Monday, 29 June 2015

4 - भिखारी कौन?

4 - भिखारी कौन?
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तत्वेश  और नित्येश  अपने अपने सपनों को पूरा करने हेतु उच्च अध्ययन करने के लिये गाॅंव से शहर आकर विश्वविद्यालय में अध्ययन करने लगे। दोनों ने बहुत पराक्रम किया और योग्यता के अनुसार तत्वेश  अपने पिता के व्यवसाय को सम्हालने लगा  और नित्येश  करने लगा सरकारी स्कूल मेें शिक्षक की नौकरी।
समय समय पर दोनों मिलते और अपनी अपनी उपलब्धियों की चर्चा करते। तत्वेश  कहता इस वर्ष उसे व्यवसाय में लाखों का लाभ हुआ है इससे अब एक और फेक्टरी प्रारंभ कर रहा हॅूं, नित्येश  कहता इस वर्ष मेरे सभी छात्र अच्छे अंकों से पास हो गये, चार का इंजीनियरिंग और एक का मेडीकल कालेज में चयन हो गया, ...आदि आदि...।
अबकी बार दोनों अनेक वर्षों के बाद मिले जब तक दोनों के बाल बच्चे भी अपने अपने काम में लग चुके थे , नित्येश  रिटायर होकर नाती पोतों को सुसंस्कारों की शिक्षा देता और समाज के हितकारक कामों में अपना समय व्यतीतकर आनन्दित रहता और तत्वेश  भी अपने पोते पोतियों को नये नये प्रोजेक्ट समझाने और आर्थिक लाभ कमाने के उपायों पर निर्देशन करता ।  मिलने पर तत्वेश  ने नित्येश  से कहा- नित्येश ! इतना अधिक समय बीतने के बाद भी तू तो फटीचर का फटीचर ही रहा, मैंने, देख ! एक फेक्टरी से दस बना डाली और अनेक प्रोजेक्ट विचाराधीन हैं, अरबों की प्रापर्टी है, अभी इसी वर्ष न्यूयार्क में एक होटल प्रारंभ कर रहा हॅॅंू ... और अपनी विभिन्न इच्छाओं का बखान करता रहा....।
नित्येश  ने कहा, यार तू तो इतना सब पाकर भी, अभी भी बहुत ही गरीब भिखारी जैसा है, जिसकी इच्छायें कभी समाप्त होने का नाम ही नहीं लेती वरन् बर्षाऋतु की नदियों की भाॅंति हमेशा  उफनाती रहती हैं और वे कभी भी तृप्त नहीं होतीं।


3 बाबा की क्लास (अस्तित्व का साक्ष्य)

3 बाबा की क्लास (अस्तित्व का साक्ष्य)
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कल आपको, मैंने कुछ लोगों से आत्मा के संबंध में चर्चा करते सुना; बाबा! आत्मा किसे कहते हैं? 
वह कहाॅं रहता है? राजू ने पूछा।

- वह जो तुम्हें तुम्हारे होने का साक्ष्य देता है।  वह तुम्हारे भीतर ही रहता है।

- इसका मतलब क्या है?

- अच्छा तुम हो कि नहीं?

- हाॅं मैं विलकुल हॅूं । इसमें क्या संदेह है?

- तो तुम यह बताओ कि तुमने यह कैसे अनुभव किया कि तुम हो?

- वैसे ही जैसे सब करते हैं।

- वही तो मैं जानना चाहता हॅूं कि सब कैसे अनुभव करते हैं कि वे हैं? उनका अस्तित्व है?

- पारस्परिक सापेक्षता से।

- ठीक कहा। यदि अन्य कोई भी न हों तो कैसे जानोगे?

- कुछ नहीं कह सकता।

- केंचुआ जानता है कि वह केंचुआ है। पेड़ जानता है कि वह पेड़ है। पर सूर्य नहीं जानता कि वह सूर्य है। जबकि सूर्य से ही ऊर्जा पाने वाले हम सब सूर्य के बारे में बहुत कुछ जानते हैं और जानने की कोशिश  कर रहे हैं। किसी को उसके अस्तित्व का बोध और साक्ष्य देने वाली सत्ता को ही जीवात्मा कहते हैं। हम इसे भूलकर, अन्य सब याद रखने और पाने के प्रयास में , अनेक जन्मों तक आवागमन के चक्र में भटकते हुए  कष्ट पाते रहते हैं।

