Sunday, 6 January 2019

230 बाबा की क्लास: ध्वनि, अक्षर, बीज मंत्र और विचार(4)


230 बाबा की क्लास: ध्वनि, अक्षर, बीज मंत्र और विचार(4)
इस ब्रह्माॅंड का प्रत्येक कम्पन, रंग और ध्वनि का मिलित रूप होता है। प्रत्येक विचार भी मानसिक कम्पन को उत्पन्न करता है अतः उसमें भी कम्पन के रंग और ध्वनि होती है भले हम उसे न सुन पायें या न ही अनुभव कर पायें। इन्हें हम स्पंदनिक रंगों के यथार्थ क्षेत्र में मातिृकावर्ण कह सकते हैं और जिन विचारों से वे सम्बद्ध होते हैं उनके बीज मंत्र मान सकते हैं। आइए अब अगले स्वरों पर विचार करते हैं: -

क्रिया के पूर्ण होने का ध्वन्यात्मक मूल है ‘स्वाहा‘, अर्थात् घी को आग में डालने पर स्वाहा नहीं कहा जा सकता जब तक कि वह पूरा जल नहीं जाता। जब कोई दिव्य कार्य करना होता है तभी स्वाहा बोला जाता है। पवित्र काम के लिये चाहे वह भौतिक, मानसिक या आध्यामिक कोई भी हो उसका नियंत्रक ध्वन्यात्मक मूल है स्वाहा। विषेषतः स्वाहा को आहुति देते समय कहा जाता है अतः इस अर्थ में वह ध्वन्यात्मक मूल स्वधा से संबंधित है। स्वधा का सामान्य अर्थ है ‘जो आत्म विश्वासी  हो‘ इसलिये स्वधा का उपयोग पूर्वजों को आहुति देने में किया जाता है। प्राचीन काल में स्वाहा और स्वधा समानार्थी थे पर बाद में स्वाहा ‘‘ कल्याण हो‘‘ के अर्थ में और स्वधा ‘‘ भगवान आपको शान्ति दे‘‘ के अर्थ में प्रयुक्त होने लगा। इसीलिये स्वाहा का उपयोग देवी देवताओं के लिये और स्वधा का उपयोग पूर्वजों की स्मृति के लिये किया जाने लगा।
प्राचीन काल में देवताओं और पूर्वजों को आहुति देने के पहले लोगों को बड़े संयम के काल से गुजरना पड़ता था अतः इस प्रारंभिक तैयारी के समय को अधिवास कहते थे।  जहाॅ तक ज्ञात है वैदिक युग में लोगों की सबसे कमजोरी थी सुरा या सोमरस या मद्य, को पीने की। अतः अधिवास के समय पुजारी लोग अपने कंधे पर मृगचर्म डाले रहते थे ताकि अधिवास के समयान्तर में कोई उन्हें सुरापान के लिये निमंत्रित न करे। जब धार्मिक कार्य किया करते थे और स्वाहा उच्चारित करते थे तब वे मृगचर्म को बाॅंयें कँधे पर ले लेते थे और मृगचर्म को "यज्ञोपवीत" कहा जाता था, पर यदि वे पूर्वजों के लिये धार्मिक कार्य करते थे तो स्वधा मंत्र का उच्चारण करते और मृगचर्म को दायें कँधे पर डाल लेते थे इसे "प्राचीणवीत" कहा जाता था। जब वे इन में से कोई कर्म नहीं कर रहे होते तो वे मृगचर्म को गले में चारों ओर लपेट लेते थे जिसे "निवीत" कहा जाता था। देवताओं के कार्य के लिये स्वाहा मंत्र के साथ "सम्प्रदान मुद्रा "का, त्योहारों पर वोषट और वषट मंत्रों के साथ "वरद मुद्रा" का और स्वधा मंत्रों का उपयोग करते समय "अंकुष मुद्रा" का उपयोग किया करते थे।
