Sunday 14 May 2017

124 बाबा की क्लास ( पहले कौन: मुर्गी या अंडा ? )

124 बाबा की क्लास ( पहले कौन: मुर्गी या अंडा ? )
नन्दू- बाबा! युगों से धरती के विभिन्न भागों में इस पहेली पर बिचार किया जाता रहा है कि पहले कौन आया, पक्षी या अंडा? परन्तु उसका सर्व स्वीकार्य समाधान आज तक प्राप्त नहीं हुआ है ?
बाबा- इसे समझने के लिए सबसे पहले जानना होगा कि ब्रह्मांड में परिवर्तन किस प्रकार होते हैं। एक प्रकार है क्रमशः परिवर्तन , जिसमें उदभ अर्थात् स्पेसीज आवश्यकतानुसार परिवर्तित हो जाते हैं । जैसे किसी क्षेत्र विशेष का ताप अधिक हो जाय या कम हो जाय तो कालान्तर में वहाॅं रहने वाले जीव उसके साथ स्वाभाविक अनुकूलन कर लेते हैं। यह एक सतत और धीमी प्रक्रिया है जिसमें हजारों वर्ष लग जाते हैं। इसे ‘होमोमार्फिक इवालुशन‘ कहते हैं। जैसे मानव अपने मानव संतानों को जन्म देता है वे क्रमशः अपनी मानव संतान उत्पन्न करते हैं इस प्रकार सिमिलर एफेक्ट अर्थात् ‘समान प्रभाव‘ में चलते हुए हजारों वर्षों में एक जनरेशन से दूसरी जनरेशन में मामूली सा परिवर्तन होता जाता है। दूसरा प्रकार है अचानक परिवर्तन, जिसमें हजारों वर्ष बाद मूल स्वरूप में ही परिवर्तन हो जाता है। यह ‘डिससिमिलर इफेक्ट‘ अर्थात् असमान प्रभाव होता है और वैज्ञानिक भाषा में ‘ हेट्रोमार्फिक इफेक्ट‘ कहलाता है जिसमें पूर्व जनरेशन के सदस्यों से मूलतः बिलकुल भिन्न आकार प्रकार का शिशु जन्म लेता है।

चन्दू- हेट्रोमार्फिक चेन्ज किस प्रकार होता है?
बाबा- इस नाटकीय परिवर्तन का उत्कृष्ट उदाहरण है ‘आस्ट्रालोपाइथेसीन‘ । इसमें दस लाख वर्ष पहले आस्ट्रालोपाइथेसीन नामक बन्दर जातीय जीव ने अपने नवजात शिशु में अपने से बहुत भिन्नता पाई, जैसे उसके शरीर में कम बाल थे, हाथ पैर छोटे थे, वह झुकने के स्थान पर सीधा खड़ा हो सकता था, बुद्धि अधिक थी आदि आदि, और वह अपने पूर्वजों से अलग था। यही प्रथम मानव कहलाया। इससे धरती का नक्शा ही बदल गया। यह वर्तमान प्रतिरूप का स्मारक परिवर्तन है। इसके पहले आस्ट्रालोपाइथेसीन की संताने आस्ट्रालोपाइथेसीन ही होती रही । यह प्रकृति का परिवर्तन करने का अपना तरीका है। यही बात कुत्ते से भी स्पष्ट है। कुत्ता बहुत प्राचीन नहीं है, यह कुछ हजार साल पुराना ही है।  जब यह अस्तित्व में आया उसकी माॅं कुत्ता प्रजाति की नहीं थी। इस प्रकार के अनेक उदाहरण देखे जा सकते हैं।

इन्दु- परन्तु प्रश्न ‘मुर्गी पहले हुई या अन्डा‘ इसका उत्तर क्या है?
बाबा- इसका उत्तर तो अब तुम ही दे सकती हो। मुर्गी का जन्म मुर्गी के अन्डे से नहीं किसी अन्य पक्षी के अन्डे से हुआ होगा। यही इसका उत्तर है और, यह सृष्टि इसी प्रकार से आगे नयी नयी प्रजातियों को उत्पन्न कर अपना चक्र चलाती जा रही है।

रवि- यह परिवर्तन केवल जन्तुओं में ही होता है या वनस्पतियों में भी?
बाबा- हाॅं वनस्पति में भी यही परिवर्तन होता है और वे अनेक प्रकारों में पाई जाती हैं। ‘खेसारी फली ‘ या ‘ शिम्ब ‘ आज से लगभग दो सौ वर्ष पहले नहीं पाई जाती थी । एक बार बिहार में भयंकर सूखा पड़ा। पूरी धान की फसल पानी के अभाव में सूख गई। इसके बाद अचानक भयंकर जलवर्षा हुई , इससे उस सूखी धान के पुआल से नये प्रकार के पौधे उत्पन्न हुए और उनसे बहुत अधिक मात्रा में नये प्रकार का फल पैदा हुआ जो खेसारी दाल या शिम्ब फली कहलाता है। इस प्रकार चावल के स्थान पर इस नए अन्न के जन्म के कारण, भयंकर  भुखमरी से जूझते लोगों का जीवन बच गया । यह अन्य दालों से सस्ती और अधिक पोषक तत्वों वाली होती है। यह भी हेट्रोमार्फिक इफेक्ट का उदाहरण है। इस प्रकार प्रकृति ही , विभिन्न प्रकारों और आकारों  की वनस्पति अचानक ही उत्पन्न करती जाती है जिनके गुण उनको उत्पन्न करने वाली प्रजातियों से मौलिक रूपसे भिन्न होते हैं।

