पुराना जमाना था। खैर शादी के बाद बहू अपनी ससुराल आई, उसके मन में बार बार यही घूमता रहता था कि अब तो एक एक पैसे के लिए तरसना पड़ेगा, क्योंकि पिता की आज्ञा के अनुसार जब जब अपने पति को बाजार से सामान लाने पर एक एक पैसे का हिसाब देेते हुए उसने देखा तो उसके तो प्राण ही सूख गए। उसके मन में अपने मायके की याद आती थी कि जहां कभी भी किसी से कोई हिसाब पूछा ही नहीं जाता विशेषतः उससे। अब वह अपनी मन मर्जी से कुछ भी नहीं कर सकती, क्या ब्यवस्था बनाई है इस समाज ने आदि आदि। कई माह निकलने के बाद उससे नहीं रहा गया और उसने ससुरजी की कंजूसी की परीक्षा लेने का विचार किया। एक दिन सबेरे से ही उसने कहला दिया कि उसे बहुत ही सिर दर्द हो रहा है अतः कोई्र भी ज्यादा बात न करे , आराम करने पर वह ठीक हो जायेगा। दयाशंकर जब दोपहर को खाना खाने बैठे और बहु खाना परोसने नहीं आई तो कारण पूछा, बताया गया कि उसका सिर दर्द कर रहा है इस लिए आराम कर रही है। उन्होंने तत्काल नगर के बड़े से बड़े वैद्य को बुलाया और इलाज चालू किया पर शाम हो गई कोई फायदा नहीं , ससुर जी बार बार पूंछते क्यों बेटा अब दर्द कैसा है? मगर हर बार वही उत्तर मिलता, पिता जी कोई भी फायदा नहीं। दूसरा दिन भी पूरा हो गया पर स्थिति न सुधरी दयाशंकर बड़े ही परेशान-- पर कोई उपाय ही न सूझता, क्या करें, क्या न करें? आखिर उन्होंने बहु से ही पूंछ लिया कि क्या ऐंसा दर्द पहले भी हुआ है? वह बोली हां हुआ था। तब किस दवा से दूर हुआ था? उसने जबाब दिया कि उस समय मेरे पिताजी ने अनबेधे मोती पीसकर माथे पर लगाये थे, दो घंटे में ठीक हो गया था। दयाशंकर तत्काल अंदर गये और टोकनी में अनबेधे मोती भर लाए। अपने हाथ से ही सिल पर रखकर पीसने को तैयार हुए ही थे कि बहु ने उठकर उनका हाथ पकड़ लिया और कहने लगी कि अब दर्द ठीक हो गया, रहने दीजिए। वे बोले अरे अभी तो लेप लगाया ही नहीं है फिर दर्द कैसे दूर हो गया? वह बोली, मुझे क्षमा करे, मै आपके कंजूसी के किस्से सुन सुन कर बड़ी ही परेशान थी पर आपने आज यह सिद्धकर दिया है कि आप किसी भी प्रकार कंजूस नहीं हैं, आप की तरह सहृदयता विरलों में ही होती है। दयाशंकर बोले बेटा, एक एक पैसा इसलिये बचाया जाता है कि समय आने पर उसे पानी की तरह बहाया जा सके। बिपत्ति के समय अपने पास जो कुछ होता है वही काम आता है, दूसरों से कुछ प्राप्त नहीं हो पाता, यदि मिलता भी है तो उधारी की चिन्ता और उपकार का बोझ। मेरी कोई कितनी ही हंसी क्यों न उड़ाये मैं उससे प्रभावित नहीं होता हूं। मैं तो सभी को यही सिखाता हूं कि व्यर्थ खर्च मत करो, हमेशा कुछ न कुछ बचाते रहो ताकि जरूरत के समय किसी से मांगना न पडे़ औेर पानी की तरह बहाकर आसन्न संकट से बचा जा सके।
वैसे तो शर्माजी के पास अनेक मूल्यवान अनुभवों का खजाना था परंतु मैं अपने सीमित समय में उनके सान्निध्य से बहुत कम ही बटोर पाया। फुल्लु के पड़ौस में रहने वाला एक लड़का पाॅंचवी कक्षा में फेल होगया, वह बहुत ही निराश होकर तीन चार माह बाद भी अपने फेल होने का दुख मना रहा था, उसके माता पिता भी उसे समझाते पर वह बार बार यही सोचता कि मैं अपने साथियों से पिछड़ गया। फुल्लु ने उसे बार बार समझाते समझाते, एक बार गुस्से में कह दिया, बड़े मूर्ख हो पहले पढ़ लेते तो पास क्यों न होते ,अब बार बार यही सोच सोचकर समय नष्ट करते हो, अब फिर फेल हो जाओगे। यह सुनकर लड़का बहुत रोया इतना कि माता पिता भी चुप न करा सके, किसी से वह कुछ न कहता कि रोने का कारण क्या है। मामला शर्माजी तक पहुॅंचा, लड़के ने उन्हें बताया कि फुल्लु भैया ने उसे मूर्ख कहा है और यह भी कि वह फिर से फेल हो जावेगा। क्या मैं सचमुच मूर्ख हूँ ? शर्मा जी ने उसे राजा भोज की कहानी सुनाई। वे बोले, एक बार राजा भोज की पत्नी अर्थात् रानी अपने भाई के साथ बैठकर अपने