Sunday, 28 May 2017

129 बाबा की क्लास ( आगम, निगम, तन्त्र और योग का रहस्य )

129 बाबा की क्लास ( आगम, निगम, तन्त्र और योग का रहस्य  )

रवि- आप तन्त्र को हमेशा श्रेष्ठ उपासना पद्धति कहते हैं जबकि अनेक लोग इसकी आलोचना करते हैं और अच्छा नहीं मानते?

बाबा- जो लोग तन्त्र का सही अर्थ नहीं जानते वही उसकी बुराई करते हैं। वास्तव में योग रहस्यात्मक उपासना पद्धति है इसके अनुसार विधिवत चलते रहने पर अनेक रहस्यों से पर्दा हट जाता है। आज से लगभग सात हजार वर्ष पहले महायोगी सदाशिव ने योग की बिखरी हुई अनेक शाखाओं का एकीकरण किया था ।

राजू- क्या निगम और आगम इसी एकीकरण का नाम हैं ?

बाबा- जनकल्याण के लिए इसकी व्यावहारिक विधियों और रहस्यों पर उनकी पत्नी पार्वती द्वारा पूछे गए प्रश्नों और शिव के द्वारा दिये गए उत्तरों को क्रमशः निगम और आगम कहते हैं। और महत्वपूर्ण बात यह है कि निगम और आगम का संयुक्त नाम ही तन्त्र कहलाता है।

इन्दु- तो फिर तन्त्र को बुरा कहने का क्या कारण है?

बाबा- निगम और आगम के द्वारा दर्शायी गई व्यावहारिक विधियों की उपासना पद्धति के विधिवत पालन करने से कुछ समय के बाद कुछ सिद्धियाॅं प्राप्त होंने लगती हैं जिनको पाकर अहंकारी और प्रतिष्ठा के लालसी लोग उनका प्रदर्शन कर दुरुपयोग करने लगते हैं और पतित हो जाते हैं । इस प्रकार तन्त्र के दुरुपयोग करने पर वह अविद्या तन्त्र बन जाता है। वास्तव में सिद्धियाॅ तो धूल के समान हैं जो ईश्वरीय मार्ग पर चलने वालों के पैरों में चिपक कर अवरोधक का काम करती हैं । जो कोई भी इनके चक्कर मे पड़़ जाता है वह अपने लक्ष्य ‘परमपुरुष’ से भटक जाता है । इन भटके हुए लोगों की दशा देखकर ही लोग इसकी बुराई करते हैं।

चन्दू- आखिर तन्त्र की उपासना पद्धति का पालन करना क्यों आवश्यक है?

बाबा- मानव जीवन का लक्ष्य "मोक्ष" पाने के लिए।

बिन्दु- जिस प्रकार किसी पद या पोस्ट को पाने के लिए न्यूनतम योग्यता निर्धारित होती है उसी प्रकार मोक्ष पाने वालों के लिए कोई न्यूनतम योग्यता निर्धारित की गई है या नहीं?

बाबा-  इसके लिए न्यूनतम योग्यता है मानव का शरीर और मानव मन। किसी प्रकार की जाति, रंग अथवा क्षेत्रीयता या किसी अन्य प्रकार का बंधन नहीं है । पिछले जन्मों के सुकृत्यों के फल से मानव शरीर तो प्राप्त हो जाता है परन्तु निर्पेक्ष ब्रह्म में लीन होने के लिए आत्मज्ञान को प्राप्त करना अर्थात् स्वयं को जानना आवश्यक होता है। यही मोक्ष पाने का सबसे बड़ा साधन है।

राजू- स्वयं को जानना क्या है?

बाबा- मानव मन की तीन प्रकार की गतियाॅं होती हैं । पहली, बाहर से भीतर की ओर अर्थात् बाहरी जगत के पदार्थों की ओर से अपने अस्तित्व के भीतरी ओर गति करना, दूसरी, भीतर से बाहर की ओर अर्थात् भीतरी मनोभावों को बाहरी संसार में अभिव्यक्त करना और तीसरी, आत्मा की ओर। जब बाहरी वस्तुओं या दृश्यों के द्वारा मन के कार्मिक भाग पर अपना प्रभाव जमाया जाता है तो इसे जानना या ज्ञान कहते हैं। और, स्वयं को जानना या आत्मसाक्षात्कार क्या है ? इस अवस्था में मन आत्मा को जानता है अर्थात् मन की गति आत्मा की ओर होती है ।

रवि- परन्तु इस संसार के सर्वज्ञ तो केवल परमसत्ता, परमात्मा, परमपुरुष या परमपिता ही हैं फिर कोई इकाई मन उन्हें कैसे जान पाता है?

बाबा- बिलकुल सही । परमपिता या परमसत्ता ही सर्वज्ञाता हैं, वे केवल यही नहीं जानते कि आप क्या कर रहे हैं वरन् वह यह भी जानते हैं कि आप क्या सोच रहे हो, चिंतन या मनन कर रहे हो, तुम्हारे मन की विचार तरंगे क्या हैं। इसलिए वह कर्ता अर्थात् ‘सब्जेक्ट‘ और हम सब उनके कर्म अर्थात् ‘आब्जेक्ट‘ हैं। तो अब इकाई मन उन्हें कैसे जाने? इकाई मन कर्ता अर्थात् सब्जेक्ट और वह परमसत्ता कर्म अर्थात् आब्जेक्ट कैसे हो ? अरे, वह तो तुम्हारे मन को देख रहे हैं तो तुम्हारा मन उन्हें देख सकता है? तुम्हारा मन उन्हें आब्जेक्ट और अपने को सब्जेक्ट कैसे स्वीकार कर सकता है? हाॅं ! इसी में सबसे बड़ा रहस्य छिपा है। तो यह रहस्य क्या है? रहस्य यह है कि जो कुछ भी तुम कर रहे हो, सोच रहे हो उन सबमें यह ध्यान रखना होता है कि हमारे यह सभी काम और विचारों को वह परमपुरुष देख रहा है वह इन सबका साक्षी है। यदि यह याद रखा गया तो वह कर्ता ही बने रहते हैं और आप उनके कर्म।

इन्दु- परन्तु इस प्रकार यह कैसे हो सकता है?

