Sunday, 31 December 2017

174 बाबा की क्लास ( शिवलिंग )

मित्रो ! भगवान सदाशिव के संबंध में जानने योग्य सभी तथ्यों एवं समाज को उनके योगदान संबंधी जानकारी को आप लोग पिछली दो ‘‘ बाबा की क्लासों’’ में पा चुकेे हैं। इस क्लास में वह जानकारी दी जा रही है जिसे पाने के लिए आप सभी प्रयासरत रहे हैं पर, समाधानकारक व्याख्या प्राप्त नहीं होने के कारण उसमें आज भी भ्रम बना हुआ है। वह है ‘‘शिवलिंग’’ । इस क्लास के प्रश्नोत्तरों की प्रत्येक लाइन को ध्यानपूर्वक पढ़िए फिर मनन कीजिए और यदि तर्क तथा विज्ञान सम्मत लगती हो तो विवेकपूर्वक निर्णय लेकर उसे स्वीकार कीजिए और अन्य सभी को भी अवगत कराइए। नववर्ष 2018 की सादर  मंगलकामनाएं।

174 बाबा की क्लास ( शिवलिंग )

राजू- शिवपूजन के साथ एक बड़ा ही विचित्र और भ्रामक विधान ‘लिंगपूजा‘ का बनाया गया है यह बात समझ के बाहर है?
बाबा- प्रागैतिहासिक काल में ही नहीं वैदिक युग से पहले से ही लोग लिंगपूजा करते आये हैं। कारण यह था कि उस समय लोग दिन में या रात में कभी भी सुरक्षित नहीं थे। एक समूह दूसरे पर आक्रमण कर अपने समूह के प्रभाव को संरक्षित करना चाहता था अतः स्वाभाविक था कि उनकी संख्या अधिक हो, इसलिये लिंगपूजा को जनसंख्या बढ़ाने के उद्देश्य  से तत्कालीन समाज में मान्यता दी गई। इसीलिये, यह भी प्रचारित किया गया कि जिसके अधिक संतान होगी वे भगवान को अधिक प्रिय होंगे और समाज में आदरणीय; (दुश्परिणामतः , वर्तमान में इसके विपरीत परिवार नियोजन और छोटे परिवार की अवधारणा आई है) । तत्कालीन विश्व  के लगभग सभी देशों  में लिंगपूजा किये जाने के प्रमाण मिले हैं। अतः सत्य यही है कि लिंगपूजा को प्रागैतिहासिक काल से ही ‘‘सामाजिक रिवाज’’ के रूप में ही माना जाता था न कि आध्यात्मिक या दार्शनिक  आधार पर।

रवि- तो ‘लिंगपूजा‘ को शिव से कब और कैसे जोड़ा गया?
बाबा- जैन मत के प्रचार के समय तीर्थंकरों की नग्नमूर्तियों की पूजा ने लोगों के मन में नया विचार जगाया और लिंगपूजा को आध्यात्म से जोड़ने का कार्य प्रारंभ हुआ। जैन धर्म के प्रभाव से आज से लगभग 2500 वर्ष पहले तीर्थंकरों को नया महत्व मिलने के कारण लिंगपूजा का, जनसंख्या बढ़ाने का पुराना अर्थ बदलकर शिवतंत्र में स्वीकृत दार्शनिक और आध्यात्मिक अर्थ ‘‘ लिंगयते गमयते यस्मिन तल्लिंगम‘‘से जोड़ दिया गया। जिसका अर्थ है वह परमसत्ता जहाॅं से सभी आए हैं और जिस ओर सभी जा रहे हैं वही लिंग है। अतः समाज में यह माना जाने लगा कि सभी मानसिक और भौतिक जगत के कंपन परम रूपान्तरकारी शिवलिंग की ओर ही जा रहे हैं अतः यह शिवलिंग ही अंतिम स्थान है जहां सबको पहुंचना है। प्रागैतिहासिक काल की लिंगपूजा का इस प्रकार रूपान्तरण हो गया और पूरे भारत में फैल गया इतना ही नहीं पूर्व से स्थापित शिव का बीजमंत्र भी बदल दिया गया।

राजू- शिव का बीजमंत्र तो ‘म‘ है, उसे जैन और बौद्ध मत में किस प्रकार बदला गया?
बाबा- सर्वविदित है कि आधुनिक वैज्ञानिक भी यह मानते हैं कि ब्रह्म्माॅंड के प्रत्येक अस्तित्व से तरंगें निकलती हैं । यही तरंगें किसी वस्तु विशेष  की मूल आवृत्ति कहलाती है जिसे दार्शनिक  भाषा में बीजमंत्र कहते हैं। दार्शनिक  आधार पर किसी भी अस्तित्व के निर्माण करने का बीजमंत्र ‘अ‘ पालन करने का ‘उ‘ तथा नष्ट करने का ‘म‘ है। वेदों में शिव  का बीजमंत्र ‘म‘ कहा गया है जो जैनतंत्र और बौद्धतंत्र के प्रभाव से पश्चात्वर्ती शिवतंत्र  में ‘ऐम‘ कर दिया गया। चूंकि ‘ऐ‘ बारह स्वरों में से एक है और ‘वाच्य या ज्ञान’ का बीजमंत्र है । ’’ज्ञान‘‘ गुरु की वाणी से प्राप्त होता है और शिव को गुरु माना गया है अतः जैनतंत्र, बौद्धतंत्र और उत्तरशिवतंत्र में शिव का बीजमंत्र ‘‘ऐम’’ कर दिया गया जो पौराणिक काल में जब सरस्वती देवी को ज्ञान की देवी के रूप में प्रस्तुत किया गया तो ‘ऐम‘ बीज मंत्र उन्हें दे दिया गया।

रवि- कितना आश्चर्य है! जब बीजमंत्र ही बदल गया तो उसका दार्शनिक महत्व क्या रहेगा? क्या उन लोगों ने इस पर नहीं सोचा?
बाबा-सही है, जब बीजमंत्र ही बदल गया तो उससे जुड़ा प्रत्येक कार्य ही अप्रभावी हो जायेगा। ये जैन शिव, जैनसमाज में ही स्वीकृत हैं, क्योंकि सदाशिव से जोडे़ बिना उन्हें कोई महत्व नहीं मिलता। शिवतंत्र में इन्हें मान्यता नहीं दी गई है । परंतु अपने अपने मत को श्रेष्ठ कहने के प्रयास में समाज में अनेक विभाजन और उपविभाजन हुए जिससे शिवलिंग और उसके पूजन में अलग अलग मतों के अनुसार नाम भी दिये जाते रहे। किसी समूह में आदिलिंग, किसी में ज्योतिर्लिंग , किसी में अनादि लिंग। उत्तर बंगाल (तत्कालीन वारेंन्द्र भूमि) के राजकुमार ‘बाण‘ ने वाणशिवलिंग की पूजा प्रारंभ कर दी। इस तरह जैन काल में शिवलिंग की पूजा मेें अनेक परिवर्तन हुए।

इंदु- क्या बुद्ध मत पर शिव का कोई प्रभाव नहीं पड़ा?
बाबा- जिस प्रकार जैन और शैव परस्पर एक दूसरे से प्रभावित हुए उसी प्रकार बौद्ध और शैव भी। भगवान महावीर और भगवान बुद्ध की आयु में लगभग 50 वर्ष का अंतर था अतः दोनों समकालीन ही कहे जावेंगे। महायान बौद्धमत भारत, चीन और जापान में प्रभावी हो चुका था इसकी दो शाखाओं  ने तान्त्रिक पद्धति को अपना लिया था । शिव के व्यापक प्रभाव के कारण बौद्ध युग में भी उन्हें नहीं भुलाया जा सका और शिवलिंग  अथवा शिवमूर्ति की पूजा की जाती रही परंतु थोड़े संशोधन के साथ। शिव को पूर्ण देवता न मानकर उन्हें बोधिसत्व माना गया, अतः शिव की मूर्ति अथवा शिवलिंग पर बुद्ध की छोटी मूर्ति को बनाया जाने लगा जिसका अर्थ यह बताया जाने लगा कि शिव के लक्ष्य बुद्ध थे। इस प्रकार के बोधिसत्व शिव, बाद में ‘बटुकभैरव’ के नाम से प्रसिद्ध हुए।

रवि - तथाकथित शिवलिंग का भगवान सदाशिव से कोई संबंध नहीं है, इसका सबसे बड़ा आधार क्या है?
बाबा- सबसे महत्वपूर्ण बात तो यह है कि शिव के ध्यान मंत्र में शिवलिंग  का कहीं भी उल्लेख नहीं है जिससे प्रकट होता है कि यह बहुत बाद में ही जोड़ा गया है।

चंदू- आपके अनुसार विद्यातन्त्र विज्ञान में शिवलिंग के सम्बंध में किस प्रकार की मान्यता है?
बाबा- तन्त्रविज्ञान में शंभूलिंग वह है जहाॅं से सृष्टि का उद्गम हुआ है। ‘शम’ का अर्थ है नियंत्रण करना और ‘भू’ का अर्थ है होना। इसलिए शंभू का अर्थ हुआ वह सत्ता जिसका आविर्भाव सांसारिक मामलों पर नियंत्रण करने के लिए हुआ है । शम + क्रि +अल = शंकर, अर्थात् सभी पर नियंत्रण करने वाली सत्ता। चूंकि यह सृष्टि के उद्गम का बिन्दु है इसलिए इसे इस सृष्ट जगत की मूल धनात्मकता कहा जाता है । अर्थात् मनुष्य सहित सभी सृष्ट वस्तुएं इस शंभूलिंग के माध्यम से ही कारणात्मक उत्पत्ति स्थान के संपर्क में आते हैं। तंत्र में लिंग की परिभाषा है ‘लिंग्यते गमयते यस्मिन तल्लिंगम’ । सम्पूर्ण सृष्टि का अन्तिम लक्ष्य यह लिंगम ही है और, जहाॅं कम्पनकारी सभी अस्तित्व अस्थायी रूप से रुकते हैं उसे कहते हैं स्वयंभूलिंग। यह स्वयंभूलिंग मनुष्य के शरीर में सुसुम्ना के अन्तिम खंड में माना गया है जिसे मूल ऋणात्मकता कहा जाता है। इसी स्वयंभूलिंग में इकाई दिव्यसत्ता सुप्तावस्था में रहती है। सभी आध्यात्मिक पथिकों के लिए यह बिन्दु ही प्रारंभिक बिन्दु होता है।