मायके की बातों में तल्लीन थी कि राजा ने अचानक वहाॅं पहुॅंचकर पूॅंछ लिया, क्या बात है? रानी ने राजा भोज से कहा, तुम बड़े मूर्ख हो। राजा ने उनसे तत्काल कुछ नहीं कहा और वे मन ही मन सोचते रहे कि वह कौन सी गलती है जिस पर रानी ने मुझे मूर्ख कहा जबकि सारा राज्य ही नहीं अन्य राज्यों के राजा और नागरिक मेरी विद्वत्ता के उदाहरण देते हैं। राजा को कोई कारण नहीं मिला जिस पर रानी का कथन जाॅंचा जा सके और सत्यता का पता लग सके। प्रातःकाल जब सभा प्रारंभ होने का समय आया तो वह निर्धारित समय के पहले ही राज्य सभा में अपनी आसन पर जा बैठे, तब तक बहुत कम लोग ही उपस्थित हुए थे। राजा के सभा में पहुंचने की खबर मिलते ही विद्वान सभासदों ने दौड़ लगाकर जल्दी से जल्दी पहुॅंचना प्रारंभ कर दिया। ज्यों ही कोई विद्वान कक्ष में प्रवेश करता, राजा को देखकर प्रणाम करने की मुद्रा में होता कि राजा उसे कहते.. मूर्ख..। यह क्रम लगातार जारी रहा और आने वाले सभी विद्वानों को राजा उसी प्रकार मूर्ख कह कर चुप हो जाते और आगन्तुक सभासद चुपचाप अपने स्थान पर वैठ कर आश्चर्य करते, आपस में फुसफुसाते कि आज राजा को क्या हो गया है जो सभी को मूर्ख कह रहे हैं। इसी क्रम में कालीदास नाम के एक सभासद ने प्रवेश किया और राजा ने उनसे भी उसी प्रकार मूर्ख कहा, सुनते ही कालीदास ने कहा...
‘‘ गतम् न सोचामि कृतम् न मन्ये, खाद्यम् न गच्छामि हसम् न जलपे। द्वाभ्याम् तृतिया न भवामि राजन, किंकारणे भोज भवामि मूर्खः।‘‘अर्थात् जो बीत चुका है उसका मैं चिंतन नहीं करता, अपने किये गये कार्य को महत्व नहीं देता, खाते खाते चलता नही, पानी पीते हॅंसता नहीं, दो लोगों के बीच में तीसरा नहीं होता फिर हे राजा भोज! मैं किस प्रकार मूर्ख हुआ?
शर्माजी बोले, राजा को उनकी त्रुटि का पता चल गया और कालिदास को धन्यवाद देकर वे रानी के पास गये और अपनी त्रुटि के लिये उनसे क्षमा माॅंगी। अब तुम्हें अपनी गलती समझ में आई? वह लड़का बोला नहीं। शर्माजी वोले, कालीदास ने क्या कहा कि बीती बातों को बार बार सोचने वाले क्या होते हैं? उसने कहा मूर्ख। शर्माजी ने कहा तुम क्या कर रहे हो? बार बार अपने फेल होने की बात सोचकर अपना समय बरबाद कर रहे हो तो क्या मूर्ख नहीं हुए? यही समय बचाकर यदि पढ़ने में मन लगाओ तो तुम अबकी बार प्रथम श्रेणी में पास हो सकते हो। इसलिये सब कुछ भूल कर पढ़ने लिखने के वारे में ही सोचा करो। लड़का चुप होकर अपनी गलती पर पछताया और पढ़ने मैं मन लगाने लगा। इस जमाने में शर्माजी जैसे सरल प्रेरक विद्वान कम ही दिखाई देते हैं।
मेरे बाद लगभग शर्माजी की ही उम्र के गौतम जी आए। थोड़ी ही देर में शर्मा जी ने हम लोगों को भोजन कराया। जब हम लोगों ने शर्मा जी से भी साथ ही में भोजन करने का आग्रह किया तो वह बोले, अभी अन्य लोग आने वाले हैं, उन्हें भोजन कराने के बाद ही मैं भेाजन करूंगा। जब मैं जाने लगा तो शर्माजी ने पूछा, किस कक्षा में पढ़ते हो? मैंने कहा, बीएससी फस्र्ट यीअर। उन्होंने फिर पूछा, भगवद्गीता पढ़ते हो? मैंने कहा, एक साल पहले पढ़ने की कोशिश की थी पर कुछ समझ में नहीं आया इसलिये आगे प्रयास ही नहीं किया। वह बोले फिर से पढ़ना। मैं आश्वाशन देता घर आ गया, पर बार बार शर्मा जी के द्वारा अचानक भोजन के लिये बुलाना और गीता पढ़ने का निर्देश देना इस पर चिन्तन लगातार चलता रहा। एक दो माह बाद शर्माजी अचानक बाजार में दिखे तो मैंने आदर पूर्वक नमस्कार किया। उन्होंने प्रत्युत्तर देते हुए फिर पूछा, क्यों? श्रीमद्भगवद्गीता पढ़ना शुरु किया कि नहीं? मैंने कहा नहीं, मैथ्स फिजिक्स आदि पढ़ते पढ़ते समय ही नहीं बच पाता। वह बोले, समय तो निकालना पड़ता है, तुम्हारे पास गीता है या नहीं? नहीं हो तो साथी बुक डिपो से 20 पैसे की छोटे आकार वाली खरीद लेना और समय निकाल कर पढ़ना। मैं, हां कहकर चलता बना। बार बार रास्ते में सोचता जाता था कि शर्मा जी गीता पढ़ने पर क्यों जोर दे रहे हैं, और अंततः साथी बुक डिपो जाकर गोयंका द्वारा अंग्रेजी में अनुवादित गीताप्रेस द्वारा प्रकाशित छोटी पुस्तिका खरीद लाया। संस्कृत के श्लोकों को अंग्रेजी में समझाए जाने के कारण समझने में सरलता हुई।