बाबा- वह सर्वसाक्षी सत्ता ही कर्ता और हम सब उसके कर्म हैं परन्तु जब हम सदा ही परमपुरुष के बारे में सोचते हैं कि वह हमें देख रहे हैं तो परोक्ष रूप में वह हमारे कर्म  कहलाने लगते हैं। यहाॅं भक्तों की यही सबसे बड़ी चतुराई है, वे अपने मन की एकाग्रता और बुद्धि की कुशाग्रता से उस परमसत्ता को अपने मन की सीमाओं में ले आते हैं। इसलिए भक्ति का रास्ता या आध्यात्मिकता का रास्ता या योगियों का रास्ता अर्थात् ‘ पाथ आफ स्प्रीचुअलिटी ‘ बुद्धिमानों का रास्ता है और वे जो यह मानते हैं कि उन्हें कोई नहीं देखता है वह मूर्ख हैं। इसलिए मानव शरीर में ही मन की सहायता से उन परमसत्ता के बारे में यह सोचा जा सकता है कि वह हमारी गतिविधियों और विचारों पर दृष्टि जमाए हुए हैं। और जब यह विचार दृढ़ होकर स्थायी हो जाता है तब कहा जाता है कि उस व्यक्ति का परमपुरुष से योग हो गया । इसीलिए कहा भी गया है ‘संयोगो योगो इत्युक्तो आत्मनो परमात्मनः।‘ इसी अवस्था को मोक्ष पाना कहते हैं।

नन्दू- लेकिन आपने तो अनेक बार कहा है कि पेड़ पौधों, अन्य जीवों इतना तक कि जड़ पदार्थों के पास भी मन होता है तो वे इसकी सहायता से मुक्त क्यों नहीं हो सकते?

बाबा- हाॅं , सृष्टि की प्रत्येक रचना जैसे हवा, पानी, धरती, आकाशगङ्गाएं आदि का भी मन होता है परन्तु वह सुसुप्तावस्था में होता है। वह सक्रिय नहीं रहता। ‘प्रोटोजोआ‘  का भी मन होता है परन्तु वह केवल जन्मजात वृत्तियों द्वारा ही संचालित होता है, इसी प्रकार पौधों का मन भी केवल जन्मजात वृत्तियों से संचालित होता है वे स्वतंत्र रूपसे विचार नहीं कर पाते।  सामान्य प्राणियों में अर्थात् ‘मेटाजोआ‘ में जन्मजात वृत्तियाॅं होती हैं पर व्यक्तिगत विचार नहीं होता, उन्नत मेटाजोआ अर्थात् उन्नत प्राणियों में थोड़ा सा स्वतंत्र मन होता है और वे उन्नत मेटाजोआ जो मनुष्यों के आस पास रहते हैं जैसे कुत्ता, गाय, बंदर आदि का मन बौद्धिक संसार और अन्तर्तन्त्रिका संरचना में संघर्ष होते रहने के कारण अपने मन को अपेक्षतया अधिक उन्नत कर लेते हैं। परन्तु मनुष्यों का मन उनसे अधिक उन्नत होता है अतः वह अनुभव कर सकता है कि जो कुछ वह करता या सोचता है वह सदा ही परमपुरुष के द्वारा साक्षीभूत होता रहता है तथा कोई भी गुपचुप तरीके से के कुछ भी नहीं कर सकता। मनुष्य का यह सौभाग्य है कि वह सर्वव्यापी परमपुरुष के अस्तित्व के साथ प्रेम कर सकता है और उसे अनुभव कर सकता है।

रवि- मनुष्य के मन में विखंडित वृत्तियाॅं भी तो उत्पन्न होती रहती हैं तब वे परमपुरुष से अपने मन को किस प्रकार जोड़े रह सकते हैं?

बाबा- मनुष्यों का स्तर अन्य प्राणियों से बहुत उन्नत और प्रतिष्ठित है, इस प्रकार की विखंडनकारी वृत्तियों को भूलकर यह सोचना चाहिए कि हम परमपुरुष की प्यारी संतान हैं और हमारा लक्ष्य परमपुरुष हैं। हमारा लक्ष्य परमसत्ता हैं। हम उद्देश्य समायोजन के माध्यम से विषयपरक दृष्टिकोण रखते हैं अर्थात् सब्जेक्टिव एप्रोच थ्रो आब्जेक्टिव एडजस्टमेंट। हमें परमपुरुष की ओर बढ़ना है और इस यात्रा में हमें सामाजिक, आर्थिक और अन्य क्षेत्रों में अपने सभी सांसारिक काम करते जाना है। इसका अर्थ है कि हमारे हाथ तो संसारिक कर्तव्य में लगे रहें पर मन परमपुरुष की ओर ही दौड़ता रहना चाहिए। 

Wednesday, 24 May 2017

128 बहुत कठिन है डगर .. ..

128
बहुत कठिन है डगर .. ..
एक परिवार की दादी माॅं मृत्युशैया पर थीं। परिवार के नाती पोते, बेटे बेटियाॅं, बहुएं  सभी लोग उनके चारों ओर एकत्रित हो गए। दादी माॅं उन सबसे यह पूछने में व्यस्त थी कि ‘‘आज क्या पकाया गया है, घर के सभी कमरों को ठीक ढंग से धोया गया है कि नहीं, सभी ने स्नान कर लिया या नहीं ‘‘ आदि।
इसे सुनकर परिवार के सदस्यों ने निवेदन किया कि, ‘‘ माॅं काम की चिन्ता मत करो, सब होता जा रहा है, तुम तो हरि हरि बोलो‘‘ ।
उन्होंने  इस पर कोई ध्यान नहीं दिया और पूछने लगी, ‘‘ अरे ! गायों को चारा डाला है या नहीं ‘‘ ।
घर के सभी सदस्य चाहते थे कि उनकी मुक्ति हो, इसलिए वे उन्हें बार बार हरि हरि बोलने के लिए कह रहे थे। वे फिर बोले,
‘‘ माॅं ! घर के सभी काम काज सही समय पर उचित ढंग से किये जा रहे हैं तुम्हें चिंता करने की कोई आवश्यकता नहीं है, तुम तो केवल हरि हरि बोलो ।‘‘
दादी ने इसे फिर से अनसुना कर दिया और पूछने लगी, ‘‘ अरे ! कुत्ते को कुछ खिलाया या भूखा ही बैठा है ?‘‘
सदस्यों ने उन्हें हरि हरि बोलने के लिए फिर से प्रार्थना की । यह सुनकर वह झल्लाते हुए बोली,
‘‘  सब लोग यहाॅं से बाहर जाओ ! क्या मैं मर रही हॅूं ? एक ही नाम बार बार कहने की रट लगाए हो, मुझे कठिनाई होती है। ए छोटी बहु ! आॅंगन में जाकर देख कपड़े सूख गए होंगे, उठा ला।  ‘‘
बाहर आकर दादी माॅं के छोटे बेटे ने अपने बड़े भाई से पूछा,
‘‘भैया ! माॅं को यह क्या हो गया है ? हरि हरि बोलने में उन्हें कठिनाई क्यों हो रही है ?‘‘ वह बोले,
‘‘ मन के द्वारा प्रारम्भ से जैसा अभ्यास किया जाता है वह उसी में रमकर सुख पाने लगता है बाद में, इसमें परिवर्तन करना बहुत कठिन होता है।‘‘

127 विछोह, मोह का ? ?

