Friday, 21 January 2022

371 कृष्ण द्वैपायन व्यास

 

यमुना नदी जिस क्षेत्र से बहती है वह काली मिट्टी प्रधान है और गंगा का पीला। प्रयाग के पास संगम से पूर्व यमुना उस समय जिस काले क्षेत्र को घेर कर बहा करती थी वह कहलाता था कृष्ण द्वीप। इस  कृष्ण द्वीप पर निवास करने वाले एक (मत्स्यजीवी) मछुवारे परिवार में जन्मे बालक का नाम हुआ कृष्णद्वैपायन। उस परिवार की उपाधि थी व्यास इसलिये वह कहलाये कृष्ण द्वैपायन व्यास। परन्तु इस नाम से उन्हें संसार कम जानता है उन्हें वेदव्यास के नाम से अधिक जाना जाता है। इसका ऐतिहासिक कारण यह है कि आज से लगभग साढ़े तीन हजार वर्ष पूर्व तत्कालीन भारतीय जनसमाज में वेद प्रायः लुप्त हो चले थे। वेदों की चर्चा न होने के कारण सामान्य लोग वेदों के विषय में जानते भी नहीं थे। कृष्णद्वैपायन व्यास ने ही सर्वप्रथम वेद की महत्ता स्थापित की और सामाजिक जीवन में वेद का प्रचलन कराया। इसी कारण उन्हें प्रायः वेद व्यास के नाम से अधिक जाना जाता है। 

सामान्यतः इससे लोग यह अंदाज लगाते हैं और मानते हैं कि वेदों के रचियता वेद व्यास हैं। परन्तु यह सत्य नहीं है। वेद तो वेदव्यास से भी हजारों साल पहले ऋषियों के अनुभवों और अनुसंधान के ज्ञान के संग्रह के रूप में सुन सुन कर याद रखे जाते थे क्यों कि लिखने की लिपि का अनुसंधान उस समय नहीं हुआ था। सुन सुन कर याद रखे जाने के कारण ही वेदों को श्रुति भी कहा जाता है। इस प्रकार इस अमूल्य ज्ञान में कालान्तर में नये अनुसंधानों से वृद्धि भी हुई और स्मरण में न रख पाने के कारण बहुत सा अंश विलुप्त भी होता गया। इसी क्रम में ऋग्वेदिक काल और यजुर्वेदिक काल समाप्त हो चुके तब ब्राह्मी और खरोष्टि लिपियों का अनुसंधान हुआ और भोज पत्र पर लिखने का अभ्यास किया जाने लगा। महर्षि  अथर्वा ने तब अपने अन्य साथियों वैदर्भि, अंगिरा, अंगिरस आदि की सहायता से वेदों को लिखने का कार्य करना चाहा परन्तु तत्कालीन विद्वत समाज में एक यह मान्यता बनी हुई थी कि वेदों को लिखा नहीं जाना चाहिये क्योंकि उन्हें सुनकर याद रखने की ही परम्परा है। ऋषि अथर्वा ने बहुत समझाने का प्रयास किया परन्तु उन्हें विरोध का सामना करना पड़ा। अथर्वा जानते थे कि इस प्रकार तो बहुत ही महत्वपूर्ण ज्ञान धीरे धीरे नष्ट ही हो जायेगा इसलिये उन्होंने तत्कालीन विद्वानों से विवाद छोड़कर अपने पूर्वोक्त मित्रों और शिष्यों की सहायता से छिप छिप कर वेदों की वैदिक संस्कृत को ब्राह्मी में लिपिबद्ध किया। वह भी महाभारत काल तक विलुप्तप्राय हो चुके थे जिन्हें कृष्णद्वैपायन व्यास ने खेजकर काल क्रम के अनुसार ऋग्वेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद इन तीन भागों में बॉंटा। उन्होंने इन तीनों भागों के पद्यात्मक भाग को अलग कर उसे चौथा वेद सामवेद कहा। इस प्रकार उनका नाम वेदव्यास पड़ा। 

इस महत्वपूर्ण श्रमसाघ्य कार्य के अलावा उनकी अन्य रचना है महाकाव्य ‘महाभारत’ जिसमें रसात्मक शैली में श्रीकृष्ण की महान परिकल्पना को साकार रूप देते हुए व्यक्ति के विकास के चारों अंग धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष सन्निहित हैं। इसी कारण वेदव्यास का ‘महाभारत’ एक उच्चकोटि का इतिहास ग्रंथ है। चूंकि वेदों और महाभरत में दी गई शिक्षाओं को सामान्य जन समाज सरलता से समझ पाने में असमर्थ था अतः वेदव्यास ने काल्पनिक कथाओं को आधार देकर लोक शिक्षा के लिये  अठारह पुराणों की रचना भी की। उन्होंने अन्त में कहा है कि सभी अठारह पुराणों में मैं केवल दो ही बातों पर जोर देता हूँ , पहला, परोपकार करने से पुण्य और दूसरा, दूसरों को पीड़ा देने से पाप मिलता है।

‘‘ अष्टादश पुराणेषु, व्यासस्य वचनद्वयम्। परोपकारः पुण्याय पापाय परिपीडनम्।।’’


