Wednesday, 29 March 2023

404 स्वाहा और स्वधा क्या हैं? यज्ञोपवीत, प्राचीणवीत और निवीत क्या हैं?

  

क्रिया के पूर्ण होने का ध्वन्यात्मक मूल है ‘स्वाहा‘, अर्थात् घी को आग में डालने पर स्वाहा नहीं कहा जा सकता जब तक कि वह पूरा जल नहीं जाता। जब कोई दिव्य कार्य करना होता है तभी स्वाहा बोला जाता है। पवित्र काम के लिये चाहे वह भौतिक, मानसिक या आध्यात्मिक कोई भी हो उसका नियंत्रक ध्वन्यात्मक मूल है स्वाहा। विशेषतः स्वाहा को आहुति देते समय कहा जाता है अतः इस अर्थ में वह ध्वन्यात्मक मूल ‘स्वधा’ से संबंधित है। स्वधा का सामान्य अर्थ है ‘जो आत्म विश्वासी हो‘ इसलिये स्वधा का उपयोग पूर्वजों को आहुति देने में किया जाता है। प्राचीन काल में स्वाहा और स्वधा समानार्थी थे पर बाद में स्वाहा ‘‘ कल्याण हो‘‘ के अर्थ में और स्वधा ‘‘ भगवान आपको शान्ति दे‘‘ के अर्थ में प्रयुक्त होने लगा। इसीलिये स्वाहा का उपयोग देवी देवताओं के लिये और स्वधा का उपयोग पूर्वजों की स्मृति के लिये किया जाने लगा।

प्राचीन काल में देवताओं और पूर्वजों को आहुति देने के पहले लोगों को बड़े संयम के काल से गुजरना पड़ता था अतः इस प्रारंभिक तैयारी के समय को अधिवास कहते थे।  जहॉ तक ज्ञात है वैदिक युग में लोगों की सबसे कमजोरी थी सुरा या सोमरस या मद्य, को पीने की। अतः अधिवास के समय पुजारी लोग अपने कंधे पर मृगचर्म डाले रहते थे ताकि अधिवास के समयान्तर में कोई उन्हें सुरापान के लिये निमंत्रित न करे। जब धार्मिक कार्य किया करते थे और स्वाहा उच्चारित करते थे तब वे मृगचर्म को बॉंयें कँधे पर ले लेते थे और मृगचर्म को यज्ञोपवीत कहा जाता था, पर यदि वे पूर्वजों के लिये धार्मिक कार्य करते थे तो स्वधा मंत्र का उच्चारण करते और मृगचर्म को दायें कँधे पर डाल लेते थे इसे प्राचीणवीत कहा जाता था। जब वे इन में से कोई कर्म नहीं कर रहे होते तो वे मृगचर्म को गले में चारों ओर लपेट लेते थे जिसे निवीत कहा जाता था। देवताओं के कार्य के लिये स्वाहा मंत्र के साथ सम्प्रदान मुद्रा का, त्योहारों पर वोषट और वषट मंत्रों के साथ वरद मुद्रा का और स्वधा मंत्रों का उपयोग करते समय अंकुश मुद्रा का उपयोग किया करते थे।


Tuesday, 28 March 2023

403 ‘‘विवाह’’

 

सभ्यता के उद्गम के पूर्व समाज में बहुत विकृतियॉं थीं। सामाजिक संगठन, परस्पर सौहार्द और महिलाओं के प्रति पुरुषों के उत्तदायित्व का कोई अस्तित्व नहीं था अतः महासम्भूति सदाशिव ने समाज के सभी लोगों को ‘‘विशेष व्यवस्था के अन्तर्गत जीवन निर्वाह करने’ की सामाजिक संरचना की स्थापना की जिसे ‘‘विवाह’’ कहा जाता है। विवाह के बाद पति और पत्नी को परस्पर एक दूसरे के प्रति समर्पित रहकर अपनी संतान के पालन पोषण करने का समान उत्तरदायित्व देने को ही विशेष व्यवस्था के अन्तर्गत जीवन निर्वाह करना कहा गया है। इस व्यवस्था में उत्तरदायित्व निभाने के लिए सर्वप्रथम भगवान सदाशिव ने अपने को ही उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया और प्रथम विवाहित पुरुष कहलाए। आज जो भी विवाह होते हैं वे इसी परम्परा के अन्तर्गत शैव विवाह कहलाते हैं। शिव के विवाह से जुड़ा हुआ दिन शिवरात्रि के नाम से मनाया जाता है। शिव की संतानों में भैरव, भैरवी और कार्तिकेय का योगदान शिव द्वारा स्थापित सामाजिक सरचना को सुदृढ़ करने में देखा गया है। शिव को स्वयंभू कहा गया है अतः उनके जन्म और महाप्रयाण का किसी को कुछ भी पता नहीं है अतः उनके जन्मदिन या महाप्रयाण मनाने का कोई दिन नहीं है।


Tuesday, 14 March 2023

402ओम ओम चिल्लाना?

