129 बाबा की क्लास ( आगम, निगम, तन्त्र और योग का रहस्य )
रवि- आप तन्त्र को हमेशा श्रेष्ठ उपासना पद्धति कहते हैं जबकि अनेक लोग इसकी आलोचना करते हैं और अच्छा नहीं मानते?
बाबा- जो लोग तन्त्र का सही अर्थ नहीं जानते वही उसकी बुराई करते हैं। वास्तव में योग रहस्यात्मक उपासना पद्धति है इसके अनुसार विधिवत चलते रहने पर अनेक रहस्यों से पर्दा हट जाता है। आज से लगभग सात हजार वर्ष पहले महायोगी सदाशिव ने योग की बिखरी हुई अनेक शाखाओं का एकीकरण किया था ।
राजू- क्या निगम और आगम इसी एकीकरण का नाम हैं ?
बाबा- जनकल्याण के लिए इसकी व्यावहारिक विधियों और रहस्यों पर उनकी पत्नी पार्वती द्वारा पूछे गए प्रश्नों और शिव के द्वारा दिये गए उत्तरों को क्रमशः निगम और आगम कहते हैं। और महत्वपूर्ण बात यह है कि निगम और आगम का संयुक्त नाम ही तन्त्र कहलाता है।
इन्दु- तो फिर तन्त्र को बुरा कहने का क्या कारण है?
बाबा- निगम और आगम के द्वारा दर्शायी गई व्यावहारिक विधियों की उपासना पद्धति के विधिवत पालन करने से कुछ समय के बाद कुछ सिद्धियाॅं प्राप्त होंने लगती हैं जिनको पाकर अहंकारी और प्रतिष्ठा के लालसी लोग उनका प्रदर्शन कर दुरुपयोग करने लगते हैं और पतित हो जाते हैं । इस प्रकार तन्त्र के दुरुपयोग करने पर वह अविद्या तन्त्र बन जाता है। वास्तव में सिद्धियाॅ तो धूल के समान हैं जो ईश्वरीय मार्ग पर चलने वालों के पैरों में चिपक कर अवरोधक का काम करती हैं । जो कोई भी इनके चक्कर मे पड़़ जाता है वह अपने लक्ष्य ‘परमपुरुष’ से भटक जाता है । इन भटके हुए लोगों की दशा देखकर ही लोग इसकी बुराई करते हैं।
चन्दू- आखिर तन्त्र की उपासना पद्धति का पालन करना क्यों आवश्यक है?
बाबा- मानव जीवन का लक्ष्य "मोक्ष" पाने के लिए।
बिन्दु- जिस प्रकार किसी पद या पोस्ट को पाने के लिए न्यूनतम योग्यता निर्धारित होती है उसी प्रकार मोक्ष पाने वालों के लिए कोई न्यूनतम योग्यता निर्धारित की गई है या नहीं?
बाबा- इसके लिए न्यूनतम योग्यता है मानव का शरीर और मानव मन। किसी प्रकार की जाति, रंग अथवा क्षेत्रीयता या किसी अन्य प्रकार का बंधन नहीं है । पिछले जन्मों के सुकृत्यों के फल से मानव शरीर तो प्राप्त हो जाता है परन्तु निर्पेक्ष ब्रह्म में लीन होने के लिए आत्मज्ञान को प्राप्त करना अर्थात् स्वयं को जानना आवश्यक होता है। यही मोक्ष पाने का सबसे बड़ा साधन है।
राजू- स्वयं को जानना क्या है?
बाबा- मानव मन की तीन प्रकार की गतियाॅं होती हैं । पहली, बाहर से भीतर की ओर अर्थात् बाहरी जगत के पदार्थों की ओर से अपने अस्तित्व के भीतरी ओर गति करना, दूसरी, भीतर से बाहर की ओर अर्थात् भीतरी मनोभावों को बाहरी संसार में अभिव्यक्त करना और तीसरी, आत्मा की ओर। जब बाहरी वस्तुओं या दृश्यों के द्वारा मन के कार्मिक भाग पर अपना प्रभाव जमाया जाता है तो इसे जानना या ज्ञान कहते हैं। और, स्वयं को जानना या आत्मसाक्षात्कार क्या है ? इस अवस्था में मन आत्मा को जानता है अर्थात् मन की गति आत्मा की ओर होती है ।
रवि- परन्तु इस संसार के सर्वज्ञ तो केवल परमसत्ता, परमात्मा, परमपुरुष या परमपिता ही हैं फिर कोई इकाई मन उन्हें कैसे जान पाता है?
