Monday, 30 December 2019

289 पाखंड

पाखंड
‘पाखंड’ हमारे सामने अनेक प्रकार से आता रहता है परन्तु इन तीन प्रकारों से बहुधा अपना इन्द्रजाल फैलाता है,
1. दूसरों को धोखा देकर या उनका शोषण कर अपना कार्य सिद्ध करना।
2. अपनी अज्ञानता छिपाने के लिए किसी पर अनावश्यक रूप से हावी होना।
3. दूसरों के पापकर्मों की आलोचना कर स्वयं नैतिक होने का ढोंग करना और स्वयं उन्हीं कार्यों को चोरीछिपे करना।

Sunday, 22 December 2019

288 शूरवीर, पंडित, वक्ता और दाता

शूरवीर, पंडित, वक्ता और दाता
किसी समय, विद्वान ऋषियों की एक गोष्ठी में विचारार्थ ये प्रश्न रखे गए- 
1. क्या अनेक युद्ध जीतने वाले को सच्चा शूरवीर कहा जा सकता है?
2. क्या जिसने बहुत अध्ययन कर अनेक उपाधियाॅं प्राप्त की हों उसे सच्चा विद्वान(पंडित) कहा जा सकता है? 
3. क्या लच्छेपुच्छेदार भाषा से लोगों को प्रभावित करने वाले को सच्चा वक्ता माना जा सकता है? 
4. क्या बहुत धन दान करने वाले को सच्चा दानी कहा जा सकता है?
बहुत गंभीर मंथन और विचारोपरान्त इन प्रश्नों के सर्वमान्य उत्तर इस प्रकार निर्धारित किए गए-
1. सच्चा शूरवीर वह है जिसने अपनी इंद्रियों को जीत लिया है।
2. सच्चा पंडित वह है जो धर्माचरण करता है।
3. सच्चा वक्ता वह है जो दूसरों के हित की बात कहता है।
4. सच्चा दानी वह है जो सभी को आदर देता है अर्थात् उनको भी समान आदर देता है जो समाज के द्वारा हेय और उपेक्षित समझे जाते हैं। 

Friday, 13 December 2019

287 समाधि प्राप्त करने का रहस्य(7)

समाधि प्राप्त करने का रहस्य(7)
पुरुष ख्याति में स्थापित होने का उपाय है कि वे मेरे विषयी तथा मैं उनका विषय हूँ  इस प्रकार का भाव रख कर उनमें आत्मसमर्पण करना, अर्थात् अपने उत्स में लौट जाना। ईश्वरप्रणिधान के द्वारा यह संभव है। प्रणिधान का अर्थ है जप क्रिया के द्वारा प्राप्त भक्ति। इसलिये  ईश्वरप्रणिधान का अर्थ हुआ  ईश्वर सूचक  भाव लेकर ईश्वर  वाचक शब्द का जप करते जाना। यह एक वीर्यदीप्त साहसिक साधना है, दुनियाॅं को धोखा देना या भीरु की तरह दायित्व से छुटकारा पाना नहीं है।  ईश्वरप्रणिधान से चित्त की भावधारा सरलरेखाकार हो जाने से असंप्रज्ञात समाधि पाना संभव हो जाता है परंतु ध्यान क्रिया इससे भी सरल है। ईश्वरप्रणिधान संप्रज्ञात समाधि के लिये अधिकतर उपयोगी है क्योंकि इसमें अल्पकाल में ही मन एकाग्र होजाता है तथा उसके बाद जो सामान्य मैंपन का बोध रह जाता है उसे ध्यान क्रिया से सहज ही त्याग किया जा सकता है और असंप्रज्ञात समाधि में प्रतिष्ठा पाई जा सकती है। विषय विषयी भाव जब तक हैं उपासना का सुयोग तभी तक है क्योंकि उपासना सगुण या तारक ब्रह्म की ही होती है निर्गुण की नहीं । अनादिकाल से ही यदि कोई व्यक्ति क्लेश,  कर्म, विपाक और आशय से मुक्त हुए रहे हों तो उनकी उपासना निरर्थक है। जीव, कर्म के फल से ही क्लेश  भोगता है, क्लेश  से विपाक और विपाक से विपाकानुरूप वासना या आशय का उद्भव होता है; जिन्हें इनका कुछ भी भान नहीं , जिनका मन कहकर कुछ भी नहीं है, उनकी उपासना से और जो कुछ क्यों न पा लिया जाये कृपा तो नहीं पाई जा सकती। मनुष्य पर कृपा करने का अधिकार निर्गुण पुरुष का कैसे हो सकता है, यह तो उस मुक्त पुरुष का अधिकार है जो कभी बद्ध थे अर्थात् सगुण ब्रह्म का।  और है तारक ब्रह्म का, जिनका मन सगुण निर्गुण के स्पर्श  विन्दु में प्रतिष्ठित है। जो कभी बद्ध थे वर्तमान में मुक्त हैं भविष्य में भी बद्ध नहीं होंगे, वे भी सगुण ब्रह्म के ही समान हैं उन्हें कहा जाता है महापुरुष। कृपा करने का अधिकार उनका भी है। ब्रह्म कृपा से  ईश्वरप्रणिधान के पथ पर द्रुत गति से बढ़ते हुए उनके ध्यान में ,उनकी सत्ता में ,अपने मैंपन का उत्सर्ग कर जीव परम शान्ति लाभ कर सकता है। 