राजू- जीवधारियों में लिंग निर्धारण किस प्रकार होता है?
बाबा- तुम लोग जानते हो कि जीवात्मा न तो पुल्लिंग, न स्त्रीलिंग और न ही उभयलिंग होता हैं । अपने अपने पूर्व जन्म के संस्कारों के अनुसार ही कोई स्त्री, कोई पुरुष या कभी कभी उभयलिंग होता है। इसमें ऊंचा या नीचा, छोटा या बड़ा, आदर्श या अनादर्श का भेद नहीं होता क्योंकि जीवात्मा तो उस शरीर में मन का केवल साक्षी सत्ता ही होता है। वह भौतिक शरीरों के लिंग से अप्रभावित होता है। एक शरीर की मृत्यु हो जाने पर अपने अभुक्त संस्कारों को भोगने के लिये उसका मन, प्रकृति के द्वारा नियंत्रित रहते हुए उचित स्थान और परिवेश को पा जाने तक भटकता रहता है फिर उचित समय पर संस्कारों को भोगने योग्य दूसरे शरीर को पाता है। इन संस्कारों की प्रकृति के अनुसार या तो उसमें संयोजनी शक्ति अर्थात् दूसरों को आकर्षित करने का गुण या विभाजनी शक्ति अर्थात् स्वयं आकर्षित हो जाने का गुण प्रधान होता है। जिनके संस्कारों में भोग की वस्तुओं को अपनी ओर खींचने का गुण प्रधान होता है अर्थात् संयोजनी शक्ति क्रियारत रहती है वे स्त्रीलिंग शरीर पाते हैं और जिनके अभुक्त संस्कारों में स्वयं भोग की जाने वाली वस्तुओं की ओर आकर्षित हो जाने का गुण अर्थात् विभाजनी शक्ति क्रियारत होती है वे पुल्लिंग शरीर पाते हैं। इसी प्रकार जिनके संस्कार संयोजनी और विभाजनी शक्तियों के बीच लगभग संतुलन रख लेते हैं वे उभयलिंगी होते हैं, परंतु जिनका संतुलन पूर्ण रूप से न होकर किसी भी ओर झुका होता है तो वे उसी लिंग के उभयलिंगी शरीर पाते हैं।

बिन्दु- कास्मिक साइकिल अर्थात् सृष्टि चक्र में विभिन्न जीवों और वनस्पतियों की आयु का निर्धारण किस प्रकार होता है?
बाबा- प्रकृति अपने होमोमार्फिक या हेट्रोर्मािर्फक परिवर्तनों के माध्यम से अपना चक्र चलाती जाती है और सभी को अपनी मूल अवस्था तक पहुंचाने के लिए अनुकूल संवेग अर्थात् मोमेंटम देते हुए परिस्थितियाॅं बनाती जाती है। वनस्पति जगत और जीवधारियों का जीवनकाल भी इसी मोमेंटम के अनुसार निर्धारित होता है। मनुष्य स्तर को छोड़कर अन्य किसी के पास उन्नत स्तर का मन और बुद्धि नहीं होती जिससे कि वे स्वेच्छा से इस मोमेंटम में परिवर्तन कर सकें इसलिए वे सभी प्रकृति के आधीन प्राप्त किए गए मोमेंटम के समाप्त होने पर पूर्वोक्त परिवर्तनों के आधार पर अगले उन्नत स्तर पर स्वाभाविक रूप से पहुंच जाते हैं। परन्तु मनुष्य में उनकी अपेक्षा अधिक उन्नत स्तर का मन और बुद्धि होने के कारण वह प्राकृ्रतिक पर्यावरण के साथ स्वेच्छापूर्वक अपने मानसिक संवेगों अर्थात् रीएक्टिव मोमेंटा में कमी या बृद्धि कर सकता  है। यही रीएक्टिव मोमेंटा दार्शनिक भाषा में संस्कार कहलाते हैं । इन्हीं संस्कारों के भोगकाल तक मनुष्य किसी एक प्रकार का शरीर पाता है उनके समाप्त होने पर शेष बचे संस्कारों और इस जीवन के नए संस्कारों को भोगने के लिए फिर उचित अवसर आने पर फिर से तदनुकूल शरीर प्राप्त होता है जो संस्कारों के अनुकूल उन्नत मनुष्य का या अवनत मनुष्येतर प्राणी का भी हो सकता है। और, यह निर्माण, पालन तथा संहार का क्रम लगातार चलता रहता है जिसे हम सृष्टि चक्र कहते हैं।

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