Friday, 26 June 2015

2 ‘‘जहाँ न पहुंचे रवि वहां पहुंचे कवि‘‘

2 ‘‘जहाँ न पहुंचे  रवि  वहां पहुंचे कवि‘‘
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चित्रकला के प्रेमी एक राजा ने सभी जगह घोषणा करा दी कि जो सबसे अच्छी चित्रकला का प्रदर्शन करेगा उसे राज्य सम्मान के साथ मनमाना इनाम दिया जायेगा।  अनेक स्तरों पर प्रतियोगिता से निकलकर दो चित्रकार मिले जिनमें से सर्वश्रेष्ठ का  निर्णय राजा के सामने किया  जाना था।
राजा ने एक बड़े हॉल को बीचों बीच में मोटे परदे से दो भागों में बाँट कर  दोनों को अपना अपना भाग दे दिया और कहा जो भी सामग्री चाहिए हो भंडार गृह से ले सकते हो।  दोनों को निर्धारित समय में अपनी चित्रकारी दीवारों पर करना थी बिना किसी की ओर देखे , इसलिए चैबीसों  घंटे का कड़ा पहरा  बैठाया गया।
दोनों चित्रकारों में से एक का नाम था रवि और दूसरे का कवि। रवि ने अनेक प्रकार के रंग, ब्रश उपकरण, और सहायक सामग्री एकत्रित की और अपने काम में जुट गया।  कवि ने केवल दीवारों को साफ और चिकना बनाने के लिए मामूली से उपकरण मात्र,  भण्डार गृह से लिए और वह भी अपने काम में जुट गया।
समय पूरा होने के बाद मूल्यांकन के लिए राजा स्वयं अन्य विशेषज्ञों के साथ आये। सबसे पहले राजा और निर्णायकों ने  रवि की चित्रकारी देखी क्योंकि रवि की तारीफ अनेक अन्य राजा भी कर चुके थे।  चित्रकारी देख सभी वाह वाह कर उठे।  कुछ  निर्णायकों ने तो यह तक कह दिया कि ‘‘वाह !  भूतो न भविष्यति ‘‘ अब और कुछ देखना समय नष्ट करना ही है , यही सर्वश्रेष्ठ  है।  परन्तु नियमानुसार दूसरे चित्रकार की कला का भी निरीक्षण करना था,  इसलिए   कवि के कक्ष में जाने के लिए राजा के  आदेश पर बीच का पर्दा हटा दिया गया।
राजा और अन्य निर्णायकों  ने जब कवि की कला  को देखा तो सबकी आँखें खुली की खुली रह गयीं।  सब एक साथ कह उठे , आश्चर्य ! अद्भुद ! अद्वितीय। क्योंकि बिलकुल वैसी ही चित्रकारी कवि की दीवारों पर थी जैसी रवि ने अपनी दीवारों पर की थी। रवि ने  अनेक रंग और उपकरणों का उपयोग किया था जबकि  कवि ने कोई रंग  या अन्य सामग्री ली ही नहीं थी पर वे सभी रंग उसकी भी दीवारों पर थे जो रवि ने प्रयोग में लिये  थे।
  हुआ यह था कि कवि ने दीवारों को इतना घिसा की वे दर्पण की तरह चमकने लगीं और सामने आने वाली वस्तु का प्रतिविम्ब दिखलाने लगीं। राजा ने कवि की कला को सर्वोत्कृष्ट घोषित कर दिया , सब कह उठे  ‘‘जहाँ न पहुंचे  रवि  वहां पहुंचे कवि‘‘
    स्वामी रामतीर्थ प्रायः यह कहानी सुनाकर कहा करते थे कि वह परमसत्ता हमारे भीतर बाहर चारों ओर है , पर हमारे मन पर संस्कारों की  इतनी गंदगी चिपकी हुई है कि उससे ईश्वरीय  तरंगें परावर्तित ही नहीं हो पाती इसलिए वह दिखाई  नहीं देता।  यदि कवि की तरह मन की दीवार की गंदगी को साफ कर चमका लिया जाय तो तत्काल उसे देखा जा  सकता है। 

Sunday, 21 June 2015

मित्रो ! 
अभी तक ‘‘ आद्यान्तिका ‘‘ के क्रमागत आठों सेक्सन्स  में आप ने मनुष्य जीवन की विज्ञान और आध्यात्म सम्मत सैद्धान्तिक और व्यावहारिक जानकारी पाई। इस आधार पर ही मैंने जीवन को ‘जीने का विज्ञान‘ अर्थात् साइंस आफ लिविंग‘ कहा है । संसार के अधिकांश  देशों  में रहने वाले जिज्ञासु मित्र इसे  पढ़कर लाभान्वित हो रहे हैं। इस ग्रंथ से संबंधित संदर्भ सूत्रों में विचाराधीन तथ्यों की जैसी व्याख्या विद्वानों ने प्रस्तुत की है उसे संस्कृतनिष्ठ शब्दों  में विना मौलिकता दूषित किये यथावत् रखे जाने के लोभ से, किन्हीं किन्हीं मित्रों को भाषा की क्लिष्टता से असहजता अनुभव हुई है जिसका खेद है। 
मेरा मानना है कि सत्य को अनेक प्रकार से प्रकट किया जाता रहा है और भाषाओं की अनेकता और व्याख्याओं को सरल बनाने की चेष्टा में सत्य का मूल स्वरूप अद्रश्य  हो गया और शब्दजाल में भ्रमित होते लोग हमारे अनुसंधानकर्ता़ ऋषियों की उपलब्धियों को अव्यावहारिक मानकर आध्यात्म से दूर भागने लगे। इस त्रुटि को मैं दुहराना नहीं चाहता हॅूं अतः अभी तक मौलिक तथ्यों पर आप का ध्यान केन्द्रित करने ही चेष्टा की है परंतु अनेक मित्रों का आग्रह है कि कठिन बातों के मूल रूप को परिवर्तित न करते हुए यदि लघु कहानियों को आधार बनाकर समझाया जाये तो सभी प्रकार के पाठकों को अधिकाधिक लाभ मिल सकेगा। अतः अब, आप चयनित किये गये महत्वपूर्ण परंतु कठिन प्रतीत होंने वाले तथ्यों को छोटी छोटी कहानियों के रूप में  अगली पोस्ट्स में पढ़ सकेंगे । कहानियों का यह क्रम आज से ही प्रारंभ किया जा रहा है। आशा  है यह प्रयास आपको पसंद आयेगा। 
प्रस्तुत है आज की कहानी ----
(1)         असली होली नकली होली 
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एक सेवानिवृत्त फिजिक्स के प्रोफेसर के घर, आसपास के आठ दस लड़के जिनमें तीन चार उच्छृंखल भी थे , होली का चंदा मांगने आये ।  प्रोफेसर ने सब को अपनी गृह वाटिका में विठाया और समझाने लगे - आपलोग होली का असली अर्थ जानते हैं? लड़कों ने अपने अपने ढंग से वही पौराणिक किस्से सुनना प्रारम्भ किये,  कुछ बोले यह तो रंगों का त्यौहार है, आदि।  प्रोफेसर बोले नहीं , ये सब तो काल्पनिक  किस्से हैं सच्ची बात जानना हो तो सुनो -  देखो !  
- भौतिकवेत्ता  (physicist) कहते हैं कि किसी भी वस्तु का अपना कोई रंग नहीं होता , सभी रंग प्रकाश के ही होते हैं।  प्रकाश तरंगों की विभिन्न लम्बाइयां (wave lengths) ही रंग प्रदर्शित करती  हैं। जो वस्तु प्रकाश की जिन तरंग लम्बाइयों को परावर्तित करती है वह उसी रंग की दिखाई देती है अतः यदि कोई वस्तु प्रकाश विकिरण की  सभी तरंग लम्बाइयों को परावर्तित कर दे तो वह सफ़ेद और सभी को शोषित कर ले तो काली दिखाई देती है।सफ़ेद और काला  कोई पृथक  रंग नहीं हैं।   
- मनोभौतिकी विद (psycho physicist) कहते हैं कि मन के वैचारिक कम्पनों से बनने वाली  मानसिक तरंगें (psychic waves) भी व्यक्ति के चारों ओर अपना रंग पैटर्न बनाती हैं जिसे "आभामण्डल  " (aura) कहते हैं। अनेक जन्मों के संस्कार भी इसी पैटर्न में विभिन्न परतों में संचित रहते हैं और पुनर्जन्म के लिए उत्तरदायी होते हैं।   
 - मनोआत्मिक  विज्ञानी  (psycho spiritualists)  इन तरंगों ( wave patterns) को वर्ण (color) कहते हैं।  यह लोग यह भी कहते हैं कि जिस परमसत्ता (cosmic entity) ने यह समस्त ब्रह्माण्ड निर्मित किया है वह अवर्ण (colorless) है परन्तु इस ब्रह्माण्ड में अस्तित्व रखने वाली सभी वस्तुओं के द्वारा प्रकाश तरंगों के परावर्तन करने के अनुसार ही  वर्ण (color) होते हैं क्योंकि ये सब उसी परमसत्ता की विचार तरंगें ही हैं।  अतः यदि उस परमसत्ता को प्राप्त करना है तो स्वयं को अवर्ण  बनाना होगा।  इसी सिद्धांत का पालन करते हुए अष्टांगयोगी प्रतिदिन अपनी त्रिकाल संध्या में  इन वर्णो को मनन, चिंतन ,कीर्तन और निदिध्यासन की विधियों द्वारा उस परमसत्ता को सौंपने का कार्य करते हैं जिसे वर्णार्घ्य दान कहते हैं। बोलचाल की भाषा में वे इसे ही असली होली खेलना कहते हैं। 
समझे ?

