Sunday, 27 September 2015

24 बाबा की क्लास (श्राद्ध)



राजू- ‘‘बाबा! अभी कुछ दिनों तक हमारे विषय शिक्षक यहाॅं नहीं  आ पायेंगे , वे कहते हैं कि श्राद्ध दिवस चल रहे हैं ‘‘। 

चंदू- ‘‘ ये श्राद्ध दिवस क्या हैं, बाबा!‘‘

बाबा- चलो , आज हम लोग इसी पर चर्चा करें।
     तुम लोगों को याद है, एक बार हमने श्रद्धा के बारे में क्या समझाया था ? नहीं ? अच्छा फिर से सुनो अब नहीं भूलना। ‘‘विश्वास  और समर्पण के संयुक्त भाव को श्रद्धा कहते हैं, अंग्रेजी में इसका कोई शब्द नहीं है। जीवन का जो कुछ भी मूलाधार है वह ‘सत‘ कहलाता है और जब सभी ज्ञान और भावनायें इसी को प्राप्त करने के लिये चेष्टा करने लगती हैं तो यह ‘श्रत‘ कहलाता है, और इससे जुड़ी भावना को ही श्रद्धा कहते हैं। ‘श्रत् सत्यम तस्मिन धीयते या सा श्रद्धा‘।‘‘
स्पष्ट  है कि वे दिन जिनमें हम जीवन के मूलाधार ‘सत‘ को जानने के लिये विश्वास  और समर्पण के साथ जुट जाते हैं उन्हें श्राद्ध दिवस कहते हैं। इसके लिये कोई अलग से निर्धारित समय या दिन नहीं हैं फिर भी कर्मकाॅंड में इन्हें आश्विन  मास के कृष्ण पक्ष को निर्धारित किया गया है।

नन्दू - बाबा! कुछ लोग कहते हैं कि वे अपने पूर्वजों को स्मरण करते हुए इन दिनों में ब्राह्मणों को भोजन कराते हैं और दान भी देते हैं, जिससे उनकी आत्मा को शान्ति  मिलती है और वे तृप्त होकर मुक्त हो जाते हैं।

बाबा- तुम लोग इस बात को ध्यान से समझ लो कि पूर्वजों को याद करना और उनके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करना अलग बात है और उनका मुक्त और तृप्त होना बिलकुल अलग।

राजू- कैसे?

बाबा- हमें यह मानव शरीर अपने अपने माता पिता से प्राप्त हुआ है इसमें रह कर ही हम सत्य को जानने और अनुभव करने का कार्य कर सकते हैं अतः हमें कृतज्ञता से प्रति दिन ही उनका स्मरण करना चाहिये केवल आश्विन  मास के कृष्ण पक्ष में ही नहीं। इसे स्मरण करने की क्रिया को मंत्र और मुद्रा के साथ तुमलोगों को सिखाया गया है जिसे पित्रयज्ञ कहते हैं। तुम लोग रोज करते हो कि नहीं?

राजू- हाॅं बाबा! स्नान मंत्र के साथ ही न ?

बाबा- हाॅं ठीक है।

चंदू- परंतु बाबा! कुछ लोग कहते हैं कि यह तो केवल दिवंगत हो चुके पितरों के लिये ही किया जाता है, जिनके माता पिता जीवित हो तो उन्हें यह आवश्यक नहीं है ? 

बाबा-  नहीं चंदू, यह गलत है। सभी को अपने माता पिता सहित पित्रपुरुषों को भी प्रति दिन कृतज्ञता ज्ञापित करना ही चाहिये। यह नहीं कि जीवित रहते समय बृद्धावस्था में तो पानी के लिये भी नहीं पूछा और मरने के बाद पानी दे रहे हैं।

नन्दू- तो क्या पितरों के याद कर लेने से ही कृतज्ञता प्रकट हो जाती है?

बाबा- नहीं याद करने का तात्पर्य यह है कि उनके द्वारा किये गये सत्कार्यों को अपने जीवन में उतारना तथा असत्कार्यों और की गई त्रुटियों को त्यागना।

राजू- लेकिन, तृप्ति और मुक्ति की बात क्या है, बाबा!?