 

अनेक गोष्ठियों में बहुत चिंतन मनन करने के बाद ऋषियों ने पाया कि इस ब्रह्मांड अर्थात् ‘कॉसमस’ की तीन लाक्षणिकताएं हैं। वे हैं, उत्पन्न होना, नियत समय तक बने रहना और अंत में समाप्त हो जाना। जब उन्होंने इन्हें अभिव्यक्त करने का प्रयास किया तो ध्वनियों के समूह से प्रत्येक के लिए बीज मंत्रों की तलाश हुई। सर्वसम्मति से ‘उत्पत्ति’ के लिए ‘अ’, निर्मित की गई वस्तुओं का पालन करने के लिए ‘उ’ और उनके वापस चले जाने को ‘म’ बीज मंत्र दिया गया। जब तीनों बीज मंत्रों को संयुक्त कर एक साथ ब्रह्मांड के अस्तित्व को दर्षाने का प्रयत्न किया गया तो पता चला कि जो ध्वनि बनती है उसे गले से उच्चारित ही नहीं किया जा सकता परन्तु यह ध्वनि ब्रह्मांड के निर्माण के समय से ही उत्पन्न हुई है और आज भी ज्यों की त्यों अनुभव की जा सकती है। ‘अ’, ‘उ’ और ‘म’ को संयुक्त रूप से प्रकट करने के लिए उन्होंने ‘‘ॐ‘‘ इस अक्षर को प्रतीकात्मक ढंग से स्वीकार किया और संयुक्त ध्वनि को ‘ओंकार ध्वनि’ नाम दिया। सभी प्रकार की उपासना पद्धतियों में जब अभ्यास चरम पर पहुंच जाता है तब अंत में अपने अस्तित्व के बीज मंत्र की ध्वनि को इस ओंकार ध्वनि के साथ अनुनाद कराने का अभ्यास सद्गुरु द्वारा कराया जाता है। इस अनुनाद की अवस्था में व्यक्ति अलौकिक आनन्द की अनुभूति करता है और इसी के साथ वह आत्मसाक्षात्कार की ओर बढ़ता है। इसे महत्व देने के लिए बाद में ऋषियों ने वेद मंत्रों के प्रारंभ और अंत में इसे जोड़ दिया ताकि शोधकर्ता यह जान सकें कि किसी भी मंत्र का गूढ़ार्थ समझने के लिए इस ओंकार ध्वनि के साथ अनुनादित होना महत्वपूर्ण है। जैसे, गायत्री छंद में लिखी गई सर्वोत्तम प्रार्थना मूलतः यह है- ‘‘भूः, भुवः, स्वः, तत्सवितुर्वरेण्यम, भर्गोदेवस्य धीमही, धियोयोनः प्रचोदयात्।’’ परन्तु बाद में इसे, ‘‘ॐ भूः, भुवः, स्वः, तत्सवितुर्वरेण्यम, भर्गोदेवस्य धीमही, धियोयोनः प्रचोदयात् ॐ ।’’ लिखा जाने लगा।

आपने  देखा होगा कि सभी लोग इस ओंकार ध्वनि को  ‘ओम’ ओम’ इस प्रकार जोर जोर से उच्चारित करते हैं और मानते हैं कि उन्होंने मंत्र जान लिया। परन्तु ऊपर स्पष्ट किया गया है कि ओंकार ध्वनि तो अ, उ, और म की संयुक्त ध्वनि है जिसमें उत्पत्ति, पालन और संहार तीनों का समावेष होने के कारण वह हमारी वर्णमाला के सभी 50 अक्षरों की संयुक्त ध्वनि से मिलकर बनी है। वर्णमाला के इन पचास अक्षरों की संयुक्त ध्वनि को किसी भी व्यक्ति द्वारा अपने गले से उच्चारित ही नहीं किया जा सकता अतः उसे जोर जोर से चिल्लाने का भी कोई फायदा नहीं है। फायदा तो तब मिलता है जब आप अपने गुरु द्वारा बताए गए बीज मंत्र को इस ध्वनि के साथ हृदय में अनुभव कर अनुनादित करें। परन्तु इस संबंध में किसी को भी रुचि नहीं है वे तो चाहते हैं कि ‘ओम ओम’ जोर से चिल्लाने में ईष्वर उनकी मनोकामना पूरी कर देंगे!