127
विछोह, मोह का ? ?
वाल्यावस्था से ही,  जंगल से सूखी लकड़ियों का गट्ठा सिर पर लाद कर लाना और शहर में बेचना यही दिनचर्या थी बेनीबाई की । इस प्रकार जीविका चलाते चलाते बृद्धावस्था भी आ पहॅुंची। एक दिन अनेक प्रयास करने पर भी जब गट्ठा सिर पर रखते न बना तो हताश बेनी बाई बोली,
‘‘ हे भगवान ! अब तो भेज दो मौत को ? बहुत हो चुका, अरे! बहरे हो गए हो क्या ? कब सुनोगे ?‘‘
कहने की देर ही हुई थी कि यमराज सामने आकर बोले,
‘‘ चलो, बेनी बाई ! मैं आ गया ‘‘
‘‘ लेकिन कहाॅं?‘‘
‘‘ अरे ! तुम्हीं ने तो भगवान से कहा कि मौत को भेज दो, मैं हूँ  यमराज, उनकी आज्ञा से मैं  तुम्हें ले जाने के लिए आया हॅूं , चलो.. ‘‘
‘‘ ये तो बहुत अच्छा किया भैया, चलो, जरा अपना एक हाथ इस गट्ठे पर लगा कर मेरे सिर पर रखवा देा ।

Sunday, 21 May 2017

126 बाबा की क्लास ( संस्कृति और विज्ञान )

126 बाबा की क्लास ( संस्कृति और विज्ञान ) 

इन्दु- कुछ लोगों का मत है कि आधुनिक समाज अनियंत्रित होकर विनाश की ओर  जा रहा है, क्या यह विज्ञान की प्रगति के कारण है ?
बाबा-  हाॅं, आदर्श परिदृश्य में विज्ञान पर संस्कृति का नियंत्रण होना चाहिए तभी समाज की प्रगति उचित रूपसे हो सकेगी। समाज की चतुर्दिक प्रगति के लिए आवश्यक है कि विज्ञान, संस्कृति के अधीनस्थ कार्य करे।

नन्दू- आपके अनुसार एक सुसंस्कृत व्यक्ति कैसा होता है?
बाबा- वह, जिसकी गतिविधियाॅं एवं समग्र आचरण, तर्कसंगत और विवेकपूर्ण हों। कार्य और व्यवहार में जिसके द्वारा जितनी अधिक बुद्धि और विवेक का उपयोग किया जाता है वह उतना ही अधिक, संस्कृति की विकसित अवस्था को प्रकट करता है।

रवि- जैसे?
बाबा- तम्बाकू और उसके उत्पादों के प्रभावों के तर्कसंगत विश्लेषण से स्पष्ट होता है कि वे किसी भी व्यक्ति के स्वास्थ्य के लिए हानिप्रद हैं। इसलिए इनका जो भी उपयोग करता है वह असभ्य है क्योंकि उनकी गतिविधियाॅं तर्क और विवेक सम्मत नहीं हैं। इसी प्रकार के अन्य उदाहरण हैं जैसे अलकोहल और नशीले पदार्थो का सेवन करना।

राजू- संस्कृति का विज्ञान से कोई सम्बंध है या नहीं?
बाबा- विज्ञान के द्वारा ही तम्बाकू , अलकोहल और नशीले पदार्थों का उत्पादन किया जाता है, जो कि मानव की अग्रगति में रोड़ा बनते हैं। अतः इस दृष्टि से विज्ञान, संस्कृति का नाशक हुआ। परन्तु जब विज्ञान को संस्कृति की मुट्ठी में जकड़े रखा जाता है तो उसे इस प्रकार के नुकसान करने का कोई अवसर नहीं मिल पाता। इसलिए विज्ञान और संस्कृति का प्रगाढ़ संबंध है, वे दोनों साथ साथ प्रगति करते हैं। परन्तु जहाॅं विज्ञान की प्रगति संस्कृति से आगे निकल जाती है तब संस्कृति नष्ट होने लगती है।

चन्दू- विज्ञान अन्य किन तरीकों से संस्कृति को विकृत कर रहा है?
बाबा- अनेक प्रकार से। जहाॅं भी विज्ञान का संस्कृति पर अधिक प्रभाव है वहाॅं विज्ञान की प्रगति के नाम पर अनेक समाजविरोधी गतिविधियाॅं चल रही हैं। आज के युग में विज्ञान अपनी ऊंचाइयों पर है तथा अमानवीय गतिविधियों में विज्ञान और तकनीकि का उपयोग करने के लिए अधिक से अधिक धन व्यय किया जा रहा है। चूंकि जीवन के विभिन्न अभिव्यक्तिकरणों में हम जिस परिष्कीकरण की सूक्ष्म भावनाओं का सामना करते हैं उसे संस्कृति कहा जाता है अतः समाज में इन सूक्ष्म भावनाओं को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए ; परन्तु विज्ञान इन सबकी उपेक्षा कर रहा है। इन्टरनेट , फिल्में और संचार के अन्य माध्यमों का पोर्न और विज्ञापनों के द्वारा किस प्रकार का दुरुपयोग किया जा रहा है यह सब को ज्ञात है । इससे संस्कृति का ह्रास हो रहा है।  विज्ञान के पास मानवीयता से जुड़ी इन मूल समस्याओं को हल करने या नियंत्रण करने का कोई समाधान नहीं है जैसे, भुखमरी, शिशुओं की मृत्युदर, और कोलेरा, ट्यूबरक्युलौसिस, मलेरिया जैसी अनेक बीमारियाॅं । इसके अलावा विज्ञान का उपयोग घातक हथियारों को बनाने में किया जा रहा है जो दूसरों को मारने के लिए ही प्रयुक्त होंगे। युद्ध के संसाधनों पर अनेक प्रकार से शोध करने के लिए अपार धन उपलब्ध कराया जा रहा है। इस तरह विज्ञान को संस्कृति की कीमत पर उच्च स्थान दिया जा रहा है।