बाबा- किसी को भोजन कराने पर भोजन करने वाले भले ही तृप्त हो जायें परंतु शरीरहीन दिवंगत किस प्रकार तृप्त हो सकते हैं?  जिसे अनेक दिनों से भरपेट भोजन न मिला हो और उसे नारायण समझकर आत्मीयता से पेट भर भोजन करा दिया जाय तो यह उनको खिलाने की तुलना में अधिक अच्छा होता है जो रोज ही अनेक बार खाते हैं।

नन्दू- और मुक्ति? 

बाबा- मुक्ति और मोक्ष प्राप्त होना अपने अपने कर्मों पर आधारित होता है किसी के कर्मों के फल को किसी अन्य के पुण्यों से बदला नहीं जा सकता, कर्मफल उसी को भोगना पड़ता है जिसने कर्म किया होता है। इसी लिये मैं बार बार कहता हॅूं कि इस अमूल्य मनुष्य देह में आकर इसका अधिकतम सदुपयोग करते हुए सत्य को जानने का अभ्यास करने में ही समय लगाना चाहिये।


Monday, 14 September 2015

23 बँधु बांधव


कौटिल्य  अर्थात  चाणक्य से मिलने आये एक विद्वान ने उनसे पूछा -
"आपके कितने बँधु  बांधव हैं और वे कहाँ रहते  हैं?"
चाणक्य बोले "छह बंधु बांधव हैं और वे मेरे साथ ही रहते हैं।" विद्वान ने फिर कहा - "यहाँ तो  छह हाथ लम्बी और छह हाथ चौड़ी झोपड़ी ही दिखाई दे रही है वे सब कहाँ हैपरिचय  तो कराओ ?"
चाणक्य बोले -
"सत्यम  माता पिता ज्ञानं बुद्धिर्भ्राता  दया सखा 
शांतिः पत्नी क्षमा पुत्रो षष्ठेते मम बान्धवा। " 

अर्थात सत्य मेरी माता हैं पिता ज्ञान हैं बुद्धि भाई और दया सखा हैं , शांति पत्नी और क्षमा पुत्र है,  यही मेरे छह बँधु बांधव हैं।  

विद्वान महोदय ,  साधोसाधोसाधोकहते अश्रुपात करते रहे।  

22 चलते हैं...


- जा...  रहे हो??.. यह भी कोई बात हुई?
- क्यों ? मैं तो जाने के लिये ही आया था।
- इतनी जल्दी क्या है?
- जल्दी ? पेंतालीस वर्ष हो चुके हैं साथ साथ चलते ?
- तुम भी ! क्या व्यर्थ की बातें करते हो?
- तुमने सत्य कहा, हमें प्रकृति के द्वारा मुफ्त में मिली चीजें महत्वहीन लगती हैं और जिन्हें हम अपने पराक्रम से  अर्जित करते हें वे मूल्यवान।
- तुम्हारी यह फिलासफी समझ से परे है?
- अरे! समय और स्थान से बंधे हम इनकी गतिशीलता पर कभी ध्यान ही नहीं देते, सोचते हैं वे तो स्थिर हैं हमारे साथ हमेशा  हैं जबकि प्रत्येक 'क्षण' हमारे हाथ से फिसलता जा रहा है, वैसे ही,  देखो ! जैसे ट्रेन आगे बढ़ती जा रही है स्थान पीछे हटते जा रहे हैं । नया स्टेशन आने वाला है, वहॉं से अब इस बर्थ पर किसी और की पात्रता है।
- लेकिन मैं अकेली...?
- परमपिता की अंतरंगता का अनुभव करो, कोई भी, कभी भी, अकेला नहीं है।
   देखो ! स्टेशन आ गया, 
अच्छा.... तो..... हम.... च...ल...ते... हैं... ... ..! ! !