इन्दु- तंत्रविज्ञान में इसकी उपासना वैसी ही की जाती है जैसी वर्तमान में शिव मंदिरों में देखी जाती है या अलग?
बाबा- वर्तमान में की जाने वाली पूजा का कोई भी वैज्ञानिक आधार नहीं है। आधारहीन पौराणिक काल्पनिक कथाओं को सुनाकर भोले भाले लोगों को भ्रमित किया जाता है। विद्यातन्त्र की विधियों में महाकौल गुरु के व्यक्तिगत प्रयास से सोई हुई मूल ऋणात्मकता को मूल धनात्मकता की ओर संचालित करने का कार्य किया जाता है। अर्थात् स्वयंभूलिंग को शंभूलिंग के स्तर तक पहॅुंचाया जाता है। तन्त्र विज्ञान में इस क्रिया को पुरश्चरण कहा जाता है। महाकौल के द्वारा यह कार्य जिस मन्त्र के द्वारा किया जाता है इसे मंत्रचैतन्य या सिद्ध मंत्र कहा जाता है । आध्यात्मिक प्रगति के लिये साधारण मंत्र किसी काम का नहीं होता, सिद्ध मंत्र ही आवश्यक होता है जिसे महाकौल ही निर्मित कर सकते हैं अन्य कोई नहीं । भगवान सदाशिव महाकौल गुरु हैं। उन्होंने ही सभी प्रकार की जपक्रिया या आध्यात्मिक साधना के लिए सिद्ध मंत्रों या चैतन्य मंत्रों का अनुसंधान किया है। चैतन्य मंत्र के आघात से प्रसुप्त देवत्व जाग जाता है और संबंधित व्यक्ति के सभी संस्कार क्षय होने लगते है। इस विधि से संस्कारों को क्षय किए जाने का कार्य ही शिव उपासना या शिवलिंग पूजा कही जाती है अन्य नहीं। सभी संस्कारों के क्षय हो जाने पर इकाई ऋणात्मकता, मूल धनात्मकता के साथ एकीकृत हो जाती है इसे ही मोक्ष की अवस्था कहते हैं। अपनी इस मूल अवस्था में पहुॅंचना ही सभी जीवाधारियों का लक्ष्य है।

Tuesday, 26 December 2017

173 पढ़े लिखे लोग भ्रष्टाचार का विरोध क्यों नहीं करते?

173 पढ़े लिखे लोग भ्रष्टाचार का विरोध क्यों नहीं करते?
कुछ लोगों का मानना है कि अविकसित देशों में अशिक्षा के कारण लोग अपने अधिकारों के बारे में नहीं जानते इसलिए वे बुराई को सहते रहते हैं और भ्रष्टाचार की समस्या बढ़ती जाती है। पर क्या यह सही है? इन अविकसित देशों के पढ़े लिखे लोग भी विभिन्न राजनैतिक पार्टियों को विश्वसनीयता से समर्थन देते पाए जाते हैं जबकि वे जनसामान्य को अपना नेतृत्व देकर अनीति के विरुद्ध एकत्रित कर सकते हैं। भले ही वे पूरे समाज को प्रेरित न कर पाएं परन्तु कुछ समस्याओं का तो अवश्य ही समाधान कर सकते हैं । वे यह क्यों नहीं करते ? कारण सरल है। समाज के उन्नत स्तर का एक बड़ा घटक भ्रष्टाचार में लिप्त रहता है इसलिए वे उनके सामने यह साहस ही नहीं जुटा पाते कि उनके विरुद्ध आवाज उठाएं, अनैतिकता को रोकें और समाज के हर स्तर पर सक्रिय भ्रष्टाचारियों में सुधार लाने का प्रयास करें। देखा गया है कि लिपिक, शिक्षक, इंजीनियर, सरकारी अधिकारी और व्यवसायी जो कि समाज में तथाकथित पढ़े लिखे माने जाते हैं, अधिकांश अनैतिक कामों और अपने अपने कर्तव्यक्षेत्रों में भ्रष्टाचार में लिप्त पाए जाते हैं। उनका कमजोर मन परोक्षतः अन्याय की आलोचना करता है परन्तु आमना सामना करने से डरता है। चोर लोग अपने चोरों के समूह में चोरों की आलोचना कर सकते हैं परन्तु वे ईमानदार लोगों के समूह में अपना कोई सुझाव नहीं दे सकते क्योंकि ऐसा करने में उनके ओठ थरथराएंगे, उनका हृदय धड़कने लगेगा। अविकसित देशों के उच्च स्तरीय समाज में भी पढ़े लिखे भ्रष्टाचारियों की दशा भी ऐसी ही है। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद से तो स्थिति और भी जटिल हो गई है। इस प्रकार के लोगों के आचरण में परिवर्तन लाकर ईमानदार बनाना होगा अन्यथा समाज की कोई भी बुराई दूर नहीं होगी और न ही कोई समस्या हल होगी। इसलिए यह आशा करना कि केवल सरकर ही इन बुराइयों को दूर करने का कोई जादू कर सकती है, पागलपन ही कहा जाएगा ।

Monday, 25 December 2017

172 बाबा की क्लास ( शिव: ईश्वरों के ईश्वर, महेश्वर क्यों? )

172 बाबा की क्लास ( शिव: ईश्वरों के ईश्वर, महेश्वर क्यों? )

इन्दु- आपने शिव के परिवार में ‘गणेश’ को सम्मिलित क्यों नहीं किया, क्या वे शिव के पुत्र नहीं हैं?
बाबा- नहीं। पितृ सत्तात्मक पृथा के प्रारंभ होने के बाद समूह के प्रभावी पुरुष को मुखिया के रूप में स्वीकार किया गया और गोत्रपिता नाम दिया गया। पिता की सम्पत्ति का अधिकार पुत्र को प्राप्त होने लगा। संस्कृत में समूह को गण कहते हैं अतः समूह के नायक को गणेश , गणनायक या गणपति कहा जाने लगा। इसलिये गणेश  का अस्तित्व इतिहासपूर्व माना जाता है और लोग हँसी  में कह भी देते हैं कि जब गणेश  की पूजा सभी देवताओं के पहले की जाती है तो शिव के विवाह के समय भी गणेश  की पूजा हुई होगी तो फिर गणेश , शिव के पुत्र कैसे हुए? स्पष्ट है कि गणेश , शिव, पार्वती, दुर्गा आदि के पुत्र नहीं हो सकते वे सामाजिक पृथाओं के अंतर्गत हैं , धर्म से उनका कोई संबंध नहीं है। चूंकि समूह के नेता को मोटा तगड़ा होना चाहिये अतः हाथी जैसा शरीर, समूह में संख्या की खूब बृद्धि होना चाहिये अतः वाहन के लिये चूहा  (क्योंकि चूहों की संख्या अन्य प्राणियों की तुलना में तेजी से बढ़ती है) प्रतीकात्मक रूप में स्वीकार किया गया। पौराणिक काल में इसे गणपति कल्ट के रूप में स्वीकार कर धार्मिक आधार बना दिया गया। पुराणों में आपस में ही समानता नहीं है, एक ही तथ्य को अलग अलग स्थानों पर अलग अलग वर्णित किया गया है। पुराणों की कहानियां शिक्षाप्रद हैं परंतु हैं सब काल्पनिक।

रवि- शिव के ध्यान मंत्र में उन्हें ‘पंचवक्त्रम्’ कहा गया है, तो क्या सदाशिव के पाॅंच मुंह थे?
बाबा-नहीं , एक ही मुख से पांच प्रकार के प्रदर्शन  करते थे। मुख्य मुंह बीच में, कल्याण सुंदरम। सबसे दायीं ओर का मुंह दक्षिणेश्वर । कल्याणसुंदरम और दक्षिणेश्वर  के बीच में ईशान । सबसे वायीं ओर वामदेव और वामदेव तथा कल्याणसुन्दरम के बीच में कालाग्नि। दक्षिणेश्वर  का स्वभाव मध्यम कठोर, ईशान  और भी कम कठोर, कालाग्नि सबसे कठोर, परंतु कल्याणसुदरम में कठोरता बिल्कुल नहीं, वह सदा ही मुस्कराते हैं। मानलो किसी ने कुछ गलती की, दक्षिणेश्वर  कहेंगे, तुमने ऐंसा क्यों किया? इसके लिये तुम्हें दंडित किया जायेगा। ईशान  कहेंगे तुम गलत क्यों कर रहे हो क्या तुम्हें इसके लिये दंडित नहीं किया जाना चाहिये? कालाग्नि कहेंगे, तुम गलत क्यों कर रहे हो , मैं तुम्हें कठोर दंड दूंगा मैं इन गलतियों को सहन नहीं करूंगा, और क्षमा नहीं करूंगा। वामदेव कहेंगे, बड़े दुष्ट हो, मैं तुम्हें नष्ट कर दूंगा, जलाकर राख कर दूंगा। और कल्याणसुदरम हंसते हुए कहेंगे , ऐंसा मत करो तुम्हारा ही नुकसान होगा। इस प्रकार पांच तरह के भाव प्रकट करने के कारण शिव को पंचवक्त्र कहा जाता है।