हम लोगों ने काल्पनिक कहानियों के आधार पर कैसी विचित्र परम्पराएँ बना ली हैं कि होली के नाम पर एक दूसरे पर कीचड़ /रंग फेकते हैं , अकथनीय अपशब्द कहकर मन की भड़ास निकलते हैं और कहते हैं कि "बुरा न मानो होली है", होली के लिए चंदा बटोरकर रोड के बीचोंबीच टनों लकड़ियाँ  जलाकर कभी न सुधर पाने वाले रोड ख़राब तो करते ही हैं वातावरण में कार्बनडाई ऑक्साइड  मिलाकर प्रदूषण फैलाते हैं , तथाकथित रंगों / कीचड़ भरे शरीर और कपड़ों को धोने में पानी और समय भी नष्ट करते  हैं।  
यह सब गलत है कि नहीं बोलो?

इतना बोलना ख़त्म ही नहीं हुआ था कि दो उद्दंडी  लड़के आगे आये और जेब में रखे रंगों के पेकेट खोलकर प्रोफेसर का मुह और वस्त्रों को रंग से यह कहते हुए पोत डाला कि आप योगियों की होली मनाओ हम तो भोगी हैं हमें अपने ढंग से होली मानाने दो  ? …
और "होली है, होली है" कहते शोर मचाते लड़के भाग खड़े हुए और प्रोफेसर साब ----? ? ?  
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Thursday, 4 June 2015

8-10 मन्तव्य ( अन्तिम भाग )


 मन्तव्य ( अन्तिम  भाग )