370 राक्षस कुलगौरव महावीर घटोत्कच और बर्बरीक

 

सामान्य अवधारणा है कि रासक्ष लंबे दातों और नाखूनों वाले भयानक आकृति के और सबको अकारण ही कष्ट पहुंचाने वाले होते हैं। परन्तु यह गलत है, वे भी हमारी तरह सामान्य व्यक्ति थे, शिव के उपासक और तंत्र के क्षेत्र में नये अनुसंधान करने वाले वैज्ञानिक ही  थे। परन्तु उनकी शक्तियों और कार्यों से देश का एक वर्ग सदा ही ईर्ष्या करता रहा और उन्हें नुकसान पहुंचाने में ही अपना गौरव मानता रहा। इनमें से महाभारत काल के दो राक्षस चरित्रों के संबंध में संक्षेप में जानिए वे क्या थे-

घटोत्कच

भीमसेन का हिडिम्बा से उत्पन्न पुत्र ‘घटोत्कच’ नाम से प्रसिद्ध है। हिडिम्बा राक्षस कुल में उत्पन्न हुई और राक्षसी विद्या में प्रवीण थी जिसे उसने घटोत्कच को सिखाया। घटोत्कच ने इस विद्या को युद्ध में उपयोग करने की नई विधा से जोड़ा और अपराजेय बन गया। महाभारत युद्ध में जब पांडव सेना को कर्ण, विनाश करने पर तुल गए तो कृष्ण ने घटोत्कच को पांडवों की ओर से युद्ध में उतारा। घटोत्कच ने कौरवों की सेना को जब गाजर मूली की तरह काटना मारना शुरु किया तो दुर्योधन को डर लगने लगा कि यदि यह राक्षस अधिक देर तक जीवित रहा तो आज ही उसका तथा सेना का सफाया हो जायेगा। अतः उसने कर्ण से, इंद्र की दी गई शक्ति को, जिसे वह अर्जुन को मारने के लिये सुरक्षित रखे था, घटोत्कच पर चला देने का दबाव डाला और घटोत्कच के इस प्रकार के बलिदान से अर्जुन को कृष्ण की नीति द्वारा बचाया जा सका। इस विद्या में घटोत्कच ने अपनी पत्नी मौरवी के साथ अपने पुत्र बर्वरीक को भी प्रशिक्षण दिया जो तत्समय कृष्ण द्वारा सर्वश्रेष्ठ योद्धा माना गया था।

बर्बरीक

बर्वरीक की राक्षसी विद्या में पराकाष्ठा के संबंध में कहा जाता है कि कौरवों और पांडवों के बीच प्रारंभ हाने वाले युद्ध में जब वह भाग लेने जा रहा था तब सर्वज्ञाता श्रीकृष्ण ने ब्राह्मण के रूप में उसके पास जाकर परिचय पूछा। बर्बरीक ने कहा युद्ध में भाग लेने जा रहा हॅूं। परन्तु उसके तूणीर में केवल तीन वाण ही देखकर कृष्ण ने हंसी उड़ाते हुए कहा अजीब योद्धा हो ! केवल तीन वाणों से इस महायुद्ध में कितने दिन लड़ सकोगे। वह बोला मुझे तो केवल एक ही वाण पर्याप्त है, वह लक्ष्य भेद करके वापस मेरे तूणीर में आ जाता है। कृष्ण बोले अच्छा इस पीपल के पेड़ के सभी पत्तों को बेधकर दिखाओ तुम्हारा वाण किस प्रकार वापस आता है। उसका तीर सभी पत्तों को बेधकर श्रीकृष्ण के पैर के चारों ओर चक्कर लगाने लगा। बर्बरीक ने कहा ब्राह्मण देवता आप अपना पैर पत्ते के ऊपर से हटा लीजिए नहीं तो यह तीर आपका पैर छेद देगा। कृष्ण ने पूछा किस पक्ष से लड़ने की इच्छा है, वह बोला जो पक्ष पराजित हो रहा होगा उसकी ओर से लड़ूंगा। कृष्ण ने सोचा कि यदि यह हारने वाले पक्ष कौरवों की ओर से लड़ेगा तो धर्मराज्य स्थापित करने की उनकी योजना सफल ही नहीं होगी। अतः उन्होंने अपने वास्तविक रूप में आकर उसे कहा कि तुम इस समय के सर्वश्रेष्ठ योद्धा हो अतः युद्ध प्रारंभ करने के पूर्व तुम्हारा सिर इस रणक्षेत्र को दान करना होगा। उसने कहा ठीक है प्रभो! मैं आपकी शरण में हॅूं, परन्तु मैं मरने के पहले आपके चतुर्भुज रूप को देखना चाहता हॅूं और इस युद्ध को होते भी देखना चाहता हॅूं। कृष्ण ने उसे एक ऊंचे पहाड़ पर बैठकर युद्ध देखने की अनुमति दे दी। युद्ध की समाप्ति पर बर्बरीक से जब पूछा गया कि किस पक्ष के कौन कौन से योद्धाओं ने श्रेष्ठ रणकौशल दिखाया तब उसने जबाब दिया, प्रभो! दोनों ओर से आप ही लड़ रहे थे, आप ही मार रहे थे, आप ही मर रहे थे। 

