महाभारत काल में भीम को दुर्याधन के द्वारा दिए गये विष की चिकित्सा कृष्ण के सुझाव पर विष के द्वारा किए जाने के प्रमाण पाए जाते हैं जो ‘‘समः समम् शाम्यति’’ के सद्धान्त के अनुसार ही है। उस समय आयुर्वेद में विष चिकित्सा पर शोध के अलावा ‘‘सूचिकाभरण’’ (जिसे आजकल इंजेक्शन कहा जाता है) पर भी प्रचुर जानकारी उपलब्ध थी परन्तु उस समय लोगों में यह अंधविश्वास फैला था कि शरीर में बाहरी द्रव्य सीधे ही नहीं भेजा जाना चाहिए, अतः इस कार्य के विकास में अवरोध आ गया। शल्यचिकित्सा को भी राक्षसी विद्या कहकर हेय माना जाता था। अब आधुनिक चिकित्सा विज्ञान में इंजेक्शन से दवा देना और शल्यचिकित्सा करना सहज माना जाता है। उस समय की चार महिला राक्षसी चिकित्सकों में से केवल ‘हिडिम्बा’ को ही लोग जानते हैं क्योंकि महाभारत की कहानियों में उनका नाम आता है और वह बाद में भीम की पत्नी हुईं। परन्तु ‘जम्भाला’, ‘जरा’ और ‘कर्करी’ को लोग नहीं जानते। आइए इन्हें जानने का प्रयास करें।
‘जरा’
वास्तव में भारत का वैद्यक शास्त्र और आर्यों का आयुर्वेद, कृष्ण के काल तक परस्पर मिल कर एक हो गए थे परन्तु आर्यों द्वारा भारत के मूल निवासियों अर्थात् अनार्यों को हेय दृष्टि से देखा जाना जारी था और उन्हें प्रायः राक्षस या म्लेच्छ कहा जाता था। महाभारत काल में कृष्ण के फुफेरे बड़े भाई जरासंध का जन्म सिजेरियन अर्थात शल्यक्रिया के उपरांत ही हुआ था। कहा जाता है कि लोगों ने शिशु जरासंध को षल्य क्रिया के उपरान्त मरा समझकर ष्मषान में फेक दिया था परन्तु उसी समय ‘‘जरा’’ नाम की महिला डाक्टर ने, जिन्हें राक्षस कुल की होने के कारण जरा राक्षसी कहा जाता था, उस क्षत विक्षत शिशु को षल्य क्रिया से सिलकर, जोड़कर ठीक कर दिया। उस महिला डाक्टर ‘‘जरा’’ के अवदान से जीवित हुए उस शिशु का नाम पड़ गया जरासंध ( अर्थात जिसे ‘जरा‘ राक्षसी के द्वारा शल्य क्रिया से सिल कर जन्म दिया गया) । ‘जरा’ को राक्षस कुल की होने के कारण जरा राक्षसी कहा गया है परन्तु जरासंध इस कुल को आदर देते थे और फिर स्वयं भी राक्षसी विद्या में पारंगत हुए। जरासंध ने तथाकथित राक्षसों के प्रति भद्रतापूर्ण और आत्मीय व्यवहार रखा और उनके संरक्षण में शल्यप्रसव, अंगारोपण आदि शल्यचिकित्सा विज्ञान के अंगों का समुचित विकास हुआ।
‘कर्करी’
राक्षस कुल में ही एक अन्य विदुषी और मेधावी शल्यचिकित्सक थी ‘कर्करी’। विशूचिका (हैजा) रोग के उपचार के लिए सुई लगाने की विधि ‘सूचिकाभरण’ का ज्ञान इसी कुल की इस महिला चिकित्सक ‘कर्करि‘ को था। चिकित्सा कार्य में सुई का आविष्कार ‘कर्करी’ ने ही किया था। ‘कर्करी’ की विषेषज्ञता का अन्य क्षेत्र था हिप्नोटिज्म। हिप्नोटिज्म का सिद्धान्त है कि अधिक इच्छाषक्ति वाला व्यक्ति दूसरों की चिंतनधारा एवं