किसी की महानता को आदर देने के लिये जिस मुद्रा का उपयोग किया जाता है उसे नमः मुद्रा या नमोमुद्रा कहते हैं। वास्तव में किसी की महानता के कारण व्यक्ति का इस प्रकार का समर्पण करना उसके  मानसिक शरीर का परम सत्ता की महानता से स्पंदित होने के कारण होता है अतः नमोमुद्रा को करने वाला लाभान्वित होता है न कि जिसको नमोमुद्रा की जाती है। गुरु को नमो मुद्रा साष्टाॅंग प्रणाम कहलाती है जिसमें हाथों की हथेलियां परस्पर समानान्तर जोड़कर उन के सामने सीधी लाठी की तरह लेट जाना होता है जिसका अर्थ है कि पूर्ण रूपसे केन्द्रित मन को परम लक्ष्य की ओर प्रेषित  करना। इसमें शरीर के आठ अंग प्रयुक्त होते हैं अतः इसे साष्टाॅंग प्रणाम कहते हैं। नृत्य विज्ञान में इस प्रकार की 850 मुद्राओं को मान्यता दी गई है।
ध्वनि ‘ह‘ सूर्य और आकाश  तत्व की ध्वन्यात्मक मूल है, ‘ठ‘ चंद्रमा और अन्य उपग्रहों का ध्वन्यात्मक मूल है। जब मन का प्रतिनिधि चंद्रमा और भौतिक ऊर्जा का प्रतिनिधि सूर्य मिलाकर एक किये जाते हैं तो इसे " हठयोग" कहते हैं। अर्थात् जब कोई क्रिया अचानक की जाती है तो उससे जो ऊर्जा निकलती है उसे हठात् कहते हैं। शिव की महानता आकाश  की तरह विराट थी अतः लोग उन्हें नमः मुद्रा में आदर देते थे या फिर ‘औ‘ ध्वनि से। इसलिये शिवतत्व की ध्वन्यात्मक मूल ‘‘हौम‘‘ है, (हौम शिवाय नमः)। शिव के लिये अपनी साधुता, सरलता और निस्वार्थ सेवा भाव के कारण जो बहुत निकट और प्रिय थे वे भी उनकी पूजा ‘‘ह‘‘ ध्वनि से करते थे। इसलिये यह समझने में कोई कठिनाई नहीं है कि शिव का ध्वन्यात्मक मूल ‘हौम‘ क्यों है।
अं
‘‘अम् ‘‘ विचार का ध्वन्यात्मक मूल है। एक ही ध्वनि भिन्न भिन्न विचारों से उच्चारित करने पर भिन्न भिन्न अर्थ देती है और व्यक्ति व्यक्ति पर उसका अलग अलग प्रभाव भी पड़ता है। जैसे ‘ आओ बेटा! भोजन कर लो‘ यहाॅं ‘बेटा’ शब्द में प्रेम है जबकि ‘‘ ठहरो बेटा! हम तुम्हारे बाप को भी नहीं छोड़ेगे‘‘ में ‘बेटा’ शब्द में सुनने वाले के मन में जहर भर जाता है। अतः इस प्रकार के जहरीली मानसिकता के शब्दों का ध्वन्यात्मक मूल है ‘अम्‘ और मधुरता भरने वाले शब्दों का ध्वन्यात्मक मूल है ‘‘अह्‘‘। अतः जब कभी किसी से कुछ बोलना हो या कविता पढ़ना हो या ड्रामा में भाग लेना हो तो यह ज्ञान होना चहिये कि क्या उच्चारित करना है और कैसे।
अः
ऐसे अनेक शब्द हैं जो न तो अच्छे हैं और न ही बुरे पर वे बोलने वाले की मानसिकता पर निर्भर करते हैं, जब किसी शब्द को मधुरता से बोला जाता है जो सबके कानों को अच्छा लगे तो इस भाव का ध्वन्यात्मक मूल है ‘अहः'। इसलिये गायन में कवता पाठ में या नाटक में कार्य करते समय ध्यान रखना चाहिये । अमृत और विष दोनों का नियंत्रक विषुद्ध चक्र है अतः वक्ता को इसके क्षेत्र में स्थित कूर्म नाड़ी पर नियंत्रण करना आना चाहिये।

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