Monday, 13 March 2023

401योग्य और अयोग्य आध्यात्मिक शिक्षक


जब भी संसार में आध्यात्मिक संस्कृति का पतन होता है तब आध्यात्म के जिज्ञासुओं और योग्य प्रवक्ताओं की भी कमी आ जाती है। इस आधुनिक संसार में उन्नत और विकसित आध्यात्म विज्ञान सरलता से उपलब्ध है परन्तु, जिज्ञासुओं और आध्यात्मिक रूपसे प्रवीण व्याख्याकारों का नितान्त अभाव है। योग्य आध्यात्मिक शिक्षक वह हैं जिनका उन्नत एकीकृत दृष्टिकोण हो और वे उसे अपने छात्रों तक सम्प्रेषित करने की योग्यता रखते हों। दुर्भाग्य से अनेक तथाकथित आध्यात्मिक शिक्षक संकीर्ण और दोषपूर्ण विचारों का आध्यात्म के नाम पर प्रचार करते पाए जाते हैं जिसके पीछे उनका व्यक्तिगत स्वार्थ ही निहित होता है।

इतना ही नहीं, कुछ लोग धार्मिक कथाओं को सुनाकर कहा करते हैं कि कोई विशेष देवता अपने प्रिय और विश्वसनीय भक्तों को विशेष शक्ति, धन, पद और प्रतिष्ठा देते हैं और उन्हें न मानने वालों को निर्दयता से दंडित करते हैं। अपने भोले भाले भक्तों की मानसिक कमजोरियों का लाभ उठाने के लिए वे हर अवसर की तलाश में जुटे रहते हैं। आध्यत्मिक प्रशिक्षण देने के नाम पर ऐसे लोग इधर उधर की कहानियों को सुनाकर उन भक्तों की आध्यात्मिक प्रगति में बाधा ही उत्पन्न करते हैं। ये वही लोग होते हैं जो संकीर्ण मानसिकता और विविध दृष्टिकोणों को पालते हुए धर्म का व्यापार करते हैं और समाज को अनेक ऊॅंच नीच की भावनाओं भरे अनेक समूहों (जैसे भारतीय, अमेरिकन, रशियन या जर्मन आदि) में बॉंटते हैं।

400 सच्चे साधकों को कष्ट ही भोगते क्यों देखा जाता है?


ब्रह्म साधना करने वालों के संस्कार अन्य साधारण लोगों की तुलना में शीघ्र ही क्षय होते हैं । इसका कारण यह है कि जब मूल क्रियाओं को परमपुरुष के समक्ष समर्पित कर दिया जाता है तो केवल उनकी प्रतिक्रिया को ही भोगना शेष बचता है, ये प्रतिक्रियाएं अच्छी या बुरी हो सकती हैं जो कि मूल क्रियाओं पर आधारित होती हैं। परन्तु, जरा सोचिए कि साधना पथ पर चलने के पहले कितने काम अच्छे किए और कितने बुरे? कटुसत्य तो यह है कि उनमें अधिकॉंशतः बुरे ही होते पाए जाते हैं। यही कारण है कि साधक गण जैसे जैसे साधना में आगे बढ़ते जाते हैं, अच्छे संस्कारों का आनन्द लेने के स्थान पर बहुधा बुरे संस्कारों को भोगते देखे जाते हैं। हॉं, यह हो सकता है कि परिणाम भोगते समय कष्ट का अनुभव न हो परन्तु यह उनकी मूल क्रियाओं की प्रकृति पर निर्भर होता है। प्रत्येक दशा में ब्रह्म के प्रति मूल क्रियाओं के समर्पण का स्तर जितना अधिक होगा उतना ही कम समय प्रतिक्रियाओं को भोगने में लगेगा। सामान्य अवस्था में प्रतिक्रियाओं या संस्कारों के क्षय होने की तुलना में यदि उनके क्षय होने की गति तेज होती है तो यह अच्छा संकेत माना जाता है क्योंकि संस्कारों का क्षय कम समय में ही हो जाएगा।

साधक को ‘काम लिप्सा’ में डूबने से न तो उसकी आध्यात्मिक प्रगति होती है और न ही समाज को कुछ लाभ होता है। यह तो केवल स्वार्थमय भटकाव है। इसकी प्रतिक्रिया के फलस्वरूप नकारात्मक संस्कार, बीमारी या अपमान के रूप में भोगना पड़ते हैं। इनसे बचने या खींचतान करने का कोई उपाय नहीं है। जो साधना नहीं करते उनके साथ ये प्रतिक्रियाएं अपना समय आने पर ही घटित होती हैं भले ही वे अनेक जन्मों के बाद घटें परन्तु उनका परिणाम भोगने से कोई बच नहीं सकता।

