यमुना नदी जिस क्षेत्र से बहती है वह काली मिट्टी प्रधान है और गंगा का पीला। प्रयाग के पास संगम से पूर्व यमुना उस समय जिस काले क्षेत्र को घेर कर बहा करती थी वह कहलाता था कृष्ण द्वीप। इस कृष्ण द्वीप पर निवास करने वाले एक (मत्स्यजीवी) मछुवारे परिवार में जन्मे बालक का नाम हुआ कृष्णद्वैपायन। उस परिवार की उपाधि थी व्यास इसलिये वह कहलाये कृष्ण द्वैपायन व्यास। परन्तु इस नाम से उन्हें संसार कम जानता है उन्हें वेदव्यास के नाम से अधिक जाना जाता है। इसका ऐतिहासिक कारण यह है कि आज से लगभग साढ़े तीन हजार वर्ष पूर्व तत्कालीन भारतीय जनसमाज में वेद प्रायः लुप्त हो चले थे। वेदों की चर्चा न होने के कारण सामान्य लोग वेदों के विषय में जानते भी नहीं थे। कृष्णद्वैपायन व्यास ने ही सर्वप्रथम वेद की महत्ता स्थापित की और सामाजिक जीवन में वेद का प्रचलन कराया। इसी कारण उन्हें प्रायः वेद व्यास के नाम से अधिक जाना जाता है।
सामान्यतः इससे लोग यह अंदाज लगाते हैं और मानते हैं कि वेदों के रचियता वेद व्यास हैं। परन्तु यह सत्य नहीं है। वेद तो वेदव्यास से भी हजारों साल पहले ऋषियों के अनुभवों और अनुसंधान के ज्ञान के संग्रह के रूप में सुन सुन कर याद रखे जाते थे क्यों कि लिखने की लिपि का अनुसंधान उस समय नहीं हुआ था। सुन सुन कर याद रखे जाने के कारण ही वेदों को श्रुति भी कहा जाता है। इस प्रकार इस अमूल्य ज्ञान में कालान्तर में नये अनुसंधानों से वृद्धि भी हुई और स्मरण में न रख पाने के कारण बहुत सा अंश विलुप्त भी होता गया। इसी क्रम में ऋग्वेदिक काल और यजुर्वेदिक काल समाप्त हो चुके तब ब्राह्मी और खरोष्टि लिपियों का अनुसंधान हुआ और भोज पत्र पर लिखने का अभ्यास किया जाने लगा। महर्षि अथर्वा ने तब अपने अन्य साथियों वैदर्भि, अंगिरा, अंगिरस आदि की सहायता से वेदों को लिखने का कार्य करना चाहा परन्तु तत्कालीन विद्वत समाज में एक यह मान्यता बनी हुई थी कि वेदों को लिखा नहीं जाना चाहिये क्योंकि उन्हें सुनकर याद रखने की ही परम्परा है। ऋषि अथर्वा ने बहुत समझाने का प्रयास किया परन्तु उन्हें विरोध का सामना करना पड़ा। अथर्वा जानते थे कि इस प्रकार तो बहुत ही महत्वपूर्ण ज्ञान धीरे धीरे नष्ट ही हो जायेगा इसलिये उन्होंने तत्कालीन विद्वानों से विवाद छोड़कर अपने पूर्वोक्त मित्रों और शिष्यों की सहायता से छिप छिप कर वेदों की वैदिक संस्कृत को ब्राह्मी में लिपिबद्ध किया। वह भी महाभारत काल तक विलुप्तप्राय हो चुके थे जिन्हें कृष्णद्वैपायन व्यास ने खेजकर काल क्रम के अनुसार ऋग्वेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद इन तीन भागों में बॉंटा। उन्होंने इन तीनों भागों के पद्यात्मक भाग को अलग कर उसे चौथा वेद सामवेद कहा। इस प्रकार उनका नाम वेदव्यास पड़ा।
इस महत्वपूर्ण श्रमसाघ्य कार्य के अलावा उनकी अन्य रचना है महाकाव्य ‘महाभारत’ जिसमें रसात्मक शैली में श्रीकृष्ण की महान परिकल्पना को साकार रूप देते हुए व्यक्ति के विकास के चारों अंग धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष सन्निहित हैं। इसी कारण वेदव्यास का ‘महाभारत’ एक उच्चकोटि का इतिहास ग्रंथ है। चूंकि वेदों और महाभरत में दी गई शिक्षाओं को सामान्य जन समाज सरलता से समझ पाने में असमर्थ था अतः वेदव्यास ने काल्पनिक कथाओं को आधार देकर लोक शिक्षा के लिये अठारह पुराणों की रचना भी की। उन्होंने अन्त में कहा है कि सभी अठारह पुराणों में मैं केवल दो ही बातों पर जोर देता हूँ , पहला, परोपकार करने से पुण्य और दूसरा, दूसरों को पीड़ा देने से पाप मिलता है।
‘‘ अष्टादश पुराणेषु, व्यासस्य वचनद्वयम्। परोपकारः पुण्याय पापाय परिपीडनम्।।’’