21 बाबा की क्लास (अमृतत्व) 
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- "बाबा! हम लोगों ने अनेक स्थानों पर पढ़ा है और रसायन में भी पढ़ाते हैं कि अनेक पदार्थ हैं जो विषैले होते हैं जिनके खाने पर मृत्यु हो जाती है, और इनके विपरीत स्वभाव के पदार्थ भी होते हैं जिनका उपयोग करने या खाने से व्यक्ति पर इनका असर घट जाता है?"
- "सभी पदार्थों का अपना अपना अपना गुणधर्म होता है , एक पदार्थ किसी के लिये विष तो दूसरे के लिये अमृत होता है।"
- "बस बाबा! हम लोग आज यही समझने आये हैं कि हमने ‘अमृत‘ नामक वस्तु की अनेक चर्चायें सुनी हैं परंतु , क्या सचमुच उसका भौतिक अस्तित्व होता है जैसा कि विष का?"
- "ठीक कहा, पर अमृत तुम्हारे भीतर ही है बाहर नहीं, उसे समझने के लिये चिंतन करना होगा। इसलिये मैं तुम लोगों को अपने समय के मूर्धन्य, कुशाग्रबुद्धि आचार्य और शास्त्रार्थ में अपराजेय शीर्ष कोटि के विद्वान ऋषि याज्ञवल्क्य जी का द्रष्टान्त सुनाकर इसे स्पष्ट करना चाहता हॅूं सुनो - "

याज्ञवल्क्य जी, ग्रहस्थ आश्रम त्याग कर सन्यास लेने लगे तब उन्होंने अपनी दोनों पत्नियों, कात्यायिनी और मैत्रेयी से अनुमति लेते हुए कहा -
 ‘‘तुम दोनों मेरे पश्चात्  सम्पत्ति पर विवाद न करो इसलिये मुझे बताओ किसे क्या चाहिये है, मैं अपने सामने ही वंटवारा कर दूॅं।‘‘  कात्यायिनी ने अपनी लम्बी सूची बनाकर दे दी परंतु मैंत्रेयी ने कहा, ‘‘ भगवन्! धन दौलत से भरी यह सम्पूर्ण पृथ्वी मुझे मिल जाये, तो क्या मैं अमर हो सकती हॅूं?‘‘
याज्ञवल्क्य बोले, ‘‘ नहीं, जैसे धन सम्पन्न लोगों का जीवन होता है वैसे ही तुम्हारा जीवन हो जायेगा, धन से अमर होने की आशा  करना व्यर्थ है।‘‘
मैत्रेयी बोली, ‘‘ जिसे पाकर मैं अमर नहीं हो सकती, उसे लेकर क्या करूंगी ? आप तो मुझे अमृतत्व का जो भी साधन जानते हों वही बताते जाइये।"
वह बोले - मैत्रेयी! मेरी इन बातों पर चिंतन करना, यही अमृतत्व का रास्ता बतायेंगी। 
‘‘पति के प्रयोजन के लिये पति प्रिय नहीं होता अपने ही प्रयोजन के लिये पति प्रिय होता है। स्त्री के प्रयोजन के लिये स्त्री प्रिया नहीं होती अपने ही प्रयोजन के लिये स्त्री प्रिया होती है। पुत्र के प्रयोजन के लिये पुत्र प्रिय नहीं होता अपने ही प्रयोजन के लिये पुत्र प्रिय होता है। धन के प्रयोजन के लिये धन प्रिय नहीं होता अपने ही प्रयोजन के लिये धन प्रिय होता है। पशुओं के प्रयोजन के लिये पशु  प्रिय नहीं होते अपने ही प्रयोजन के लिये पशु  प्रिय होते हैं। सब के प्रयोजन के लिये सब प्रिय नहीं होते अपने प्रयोजन के लिये ही सब प्रिय होते हैं। अतः अपना आत्मा ही दर्शनीय, श्रवणीय, मननीय और ध्यान करने योग्य है। आत्मा का दर्शन  हो जाने पर अप्राप्त, प्राप्त हो जाता है, और अज्ञात, ज्ञात हो जाता है।‘‘
इस प्रकार के अनेक उदाहरण देने के बाद भी जब मैत्रेयी ने कहा कि मुझे विशेष कुछ समझ में नहीं आया, तब वे बोले-
‘‘ मैत्रेयी! मन में भेद रहने पर ही अन्य , अन्य को देखता, सूंघता ,रसास्वादन करता, सुनता, मनन करता, और स्पर्श  करता है परंतु जिसे सब कुछ आत्ममय ही हो गया वह किसके द्वारा किसे देखे , सुने , सूंघे, अभिवादन करे, मनन करे? जिसके द्वारा मनुष्य इस सब को जान पाता है उसे किसके द्वारा जाने, किस साधन से जाने? वह ग्रहण नहीं किया जा सकता, उसका नाश  नहीं होता, वह व्यथित और क्षीण नहीं होता। मैत्रेयी! विज्ञाति के विज्ञाता को किसके द्वारा जाने? बस इतना चिंतन करना, यही अमृतत्व है।‘‘ 
यह कहते हुए उन्होंने सन्यास ले लिया।

Sunday, 13 September 2015

20  बाबा की क्लास (परमपुरुष की सीमायें)
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बाबा ! आज तो हमारे विषय शिक्षकों के साथ प्रसिद्ध यज्ञाचार्य पंडित अग्निहोत्री जी भी आये हैं, उन्हें यहीं क्लास में बुला लॅूं?