राजू- तो क्या ग्रीस और इजिप्ट की सभ्यताओं के नष्ट होने का कारण इस विज्ञान को माना जा सकता है?
बाबा- यह बात सही है कि यदि विज्ञान संस्कृति पर अपना कब्जा कर लेता है तो उसे नष्ट होने से बचाया नहीं जा सकता। इजिप्ट और ग्रीस में भी जब तक विज्ञान की प्रगति वहाॅं की संस्कृति में बाधक नहीं बनी संस्कृति उन्नत होती गई परन्तु जब प्रचुर मात्रा में भौतिक सुखसुविधाएं और उनसे आनन्द पाना बढ़ता गया दोनों देशों की संस्कृति नष्ट हो गई क्योंकि विज्ञान को संस्कृति की तुलना में उच्च स्तर प्राप्त हो गया था। दुर्भाग्य से  आज के समाज में हम यही देख रहे हैं, अपमान, पूंजीवाद के तरीके, दुर्व्यवहार  , भौतिकवाद और भोग विलास, दुनिया भर में फैल रहे हैं। इस प्रकार विज्ञान का दुरुपयोग करना हमारी सभ्य मानव अभिव्यक्तियों को नष्ट कर रहा है और संस्कृति का घातक बन गया है।

इन्दु- विज्ञान ने संस्कृति का स्थान क्यों छीन लिया?
बाबा-  पहला कारण तो वह लोभी लोग हैं जिन्हें इसकी सहायता से अधिक लाभ कमाने की इच्छायें घेरे हुए हैं। एक बार जब संस्कृति या सभ्यता नीचे की ओर जाने लगती है तो वह ऋणात्मक दिशा में तेजी से लुढ़कती जाती है। कुछ लोग कहते हैं कि विज्ञान ने आदमी को चंद्रमा पर भेजा, इन्टरनेट खोजा इसलिए उसे आगे बढ़ते जाने दो, रोको नहीं। पर क्या यह सही नहीं है कि विज्ञान जो कुछ भी कर रहा है उस पर नैतिक नियंत्रण किसी का नहीं है? लोग विज्ञान की ओर आॅंख मूंदकर चलते जाते हैं और लोभी पूंजीवादी  अपने एजेंडा के अनुसार लाभ पाने की दिशा में ही उसका उपयोग करते हैं।

रवि- तो सभ्यता और संस्कृति का मान बनाए रखने के लिए विज्ञान पर किस प्रकार नियंत्रण रखना चाहिए?
बाबा- क्या तुम जानते हो कि विज्ञान क्या है? वह ज्ञान जो हमें पदार्थों का उचित उपयोग करना सिखाता है उसे विज्ञान कहते हैं। जहाॅं संस्कृति का विकास बिलकुल नगण्य हो और विज्ञान धीरे धीरे प्रगति करता जाता हो तब विज्ञान मानवता के लिए कोई अच्छा काम करने के स्थान पर विनाश का कारण ही बनता है। यद्यपि विज्ञान की पढ़ाई और अभ्यास करना अपरिहार्य है परन्तु विज्ञान को संस्कृति की तुलना में उच्च स्थान नहीें देना चाहिए। विज्ञान क्या करे और  क्या न करे इस पर स्पष्ट नियंत्रण होना चाहिए, विज्ञान को मानव जीवन नष्ट करने की अनुमति नहीं दी जाना चाहिए चाहे मेगाटन बमों के बेकार उपयोग करने से हो या संस्कृति को विकृत कर छद्म संस्कृति को फैलाने से। इसके अलावा विज्ञान का उपयोग मनुष्यों को निम्न स्तर की वृत्तियों जैसे शराब, पोर्नोग्राफी, जुआ आदि की ओर ले जाने में नहीं करना चाहिए। आज की यह चरम आवश्यकता है। विज्ञान के तरीकों को नियंत्रित करने के लिए प्रबल नैतिक बल होना चाहिए। एक बार विज्ञान और संस्कृति में संतुलन स्थापित हो गया तो अनेक अच्छे परिणाम आने लगेंगे और समाज में सद्भावना की स्थापना होगी। इन दोनों के बीच सुसंतुलन स्थापित किए बिना अन्तर्बोध में प्रगति हो पाना असंभव है। विज्ञान महत्वपूर्ण है क्योंकि वह मनुष्य को अपने लक्ष्य तक जाने में सहायक है परन्तु वह एक अन्धा बल है जो अनियंत्रित होने पर मानव प्रगति में बाधक हो जाता है।

राजू- मैंने पढ़ा है कि धरती का प्राकृतिक इकोसिस्टम और पुनरुत्पादन क्षमता खतरनाक ढंग से घटती जा रही है । जंगल प्रतिदिन 375 वर्ग किलोमीटर की दर से घट रहे हैं और संसार के 80 प्रतिशत मूल वन उजड़ चुके हैं। अनेक  जीवधारी तेज गति से समाप्त होते जा रहे हैं, अगले तीस वर्ष में आज की तुलना में पाॅंचवें हिस्से के बराबर जीव अपना अस्तित्व खो चुकेंगे। यह सब क्यों हो रहा है?
बाबा- यह विज्ञान पर किसी नैतिक बल के नियंत्रण न होने के कारण हो रहा है। स्वार्थी पूंजीवादी सामाजिक तत्व इस अंधेबल का अपने लाभ के लिए दुरुपयोग कर रहे हैं।

चन्दू- विज्ञान पर नियंत्रण करने के लिए आवश्यक नैतिक बल किनके पास है?
बाबा- वे लोग जो यम और नियम की साधना करते हुए विज्ञान को आध्यात्म सम्मत और आध्यात्म को विज्ञान सम्मत बनाना चाहते हैं आवश्यक नैतिक बल जुटा कर यह कार्य कर सकते हैं अन्य कोई नहीं।

Thursday, 18 May 2017

125 कल्पतरु

125 
कल्पतरु

एक सज्जन, ईश्वर से धनधान्य और भौतिक सुखसुविधाएं पाने के लिए अनेक वर्षों से लगातार प्रार्थनाएं कर रहे थे। अन्ततः भगवान ने भी उनकी सुन ही ली । वह उनके सामने प्रकट होकर बोले,

 ‘‘ भक्त ! तुम जानते हो कि मैं सभी लोगों को उनके जन्म के समय ही आवश्यक सभी भौतिक सुविधाएं दे दिया करता हॅूं, परन्तु तुम लम्बे समय से बार बार प्रार्थना कर रहे हो इसलिए अतिरिक्त भौतिक सुख सुविधायें चाहते हो तो सशर्त ही उन्हें दे सकूंगा, बोलो क्या चाहते हो ? ‘‘
कौन सी शर्त ? प्रभो !‘‘
‘‘ यही कि तुम जो भी माॅंगोगे उसका दुगना तुम्हारे पड़ौसी को प्राप्त हो जाएगा ‘‘

सज्जन बड़े ही पशोपेश में पड़ गए, और लगातार सोचने लगे कि यदि धन, फेंसी कार , बंगला आदि मांगा तो क्या होगा !!  बहुत सोचने के बाद अन्त में बोले,
‘‘ प्रभो ! मेरा एक हाथ और एक पैर टूट जाए ‘‘

