235 बाबा की क्लास : (अक्षर , आवृत्तियाँ ,वृत्तियाँ और उनके नियंत्रक ऊर्जा केंद्र )
हमारी देवनागरी वर्णमाला का प्रत्येक अक्षर अपनी अपनी आवृतियाँ उत्सर्जित करते हैं जो विशेष तरङ्ग समूह को निर्मित करते हैं जिन्हें संस्कृत में वर्ण कहते हैं इसलिए इसे वर्णमाला कहा जाना युक्तिसंगत है। वर्णों से विकीर्णित होने वाली ऊर्जा ही बीजमंत्र कहलाती है। हमारा मन इन्हीं तरंगों और वर्णों से प्रभावित होकर दोलन करता रहता है और संसार के सभी कर्मों में लिप्त बना रहता है। यही कर्म जिन्हें संस्कार कहते हैं , क्रिया प्रतिक्रिया नियम से हर पल संचित होते और क्षय होते रहते हैं और जीवनों का क्रम चलता रहता है। योग विज्ञान में मन की पचास वृत्तियों को पहचाना गया है और उनसे जुड़े वर्णों को भी। विद्यातंत्र विज्ञान में हमारे शरीर को ही अपने मन का विस्तार माना गया है और मन की सभी वृत्तियों को नियंत्रित करने के लिए उन ऊर्जा केंद्रों को भी पहचान लिया गया है जहाँ से इन्हें नियंत्रित किया जाकर मन का विस्तार इकाई मन (unit mind) से भूमा मन (cosmic mind) तक किया जाता है। इसलिए वह विधि जिसमें इकाई मन की साक्षी सत्ता इकाई चेतना (unit consciousness) को भूमा मन की साक्षी सत्ता परम चेतना (cosmic consciousness) के साथ एकीकृत किया जाता है आत्मसाक्षात्कार कहलाती है। विद्यातंत्र विज्ञान की "पुरश्चरण" विधियों में पारंगत गुरुगण किसी व्यक्ति विशेष के वर्ण अर्थात उसके मन से निकलने वाली तरंगों के रंग को पहचान कर उसे उचित आवृत्ति के साथ मन का अनुनाद करने की सलाह देते हैं जिसे अभ्यास करते हुए वह व्यक्ति पूर्वोक्त अनुभव कर पाता है। योग्य गुरु के द्वारा उचित आवृत्ति की पहचान करना योगमार्ग की "दीक्षा" , उचित आवृत्ति " मन्त्र" और विधि सम्मत अभ्यास करना "साधना " कहलाता है। मन की पचास वृत्तियाँ (fifty Occupations Of The Mind) इस प्रकार हैं :-
धर्मdharma (psycho-spiritual longing)
अर्थ artha (psychic longing )
काम kam (physical longing),
मोक्षmokśa (spiritual longing),
अवज्ञाavajiṋá (belittlement of others),
मूर्छाmúrcchá (psychic stupor, lack of common sense),
प्रश्रय prashraya (indulgence),
अविश्वास avishvása (lack of confidence),
सर्वनाशsarvanásha (thought of sure annihilation),
क्रूरताkruratá (cruelty),
लज्जा lajjá (shyness, shame),
पिषूनताpishunatá (sadistic tendency),
ईर्ष्याiirśá (envy),
सुषुप्तिsuśupti (staticity, sleepiness),विषादviśáda (melancholia),
कषायkaśáya (peevishness),
तृष्णाtrśńá (yearning for acquisition),
मोहmoha (infatuation),
घृणाghrna (hatred, revulsion),
भयbhaya (fear),
आशा asha (hope),
चिन्ताcinta (worry),
चेष्टाcesta (effort),
ममताmamata (mineness),
दम्भdambha (vanity),
विवेकviveka (conscience),
विकलताvikalata (mental numbness due to fear),
अहंकारahamkara (ego),
लोलुपता lolupta (avarice),
कपटताkapatata (hypocrisy),
वितर्कvitarka (argumentativeness to the point of wild exaggeration),
अनुतापanutapa (repentance),
षड़जśad́aja (sound of the peacock),
ऋषभrśabha (sound of bull),
गाॅंधारgándhára (sound of goat),
मध्यमाmadhyama (sound of deer),
पॅंचमpaiṋcama (sound of cuckoo),
धैवत्यdhaevata (sound of the donkey),
निषादniśáda (sound of the elephant),
ओंमoṋm (the acoustic root of creation),
हुम्hum (sound of arousing kulakuńd́alinii),
फट्phat́ (putting theory into practice),
वोषट् vaośat́ (expression of mundane knowledge)
वषट्vaśat́ (welfare in the subtler sphere)
स्वाहाsvaha (performing noble actions),
नमःnamah (surrender to the Supreme),
विषvis'a (repulsive expression),
अमृतamrta (sweetness in expression),
अपराapara (mundane knowledge)...