ठीक है रवि! यहीं पर बुला लो, सभी से एक साथ वार्ता हो सकेगी।

अग्निहोत्री - बाबा! मेरे इन शिक्षक मित्रों ने आपके द्वारा की गयी दीक्षा और यज्ञ, धर्म और श्रद्धा, कर्मफल आदि की व्याख्या सुनाई तो मैं चकित हो गया। मैं तभी से बड़े सोच में पड़ गया हॅूं कि मैं ने क्या स्वयं के साथ साथ समाज के एक बड़े वर्ग को कर्मकाॅंड कराते हुए धोखा दिया है? इसी का समाधान करने के लिये आपके समक्ष आया हॅूं। अब आप ही इसका उचित समाधान कर सकते हैं ।

बाबा - उचित ज्ञान के अभाव में सभी से गल्तियाॅं हो जाती हैं परंतु सही ज्ञान प्राप्त होते ही उसे सुधारने का पूरा प्रयास करने में जुट जाना चाहिये।

अग्निहोत्री - लेकिन बाबा! मैंने तो हजारों लोगों को अपने भ्रामक ज्ञान से रंग डाला है उन सब का परिणाम तो मुझे ही भोगना पड़ेगा, आपके द्वारा कर्म के सिद्धान्त की भी इसी प्रकार व्याख्या की गई है, मैं बहुत डर गया हॅूं।

बाबा - उचित ज्ञान प्राप्त कर स्वयं उसके अभ्यास करने के साथ साथ उन सबको भी उसे समझा दो, यही उपाय है।

अग्निहोत्री - लेकिन वे तो उसी ज्ञान में इतने मस्त हैं कि अब मैं यह समझा ही नहीं सकता कि पहले कही गयी सभी बातें गलत हैं।
बाबा - आपने सही कहा, समाज में श्रेष्ठ व्यक्ति जिस प्रकार का आचरण करता है अन्य लोग भी उसी का अनुसरण करते हैं अतः समाज के अग्रगण्य लोगों को इस संबंध में सतर्क रहना चाहिये । आप को धीरे धीरे यथार्थ ज्ञान को अपने आचरण में उतारते हुए अन्य सभी को प्रभावित करना चाहिये।

अग्निहोत्री - लेकिन मुझे तो इतनी आत्मग्लानि हो रही है कि लगता है यदि परमपुरुष से कभी भेंट का अवसर प्राप्त हुआ तो मुझे देखते ही वह ‘‘गेट आऊट‘‘ ही कहेंगे।

बाबा - नहीं , यह बात नहीं है, मैं, आप और यह सब विराट स्रष्टि, उन्हीं की कल्पना का साकार रूप है जो उनके मन के भीतर ही है, यदि वह आपसे कहते हैं कि ‘‘गेट आउट‘‘ तो आप विवेकपूर्ण यह तर्क दे सकते हैं कि प्रभु! आप ही बतायें कि मैं कहाॅं जाऊं अर्थात् वह स्थान बता दें जहाॅं आप न हों, मैं वहीं चला जाऊंगा। सब कुछ तो आपके भीतर ही है, मैं कहाॅं जाऊं? आपके बाहर कुछ है ही नहीं?

अग्निहोत्री - परंतु मैं ने तो अज्ञान का प्रसार करते करते अपने को उनकी घृणा का पात्र बना लिया है?