साधना करने की प्रणाली का अभ्यास सक्षम गुरु के द्वारा इस प्रकार कराया जाता है कि वह अतीन्द्रिय रूप से मन को जड़ पदार्थों की ओर जाने से रोक देता है और भौतिक पदार्थों की चाह समाप्त हो जाती है। कुछ लोग सोचते हैं कि साधना करने पर भौतिक आनन्द और सुख सुविधाएं छिन जायेंगी उनका यह विचार अविवेकपूर्ण है और वे जो इन सुख सुविधाओं को जीवन का आवश्यक अंग मानते हैं वे भी गलती करते हैं।
जिन्हें उचित गुरु नहीं मिल पाते या जो इस प्रकार के सिद्धान्त में विश्वास न कर केवल इसी जीवन को ही सब कुछ मानते हैं वे जीवन मृत्यु के चक्र में अपने संस्कारोें के वशीभूत होकर एक जन्म से दूूसरे में आते जाते रहते हैं। अगला जन्म मनुष्य का मिलेगा या नहीं उसके संस्कारों पर निर्भर करता है अतः कर्म और कर्म फल के सिद्धान्त के अनुसार वे अपने संस्कारों के भोग के लिये अनुकूल शरीर की तलाश  में भटकते रहते है। इस प्रकार वे मनुष्येतर प्राणियों में वापस जाकर भी अपने संस्कार भोगते हैं। यह संसार उस परमसत्ता के एक से अनेक होने की, कल्पना तरंगों का समूह है और हम इन तरंगों के विभिन्न पैटर्न हैं जो परमपुरुष अर्थात् मूल बिंदु (origin) से सापेक्षिक होने के कारण परस्पर वास्तविक लगते प्रतीत होते हैं। परमपुरुष की यह कल्पना अभी तक कभी की समाप्त हो जाना चाहिये थी पर यह सापेक्षिक संसार इसलिये चलता जा रहा है क्यों कि उचित मार्गदर्शन  के अभाव में  स्वार्थवश  मनुष्य बार बार यहीं भटकते रहना चाहते हैं और कुसंस्कारों में दबकर पेड़ पौधों और पत्थरों के रूप में बने रहना चाहते हैं। कहा गया है कि ‘‘ स्वागमै कल्पतैः त्वं च जनान्मद्विमुखान कुरु, माॅंचगोपय येन स्यात् स्रष्टिरेषोत्तरोत्तरा।‘‘ लोगों ने अपनी अपनी कल्पना के अनुसार, संस्कारों के भोग के लिये और इस भौतिक जगत की विभिन्न वस्तुएं पाने के लिये, अनेक देवताओं की कल्पना कर उनकी पूजा करना प्रारंभ की । यह तथाकथित देवता भी उन्हीं के स्वभाव वाले अर्थात् नारियल और अगरबत्ती के भूखे, उन्हें यहीं भटकाये हुये हैं इसीलिये यह संसार चलता जा रहा है। सोचने की बात है कि जिस परमसत्ता ने इस संसार की सभी वस्तुएं और जीवधारी बनाये हैं उसे इन चीजों और तुम्हारे रत्नों की आवश्यकता ही क्या है? फिर भी धनाड्य लोग सोचते हैं कि तथाकथित उनके धन का प्रसाद पाकर, सोने के मुकुट और पादुकायें पहिन कर भगवान की मूर्ति उन्हें मुक्ति मोक्ष दे देगी या संसार कर राज्य दे देगी, यह कितना हास्यास्पद है? संसार में प्रचलित सभी मतों में यह निर्विवाद स्वीकृत है कि परम सत्ता को केवल शतप्रतिशत आत्मसमर्पण प्रिय है, जिसने भी थोड़ा सा भी अपने पास बचाकर रखना चाहा वह यहीं भटकता रहा, वह उन्हें कभी नहीं देख पाया। और, संपूर्ण आत्मसमर्पण की विधि महाकौल (आत्मसाक्षात्कारी गुरु) से ही प्राप्त की जा सकती है अन्य किसी से नहीें क्योंकि, वे ही इस संसार में रहते हुए भी मुक्त होते हैं, संसार के कल्याण के लिये ही अपने संकल्प से कुछ समय के लिये संस्कार शून्य शरीर को बनाये रखते हैं और फिर अपने स्वरूप में चले जाते हैं । आदर से तंत्र में उन्हें तारक ब्रह्म या महासम्भूमति कहा गया है।

संसार के अनेक विद्वानों ने समय समय पर अपने अपने ढंग से उस एक ही अकथनीय, अवर्णनीय , अद्रश्य  और अपरिमाप्य अखंड चिदैकरस परम सत्ता का वर्णन करने के लिये प्रयास किया है, किसी ने शव्दों के माध्यम से या लच्छेपुच्छे दार भाषा से , किसी ने सिद्धान्तों  और शास्त्रों की व्याख्या से, किसी ने यौगिक क्रियाओं से। इसीलिये यह कहा गया है कि ‘‘ एको सत् विप्राः वहुधा वदन्ति‘‘। कुछ लोग व्याख्यानों और शब्दजाल से जनमानस को लुभाकर स्वार्थ सिद्धि करते भी देखे गये हैं , वर्तमान में तो यही हो रहा है। इन लोगों की विद्वत्ता आपनी शास्त्रार्थ क्षमता के प्रदर्शन  तक तो उचित है पर इससे उन्हें मुक्ति मोक्ष नहीं मिल सकता । कहा गया है कि ‘‘ वाक् वैखरी शव्दझरी शास्त्र व्याख्यान कौशलम, वैदुष्यम विदुषाम तद्वत भुक्यते न तु मुक्तये‘‘। अतः इस प्रकार के लोगों से सावधान रहना चाहिये। उतना ज्ञान अवश्य  प्राप्त कर लेना चाहिये जिसके अनुसार आचरण करते हुए आत्मसाक्षात्कार संभव हो सके और यह कार्य महाकौल गुरु के माध्यम से ही संभव है जैसा कि ऊपर बताया गया है। वित्तहर्ता गुरु तो अनेक मिल जायेंगे पर चित्तहर्ता गुरु मुश्किल  से मिल पाते हैं, जिन्हें चित्तहर्ता गुरु मिल गये उन्हें ईश्वर  प्राप्ती में देर नहीं लगती। एक बात यहाॅं स्मरणीय यह है कि ईश्वर  प्राप्त करने  के लिये विभिन्न डिग्रियाॅं किसी काम की नहीं होती केवल मनुष्य शरीर में शुद्धान्तःकरण का होना ही पर्याप्त होता है।


