दृढ़प्रतिज्ञ भीष्म युद्धभूमि में शरशैया पर लेटे उत्तरायण की प्रतीक्षा कर रहे थे बस, कुछ घंटे ही शेष थे। वह बिल्कुल अकेले थे। पर, अचानक उन्हें एक मधुर स्वर सुनाई दिया, ‘‘प्रणाम पितामह!’’ और उनके सूखे अधरों पर आई मुस्कुराहट ने कहा, ‘‘आओ वासुदेव! बहुत देर से तुम्हारा ही स्मरण कर रहा था’’। कृष्ण बोले, क्या कहूॅं पितामह! यह भी तो नहीं पूंछ सकता कि आप कैसे हैं!’ कुछ क्षण चुप रहने के बाद भीष्म बोले, ‘‘ पुत्र युधिष्ठिर का राज्याभिषेक करा चुके केशव? उन सबका ध्यान रखना।’’ कृष्ण को चुप रहते देख वह फिर बोले, ‘‘कुछ पूछॅूं केशव? शायद, धरती छोड़ने के पहले मेरे भ्रम दूर हो जायें।’’ कृष्ण उनके अधिक समीप जा पहॅुंचे और बोले ‘‘ कहिए पितामह!’’ वे बोले, ‘‘कन्हैया यह बताओ कि इस युद्ध में जो हुआ क्या वह ठीक था?’’
‘‘किसकी ओर से कौरवों या पांडवों की ओर से’’ कृष्ण ने पूछा।
‘‘ कौरवों के कृत्यों पर चर्चा करना तो व्यर्थ ही है पर जो भी पांडवों ने किया वह क्या सही था, जैसे आचार्य द्रोण का वध, दुर्योधन की जंघा पर प्रहार, दुःशासन की छाती को चीरना, जयद्रथ के साथ हुआ छल और निहत्थे कर्ण का वध आदि?’’
‘‘इसका उत्तर मैं कैसे दे सकता हॅूं पितामह! यह तो वही दे सकते हैं जिन्होंने यह किया है’’ कृष्ण ने बड़े भोलेपन से जबाब दिया।
‘‘पूरा विश्व भले यह कहे कि युद्ध अर्जुन और भीम ने जीता है पर मैं जानता हॅूं कि यह केवल तुम्हारी विजय है, इसलिए तुम्हीं से पूछॅूंगा, कृष्ण!’’
‘‘ तो सुनिए पितामह! कुछ भी बुरा नहीं हुआ, कुछ भी अनैतिक नहीं हुआ, वही हुआ है जो होना चाहिए था।’’
‘‘यह तुम कह रहे हो केशव?’’
‘‘इतिहास से शिक्षा ली जाती है पितामह! कोई भी निर्णय वर्तमान की परिस्थितियों के आधार पर लेना पड़ता है। पाप का अन्त आवश्यक है वह चाहे जिस विधि से हो’’।
‘‘ तो क्या तुम्हारे इन निर्णयों से गलत परंपराएं निर्मित नहीं होंगी? क्या तुम्हारे छलों का अनुसरण भविष्य नहीं करेगा? और यदि करेगा तो क्या यह उचित होगा?’’
‘‘ भविष्य तो इससे भी अधिक नकारात्मक आ रहा है पितामह! कलियुग में तो इतने से भी काम नहीं चलेगा, मनुष्य को कृष्ण से भी कठोर होना होगा नहीं तो धर्म समाप्त हो जाएगा। जब क्रूर और अनैतिक शक्तियॉं धर्म का समूल नाश करने को तुली हों तो नैतिकता अर्थहीन हो जाती है। उस समय तो केवल विजय ही महत्पूर्ण होती है केवल विजय। भविष्य को यह सीखना ही होगा पितामह!’’
‘‘ तो क्या धर्म का भी नाश हो सकता है केशव! और यदि धर्म का नाश होना ही है तो क्या मनुष्य इसे रोक सकता है?’’
‘‘ सबकुछ ईश्वर के भरोसे छोड़ कर बैठ जाना मूर्खता है, पितामह! ईश्वर कुछ नहीं करता, सब कुछ मनुष्य को ही करना होता है। आप मुझे भी ईश्वर कहते हैं न? तो बताइए कि कि मैंने इस युद्ध में स्वयं कुछ किया? सब कुछ पांडवों को ही करना पड़ा न? यही प्रकृति का विधान है।’’
भीष्म अब संतुष्ठ लग रहे थे, उनकी आंखें धीरे धीरे बंद होने लगी थीं। वे बोले, ‘‘ चलो कृष्ण इस धरती पर यह अंतिम रात्रि है कल संभवतः मुलाकात न हो, पर अपने इस भक्त पर कृपा बनाए रखना।’’
प्रणाम कर कृष्ण लौट चले पर युद्ध भूमि के उस डरावने अंधकार में भविष्य को जीवन का सबसे बड़ा सूत्र मिल चुका था वह यह कि ‘‘ जब अनैतिक और क्रूर शक्तियॉं धर्म का विनाश करने के लिये आक्रमण कर रहीं हों तो नैतिकता का पाठ पढ़ाना आत्मधाती होता है।’’
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