Thursday, 12 December 2019

286 समाधि प्राप्त करने का रहस्य(6)

समाधि प्राप्त करने का रहस्य(6)
संप्रज्ञात समाधि में सर्वज्ञता का बीज सातिशय होता है और स्थायी सविकल्प में निरतिशय हो जाता है क्योंकि तब उसका विषय अनुमानस (unit mind) में सीमित न होकर भूमा (cosmic mind) में परिवर्तित हो जाता है और उसकी संभावना अपरिमाप्य हो जाती है। साधना के द्वारा अपरिपुष्ट बीज क्रमशः  परिपुष्टता प्रहण कर 
निरतिशयित्व की ओर बढ़ता जाता है अतः उच्च श्रेणीके साधकों को वाह्य वस्तु के ज्ञान आहरण का कोई प्रयोजन नहीं होता, भूमा के प्रसाद से ज्ञान प्रसाद स्फूर्त हो उठता है। ‘‘तत्र निरतिशयं सर्वज्ञत्व बीजम्’’।
संप्रज्ञात समाधि चंचल चित्त से उपलभ्य नहीं है।  जिस तरंग में मैंपन का बोध हुआ है वही संप्रज्ञात है, लेकिन जड़ समाधि को संप्रज्ञात नहीं कहेंगे। जब धन दौलत घर द्वार आदि जड़ पदार्थों में एकाग्रता प्राप्त चित्त केवल उन्हीं का रूप धारण करता है अतः  जगत का और कुछ दिखाई नहीं देता, इसे ही संप्रज्ञात जड़ समाधि कहते हैं। इसका ध्येय स्थूल या सूक्ष्म मानस आभोग  होता है। 
असंप्रज्ञात समाधि का ध्येय पुरुष होता है, अतः प्रकृतिलीन और विदेहलीन अवस्था संप्रज्ञात और असंप्रज्ञात के बीच की अवस्था कही जा सकती हैं। संप्रज्ञात समाधि  के चार स्तर हो सकते हैं, 
1. सवितर्क स्तर पर पुत्र धन घर आदि में एकाग्रता होने पर, 
2. ऋणात्मक सवितर्क स्तर पर उपरोक्त विषयों से मन को हटाने की एकाग्रता होने, 
3. सविचार समाधि में चित्त स्थूल आभोगों में रत नहीं होता पर नाम यश आदि सूक्ष्म आभोगों के पीछे दौड़ता है,और 
4. जब इन सबसे दूर रहने के प्रयासों में एकाग्रता प्राप्त हो तो वह ऋणात्मक सविचार के अंतर्गत आती हैं। 
इसके बाद के स्तर को आनन्द समाधि कहते हैं, इसमें चित्त का कोई सूक्ष्म आभोग नहीं होता पर एक सूक्ष्म दैहिक और मानसिक बोध होता है कि मैं आनन्द का उपभोग कर रहा हूॅं पर  इसका भी ऋणात्मक पहलु है। इसके बाद के  स्तर पर आती है सास्मित समाधि, इसमें केवल पुरुषसत्ता का  बोध रहता है इस स्तर पर इस मैंपन का बोध समाप्त हो जाने से  एक सूक्ष्मस्तरीय एकात्मिका का ज्ञान आता है जिसे असंप्रज्ञात समाधि कहते हैं; इसमें रह जाती है केवल एक पुरुष सत्ता।  सबको छोड़ केवल पुरुष भाव में रहने को कहते हैं पुरुष ख्याति। 
क्रमशः ..7

Wednesday, 11 December 2019

285 समाधि प्राप्त करने का रहस्य (5)

