Sunday 7 May 2017

123 बाबा की क्लास ( मानसिक बीमारियाॅं )

123  बाबा की क्लास ( मानसिक बीमारियाॅं )

राजू- बाबा! कुछ लोग दूसरों की प्रगति देखकर प्रसन्न नहीं होते इसका क्या कारण है?
बाबा- हर व्यक्ति में 50 प्रकार की वृत्तियाॅं होती हैं जो प्रत्येक के अपने संस्कारों और मन के ऊपर नियंत्रण रखने के स्तर के अनुसार किसी को कम और किसी को अधिक प्रभावित करती हैं। तुमने जो पूछा है उस वृत्ति का नाम ईर्ष्या  है। यह सामान्यतः सभी समाजों में देखी जाती है। कुछ देशों में इसे सहजता से स्वीकार किया जाता है, परन्तु इससे दुख, उदासी और निराशा के अलावा कुछ नहीं मिलता। यह एक प्रकार का मनोरोग ही है और हमारा आन्तरिक शत्रु है। इस प्रकार के व्यक्ति ईश्वर के बारे में कभी नहीं सोच पाते।

इन्दु- इस मानसिक बीमारी से बचने का क्या उपाय है?
बाबा- इसके लिए दो पदों में प्रयास किया जाता है, पहले स्तर पर जिसकी प्रगति के बारे में सुनकर या देखकर ईष्र्या के भाव उत्पन्न हो उन्हें उदासीन करने के लिए मन में विचार लाना चाहिए कि वह व्यक्ति मेरा ही मित्र है, मेरा ही निकट संबंधी है या मेरे साथ काम करनेवाला है आदि । इस प्रकार सोचने पर मन शान्त और संतुलित हो जाएगा। इसके बाद दूसरे स्तर पर इस शाॅंत और संतुलित मन को आध्यात्मिक साधना, कीर्तन के द्वारा परमपुरुष की ओर प्रवाहित कर देना चाहिए।

रवि- तो क्या लोभ, मोह आदि वृत्तियां भी मानसिक बीमारियाॅ हैं?
बाबा- हाॅं, ये भी मानसिक बीमारियाॅं ही हैं इनसे मन पर नकारात्मक भावनाएं छा जाती हैं। जैसे किसी को धन के प्रति मोह है तो वह सदा धन को पाने या संरक्षण के बारे में ही सोचेगा। इसे दूर करने के लिए इस प्रकार की भावनाएं परमपुरुष की ओर प्रवाहित कर देने से इनसे मुक्त हो सकते हैं। इस बीमारी से ग्रस्त व्यक्ति को सोचना चाहिए ‘‘ हे परमपुरुष! मैं केवल तुम्हें ही चाहता हॅूं,‘‘ इससे भौतिक जगत की चीजें उसे बहका नहीं पाएंगी।

चन्दू- अभी आपने कहा कि नकारात्मक भावनाओं को उदासीन करने के बाद ईश्वर की ओर प्रवाहित कर देना चाहिए, परन्तु कैसे?
बाबा- मानलो कोई व्यक्ति प्रसन्न हो रहा है, सामान्य व्यक्ति उसे देखकर ईर्ष्या  कर सकते हैं। उन्हें उसकी प्रसन्नता देखकर मानसिक कष्ट होता है। यदि वे लोग यह सोचकर कि वह प्रसन्न होने वाला व्यक्ति भी हमारा ही मित्र है अपनी मानसिक तरंगे उसी की ओर प्रवाहित करने लगते हैं तो यह कष्ट दूर हो जाता है। इसलिए जब कभी भी ईर्ष्या  की भवना मन में आती है तो उसे मैत्री भाव देकर सोचना चाहिए कि वाह! कितना अच्छा हुआ, मेरे मित्र को आश्चर्यजनक प्रसन्नता प्राप्त हुई। इस प्रकार जब मन हल्का और नकारात्मक विचारों से स्वतंत्र हो जाता है उसे परमपुरुष की ओर सरलता से मोड़ा जा सकता है।