यह सुनकर भगवान भी चकित रह गए और बोले,
‘‘ तुम इतने दिनों से धन, वैभव और सम्पन्नता पाने के लिए प्रार्थनाएं करते रहे हो , पर आज क्या हो गया ?‘‘

‘‘ प्रभु ! वरदान देने का यह भी कोई तरीका हुआ ? मैं नहीं चाहता कि मेरा पड़ौसी मुझसे अधिक प्रसन्न हो, इसलिए मैं अपने लिए कष्ट माॅंगता हूॅं ताकि शर्त के अनुसार पड़ौसी को मुझसे दुगना कष्ट हो ।‘‘

Sunday, 14 May 2017

124 बाबा की क्लास ( पहले कौन: मुर्गी या अंडा ? )

124 बाबा की क्लास ( पहले कौन: मुर्गी या अंडा ? )
नन्दू- बाबा! युगों से धरती के विभिन्न भागों में इस पहेली पर बिचार किया जाता रहा है कि पहले कौन आया, पक्षी या अंडा? परन्तु उसका सर्व स्वीकार्य समाधान आज तक प्राप्त नहीं हुआ है ?
बाबा- इसे समझने के लिए सबसे पहले जानना होगा कि ब्रह्मांड में परिवर्तन किस प्रकार होते हैं। एक प्रकार है क्रमशः परिवर्तन , जिसमें उदभ अर्थात् स्पेसीज आवश्यकतानुसार परिवर्तित हो जाते हैं । जैसे किसी क्षेत्र विशेष का ताप अधिक हो जाय या कम हो जाय तो कालान्तर में वहाॅं रहने वाले जीव उसके साथ स्वाभाविक अनुकूलन कर लेते हैं। यह एक सतत और धीमी प्रक्रिया है जिसमें हजारों वर्ष लग जाते हैं। इसे ‘होमोमार्फिक इवालुशन‘ कहते हैं। जैसे मानव अपने मानव संतानों को जन्म देता है वे क्रमशः अपनी मानव संतान उत्पन्न करते हैं इस प्रकार सिमिलर एफेक्ट अर्थात् ‘समान प्रभाव‘ में चलते हुए हजारों वर्षों में एक जनरेशन से दूसरी जनरेशन में मामूली सा परिवर्तन होता जाता है। दूसरा प्रकार है अचानक परिवर्तन, जिसमें हजारों वर्ष बाद मूल स्वरूप में ही परिवर्तन हो जाता है। यह ‘डिससिमिलर इफेक्ट‘ अर्थात् असमान प्रभाव होता है और वैज्ञानिक भाषा में ‘ हेट्रोमार्फिक इफेक्ट‘ कहलाता है जिसमें पूर्व जनरेशन के सदस्यों से मूलतः बिलकुल भिन्न आकार प्रकार का शिशु जन्म लेता है।

चन्दू- हेट्रोमार्फिक चेन्ज किस प्रकार होता है?
बाबा- इस नाटकीय परिवर्तन का उत्कृष्ट उदाहरण है ‘आस्ट्रालोपाइथेसीन‘ । इसमें दस लाख वर्ष पहले आस्ट्रालोपाइथेसीन नामक बन्दर जातीय जीव ने अपने नवजात शिशु में अपने से बहुत भिन्नता पाई, जैसे उसके शरीर में कम बाल थे, हाथ पैर छोटे थे, वह झुकने के स्थान पर सीधा खड़ा हो सकता था, बुद्धि अधिक थी आदि आदि, और वह अपने पूर्वजों से अलग था। यही प्रथम मानव कहलाया। इससे धरती का नक्शा ही बदल गया। यह वर्तमान प्रतिरूप का स्मारक परिवर्तन है। इसके पहले आस्ट्रालोपाइथेसीन की संताने आस्ट्रालोपाइथेसीन ही होती रही । यह प्रकृति का परिवर्तन करने का अपना तरीका है। यही बात कुत्ते से भी स्पष्ट है। कुत्ता बहुत प्राचीन नहीं है, यह कुछ हजार साल पुराना ही है।  जब यह अस्तित्व में आया उसकी माॅं कुत्ता प्रजाति की नहीं थी। इस प्रकार के अनेक उदाहरण देखे जा सकते हैं।

इन्दु- परन्तु प्रश्न ‘मुर्गी पहले हुई या अन्डा‘ इसका उत्तर क्या है?
बाबा- इसका उत्तर तो अब तुम ही दे सकती हो। मुर्गी का जन्म मुर्गी के अन्डे से नहीं किसी अन्य पक्षी के अन्डे से हुआ होगा। यही इसका उत्तर है और, यह सृष्टि इसी प्रकार से आगे नयी नयी प्रजातियों को उत्पन्न कर अपना चक्र चलाती जा रही है।

रवि- यह परिवर्तन केवल जन्तुओं में ही होता है या वनस्पतियों में भी?
बाबा- हाॅं वनस्पति में भी यही परिवर्तन होता है और वे अनेक प्रकारों में पाई जाती हैं। ‘खेसारी फली ‘ या ‘ शिम्ब ‘ आज से लगभग दो सौ वर्ष पहले नहीं पाई जाती थी । एक बार बिहार में भयंकर सूखा पड़ा। पूरी धान की फसल पानी के अभाव में सूख गई। इसके बाद अचानक भयंकर जलवर्षा हुई , इससे उस सूखी धान के पुआल से नये प्रकार के पौधे उत्पन्न हुए और उनसे बहुत अधिक मात्रा में नये प्रकार का फल पैदा हुआ जो खेसारी दाल या शिम्ब फली कहलाता है। इस प्रकार चावल के स्थान पर इस नए अन्न के जन्म के कारण, भयंकर  भुखमरी से जूझते लोगों का जीवन बच गया । यह अन्य दालों से सस्ती और अधिक पोषक तत्वों वाली होती है। यह भी हेट्रोमार्फिक इफेक्ट का उदाहरण है। इस प्रकार प्रकृति ही , विभिन्न प्रकारों और आकारों  की वनस्पति अचानक ही उत्पन्न करती जाती है जिनके गुण उनको उत्पन्न करने वाली प्रजातियों से मौलिक रूपसे भिन्न होते हैं।