अब सोचिए राक्षसों के प्रति लोगों की सोच कितनी उचित है।


Thursday, 20 January 2022

369 जरा, कर्करी, हिडिम्बा और जम्भाला

 

महाभारत काल में भीम को दुर्याधन के द्वारा दिए गये विष की चिकित्सा कृष्ण के सुझाव पर  विष के द्वारा किए जाने के प्रमाण पाए जाते हैं जो ‘‘समः समम् शाम्यति’’ के सद्धान्त के अनुसार ही है। उस समय आयुर्वेद में विष चिकित्सा पर शोध के अलावा ‘‘सूचिकाभरण’’ (जिसे आजकल इंजेक्शन कहा जाता है) पर भी प्रचुर जानकारी उपलब्ध थी परन्तु उस समय लोगों में यह अंधविश्वास फैला था कि शरीर में बाहरी द्रव्य सीधे ही नहीं भेजा जाना चाहिए, अतः इस कार्य के विकास में अवरोध आ गया। शल्यचिकित्सा को भी राक्षसी विद्या कहकर हेय माना जाता था। अब आधुनिक चिकित्सा विज्ञान में इंजेक्शन से दवा देना और शल्यचिकित्सा करना सहज माना जाता है। उस समय की चार महिला राक्षसी चिकित्सकों में से केवल ‘हिडिम्बा’ को ही लोग जानते हैं क्योंकि महाभारत की कहानियों में उनका नाम आता है और वह बाद में भीम की पत्नी हुईं। परन्तु ‘जम्भाला’,  ‘जरा’ और ‘कर्करी’ को लोग नहीं जानते। आइए इन्हें जानने का प्रयास करें।

‘जरा’

वास्तव में भारत का वैद्यक शास्त्र और आर्यों का आयुर्वेद, कृष्ण के काल तक परस्पर मिल कर एक हो गए थे परन्तु आर्यों द्वारा भारत के मूल निवासियों अर्थात् अनार्यों को हेय दृष्टि से देखा जाना जारी  था और उन्हें प्रायः राक्षस या म्लेच्छ कहा जाता था। महाभारत काल में कृष्ण के फुफेरे बड़े भाई जरासंध का जन्म सिजेरियन अर्थात शल्यक्रिया के उपरांत ही हुआ था। कहा जाता है कि लोगों ने  शिशु  जरासंध को षल्य क्रिया के उपरान्त मरा समझकर ष्मषान में फेक दिया था परन्तु उसी समय ‘‘जरा’’ नाम की महिला डाक्टर ने, जिन्हें राक्षस कुल की होने के कारण जरा राक्षसी कहा जाता था, उस क्षत विक्षत  शिशु  को षल्य क्रिया से सिलकर, जोड़कर ठीक कर दिया। उस महिला डाक्टर ‘‘जरा’’ के अवदान से जीवित हुए उस  शिशु  का नाम पड़ गया जरासंध ( अर्थात जिसे  ‘जरा‘ राक्षसी के द्वारा शल्य क्रिया से सिल कर जन्म दिया गया) । ‘जरा’ को राक्षस  कुल की होने के कारण जरा राक्षसी कहा गया है परन्तु जरासंध इस कुल को आदर देते थे और फिर स्वयं भी राक्षसी विद्या में पारंगत  हुए। जरासंध ने तथाकथित राक्षसों के प्रति भद्रतापूर्ण और आत्मीय व्यवहार रखा और उनके संरक्षण में शल्यप्रसव, अंगारोपण आदि शल्यचिकित्सा विज्ञान के अंगों का समुचित विकास हुआ।

‘कर्करी’

राक्षस कुल में ही एक अन्य विदुषी और मेधावी शल्यचिकित्सक थी ‘कर्करी’। विशूचिका (हैजा) रोग के उपचार के लिए सुई लगाने की विधि ‘सूचिकाभरण’ का ज्ञान इसी कुल की इस महिला चिकित्सक ‘कर्करि‘ को था। चिकित्सा कार्य में सुई का आविष्कार ‘कर्करी’ ने ही किया था। ‘कर्करी’ की विषेषज्ञता का अन्य क्षेत्र था हिप्नोटिज्म। हिप्नोटिज्म का सिद्धान्त है कि अधिक इच्छाषक्ति वाला व्यक्ति दूसरों की चिंतनधारा एवं कर्मशक्ति को नियंत्रित कर सकता है। इतना ही नहीं वह मनोवैज्ञानिक उपायों अथवा क्रित्रिम तरीकों से दुर्बल मन को प्रभावित कर सकता है। इसका उपयोग कर कर्करी ने शक्तिषाली मन के प्रभाव से नियंत्रित की गई शक्ति को रोग के विरुद्ध लगाकर रोग मुक्त करने का नया तरीका निकाला था। आज लोग समझते हैं कि हिप्नोटिज्म को फ्रांस के मनोचिकित्सक डाक्टर मेस्मर ने खोजा था पर यह गलत है इसका श्रेय कर्करी को मिलना चाहिये।  

‘हिडिम्बा’