बाबा- बिलकुल सही । परमपिता या परमसत्ता ही सर्वज्ञाता हैं, वे केवल यही नहीं जानते कि आप क्या कर रहे हैं वरन् वह यह भी जानते हैं कि आप क्या सोच रहे हो, चिंतन या मनन कर रहे हो, तुम्हारे मन की विचार तरंगे क्या हैं। इसलिए वह कर्ता अर्थात् ‘सब्जेक्ट‘ और हम सब उनके कर्म अर्थात् ‘आब्जेक्ट‘ हैं। तो अब इकाई मन उन्हें कैसे जाने? इकाई मन कर्ता अर्थात् सब्जेक्ट और वह परमसत्ता कर्म अर्थात् आब्जेक्ट कैसे हो ? अरे, वह तो तुम्हारे मन को देख रहे हैं तो तुम्हारा मन उन्हें देख सकता है? तुम्हारा मन उन्हें आब्जेक्ट और अपने को सब्जेक्ट कैसे स्वीकार कर सकता है? हाॅं ! इसी में सबसे बड़ा रहस्य छिपा है। तो यह रहस्य क्या है? रहस्य यह है कि जो कुछ भी तुम कर रहे हो, सोच रहे हो उन सबमें यह ध्यान रखना होता है कि हमारे यह सभी काम और विचारों को वह परमपुरुष देख रहा है वह इन सबका साक्षी है। यदि यह याद रखा गया तो वह कर्ता ही बने रहते हैं और आप उनके कर्म।
इन्दु- परन्तु इस प्रकार यह कैसे हो सकता है?
बाबा- वह सर्वसाक्षी सत्ता ही कर्ता और हम सब उसके कर्म हैं परन्तु जब हम सदा ही परमपुरुष के बारे में सोचते हैं कि वह हमें देख रहे हैं तो परोक्ष रूप में वह हमारे कर्म कहलाने लगते हैं। यहाॅं भक्तों की यही सबसे बड़ी चतुराई है, वे अपने मन की एकाग्रता और बुद्धि की कुशाग्रता से उस परमसत्ता को अपने मन की सीमाओं में ले आते हैं। इसलिए भक्ति का रास्ता या आध्यात्मिकता का रास्ता या योगियों का रास्ता अर्थात् ‘ पाथ आफ स्प्रीचुअलिटी ‘ बुद्धिमानों का रास्ता है और वे जो यह मानते हैं कि उन्हें कोई नहीं देखता है वह मूर्ख हैं। इसलिए मानव शरीर में ही मन की सहायता से उन परमसत्ता के बारे में यह सोचा जा सकता है कि वह हमारी गतिविधियों और विचारों पर दृष्टि जमाए हुए हैं। और जब यह विचार दृढ़ होकर स्थायी हो जाता है तब कहा जाता है कि उस व्यक्ति का परमपुरुष से योग हो गया । इसीलिए कहा भी गया है ‘संयोगो योगो इत्युक्तो आत्मनो परमात्मनः।‘ इसी अवस्था को मोक्ष पाना कहते हैं।
नन्दू- लेकिन आपने तो अनेक बार कहा है कि पेड़ पौधों, अन्य जीवों इतना तक कि जड़ पदार्थों के पास भी मन होता है तो वे इसकी सहायता से मुक्त क्यों नहीं हो सकते?
