भरद्वाज ऋषि के पुत्र द्रोण ने वेदों की शिक्षा अपने पिता से प्राप्त की परन्तु ब्राह्मण होते हुए भी शस्त्र विद्या में पारंगत होने के पीछे एक घटना है। उस समय के सर्वश्रेष्ठ शस्त्रास्त्र विशेषज्ञ थे भृगुवंशीय अजेय योद्धा परशुराम। कहा जाता है कि उन्होंने 21 बार क्षत्रियों को नष्ट कर दिया था परन्तु शोधकर्ता इस बात पर एकमत नहीं हैं। अन्त में वैराज्ञ उत्पन्न होने पर उन्होंने अपनी अर्जित सभी धन सम्पत्ति बाह्मणों को दान कर दी। दान पाने की इच्छा से द्रोण, परशुराम के पास जबतक पहुँचे तबतक उनका सभी धन दान में दिया जा चुका था। परशुराम ने कहा ‘‘धन तो बचा नहीं तुम चाहो तो मेरे अस्त्र शस्त्र ले जा सकते हो।’ द्रोण ने कहा ‘‘भगवन्! मैं तो विप्रपुत्र हॅूं इन अस्त्र शस्त्रों का मैं क्या करूंगा जब तक कि इन्हें उचित प्रकार से चलाना नहीं जानता हॅूं। यदि आप कृपाकर उनके संचालन और नियंत्रण करने का प्रशिक्षण दे दें तो मैं इन्हें स्वीकार कर सकता हॅूं और अन्य योग्यता धारक व्यक्तियों को सिखा कर अपनी आजीविका का साधन बना सकता हॅूं।’’ परशुराम जी ने सहमत होकर उन्हें अपनी सभी प्रकार की अस्त्रशस्त्र विद्याएं सिखाकर उन्हें पारंगत कर दिया इस प्रकार उनके शस्त्रगुरु हुए भगवान परशुराम। अपनी शस्त्रविद्या और ज्ञानकौशल से उन्हें कौरव और पांडवों को शास्त्र और शस्त्रविद्या दोनों सिखाने का कार्य मिला और वह द्रोणाचार्य के नाम से प्रसिद्ध हुए।
शिक्षक का कर्तव्य है सभी छात्रों को बिना किसी भेदभाव के शिक्षा देना। शास्त्र भी कहते हैं कि ‘आचार्य’ वह है जो अपने स्वयं के आचरण से पूरे समाज को शिक्षा दे, ‘‘ आचरणात् शिक्षति यः सः आचार्यः।’’ द्रोणाचार्य अजेय थे फिर भी उनकी पराजय होने के पीछे यही कहा जाता है कि उन्होंने अपने शिष्यों के साथ पक्षपात किया था। यद्यपि अर्जुन को वे सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर बनाना चाहते थे परन्तु जब अर्जुन बड़े योद्धा के रूप में समाज में मान्यता पाने लगा तब वे अपने पुत्र अश्वत्थामा को गुप्त रूप से कुछ विशेष विद्याओं का ज्ञान करा दिया करते थे। इसी प्रकार अन्य बात जो सर्वविदित है वह है एकलव्य के संबंध में। एकलव्य द्रोणाचार्य का अनन्य भक्त था परन्तु जब द्रोण को यह मालूम हुआ कि वह शूद्र कुल का है तो उन्होंने उसे शिष्य के रूप में ग्रहण नहीं किया। कर्ण के संबंध में भी कहा जाता है कि निम्न कुल का होने के करण द्रोण ने उसे अपना शिष्य नहीं बनाया। आचार्य के लिये इस प्रकार का व्यवहार करना पूर्णतः अनुचित है।
सभी लोग आचार्य होने की योग्यता नहीं रखते हैं। आचार्य के लिये पक्षपात का दोष एक मारात्मक अपराध है। एकलव्य, अर्जुन तथा अश्वत्थामा दोनों की तुलना में धनुर्विद्या में अधिक श्रेष्ठ थे। द्रोणाचार्य ने जब उसके पास जाकर उसके कृतित्व को देखा तो चकित रह गए। पूछने पर उसने अपने सरल मन से बता दिया कि द्रोणाचार्य को ही अपना आचार्य मानकर उसने इतनी दक्षता अर्जित की है तो पक्षपात की पराकाष्ठा देखिए कि गुरुदक्षिणा के नाम पर उसका अंगूठा ही मांग लिया और एक निष्ठावान योद्धा का जीवन क्षण भर में नष्ट कर दिया। इस प्रकार शस्त्रोक्त आचार्य की परिभाषा के अनुसार गुरु द्रोण आचार्य पद के योग्य प्रमाणित नहीं होते। शिष्यों के बीच वैषम्यमूलक आचरण के कारण द्रोणाचार्य, गुरु के रूप में आदर्श नहीं थे। लोक शिक्षण और सामाजिक पवित्रता की दृष्टि से ही ऐसे आचार्य को समाज से हटाने का प्रयोजन हुआ और कृष्ण ने अपनी कूटनीति का भावालम्बन करके कौशल पूर्वक युधिष्ठिर से कहलाया, ‘अश्वत्थामा हतो इति नरो वा कुंजरो वा’ और युद्ध में उनका अन्त हुआ।
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