राजू- जीवधारियों में लिंग निर्धारण किस प्रकार होता है?
बाबा- तुम लोग जानते हो कि जीवात्मा न तो पुल्लिंग, न स्त्रीलिंग और न ही उभयलिंग होता हैं । अपने अपने पूर्व जन्म के संस्कारों के अनुसार ही कोई स्त्री, कोई पुरुष या कभी कभी उभयलिंग होता है। इसमें ऊंचा या नीचा, छोटा या बड़ा, आदर्श या अनादर्श का भेद नहीं होता क्योंकि जीवात्मा तो उस शरीर में मन का केवल साक्षी सत्ता ही होता है। वह भौतिक शरीरों के लिंग से अप्रभावित होता है। एक शरीर की मृत्यु हो जाने पर अपने अभुक्त संस्कारों को भोगने के लिये उसका मन, प्रकृति के द्वारा नियंत्रित रहते हुए उचित स्थान और परिवेश को पा जाने तक भटकता रहता है फिर उचित समय पर संस्कारों को भोगने योग्य दूसरे शरीर को पाता है। इन संस्कारों की प्रकृति के अनुसार या तो उसमें संयोजनी शक्ति अर्थात् दूसरों को आकर्षित करने का गुण या विभाजनी शक्ति अर्थात् स्वयं आकर्षित हो जाने का गुण प्रधान होता है। जिनके संस्कारों में भोग की वस्तुओं को अपनी ओर खींचने का गुण प्रधान होता है अर्थात् संयोजनी शक्ति क्रियारत रहती है वे स्त्रीलिंग शरीर पाते हैं और जिनके अभुक्त संस्कारों में स्वयं भोग की जाने वाली वस्तुओं की ओर आकर्षित हो जाने का गुण अर्थात् विभाजनी शक्ति क्रियारत होती है वे पुल्लिंग शरीर पाते हैं। इसी प्रकार जिनके संस्कार संयोजनी और विभाजनी शक्तियों के बीच लगभग संतुलन रख लेते हैं वे उभयलिंगी होते हैं, परंतु जिनका संतुलन पूर्ण रूप से न होकर किसी भी ओर झुका होता है तो वे उसी लिंग के उभयलिंगी शरीर पाते हैं।

बिन्दु- कास्मिक साइकिल अर्थात् सृष्टि चक्र में विभिन्न जीवों और वनस्पतियों की आयु का निर्धारण किस प्रकार होता है?
बाबा- प्रकृति अपने होमोमार्फिक या हेट्रोर्मािर्फक परिवर्तनों के माध्यम से अपना चक्र चलाती जाती है और सभी को अपनी मूल अवस्था तक पहुंचाने के लिए अनुकूल संवेग अर्थात् मोमेंटम देते हुए परिस्थितियाॅं बनाती जाती है। वनस्पति जगत और जीवधारियों का जीवनकाल भी इसी मोमेंटम के अनुसार निर्धारित होता है। मनुष्य स्तर को छोड़कर अन्य किसी के पास उन्नत स्तर का मन और बुद्धि नहीं होती जिससे कि वे स्वेच्छा से इस मोमेंटम में परिवर्तन कर सकें इसलिए वे सभी प्रकृति के आधीन प्राप्त किए गए मोमेंटम के समाप्त होने पर पूर्वोक्त परिवर्तनों के आधार पर अगले उन्नत स्तर पर स्वाभाविक रूप से पहुंच जाते हैं। परन्तु मनुष्य में उनकी अपेक्षा अधिक उन्नत स्तर का मन और बुद्धि होने के कारण वह प्राकृ्रतिक पर्यावरण के साथ स्वेच्छापूर्वक अपने मानसिक संवेगों अर्थात् रीएक्टिव मोमेंटा में कमी या बृद्धि कर सकता  है। यही रीएक्टिव मोमेंटा दार्शनिक भाषा में संस्कार कहलाते हैं । इन्हीं संस्कारों के भोगकाल तक मनुष्य किसी एक प्रकार का शरीर पाता है उनके समाप्त होने पर शेष बचे संस्कारों और इस जीवन के नए संस्कारों को भोगने के लिए फिर उचित अवसर आने पर फिर से तदनुकूल शरीर प्राप्त होता है जो संस्कारों के अनुकूल उन्नत मनुष्य का या अवनत मनुष्येतर प्राणी का भी हो सकता है। और, यह निर्माण, पालन तथा संहार का क्रम लगातार चलता रहता है जिसे हम सृष्टि चक्र कहते हैं।

Sunday, 7 May 2017

123 बाबा की क्लास ( मानसिक बीमारियाॅं )

123  बाबा की क्लास ( मानसिक बीमारियाॅं )

राजू- बाबा! कुछ लोग दूसरों की प्रगति देखकर प्रसन्न नहीं होते इसका क्या कारण है?
बाबा- हर व्यक्ति में 50 प्रकार की वृत्तियाॅं होती हैं जो प्रत्येक के अपने संस्कारों और मन के ऊपर नियंत्रण रखने के स्तर के अनुसार किसी को कम और किसी को अधिक प्रभावित करती हैं। तुमने जो पूछा है उस वृत्ति का नाम ईर्ष्या  है। यह सामान्यतः सभी समाजों में देखी जाती है। कुछ देशों में इसे सहजता से स्वीकार किया जाता है, परन्तु इससे दुख, उदासी और निराशा के अलावा कुछ नहीं मिलता। यह एक प्रकार का मनोरोग ही है और हमारा आन्तरिक शत्रु है। इस प्रकार के व्यक्ति ईश्वर के बारे में कभी नहीं सोच पाते।

इन्दु- इस मानसिक बीमारी से बचने का क्या उपाय है?
बाबा- इसके लिए दो पदों में प्रयास किया जाता है, पहले स्तर पर जिसकी प्रगति के बारे में सुनकर या देखकर ईष्र्या के भाव उत्पन्न हो उन्हें उदासीन करने के लिए मन में विचार लाना चाहिए कि वह व्यक्ति मेरा ही मित्र है, मेरा ही निकट संबंधी है या मेरे साथ काम करनेवाला है आदि । इस प्रकार सोचने पर मन शान्त और संतुलित हो जाएगा। इसके बाद दूसरे स्तर पर इस शाॅंत और संतुलित मन को आध्यात्मिक साधना, कीर्तन के द्वारा परमपुरुष की ओर प्रवाहित कर देना चाहिए।

रवि- तो क्या लोभ, मोह आदि वृत्तियां भी मानसिक बीमारियाॅ हैं?
बाबा- हाॅं, ये भी मानसिक बीमारियाॅं ही हैं इनसे मन पर नकारात्मक भावनाएं छा जाती हैं। जैसे किसी को धन के प्रति मोह है तो वह सदा धन को पाने या संरक्षण के बारे में ही सोचेगा। इसे दूर करने के लिए इस प्रकार की भावनाएं परमपुरुष की ओर प्रवाहित कर देने से इनसे मुक्त हो सकते हैं। इस बीमारी से ग्रस्त व्यक्ति को सोचना चाहिए ‘‘ हे परमपुरुष! मैं केवल तुम्हें ही चाहता हॅूं,‘‘ इससे भौतिक जगत की चीजें उसे बहका नहीं पाएंगी।