सत्यद्रष्टा ऋषियों ने अनुभव किया है कि यदि किसी का अस्तित्व है तो केवल एक ही परमसत्ता का है जिसे हम दार्शनिक  रूप से परमब्रह्म , परमपुरुष , परमात्मा आदि नामों से पुकारते हैं। अन्य सभी का अस्तित्व सापेक्षिक है , टाइम और स्पेस से बंधा है इसलिये सीमित है । परमसत्ता वह है जो टाइम और स्पेस पर नियंत्रण करता है अतः भौतिक संसार के पृथ्वी, सूर्य सहित अनेक गेलेक्सियां और ब्रह्माॅंड आदि सभी उसकी कल्पना की तरंगे हैं जिन्हें हमने पृथक अस्तित्व मानकर भेद पैदा कर लिया है और अपना अपना संसार बनाकर ‘‘क्रिया प्रतिक्रिया नियम‘‘ में बंधकर ब्रह्म चक्र में घूमने को विवश  हो गये हैं। कुछ लोग भौतिक जगत के बहुमूल्य पदार्थों जैसे सोना, चाॅंदी, हीरे आदि को बटोर कर अपने अस्तित्व के स्थायी बनाने के प्रयास करते पाये जाते हैं पर वे कितनी गलती करते हैं यह तब पता लगता है कि उनकी बटोरी हुई बहुमूल्य वस्तुयें  सब यहीं पड़ी हैं पर वे स्वयं कहाॅं हैं इसका कुछ अता पता नहीं है। कुछ तो इससे भी आगे निकलकर अपनी अपनी कल्पना के भगवानों को मंदिरों में मूर्तियों के आकार में बैठा कर उन्हें ये मूल्यवान वस्तुएं भेंट कर याचना करते हैं कि उनका अस्तित्व सदा बना रहे पर यह भूल जाते हैं कि जिसके सोचने मात्र से इन सब का निर्माण हुआ है उसे इन सब की आवश्यकता ही क्या है। शायद वे यह मानते हैं कि वे परम सत्ता को लोभ लालच देकर अपना काम करा लेंगे जैसा वे स्वयं करते रहे हैं। क्या यह संभव है?


उस परम सत्ता की अद्वितीयता अनुभव कर हम उन्हें सदैव स्मरण करते हैं, बार बार अपनी तुच्छता का अनुभव करते हुए अपनी सीमित सोच कि ‘हम उनसे पृथक हैं‘ के परिणामों पर लज्जित होते हुए अपने आप को उन्हें ही भेंट करना चाहते हैं, बस उनकी पूजा करने का यही उद्देश्य  होता है दूसरा नहीं। ब्रह्म के इस गुण का सच्चे भक्त लाभ ले लेते हैं कि ‘‘ ब्रहत्वाद ब्रह्म, ब्रंहणत्वाद ब्रह्म‘‘ अर्थात् ब्रह्म विराट हैं और उनका चिंतन करने वालों को भी वे विराट ही बना देते हैं। जैसा सोचोगे वैसा ही हो जाओगे इसलिये केवल उन्हीं के बारे में सोचो, ‘‘बाबा नाम केवलम्‘‘, बाबा का अर्थ है सर्वाधिक प्रिय, सर्वाधिक निकट अर्थात् परमपुरुष। उनकी प्रशंसा और स्तुति कर भौतिक सुविधाओं की याचना करना क्या यह प्रकट नहीं करता कि यह करके वह सिद्ध कर रहे हैं कि परम सत्ता ने उनके साथ न्याय नहीं किया, उन्हें कम सुविधायें दी अन्यों को उनसे अधिक? सच्चाई यह है कि सबके लिये उन्होंने पात्रता के अनुसार इतना अधिक दिया है कि जीवन भर वे उसका दुरुपयोग ही करते हैं। सर्वाधिक मूल्यवान मानव शरीर दिया है फिर भी वे पशुओं जैसा जीवन जीने में ही आनन्द पाते हैं इसे क्या कहेंगे? बार बार हम उनका नाम  इस लिये स्मरण करते हैं कि हम अपने मूलस्वरूप को अनुभव करते हुए उसमें वापस पहुंच जावें, साधना पूजा का यही अर्थ है और मनुष्य जन्म मिला ही इसीलिये है।