समाधि प्राप्त करने का रहस्य(5)
निवृत्ति का पथ पकड़ कर सभी विषयों को हरा देने से साधक प्रकृति लीन हो जाता है, यहां पुनः जन्म की संभावना बनी रहती है भले ही वह लाखों वर्ष में हो । इसी प्रकार विदेहलीन अवस्था भी भव प्रत्यय के द्वारा होती है इसमें भी पुनः जन्म हेतु अविद्याश्रयी संस्कार रह जाते है, इसलिये निर्बीज होने पर भी ये असंप्रज्ञात नहीं। विदेहलीन अवस्था शून्य  के  ध्यान के फलस्वरूप प्राप्त होती है। इससे शून्य  का आभोग रह जाने से अर्थात् चित्त में एक तत्व का अभाव (पुरुषतत्व का) रहने से पुरुष में प्रतिष्ठा या मोक्ष लाभ नहीं होता है। इस प्रकार प्रकृतिलीन और विदेहलीन दोनों ही अवस्थायें ऋणात्मकता में प्रतिष्ठित हैं। इनके फलस्वरूप पुनः जन्म की संभावना अवश्य ही  रहती है। 
इसलिये साधकों का पथ, भव प्रत्यय नहीं वरन् उपाय प्रत्यय है। अर्थात् इसे उपाय के द्वारा, चेष्टा के द्वारा कालातीत भाव से समाधि में स्थापित करना होगा। प्राकृत वस्तु के भोग अथवा त्याग करने के उपाय में लगे रहना उचित नहीं।  उनका पथ त्याग का नहीं मनः साम्य का हैं, प्रकृति उनका ध्येय नहीं तो वर्जनीय भी नहीं। पुरुष उनका ध्येय हैं, अतः धीरे धीरे उनकी संपूर्ण सत्ता पुरुष में ही लीन होगी। इसीलिये उपासना प्रकृति की नहीं पुरुष की करनी होगी, पुरुष की इस साधना से प्राप्त निर्बीज समाधि की निरंतरता को ही मोक्ष कहते हैं। 
संप्रज्ञात समाधि मन की एकाग्र भूमि में ही होती है। चित्त में एक विषय के आभोग के कारण समाधि पाने के बाद सुविधानुसार जिस किसी विषय में समाधि लाई जा सकती है क्योंकि  एक विषय की तरंग पर जिसका नियंत्रण हुआ है, अन्य विषय में भी सहज रूप में उसका नियंत्रण आ सकता है। त्रिकाल के संबंध में जो ज्ञान है वह सर्वज्ञता कहलाता है। सर्वज्ञता का बीज प्रत्येक व्यक्ति में ही है केवल उसकी विकास मात्रा में भेद होता है। क्रमशः 6 .. ..

Tuesday, 10 December 2019

284 समाधि प्राप्त करने का रहस्य(4)

समाधि प्राप्त करने का रहस्य(4)
‘‘अनुभूतविषया सम्प्रमोषः स्मृतिः’’ अर्थात अनुभूत विषय की तरंग को पुनः उत्पादित करने का नाम है स्मृति। वीर्य(valour) के द्वारा यह स्मृति उत्पन्न होती है। श्रद्धा के फलस्वरूप उत्पन्न वीर्य के द्वारा साधना के बाधा समूह को हटाकर जब ध्येय विषय के साथ एकतानता प्राप्त हो जाती है और यह किसी समय टूटती नहीं है तो उसे 
ध्रुवास्मृति कहते है। प्रवृत्ति की तरंग तो सबकुछ को ही भुलाकर रखना चाहती है। ध्रुवास्मृति के फलस्वरूप जब ध्येय के अलावा और कोई विषय साधक के सामने नहीं होता है तो उसी अवस्था का नाम समाधि है। इस अवस्था में मन और उसका ध्येय एक हो जाते हैं। यदि सूक्ष्म विचार किया जाये तो यह भी मन की एक निश्चयात्मक  अवस्था है, जो आभोग की सीमा में होने के कारण  इससे शाश्वती  शान्ति  प्राप्त होना संभव नहीं है। किन्तु आभोग से मुक्त होने का क्या है उपाय? विषय वितृष्णा एक प्रकार का ऋणात्मक भाव है, अतः इसका परिणाम भी एक प्रकार कर आभोग ही है क्योंकि यदि इससे स्थूल विषय से हट भी जाय तो भी व्यक्ता प्रकृति के अभाव होने से अवयक्ता प्रकृति या अविषयाभूत प्रकृति में आसक्ति उन्पन्न होती है। चित्त, जड़, या मानस, प्रत्याहार के फलस्वरूप अव्यक्त प्रकृति में वशीकार सिद्धि की अवस्था में  लीन हो जाता है, यह सिद्धि भी चरम सिद्धि नहीं है। भले यह जड़ात्मक नहीं पर निर्बीज  भी नहीं क्योंकि इसमें व्यक्तिकरण की संभावना रहती है, इसे प्रकृतिलीन समाधि कह सकते हैं कैवल्य जैसी नहीं । निर्बीज  समाधि की निरंतरता प्राप्त नहीं होने तक उसे असंप्रज्ञात कह सकते हैं पर मोक्ष नहीं। 
क्रमशः 5..