संस्कृत में राक्षसी विद्या का अर्थ है सम्मोहन या हिप्नोटिज्म। इस विद्या में पारंगत अन्य महिला थीं ‘हिडिम्बा’ (भीम की पत्नी)। इस विद्या का जानकार उन्नत मन, अनुन्नत मन पर अपना प्रभाव डालकर अपने आधीन कर सकता है। हिडिम्बा ने अपने पुत्र ‘घटोत्कच’ को इस विद्या में पारंगत किया जिसे उन्होंने रणकौशल के रूप में प्रयुक्त किया। कृष्ण ने घटोत्कच और उसकी विद्याओं का उपयोग महाभारत में महाशक्तियों को नष्ट करने में किया। घटोत्कच और मौरवी से उत्पन्न उनका पुत्र बर्वरीक भी अपने माता पिता से यह विद्या सीखकर उसे रणकौशल के उच्चतम स्तर तक ले गया। कहा जाता है कि बर्बरीक की माता ने उससे यह वचन लिया था कि वह अपनी इस विद्या का उपयोग हमेशा कमजोर पक्ष की मदद करने में ही करेगा। कृष्ण ने स्वीकार किया था कि वह उस समय का सर्वश्रेष्ठ योद्धा है, परन्तु कौरवों की ओर से लड़ने की उसकी इच्छा को उन्होंने धर्मराज्य स्थापित करने की उनकी योजना के मार्ग में बाधा समझ कर अपने कौशल से उसे युद्ध से विरत कर दिया था। 

‘जम्भाला’

यह भी ‘जरा’ की भांति राक्षस कुल में उत्पन्न महिला शल्य चिकित्सक थी। इनका हाथ गर्भिणी महिला का प्रसव कराने में इतना सधा था कि इनके बारे में लोग कहने लगे थे कि उनका नाम ले लेने से ही प्रसव में कोई बाधा नहीं आएगी। यथा, ‘‘ अस्ति गोदावरी तीरे जम्भाला नाम राक्षसी, तस्या स्मरणमात्रेण विशल्या गर्भिणी भवेत।’’

आर्य इन तथाकथित राक्षसी विद्या में निपुण लोगों को हेय मानकर तिरस्कार करते थे। इस प्रकार की अनेक विद्याएँ भारत में बहुत पहले विकसित हो चुकीं थीं परन्तु प्रोत्साहन के आभाव में वे जानकार के साथ ही विलुप्त होती गईं। बौद्धकाल के प्रारंभ में मृत देह को स्पर्श करना या कंकाल का परीक्षण अर्थात् शवच्छेद ( डिसेक्शन) करने को बहुत ही हीन कार्य और अस्पृश्य माना जाने लगा था अतः उन्नत शल्य चिकित्सा विलुप्त हो गई। आज हम पाश्चात्य देशों से उन्हें जान पाते हैं और उन्हें ही इनकी खोज का श्रेय देते हैं। सोचिए, महाभारत काल से ही आयुर्वेद में की जा रही रिसर्च को यदि हतोत्साहित न किया जाकर प्रोत्साहन दिया जाता तो क्या वह आज की एलोपैथी से आगे न होता? आयुर्वेद के इस ह््रास के लिए कौन उत्तरदायी है?


Sunday, 16 January 2022

368 देवव्रत भीष्म का महाप्रयाण


दृढ़प्रतिज्ञ भीष्म युद्धभूमि में शरशैया पर लेटे उत्तरायण की प्रतीक्षा कर रहे थे बस, कुछ घंटे ही शेष थे। वह बिल्कुल अकेले थे। पर, अचानक उन्हें एक मधुर स्वर सुनाई दिया, ‘‘प्रणाम पितामह!’’ और उनके सूखे अधरों पर आई मुस्कुराहट ने कहा, ‘‘आओ वासुदेव! बहुत देर से तुम्हारा ही स्मरण कर रहा था’’। कृष्ण बोले, क्या कहूॅं पितामह! यह भी तो नहीं पूंछ सकता कि आप कैसे हैं!’ कुछ क्षण चुप रहने के बाद भीष्म बोले, ‘‘ पुत्र युधिष्ठिर का राज्याभिषेक करा चुके केशव? उन सबका ध्यान रखना।’’ कृष्ण को चुप रहते देख वह फिर बोले, ‘‘कुछ पूछॅूं केशव? शायद, धरती छोड़ने के पहले मेरे भ्रम दूर हो जायें।’’ कृष्ण उनके अधिक समीप जा पहॅुंचे और बोले ‘‘ कहिए पितामह!’’ वे बोले, ‘‘कन्हैया यह बताओ कि इस युद्ध में जो हुआ क्या वह ठीक था?’’

‘‘किसकी ओर से कौरवों या पांडवों की ओर से’’ कृष्ण ने पूछा। 

‘‘ कौरवों के कृत्यों पर चर्चा करना तो व्यर्थ ही है पर जो भी पांडवों ने किया वह क्या सही था, जैसे आचार्य द्रोण का वध, दुर्योधन की जंघा पर प्रहार, दुःशासन की छाती को चीरना, जयद्रथ के साथ हुआ छल और निहत्थे कर्ण का वध आदि?’’