Saturday, 11 March 2023

399 असली बंधु बांधव अर्थात् सगे संबंधी

 

चंद्रगुप्त मौर्य को राज्य दिलाने के बाद चाणक्य स्वयं अपना आश्रम बनाकर दूर रहने लगे थे। आश्रम में ही वे अपनी साधना के अलावा नीति, धर्म और दर्शन पर अपना लेखन जारी रखते थे। उनकी प्रसिद्धि पाकर अनेक विद्वान उनसे आश्रम में ही मिलने आते थे, अपनी समस्याओं का समाधान करते और गूढ़ विषयों पर विचार विनिमय किया करते थे। 

एक बार उनसे लिने आए एक विद्वान ने पूछा, ‘‘ आपके कितने बंधु बांधव हैं?’’

चाणक्य ने उत्तर दिया, ‘‘छः’’। 

उन्होंने कहा ‘इस कुटिया में 6 लोग कैसे रहते हैं और अभी वे कहां हैं?’ 

उत्तर मिला, 

‘‘सत्यं माता, पिता ज्ञानम्, बुद्धिः भ्राता, दया सखा। शांति पत्नी, क्षमा पुत्रः षष्ठेते मम बांधवाः।’’

अर्थात् सत्य मेरी माता, ज्ञान पिता, बुद्धि भाई, दया मित्र, शांति पत्नी और क्षमा पुत्र आदि, ये ही छः मेरे सगे संबंधी  हैं।


Tuesday, 7 March 2023

398 रंगोत्सव अर्थात् वर्णार्घ्य दान

 

शास्त्र में परमपुरुष के बारे में कहा गया है ’रसो वै सः।’ अर्थात् वे आनन्दमय, रसमय सत्ता हैं। अणुमन अर्थात् यूनिट माइंड को जब तक शतप्रतिशत सरस नहीं बना लिया जाता वह रसघन आनन्दमय सत्ता के साथ एकात्मता स्थापित नहीं कर पाता है। जो वास्तव में भक्त हैं, वे इस तत्त्व को जानते हैं, इसीलिए भक्तगण क्या करते हैं? वे परमपुरुष से कहेंगे- मेरी जो त्रुटि-विच्युति है वह सभी रहने दो, किन्तु यह, विद्वत्ता की अभिव्यक्ति या विद्या या धन को पाने के प्रति मेरी जो दुर्बलता है ये समाप्त कर दो, क्योंकि तुम्हें छोड़ अब अन्य कुछ माँगना मेरी भूल होगी।  यह भौतिक जगत की रंगीन वस्तुएं मांगकर जो मैंने भूल की है, अन्याय किया है, इससे वर्णमय जागतिक वस्तु माँगते ही मुझमें जो सामयिक रंगीनता आ गई, उसे मैं अपनी भूल स्वीकार करता हूँ। मैं अपनी भूल सुधार कर अपने मन के वर्ण अर्थात् मन पर चिपके जागतिक रंगों को तुम्हारे वर्ण अर्थात् रंग में मिला कर मैं वर्णहीन (रंगहीन) होना चाहता हूँ। 

इस प्रकार अपनी मानस चिन्तन से हुई वर्णाधीनता की त्रुटि के लिए मैं मिटा देना चाहता हूँ। भक्त की इस प्रकार की वर्णातीत होने की भाव साधना को ही वसन्तोत्सव या रंगोत्सव या होली कहा जाता है। यही इसका मूल आध्यात्मिक यथार्थ है।

दर्शन में कहा गया है ‘‘परमपुरुष ही एकमात्र वर्णातीत अर्थात् रंगहीन सत्ता हैं’’ उनकी इच्छा से ही इस ब्रह्मांड के अजस्र वर्णों की सृष्टि हुई है। मनुष्य यदि अपने स्वयं के वर्णों को परमपुरुष को दे दे तो वह भी वर्णहीन हो जाएगा, परमपुरुष में मिल जाएगा। वह परमपुरुष से कुछ नहीं मांगेगा। यदि माँगना ही है तो एक ही वस्तु माँगना चाहिए वह है, “हे परमपुरुष, तुम यदि वास्तव में कुछ देना चाहते हो तो मेरी बुद्धि को शुभत्व के साथ संयुक्त करो- मुझे सद्बुद्धि दो, ताकि मैं तुम्हारे चरण कमलों में  स्वयं को सम्पूर्ण रूप से समर्पित कर सकूँ।“ 

अर्थात् अपने सभी रंगों (वर्णों) को उन्हें ही समर्पित कर देना चाहिए, इसी के लिए वर्णार्घ्य दान करना कहते हैं। यह केवल होली को ही नहीं प्रतिदिन करना चाहिए। योगी प्रतिदिन होली खेलते हैं।