Monday, 9 December 2019

283 समाधि प्राप्त करने का रहस्य(3)

समाधि प्राप्त करने का रहस्य(3)
किसी विषय को युक्ति तर्क के द्वारा समझ लेने के बाद उसका अनुशीलन करने पर श्रद्धा उत्पन्न होती है। साध्य के प्रति श्रद्धा नहीं होने पर सिद्धि नही मिलती, ‘‘श्रत् सत्यं तस्मिनधीयते  इति श्रद्धा’’। चित्त के सम्प्रसाद को भी श्रद्धा कहा जा सकता है, अर्थात् जिस वस्तु के सान्निध्य में आने पर चित्त की व्याप्ति होती है समझ लो तुम्हे उसके प्रति श्रद्धा है। समाधि चित्त की परम व्याप्ति है इसीलिये श्रद्धा समाधि का प्रथम सोपान है। दीर्घकाल तक यथोपयुक्त भाव से श्रद्धा के साथ अभ्यास करते जाना होगा अन्यथा समाधि दार्शनिक  पुस्तकों का ही विषय बनी रहेगी जीवन के साथ उसका संपर्क नहीं हो सकेगा।
किसी आचार्य ने कहा है इसलिये साधना करने के भाव से  कुछ नहीं मिलता बल्कि जो यह सोचते हैं कि मैं साधना में सिद्धि लाभ करना चाहता हूँ  इसीलिये आचार्य मेरी सहायता कर रहे हैं, उन्हीं  की साधना लक्ष्य प्राप्त कराती है। प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों ही मन की वृत्तियां हैं, जो जिसका जितना अभ्यास करता है उसके लिये वह उतना ही सहज हो जाता है । समाधि का स्थान प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों से अतीत है। प्रवृत्ति, निवृत्ति की साधना में श्रद्धा अनिवार्य नहीं है। समाधि की साधना में किसी वस्तु की भावना के समय यदि कोई अवांछित चिन्ता या मानसिक तरंग उत्पन्न होती रहे तो उसे दूर करने के लिये जिस मनःशक्ति से वह हटायी जाती है उसे कहते हैं वीर्य(valour)। श्रद्धा के परिणाम से ही वीर्य (valour)उत्पन्न होता है।  इस वीर्य(valour) के फलस्वरूप ही अवांछित तरंग के हट जाने से ध्येय विषय की एकतानता या निरविच्छिन्नता प्राप्त होती है।
क्रमशः .. 4

Sunday, 8 December 2019

282 समाधि प्राप्त करने का रहस्य(2)