एक जगह मैंने पढ़ा,‘ यान्ति देव व्रता देवान्, पित्रृन यान्ति पित्रव्रता। भूतानि यान्ति भूतेज्या, यान्ति मद्याजिनो पि माम्। ’ अर्थात्,देवों को पूजने वाले देवताओं को प्राप्त होते हैं, पितरों को पूजने वाले पितरों को प्राप्त होते हैं, भूतों को पूजने वाले भूतों को प्राप्त होते हैं पर मेरे भक्त मुझे ही प्राप्त होते हैं। मैं फौरन शर्मा जी के पास पहुंचा और पूरी तरह अर्थ समझाने के लिए आग्रह किया। उन्होंने समझाया कि संपूर्ण बृह्माॅंड के निर्माता और नियंता एक ही हैं। अन्य देवी देवता और भूत प्रेतगण आदि स्थानीय मान्यतायें हैं जो कि काल्पनिकहैं और मनोवैज्ञानिक आधार पर कार्य करते हैं, सब को ही अपना लक्ष्य महानतम् रखना चाहिए न कि तुच्छ। अपने लक्ष्य को ध्यान में रखते हुए ही संसार के कार्य करना चाहिए ताकि हम वहां सरलता से पहुंच सकें, उसे पा सकें । जिसने अपना जैसा लक्ष्य निर्धारित कर लिया वह निश्चय ही वहीं पहुंचता है। इसलिए देवता पितर अथवा भूतप्रेतों को छोड़कर परम ब्रह्म की उपासना करना ही लक्ष्य बनाना चाहिए। उन्होंने बताया कि इस श्लोक में कृष्ण परम ब्रह्म के द्योतक हैं अतः उनका ‘‘माम् अर्थात मुझे ’’ कहना सार्वभौमिक सत्ता की ओर सूचित करता है।
यह ब्याख्या सुनकर मेरे कान खड़े हो गए। मेरे मन में बार बार यह बिचार आ रहा था कि इतने दिनों तक मैं जो प्रेतों की साधना कर रहा था वह व्यर्थ सिद्ध हुई, इतना समय क्यों नष्ट किया, शर्मा जी से पहले ही मुलाकात क्यों नहीं हो गई आदि आदि। शर्मा जी अचानक बोल पड़े अभी कुछ नहीं बिगड़ा है, कई बार गीता पढ़ो हर बार नया ही मिलेगा, गांधी जी तो अपनी सभी समस्याओं का हल इसी में ढूढ़ लेते थे। मैने मन ही मन उस परम सत्ता को धन्यवाद किया कि मुझे सन्मार्ग की ओर प्रेरणा उसने शर्माजी जैसे परम भक्त के माध्यम से दिलाई। अब तो जब भी समय मिलता मैं गीता ही पढ़ने बैठ जाता, इतना तक कि जो भी श्लोक मुझे अच्छा लगता मैं उसे याद करने के लिये दीवाल पर सीस पेंसिल से लिख देता ताकि बार बार देखने से याद हो जाए। समय समय पर शर्मा जी के पास जा कर कठिनाई दूर कर लेता। मैं शर्माजी के पास तभी जाता था जब मेरे पास कम से कम दो घंटे का समय होता था क्योंकि उनके पास बैठकर उनके अनेक अनुभवों की बहुत ही प्रेरणादायक कहानियां भी सुनने को मिल जाती थीं।
ऐंसी ही एक मुलाकात के समय ब्रह्मचर्य पर एक आंखों देखी घटना उन्होंने इस प्रकार सुनाई- एक संपन्न सेठ की अचानक मृत्यु हो जाने पर ब्यापार का पूरा काम उसके इकलौते लड़के के ऊपर आ गया, वह भी अपने पिता के अनुसार बनाई गई ब्यवस्था का पालन करते हुए सफलता पाने लगा, उसकी योग्यता के कारण एक अत्यंत सम्पन्न घराने की सुंदर कन्या से उसका विवाह हो गया। एक बार लड़के को ब्यापार के सिलसिले में 10-15 दिन के लिए शहर से दूर जाना पड़ा, दोनों यौवनावस्था के उस दौर में थे कि एक दूसरे से एक दिन भी दूर नहीं रह सकते थे फिर इतने दिन की दूरी तो साक्षात् मौत ही थी। लड़के की पत्नी बोली आप इतने दिन के लिये हमसे दूर जा रहे हो, मैं अकेली कैसे रह पाऊंगी? वह बोला घर में सबकुछ है, नौकर चाकर हैं, कोइ्र्र कठिनाई नहीं आयेगी, काम पूरा होते ही आ जाऊंगा। उसकी पत्नि कामुक प्रकृति की थी, उसपर नई नई शादी और इतना लंबा बिछोह कैसे सहेगी, उसकी यही समस्या थी। वह बोली, जिस आवश्यकता की पूर्ति केवल आप ही कर सकते हों वह इन नौकरों और सब साधनों से क्या संभव हो सकेगी? यदि किसी दिन कामुकता ने प्राणघातक