पचासवीं वृत्ति जो कि एक आध्यात्मिक साधक को हमेशा जानना चाहिये वह है, परा para (spiritual knowledge).
विद्या तंत्र में मन को अपनी विभिन्न आवृत्तियों के साथ दस दिशाओं में भटकने वाला कहा जाता है जो भीतर और बाहर दोनों ओर क्रियारत रहती हैं। चूंकि उसकी पचास वृत्तियाँ प्रधान होती है जिनसे समय समय पर प्रभावित होता हुआ वह दोलन करता रहता है अतः सभी प्रकार से 10x 2 x 50 = 1000 वृत्तियों को नियंत्रित करने वाले ऊर्जा केंद्र को तंत्र में "सहस्त्रार चक्र" और आधुनिक विज्ञान में पीयूष ग्रंथी ¼pineal gland½ कहते हैं।
शरीर रचना विज्ञान के अनुसार पीयूष ग्रंथी या ‘पीनियल ग्लेंड’ मटर के दाने के आकार और आधे ग्राम द्रव्यमान की अन्तःश्रावी ग्रंथी है जो मस्तिष्क के आधार पर ‘हाइपोथेलेमस’ के नीचे होती है जो गोलाकार हड्डी के छोटे से गड्ढे में पाई जाती है। यह ग्रंथी इस प्रकार के ‘हारमोन’ श्रावित करती है जो विकास, रक्तचाप, ऊर्जा प्रबंधन, सेक्स अंगों के सभी कार्य, ‘थायराइड ग्रंथियों’ चयापचय, गर्भावस्था, प्रसव, किडनी में नमक और पानी का सान्द्रण, ताप नियंत्रण और दर्द दूर करने आदि के नियंत्रण करने में सक्रिय रहती है।
विभिन्न ऊर्जा केन्द्र या चक्र और सम्बंधित मनोवृत्तियाॅं
आध्यात्मिक प्रगति के लिये चक्रों की महत्वपूर्ण भूमिका है यथार्थतः चक्रों की शुद्धि और नियंत्रण करना। ऊर्जा केंद्र क्या है? ग्रंथियों और उपग्रंथियों का समूह। सभी प्राणियों में इन चक्रों की अलग अलग स्थितियाॅं होती हैं। मनुष्यों में ये सूक्ष्म ऊर्जाकेन्द्र, इडा, पिंगला और सुषुम्ना नाड़ियों के परस्पर संपर्क बिंन्दुओं पर स्थित होते हैं । मनुष्यों के मन में अनेक प्रकार के विचार आते जाते रहते हैं जो उनके संस्कारों द्वारा उत्पन्न वृत्तियों से निर्मित होते हैं। इन वृत्तियों का नियंत्रण और प्रवाह इन चक्रों पर निर्भर होता है। मुख्यतः 50 वृत्तियाॅं भीतर और बाहर, इन्हीं चक्रों की ऊर्जा द्वारा कार्यरत रहती हैं। इनके क्रियाशील हाने से उत्पन्न कंपनों के कारण विभिन्न ग्रंथियाॅं हारमोन्स का स्राव करती हैं । वृत्तियों का सामान्य या असामान्य होना इन हारमोनों के सामान्य या असामान्य स्राव पर निर्भर होता है। मानव मन तभी तक कार्य करता है जब तक ये वृत्तियाॅं प्रदर्शित होती हैं, इनके समाप्त होते ही मन भी समाप्त हो जाता है।
विभिन्न ऊर्जा केंद्रों अर्थात चक्रों के नाम और उनके क्षेत्र इस प्रकार हैं:-
मूलाधार चक्र- भौम मंडल।
स्वाधिष्ठान चक्र-तरल मंडल।
मणिपूर चक्र-अग्नि मंडल।
अनाहतचक्र-सौर मंडल।
विशुद्ध चक्र- नक्षत्र मंडल।
आज्ञाचक्र-चंद्रमंडल।
(संस्कृत में मंडल को वृत्त, थायरायड ग्लेंड को बृहस्पति ग्रंथी, हारमोन्स को ग्रंथी रस, पैराथायरायड को बृहस्पति उपग्रंथी, पिट्यूटरी ग्लेंड को मायायोगिनी ग्रंथी और पीनियल ग्लेंड को सहस्त्रार ग्रंथी कहते हैं। )
चक्र अपने भीतर अनेक वृत्तियों और उनके ध्वन्यात्मक स्वरों को समेटे रहते हैं।जैसे,
मूलाधार चक्र में चार वृत्तियाॅं धर्म, अर्थ, काम, और मोक्ष की होती हैं और उनके ध्वन्यात्मक स्वर क्रमशः व,श ,ष और स होते हैं।