‘‘इसका उत्तर मैं कैसे दे सकता हॅूं पितामह! यह तो वही दे सकते हैं जिन्होंने यह किया है’’ कृष्ण ने बड़े भोलेपन से जबाब दिया।

‘‘पूरा विश्व भले यह कहे कि युद्ध अर्जुन और भीम ने जीता है पर मैं जानता हॅूं कि यह केवल तुम्हारी विजय है, इसलिए तुम्हीं से पूछॅूंगा, कृष्ण!’’

‘‘ तो सुनिए पितामह! कुछ भी बुरा नहीं हुआ, कुछ भी अनैतिक नहीं हुआ, वही हुआ है जो होना चाहिए था।’’

‘‘यह तुम कह रहे हो केशव?’’

‘‘इतिहास से शिक्षा ली जाती है पितामह! कोई भी निर्णय वर्तमान की परिस्थितियों के आधार पर लेना पड़ता है। पाप का अन्त आवश्यक है वह चाहे जिस विधि से हो’’।

‘‘ तो क्या तुम्हारे इन निर्णयों से गलत परंपराएं निर्मित नहीं होंगी? क्या तुम्हारे छलों का अनुसरण भविष्य नहीं करेगा? और यदि करेगा तो क्या यह उचित होगा?’’

‘‘ भविष्य तो इससे भी अधिक नकारात्मक आ रहा है पितामह! कलियुग  में तो इतने से भी काम नहीं चलेगा, मनुष्य को कृष्ण से भी कठोर होना होगा नहीं तो धर्म समाप्त हो जाएगा। जब क्रूर और अनैतिक शक्तियॉं धर्म का समूल नाश करने को तुली हों तो नैतिकता अर्थहीन हो जाती है। उस समय तो केवल विजय ही महत्पूर्ण होती है केवल विजय। भविष्य को यह सीखना ही होगा पितामह!’’

‘‘ तो क्या धर्म का भी नाश हो सकता है केशव! और यदि धर्म का नाश होना ही है तो क्या मनुष्य इसे रोक सकता है?’’

‘‘ सबकुछ ईश्वर के भरोसे छोड़ कर बैठ जाना मूर्खता है, पितामह! ईश्वर कुछ नहीं करता, सब कुछ मनुष्य को ही करना होता है। आप मुझे भी ईश्वर कहते हैं न? तो बताइए कि कि मैंने इस युद्ध में स्वयं कुछ किया? सब कुछ पांडवों को ही करना पड़ा न? यही प्रकृति का विधान है।’’

भीष्म अब संतुष्ठ लग रहे थे, उनकी आंखें धीरे धीरे बंद होने लगी थीं। वे बोले, ‘‘ चलो कृष्ण इस धरती पर यह अंतिम रात्रि है कल संभवतः मुलाकात न हो, पर अपने इस भक्त पर कृपा बनाए रखना।’’

प्रणाम कर कृष्ण लौट चले पर युद्ध भूमि के उस डरावने अंधकार में भविष्य को जीवन का सबसे बड़ा सूत्र मिल चुका था वह यह कि ‘‘ जब अनैतिक और क्रूर शक्तियॉं  धर्म का विनाश करने के लिये आक्रमण कर रहीं हों तो नैतिकता का पाठ पढ़ाना आत्मधाती होता है।’’


367 भीष्म और कर्ण


महाभारत के प्रख्यात चरित्र भीष्म व्यक्तिगत रूप से एक महान और दुर्जेय योद्धा थे। वे यह जानते थे कि पांडवगण धर्मावलम्बी हैं परन्तु फिर भी उन्होंने युद्ध में अनैतिक कौरव पक्ष का साथ दिया। मन से वह पांडवों की ही विजय चाहते रहे। तत्कालीन समाज की यह व्यवस्था थी कि लोग सहजनैतिकता का ही पालन किया करते थे। मनुष्य को उसकी पूर्व प्रतिज्ञाओं के अनुसार ही काम करना होता था। भीष्म ने अपने पिता को आजीवन विवाह न करने और कुरु राज्य का संरक्षण करने का वचन दिया था जिसे उन्होंने निष्ठा से निभाया। इसी से उनकी यह प्रतिज्ञा भीष्म प्रतिज्ञा के नाम से आज भी प्रसिद्ध है। कौरव, नीति और धर्म के विरुद्धाचरण किया करते थे लेकिन सहजनैतिकता के पालन करने के लिये ही भीष्म ने यह कहते हुए कौरवों का साथ दिया कि उन्होंने कौरवों का नमक खाया है और वे सिंहासन की रक्षा करने के लिए बचनवद्ध हैं। सहज नैतिकता का मूल्य आध्यात्मिक नैतिकता से कम हो सकता है परन्तु सहजनैतिकता मानवीय मौल नीति के अन्तर्गत आती है अतः श्रीकृष्ण भी सहजनैतिकता को बहुत महत्व देते थे।