हमला कर दिया तो मैं क्या करूंगी? लड़का बोला चिन्ता की बात नहीं, उस दिन तुम छत पर जाकर सूर्योदय से पहले दक्षिण दिशा में देखना जो ब्यक्ति सबसे पहले उस इमली के पेड़ के पास दिखे उसे बुलाकर अपनी इच्छा की पूर्ति कर लेना , यह मेरी सहमति है। यह कहकर सेठ पुत्र यात्रा पर चला गया। इधर तीन चार दिन ही मुश्किल से बीते होंगे कि उसकी पत्नि कामाग्नि से पीडि़त हुई, जब रहा न गया तो उसने सूर्योदय से पहले ही छत पर पहुँच कर दक्षिण दिशा में दृष्टि दौड़ाई, उसे एक अत्यंत बृद्ध आदमी केवल लंगोटी पहने, हाथ में एक मिट्टी का करवा लिए तेजी से जाता दिखाई दिया। उसने फौरन दो नौकरों के लिये उस ओर दौड़ाया और कहा कि उन सज्जन को आदर पूर्वक यहां आने के लिये मेरा निवेदन पहुंचा दो। तत्काल दोनों नौकर उस आदमी के पास पहुंचे और सेठ जी की बहू का संदेश पहुंचाया, वह भी तत्काल नौकरों के साथ आ गये, बहू ने उन्हें नमस्कार करते हुए ऊपर चलने के लिये सीढि़यों की ओर इशारा किया, वह बिना झिझक ऊपर चढ़ने लगे, चार पांच सीढि़यां चढ़ ही पाये थे कि उनके हाथ का करवा (मिट्टी का छोटा लोटेनुमा घड़ा) जमीन पर गिर कर चूर चूर हो गया, वे तत्काल मुड़े और वापस लौटने लगे, बहू बोली, महोदय क्या हुआ, वह तो मिट्टी का था इसलिए टूट गया, मैं आपको सोने चांदी जिसका कहें बढि़या लोटा दे दूंगी पर बापस न लौटिए, मेरे साथ चलिये। सज्जन बोले, उस मिट्टी के करवे ने ही मुझे सांगोपांग देखा था, अब दूसरा कोई देखे इससे पहले ही मैं अपना अस्तित्व करवे की भांति छिन्न भिन्न कर देने में ही भलाई समझता हूँ । इतना कहकर वह चले गए पर सेठ की बहू का मस्तिष्क सक्रिय कर गये, वह सोचने लगी कि जब यह आदमी एक निर्जीव वस्तु के साथ अपनी एकनिष्ठता नहीं तोड़ सकता तो मैं अपने प्राणप्रिय के साथ यह क्या करने जा रही थी? उसने अपने को धिक्कारा और ई्रश्वर को धन्यवाद दिया कि उसने इस आदमी के माध्यम से सद्ज्ञान देकर मुझे पतन होने से बचा लिया।
शर्मा जी किसी सेठ के यहां मुनीमी करते हुए रिटायर हो गये थे, उनके बड़े बड़े लड़के बच्चे थे, पत्नि और अन्य रिश्तेदार भी थे पर वे वानप्रस्थ जीवन यापन करते थे, उनकी ईमानदारी और कर्तव्यनिष्ठा के कारण सेठ ने आजीवन उनका पूरा खर्च अपने ऊपर ले लिया था, यद्यपि उनके बच्चे व रिश्तेदार अपने साथ रखने के लिये अनेक बार आग्रह कर चुके थे पर वह तो शर्माजी थे, वे निर्पेक्ष रूप से अकेले ही रहते थे और इतनी अधिक उम्र में भी सभी काम अपने हाथ से ही किया करते थे। समय समय पर मैं शर्माजी के पास जाकर अपनी शंकाओं का समाधान कर लेता और उनकी प्रेरणादायक अनुभूतियों से अभिभूत हो वापस आ जाता। शर्माजी के समझाने का अलग ही ढंग होता था, कभी वे अपनी दाढ़ी पर हाथ फेरते हुए बोलते, कभी वे मूंछों पर ताव देकर बड़े प्रभावी ढंग से सिर हिला कर प्रश्न भी पूछ लेते। प्रायः उनके पास फुल्लु और आस पास के प्रायमरी या मिडिल में पढ़ने बाले बच्चे पाये जाते। जब कभी मैं पहुंचता तो प्रायः कोइ्र्र न कोई प्रेरक प्रसंग ही छेड़ देते थे, कभी कभी उन्हें हंसी आती तो उनके नकली दांत बाहर ही आ जाते पर तत्काल ब्यवस्थित कर अपनी बात जारी रखते। अनुशासन का ध्यान सबको रखना पड़ता।
एक बार फुल्लु किसी लड़के को विज्ञान के किसी तथ्य को समझा रहा था पर वह लड़का बार बार, वह क्या? वह कैसा? आदि पूंछता जाता। शर्माजी थोड़ा ऊंचा सुनते थे पर हर समय नहीं। फुल्लु के बार बार समझाने पर भी जब वह लड़का नहीं समझ पा रहा था तो शर्मा जी बोले, जैसा समझने वाला बैसा ही समझाने बाला, और हंसने लगे। वे बोले जन्मांध माने जानते हो क्या? फुल्लु बोला, जो जन्म से ही अंधा हो, जिसे कुछ भी न दिखता हो। शर्मा जी ने कहा हाॅं, सुनो, एक थे जन्मांध, एक सज्जन ने उनसे पूछा, सूरदासजी! खीर खाओगे? सूरदास बोले, खीर क्या? सज्जन बोले अरे वह सफेद