बाबा - एक बात अच्छी तरह याद रखो कि परमपुरुष यह दो काम कर ही नहीं सकते, एक तो यह कि वह दूसरा परमपुरुष नहीं बना सकते और दूसरा, वे किसी भी स्रष्ट वस्तु से घृणा नहीं कर सकते। क्योंकि यदि वह दूसरा परमपुरुष बनाते हैं तो वह भक्तों द्वारा दिये गये नामों जैसे, अद्वितीय, परमपुरुष, परमात्मा आदि नहीं कहला सकेंगे अतः वह अपने भक्तों की बात रखने के लिये यह नहीं कर सकते। दूसरी बात है घृणा करने की, तो वह भी नहीं कर सकते क्योंकि सभी को अपने द्वारा निर्मित की गई वस्तु प्रिय ही होती है । आवश्यकता इस बात की है कि जैसा वह अपनी स्रष्टि और उसके प्रत्येक घटक से प्रेम करते हैं उसी प्रकार आपको उनसे प्रेम करना सीखना होगा।
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Friday, 4 September 2015

19 बाबा की क्लास ( यज्ञ )

19 बाबा की क्लास ( यज्ञ  )
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-  बाबा ! कुछ लोग कहते हैं कि वे विश्व में शान्ति हो इसलिए यज्ञ कर रहे हैं यह यज्ञ क्या है? 
- इसका अर्थ है कृतज्ञता पूर्वक किया गया कर्म। यह चार प्रकार से किया जाता है, भूतयज्ञ,
 नृयज्ञ, पितृयज्ञ और आध्यात्म यज्ञ। 

- इसका  क्या अर्थ ? क्या भूतप्रेत होते हैं जो उनके लिए  कार्य  किया जाये ?
- नहीं , भूत का अर्थ है इस संसार में जो भी जिस भी रूप में आया है वह अर्थात् (all created beings) अतः उन सबके लिये निर्पेक्ष भाव से की गयी सेवायें भूतयज्ञ के अंतर्गत आती हैं, जैसे पौधों को पानी देना, पशुओं का पालन करना, वैज्ञानिक  शोध कार्य करना और समाज कल्याण के लिये, सबकी भलाई के लिये उनका उपयोग करना। नृयज्ञ वह कार्य है जो मनुष्यों की भलाई के लिये किया जाता है, यर्थातः यह भूतयज्ञ का ही भाग है क्यों कि मनुष्य भी (created beings)  ही हैं। पितृयज्ञ का अर्थ है अपने पूर्वजों और ऋषियों को याद करना और कृतज्ञता ज्ञापित करना। जब तक कोई व्यक्ति भौतिक शरीर में रहता है वह अपने पूर्वजों का ऋणी रहता है। ऋषि वे हैं जो समाज की भलाई के लिये नये अनुसंधान कर अनेेक प्रकार से मदद कर रहे हैं या की है तथा वे जो संयमपूर्वक प्राप्त ज्ञान से अपनी मुक्ति स्वयं करने का कार्य कर रहे हैं और समाज को भी लाभान्वित कर रहे हैं ऐंसे ऋषियों का ऋण भी समाज के ऊपर रहता है।

- कुछ वैज्ञानिकों ने प्रचंड विस्फोटकों का अनुसन्धान किया है क्या वे  ऋषि तुल्य हैं? 
- नहीं।  जिन्होंने विध्वंसात्मक शस्त्रों का अनुसंधान किया है उससे समाज को किसी प्रकार का कल्याण नहीं होता अतः वे ऋषि नहीं कहला सकते। इसी लिये पितृयज्ञ करते समय श्रीमद्भगवद्गीता में वर्णित यह भावना रखना चाहिये कि 
‘‘ पितृ पुरुषेभ्योनमः , ऋषिदेवेभ्योनमः, 
ब्रह्मार्पणम ब्रह्म हर्विब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम् , 
ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं , ब्रह्मकर्मसमाधिना‘‘। 
अर्थात् जिन्होंने अपना प्रत्येक कार्य ब्राह्मिक भाव से करते हुए अपने को ब्रह्म स्वरूप ही बना लिया और अंततः ब्रह्म में ही समाधिस्थ हैं  गये उन पितृपुरुष ऋषिगणों को प्रणाम।