राजू- शिव के ध्यान मंत्र में उन्हें ‘त्रिनेत्र’ क्यों कहा गया है क्या उनके तीन नेत्र थे?
बाबा-  मनुष्यों का अचेतन मन सभी गुणों और ज्ञान का भंडार है। अपनी अपनी क्षमता के अनुसार लोग जागृत या स्वप्न की अवस्था में इस अपार ज्ञान का कुछ भाग अचेतन से अवचेतन में और उससे भी कम अवचेतन से चेतन मन तक ला पाते हैं। परंतु व्यक्ति सभी असीमित ज्ञान को अचेतन मन से अवचेतन या चेतन मन में नहीं ला सकते हैं। यदि कोई ऐंसा कर सकता है तो यह क्रिया ‘‘ज्ञान को ज्ञाननेत्र से देखना’’ कहलाती हैं। यह ज्ञाननेत्र तृतीय नेत्र के नाम से जाना जाता है। शिव अनन्त ज्ञान के भंडार थे अतः कहा जाता है कि उनका ज्ञान नेत्र बहुत ही विकसित था। वे त्रिकालदर्शी  थे अतः ध्यान मंत्र में त्रिनेत्रम् कहा गया है।

चंदु- शिव को कुछ लोग सदा ही नशे में डूबा रहने वाला मानते हैं और कहते हैं कि वे नशैली चीजें, भांग धतूरा, शराब आदि देने पर प्रसन्न होते हैं?
बाबा- कुछ अज्ञानियों ने इस प्रकार का व्यर्थ प्रचार कर रखा है। इस संबंध में सच्चाई को इस प्रकार समझ सकते हैं, मानव शरीर में सूक्ष्म ऊर्जा के अनेक केन्द्र और उपकेन्द्र हैं जिन्हें चक्र या पद्म कहते हैं इन चक्रों से विभिन्न प्रकार के हारमोन्स उत्सर्जित होते रहते हैं जो विभिन्न वृत्तियोंको नियंत्रित करते हैं। इन वृत्तियोंके नियंत्रक विंदु जिनकी संख्या 50 है वे इन 9 चक्रों में अपने अपने रंग और ध्वनि के साथ स्थित होते हैं। ये पचास ध्वनियां ही मूल स्वर और व्यंजन के रूप में हम सभी उच्चारित करते हैं। सामान्यतः उच्च स्थित चक्र से निकलने वाला हारमोन निम्न स्थित चक्रों को अपने रंग और ध्वनि से प्रभावित करता है। सर्वोच्च स्थित सहस्रार चक्र निम्न स्थित सभी चक्रों को प्रभावित कर 1000 वृत्तियोंको नियंत्रित करता है। सहस्रार से निकलने वाला यह हारमोन मानव मन और हृदय को अवर्णनीय आनन्द की अनुभूति कराता है जिससे आत्मिक उन्नति होती है और मनुष्य विचारमुक्त अवस्था में आ जाता है। यह दिव्य अमृत प्रत्येक व्यक्ति के सहस्रार से निकलता रहता है पर मनुष्यों का मन प्रायः भौतकवादी मामलों या वस्तुओं के चिंतन में ही उलझा रहता है इसलिये वह वहीं पर अवशोषित  हो जाता है, नीचे के चक्रों को प्रभावित नहीं कर पाता है। परंतु यदि इस हारमोन के उत्सर्जन के समय व्यक्ति आध्यात्मिक चिंतन में मन को लगाये रहे तो वह आध्यात्मिक उन्नति कर आनंददायी मनःस्थिति का अनुभव करता है और बाहर से लोग उसे देखकर समझने लगते हैं कि यह तो शराबी है। शिव हमेशा  इसी उच्च अवस्था में ही रहते थे अतः अनेक लोग जो भांग, अफीम आदि का नशा  किया करते थे वे प्रचारित करने लगे कि शिव भी इन नशीली चीजों का उपयोग करते हैं।

राजू- सिर पर गंगा के होने का रहस्य तो पिछली बार आपने बताया था, परन्तु क्या उनके सिर पर चंद्रमा भी था? चित्रों में तो यह विचित्रता दर्शायी जाती है?
बाबा- चारुचंद्रावतंसम् , अर्थात् सुंदर चंद्रमा जिनका मुकुट है। क्या सचमुच शिव के सिर पर चंद्रमा का मुकुट था? सहस्रार से निकलने वाले दिव्य अमृत अर्थात् हारमोन के प्रभाव को समझने वाले अन्य लोग सोचते थे कि चंद्रमा की 16 कलाओं में से प्रतिपदा से पूर्णिमा तक प्रतिदिन एक एक कला  दिखाई देती है पर सोलहवीं कभी नहीं अतः शायद इसी से अमृत निकलता है। इसे ‘अमाकला‘ नाम भी दिया गया, वे कहने लगे कि इस अमृत के प्रभाव से शिव अपने आप में ही मग्न रहा करते हैं । इसलिये, अनेक लोगों का मत था कि यह अदृश्य  सोलहवीं चंद्रकला शिव के ही मस्तक पर होना चाहिये। इसतरह उनके ध्यानमंत्र में उन्हें ‘चारुच्रद्रावतंसं ’ कहा गया है। सहस्रार के इस दिव्य अमृत के उत्सर्जन से शिव अपने वाह्य जगत और अन्य आवश्यकताओं  से अनजान,  भोलेभाले दिखाई पड़ते थे अतः उन्हें लोग भोलानाथ भी कहने लगे थे।

रवि-  आपने पिछली बार यह बताया है कि देवों के देव महादेव शिव, आज से सात हजार वर्ष पहले धरती पर थे और पौराणिक धर्म जिसने आज के समय में अपनी कहानियों से समाज को जकड़ रखा है तेरह सौ वर्ष पहले आया; तो इस बीच के छै हजार वर्षों में क्या किसी ने शिव को याद ही नहीं किया?
बाबा- शिव तो जन जन के हृदय में महासंभूति के रूप में प्रारंभ से ही स्थापित हो चुके थे परंतु उनके बाद  लिपि के अनुसंधान हो जाने से भोजपत्र पर लिखना प्रारंभ हुआ और समय समय पर आये विद्वानों ने अपने अपने दार्शनिक सिद्वान्तों से लोगों का ध्यान बाॅंटना प्रारंभ कर दिया जैसे, महर्षि कपिल ने सांख्य, पतंजली ने योग,कणाद ने वैशेषिक,जैमिनी ने पूर्व मीमांसा, बादरायण व्यास ने उत्तर मीमांसा आदि। इन्हीं के समर्थन में गौड़पाद, गोविन्दपाद, शंकराचार्य ने मायावाद, बृहस्पति या चार्वाक ने भोगवादी सिद्धान्त, वर्धमान महावीर ने महानिर्वाणवाद या कर्मनिर्वाण, गौतमबुद्ध ने ज्ञाननिर्वाण, आदि का प्रतिपादन किया जिनसे शिव के द्वारा दी गयी मूल शिक्षायें इनके आधार में नीव के पत्थर की तरह दबती चली गयीं और आज का प्रदर्शनवाद और भौतिकवाद लोगों के मन और मस्तिष्क में छा गया।

चंदू- क्या यह सभी सिद्धान्त आजकल प्रभावी हैं?
बाबा- भारत में बौद्ध धर्म का प्रभाव घटने और पौराणिक धर्म के प्रभावी होने के समय विभिन्न सिद्धान्तों और मतवादों को पौराणिक कल्ट में पांच विभागों में बाॅंट दिया गया वे हैं, शिवाचार, शाक्ताचार, वैष्णवाचार, सौराचार, और गणपत्याचार। तत्कालीन बंगाल के राजकुमार मत्स्येन्द्रनाथ, नाथ कल्ट के अनुयायी थे अतः इनके समय बौद्ध और जैन धर्म में तथा उपरोक्त पांच उपविभागों में बहुत परिवर्तन हुये। महाराष्ट्र में गणपत्याचार (गणेश  केन्द्रित), लगभग इसी समय बंगाल में शाक्ताचार (जिसमें पशु बलि का विधान किया गया), दक्षिण भारत में     शिवाचार और शेष भारत में वैष्णवाचार उदित हुआ। सेक्डोनियन ब्राह्मणों ने सौराचार अपनाया क्योंकि वे सूर्य को ही प्रधानता देते थे और ज्योतिष का कार्य करते थे, ये लोग जहां भी रहे सूर्य मंदिर बनवाये। सूर्य देवता अफगानियों की तरह ढीले पाजामा जैकेट पहने सिर पर टोपी और हाथ में रोजरी लिये दिखाये गये हैं।