बाबा- हाॅं , सृष्टि की प्रत्येक रचना जैसे हवा, पानी, धरती, आकाशगङ्गाएं आदि का भी मन होता है परन्तु वह सुसुप्तावस्था में होता है। वह सक्रिय नहीं रहता। ‘प्रोटोजोआ‘ का भी मन होता है परन्तु वह केवल जन्मजात वृत्तियों द्वारा ही संचालित होता है, इसी प्रकार पौधों का मन भी केवल जन्मजात वृत्तियों से संचालित होता है वे स्वतंत्र रूपसे विचार नहीं कर पाते। सामान्य प्राणियों में अर्थात् ‘मेटाजोआ‘ में जन्मजात वृत्तियाॅं होती हैं पर व्यक्तिगत विचार नहीं होता, उन्नत मेटाजोआ अर्थात् उन्नत प्राणियों में थोड़ा सा स्वतंत्र मन होता है और वे उन्नत मेटाजोआ जो मनुष्यों के आस पास रहते हैं जैसे कुत्ता, गाय, बंदर आदि का मन बौद्धिक संसार और अन्तर्तन्त्रिका संरचना में संघर्ष होते रहने के कारण अपने मन को अपेक्षतया अधिक उन्नत कर लेते हैं। परन्तु मनुष्यों का मन उनसे अधिक उन्नत होता है अतः वह अनुभव कर सकता है कि जो कुछ वह करता या सोचता है वह सदा ही परमपुरुष के द्वारा साक्षीभूत होता रहता है तथा कोई भी गुपचुप तरीके से के कुछ भी नहीं कर सकता। मनुष्य का यह सौभाग्य है कि वह सर्वव्यापी परमपुरुष के अस्तित्व के साथ प्रेम कर सकता है और उसे अनुभव कर सकता है।
रवि- मनुष्य के मन में विखंडित वृत्तियाॅं भी तो उत्पन्न होती रहती हैं तब वे परमपुरुष से अपने मन को किस प्रकार जोड़े रह सकते हैं?
बाबा- मनुष्यों का स्तर अन्य प्राणियों से बहुत उन्नत और प्रतिष्ठित है, इस प्रकार की विखंडनकारी वृत्तियों को भूलकर यह सोचना चाहिए कि हम परमपुरुष की प्यारी संतान हैं और हमारा लक्ष्य परमपुरुष हैं। हमारा लक्ष्य परमसत्ता हैं। हम उद्देश्य समायोजन के माध्यम से विषयपरक दृष्टिकोण रखते हैं अर्थात् सब्जेक्टिव एप्रोच थ्रो आब्जेक्टिव एडजस्टमेंट। हमें परमपुरुष की ओर बढ़ना है और इस यात्रा में हमें सामाजिक, आर्थिक और अन्य क्षेत्रों में अपने सभी सांसारिक काम करते जाना है। इसका अर्थ है कि हमारे हाथ तो संसारिक कर्तव्य में लगे रहें पर मन परमपुरुष की ओर ही दौड़ता रहना चाहिए।
रवि- आप तन्त्र को हमेशा श्रेष्ठ उपासना पद्धति कहते हैं जबकि अनेक लोग इसकी आलोचना करते हैं और अच्छा नहीं मानते?
बाबा- जो लोग तन्त्र का सही अर्थ नहीं जानते वही उसकी बुराई करते हैं। वास्तव में योग रहस्यात्मक उपासना पद्धति है इसके अनुसार विधिवत चलते रहने पर अनेक रहस्यों से पर्दा हट जाता है। आज से लगभग सात हजार वर्ष पहले महायोगी सदाशिव ने योग की बिखरी हुई अनेक शाखाओं का एकीकरण किया था ।
राजू- क्या निगम और आगम इसी एकीकरण का नाम हैं ?
बाबा- जनकल्याण के लिए इसकी व्यावहारिक विधियों और रहस्यों पर उनकी पत्नी पार्वती द्वारा पूछे गए प्रश्नों और शिव के द्वारा दिये गए उत्तरों को क्रमशः निगम और आगम कहते हैं। और महत्वपूर्ण बात यह है कि निगम और आगम का संयुक्त नाम ही तन्त्र कहलाता है।
इन्दु- तो फिर तन्त्र को बुरा कहने का क्या कारण है?
बाबा- निगम और आगम के द्वारा दर्शायी गई व्यावहारिक विधियों की उपासना पद्धति के विधिवत पालन करने से कुछ समय के बाद कुछ सिद्धियाॅं प्राप्त होंने लगती हैं जिनको पाकर अहंकारी और प्रतिष्ठा के लालसी लोग उनका प्रदर्शन कर दुरुपयोग करने लगते हैं और पतित हो जाते हैं । इस प्रकार तन्त्र के दुरुपयोग करने पर वह अविद्या तन्त्र बन जाता है। वास्तव में सिद्धियाॅ तो धूल के समान हैं जो ईश्वरीय मार्ग पर चलने वालों के पैरों में चिपक कर अवरोधक का काम करती हैं । जो कोई भी इनके चक्कर मे पड़़ जाता है वह अपने लक्ष्य ‘परमपुरुष’ से भटक जाता है । इन भटके हुए लोगों की दशा देखकर ही लोग इसकी बुराई करते हैं।
चन्दू- आखिर तन्त्र की उपासना पद्धति का पालन करना क्यों आवश्यक है?
