Saturday 5 January 2019

229 बाबा की क्लासः ध्वनि, अक्षर, बीज मंत्र और विचार(3)


229 बाबा की क्लासः   ध्वनि, अक्षर, बीज मंत्र और विचार(3)
इस ब्रह्माॅंड का प्रत्येक कम्पन, रंग और ध्वनि का मिलित रूप होता है। प्रत्येक विचार भी मानसिक कम्पन को उत्पन्न करता है अतः उसमें भी कम्पन के रंग और ध्वनि होती है भले हम उसे न सुन पायें या न ही अनुभव कर पायें। इन्हें हम स्पंदनिक रंगों के यथार्थ क्षेत्र में मातिृकावर्ण कह सकते हैं और जिन विचारों से वे सम्बद्ध होते हैं उनके बीज मंत्र मान सकते हैं। आइए वर्णमाला के अन्य  स्वरों पर विचार करेंः-

पंचम अर्थात् ‘प‘ का ध्वन्यात्मक मूल छोटा ‘‘उ‘‘ है जो पंचम को प्रत्यक्ष तथा   धैवत्य, और निषाद को अप्रयक्ष रूप से नियंत्रित करता है।
धैवत्य अर्थात् ‘‘ध‘‘ का ध्वन्यात्मक मूल बड़ा ‘‘ऊ‘‘ है जो धैवत्य को प्रत्यक्ष और निषाद को अप्रयक्ष रूप से नियंत्रित करता है।
यह निषाद ‘‘नि‘‘ का ध्वन्यात्मक मूल है। यह सीधे ही सातवें स्वर को नियंत्रित करता है । चूंकि यह अर्धाक्षर है इसकी कोई स्वरात्मक ध्वनि नहीं है। यह किसी अन्य ध्वनि को नियंत्रित नहीं करता।
ऋृ
‘ऋृ‘ ध्वनि, ओम का ध्वन्यात्मक मूल है। अब चूंकि  ओम तो स्वयं सृष्टि के सृजन पालन और ध्वंस का अर्थात् सगुण और निर्गुण का ध्वन्यात्मक मूल है फिर ऋृ , औंकार कर मूल कैसे हो सकता है यह प्रश्न  उठता है। ऊॅं में पाॅंच संकेत मिले हुए हैं, सृजन का बीज(अ), संरक्षण का बीज(उ), संहार का बीज(म), निर्गुण का बीज(विंदु) और निर्गुण से सगुण में रूपान्तर का बीज(चन्द्राकार) । अधिकाॅंश  ध्वन्यात्मक मूलों का श्रोत तंत्रविज्ञान है, यद्यपि वेदों में भी इनमें से कुछ पहले से ही मौजूद थे जो तंत्र में बाद में स्वीकार किये गये। ओम अन्य अक्षरों की तरह एक अक्षर है जो दक्षिणाचार तंत्र में ध्वंस को न स्वीकारे जाने के कारण ‘उमा‘ उच्चारित किया जाता है जो परमा प्रकृति का ही नाम है। ओंकार को प्रणव भी कहा जाता है जिसका शाब्दिक अर्थ है ‘जो परम स्तर को प्राप्त कराने में अत्यधिक सहायता करता हो।‘ इसलिये ओंकार जो कि व्यक्त संसार के दस ध्वन्यात्मक मूलों को प्रकट करता है और पाॅंच ध्वनियों को अपने में समाहित किये है, वह अपने आपका भी ध्वन्यात्मक मूल चाहता है। किसी अन्य मूल का ध्वन्यात्मक मूल ‘अतिबीज‘ या ‘महाबीज‘ कहलाता है। इसलिये ‘ऋृ‘ ओंकार का महाबीज हुआ। इसलिये ध्वनिविज्ञान और संधिविज्ञान के द्रष्टिकोण से ऋृ आवश्यक  घ्वनि है।
लृ
लृ ध्वनि, हुंम ध्वनि का ध्वन्यात्मक मूल और उसका आन्तरिक प्रवाह है। हुंम ध्वनि स्वयं साधना के संघर्ष का ध्वन्यात्मक मूल है और तंत्र के अनुसार कुंडलनी का। जब साधना में आध्यात्मिक प्रगति होती है तब कभी कभी साधकों के गले से हुंम की ध्वनि निकलती है। तंत्र के अनुसार कुंडलनी प्रसुप्त देवत्व है अतः साधना के अभ्यास के समय मंत्राघात और मंत्रचैतन्य के प्रभाव से सभी बाधाओं को पार करते हुए कुंडलनी सहस्त्रार तक पहुंच जाती है। कुंडलनी को इस प्रकार जाग्रत करने का अभ्यास पुरश्चरण  कहलाता है। चूंकि यह मूलाधार में सोती रहती है अतः इसे जगाना बड़े ही संधर्ष से संभव हो पाता है अतः इसका बीज मंत्र हुंम कहलाता है। बुद्धतंत्र में मूलाधार को मणिपद्म या महामणिपद्म भी कहा गया है। वे धर्मचक्र को चलाते हुए ‘ओम मणिपद्मे हुंम्म’ यह कहते हैं।
लृर्
यह ‘फट्‘ ध्वनि का ध्वन्यात्मक मूल है जो स्वयं ‘‘सिद्धान्त को व्यवहार में लाने‘‘ का ध्वन्यात्मक मूल है अतः लृर्, ‘फट्‘ का अतिबीज या महाबीज हुआ। वैसे ही जैसे बीज का अचानक प्रस्फुटित होना। जैसे सोते से अचानक वास्तविक जगत में आने पर किसी के द्वारा जो ध्वनि की जाती है उसे बोलचाल की भाषा में ‘फट्‘ इस प्रकार कहते है। प्रत्येक अक्षर मातृकावर्ण (causal matix)कहलाता है क्योंकि प्रत्येक अक्षर किसी न किसी महत्वपूर्ण घटक जैसे ध्वनि, स्पन्दन, दिव्य या राक्षसी प्रवृत्ति, मानव गुण या सूक्ष्म अभिव्यक्तिकरण हो सकता है। इसलिये किसी भी अक्षर को वर्णमाला से नहीं हटाना चाहिये भले उसका कम उपयोग होता हो।

No comments:

Post a Comment