रवि- आज से 1300-1400 वर्ष पूर्व, पौराणिक कथाओं के अनुसार तत्कालीन प्रचलित अनेक मान्यताओं को   शंकराचार्य ने शैवाचार, शाक्ताचार, वैष्णवाचार, गणपत्याचार, और सौराचार भागों में विभाजित कर इन्हें उपासना पद्धतियों का नाम दिया लेकिन इनमें निहित तत्व क्या हैं? जिन्हें लोगों ने अपनी रुचि के अनुसार उनका पालन करना प्रारंभ किया।
बाबा- शैवाचार का लक्ष्य शिवसमाधि अर्थात् आत्मसाक्षात्कार है, इसमें बाहरी वृत्तियों को आन्तरिक करते हुए अंत में परमात्मा में मिलाने का अभ्यास किया जाता है। ‘‘यच्छेद्वांग्मनसो प्रज्ञस्तद्यच्छेद् ज्ञानात्मनि, ज्ञानात्मनि महती नियच्छेद् तद्यच्छेद्छान्तात्मनि‘‘। शाक्ताचार के अनुसार तामसिक शक्ति को भवानी या कालिका शक्ति में मिलाना चाहिए जिसका बीजमंत्र ‘‘सम्‘‘ है, इसमें से राजसिक शक्ति को निकालकर भैरवीशक्ति में मिलानाचाहिये जिसका बीज मंत्र है ‘‘शम्‘‘। इससे सात्विक शक्ति को खींचकर कौषिकीशक्ति में मिला देना चाहिये। पौराणिक शाक्ताचार के ये क्रमागत पद हैं जिन पर चलकर साधक लाभ पाता है। यहाँ  कालिकाशक्ति का आशय दार्शनिक  है, शिव की पत्नी काली अथवा बौद्ध और शिवोत्तर तंत्र की कालिकाशक्ति  से इसका कोई संबंध नहीं है। वैष्णवाचार में विश्व  की सभी वस्तुओं में विष्णु को व्याप्त मानकर उपासना की जाती है, ‘विस्तारः सर्वभूतस्यविष्णोरविश्वमिदम जगत्, द्रष्टव्यमआत्मवत् तस्माद्भेदेन विचक्षनैः। गणपत्याचार में प्राचीनकाल के समूह नेतृत्व वाले गणपति को चुनकर समूह के स्थान पर विश्व  के नेता का भाव दिया गया और इन्हें ही परमपुरुष के रूपमें उपासना हेतु कहा गया है। सौराचार मूलतः सूर्य की उपासना से संबंधित है जो दक्षिण रूस के सेक्डोनिया से आये ब्राह्मणों की उपासना पद्धति है। सेक्डोनियन ब्राह्मण वेद या अन्य कोई पद्धति नहीं मानते थे वे केवल ज्योतिष और आयुर्वेद को ही मान्यता देते थे अतः उनके सूर्य ही उपास्य देवता थे क्योंकि वे मानते थे कि सूर्य से ही पृथ्वी चंद्र और अन्य ग्रहों की उत्पत्ति हुई है अतः विश्व  के नियन्ता सूर्य ही हैं। यह मत सीमित क्षेत्रों में ही माना गया। इस प्रकार पौराणिक मान्यताओं को व्यापक प्रसार नहीं मिल पाया क्योंकि इसके कुछ भागों को दार्शनिक  मान्यता थी और कुछ को नहीं।

राजू- परंतु आज कल तो पौराणिक धर्म के सिद्धान्तों का ही बोलबाला है जिन्हें जगद्गुरु शंकराचार्य के द्वारा प्रतिपादित किया गया कहा जाता है और उन्हें भगवान शिव का अवतार माना गया है?
बाबा-हाॅं बौद्ध और जैन धर्म का प्रभाव घटने और पौराणिक धर्म का प्रभाव बढ़ने के बीच के संधिकाल में शंकराचार्य का उद्भव हुआ जिन्होंने इन पांचों विभागों को एकीकरण करने का कार्य किया। इन्हें शिव का अवतार घोषित किया गया क्योंकि शिव से संबंधित किए बिना उन्हें शायद महत्व कम मिलता। शिव का अवतार कहा जाना ही प्रकट करता है कि किसी भी नये सिद्धान्त को जनसामान्य से मान्यता दिलाने के लिये उसे शिव से जोड़े बिना संभव नहीं है। शिव की दिव्यता इसी से सिद्ध हो जाती है।

नन्दू- परंतु ये सभी अपने अपने को श्रेष्ठ कहते हुए जन सामान्य के बीच मतभेद और वैमनस्य तो फैला रहे हैं, वे सभी अपने अपने धर्म प्रवर्तकों को ही ईश्वर और भगवान कहते हैं?
बाबा- जब किसी का व्यक्तित्व और दर्शन  पूर्णतः एक समान हो जाते हैं तो वह देवता हो जाता है। ‘‘द्योतते क्रीडते यस्मात् उदयते द्योतते दिवि, तस्मात् देव इति प्रोक्तः स्तूयते सर्व देवतैः।‘‘ अर्थात् ब्रह्मांड के नाभिक से उत्सर्जित होने वाले जीवन के अनंत आकार जो समग्र ब्रह्मांड में गतिशील हैं और प्रत्येक अस्तित्व के भीतर रहकर सबको प्रभावित करते हैं, देवता कहलाते हैं। इन प्रवर्तकों को इस परिभाषा के अनुसार जाॅंच करने पर यदि सही लगता है तो वे देवता कहला सकते हैं अन्यथा नहीं।  चूंकि शिव का आदर्श  उनके जीवन से विलकुल एकीकृत है अतः इस परिभाषा के अनुसार उन्हें देवता कहा जाना सार्थक है। परंतु शिव  के व्यक्तित्व के अनुसार वह तो समग्र देवताओं के समाहार हैं अतः देवता शब्द तो उनके लिये बहुत छोटा लगता हैं, वे तो देवताओं के भी देवता हैं अर्थात् महादेव हैं, महेश्वर हैं।

Monday, 18 December 2017

171 बाबा की क्लास ( शिव: देवों के देव महादेव क्यों? )

171 बाबा की क्लास ( शिव: देवों के देव महादेव क्यों? )

नन्दू- बाबा! भगवान शिव को विचित्र ढंग से क्यों दर्शाया जाता है? शिव का सही अर्थ क्या है? उन्होंने वह कौन सा काम किया जिससे वे सबको प्रभावित कर सके?
बाबा- उन्हें विचित्रता देना उनका कार्य है जिन्होंने उन्हें समझा ही नहीं है। शिव का शाब्दिक अर्थ है कल्याण । दूसरा अर्थ है, अस्तित्व का चरम बिंदु । तीसरा अर्थ है, 7000 वर्ष पहले ऋग्वेद काल की समाप्ति और यजुर्वेद काल के प्रारंभ में जो भगवान सदाशिव धरती पर आये वह। उन्होंने, गौड़ीय और कश्मीरी  तन्त्र के रूप में अव्यवस्थित और बिखरे हुए ‘विद्यातंत्र’ को सुव्यवस्थित किया। उनकी ‘‘साधुता’’ ऐसी कि जिसने जो कुछ मांगा तत्काल दे दिया, ‘‘सरलता’’ ऐसी कि छोटे बड़े के भेदभाव बिना सभी के साथ निकटता एवं आत्मीयता रखना तथा हर संकट में साथ देना और ‘‘तेजस्विता’’ ऐसी कि कपटता, बाहुबल या घमंड के साथ जो भी पास आया उसे शरणागत होना ही पड़ा। उनके इन्हीं तीन गुणों ने सभी को प्रभावित किया।

इंदु- कभी आप शिव को महासंभूति कहते हैं और कभी तारक ब्रह्म, यह कैसी शब्दावली है?
बाबा- वह सत्ता जो प्रकृति को अपने वश में करके प्राणियों को प्रगति की सही दिशा देने के लिये अपने व्यक्तित्व तथा दर्शन को एकरूप कर अपने आपको व्यक्त करती है उसे महासंभूति कहते हैं। यही सत्ता जब ब्रह्मचक्र की प्रतिसंचर धारा में मनुष्यों को तेज गति से चलने की प्रेरणा देकर मुक्तिमार्ग की ओर ले जाती है तो यह व्यक्त और अव्यक्त जगत के बीच पुल अर्थात् (bridge) की तरह काम करती है, इसे तारक ब्रह्म कहा गया है। शिव, महासंभूति और तारक ब्रह्म दोनों हैं।

राजू- शिव के कार्यकाल में जो सामाजिक व्यवस्था थी क्या उन्होंने उसमें कुछ परिवर्तन किया?
बाबा- उस समय जनसामान्य, पहाड़ों पर रहा करते थे और प्रत्येक पहाड़ का एक मुखिया होता था जो ऋषि कहलाता था। संस्कृत में पहाड़ को गोत्र कहते हैं अतः मुखिया गोत्रपिता के नाम से जाना जाता था इसी कारण गोत्र बताने की पृथा चली जो किसी समूह विशेष की पहचान हेतु अभी भी प्रचलन में है। शिव के काल में विभिन्न गोत्रों में अपने आप को एक दूसरे से श्रेष्ठ सिद्ध करने की होड़ में लड़ाइयां होती रहती थी। जब एक समूह अर्थात् गोत्र दूसरे को लड़ाई में जीत लेता था तो हारने वाले को जीतने वाले का गोत्र मानना पड़ता था। जीतने वाला गोत्र समूह हारने वाले समूह की सम्पत्ति और स्त्रियों को बल पूर्वक ले जाता था और पुरुषों को दास बनाकर उनके गोत्र बदल दिये जाते थे जिन्हें उपगोत्र अर्थात् प्रवर कहा जाता था। वर्तमान में  विवाह के समय वर और वधू को कपड़े से बांधना और महिलाओं की मांग लाल रंग से भरना वास्तव में उस काल में लड़कर जीतने और बंधक बनाने की पृथा का ही बदला हुआ रूप है। शिव ने विवाह व्यवस्था का नया रूप देकर इस प्रकार के लड़ाई झगड़े बंद कराये । वास्तव में विवाह नाम की संकल्पना शिव ही की देन है। उनके पूर्व यह पृथा नहीं थी, अतः माता को तो पहचाना जा सकता था पर पिता को नहीं । शिव ने विवाह नाम की संस्था को स्थापित कर समाज में इस पर आधारित ‘‘विशेष व्यवस्था के अंतर्गत जीवन निर्वाह करना‘‘ सिखाया। इसलिये वह सर्वप्रथम विवाहित पुरुष के नाम से भी जाने जाते हैं।