बाबा- मानव जीवन का लक्ष्य "मोक्ष" पाने के लिए।
बिन्दु- जिस प्रकार किसी पद या पोस्ट को पाने के लिए न्यूनतम योग्यता निर्धारित होती है उसी प्रकार मोक्ष पाने वालों के लिए कोई न्यूनतम योग्यता निर्धारित की गई है या नहीं?
बाबा- इसके लिए न्यूनतम योग्यता है मानव का शरीर और मानव मन। किसी प्रकार की जाति, रंग अथवा क्षेत्रीयता या किसी अन्य प्रकार का बंधन नहीं है । पिछले जन्मों के सुकृत्यों के फल से मानव शरीर तो प्राप्त हो जाता है परन्तु निर्पेक्ष ब्रह्म में लीन होने के लिए आत्मज्ञान को प्राप्त करना अर्थात् स्वयं को जानना आवश्यक होता है। यही मोक्ष पाने का सबसे बड़ा साधन है।
राजू- स्वयं को जानना क्या है?
बाबा- मानव मन की तीन प्रकार की गतियाॅं होती हैं । पहली, बाहर से भीतर की ओर अर्थात् बाहरी जगत के पदार्थों की ओर से अपने अस्तित्व के भीतरी ओर गति करना, दूसरी, भीतर से बाहर की ओर अर्थात् भीतरी मनोभावों को बाहरी संसार में अभिव्यक्त करना और तीसरी, आत्मा की ओर। जब बाहरी वस्तुओं या दृश्यों के द्वारा मन के कार्मिक भाग पर अपना प्रभाव जमाया जाता है तो इसे जानना या ज्ञान कहते हैं। और, स्वयं को जानना या आत्मसाक्षात्कार क्या है ? इस अवस्था में मन आत्मा को जानता है अर्थात् मन की गति आत्मा की ओर होती है ।
रवि- परन्तु इस संसार के सर्वज्ञ तो केवल परमसत्ता, परमात्मा, परमपुरुष या परमपिता ही हैं फिर कोई इकाई मन उन्हें कैसे जान पाता है?
बाबा- बिलकुल सही । परमपिता या परमसत्ता ही सर्वज्ञाता हैं, वे केवल यही नहीं जानते कि आप क्या कर रहे हैं वरन् वह यह भी जानते हैं कि आप क्या सोच रहे हो, चिंतन या मनन कर रहे हो, तुम्हारे मन की विचार तरंगे क्या हैं। इसलिए वह कर्ता अर्थात् ‘सब्जेक्ट‘ और हम सब उनके कर्म अर्थात् ‘आब्जेक्ट‘ हैं। तो अब इकाई मन उन्हें कैसे जाने? इकाई मन कर्ता अर्थात् सब्जेक्ट और वह परमसत्ता कर्म अर्थात् आब्जेक्ट कैसे हो ? अरे, वह तो तुम्हारे मन को देख रहे हैं तो तुम्हारा मन उन्हें देख सकता है? तुम्हारा मन उन्हें आब्जेक्ट और अपने को सब्जेक्ट कैसे स्वीकार कर सकता है? हाॅं ! इसी में सबसे बड़ा रहस्य छिपा है। तो यह रहस्य क्या है? रहस्य यह है कि जो कुछ भी तुम कर रहे हो, सोच रहे हो उन सबमें यह ध्यान रखना होता है कि हमारे यह सभी काम और विचारों को वह परमपुरुष देख रहा है वह इन सबका साक्षी है। यदि यह याद रखा गया तो वह कर्ता ही बने रहते हैं और आप उनके कर्म।
इन्दु- परन्तु इस प्रकार यह कैसे हो सकता है?