-अच्छा यह बात है तो , बाबा !  फिर आध्यात्म यज्ञ का क्या मतलब ?
- आध्यात्म यज्ञ का सूत्रपात आत्मा से होता है और कर्म होता है मन के द्वारा। मन साधना करता है और कर्म भी, जो कि आत्मा के क्षेत्र में समाप्त हो जाते हैं। आध्यात्म यज्ञ निवृत्ति दिलाता है जब कि भूत ,नृ और पितृ यज्ञ निवृत्ति और प्रवृत्ति दोनों में उलझाते हैं। नृयज्ञ भी चार प्रकार का होता है, शूद्रोचित, वैश्योचित , क्षत्रियोचित और विप्रोचित। शूद्रोचित सेवा में अपने सुखों का त्याग कर दूसरों को प्रसन्न करना या उनके कष्टों को दूर कर देना जैसे मरीजों की सेवा आदि, आते हैं। वैश्योचित सेवा में किसी को रुपया पैसा देकर सेवा करना, और अपने जीवन को खतरे में डालकर दूसरों का रक्षण करना क्षत्रियोचित सेवा कहलाता है। विप्रोचित सेवा में अपने द्वारा प्राप्त किये गये आध्यात्म के  ज्ञान को दूसरों को सिखाना और सद्गुणों को सिखा कर सच्चाई के मार्ग पर चलने के लिये प्रेरित करना आदि आते हैं। शूद्रोचित सेवा समाज की रीढ़ की हड्डी है इसे किसी प्रकार हेय नहीं समझना चाहिये। जो शूद्रोचित सेवा नहीं कर सकता वह वैश्योचित , क्षत्रियोेचित और विप्रोचित सेवा भी नहीं कर सकता। इसलिये जिनमें यह चारों प्रकार के गुण हैं वही विप्र कहला सकते हैं। हमें अहंकार रहित सेवा करना चाहिये यह मान कर कि हम नारायण की सेवा कर रहे हैं। भूत, नृ और पितृ यज्ञ करते समय नारायण की सेवा करने का भाव रखने पर मैंपन की भावना को जागने का अवसर नहीं मिल पायेगा और कर्मबंधन से भी दूरी बनी रहेगी। ध्यान रखिये कर्मबंधन से मुक्त होने और अहंकार को नष्ट करने के लिये ही यज्ञ किया जाता है , इस लिये उपरोक्त चारों यज्ञ कोई भी सम्पन्न कर सकता है। 

- लेकिन कुछ लोग तो अग्नि में घी  और अन्य पौष्टिक वस्तुओं के  जलाने को यज्ञ कहते हैं? 
-  अब तुम लोग स्वयं ही निष्कर्ष निकालो ?  स्पष्ट है कि अग्नि में घी, यव , तिल या अन्य वस्तुओं को जलाना यज्ञ नहीं है और न ही इस प्रकार खाद्यान्न को जलाने से समाज का कोई लाभ होता हैं जो यह कहते हैं कि इससे वातावरण शुद्ध होता है और वर्षा होती है वह किसी भी प्रकार वैज्ञानिक सत्य नहीं है। पृथ्वी पर जो भी जीव जगत है वह कर्बन  (carbonic pebula) का ही वहुरूप हैअतः इनमें से किसी के भी जलाने पर कार्बनडाई आक्साइड उत्पन्न होती है और कार्बन ही बचता है। स्वस्थ जीवन के लिये हमें  आक्सीजन की आवश्यकता होती है और पौधों को कार्बनडाई आक्साइड की , जो हम स्वाभाविक रूप से एक दूसरे को आदान प्रदान करते रहते हैं अतः पृथक से कार्बनडाई आक्साइड उत्पन्न करने का कोई औचित्य नहीं वह भी धार्मिक भावनाओं की कीमत पर। 
- तो क्या  वे सब गलत हैं ?
- सही गलत का निर्णय तुम लोग ही करो।  श्रीमद्भगवद्गीता के जिस श्लोक  का उदाहरण देकर वे लोग यह करते हैं , वह भी उसका मनमाना अर्थ किये जाने के कारण है। 
वह श्लोक  कहता है कि 
‘‘ अन्नाद भवति भूतानि, पर्जन्यादन्न संभवः। 
    यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञःकर्मसमुद्भवः।‘‘ 
जिसका सीधा अर्थ यह है कि अन्न से सभी जीवधारी उत्पन्न होते और जीवित रहते हैं, वर्षा से अन्न होता है, यज्ञ करने से वर्षा होती है और यज्ञ, कर्म करने से संभव होता है। 
- ओह बाबा! अब हम समझे।  जैसा आपने समझाया  है  उन  चारों प्रकार के यज्ञकर्म सबको नारायण समझकर करने पर ही प्रकृति संतुलन में रहेगी अर्थात् वर्षा होगी, अन्न उत्पन्न होगा और जीवन बना रहेगा तभी सब लोग अपने अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सकेंगे।