रवि- तो क्या उनके समय एक ही सामाजिक सभ्यता प्रचलित थी?
बाबा- नहीं, आर्य , मंगोल और द्रविड़ सभ्यतायें थीं और उनके सदस्य अपने अपने को श्रेष्ठ सिद्ध करने के लिये आपस में लड़ाई झगड़े किया करते थे। शिव के काल में मातृसत्तात्मक सामाजिक प्रणाली समाप्ति की ओर थी और पितृसत्तात्मक प्रणाली उत्थान की ओर थी। फिर भी मातृ सम्पत्ति अधिकार की पृथा शिव के काल से बुद्ध और महावीर जैन के काल अर्थात् 2500 वर्ष पहले तक प्रचलित रही।

नन्दू- इन झगड़ों को शान्त करने में शिव की भूमिका क्या थी?
बाबा- उन्होंने परस्पर झगड़ने वाले आर्य, मंगोल और द्रविड़ों को एकीकृत करने की दृष्टि से तीनों सभ्यताओं की क्रमशः  उमा (पार्वती), गंगा और काली नाम की कन्याओं से विवाह किया। इस प्रकार उन्होंने परिवार को आदर्श स्वरूप देने के लिये पुरुष को उसके पालन पोषण का उत्तादायित्व देकर ‘भर्ता‘ और पत्नी को इस कार्य में उसके साथ समान रूप से सहभागी बनाने के लिये ‘कलत्र‘ कहा। ये दोनों ही शब्द पुल्लिंग में हैं अतः उन्होंने कभी भी लिंग के आधार पर भेदभाव को नहीं माना और न ही महिलाओं को पुरुषों से कम। इस प्रकार समाज को व्यवस्थित कर उसे उन्नत किये जाने को नया आयाम दिया।

राजू- शिव की वह शिक्षा कौन सी है जिसके आधार पर तत्कालीन विद्वान ऋषिगण प्रभावित हुए? क्या इसे  सरलता से समझाया जा सकता है?
बाबा- शिव ने समझाया कि प्रत्येक जड़ वस्तु चाहे वह सूर्य, और आकाशगंगायें हों या छुद्र इलेक्ट्रान सबका अस्तित्व है परंतु वे यह जानते नहीं हैं।  जबकि मनुष्य, चीटी, केंचुआ ये सब जानते हैं कि उनका अस्तित्व है। यह एग्जिस्टेंशियल फीलिंग ही वह आधार है जिस पर जीव व जगत टिका हुआ है। इसलिये ‘‘मैं हूं‘‘ इसके साक्षीबोध में उस परमपुरुष की सत्ता अदृश्य  रूप में रहती है। इसे सरलता से समझने के लिये हम भौतिकी के ‘‘बलों के त्रिभुज नियम‘‘ को ले सकते हैं जिसके अनुसार दीवार पर  संतुलन में टंगी तस्वीर के दो छोरों पर बंधी रस्सी से दो बलों को तो प्रदर्शित  किया जा सकता है पर तीसरा बल जो तस्वीर में से लगता हुआ संतुलन बनाये रखता है दिखाई नहीं देता जबकि तस्वीर दिखती है। यही अदृश्य  (सेंटिऐंट फोर्स) साक्षीस्वरूप परमपुरुष वह आधार है जो पूरे ब्रह्माॅंड को संतुलित रखते हैं।

रवि- वे ऋषि गण कौन थे जो शिव से सबसे पहले प्रभावित हुए? क्या शिव ने उन्हें अपने सामाजिक उत्थान के कार्य में लगाया?
बाबा- उस काल में लोग भोजन की तलाश में यहां वहाॅं भटकने में ही अधिकांश समय खर्च कर देते थे , अतः शिव ने ‘नन्दी’ को पशुपालन और कृषिकार्य में प्रशिक्षण देकर अन्न उत्पन्न करने का कार्य सभी को सिखाने का उत्तरदायित्व सौंपा । पहाड़ की गुफाओं के बदले, मैदानों और नदियों के किनारे भवन बनाकर रहने का प्रशिक्षण ‘विश्वकर्मा’ को देकर उन्हें भवन निर्माण शिल्प या स्थापत्य कला को सभी लोगों को सिखाकर घर बनाकर रहने की प्रेरणा देने का दायित्व दिया। शिव ने स्वस्थ रहने के लिये वैद्यकशास्त्र में ‘धनवन्तरि’ को प्रशिक्षित कर अन्य लोगों को सिखाने और सभी के स्वास्थ्य का निरीक्षण करने का काम सौंपा। इसके बाद काम करते करते लोग ऊबने न लगें इसलिए ‘भरत’ को संगीत विद्या में निपुण कर अन्य लोगों को सिखाने का और मनोरंजन करने का काम सौंप दिया। 

इंदु- तो क्या संगीत अर्थात् नृत्य, गीत और वाद्य यह सब शिव की देन है?
बाबा- हाॅं, शिव ने निरीक्षण कर सात प्रकार के प्राणियों से संगीत के स्वरों को जोड़ा जैसे, मोर षड़ज, बैल ऋषभ, बकरा गंधार, घोड़ा मध्यम, कोयल पंचम, गधा धैवत्य, और हाथी निषाद। इनके प्रथम अक्षर लेकर स्वर सप्तक बनाया, सा रे ग म प ध नि आदि। इस प्रकार शिव ने समाज को संगीत  अर्थात् नृत्य, गीत और वाद्य दिया। उन्होंने श्वाश , प्रश्वाश  आधारित लय के साथ मुद्रा को जोड़ा और अनेक प्रकार की नृत्य मुद्राओं का अनुसंधान किया। वैदिक काल में छंद था पर मुद्रा नहीं, वैदिक ज्ञान के 6 भाग थे, छंद, कल्प, निरुक्त, ज्योतिष, व्याकरण, आयुर्वेद या धनुर्वेद। उन्होंने महर्षि भरत को संगीत विद्या में प्रवीण कर इच्छुक व्यक्तियों को संगीत की शिक्षा का कार्य सौंपा।

राजू- शिव ने किस धर्म की स्थापना की?
बाबा- शिव ने ही सर्वप्रथम धर्म की अवधारणा को स्थापित किया जिसके अनुसार नैतिकता और आध्यात्मिक अभ्यास के द्वारा परमसत्ता को पाने की ललक ही वास्तविक धर्म है। तुम लोगों को शायद मालूम हो कि वेदों में किसी धर्म विशेष का उल्लेख नहीं है, उनमें विभिन्न ऋषियों की शिक्षाओं  का संग्रह है अतः समय के अनुसार उनकी शिक्षायें बदलती रही हैं। ऋग्वेद का आर्षधर्म अर्थात् ऋषियों का कथन यजुर्वेद से भिन्न है। मंत्रों का उच्चारण और जप क्रिया भी भिन्न भिन्न है। बंगाली यजुर्वेदी तथा गुजराती ऋग्वेदीय विधियों का पालन करते हैं।

चंदू- तो फिर शैव धर्म क्या है?
बाबा- आर्यों और अनार्यों की लड़ाई में अनार्यों को दास बनाकर उन्हें ‘ओम‘ शब्द के उच्चारण करने पर प्रतिबंध लगाया गया था। महिलायें भी ओम के स्थान पर केवल नमः कह सकतीं थीं। शिव ने इस प्रतिबंध को हटाया और यज्ञों में पषुओं की आहुति देने का विरोध किया। उन्होंने अहिंसा तथा शांति का मार्ग बतलाया जो कि आर्यों के  (geo and socio-sentiments) से ऊपर था। इसे ही शैव धर्म कहा गया है। विखरे हुये तंत्रयोग को उन्होंने एकीकृत किया और उसके व्यावहारिक पक्ष का महत्व समझाते हुये आव्जेक्टिव और सव्जेक्टिव संसार के बीच आदर्श  संतुलन बनाने की व्यवस्था की। इसमें किसी भी वर्णजाति की अवहेलना नहीं की गई, शैव धर्म परमपुरुष के साथ प्रीति करने का धर्म है। इसमें कर्मकांडीय विधियों अथवा घी या प्राणियों की आहुतियों का कोई विधान नहीं है।

इंदु- लेकिन शिव के साथ असुरों अर्थात् राक्षसों और भूतों के समूह को दर्शाया जाता है, यह क्या है? शिव को भूतनाथ भी कहा जाता है?
बाबा- असुर कोई डरावनी सूरत के 50 फीट लंबे या बड़े बड़े नाखूनों और दाॅंतों  वाले अर्थात् ‘एबनार्मल‘ नहीं थे, ये सेंट्रल एशिया के असीरिया देश  के निवासी थे। ये अनार्य थे अतः आर्य इनसे घृणा करते थे और असीरिया के होने के कारण उन्हें असुर कहते थे। अभी भी पलामू जिले में इनकी समाज पाई जाती है। शिव ने इनकी रक्षा करने की जिम्मेवारी ली और अपने पास ही रखा और घोषित किया  कि सभी परमपुरुष की संतान हैं और सबको जीने का अधिकार है । वे लोग शारीरिक रूप से कमजोर और दुबले पतले होते थे इसलिये कहा जाने लगा कि शिव के आस पास तो भूत प्रेत रहते हैं। तुम लोग जानते हो कि भूतों का कोई अस्तित्व नहीं है। भूत का अर्थ है जो कुछ भी जड़ या चेतन भौतिक अस्तित्व में आया है वह भूत है, चूंकि शिव ने न केवल मनुष्यों वरन् पेड़, पौधों और पशुओं को भी संरक्षण दिया था अतः उन्हें आदर से लोग पशुपतिनाथ या भूतनाथ कहने लगे । शिव सबको आदर्ष जीवन जीने में सहायता करने के लिये सदा तत्पर रहते थे।