इन्दु- मानलो कोई व्यक्ति किसी से  ईर्ष्या करता  है और वह किसी भी प्रकार से अपनी भावना को धनात्मकता अर्थात् ईश्वर  की ओर नहीं मोड़ता है तो क्या होगा?
बाबा- इससे उसके मन पर नकारात्मक संस्कार बढ़ते जाएंगे जिन्हें समय आने पर उसे भोगना अनिवार्य होगा, प्रकृति का यही नियम है। नकारात्मक संस्कार मन पर अपना चिन्ह बनाते जाते हैं, मृत्यु के बाद शरीर नष्ट हो जाता है परन्तु मन पर बने यह चिन्ह जिन्हें संस्कार कहा जाता है, बने रहते हैं और इन्हें भोेगने के लिए प्रकृति वैसा ही शरीर उपलब्ध कराती है जिसमें उन्हें भोग पाने के अनुकूल वातावरण होता है। इसलिए इन मनोवैज्ञानिक बीमारियों से सावधान रहने की बहुत आवश्यकता है। किसी के प्रति दुर्भावना मन में आने से भी संस्कार उत्पन्न होकर संचित होते जाते हैं और उसकी प्रतिक्रिया उस मन को ही भोगना पड़ती है जिसने दुर्भावना उत्पन्न की है क्योंकि मन कभी न कभी तो अपनी स्वाभाविक अवस्था में वापस आना चाहेगा।

राजू-क्या मानसिक रोग और मस्तिष्क के रोग एक ही होते हैं?
बाबा- नहीं । मानसिक रोग, मन के द्वारा किसी वस्तु या व्यक्ति के संबंध में जानकारी जुटाने के प्रथम स्तर पर ही दोषपूर्ण चिन्तन के कारण मन पर हुए विरूपण का परिणाम होती हैं जबकि मस्तिष्क के रोग मस्तिष्क के किसी भाग की नाड़ियों में उत्पन्न दोष के कारण होते हैं। यह दोष ब्रेन के निर्माण के समय भी हो सकते हैं या बाद में किसी भौतिक आघात के कारण।

रवि- क्या ‘फोबिया‘ भी मानसिक बीमारी है?
बाबा- हाॅं, यह दोषपूर्ण चिन्तन के कारण मन पर एक ही प्रकार का प्रतिबिम्ब बनाते जाने का परिणाम होता है। मानसिक कमजोरी या भय के कारण मन पर बार बार एक ही प्रकार का चित्र बनता रहता है और भय निर्मित करता है। जैसे, कंस ने यह सुनकर कि कृष्ण उसे मार डालेगा, न चाहते हुए भी अपने मन पर कृष्ण की मारक मुद्रा का चित्र बना लिया फलतः उसे हर बार कृष्ण का नाम सुनते ही हर ओर कृष्ण का ही चित्र दिखाई देने लगा और उसका व्यावहारिक मन अर्थात् आब्जेक्टिवेटेड माइन्ड, साक्ष्यदायक मन अर्थात् सब्जेक्टिवेटेड माइन्ड से प्रबल हो गया जिसका परिणाम था मानसिक मृत्यु । जब मानसिक मृत्यु हो गई तो भौतिक मृत्यु होने में क्या देर लगती?

चन्दू- कुछ लोग ‘हाइड्रोफोबिया‘ कहते हैं यह अलग है क्या?
बाबा- यह ‘रेबीज‘ का एक लक्षण है, जिसमें कुत्ते के काटने पर व्यक्ति इतना डर जाता है कि वह पानी को देखते ही उस में कुत्ते का इमेज देखने लगता है, इतना ही नहीं हर जगह उस कुत्ते का इमेज देखते हुए डरने लगता है। मनुष्यों को,  मानसिक समस्याएं कठिन बन जाने के पूर्व उन्हें  रोकने के लिए अपने आब्जेक्टिवेटेड माइंड पर पूरा नियंत्रण करना सीखना चाहिए।

नन्दू- और ‘ मीनिया ‘ क्या है?
बाबा- प्रायः देखा गया है कि डर से नहीं वरन् कमजोरी के कारण कुछ इमेज मन में बार बार आ जाते हैं। यह मानसिक बीमारी ‘मीनिया‘ कहलाती है। कुछ देशों में महिलाओं में ‘टचमीनिया‘ भी देखा जाता है। वे किसी विशेष जाति के लोगों को छूना  या उनके द्वारा किसी वस्तु को छूना वर्जित मानती हैं, वे रास्ते में चलते समय इन लोगों से बचने के लिए विशेष प्रकार की सावधानी रखती हैं। अपने मन में पहले से ही इस प्रकार का पूर्वाग्रह पालना इसका कारण होता है । उनका मन पहले से ही तथाकथित अशुद्ध वस्तुओं के विचारों से भरा होता है। इसी प्रकार कई लोग स्वस्थ रहते हैं परन्तु फिर भी वे बार बार डाक्टर के पास जाकर कहते हैं कि उन्हें कुछ बीमारी है, यह ‘मीनिया‘ है।

