Thursday, 3 January 2019

227 ध्वनि, अक्षर, बीज मंत्र और विचार (1 )

227 ध्वनि, अक्षर, बीज मंत्र और विचार (1 )
इस ब्रह्माॅंड का प्रत्येक कम्पन, रंग और ध्वनि का मिलित रूप होता है। प्रत्येक विचार भी मानसिक कम्पन को उत्पन्न करता है अतः उसमें भी कम्पन के रंग और ध्वनि होती है भले हम उसे न सुन पायें या न ही अनुभव कर पायें। इन्हें हम स्पांदनिक  रंगों के यथार्थ क्षेत्र में मातिृकावर्ण कह सकते हैं और जिन विचारों से वे सम्बद्ध होते हैं उनके बीजमंत्र मान सकते हैं।
 ‘अ‘ ध्वनि सृजन का ध्वन्यात्मक मूल है। यही कारण है कि वह ‘‘ भारतीय स्वर सप्तक‘‘ ( स, रे, ग, म, प, ध, नि ) का नियंत्रक है। भगवान सदाशिव  ने इस ध्वनि विज्ञान को आकार दिया और संगीत के क्षेत्र में अतुलनीय योगदान दिया। रंग, वर्ण या अक्षर और राग एक ही मूल क्रिया ‘रंज‘ में 'घई* ´ प्रत्यय लगाकर बनाये गये हैं जिसका अर्थ है किसी चीज को रंगना। क्रमचय और संचय विधियों से सदाशिव ने इन ध्वनियों को अनेक रूपों में रंग दिया जिन्हें छः राग और छत्तीस रागिनियाॅं कहते हैं। इस प्रकार संगीत के संसार को विस्त्रित करने के लिये उन्होंने महर्षि भरत को प्रशिक्षित किया जिन्होंने इसे बौद्धिक स्तर पर उन्नत लोगों में प्रसिद्ध किया। अब तक नये अनुसंधान से अनेक राग और रागिनियाॅं भारतीय संगीत में जुड़ चुके हैं।
‘‘आ‘‘ ध्वनि संगीत के ऋषभ अर्थात् दूसरे स्वर को प्रकट करता है जो ऋषभ को प्रत्यक्ष और गाॅंधार, मध्यम, पंचम, धैवत्य, और निषाद को अप्रयक्ष रूप से नियंत्रित करता है।
इन्डोआर्यन वर्णमाला का प्रत्येक अक्षर ‘अ‘ से ‘क्ष‘ तक अपनी अपनी ध्वन्यात्मक मूल को निर्मित करता है। अतः सभी पचास वर्ण मनुष्य की पचास वृत्तियों को प्रकट करते हैं। तीसरा अक्षर ‘‘इ‘‘ गाॅंधार का ध्वन्यात्मक मूल है और इसे प्रत्यक्षतः और अगले मध्यम, पंचम, धैवत्य, और निषाद को अप्रयक्ष रूप से नियंत्रित करता है। साॅंसारिक ज्ञान का लयबद्ध अभिव्यक्तिकरण या उद्गम, साॅंसारिक भलाई, या इसके संबंध में सोचना आदि को ‘‘वोषट‘‘ से संबोधित किया जाता है। ध्वनि ‘इ‘ महाबीज या अतिबीज है ‘वोषट‘ के स्पन्दनों का। पुराने जमाने में राजा लोग जो भूमि और अधिक क्षेत्र में राज्य फैलाने के भूखे होते थे वे राजसूय या अश्वमेध यज्ञ करके ‘‘इम इन्द्राय वोषट‘‘ कहा करते थे ताकि उनका राज्य फैलता रहे।
---क्रमशः

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