चन्दू- अभी आपने कहा कि नकारात्मक भावनाओं को उदासीन करने के बाद ईश्वर की ओर प्रवाहित कर देना चाहिए, परन्तु कैसे?
बाबा- मानलो कोई व्यक्ति प्रसन्न हो रहा है, सामान्य व्यक्ति उसे देखकर ईर्ष्या  कर सकते हैं। उन्हें उसकी प्रसन्नता देखकर मानसिक कष्ट होता है। यदि वे लोग यह सोचकर कि वह प्रसन्न होने वाला व्यक्ति भी हमारा ही मित्र है अपनी मानसिक तरंगे उसी की ओर प्रवाहित करने लगते हैं तो यह कष्ट दूर हो जाता है। इसलिए जब कभी भी ईर्ष्या  की भवना मन में आती है तो उसे मैत्री भाव देकर सोचना चाहिए कि वाह! कितना अच्छा हुआ, मेरे मित्र को आश्चर्यजनक प्रसन्नता प्राप्त हुई। इस प्रकार जब मन हल्का और नकारात्मक विचारों से स्वतंत्र हो जाता है उसे परमपुरुष की ओर सरलता से मोड़ा जा सकता है।

इन्दु- मानलो कोई व्यक्ति किसी से  ईर्ष्या करता  है और वह किसी भी प्रकार से अपनी भावना को धनात्मकता अर्थात् ईश्वर  की ओर नहीं मोड़ता है तो क्या होगा?
बाबा- इससे उसके मन पर नकारात्मक संस्कार बढ़ते जाएंगे जिन्हें समय आने पर उसे भोगना अनिवार्य होगा, प्रकृति का यही नियम है। नकारात्मक संस्कार मन पर अपना चिन्ह बनाते जाते हैं, मृत्यु के बाद शरीर नष्ट हो जाता है परन्तु मन पर बने यह चिन्ह जिन्हें संस्कार कहा जाता है, बने रहते हैं और इन्हें भोेगने के लिए प्रकृति वैसा ही शरीर उपलब्ध कराती है जिसमें उन्हें भोग पाने के अनुकूल वातावरण होता है। इसलिए इन मनोवैज्ञानिक बीमारियों से सावधान रहने की बहुत आवश्यकता है। किसी के प्रति दुर्भावना मन में आने से भी संस्कार उत्पन्न होकर संचित होते जाते हैं और उसकी प्रतिक्रिया उस मन को ही भोगना पड़ती है जिसने दुर्भावना उत्पन्न की है क्योंकि मन कभी न कभी तो अपनी स्वाभाविक अवस्था में वापस आना चाहेगा।

राजू-क्या मानसिक रोग और मस्तिष्क के रोग एक ही होते हैं?
बाबा- नहीं । मानसिक रोग, मन के द्वारा किसी वस्तु या व्यक्ति के संबंध में जानकारी जुटाने के प्रथम स्तर पर ही दोषपूर्ण चिन्तन के कारण मन पर हुए विरूपण का परिणाम होती हैं जबकि मस्तिष्क के रोग मस्तिष्क के किसी भाग की नाड़ियों में उत्पन्न दोष के कारण होते हैं। यह दोष ब्रेन के निर्माण के समय भी हो सकते हैं या बाद में किसी भौतिक आघात के कारण।

रवि- क्या ‘फोबिया‘ भी मानसिक बीमारी है?
बाबा- हाॅं, यह दोषपूर्ण चिन्तन के कारण मन पर एक ही प्रकार का प्रतिबिम्ब बनाते जाने का परिणाम होता है। मानसिक कमजोरी या भय के कारण मन पर बार बार एक ही प्रकार का चित्र बनता रहता है और भय निर्मित करता है। जैसे, कंस ने यह सुनकर कि कृष्ण उसे मार डालेगा, न चाहते हुए भी अपने मन पर कृष्ण की मारक मुद्रा का चित्र बना लिया फलतः उसे हर बार कृष्ण का नाम सुनते ही हर ओर कृष्ण का ही चित्र दिखाई देने लगा और उसका व्यावहारिक मन अर्थात् आब्जेक्टिवेटेड माइन्ड, साक्ष्यदायक मन अर्थात् सब्जेक्टिवेटेड माइन्ड से प्रबल हो गया जिसका परिणाम था मानसिक मृत्यु । जब मानसिक मृत्यु हो गई तो भौतिक मृत्यु होने में क्या देर लगती?

चन्दू- कुछ लोग ‘हाइड्रोफोबिया‘ कहते हैं यह अलग है क्या?
बाबा- यह ‘रेबीज‘ का एक लक्षण है, जिसमें कुत्ते के काटने पर व्यक्ति इतना डर जाता है कि वह पानी को देखते ही उस में कुत्ते का इमेज देखने लगता है, इतना ही नहीं हर जगह उस कुत्ते का इमेज देखते हुए डरने लगता है। मनुष्यों को,  मानसिक समस्याएं कठिन बन जाने के पूर्व उन्हें  रोकने के लिए अपने आब्जेक्टिवेटेड माइंड पर पूरा नियंत्रण करना सीखना चाहिए।

नन्दू- और ‘ मीनिया ‘ क्या है?
बाबा- प्रायः देखा गया है कि डर से नहीं वरन् कमजोरी के कारण कुछ इमेज मन में बार बार आ जाते हैं। यह मानसिक बीमारी ‘मीनिया‘ कहलाती है। कुछ देशों में महिलाओं में ‘टचमीनिया‘ भी देखा जाता है। वे किसी विशेष जाति के लोगों को छूना  या उनके द्वारा किसी वस्तु को छूना वर्जित मानती हैं, वे रास्ते में चलते समय इन लोगों से बचने के लिए विशेष प्रकार की सावधानी रखती हैं। अपने मन में पहले से ही इस प्रकार का पूर्वाग्रह पालना इसका कारण होता है । उनका मन पहले से ही तथाकथित अशुद्ध वस्तुओं के विचारों से भरा होता है। इसी प्रकार कई लोग स्वस्थ रहते हैं परन्तु फिर भी वे बार बार डाक्टर के पास जाकर कहते हैं कि उन्हें कुछ बीमारी है, यह ‘मीनिया‘ है।