कर्ण, कुन्ती के विवाह के पूर्व जन्म लेने वाली प्रथम संतान थे। वे थे सूर्य नामक राजा की औरसजात संतान। इसलिये वह सारथी के घर प्रतिपालित हुए लेकिन कर्ण एक आदर्शवादी व्यक्ति थे। वे कौरवों के सबसे अधिक विश्वसनीय थे। भीष्म के चरित्र के साथ उनका मेल था जैसे, किसी ने एक बार उनका उपकार किया तो कर्ण कभी भी उसके विरुद्ध आचरण नहीं किया करते थे। कर्ण भी सहजनैतिकता को ही मानते थे। आध्यात्मिक नैतिकता को मानने में बन्धुविच्छेद की संभावना होने से प्रायः ही लोग उसे भूल जाते हैं । लेकिन यह देखा जाता है कि अन्त में आध्यात्मिक नैतिकता ही जययुक्त होती है। दुर्नीतिग्रस्त व्यक्ति का समर्थन करना कभी भी उचित नहीं माना जा सकता। पितामह भीष्म ने कौरवों का नमक खाया था इसलिए कौरवों का पक्ष लिया। उन्होंने दुर्योधन के मनोभाव को परिवर्तन करने के लिए उपदेश भी दिया, परन्तु दबाव नहीं डाला। कर्ण भी कौरवों के उपकारों से दबे थे, नीतिवादी होने बाद भी उन्होंने दुर्योधन को समझाया तक नहीं। यदि भीष्म/ द्रोण / कर्ण आध्यात्मिक नैतिकता का पालन करते तो दुर्योधन से कह सकते थे कि देखो दुर्योधन! तुम्हारा नमक खाया है, तुम्हारे बहुत उपकार हैं, इसीलिये समझा रहा हॅूं कि अनैतिक काम करना बंद करो नहीं तो मैं तुम्हारा साथ नहीं दूॅंगा। परन्तु सहजनैतिकता के प्रभाव में वे यह नहीं कह सके।

आन्तरिकता और भक्ति के मामले में भीष्म के बराबर कोई नहीं था किन्तु साहसिकता के मामले में कर्ण महत्तर थे। गुरु के शाप के कारण जब उनका रथ युद्धक्षेत्र में धस गया तो वे चाहते तो शत्रु से संधी का प्रस्ताव दे सकते थे, किन्तु कर्ण ने इस प्रकार का अनुरोध नहीं किया। यद्यपि कर्ण ने श्रीकृष्ण के द्वारा समर्थित पांडवों के विरुद्ध लड़ाई की परन्तु मृत्यु के पूर्व उन्होंने कृष्ण का नाम लेकर ही प्राण त्यागे। कर्ण का चरित्र सर्वश्रेष्ठ माना जाता यदि वे आध्यात्मिक नैतिकता के स्थान पर सहजनैतिकता को अधिक महत्व न देते। जैसे, कर्ण के पास आशीर्वादी कवच और कुंडल जब तक रहते उन्हें कोई मार नहीं सकता था परन्तु दानवीरता की सहजनैतिकता के पालन में याचक को पहचान लेने बाद भी कि यह हमारे कवच और कुंडल मांगने नहीं वरन् मृत्यु ही मांगने आया है, तत्काल अपने कवच और कुंडल दान में दे दिये। यदि आध्यात्मिक नैतिकता का पलन करते होते तो कह सकते थे कि विप्र! अभी तो मैं युद्ध में जा रहा हॅूं शाम को आकर कवच और कुंडल ले जाना। इसी प्रकार गुरु परशुराम के आश्रम में शिक्षा लेते समय जब गुरु उसकी जांघ पर सिर रखे गहरी नीद में थे, उसे एक घातक कीड़े ने इतना काटा कि जांघ से खून बह निकला परन्तु गुरु की नींद न भंग हो जाए इसलिए कर्ण ने उफ् तक न की। यह कर्ण की सहनशीलता और सहजनैतिकता की पराकाष्ठा ही कहलाएगी।

कर्ण और भीष्म की तुलना कर यह कह पाना बड़ा कठिन है कि दोनों में कौन श्रेष्ठ है परन्तु इतना निश्चित है कि कर्ण सहजनैतिकता में आदर्श हैं। दोनों में एक अन्तर यह भी है कि जहॉं कर्ण सामाजिक रूप से किसी राज्य के राजा के रूप में जाने जाते थे वहीं भीष्म थे केवल किसी राज्य के रक्षक।


Thursday, 6 January 2022

366 आचार्य द्रोण

 भरद्वाज ऋषि के पुत्र द्रोण ने वेदों की शिक्षा अपने पिता से प्राप्त की परन्तु ब्राह्मण होते हुए भी शस्त्र विद्या में पारंगत होने के पीछे एक घटना है। उस समय के सर्वश्रेष्ठ शस्त्रास्त्र विशेषज्ञ थे भृगुवंशीय अजेय योद्धा परशुराम। कहा जाता है कि उन्होंने 21 बार क्षत्रियों को नष्ट कर दिया था परन्तु शोधकर्ता इस बात पर एकमत नहीं हैं। अन्त में वैराज्ञ उत्पन्न होने पर उन्होंने अपनी अर्जित सभी धन सम्पत्ति बाह्मणों को दान कर दी। दान पाने की इच्छा से द्रोण, परशुराम के पास जबतक पहुँचे तबतक उनका सभी धन दान में दिया जा चुका था। परशुराम ने कहा ‘‘धन तो बचा नहीं तुम चाहो तो मेरे अस्त्र शस्त्र ले जा सकते हो।’ द्रोण ने कहा ‘‘भगवन्! मैं तो विप्रपुत्र हॅूं इन अस्त्र शस्त्रों का मैं क्या करूंगा जब तक कि इन्हें उचित प्रकार से चलाना नहीं जानता हॅूं। यदि आप कृपाकर उनके संचालन और नियंत्रण करने का प्रशिक्षण दे दें तो मैं इन्हें स्वीकार कर सकता हॅूं और अन्य योग्यता धारक व्यक्तियों को सिखा कर अपनी आजीविका का साधन बना सकता हॅूं।’’ परशुराम जी ने सहमत होकर उन्हें अपनी सभी प्रकार की अस्त्रशस्त्र विद्याएं सिखाकर उन्हें पारंगत कर दिया इस प्रकार उनके शस्त्रगुरु हुए भगवान परशुराम। अपनी शस्त्रविद्या और ज्ञानकौशल से उन्हें कौरव और पांडवों को शास्त्र और शस्त्रविद्या दोनों सिखाने का कार्य मिला और वह द्रोणाचार्य के नाम से प्रसिद्ध हुए।