समाधि प्राप्त करने का रहस्य
प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों ही जागतिक वृत्ति के द्वारा जुड़े होते हैं, क्योंकि कोई भी मनःसाम्य की साधना नहीं है इसलिये इनमें से किसी के द्वारा परम शान्ति (absolute bliss) करना संभव नहीं है। प्रवृत्ति की साधना के लिये वस्तु या भाव विशेष के प्रति राग और उसे प्राप्त करने का अभ्यास तथा निवृत्ति के लिये इनके प्रति द्वेष तथा उससे मुुक्त होने का अभ्यास किया जाता है। प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों के लिये क्रमशः  राग और द्वेष तथा तत्संबंधी प्रयास दोनों की अनिवार्यता है, किसी एक की कमी होने पर सिद्धि प्राप्त करना असंभव है। इसलिये जो निवृत्ति मार्ग के अनुयायी हैं वे घर, माता पिता स्त्री पुत्र सब को माया जाल कहकर संन्नयास लेने को उत्प्रेरित  करते हैं अर्थात् द्वेष त्याग का अभ्यास करने को कहते हैं जबकि समाधि न तो प्रवृत्ति मूलक है और न ही निवृत्ति। वास्तव में वैराग का अर्थ है राग का अभाव, अर्थात् विषयों का दास न होकर उनका समुचित व्यवहार करते हुए ब्रह्म भावना का अभ्यास करते जाना । 
अभ्यास कहते हैं ‘‘तत्रस्थितौ यत्नोअभ्यासः’’ अर्थात् एक विशेष प्रकार की मानस तरंग का क्रमागत अनुवर्तन करते जाने का नाम अभ्यास है। चित्त की साम्यावस्था को स्थायी बनाने का जो  अभ्यास है उसे कहेंगे समाधि का अभ्यास। किसी वस्तु के प्रति राग का अर्थ है उसकी ओर दौड़ना और द्वेष का अर्थ है उस वस्तु के विरुद्ध दौड़ना। साम्यावस्था पाने के लिये दोनों राग तथा द्वेष का वर्जन करना होगा अन्यथा समाधि का अनुभव करना संभव नहीं । 
मन की साम्यावस्था का अभ्यास करते करते साम्यावस्था ही स्वाभाविक हो जायेगी जैसे राग का अभ्यास करने से राग और द्वेष का अभ्यास करने से द्वेष स्वाभाविक होता है। दीर्घकाल के साधना के अभ्यास से ही समाधि में प्रतिष्ठित हुआ जाता है। इसमें किसी प्रकार की दीर्घसूत्रता मान्य नहीं क्योंकि एक बार अभ्यास छूटने पर हजार प्रकार की काम्य धारायें उस स्थान को लेने के लिये आ दौड़तीं हैं। क्रमशः ---3 

Saturday, 7 December 2019

281 समाधि प्राप्त करने का रहस्य (1)

समाधि प्राप्त करने का रहस्य (1)
मन में हमेशा संकल्प और विकल्प आते रहते हैं। संकल्प से इंद्रियों की सहायता लेकर मन जगत में कर्म करता है और विकल्प से विपरीत विचार लाकर कर्म से विपरीत जाने लगता है। मन की इस धनात्मक और ऋणात्मक विचारधारा का साधक जीवन पर क्या प्रभाव पड़ता है? समाधि के साथ उसका क्या संबंध है? साधक यदि कर्म में लगे रहकर समाजसेवा को लक्ष्य मान ले तो इस दशा में क्या उसे समाधि प्राप्त हो सकती है?

समाधि, वास्तव में मन की न तो धनात्मक और न ही ऋणात्मक अवस्था है, यह तो साम्यावस्था है। जैसे जल की शांत निर्वात अवस्था में जब वह सरलरेखाकार होता है तब उसे साम्यावस्था कहा जाता है। चंचल जलराशि की ऊर्ध्व  तरंगें यदि संकल्प और अधोतरंगें विकल्प कहलायें तो, जब ये आपस में घुलमिलकर सरलरेखा में समाहित हो जाती हैं  तब  वह स्थिति  साम्यावस्था कहलायेगी। समाधि में मन की भी यही अवस्था होती है।

संकल्पविकल्पात्मक मन चंचल जलराशि  के समान हमेशा  आन्दोलित होता रहता है और इस आन्दोलन के समय संकल्प और विकल्प दोनों को ही एक बार मन की प्रशान्तवाहिता सरल रेखा को स्पर्श  करते हुए  जाना पड़ता है, इसीलिये प्रत्येक भावना में सभी स्थानों, समयों और पात्रों में एक प्रकार की अस्थायी साम्यावस्था का अनुभव होता है, यद्यपि प्रवृत्ति मूलक कर्म में व्यस्त रहने पर निवृत्ति  और साम्यावस्था दोनों ही असंभव लगती हैं। ठीक इसी प्रकार निवृत्ति मूलक कर्म जिनका स्वभाव हो गया है उन्हें प्रवृत्ति और साम्यावस्था असंभव लगतीं हैं। जल में रहने वाले प्राणी स्थल में और स्थल पर रहने वालों को  जल में रह पाना असंभव लगता है। वस्तुतः इस संदर्भ में व्यक्तिगत प्रयत्न और अभ्यास तथा  प्राकृतिक व्यवस्था ही सबसे बड़ी बात है, संभव या असंभव का प्रश्न  ही नहीं है। जो मनः साम्य की साधना करते हैं उनके लिये मन की प्रशान्त  वाहिता ही स्वाभाविक हो जाती है प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों असंभव हो जाते हैं। क्रमशः  .. (2)