इन्दु- ‘मेलन्कोलिया‘ या ‘डिप्रेसन‘ भी साइकिक डिजीज हैं क्या?
बाबा- हाॅं, आब्जेक्टिवेटेड माइंड में समस्या होने पर मन में अनेक प्रकार की जटिलताएं आ जाती हैं। जैसे कुछ लोग सोचने लगते हैं कि न तो मित्र, न रिश्तेदार  और न ही पालतू जानवर उनके बारे में सोचते हैं और न ही उनकी चिन्ता करते हैं। अनावश्यक रूप से वे यह भी सोचते हैं कि कोई भी उन्हें नहीं चाहता, सभी जानबूझकर उनकी उपेक्षा करते हैं । इस प्रकार वे अनुत्साहित और निराश हो जाते हैं। जीवन से उन्हें कोई लगाव नहीं रहता और वे आत्महत्या कर लेते हैं। इस प्रकार का मीनिया ही मेलन्कोलिया कहलाता है। इसी के अन्तर्गत एक मानसिक रोग ‘स्ट्रीओफेनिया ‘ कहलाता है जिसमें कोई व्यक्ति बार बार एक ही प्रकार की मुखमुद्रा बनाता है जो प्रायः उसे ज्ञात नहीं होती ।

नन्दू- क्या मीनिया के कई प्रकार हैं?
बाबा- हाॅं, एक प्रकार है सुपीरियरिटी काम्प्लेक्स। जब किसी का आब्जेक्टिवेटेड माइंड इतना अधिक बड़ा हो जाता है कि वह अपने अहंकार से ही प्रेम करने लगता है तो इसे सुपीरियरिटी काम्प्लेक्स कहते हैं। इस प्रकार का व्यक्ति अपने को ज्ञान में, कार्यक्षमता मे, नेतृत्व क्षमता में,  दूसरों से श्रेष्ठ समझने लगता है और दूसरों से अपने को प्राथमिता देने की अपेक्षा रखता है, व्हीआईपी स्टेटस चाहता है और बिना तर्क आज्ञा माानने की चाह रखता है। यदि किसी प्रकार उनका अहं प्रभावित होता है तो वे आक्रामक रूप से क्रोधित हो जाते हैं , यह अन्य प्रकार का मीनिया है। इसी प्रकार , इससे उल्टा इन्फीरियरिटी काम्प्लेक्स होता है। इस अवस्था में व्यक्ति का आब्जेक्टिीवेटेड माईड इतना दबाव अनुभव करता है कि वह संकुचित हो जाता है। वह उत्तम विचारों को ग्रहण करने में असफल रहता है और सोचने लगता है कि  वह दूसरों से शिक्षा, सामाजिक स्थिति आदि से कमतर है। इस प्रकार के लोग अपने से वरिष्ठ या बुजुर्गों के सामने लड़खड़ाने या हकलाने लगते हैं। उनमें आत्मविश्वास की कमी आ जाती है। इसी प्रकार एक ‘वोकल मीनिया‘ होता है जिसमें कोई व्यक्ति बोलने का प्रयत्न तो करता है परन्तु बोल नहीं पाता।

रवि- इस प्रकार की मानसिक बीमारियों का सही इलाज क्या है?
बाबा- सभी नहीं तो अधिकांश मानसिक बीमारियाॅं आब्जेक्टिीवेटेड माइंड पर त्रुटिपूर्ण नियंत्रण करने से होती हैं। सावधान रहने पर कष्ट को दूर रखा जा सकता है। नियमित रूपसे ईश्वर प्रणिधान या ध्यान करने वालों का मन संतुलित रहता है इसलिए वे इनसे मुक्त रहते हैं। ध्यान साधना करने का सबसे बड़ा लाभ यह है कि उससे मन का स्वाभाविक विकास होता है और मानसिक बीमारियाॅं बहुत दूर रहती हैं। यदि सभी लोग इसका महत्व समझ लें तो न तो व्यक्तिगत और न ही सामाजिक रूपसे इन बीमारियों को पनपने का अवसर मिलेगा । मन के स्वाभाविक विकास से मानव जीवन में आने वाली व्यर्थ की समस्यायें दूर रहेंगीं।

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