हमारे पूर्वज महापुरुषों में से जिन्होंने आत्म साक्षात्कार किया है, यह स्पष्टतः कहा है कि उस परम सत्ता को तत्वतः कोई नहीं जान सकता पर वह है अवश्य । अपने अनुभव और ज्ञान के आधार पर उन्होंने यह भी कहा है कि उसे वाणी से नहीं बताया जा सकता, भाषा वहाॅं गूंगी हो जाती है फिर भी एक बार जिसने उसका थोड़ा सा भी आभाष  पा लिया है वह उसके बिना एक क्षण भी नहीं रह सकता। आखिर वह क्या है, कैसा है, जो इतना आकर्षक है कि उसके बिना रहा नहीं जाता? कुछ लोग इसके उत्तर में चुप रह जाते हैं कुछ लोग कहते हैं कि वही हमारे प्राण हैं, वही जीवन के जीवन हैं, हमारे वास्तविक स्वरूप वही हैं उनके बिना कैसे रहें? मेरी, पिछले लगभग पचास वर्षों की इस खोज यात्रा के दौरान जीवन धारा के प्रवाह मार्ग में विद्या और अविद्या के विक्षोभों से अनेक बार ऐसे अवसर आये हैं कि जब लगता था कि अब जीवन शून्य होने वाला है, या उछलकर कहीं अन्यत्र ही जाने वाला है, पर वह कौन था जो एक हाथ को पकड़े हमेशा  सुरक्षित आधार उपलब्ध कराता रहा? इन सबका अध्ययन चिंतन और मनन करने के बाद यही कहा जा सकता है कि यह वही था जिसे कोई आज तक देख ही नहीं पाया, वही था जिसे ऋषियों ने अलखनिरंजन कहा है, वही जिसकी व्याख्या करते वेद नेति नेति करने लगते हैं, वही जिसकी हलकी सी झलक पाने के लिये ब्रह्मचारी आचार्यगण अपने जीवन को दाव पर लगा देते हैं, वही जिसके विचार मात्र से हृदय की धड़कने तेज हो जाती हैं और आॅंखें निर्झर की तरह झरने लगती हैं, यह वही था जिसकी याद में भूख प्यास ,ग्रीष्म शीत, सुख दुख, हानि लाभ सब कुछ भूल जाते हैं। और अब तो मैंने भी अपने दूसरे हाथ से, उसको जोर से जकड़ लिया है। अब, इस प्रकार मुझे उसके कार्य के अलावा अपना व्यक्तिगत कोई कार्य नहीं है। इस संसार को एक फिल्म रील की तरह ही अनुभव करता हॅूं जो लगातार अनेक चलमान द्रश्यों  को क्रमशः  गतिशील बनाये हुए है। अब यदि मुझे कोई अहंकार है तो केवल यही कि मैं उसी परम सत्ता की विचार तरंगों का ही भाग हॅूं जैसे अन्य भी हैं और ब्रह्माॅंड की अनन्त यात्रा में सहभागी हैं। जीवन के शेष समय में, अनन्त ज्ञान के कुछ अंश  को पाकर ही अब उसे व्यावहारिक रूप देने में लगा हॅूं क्योंकि यदि उसे उपयोग में नहीं लाया तो इतना परिश्रम व्यर्थ ही चला जायेगा। भौतिक जगत की परीक्षाओं को पास करने के लिये न्यूनतम 33 प्रतिशत उत्तीर्णांक  प्राप्त करने की अनिवार्यता है पर महापुरुष गण कहते हैं कि आध्यात्मिक जीवन की परीक्षा में 100 प्रतिशत अंक  प्राप्त करने पर ही उत्तीर्ण हो पाते हैं। इस तरह लगता है कि मैं तो कभी पास ही नहीं हो पाऊंगा, पर जब मैंने दोनों हाथों से उन्हें पकड़  रखा है तो यह नहीं हो सकता कि वह झटक कर मेरे हाथ छोड़ दें. क्योंकि यदि वह ऐसा चाहते तो मेरा हाथ उन विषम परिस्थितियों में भी क्यों पकड़े रहे? इसलिये इतना तो अवश्य  है कि उनके पास कृपाॅंकों का जो आरक्षित कोटा है वह मेरे लिये ही है, और मैं यही चाहता हॅूं कि वे मुझ पर अहैतुकी कृपा ही करें। तव तत्वम् न जानामि कि द्रशोसि  महेश्वरा , या द्रशोसि महादेव ताद्रशाय नमो नमः।

Monday, 1 June 2015

8-10 मन्तव्य (पिछली पोस्ट से आगे----)

8-10 मन्तव्य  (पिछली पोस्ट से आगे----)
अविद्या माया का अर्थ है अष्टपाश  और षडरिपुओं का समाहार अतः अविद्यामाया के डर से दूर जंगल में भाग कर उससे बचा नहीं जा सकता। उससे बचने के लिये मन को सूक्ष्मता की ओर प्रत्यावर्तित करना पड़ता है। जैसे, किसी घाव के ऊपर मंडराने वाली मक्खियों को दूर भगाना ही पर्याप्त समाधान नहीं है घाव को भरने का भी प्रयत्न करना होगा। महान गुरु के द्वारा सिखाई गयी साधना की विधि घाव भरने वाली मरहम है इसी की सहायता से कोई भी अविद्या को दूर भगाकर मुक्त हो सकता है। अविद्यामाया के घटने पर साधना के समय आने वाले सभी व्यवधान समाप्त हो जाते हैं। चूंकि यही एकमात्र विधि है जो अविद्या को दूर करती है अतः घर में रहते हुए सरलता से की जा सकती हैं, भले अविद्या प्रारंभ में कुछ व्यवधान करे पर एक बार हार जाने के बाद वह आध्यात्म साघना में रुकावट नहीं डालती। घर में रहकर साधना करने में, उनकी तुलना में अधिक सुविधा होती है जो घर छोड़कर जंगल में जाकर अभ्यास करते हैं।

यह भेदभाव करना कि किसी स्थान विशेष पर साधना करने में सुविधा होती है या कोई स्थान साधना के लिये खराब है यह उचित नहीं है यह तो ब्रह्म को भागों में बाॅंटना हुआ। सभी कुछ तो ब्रह्म की ही रचना है अतः किसी को अच्छा या बुरा कहना ब्रह्म को ही अच्छा या बुरा कहना हुआ, इसप्रकार तो स्रष्टि की शेष रचनाओं के साथ एकत्व रख पाना कठिन होगा। ब्रह्म के लिये सभी स्थान एक से ही हैं अतः साधना कहीं भी की जा सकती है। संसार को छोड़कर साधना के लिये जंगल को जाना अतार्किक है और संसार के छूट जाने के भय से साधना न करना अविवेकपूर्ण है ।