शिक्षक का कर्तव्य है सभी छात्रों को बिना किसी भेदभाव के शिक्षा देना। शास्त्र भी कहते हैं कि ‘आचार्य’ वह है जो अपने स्वयं के आचरण से पूरे समाज को शिक्षा दे, ‘‘ आचरणात् शिक्षति यः सः आचार्यः।’’ द्रोणाचार्य अजेय थे फिर भी उनकी पराजय होने के पीछे यही कहा जाता है कि उन्होंने अपने शिष्यों के साथ पक्षपात किया था। यद्यपि अर्जुन को वे सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर बनाना चाहते थे परन्तु जब अर्जुन बड़े योद्धा के रूप में समाज में मान्यता पाने लगा तब वे अपने पुत्र अश्वत्थामा को गुप्त रूप से कुछ विशेष विद्याओं का ज्ञान करा दिया करते थे। इसी प्रकार अन्य बात जो सर्वविदित है वह है एकलव्य के संबंध में। एकलव्य द्रोणाचार्य का अनन्य भक्त था परन्तु जब द्रोण को यह मालूम हुआ कि वह शूद्र कुल का है तो उन्होंने उसे शिष्य के रूप में ग्रहण नहीं किया। कर्ण के संबंध में भी कहा जाता है कि निम्न कुल का होने के करण द्रोण ने उसे अपना शिष्य नहीं बनाया। आचार्य के लिये इस प्रकार का व्यवहार करना पूर्णतः अनुचित है। 

सभी लोग आचार्य होने की योग्यता नहीं रखते हैं। आचार्य के लिये पक्षपात का दोष एक मारात्मक  अपराध है। एकलव्य, अर्जुन तथा अश्वत्थामा दोनों की तुलना में धनुर्विद्या में अधिक श्रेष्ठ थे। द्रोणाचार्य ने जब उसके पास जाकर उसके कृतित्व को देखा तो  चकित रह गए। पूछने पर उसने अपने सरल मन से बता दिया कि द्रोणाचार्य को ही अपना आचार्य मानकर उसने इतनी दक्षता अर्जित की है तो पक्षपात की पराकाष्ठा देखिए कि गुरुदक्षिणा के नाम पर उसका अंगूठा ही मांग लिया और एक निष्ठावान योद्धा का जीवन क्षण भर में नष्ट कर दिया। इस प्रकार शस्त्रोक्त आचार्य की परिभाषा के अनुसार गुरु द्रोण आचार्य पद के योग्य प्रमाणित नहीं होते। शिष्यों के बीच वैषम्यमूलक आचरण के कारण द्रोणाचार्य, गुरु के रूप में आदर्श नहीं थे। लोक शिक्षण और सामाजिक पवित्रता की दृष्टि से ही ऐसे आचार्य को समाज से हटाने का प्रयोजन हुआ और कृष्ण ने अपनी कूटनीति का भावालम्बन करके कौशल पूर्वक युधिष्ठिर से कहलाया, ‘अश्वत्थामा हतो इति नरो वा कुंजरो वा’ और युद्ध में उनका अन्त हुआ।

Saturday, 1 January 2022

365 युधिष्ठिर


युधिष्ठिर अर्थात् जो व्यक्ति युद्ध जैसी परिस्थितियों में भी मानसिक रूप से स्थिर रहता है, उद्वेलित नहीं होता है वह युधिष्ठिर है। सम्पूर्ण ब्रह्मांड में अनगिनत ब्लेक होल, गेलेक्सियां, तारे और उल्काएं लगातार उत्पात मचाते रहते हैं परन्तु आकाश  अर्थात्स्पेसकिसी भी प्रकार से उद्वेलित नहीं होता वह सदा ही एकरस बना रहता है इसलिए वह युधिष्ठर है। विद्यातन्त्र में पांचों पांडवों को पंचतत्व का रूपक दिया गया है, इसके अनुसार युधिष्ठिर आकाश  तत्व को प्रदर्शित करते  हैं। महाभारत में युधिष्ठिर  से नीति धर्म और दर्शन से संबंधित  अनेक प्रश्न  पूछने वाले यक्ष ने जब यह पूछा कि धर्मतत्व का सही सही मार्गदर्शन  करने वाला रास्ता कौन सा है? तब युधिष्ठिर ने कहा, इसमें बड़ा ही कन्फ्युजन है क्योंकि यदि श्रुतियों के रास्ते को माने तो वे चार चार हैं उनमें से किसके अनुसार चलें यह कहना कठिन है क्योंकि उनमें एकरूपता नहीं है। यदि स्मृतियों पर विचार करें तो यही विरोधाभास उनमें भी है और इतना ही नहीं जिन्हें हम आदर्श मार्गदर्शक   मानते हैं उन ऋषिमुनिगणों में भी किन्हीं दो महानुभावों का सिद्धान्त एकसमान नहीं पाया जाता है। इसलिए मेरे विचार में तो सही रास्ता वही है जिसका अनुसरण करते हुए अनेक लोग साधारण अवस्था से ऊपर उठकर महापुरुषों के रूप में समाज में आज भी आदर पाते हैं। इस प्रकार युधिष्ठिर को महान नीतिनिपुण और विद्वान माना जाता है।