रवि- शिव का अन्य महत्वपूर्ण अनुसंधान क्या है?
बाबा- शिव ने जीवन का कोई भी क्षेत्र अनछुआ नहीं छोड़ा, उन्होंने देखा कि जीवन, श्वास की आवृत्तियों से बंधा हुआ है। ये प्रतिदिन 21000 से 25000 तक होती हैं जो हर व्यक्ति में बदलती रहती हैं। मनुष्य की श्वास लेने की पद्धति, मन, बुद्धि और आत्मा पर प्रभाव डालती है। इडा, पिंगला, और सुषुम्ना स्वरों की पहचान और किस स्वर में जगत के किस कार्य को करना चाहिये  और आसन, प्राणायाम, धारणा, ध्यान आदि कब करना चाहिये यह सब स्वरविज्ञान या स्वरोदय कहलाता है। शिव से पहले यह किसी को ज्ञात नहीं था, बद्ध कुंभक, शून्य कुंभक आदि इसी के अन्तर्गत आते  हैं। उन्होंने बताया कि जब इडा सक्रिय होती है तो वायां स्वर, जब पिंगला  सक्रिय होती है तो दायां स्वर और सुषुम्ना के सक्रिय होने पर दोनों नासिकाओं से स्वर चलते हैं। उन्होंने स्वर विज्ञान के नियमानुसार छंद और मुद्रा के साथ नृत्य करना सिखाया अतः इससे न केवल स्वयं करने वालों को वरन् दर्शकों को  भी लाभ पहुंचा। शिव ने अवलोकन किया कि मनुष्य शरीर में पायी जाने वाली अनेक ग्रंथियों को यदि उचित अभ्यास कराया जावे तो उनसे निकलने वाला हारमोन न केवल शरीर को वरन् आत्मा को भी लाभ देता है। परंतु कुछ ऐंसे ग्लेंड होते हैं जिन्हें नृत्य, मुद्रा और छंद से लाभ नहीं होता जैसे सोचना, याद करना आदि । अतः शिव ने तांडव नृत्य बनाया और पार्वती के सहयोग से महिलाओं के लिये कौषिकी नृत्य बनाया। तांडव में बहुत उछलना होता है, जब तक नर्तक जमीन से ऊपर होता है उसे अधिक लाभ मिलता है जमीन के संपर्क में आते ही यह लाभ षरीर में समा जाता है। अतः अधिक लाभ लेने के लिये इसमें अधिक देर तक जमीन से ऊपर रहना चाहिये। इस तरह छंद, मुद्रा और ग्रंथियों के उचित तालमेल से तांडव नृत्य दिया गया है जो ब्रेन के लिये एकमात्र एक्सरसाईज है जिसका न तो भूतकाल में कोई विकल्प था और न ही भविष्य में कोई विकल्प है।

इंदु- लेकिन ‘तांडव‘ को तो भयानक विनाश का समानार्थी बताया गया है?
बाबा- जिन्हें यथार्थता का ज्ञान नहीं है, वे इस प्रकार का प्रचार करते देखे गये हैं। ओखली और मूसल से जब धान से चावल निकाला जाता है तो वह बहुत उछलता है उसे ‘तंदुल‘ कहते हैं । तांडव नृत्य में भी बहुत उछल कूद करना पड़ती है। तांडव शब्द ‘तंदुल‘ से बना है। तुम लोगों को शायद ज्ञात हो कि संस्कृत में बिना पकाया गया चावल ‘तंदुल‘ तथा पकाया गया चावल ‘ओदन‘ कहलाता है। शुद्धोदन का अर्थ है जिसका पकाया गया चावल
शुद्ध हो अर्थात् जो ईमानदारी से अपनी रोजी रोटी कमाता हो। बुद्ध के पिता का नाम शुद्धोदन था।

राजू- हमें शिव के परिवार के बारे में भी सही सही ज्ञान नहीं है?
बाबा- शिव के, पार्वती से पुत्र भैरव, गंगा से पुत्र कार्तिकेय और काली से पुत्री भैरवी का जन्म हुआ। भैरव और भैरवी ने शिव द्वारा स्थापित विद्यातन्त्र का अध्ययन और अनुशीलन कर उनकी आज्ञा से सभी पुरुष और स्त्रियों को प्रशिक्षित करने का दायित्व सम्हाला । परन्तु, कार्तिकेय का मन तन्त्रविद्या में नहीं लगता था वे बहिर्मुखी थे अतः शिव ने उन्हें पर्यवेक्षण का कार्य सौपा। वे नन्दी, विश्वकर्मा, धनवन्तरि, भरत, भैरव और भैरवी द्वारा किए जाने वाले कामों का पर्यवेक्षण कर प्रगति की सूचना शिव को देने के काम में लगाए गये।

रवि - तो गंगा को सिर पर बहते हुए क्यों दर्शाया जाता है?
बाबा- गंगा चाहती थीं कि उनका पुत्र भी पार्वती के पुत्र और काली की पुत्री की तरह अपने पिता द्वारा सिखाए गए विद्यातन्त्र का अनुशीलन करे। परन्तु गंगा को अपने पुत्र कार्तिकेय के बहिर्मुखी होने का बहुत दुख था। उनके मन की इस दशा को दूर करने के लिए शिव सदा ही उनकी छोटी बड़ी आवश्यकताओं की पूर्ति करने के लिए, पार्वती और काली की तुलना में प्राथमिकता देते थे। इस कारण लोग विनोदवश कहा करते कि शिव ने तो गंगा को सिर पर चढ़ा रखा है। जिसका, पुराणों में सिर पर नदी को बहते हुए वर्णन किया गया है जो किसी भी प्रकार स्वीकार्य नहीं है।

इन्दु- ओह! शिव के संबंध में आज पता चला कि उनका समाज के लिये कितना अमूल्य योगदान है, सचमुच हम सभी को पुराणों की कहानियाॅं भ्रामक और अतार्किक ज्ञान देती हैं !
बाबा- ये चर्चा तो कुछ भी नहीं है उनके बारे में कुछ भी कह पाना मनुष्य के सामर्थ्य  में नहीं है, जितने भी  देवी देवताओं के नाम पिछले 2000 वर्ष में कहानियों के माध्यम से सुनाए जाते रहे हैं वे सभी किसी न किसी प्रकार से शिव से ही संबंधित बताए जाते हैं ( जबकि शिव 7 हजार वर्ष पहले हुए) क्योंकि शिव से संबंध किए बिना उन्हें कोई मान्यता नहीं मिलती। शिव को इसीलिए देवों का देव महादेव कहा जाता है। उनके बारे में विद्वानों ने बहुत अनुसंधान किया परन्तु अन्त में यही कहना पड़ा कि ‘‘ तव तत्वम् न जानामि कि दृशोसि महेश्वरा, यादृशोसि महादेव तादृशाय नमोनमः।’’ अर्थात् हे महेश्वर ! तुम कैसे हो इस तत्व को जान पाना संभव नहीं है परन्तु तुम जैसे भी हो, हे देवों के देव महादेव ! तुम्हें वैसे ही बार बार प्रणाम करता हॅूं।

Thursday, 14 December 2017

170 प्रतिभा का शोषण

170
प्रतिभा का शोषण
शक्तिशाली और धनी लोग साहित्यकों, लेखकों और वक्ताओं को उनकी गरीबी का लाभ उठाकर क्रय कर लेते हैं और अनेक प्रकार से शोषण करते हैं। उनका यह कार्य प्राचीनकाल से चला आ रहा है। राजा और सम्राट लोग अपने राज्य में कर रहित भूमि और सम्पदा देकर दरवारी कवियों को रखा करते थे और इस प्रकार वे केवल उनके कहने के अनुसार साहित्य रचनाएं लिखा करते थे। इसलिए प्रतिभाशाली साहित्यकार और कलाकार अपने संरक्षकों को खुश रखने के लिए परिस्थितियों के दबाव में अपने स्वभाव के विपरीत कार्य करने के लिए विवश रहते थे। यही कारण है कि उन्हें अश्लील साहित्य और मूर्तियों की रचना करना पड़ती थी। अपने संरक्षकों को श्रेष्ठ और उनके शत्रुओं को तुच्छ प्रदर्शित करने के लिए उन्हें असत्य का सहारा लेना पड़ा। इतना ही नहीं अपने संरक्षकों की पोशाक, रंग, जाति, पूर्वज, और उनके परिवारों को ईश्वरतुल्य प्रदर्शित करने के लिए निराधार तथ्यों का सहारा भी लेना पड़ा। कुछ अपवादों को छोड़ दें  तो अधिकाॅंश साहित्यिक लोग, समाज के निम्न आर्थिक स्तर के ही होते पाए जाते हैं। स्वतंत्र रूप से कार्य करने की इच्छा होने के बावजूद, द्रव्य के अभाव ने ही उन्हें किसी संगठन या व्यक्ति विशेष के साथ काम करने के लिए उकसाया है। इतना तक कि वे जो अपने लेखों में साहसी और उत्साही दिखाई देते हैं इन्हीं परिस्थितिजन्य दबावों के कारण राजनैतिक पार्टियों के हाथ के खिलोनें  बनते देखे जाते हैं। स्पष्ट है कि सदा से ही शक्तिशालियों के द्वारा साहित्य, कला और बुद्धि के क्षेत्र में प्रवीण लोगों का शोषण किया जाता रहा है और इन लोगों ने अपनी योग्यता को उनके गुणगान तक ही सीमित कर दिया। दुख तो यह है कि यह सब आज भी जारी है।

Monday, 11 December 2017

169 बाबा की क्लास (समय का वर्णक्रम और ओंकार )

169 बाबा की क्लास (समय का वर्णक्रम और ओंकार )