स्वाधिष्ठान चक्र में छः वृत्तियाॅं अवज्ञा, मूर्छा, प्रणाश , अविश्वास , सर्वनाश , क्रूरता आदि होती हैं इनके ध्वन्यात्मक स्वर क्रमशः ब, भ, म, य, र, ल होते हैं।
मनीपुर चक्र में दस वृत्तियाॅं लज्जा, पिशूनता, ईर्ष्या , सुषुप्ति, विषाद, क्षय, तृष्णा, मोह, घृणा और भय की होती हैं और उनके ध्वन्यात्मक स्वर क्रमशः दा, धा, ना, त, थ, द, ध, न, प, फ होते हैं।
अनाहत चक्र में बारह वृत्तियाॅं आशा , चिंता, चेष्टा, ममता, दम्भ, विवेक, विकलता, अहंकार, लोलता, कपटता, वितर्क, अनुताप की होती हैं इनके ध्वन्यात्मक स्वर कंमशः क, ख, ग, घ, डॅ., च, छ, ज, झ, ´, ता, था, आदि होते हैं। यह चक्र श्वसन प्रणाली को प्रभावित करता हैं यहाॅं पर धनात्मक माइक्रोवाईटा अधिक प्रभावी हो जाते हैं जो आध्यात्मिक प्रगति में सहायक होते हैं इससे नीचे के चक्रों पर नकारात्मक माइक्रोवाइटा प्रभावी होते हैं जो आध्यात्मिक प्रगति में बाधक होते हैं।
विशुद्ध चक्र में सोलह वृत्तियाॅं षडज, ऋषभ, गाॅंधार, मध्यम, पंचम, धैवत्, निषाद, ओम, हुंम, फट्, वौषट, वषट्, स्वाहा, नमः, विष और अमृत की होती हैं।
(प्रत्येक प्राणी अपनी लाक्षणिक विशेषताओं से नियंत्रित होते हैं अतः इस चक्र की प्रथम सात ध्वनियाॅं संबंधित प्राणियों से ली गई हैं। बायें कान के नीचे से दाॅंयें कान के नीचे तक का क्षेत्र इस चक्र का होता है इसमें धनात्मक माइक्रोवाईटा संपर्क में आते हैं। विशुद्ध चक्र में 16 उपग्रंथियाॅं होती हैं जो चारों दिशाओं में 4, 4, 4, 4 की संख्या में होती हैं , इनके माध्यम से मित्र और शत्रु दोनों प्रकार के माइक्रोवाइटा सक्रिय होते हैं।)
आज्ञाचक्र में दो वृत्तियाॅं अपरा और परा होती हैं इनके ध्वन्यात्मक स्वर क्रमशः क्ष और ह होते हैं। दोनों नेत्रों के बीच अर्थात् त्रिकुटी का क्षेत्र इस का प्रभावी क्षेत्र होता है । मानव शरीर के ऊपरी भाग और नाभि के नीचे का भाग चंद्रमा के परावर्तित प्रकाश से प्रभावित होता है । आज्ञा चक्र का बायाॅं भाग नाभि से नीचे वाह्य प्रभावों से संबंधित होता है और उसका स्वर क्ष होता है। दायाॅं भाग शरीर के ऊपरी भाग से संबंधित वाह्य प्रभावों से संबद्ध होता है और उसका स्वर ह होता है। चंद्रमा का विशेष स्वर ‘‘था‘‘ है जो ह और क्ष को नियंत्रित करता है आज्ञाचक्र को नहीं।
सहस्त्रार चक्र कपाल में सबसे ऊपर और आज्ञा चक्र त्रिकुटी पर , विशुद्ध चक्र गले में ,अनाहत चक्र छाती के बीच , मणिपुर चक्र नाभि पर , स्वाधिष्ठान चक्र लिंग पर और मूलाधार चक्र रीढ़ की सबसे नीचे की हड्डी पर स्थित माना गया है। ये स्थितियाँ केवल पहिचान करने दी दृष्टि से ही कही गयीं है वास्तव में इनका असली स्थान रीढ़ की हड्डी के भीतर रहने वाली इडा ,पिंगला और सुषुम्ना नाड़ियां जहाँ पर आपस में मिलकर ग्रंथि बनाती हैं वहीं पर होता है। सहस्त्रार चक्र अपने से नीचे के सभी चक्रों पर नियंत्रण करता है अतः सभी एक हजार वृत्तियों पर भी नियंत्रण कर लेता है , संस्कृत में सहस्त्र = एक हजार।
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