सफेद, सूरदास बोले, ये सफेद क्या? वे बोले, बिल्कुल बगुले जैसी, सूरदास ने पूंछा ये बगुला क्या? वह सज्जन अब अपने दांयें हाथ के पंजे को बगुले की आकृति में मोड़कर सूरदास के पास जाकर बताने लगे- ऐंसा। सूरदास ने अपने दोनों हाथों से उनका हाथ पकड़ा और अंगुलियों की ओर से केहुंनी तक टटोलकर देखा, सूरदास बोले अरे यह तो बड़ी ही टेड़ी है, यह नहीं खा सकते, यह तो गले में ही अटक जायेगी। शर्माजी बोले ‘‘टेड़ी खीर’’ की तरह न तो तुम्हें समझाना आता है और न इसे समझना। यह कहानी सुनकर मुझे यह पहली बार मालूंम हुआ कि ‘‘टेड़ी खीर’’ मुहावरा इस प्रकार बना।
इसी प्रकार एक बार ‘‘ दीवारों के भी कान होते हैं’’ के ऊपर उन्होंने बर्रुचि की कहानी सुनाई। वे बोले , राजा भोज के पास भरी सभा में एक ब्यक्ति एक पत्र लाया और कहने लगा कि यह पत्र मेरे लड़के ने भेजा है पर मेरी समझ में नहीं आ रहा है कृपया इसे पढ़कर सुना दीजिए। उस पत्र में केवल चार अक्षर ही लिखे थे ‘‘ अ, प्र, शि, ख ’’ राजा ने पढ़कर देखा परंतु कुछ भी समझ में न आने के कारण उसे सभासदों की ओर पढ़ने के लिए पहुंचा दिया। सभी सभासदों ने एक एक कर उसे पढ़ने की कोशिश की पर किसी से भी अर्थ समझाते नहीं बना। राजा बड़ा ही परेशान हुआ कि इतने बड़े बड़े विद्वान क्यों इसका अर्थ नहीं बता पा रहे हैं, कुछ न कुछ रहस्य जरूर है। राजा ने आज्ञा दी कि आप लोग आज रात में खूब अध्ययन कर लें कल सभा के प्रारंभ में ही इस पर बिचार किया जायेगा, इस का समाधान कारक उत्तर प्राप्त नहीं होगा तो तुम सब को मृत्यु दंड दिया जायेगा। सभी विद्वान अपने अपने घर जाकर सोच विचार में डूब गये, कुछ आडंबरी तो डर के कारण रात का अंधेरा होते ही राज्य की सीमा से बाहर भाग गये, कुछ डटे रहे पर जब आधीरात तक अर्थ न निकाल पाये तो आधी रात तक भाग गए, बर्रुचि नाम के विद्वान भी आधी रात के बाद भागने बालों में से थे। भागते भागते जब अन्य देश की सीमा थोड़ी दूर रह गयी तो सोचने लगे कि अब तो सूर्योदय के पहले दूसरे राज्य में पहुंच ही जायेंगे अतः कुछ विश्राम कर लेना चाहिए ओैेर एक बट वृक्ष के नीचे आराम करने लगे।
बट वृक्ष पर दो गिद्ध आपस में बात कर रहे थे, बर्रुचि को पक्षियों की भाषा समझ में आ जाती थी, अतः उसने सुना कि एक गिद्ध दूसरे से कह रहा है कि क्या अच्छा होता यदि कल मनुष्यों का मास खाने मिल जाता। दूसरे ने कहा, अरे क्यों चिन्ता करता है कल राजा भोज अपने राज्य में विद्वानों को मृत्यु दंड देने बाला है, हम कल अपनी उड़ान उसी ओर भरेंगे, तुम्हारी इच्छा पूरी हो जायेगी। पहला गिद्ध हंसा और बोला, क्या मजाक करते हो, राजा भोज कभी विद्वानों को मृत्यु दंड दे ही नहीं सकता। दूसरा बोला , अरे तूं क्यों भूल गया, एक माह पहले नर्मदा के किनारे चट्टान बाली गुफा में एक मित्र ने अपने ही गांव के सहपाठी मित्र को कृपाण से मार डाला था। पहले ने कहा मुझे कुछ याद ही नहीं, इस पर दूसरा बोला, उदयपुर के ब्राह्मण परिवारों के दो लड़के गुरु के पास पढ़ने के लिये उज्जयनी गये थे उनमें से एक तो गुरु के पास रह कर पढ़ता रहा परंतु दूसरा बीच में ही छोड़कर भाग आया और डाकू बन गया। अपनी विद्या पूरी कर धन कमाते हुए पहला लड़का बापस अपने घर जा रहा था तो रात्रि में विश्राम करने के लिये गुफा में रुका जहां पर उसका दस्यु मित्र पहले से ही रुका हुआ था। वर्षों बाद एक दूसरे से मिलने के बाद भी दोनों तत्काल पहचान गए और बड़ी ही आत्मीयता से गले मिले। दस्यु से उसका मित्र बोला, तू ने बड़ी ही गलती की जो पूरी विद्या प्राप्त किए विना ही भाग आया, लूट पाट कर तुझे कितना धन मिल पाता होगा, डर कर जंगलों में रहना पड़ता है, अपमानित होना पड़ता है। मैंने दीक्षान्त के पश्चात एक माह में ही इतना कमा लिया है कि एक वर्ष तक कुछ न करूं तो भी कोई कमी न होगी। दस्यु बोला, तुम