युधिष्ठिर अर्थात् जो व्यक्ति युद्ध जैसी परिस्थितियों में भी मानसिक रूप से स्थिर रहता है, उद्वेलित नहीं होता है वह युधिष्ठिर है। सम्पूर्ण ब्रह्मांड में अनगिनत ब्लेक होल, गेलेक्सियां, तारे और उल्काएं लगातार उत्पात मचाते रहते हैं परन्तु आकाश अर्थात् ‘स्पेस’ किसी भी प्रकार से उद्वेलित नहीं होता वह सदा ही एकरस बना रहता है इसलिए वह युधिष्ठर है। विद्यातन्त्र में पांचों पांडवों को पंचतत्व का रूपक दिया गया है, इसके अनुसार युधिष्ठिर आकाश तत्व को प्रदर्शित करते हैं। महाभारत में युधिष्ठिर से नीति धर्म और दर्शन से संबंधित अनेक प्रश्न
पूछने
वाले यक्ष ने जब यह पूछा कि धर्मतत्व का सही सही मार्गदर्शन करने वाला रास्ता कौन सा है? तब युधिष्ठिर ने कहा, इसमें बड़ा ही कन्फ्युजन है क्योंकि यदि श्रुतियों के रास्ते को माने तो वे चार चार हैं उनमें से किसके अनुसार चलें यह कहना कठिन है क्योंकि उनमें एकरूपता नहीं है। यदि स्मृतियों पर विचार करें तो यही विरोधाभास उनमें भी है और इतना ही नहीं जिन्हें हम आदर्श मार्गदर्शक मानते
हैं उन ऋषिमुनिगणों में भी किन्हीं
दो महानुभावों का सिद्धान्त एकसमान
नहीं पाया जाता है। इसलिए
मेरे विचार
में तो सही रास्ता
वही है जिसका
अनुसरण
करते हुए अनेक लोग साधारण
अवस्था
से ऊपर उठकर महापुरुषों के रूप में समाज में आज भी आदर पाते हैं। इस प्रकार
युधिष्ठिर को महान नीतिनिपुण और विद्वान माना जाता है।
युधिष्ठिर, कृष्ण के परामर्श और आदेश के अनुसार ही कार्य करते थे। जैसे, युद्ध में जब अश्वत्थामा नामक हाथी को भीम ने मार दिया तब दोनों पक्षों के सैनिकों में हल्ला होने लगा कि अश्वत्थामा मारा गया। अश्वत्थामा द्रोणाचार्य के पुत्र का भी नाम था जिसे वे अपने प्राणों से भी अधिक प्रेम करते थे। कृष्ण यह जानते थे कि द्रोण को युद्ध में पराजित करना असंभव है पर पुत्र के वियोग में वे क्षण भर भी जीवित नहीं रहेंगे। युधिष्ठिर की सर्वविदित विशेषता यह थी कि वे सदा सत्य बोलते थे। आचार्य द्रोण को जब यह पता चला कि अश्वत्थामा मारा गया है तो उन्हें विश्वास नहीं हुआ। कन्फर्म करने के लिए उन्होंने युधिष्ठिर से व्यक्तिशः इसे जानना चाहा कि सही क्या है। उन्होंने कृष्ण से परामर्श लिया, वे बोले ^^अश्वत्थामा हतः इति नरो वा कुंजरो वा।** अर्थात् अश्वत्थामा मारा गया है पर वह नर है या कुंजर(हाथी) यह पता नहीं है। युधिष्ठिर ने इसे ज्यों का त्यों दुहराया और उनके नरो बोलते ही कृष्ण ने जोर से अपना शंख बजाया, अन्य सैनिक भी जोर जोर से जयघोष करने लगे, द्रोणाचार्य
” वा कुजरो वा’इन शब्दों को सुन ही न पाये और अपने प्राण त्याग दिये।
युधिष्ठिर के चरित्र पर विद्वान प्रायः यह लांछन लगाते हैं कि वह इतने विद्वान होते हुए भी जुआ जैसे निंदनीय कार्य में प्रवृत्त हुए यह उचित नहीं। इसके साथ ही यह भी कि उनका अधिकार केवल राज्य को दाव पर लगा सकने का था न कि अपनी पत्नी और अन्य भाइयों को, अतः यह उनके चरित्र का सबसे बड़ा कलंक है। इसका समाधान यह है कि तात्कालिक राजनीति के नियमों के अनुसार यदि किसी राज्य का राजा किसी दूसरे राजा को जुआ खेलने के लिए आमंत्रित करे तो वह इस आमंत्रण को अस्वीकार नहीं कर सकता था। पर यह बात सही है कि उन्हें यह तो ध्यान रखना था कि उनका राज्याधिकार कितना और कहॉं तक है। इस पर यही बात सिद्ध होती है कि जब छल कपट का जाल बिछा हो और जुए का सम्मोहन हो वहॉं विद्वान भी भ्रमित हो जाते हैं। युधिष्ठिर
भी भ्रमित हुए, जुए के आमंत्रण पर उन्होंने कृष्ण से परामर्श नहीं लिया, यदि वे उनसे
इस संबंध में पूछ ही लेते तो पता चल जाता कि दुर्योधन ने कृष्ण को तो आमंत्रित ही नहीं किया और वे उसकी
कपट चाल में फंसने से बच जाते। दूसरी बात यह कि यदि दुर्योधन ने अपनी ओर से चाल चलने के लिये कपटी मामा शकुनि
को अधिकृत किया था तो युधिष्ठिर भी अपनी ओर से कृष्ण को चाल चलने की शर्त रख सकते थे परन्तु वह नहीं परख
सके कि वे कपटजाल में फंसाये जा रहे हैं। इससे ही विधि के विधान को घटित होने का रास्ता खुला
और फिर
क्या क्या नहीं हुआ यह बताने की आश्यकता नहीं है पर यह सभी को पता है कि हर स्थिति
में युधिष्ठिर अपने मन को संतुलित बनाए रखे और उन्होंने शास्त्रोक्त इस परिभाषा के
अनुरूप अपने को सिद्ध किया, ‘‘युद्धे स्थिरः यः सः युधिष्ठिरः” । महाभारत
की इसी घटना से शिक्षा लेकर संत कबीर जी ने कहा है,” कहे कबीर अंत की बारी हाथ झारि के चले जुआरी।”
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