युधिष्ठिर, कृष्ण के परामर्श और आदेश के अनुसार ही कार्य करते थे। जैसे, युद्ध में जब अश्वत्थामा नामक हाथी को भीम ने मार दिया तब दोनों पक्षों के सैनिकों में हल्ला होने लगा कि अश्वत्थामा मारा गया। अश्वत्थामा द्रोणाचार्य के पुत्र का भी नाम था जिसे वे अपने प्राणों से भी अधिक प्रेम करते थे। कृष्ण यह जानते थे कि द्रोण को युद्ध में पराजित करना असंभव है पर पुत्र के वियोग में वे क्षण भर भी जीवित नहीं रहेंगे। युधिष्ठिर की सर्वविदित विशेषता यह थी कि वे सदा सत्य बोलते थे। आचार्य द्रोण को जब यह पता चला कि अश्वत्थामा मारा गया है तो उन्हें विश्वास नहीं हुआ। कन्फर्म करने के लिए उन्होंने युधिष्ठिर से व्यक्तिशः इसे जानना चाहा कि सही क्या है। उन्होंने कृष्ण से परामर्श लिया, वे बोले ^^अश्वत्थामा हतः इति नरो वा कुंजरो वा।** अर्थात् अश्वत्थामा मारा गया है पर वह नर है या कुंजर(हाथी) यह पता नहीं है। युधिष्ठिर ने इसे ज्यों का त्यों दुहराया और उनके नरो बोलते ही कृष्ण ने जोर से अपना शंख बजाया,  अन्य सैनिक भी जोर जोर से जयघोष करने लगे, द्रोणाचार्य ” वा कुजरो वाइन शब्दों को सुन ही पाये और अपने प्राण त्याग दिये।

युधिष्ठिर के चरित्र पर विद्वान प्रायः यह लांछन लगाते हैं कि वह इतने विद्वान होते हुए भी जुआ जैसे निंदनीय कार्य में प्रवृत्त हुए यह उचित नहीं। इसके साथ ही यह भी कि उनका अधिकार केवल राज्य को दाव पर लगा सकने का था कि अपनी पत्नी और अन्य भाइयों को, अतः यह उनके चरित्र का सबसे बड़ा कलंक है। इसका समाधान यह है कि तात्कालिक राजनीति के नियमों के अनुसार यदि किसी राज्य का राजा किसी दूसरे राजा को जुआ खेलने के लिए आमंत्रित करे तो वह इस आमंत्रण को अस्वीकार नहीं कर सकता था। पर यह बात सही है कि उन्हें यह तो ध्यान रखना था कि उनका राज्याधिकार कितना और कहॉं तक है। इस पर यही बात सिद्ध होती है कि जब छल कपट का जाल बिछा हो और जुए का सम्मोहन हो वहॉं विद्वान भी भ्रमित हो जाते हैं। युधिष्ठिर भी भ्रमित हुए, जुए के आमंत्रण पर उन्होंने कृष्ण से परामर्श नहीं लिया, यदि वे उनसे इस संबंध में पूछ ही लेते तो पता चल जाता कि दुर्योधन  ने कृष्ण को तो आमंत्रित ही नहीं किया और वे उसकी कपट चाल में फंसने से बच जाते। दूसरी बात यह कि यदि दुर्योधन  ने अपनी ओर से चाल चलने के लिये कपटी मामा शकुनि को अधिकृत किया था तो युधिष्ठिर भी अपनी ओर से कृष्ण को  चाल चलने की शर्त रख सकते थे परन्तु वह नहीं परख सके कि वे कपटजाल में फंसाये जा रहे हैं।  इससे ही विधि के विधान को घटित होने का रास्ता खुला और फिर क्या क्या नहीं हुआ यह बताने की आश्यकता नहीं है पर यह सभी को पता है कि हर स्थिति में युधिष्ठिर अपने मन को संतुलित बनाए रखे और उन्होंने शास्त्रोक्त इस परिभाषा के अनुरूप अपने को सिद्ध किया, ‘‘युद्धे स्थिरः यः सः युधिष्ठिरः” । महाभारत की इसी घटना से शिक्षा लेकर संत कबीर जी ने कहा है,” कहे कबीर अंत की बारी हाथ झारि के चले जुआरी।”