बाबा- वह सर्वसाक्षी सत्ता ही कर्ता और हम सब उसके कर्म हैं परन्तु जब हम सदा ही परमपुरुष के बारे में सोचते हैं कि वह हमें देख रहे हैं तो परोक्ष रूप में वह हमारे कर्म कहलाने लगते हैं। यहाॅं भक्तों की यही सबसे बड़ी चतुराई है, वे अपने मन की एकाग्रता और बुद्धि की कुशाग्रता से उस परमसत्ता को अपने मन की सीमाओं में ले आते हैं। इसलिए भक्ति का रास्ता या आध्यात्मिकता का रास्ता या योगियों का रास्ता अर्थात् ‘ पाथ आफ स्प्रीचुअलिटी ‘ बुद्धिमानों का रास्ता है और वे जो यह मानते हैं कि उन्हें कोई नहीं देखता है वह मूर्ख हैं। इसलिए मानव शरीर में ही मन की सहायता से उन परमसत्ता के बारे में यह सोचा जा सकता है कि वह हमारी गतिविधियों और विचारों पर दृष्टि जमाए हुए हैं। और जब यह विचार दृढ़ होकर स्थायी हो जाता है तब कहा जाता है कि उस व्यक्ति का परमपुरुष से योग हो गया । इसीलिए कहा भी गया है ‘संयोगो योगो इत्युक्तो आत्मनो परमात्मनः।‘ इसी अवस्था को मोक्ष पाना कहते हैं।
नन्दू- लेकिन आपने तो अनेक बार कहा है कि पेड़ पौधों, अन्य जीवों इतना तक कि जड़ पदार्थों के पास भी मन होता है तो वे इसकी सहायता से मुक्त क्यों नहीं हो सकते?
बाबा- हाॅं , सृष्टि की प्रत्येक रचना जैसे हवा, पानी, धरती, आकाशगङ्गाएं आदि का भी मन होता है परन्तु वह सुसुप्तावस्था में होता है। वह सक्रिय नहीं रहता। ‘प्रोटोजोआ‘ का भी मन होता है परन्तु वह केवल जन्मजात वृत्तियों द्वारा ही संचालित होता है, इसी प्रकार पौधों का मन भी केवल जन्मजात वृत्तियों से संचालित होता है वे स्वतंत्र रूपसे विचार नहीं कर पाते। सामान्य प्राणियों में अर्थात् ‘मेटाजोआ‘ में जन्मजात वृत्तियाॅं होती हैं पर व्यक्तिगत विचार नहीं होता, उन्नत मेटाजोआ अर्थात् उन्नत प्राणियों में थोड़ा सा स्वतंत्र मन होता है और वे उन्नत मेटाजोआ जो मनुष्यों के आस पास रहते हैं जैसे कुत्ता, गाय, बंदर आदि का मन बौद्धिक संसार और अन्तर्तन्त्रिका संरचना में संघर्ष होते रहने के कारण अपने मन को अपेक्षतया अधिक उन्नत कर लेते हैं। परन्तु मनुष्यों का मन उनसे अधिक उन्नत होता है अतः वह अनुभव कर सकता है कि जो कुछ वह करता या सोचता है वह सदा ही परमपुरुष के द्वारा साक्षीभूत होता रहता है तथा कोई भी गुपचुप तरीके से के कुछ भी नहीं कर सकता। मनुष्य का यह सौभाग्य है कि वह सर्वव्यापी परमपुरुष के अस्तित्व के साथ प्रेम कर सकता है और उसे अनुभव कर सकता है।
रवि- मनुष्य के मन में विखंडित वृत्तियाॅं भी तो उत्पन्न होती रहती हैं तब वे परमपुरुष से अपने मन को किस प्रकार जोड़े रह सकते हैं?
बाबा- मनुष्यों का स्तर अन्य प्राणियों से बहुत उन्नत और प्रतिष्ठित है, इस प्रकार की विखंडनकारी वृत्तियों को भूलकर यह सोचना चाहिए कि हम परमपुरुष की प्यारी संतान हैं और हमारा लक्ष्य परमपुरुष हैं। हमारा लक्ष्य परमसत्ता हैं। हम उद्देश्य समायोजन के माध्यम से विषयपरक दृष्टिकोण रखते हैं अर्थात् सब्जेक्टिव एप्रोच थ्रो आब्जेक्टिव एडजस्टमेंट। हमें परमपुरुष की ओर बढ़ना है और इस यात्रा में हमें सामाजिक, आर्थिक और अन्य क्षेत्रों में अपने सभी सांसारिक काम करते जाना है। इसका अर्थ है कि हमारे हाथ तो संसारिक कर्तव्य में लगे रहें पर मन परमपुरुष की ओर ही दौड़ता रहना चाहिए।