महाभारत के प्रख्यात चरित्र भीष्म व्यक्तिगत रूप से एक महान और दुर्जेय योद्धा थे। वे यह जानते थे कि पांडवगण धर्मावलम्बी हैं परन्तु फिर भी उन्होंने युद्ध में अनैतिक कौरव पक्ष का साथ दिया। मन से वह पांडवों की ही विजय चाहते रहे। तत्कालीन समाज की यह व्यवस्था थी कि लोग सहजनैतिकता का ही पालन किया करते थे। मनुष्य को उसकी पूर्व प्रतिज्ञाओं के अनुसार ही काम करना होता था। भीष्म ने अपने पिता को आजीवन विवाह न करने और कुरु राज्य का संरक्षण करने का वचन दिया था जिसे उन्होंने निष्ठा से निभाया। इसी से उनकी यह प्रतिज्ञा भीष्म प्रतिज्ञा के नाम से आज भी प्रसिद्ध है। कौरव, नीति और धर्म के विरुद्धाचरण किया करते थे लेकिन सहजनैतिकता के पालन करने के लिये ही भीष्म ने यह कहते हुए कौरवों का साथ दिया कि उन्होंने कौरवों का नमक खाया है और वे सिंहासन की रक्षा करने के लिए बचनवद्ध हैं। सहज नैतिकता का मूल्य आध्यात्मिक नैतिकता से कम हो सकता है परन्तु सहजनैतिकता मानवीय मौल नीति के अन्तर्गत आती है अतः श्रीकृष्ण भी सहजनैतिकता को बहुत महत्व देते थे।
कर्ण, कुन्ती के विवाह के पूर्व जन्म लेने वाली प्रथम संतान थे। वे थे सूर्य नामक राजा की औरसजात संतान। इसलिये वह सारथी के घर प्रतिपालित हुए लेकिन कर्ण एक आदर्शवादी व्यक्ति थे। वे कौरवों के सबसे अधिक विश्वसनीय थे। भीष्म के चरित्र के साथ उनका मेल था जैसे, किसी ने एक बार उनका उपकार किया तो कर्ण कभी भी उसके विरुद्ध आचरण नहीं किया करते थे। कर्ण भी सहजनैतिकता को ही मानते थे। आध्यात्मिक नैतिकता को मानने में बन्धुविच्छेद की संभावना होने से प्रायः ही लोग उसे भूल जाते हैं । लेकिन यह देखा जाता है कि अन्त में आध्यात्मिक नैतिकता ही जययुक्त होती है। दुर्नीतिग्रस्त व्यक्ति का समर्थन करना कभी भी उचित नहीं माना जा सकता। पितामह भीष्म ने कौरवों का नमक खाया था इसलिए कौरवों का पक्ष लिया। उन्होंने दुर्योधन के मनोभाव को परिवर्तन करने के लिए उपदेश भी दिया, परन्तु दबाव नहीं डाला। कर्ण भी कौरवों के उपकारों से दबे थे, नीतिवादी होने बाद भी उन्होंने दुर्योधन को समझाया तक नहीं। यदि भीष्म/ द्रोण / कर्ण आध्यात्मिक नैतिकता का पालन करते तो दुर्योधन से कह सकते थे कि देखो दुर्योधन! तुम्हारा नमक खाया है, तुम्हारे बहुत उपकार हैं, इसीलिये समझा रहा हॅूं कि अनैतिक काम करना बंद करो नहीं तो मैं तुम्हारा साथ नहीं दूॅंगा। परन्तु सहजनैतिकता के प्रभाव में वे यह नहीं कह सके।
आन्तरिकता और भक्ति के मामले में भीष्म के बराबर कोई नहीं था किन्तु साहसिकता के मामले में कर्ण महत्तर थे। गुरु के शाप के कारण जब उनका रथ युद्धक्षेत्र में धस गया तो वे चाहते तो शत्रु से संधी का प्रस्ताव दे सकते थे, किन्तु कर्ण ने इस प्रकार का अनुरोध नहीं किया। यद्यपि कर्ण ने श्रीकृष्ण के द्वारा समर्थित पांडवों के विरुद्ध लड़ाई की परन्तु मृत्यु के पूर्व उन्होंने कृष्ण का नाम लेकर ही प्राण त्यागे। कर्ण का चरित्र सर्वश्रेष्ठ माना जाता यदि वे आध्यात्मिक नैतिकता के स्थान पर सहजनैतिकता को अधिक महत्व न देते। जैसे, कर्ण के पास आशीर्वादी कवच और कुंडल जब तक रहते उन्हें कोई मार नहीं सकता था परन्तु दानवीरता की सहजनैतिकता के पालन में याचक को पहचान लेने बाद भी कि यह हमारे कवच और कुंडल मांगने नहीं वरन् मृत्यु ही मांगने आया है, तत्काल अपने कवच और कुंडल दान में दे दिये। यदि आध्यात्मिक नैतिकता का पलन करते होते तो कह सकते थे कि विप्र! अभी तो मैं युद्ध में जा रहा हॅूं शाम को आकर कवच और कुंडल ले जाना। इसी प्रकार गुरु परशुराम के आश्रम में शिक्षा लेते समय जब गुरु उसकी जांघ पर सिर रखे गहरी नीद में थे, उसे एक घातक कीड़े ने इतना काटा कि जांघ से खून बह निकला परन्तु गुरु की नींद न भंग हो जाए इसलिए कर्ण ने उफ् तक न की। यह कर्ण की सहनशीलता और सहजनैतिकता की पराकाष्ठा ही कहलाएगी।
कर्ण और भीष्म की तुलना कर यह कह पाना बड़ा कठिन है कि दोनों में कौन श्रेष्ठ है परन्तु इतना निश्चित है कि कर्ण सहजनैतिकता में आदर्श हैं। दोनों में एक अन्तर यह भी है कि जहॉं कर्ण सामाजिक रूप से किसी राज्य के राजा के रूप में जाने जाते थे वहीं भीष्म थे केवल किसी राज्य के रक्षक।
No comments:
Post a Comment