कुछ लोग ब्रह्मचर्य पालन करने के भय से साधना नहीं करते इन्हें समझना चाहिये कि मन को वाह्य जड़ात्मक चिंतन से आन्तरिक सूक्ष्म चिंतन की ओर ले जाने का प्रयास करना ही ब्रह्मचर्य पालन करना कहलाता है। प्रकृति के प्रभाव से ही मन जड़ता की ओर जाता है और उसके प्रभाव को कम करने से वह सूक्ष्मता की ओर जाता है। मुक्ति का अर्थ है प्रकृति के प्रभाव को कम करके जड़ता से सूक्ष्मता की ओर जाना। ब्रह्म स्वभाव से सूक्ष्म हैं अतः यदि मन जड़ता की ओर होगा तो वह ब्रह्म को नहीं पा सकता इसलिये मन को साॅंसारिक जड़ पदार्थो से दूर करने का उपाय है कि बंह्म का चिंतन करना, जो प्रकति का प्रभाव मन पर कम करते हुए ही किया जा सकता है क्योंकि प्रकृति ही उसे चारों ओर के जड़ पदार्थों की ओर खींचती रहती है। इसलिये ब्रह्मचर्य वह कार्य है जो प्रकृति के प्रभावों से मन को ब्रह्म की ओर ले जाने का प्रयत्न करे और ब्रह्मचारी वह है जो हमेशा  ब्रह्म चिंतन में डूॅबा रहे। यह कार्य साधना का अभ्यास करने पर ही संभव है। साधारणरतः वीर्य संरक्षण को ही ब्रह्मचर्य माना जाता है पर वास्तव में अष्ट पाश  और षडरिपु मन को बाहरी ओर संसार में ही बाॅंधते हैं, इन चौदह में से ‘काम‘  केवल एक है अतः जब तक यह सभी चौदह नियंत्रण में नहीं आते केवल ‘काम‘ को नियंत्रित करने मात्र से ब्रह्मचर्य पालन करना नहीं कहला सकता। अविद्यामाया जो इन चौदह प्रकारों से मन को इतना जकड़े रहती है उससे तब तक नहीं छूटा जा सकता जबतक साधना न की जावे। इस साधना के सहारे धीरे धीरे मन अविद्या के प्रभाव से दूर होता जाता है और वही ब्रह्मचारी कहलाता है जो अविद्या के प्रभाव से मुक्त हो गया। जो साधना का अभ्यास किये बिना ही ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहते हैं वे केवल समय को ही नष्ट करते हैं। इसलिये ब्रह्मचर्य पालन करने के लिये पारिवारिक जीवन को त्यागने की आवश्यकता नहीं हैं। साधना का बल प्रकृति के बल से अधिक होता है अतः इसकी सहायता से कोई भी ब्रह्मचारी हो सकता है, वीर्य का रक्षण कर सकता है और बुद्धि को तीक्ष्ण बना सकता है।

कुछ लोग मानते हैं कि बुढ़ापे के लिये ही भजन कीर्तन ठीक हैं, इसलिये युवावस्था में इससे दूर ही रहते हैं पर वे यह नहीं जानते कि उनके जीवन में बुढ़ापा आयेगा भी या नहीं यह निश्चित  नहीं है। बृद्धावस्था में जब शरीर कमजोर हो जाता है, नजरें कमजोर हो जातीं हैं, बीमारियाॅं घेरे रहती हैं, स्मरणशक्ति कमजोर पड़ जाती है, शुद्ध उच्चारण भी नहीं बन पाता, कर्मों का फल भोगते हुए मन कुछ भी नया करने का साहस नहीं करता, ऐसी दशा  में ईश्वर को केवल इसलिये पुकारना कि कष्ट से मुक्ति मिले कितना उचित है? इतना ही नहीं, जब इन झंझटों के कारण मन स्थिर नहीं हो पायेगा तो भगवान को पुकारने का कोई मूल्य नहीं । इस अवस्था में शरीर की कमजोरियों और पूर्वकाल की यादों के चिंतन में ही मन को फुरसत नहीं मिल पाती फिर ईश्वर का चिंतन कहाॅं संभव होगा। यही कारण है कि बुढ़ापे में साधना का अभ्यास कर पाना संभव ही नहीं हो पाता यदि प्रारंभ से ही उस ओर मनको लगाने का अभ्यास न किया जाये। बाॅंस के पेड़ को युवावस्था में मोड़ना सरल होता है, बहुत पुराना हो जाने पर मोड़ने से वह टूट जाता है, यही हाल साधना का होता है प्रारंभ से ही अभ्यास करना सफलता देता है बुढ़ापे में नहीं।


 साॅंसारिक भोगों को पाकर मन बड़ा प्रसन्न होता है और न पाने पर दुखी पर जब मन उन्हें चाहे ही नहीं तो उनके पाने या न पाने पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा। इच्छा होने पर भी जब वह प्राप्त न हो तो और अधिक दुख होता है और मन को विचलित करता है। जैसे शराबी को यदि शराब न मिले तो उसे अपार कष्ट अनुभव होगा पर गैरशराबी पर इसके मिलने या न मिलने का कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा ।

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8-10 मंतव्य (पिछली पोस्ट से आगे ---)


8-10 मंतव्य ( पिछली पोस्ट से आगे -----)
प्रतिसंचर की क्रिया में जड़ से सूक्ष्म की ओर गति करते हुए प्रकृति अपने प्रभावों को जड़पदार्थों पर से कम करने लगती है और परम चेतना या पुरुष का प्रभाव बढ़ने लगता है। मनुष्य तक पहुंचते पहुंचते प्रकृति का प्रभाव अपेक्षतया कम हो जाता है जिससे वह प्रकृति के दासता के बंधन में अब और अधिक नहीं रहना चाहता है और प्रकृति के विरुद्ध स्वतंत्रता से कार्य करने लगता है जो प्रतिक्रया के दंड स्वरूप भोगना पड़ते हैं। इस धरती पर केवल मनुष्यों के ऊपर ही परमचेतना पूर्णतः परावर्तित होती है अतः वे ही स्वतंत्रता से अपनी इच्छा से कार्य कर सकते हैं अन्य प्राणी नहीं। प्रकृति के नियम, मनुष्यों के उन कार्यों के लिये जो प्रकृति के विरुद्ध अपने मनमाने ढंग से ही किये जाते हैं, प्रतिक्रिया के रूपमें दंड देते हैं, स्पष्ट है कि वे जो मनमाने ढंग से कोई कार्य प्रकृति के विरुद्ध कर ही नहीं पाते दंड के भागी भी नहीं होते अतः मनुष्यों के अलावा अन्य प्राणियों को कर्मफल नहीं भोगना पड़ता।