ठीक कहते हो मित्र, मैंने बड़ा ही अनर्थ कर डाला है पर अब क्या हो सकता है? मित्र बोला , क्यों नहीं , तुम चाहो तो मेरे साथ रह कर विद्या सीख लो और प्रतिष्ठित जीवन जिओ, पर दस्यु बोला मित्र, अब तो यह जंगली जीवन ही ठीक है, अगले जन्म में यदि फिर से तुम्हारा साथ मिला तो जरूर पढ़ूंगा। इस प्रकार बातें करते करते दोनों सो गये। जब दस्यु का मित्र खर्राटे भरने लगा तो दस्यु उठकर उसकी छाती पर जा बैठा और कृपाण निकाल कर मारने को तैयार हुआ ही था कि उसका मित्र जाग गया। वह बोला, यह क्या? तुम मुझे मारकर मेरा धन लेना चाहते हो ? बैसे ही ले लो, मैं तो फिर कमा लूँगा , तुम्हें जब भी आवश्यकता पड़े मैं मदद भी करता रहूंगा , पर जान लेने से तो तुम्हें कुछ भी नहीं मिलेगा। दस्यु बोला, नहीं मित्र, बात धन की नहीं , मेरे पिता की प्रतिष्ठा की है। जब तुम घर बापस पहुंचकर मेरे पिता को बताओगे कि मैं बीच में ही पढ़ाई छोड़कर भाग गया और नर्मदा के जंगलों में दस्यु हो गया हूं तो मेरे पिता को सहन नहीं होगा, वह मुझसे बहुत कुछ आशाएँ रखते थे। इसलिए मैं चाहता हूं कि गांव में किसी को भी न तो तुम्हारे बारे में पता चले और न ही मेरे बारे में , तुम जीवित रहोगे तो सब को सब कुछ पता चल जाएगा, तुम्हें मरना ही होगा। मित्र बोला, अच्छा तुम मुझे मार डालो लेकिन मेरे मरने की सूचना तो मेरे घर भिजवा दोगे? दस्यु बोला यह कैसे संभव होगा, मित्र बोला मैं तुम्हें एक पत्र लिख कर दे देता हूं तुम उसे भिजवा देना। दस्यु ने कहा पहले मैं उसे पढ़ूंगा यदि ठीक लगा तो अवश्य भिजवा दूंगा। मित्र ने ‘‘अ, प्र, शि, ख’’ इन चार अक्षरों का पत्र ज्यों ही दस्यु को दिया तो पढ़ने पर उसे कुछ भी समझ में नहीं आया अतः उसने इस पत्र को मित्र के घर भिजवाने का वचन देते हुए कृपाण के एक ही आघात से उसके प्राण ले लिये।
यह वही पत्र है जो राजा भोज के सभासदों को पढ़ने दिया गया था, परंतु कोई नहीं पढ़ सका है इस कारण राजा ने सभी विद्वानों को कल सुवह होते ही राज सभा में मृत्यु दंड देने की घोषणा की है। बर्रुचि ने गिद्धों की बातें सुनी और तत्काल बापस लौटकर राजा के दरबार में पत्र में लिखे चारों अक्षरों का अर्थ इसप्रकार बताकर इनाम पाया, और बेचारे गिद्ध आशा लगाए दिन भर भूखे बैठे रहे।
‘‘अनेन तव पुत्रं प्रसुप्तस्य वनान्तरे,। शिखा बंधाय वेगेन खडगेन निहितम् शिरः ’’।। अर्थात्, इस प्रकार जंगल में सोते हुए तुम्हारे पुत्र की तेजी से खड्ग मारकर हत्या कर दी गई।
शर्माजी बोले,इसलिये नीति कहती है कि,
दिवां निरीक्ष्य वक्तव्यं, रात्रौ नैव च नैव च। धूर्ताः तिष्ठंति सर्वत्र बटे बर्रुचिर्यथा । अर्थात् दिन में निरीक्षण करने के बाद ही बोलना चाहिये, रात में कभी नहीं, कभी नहीं। धूर्त लोग हर जगह पाये जाते हैं जैसे बट बृक्ष पर बर्रुचि ।
शर्माजी, अपने सब काम निर्पेक्ष रूप से ही करते थे जैसा कि वैरागी पुरुषों के बारे में शास्त्रों में कहा गया है। एक मनोवैज्ञानिक तथ्य यह भी है कि बुजुर्गों के पास बहुत ही अनुभव होता है पर उन्हें कोई न तो सुनना चाहता है और न ही उसे जानने ही की जिज्ञासा प्रकट करता है। इसका फल यह होता है कि उनका बहुमूल्य ज्ञान उन्हीं के साथ चला जाता हैं। शर्माजी जैसे विद्वान कभी भी अपने को प्रचारित नहीं करते, उन्हें तो केवल जिज्ञासुओं की तलाश होती है, ज्योंही सच्चा ज्ञान पिपासु मिल जाता है वे अपना सारा ज्ञान लुटा देते हैं। हमारे देश की परंपरा भी कुछ इसी प्रकार की बनाई गई है कि सुपात्र को ही सद्ज्ञान दिया जाना चाहिए नहीं तो उसके दुरुपयोग करने की संभावना बढ़ जाती है, इसी कारण अनेक विद्वान, सुपात्र की तलाश करते करते अपने ज्ञान के साथ ही चले गये। कभी कभी, गुरुओं ने अपने गुरुत्व को बनाये रखने की महत्वाकांक्षा से पूरा ज्ञान शिष्य को दिया ही नहीं, कुछ न कुछ बचाए रहे और वह उन्हीं के साथ चला गया, इस पद्धति के प्रभाव से ही आज जो भी ज्ञान दिखाई देता है वह अल्प ही कहा जायेगा क्योंकि पूर्णता किसी के पास नहीं देखी गई है। शर्मा जी की यह अपार कृपा का परिणाम ही कहा जाना चाहिए कि उन्होंने मुझे बिना शर्त अपनी जिज्ञासाएं शांत कर पाने का बार बार अवसर दिया।