इन्दु- आपने एक बार बताया था कि समाज को स्वरशास्त्र का ज्ञान सदाशिव ने ही सबसे पहले कराया था परन्तु हमारी लिपि में स्वर और व्यंजन नामक कुल पचास ध्वनियों का पृथक पृथक विवरण किसने दिया?
बाबा- हाॅं सही है, परंतु जब से सृष्टि की प्रतिसंचर धारा मनुष्य अवस्था तक आई मनुष्य ने धीरे धीरे अपने और सृष्टि के उद्गम को समझने का प्रयत्न प्रारंभ किया तथा अपने सभी प्रकार के ज्ञानानुभवों को ‘वेद‘ के नाम से अपने पश्चातवर्ती आगन्तुकों को मौखिक रूप से ही हस्तान्तरित करते गये। सुन सुन कर याद रखने के कारण वेद, श्रुति भी कहलाते हैं। चूूंकि सभी ध्वनियाॅं मुंह से ही उच्चारित की जाती थीं तथा उस समय तक लिपि का अनुसंधान नहीं हुआ था अतः , समय के वर्णक्रम को समझाने के लिये प्रत्येक स्वर और व्यंजन की ध्वनि उच्चारित करते हुए एक एक मुंह का आकार बनाते हुए ‘काल‘ अर्थात् ‘‘एटरनल टाइम फैक्टर‘‘ को प्रकट करने के लिये ‘कालिका‘ नामक संकल्पना को मानवीय आकार देकर सभी पचास अक्षरों में से एक ‘अ‘ (अर्थात निर्माण) उच्चारित करते हुए हाथ में और शेष उनन्चास को अन्य अक्षर उच्चारित करते हुए उनकी माला बनाकर गले में पहने हुए दर्शाया जाता रहा, ताकि उसे देखकर लोग उनका सही उच्चारण करना सीखें। परंतु जैसा कि तुम लोग जानते हो कि इसके बहुत बाद में, पौराणिक काल में मार्कंडेय पुराण में वर्णित काली या दुर्गा को इन मुंडमालाओं से विभूषित कर दिया गया है जिसका पूर्व में कहे गये ‘एटरनल टाइम फैक्टर‘ या कालिका से कोई संबंध नहीं है। पुराणों की यथार्थता के बारे में तो तुम लोग पहले ही जान चुके हो।

रवि- लेकिन पिछली कक्षाओं में आपने इन पचास ध्वनियों के संयुक्त रूप को ओंकार कहा था?
बाबा- हाॅं, सृष्टि के निर्माण के समय सबसे पहले जो ध्वनि अर्थात् ‘कास्मिक साउंड आफ क्रिएशन’ उत्पन्न हुई उसे ओंकार ध्वनि कहते हैं और उसका विश्लेषण करने पर वह स्वरों और व्यंजनों में विभक्त पचास प्रकार की मूल आवृत्तियों में अनुभव की जाती है। यह ओंकार ध्वनि आज भी ब्रह्मांड में उपस्थित है जिसे योगिक विधियों द्वारा अनुभव किया जाता है।

चन्दू- तो क्या इन मूल आवृत्तियों को समय का वर्णक्रम अर्थात् स्पेक्ट्रम कहा जा सकता है?
बाबा- समय या काल क्या है? क्रिया की गतिशीलता के ऊपर मन की कल्पना विशेष। अतः सभी प्रकार की आवृत्तियाॅं समय का स्पेक्ट्रम कही जा सकती हैं।

इन्दु- लेकिन आधुनिक वैज्ञानिक तो ‘‘टाइम और स्पेस ’’ की परिभाषा के संबंध में कुछ भी कहने से बचते हैं, उनके अनुसार इनके बारे में स्पष्ट कुछ नहीं है परन्तु वे टाइम और स्पेस को कपड़े के रेशों की तरह आपस में बुना हुआ मानते हैं?
बाबा- वैज्ञानिक इसे तब तक नहीं समझ पाएंगे जब तक वे ‘कास्मिक माइंड ’ और ‘यूनिट माइंड  ’ के अस्तित्व को नहीं मान लेते। वास्तव में, इस ब्रह्मांड में देश अर्थात् स्पेस, काल अर्थात् टाइम और पात्र अर्थात् अवलोकनकर्ता इन तीनों के माध्यम से  ही सम्पूर्ण ज्ञान का प्रकाशन होता है। अवलोकनकर्ता अपने मन के द्वारा ही सभी कियाओं को अवलोकित कर अपने अनुभवों को संचित करता है। इसीलिए कहा गया है कि क्रिया की गतिशीलता के ऊपर मन की कल्पना विशेष ‘टाइम’ कहलाता है, मन की सहायता से इस गतिशीलता को ग्रहण करने वाला ‘पात्र’ कहलाता है और ‘पात्र’ तथा ‘काल’ के बीच संबंध स्थापित करने वाली सत्ता ‘देश अर्थात् स्पेस’ कहलाती है।

राजू- क्या आप यह कहना चाहते हैं कि समय अवलोकनकर्ता के मन के अनुसार बदलता रहता है?
बाबा- धरती पर जो समय हम मापते हैं और किसी अन्य सोलरसिस्टम के किसी ग्रह पर जो समय मापते हैं क्या वह एक समान होता है? या स्थिर अवस्था में जो समय मापा जाता है वह गतिशील अवस्था में भी वही रह पाता है? यदि अवलोकनकर्ता अपने मापन का संदर्भ बिन्दु बदलता है तो क्या समय स्थिर रह पाता है? यह  सापेक्षिता का सिद्धान्त आधुनिक वैज्ञानिकों के द्वारा ही बताया गया है कि नहीं?

चन्दू- बाबा! वैज्ञानिक तो कहते हैं कि इस ब्रह्माॅंड की उत्पत्ति ‘‘बिगबेंग’’ के साथ अचानक ही हुई, परंतु विस्फोट जैसा कुछ नहीं हुआ ?
बाबा-  वैज्ञानिकों के इस कथन पर चिंतन करो, ‘‘बिगबेंग, दस घात माइनस सेंतीस सेकेंड में, दस घात पन्द्रह केल्विन ताप के विकिरण के साथ, स्पेस टाइम में फैलता हुआ अचानक ही अस्तित्व में आया।‘‘ समय की सूक्ष्मता और ताप की अधिकता पर चिंतन करो? क्या वे यह भी बता सकते हैं कि यह बिगबेंग किस के द्वारा किया गया अथवा 3 से 100 गुणित, दस घात बाईस सूर्य जैसे तारों की संख्या बराबर और 80 बिलियन गेलेक्सियों में वितरित यह पदार्थ कहाॅं से आया? ‘‘कुछ नहीं ‘‘ से ‘कुछ‘ कैसे उत्पन्न हो सकता है? निष्कर्ष यही है कि कोई ऐसी सत्ता अवश्य है जिसकी इच्छा से यह सब हुआ और उनकी कल्पना से इस काॅसमस के उत्पन्न होने का प्रमाण है समय की अकल्पनीय अत्यंत कम अवधि होना । इसलिये वैज्ञानिक माने या नहीं परमसत्ता के अस्तित्व को नकारा नहीं जा सकता इस काॅसमस के  दृश्य और अदृश्य सभी पदार्थ उस ‘‘काॅस्मिक माइंड‘‘ की ही विचार तरंगें हैं।

राजू- परंतु बाबा! अनेक स्थानों और मंदिरों में भी बड़ा ‘ऊ‘ बनाकर चंद्र विन्दु लगाते हुए लिखा पाया जाता है और कहा जाता है कि इसका उच्चारण ‘ओम‘ है, भगवान का यही नाम है। इसलिये ‘‘ओम ओम‘‘ इस प्रकार का सभी भक्त लोग जाप भी करते देखे गये हैं?
बाबा- हाॅं। ओंकार ध्वनि का शुद्ध उच्चारण हो ही नहीं सकता क्योंकि वह पचास अक्षरों की आवृत्तियों का एकीकरण है। हिंदी वर्णमाला के इन सभी पचास अक्षरों को एक साथ प्रदर्शित करने के लिये इस प्रकार का संकेताक्षर बड़े ही सोच बिचार कर बनाया गया है। इसमें बड़ा ‘ऊ‘ ब्रह्म की सगुणता को अर्थात् ऊर्जा के ‘कायनेटिक‘ रूप को  प्रकट करता है जिसमें ‘ अ‘, ‘उ‘ और ‘म‘ सम्मिलित होते हैं और क्रमशः उत्पत्ति, पालन और संहार का प्रतिनिधित्व करते हैं और उनसे जुड़ी क्रियात्मक सत्ता को दार्शनिक नामों से क्रमशः ब्रह्मा, विष्णु और महेश कहा गया है। ( ‘अ‘ वर्णमाला का प्रथम अक्षर है अतः इससे उत्पत्ति का, ‘उ‘ स्वरों का मध्य अक्षर है इससे  पालन का और ‘म‘ सभी व्यंजनों का अंतिम है इसलिये इसे मृत्यु का द्योतक माना गया है।) चंद्र बिन्दु के नीचे की ‘वक्राकार रेखा‘ निर्गुण से सगुण के बीच की क्रियात्मकता को  और ‘बिंदु‘ निर्गुण ब्रह्म को अर्थात् ऊर्जा के ‘पोटेशियल‘ रूप को  प्रदर्शित करते हैं। रेखागणित में, तुम लोग यह तो जानते ही हो कि बिंदु की स्थिति अर्थात् पोजीशन तो होती है परंतु विमायें अर्थात् डायमेन्शन्स नहीं, इसीलिये निर्गुण ब्रह्म को बिंदु से प्रदर्शित किया जाता है। इस प्रकार इस ‘‘ऊॅं‘‘ संकेताक्षर में सगुण और निर्गुण को एक साथ प्रदर्शित करने का प्रयास किया गया है और अपेक्षा की गयी है कि परम सत्ता के निर्गुण से सगुण होने की अवस्था में उत्पन्न ओंकार ध्वनि को इसी के माध्यम से अनुभव किया जाये।