इस दंड के कष्ट के माध्यम से प्रकृति का उद्देश्य  यह  शिक्षा देना होता है कि बुरे कार्यों से दूर रहना चाहिये। पर कुछ लोग साधना से प्राप्त बल के द्वारा इसे दूर करने का प्रयास करने में इस विधिमान्य नियम को भूल जाते हैं और समझते हैं कि वे कल्याण कर रहे हैं। कर्मफल तो कर्म करने वाले को भोगना ही पड़ेगा, चाहे कितना बड़ा भक्त क्यों न हो वह इसे नहीं रोक सकता यदि वह ऐंसा करता है तो वह भोले भाले लोगों को धोखा देने के अलावा कुछ नहीं माना जायेगा। यह हो सकता है कि कर्मफल का दंड भोगने का समय कुछ आगे टल जाये पर वह भोगना ही पड़ेगा चाहे उसे फिर से जन्म क्यों न लेना पड़े , क्योंकि हो सकता है कि दंड भोग के समय, व्यक्ति के मन में साधना कर मुक्ति की जिज्ञासा जाग जाये पर साधना सिद्धि प्राप्त व्यक्ति अपने बल से उसका कष्ट दूर करने का प्रयास करे तो यह प्रकृति के नियम के विरुद्ध होने के कारण  कल्याणकारी नहीं माना जायेगा वरन् वह दंड का भागीदार माना जायेगा।  इसलिये पराशक्तियों का उपयोग करना ईशनिंदा ही माना जायेगा क्योंकि यह प्रकृति के नियमों को चुनौती देकर उन्हें उदासीन करना ही कहलायेगा। पराशक्तियों के उपयोग से पानी पर चल सकते हैं, आग में चल सकते हैं, असाध्य बीमारियों को दूर कर सकते हैं, अनेक चमत्कार दिखा सकते हैं पर यह प्रकृति के स्थापित संवैधानिक नियमों की अवहेलना होगी इसलिये जो यह करता है उसे कर्मफल भोगना ही पड़ेगा।


कुछ लोग यह भ्रान्त धारणा पाल लेते हैं कि उनके गुरु तो पहुँचे हुए आत्मसाक्षात्कारी हैं, उनकी कृपा से वे मुक्त हो जायेंगे, उन्हें साधना की क्या आवश्यकता? पर वे गलती करते हैं क्योंकि मुक्ति बिना प्रयास के नहीं मिल सकती। गुरु की कृपा के बिना मुक्ति नहीं मिल सकती यह बात भी सही है पर गुरुकृपा पाने की योग्यता भी तो होना चाहिये केवल तभी गुरुकृपा मिल सकती है। गुरुकृपा पाने के लिये ही शिष्य  को , विश्वास और भक्तिभाव से साधना करने के लिये गुरु सतत निर्दैश  देते हैं।


आध्यात्मिक साधना करने वाले भक्त अपने कर्मफलों को भोगने के लिये पुनः जन्म नहीं लेना चाहते अतः वे इसी जन्म में मुक्त होने की उत्कंठा से शेष बचे सभी संस्कारों के प्रभावों को शीघ्र ही इसी जन्म में भोग लेना चाहते हैं अतः यदि उन्हें साधना करने में समस्यायें/कष्ट आते हैं तो इसे शुभ संकेत माना जाना चाहिये क्यों कि यह प्रकट करता है कि उनके कर्मफल का भोग तेजी से ही हो रहा है। साधना करने का अर्थ है कि मन के भीतर बाहर चिपके जन्म जन्मान्तरों के संस्कार और गंदगी को साफ कर उसे बिलकुल दर्पण की तरह स्वच्छ बना लेना, जिससे वह परम सत्ता पूर्णतः परावर्तित होने लगे। यहाॅं स्वामी रामतीर्थ द्वारा कहे गये उस द्रष्टाॅंत की याद आती है जिसमें दो टक्कर के चित्रकारों ‘रवि‘ और ‘कवि‘ में से श्रेष्ठ को चुनने के लिये एक कमरे में बीचोंबीच परदा डालकर आमने सामने की दीवार पर प्रत्येक से अपनी आपनी चित्रकारी करने को कहा गया और पूरी सुरक्षा और पहरेदारी से एक दूसरे की ओर देखने का अवसर नहीं दिया गया। निर्धारित अवधि ‘चैबीस घंटे‘ में पूरा करने के लिये रवि ने सैकड़ों प्रकार के रंग और अन्य सामग्री लगायी जबकि कवि ने केवल दीवार को साफ करने और चमकाने के लिये पूरी मेहनत की और रवि की तुलना में  लगभग नहीं के बराबर धन खर्च किया। जब परदा हटाया गया तो जो कलाकृति रवि ने बनायी थी बिलकुल वही आकृति कवि की दीवार पर दिखाई दी। कवि की कला को श्रेष्ठ माना गया और यह मुहावरा बना कि ‘‘जहाॅं न पहुंचे रवि वहाॅं पहुंचे कवि‘‘। तात्पर्य यह कि उस परमसत्ता को कहीं ढूढ़ने नहीं जाना है वह हमारे ‘मैंपन‘ के पीछे साक्षी सत्ता के रूप में रहती है हमारे मन पर अष्टपाश  और षडरिपुओं का मैल इतना जमा होता है कि हमें वह दिखाई नहीं देती परंतु जब हम कवि की तरह अपने मन की गंदी दीवार को दर्पण की तरह चमकदार बना लेते हैं तो वह अपने आप प्रकट होकर अपने मूल स्वरूप के दर्शन  करा देती है।