इन्दु- ‘मेलन्कोलिया‘ या ‘डिप्रेसन‘ भी साइकिक डिजीज हैं क्या?
बाबा- हाॅं, आब्जेक्टिवेटेड माइंड में समस्या होने पर मन में अनेक प्रकार की जटिलताएं आ जाती हैं। जैसे कुछ लोग सोचने लगते हैं कि न तो मित्र, न रिश्तेदार  और न ही पालतू जानवर उनके बारे में सोचते हैं और न ही उनकी चिन्ता करते हैं। अनावश्यक रूप से वे यह भी सोचते हैं कि कोई भी उन्हें नहीं चाहता, सभी जानबूझकर उनकी उपेक्षा करते हैं । इस प्रकार वे अनुत्साहित और निराश हो जाते हैं। जीवन से उन्हें कोई लगाव नहीं रहता और वे आत्महत्या कर लेते हैं। इस प्रकार का मीनिया ही मेलन्कोलिया कहलाता है। इसी के अन्तर्गत एक मानसिक रोग ‘स्ट्रीओफेनिया ‘ कहलाता है जिसमें कोई व्यक्ति बार बार एक ही प्रकार की मुखमुद्रा बनाता है जो प्रायः उसे ज्ञात नहीं होती ।

नन्दू- क्या मीनिया के कई प्रकार हैं?
बाबा- हाॅं, एक प्रकार है सुपीरियरिटी काम्प्लेक्स। जब किसी का आब्जेक्टिवेटेड माइंड इतना अधिक बड़ा हो जाता है कि वह अपने अहंकार से ही प्रेम करने लगता है तो इसे सुपीरियरिटी काम्प्लेक्स कहते हैं। इस प्रकार का व्यक्ति अपने को ज्ञान में, कार्यक्षमता मे, नेतृत्व क्षमता में,  दूसरों से श्रेष्ठ समझने लगता है और दूसरों से अपने को प्राथमिता देने की अपेक्षा रखता है, व्हीआईपी स्टेटस चाहता है और बिना तर्क आज्ञा माानने की चाह रखता है। यदि किसी प्रकार उनका अहं प्रभावित होता है तो वे आक्रामक रूप से क्रोधित हो जाते हैं , यह अन्य प्रकार का मीनिया है। इसी प्रकार , इससे उल्टा इन्फीरियरिटी काम्प्लेक्स होता है। इस अवस्था में व्यक्ति का आब्जेक्टिीवेटेड माईड इतना दबाव अनुभव करता है कि वह संकुचित हो जाता है। वह उत्तम विचारों को ग्रहण करने में असफल रहता है और सोचने लगता है कि  वह दूसरों से शिक्षा, सामाजिक स्थिति आदि से कमतर है। इस प्रकार के लोग अपने से वरिष्ठ या बुजुर्गों के सामने लड़खड़ाने या हकलाने लगते हैं। उनमें आत्मविश्वास की कमी आ जाती है। इसी प्रकार एक ‘वोकल मीनिया‘ होता है जिसमें कोई व्यक्ति बोलने का प्रयत्न तो करता है परन्तु बोल नहीं पाता।

रवि- इस प्रकार की मानसिक बीमारियों का सही इलाज क्या है?
बाबा- सभी नहीं तो अधिकांश मानसिक बीमारियाॅं आब्जेक्टिीवेटेड माइंड पर त्रुटिपूर्ण नियंत्रण करने से होती हैं। सावधान रहने पर कष्ट को दूर रखा जा सकता है। नियमित रूपसे ईश्वर प्रणिधान या ध्यान करने वालों का मन संतुलित रहता है इसलिए वे इनसे मुक्त रहते हैं। ध्यान साधना करने का सबसे बड़ा लाभ यह है कि उससे मन का स्वाभाविक विकास होता है और मानसिक बीमारियाॅं बहुत दूर रहती हैं। यदि सभी लोग इसका महत्व समझ लें तो न तो व्यक्तिगत और न ही सामाजिक रूपसे इन बीमारियों को पनपने का अवसर मिलेगा । मन के स्वाभाविक विकास से मानव जीवन में आने वाली व्यर्थ की समस्यायें दूर रहेंगीं।

Thursday, 4 May 2017

122 यतो धर्मः ततो जयः

122 यतो धर्मः ततो जयः

एक बार किसी राजा ने ऐसे स्थान पर बाजार बनवा दिया जहाॅं  कम लोग ही जाते थे इसलिए दूकानदारों ने कहा ‘‘ महाराज ! हमारा सामान वहाॅं कौन खरीदेगा, यदि सामान न बिका तो हम तो भूखे मर जाऐंगे?‘‘
राजा ने कहा ‘‘ कोई बात नहीं जिस दिन किसी का सामान न बिक पाए तो वह मैं खरीद लिया करूंगा‘‘
एक दिन किसी ने दुर्भाग्य की तस्वीर बनाकर बाजार में बेचना चाही, लेकिन रात हो गई किसी ने उसे न खरीदा। अन्त में वह राजा के पास पहुंचा और उनका वचन याद कराया, उन्होंने तत्काल वह तस्वीर खरीद ली।

राजमहल में दुर्भाग्य की तस्वीर के आते ही उसी रात में एक महिला के रोने की आवाज सुनकर राजा ने उसके पास जाकर पूछा ‘‘ तुम कौन हो? क्यों रो रही हो?‘‘
‘‘ महाराज मैं राजलक्ष्मी हॅूं , यहाॅं अब दुर्भाग्य आकर रहने लगा है इसलिए मैं यहाॅं से जा रही हॅूं‘‘
‘‘ अच्छा ! जैसी तुम्हारी इच्छा‘‘ राजा ने कहा।

जब लक्ष्मी चली गई तो एक एक करके सेनापति, सुख, शान्ति और वैभव भी चलते बने। अन्त में धर्मदेव भी जाने लगे तो राजा पूछा ‘‘आप क्यों जाते हो‘‘
धर्मदेव वोले ‘‘ जब इस राज्य में दुर्भाग्य के कारण सभी चले गए हैं तो मैं भी यहाॅं क्यों रुकूं ?‘‘
‘‘ लेकिन दुर्भाग्य को खरीद कर मैने तो अपने वचन को निभाया, अपने धर्म का पालन किया ‘‘ राजा बोला।
‘‘ हाॅं यह बात तो है, अच्छा मैं रुक जाता हॅूं‘‘ कहते हुए धर्म रुक गया।
धीरे धीरे जो चले गए थे सभी वापस आ गए और सबसे अन्त में लक्ष्मी भी शर्म से लम्बे घूंघट में मुंह छिपाए महल में आ गईं। राजा ने पूछा,
‘‘ अब दुर्भाग्य के साथ कैसे रहोगी?‘‘
‘‘ जहाॅं धर्म है वहाॅं दुर्भाग्य से क्या डरना ‘‘
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