एक बार शर्माजी से मैंने पूछा, दादा ! (हम लोग उन्हें इसी प्रकार संबोधित करते थे) आप एक एक पैसे का हिसाब रखते हैं, बाजार से कुछ खरीदते हैं तो बड़ा ही मोल भाव करते हैं, दूसरों को ही नहीं संबंधियों को भी कुछ देते समय अनेक बार सोचते हैं, इसका क्या रहस्य है? वह यह सुन कर बड़े ही जोर से हंसे और बोले सुनो, आंखों देखी इस घटना के प्रत्येक पहलु पर ध्यान देना। हमारे गांव के मालगुजार रायबहादुर दयाशंकर अंग्रेजों के जमाने के लखपति कहलाते थे। उनकी कंजूसी के किस्से घरघर में सुनने को मिल जाते थे। अपने लड़के का विवाह उन्होंने अपने से भी कईगुना संपन्न परिवार में किया। लड़की को इनकी कंजूसी के अनेक किस्से ज्ञात थे, पर क्या कह सकती थी, भारत में लड़कियों के विवाह तो अभी भी माता पिता की ही मर्जी से होते हैं, फिर वह तो पुराना जमाना था। खैर शादी के बाद बहू अपनी ससुराल आई, उसके मन में बार बार यही घूमता रहता था कि अब तो एक एक पैसे के लिए तरसना पड़ेगा, क्योंकि पिता की आज्ञा के अनुसार जब जब अपने पति को बाजार से सामान लाने पर एक एक पैसे का हिसाब देेते हुए उसने देखा तो उसके तो प्राण ही सूख गए। उसके मन में अपने मायके की याद आती थी कि जहां कभी भी किसी से कोई हिसाब पूछा ही नहीं जाता विशेषतः उससे। अब वह अपनी मन मर्जी से कुछ भी नहीं कर सकती, क्या ब्यवस्था बनाई है इस समाज ने आदि आदि। कई माह निकलने के बाद उससे नहीं रहा गया और उसने ससुरजी की कंजूसी की परीक्षा लेने का विचार किया। एक दिन सबेरे से ही उसने कहला दिया कि उसे बहुत ही सिर दर्द हो रहा है अतः कोई्र भी ज्यादा बात न करे , आराम करने पर वह ठीक हो जायेगा। दयाशंकर जब दोपहर को खाना खाने बैठे और बहु खाना परोसने नहीं आई तो कारण पूछा, बताया गया कि उसका सिर दर्द कर रहा है इस लिए आराम कर रही है। उन्होंने तत्काल नगर के बड़े से बड़े वैद्य को बुलाया और इलाज चालू किया पर शाम हो गई कोई फायदा नहीं , ससुर जी बार बार पूंछते क्यों बेटा अब दर्द कैसा है? मगर हर बार वही उत्तर मिलता, पिता जी कोई भी फायदा नहीं। दूसरा दिन भी पूरा हो गया पर स्थिति न सुधरी दयाशंकर बड़े ही परेशान-- पर कोई उपाय ही न सूझता, क्या करें, क्या न करें? आखिर उन्होंने बहु से ही पूंछ लिया कि क्या ऐंसा दर्द पहले भी हुआ है? वह बोली हां हुआ था। तब किस दवा से दूर हुआ था? उसने जबाब दिया कि उस समय मेरे पिताजी ने अनबेधे मोती पीसकर माथे पर लगाये थे, दो घंटे में ठीक हो गया था। दयाशंकर तत्काल अंदर गये और टोकनी में अनबेधे मोती भर लाए। अपने हाथ से ही सिल पर रखकर पीसने को तैयार हुए ही थे कि बहु ने उठकर उनका हाथ पकड़ लिया और कहने लगी कि अब दर्द ठीक हो गया, रहने दीजिए। वे बोले अरे अभी तो लेप लगाया ही नहीं है फिर दर्द कैसे दूर हो गया? वह बोली, मुझे क्षमा करे, मै आपके कंजूसी के किस्से सुन सुन कर बड़ी ही परेशान थी पर आपने आज यह सिद्धकर दिया है कि आप किसी भी प्रकार कंजूस नहीं हैं, आप की तरह सहृदयता विरलों में ही होती है। दयाशंकर बोले बेटा, एक एक पैसा इसलिये बचाया जाता है कि समय आने पर उसे पानी की तरह बहाया जा सके। बिपत्ति के समय अपने पास जो कुछ होता है वही काम आता है, दूसरों से कुछ प्राप्त नहीं हो पाता, यदि मिलता भी है तो उधारी की चिन्ता और उपकार का बोझ। मेरी कोई कितनी ही हंसी क्यों न उड़ाये मैं उससे प्रभावित नहीं होता हूं। मैं तो सभी को यही सिखाता हूं कि व्यर्थ खर्च मत करो, हमेशा कुछ न कुछ बचाते रहो ताकि जरूरत के समय किसी से मांगना न पडे़ औेर पानी की तरह बहाकर आसन्न संकट से बचा जा सके।