कर्मशक्ति को नियंत्रित कर सकता है। इतना ही नहीं वह मनोवैज्ञानिक उपायों अथवा क्रित्रिम तरीकों से दुर्बल मन को प्रभावित कर सकता है। इसका उपयोग कर कर्करी ने शक्तिषाली मन के प्रभाव से नियंत्रित की गई शक्ति को रोग के विरुद्ध लगाकर रोग मुक्त करने का नया तरीका निकाला था। आज लोग समझते हैं कि हिप्नोटिज्म को फ्रांस के मनोचिकित्सक डाक्टर मेस्मर ने खोजा था पर यह गलत है इसका श्रेय कर्करी को मिलना चाहिये।
‘हिडिम्बा’
संस्कृत में राक्षसी विद्या का अर्थ है सम्मोहन या हिप्नोटिज्म। इस विद्या में पारंगत अन्य महिला थीं ‘हिडिम्बा’ (भीम की पत्नी)। इस विद्या का जानकार उन्नत मन, अनुन्नत मन पर अपना प्रभाव डालकर अपने आधीन कर सकता है। हिडिम्बा ने अपने पुत्र ‘घटोत्कच’ को इस विद्या में पारंगत किया जिसे उन्होंने रणकौशल के रूप में प्रयुक्त किया। कृष्ण ने घटोत्कच और उसकी विद्याओं का उपयोग महाभारत में महाशक्तियों को नष्ट करने में किया। घटोत्कच और मौरवी से उत्पन्न उनका पुत्र बर्वरीक भी अपने माता पिता से यह विद्या सीखकर उसे रणकौशल के उच्चतम स्तर तक ले गया। कहा जाता है कि बर्बरीक की माता ने उससे यह वचन लिया था कि वह अपनी इस विद्या का उपयोग हमेशा कमजोर पक्ष की मदद करने में ही करेगा। कृष्ण ने स्वीकार किया था कि वह उस समय का सर्वश्रेष्ठ योद्धा है, परन्तु कौरवों की ओर से लड़ने की उसकी इच्छा को उन्होंने धर्मराज्य स्थापित करने की उनकी योजना के मार्ग में बाधा समझ कर अपने कौशल से उसे युद्ध से विरत कर दिया था।
‘जम्भाला’
यह भी ‘जरा’ की भांति राक्षस कुल में उत्पन्न महिला शल्य चिकित्सक थी। इनका हाथ गर्भिणी महिला का प्रसव कराने में इतना सधा था कि इनके बारे में लोग कहने लगे थे कि उनका नाम ले लेने से ही प्रसव में कोई बाधा नहीं आएगी। यथा, ‘‘ अस्ति गोदावरी तीरे जम्भाला नाम राक्षसी, तस्या स्मरणमात्रेण विशल्या गर्भिणी भवेत।’’
आर्य इन तथाकथित राक्षसी विद्या में निपुण लोगों को हेय मानकर तिरस्कार करते थे। इस प्रकार की अनेक विद्याएँ भारत में बहुत पहले विकसित हो चुकीं थीं परन्तु प्रोत्साहन के आभाव में वे जानकार के साथ ही विलुप्त होती गईं। बौद्धकाल के प्रारंभ में मृत देह को स्पर्श करना या कंकाल का परीक्षण अर्थात् शवच्छेद ( डिसेक्शन) करने को बहुत ही हीन कार्य और अस्पृश्य माना जाने लगा था अतः उन्नत शल्य चिकित्सा विलुप्त हो गई। आज हम पाश्चात्य देशों से उन्हें जान पाते हैं और उन्हें ही इनकी खोज का श्रेय देते हैं। सोचिए, महाभारत काल से ही आयुर्वेद में की जा रही रिसर्च को यदि हतोत्साहित न किया जाकर प्रोत्साहन दिया जाता तो क्या वह आज की एलोपैथी से आगे न होता? आयुर्वेद के इस ह््रास के लिए कौन उत्तरदायी है?
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