रवि- तो जो लोग ओम ओम जोर जोर से चिल्लाते हैं उसका कोई महत्व है या नहीं?
बाबा- नहीं, चिल्लाने का कोई महत्व नहीं है, यह अच्छी तरह से  मन में बिठा लो कि ओंकार ध्वनि तो ब्रह्माण्ड  की उत्पत्ति के क्षण से ही समग्र सृष्टि में व्याप्त है इसे ‘‘काॅसमिक साउंड आफ क्रियेशन‘‘ ही कहते हैं और लगातार अभ्यास करने पर मन से मन में ही अनुभव की जा सकती है। इसलिये यदि कोई ओम ओम चिल्लाता है तो व्यर्थ है क्योंकि जब तक उसके पीछे क्या रहस्य छिपा है यह ज्ञात न हो तो चिल्लाने से भी क्या होगा? और जब रहस्य पता चल जायेगा तो वह कुछ भी उच्चारित नहीं कर पायेगा और उसे अनुभव करने के अभ्यास में जुटना ही पड़ेगा। इसलिये तुम सब अपने अपने इष्ट मंत्र के सहारे बार बार ओंकार के साथ अनुनादित होने का अभ्यास किया करो, यही सब कुछ है, जिसने इसे अनुभव कर लिया उसने सब कुछ पा लिया। इसके पीछे विज्ञान यह है कि हम अपने ‘‘ऐंन्टिटेटिव रिद्म‘‘ और ‘‘इनकान्टिटेटिव रिद्म‘‘ में संतुलन बिठाते हुए ‘‘काॅस्मिक रिद्म‘‘ के साथ अनुनाद अर्थात् ‘‘रेजोनेन्स‘‘ स्थापित करें। इसी के सहारे हम सृष्टि के उद्गम और उसके निर्माणकर्ता तक पहुंच पाते हैं।

Tuesday, 5 December 2017

168 बाबा की क्लास (अंक और अंकेश्वर )

168 बाबा की क्लास (अंक और अंकेश्वर )

नन्दू- आपने समय समय पर भगवान, ईश्वर, देवता आदि की दार्शनिक व्याख्या की है, इतना ही नहीं उनकी सीमाएं और कार्यक्षेत्र के संबंध में समझाया है परन्तु क्या परमपुरुष को गणित के अंकों द्वारा समझाया जा सकता है?
बाबा- अवश्य । पूरी गणित में ‘शून्य’ और ‘एक’ यही दो संख्यायें व्याप्त होती हैं। संख्या कितनी ही बड़ी क्यों न हो यदि गंभीरता से विचार करें तो वास्तव में संख्या ‘एक‘ ही उस बड़ी संख्या में उतनी बार समायी रहती है अतः संख्या मूलतः ‘एक‘ ही होती है। परमपुरुष ‘एक’ ही हैं ।

रवि- गणित में ‘अनन्त संख्या’ की अवधारणा भी होती है और बिन्दु की भी?
बाबा- "अनन्त" सीमा रहित है अतः संख्या ‘एक‘ ही अनन्त बार इसमें समायी हुई है। परमपुरुष को अनन्त कहा गया है। बिंदु का परिमाण नहीं होता केवल स्थिति होती है। परन्तु शून्य के साथ इनकी पारस्परिक स्थिति के अनुसार परिणाम में विचित्र परिवर्तन देखे जाते हैं।

राजू- यह परिवर्तन किस प्रकार होते हैं?
बाबा- ‘शून्य‘ और ‘एक‘ का संख्याओं में बहुत महत्व है, जैसे एक के पहले यदि शून्य लगादें तो उसका मूल्य वही रहता है और यदि आगे लगा दें तो दस गुना बढ़ जाता है। बिन्दु और शून्य का संख्या के साथ विपरीत स्वभाव होता है। बिन्दु संख्या के पहले लगाने पर उसका मूल्य दस गुना घट जाता है और आगे लगाने पर मान अपरिवर्तित रहता है।

इन्दु- तो क्या इसका अर्थ यह हुआ कि अस्तित्व तो केवल संख्या वह भी, ‘एक‘ का ही है । उसके अनेकत्व में अथवा मूल्य में आभासी कमी या बृद्धि होने के लिये तो ‘बिंदु और शून्य’ की स्थितियां ही उत्तरदायी होती हैं?
बाबा- इसे अच्छी तरह से समझ लो । बिंदु ‘काल‘ अर्थात् टाइम है , शून्य ‘आकाश ‘ अर्थात् स्पेस है और ‘अंक‘ है नित्य, सार्वभौमिक सत्ता। अंक, बिंदु और शून्य पारस्परिक रूप से जुड़कर जिस प्रकार अपने अनन्त आकारों में प्राप्त होते हैं उसी प्रकार  सार्वभौमिक परम आत्मतत्व, देश  और काल के पारस्परिक स्थानान्तर से अपने अनन्त स्वरूप बनाता है जिसे यह ‘सृष्टि’ कहा जाता है। हम उसके अत्यल्प भाग हैं और उसी के सापेक्ष अपना अस्तित्व रखते हैं।

चंदू- परन्तु कुछ दर्शन तो इस ‘जगत या सृष्टि’ को मिथ्या कहते हैं?
बाबा- सार्वभौमिक परमसत्ता परमसत्य है और उनकी यह सृष्टि सापेक्षिक सत्य है।

राजू- तो फिर ‘बिन्दु’ का रोल क्या है?
बाबा- ‘स्पेस और टाइम’ में जकड़ा यह प्रपंच अंततः बिन्दु में ही आश्रय पाता है क्योंकि वही उसका जनक है। इस बिंदु को आज के वैज्ञानिक भी महत्व देते हैं वे कहते हैं कि ‘ब्लेकहोल’ एक बिंदु ही है जिसमें प्रकाश  के कण अर्थात् ‘फोटान’ ही नहीं अंत में सभी गैलेक्सियाॅं और स्पेस तक अवशोषित हो जाते हैं । इस प्रकार ‘बिन्दु ’ को ‘अंक’ की शरण में जाना पड़ता है क्योंकि असली अस्तित्व अर्थात् नित्यत्व तो उसी ‘‘एक’’ का है। स्पष्ट है कि ‘बिंदु और शून्य’ के चंगुल से जो छूूट गया उसे ‘अंक’ प्राप्त हो ही जाता है यह अंक ही परमसत्ता है, परमसत्ता की अंक अर्थात् गोद है। इसी ‘एक‘ को प्राप्त करना ही मानव जीवन का लक्ष्य है।

रवि- आपने संख्या ‘एक’ को अनन्त बार समाहित करने वाली संख्या को "अनन्त" कहा परन्तु यह संख्या ‘एक’ को शून्य से विभाजित करने पर भी तो प्राप्त होती है , यह ‘अनन्त’ क्या भिन्न  या दूसरा "अनन्त" कहा जा सकता है ?
बाबा- चलो, इस समस्या का हल खोजते हैं। यदि अंक और शून्य के विभाजन पर ध्यान दें तो इस प्रकार के विचित्र परिणाम प्राप्त होते  हैंः
जैसे, संख्या 25 में संख्या 1 का भाग दें तो भजनफल 25 होगा परन्तु संख्या 25 को शून्य अर्थात् आकाश से विभाजित करें तो भजनफल होगा  ‘अनन्त‘। संख्या 50 कोे संख्या 1 से भाग दें तो भजनफल 50 होगा परन्तु शून्य से भाग दें तो भी भजनफल ‘‘अनन्त‘‘। संख्या 75 को संख्या 1 से भाग दें तो भजनफल 75 होगा परन्तु शून्य से भाग दें तो भी भजनफल ‘‘‘अनन्त‘‘‘। अब प्रश्न उठता है कि क्या उपरोक्त तीनों स्थितियों में प्राप्त  ‘अनन्त‘, ‘‘अनन्त‘‘ और ‘‘‘अनन्त‘‘‘ एक ही हैं या अलग, क्योंकि जो 25 को शून्य से विभाजित करने पर ‘अनन्त‘ प्राप्त होता है वह 50 को शून्य से विभाजित करने पर प्राप्त ‘‘अनन्त‘‘ से आधा होना चाहिए और 75 को शून्य से विभाजित करने पर प्राप्त होने वाले ‘‘‘अनन्त‘‘‘ से तिहाई होना चाहिए।  अतः अंकगणितीय तर्क से यह तीनों अनन्त एक ही नहीं हो सकते हैं । इसी तर्क के आधार पर असंख्य अनन्त हो सकते हैं जो एक समान नहीं होंगे।
इस जटिलता को वेद में इस प्रकार दूर किया गया है-
‘‘पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते, पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते।’’ अर्थात् यह भी पूर्ण है और वह भी पूर्ण है। पूर्ण (परमपुरुष) से ही पूर्ण (सृष्ट जगत ) आया है । पूर्ण से यदि पूर्ण निकाल लिया जाय तब भी शेष पूर्ण ही रहता है।यह सगुण भूमा सत्ता अनन्त, वह गुणातीत सत्ता भी अनन्त। उस गुणातीत सत्ता से यह गुणान्वित भूमा सत्ता को अलग करके निकाल देने पर भी जो वियोगफल प्राप्त होगा वह भी अनन्त ही होगा।
मूल बात यही है कि असंख्य अनन्त भी सभी एक नहीं हैं और संख्याओं में कहे गए अनन्त भी सभी एक नहीं हैं। असंख्य सान्त भी सभी एक नहीं हैं और संख्याओं में व्यक्त सान्त तो एक नहीं ही हैं।