Monday, 7 January 2019

231 बाबा की क्लास : ध्वनि, अक्षर, बीज मंत्र और विचार (5)
अभी तक हम वर्णमाला के ‘‘स्वरों’’ की आवृत्तियों के अनुसार उनके मूल ध्वन्यात्मक स्वरूप पर चर्चा कर रहे थे। अब आइए "व्यंजनों" पर विचार करें और सबसे पहले कवर्ग के सभी व्यंजनों पर विचार करते हैंः-
सभी मनुष्यों के सोचने का तरीका अलग अलग होता है। संसार के अधिकांश   लोग दो प्रकारों,  अभीप्सात्मक आशावृत्ति  और विशुद्ध  संवेदनात्मक चिंता वृत्ति, इनमें सोचते हैं। अभीप्सात्मक आशा  वृत्ति का ध्वन्यात्मक मूल ‘क‘ है और वह क्रिया ब्रह्म अर्थात् इस दृश्य  जगत का भी बीज है। अतः ‘ क‘ सगुण ब्रह्म का नियंत्रक है (क + ईश  = केश  और नारायण दोनों होंगे) क अर्थात् सगुण ब्रह्म का ईश  जो है वह केश  अर्थात् नारायण और केश  अर्थात् बाल भी होगा। ‘‘कै‘‘ क्रियामूल से ड प्रत्यय जोड़कर निष्पन्न ‘क‘ का शाब्दिक अर्थ है जो ध्वनि उत्पन्न करता है परंतु प्राचीन काल में लोग झरनों और नदियों से पानी एकत्रित करते थे जिनसे पानी के बहने की आवाज आती थी अतः बहते जल का ध्वन्यात्मक मूल ‘क‘ हो गया। वास्तव में पानी का ध्वन्यात्मक मूल ‘व‘ है।
यह चिंता वृत्ति का ध्वन्यात्मक मूल है। ख का अर्थ आकाश  भी है पर यह आकाश  का ध्वन्यात्मक मूल नहीं है आकाश  का ध्वन्यात्मक मूल है ‘ह‘। ख का अर्थ स्वर्ग भी है पर यह उसका ध्वन्यात्मक मूल नहीं है। स्वर्ग का स्थूल पक्ष ख से और सूक्ष्म पक्ष ‘क्ष‘ से प्रदर्शित  होता है।
यह चेष्टा वृत्ति का ध्वन्यात्मक मूल है जिसकी मानव जीवन के भौतिक मानसिक और आध्यात्मिक क्षेत्रों में महत्वपूर्ण भूमिका है। आन्तरिक विशेषताओं को बाहर प्रकट करने का अभ्यास करना चेष्टा कहलाता है।
आसक्ति और ममता की वृत्ति मनुष्यों और अन्य प्राणियों में होती है जो समय, स्थान और व्यक्तिगत प्रभावों से संबंधित होती है। जैसे लोग अपने देश  की घटिया वस्तुओं की तारीफ करेगा जबकि दूसरे देश  के अच्छे उत्पाद की नहीं क्योंकि यह किसी स्थान विशेष से मोह को प्रदर्शित  करता है। एक गाय नवजात बछड़े से जितना दुलार करती है कुछ बड़ा होने पर नहीं यह समय विशेष का प्रभाव प्रदर्शित  करता है। अतः ममता वृत्ति सापेक्षिक घटकों से सीमित रहती है पर मनुष्य अपने सतत और एकाग्र प्रयत्नों से उसकी सीमायें बढ़ा सकता है जो अन्य जीवों के लिये असंभव है। ‘घ‘ ममता का ध्वन्यात्मक मूल है।
यह दम्भ वृत्ति का ध्वन्यात्मक मूल है। विद्वान लोग यह मानते हैं कि महान संत वशिष्ठ ,  तंत्र सीखने चीन गये थे वहाॅं से इस ध्वनि का उपयोग उन्होंने सीखा और लौटकर भारत में प्रारंभ किया। इन संत ने ही सबसे पहले चीन से बुद्धिष्ठ वामाचार तंत्र सीखा और तब से बौद्धिक तारा कल्ट तीन भागों में बट गया उग्रतारा या वज्र तारा भारत में ,नीलतारा या नीलतारा सरस्वती तिब्बत में और भ्रामरीतारा चीन में पूजा जाता हैं। इन्हें ही बाद में वर्णाश्रम धर्म में वज्र तारा या उग्रतारा के नाम से स्वीकार किया गया। भारत में वज्र तारा और तिब्बत में नील तारा का ध्वन्यात्मक मूल एैम है। चीन का भ्रामरी तारा भारत में काली देवी के नाम से स्वीकार किया गया। इन दोनों का ध्वन्यात्मक मूल एक ही ‘‘क्रीम्‘‘ है। ‘क‘ सगुण ब्रहम और ‘र‘ ऊर्जा को प्रदर्शित  करते हैं। यह ध्यान रखने योग्य है कि ये वशिष्ठ  बुद्ध के बहुत बाद में हुए हैं।

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