वैसे तो शर्माजी के पास अनेक मूल्यवान अनुभवों का खजाना था परंतु मैं अपने सीमित समय में उनके सान्निध्य से बहुत कम ही बटोर पाया। फुल्लु के पड़ौस में रहने वाला एक लड़का पाॅंचवी कक्षा में फेल होगया, वह बहुत ही निराश होकर तीन चार माह बाद भी अपने फेल होने का दुख मना रहा था, उसके माता पिता भी उसे समझाते पर वह बार बार यही सोचता कि मैं अपने साथियों से पिछड़ गया। फुल्लु ने उसे बार बार समझाते समझाते, एक बार गुस्से में कह दिया, बड़े मूर्ख हो पहले पढ़ लेते तो पास क्यों न होते ,अब बार बार यही सोच सोचकर समय नष्ट करते हो, अब फिर फेल हो जाओगे। यह सुनकर लड़का बहुत रोया इतना कि माता पिता भी चुप न करा सके, किसी से वह कुछ न कहता कि रोने का कारण क्या है। मामला शर्माजी तक पहुॅंचा, लड़के ने उन्हें बताया कि फुल्लु भैया ने उसे मूर्ख कहा है और यह भी कि वह फिर से फेल हो जावेगा। क्या मैं सचमुच मूर्ख हूँ ? शर्मा जी ने उसे राजा भोज की कहानी सुनाई। वे बोले, एक बार राजा भोज की पत्नी अर्थात् रानी अपने भाई के साथ बैठकर अपने मायके की बातों में तल्लीन थी कि राजा ने अचानक वहाॅं पहुॅंचकर पूॅंछ लिया, क्या बात है? रानी ने राजा भोज से कहा, तुम बड़े मूर्ख हो। राजा ने उनसे तत्काल कुछ नहीं कहा और वे मन ही मन सोचते रहे कि वह कौन सी गलती है जिस पर रानी ने मुझे मूर्ख कहा जबकि सारा राज्य ही नहीं अन्य राज्यों के राजा और नागरिक मेरी विद्वत्ता के उदाहरण देते हैं। राजा को कोई कारण नहीं मिला जिस पर रानी का कथन जाॅंचा जा सके और सत्यता का पता लग सके। प्रातःकाल जब सभा प्रारंभ होने का समय आया तो वह निर्धारित समय के पहले ही राज्य सभा में अपनी आसन पर जा बैठे, तब तक बहुत कम लोग ही उपस्थित हुए थे। राजा के सभा में पहुंचने की खबर मिलते ही विद्वान सभासदों ने दौड़ लगाकर जल्दी से जल्दी पहुॅंचना प्रारंभ कर दिया। ज्यों ही कोई विद्वान कक्ष में प्रवेश करता, राजा को देखकर प्रणाम करने की मुद्रा में होता कि राजा उसे कहते.. मूर्ख..। यह क्रम लगातार जारी रहा और आने वाले सभी विद्वानों को राजा उसी प्रकार मूर्ख कह कर चुप हो जाते और आगन्तुक सभासद चुपचाप अपने स्थान पर वैठ कर आश्चर्य करते, आपस में फुसफुसाते कि आज राजा को क्या हो गया है जो सभी को मूर्ख कह रहे हैं। इसी क्रम में कालीदास नाम के एक सभासद ने प्रवेश किया और राजा ने उनसे भी उसी प्रकार मूर्ख कहा, सुनते ही कालीदास ने कहा...
‘‘ गतम् न सोचामि कृतम् न मन्ये, खाद्यम् न गच्छामि हसम् न जलपे। द्वाभ्याम् तृतिया न भवामि राजन, किंकारणे भोज भवामि मूर्खः।‘‘अर्थात् जो बीत चुका है उसका मैं चिंतन नहीं करता, अपने किये गये कार्य को महत्व नहीं देता, खाते खाते चलता नही, पानी पीते हॅंसता नहीं, दो लोगों के बीच में तीसरा नहीं होता फिर हे राजा भोज! मैं किस प्रकार मूर्ख हुआ?
शर्माजी बोले, राजा को उनकी त्रुटि का पता चल गया और कालिदास को धन्यवाद देकर वे रानी के पास गये और अपनी त्रुटि के लिये उनसे क्षमा माॅंगी। अब तुम्हें अपनी गलती समझ में आई? वह लड़का बोला नहीं। शर्माजी वोले, कालीदास ने क्या कहा कि बीती बातों को बार बार सोचने वाले क्या होते हैं? उसने कहा मूर्ख। शर्माजी ने कहा तुम क्या कर रहे हो? बार बार अपने फेल होने की बात सोचकर अपना समय बरबाद कर रहे हो तो क्या मूर्ख नहीं हुए? यही समय बचाकर यदि पढ़ने में मन लगाओ तो तुम अबकी बार प्रथम श्रेणी में पास हो सकते हो। इसलिये सब कुछ भूल कर पढ़ने लिखने के वारे में ही सोचा करो। लड़का चुप होकर अपनी गलती पर पछताया और पढ़ने मैं मन लगाने लगा। इस जमाने में शर्माजी जैसे सरल प्रेरक विद्वान कम ही दिखाई देते हैं।
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