Thursday, 24 September 2020

341 शोषण की कला (3)

छद्म संस्कृति, लोगों को रीढ़बिहीन बनाकर सरलता से शोषण कर पाने के अनुकूल वातावरण बनाती है। मानलो किसी समूह के पास कला का समृद्ध खजाना है (सिनेमा, थिएटर आदि,) परन्तु उस समूह के लोगों के पास धनी लोगों की संख्या अपेक्षतया कम है और दूसरे समूह के पास इसका बिलकुल उल्टा है तो इस दूसरे समूह के लोग पहले समूह की सांस्कृतिक धरोहर, जो कि उन्नत है, को शोषित करने के लिये मनोआर्थिक रूप से पंगु बनाकर शोषण करते रहेंगे। इसके लिये वे इन लोगों से गन्दे सिनेमा और ड्रामा आदि का काम कराने लगेंगें । 

सभी जानते हैं कि हमारे मन का एक गुण यह है कि वह सदा ही ऊपर की ओर जाने की तुलना में नीचे की ओर जाने में सुख की अनूभूति करता है । इस लिए अपने धन के प्रभाव से इस प्रकार के लोग गंदे सिनेमा और ड्रामा आदि को थोपकर उनकी रीढ़ को ही तोड़ देंगे। फलस्वरूप, फिर वे मानसिक रूप से अपंग लोग कभी अपनी संस्कृति अथवा अन्य प्रकार के शोषण के विरुद्ध एकता से खड़े नहीं हो सकेंगे। उन लोगों में  इन शोषकों के विरुद्ध अपना सिर ऊंचा उठाने की दम ही नहीं बचेगी ।

इस प्रकार के मनोआर्थिक शोषण और छद्म संस्कृति के पोषण के विरुद्ध हर ईमानदार, सद्गुणी और विवेकशील व्यक्ति को संघर्ष करना चाहिए इतना ही नहीं उन्हें दूसरों को इस कार्य हेतु प्रोत्साहित भी करना चाहिए। यदि यह नहीं किया गया तो मानवता का भविष्य बंधक बन जायेगा। यह उचित है कि मनुष्य राजनैतिक स्वतंत्रता और सामाजिक मुक्ति के लिए संघर्ष करे परन्तु यदि उनकी सांस्कृतिक रीढ़ को ही तोड़ दिया जाएगा तो उनका संघर्ष करना वैसा ही सिद्ध होगा जैसे बुझी अग्नि में घी का होम करना। यह अपसंस्कृति हमारी रीढ़ और गर्दन को ही तोड़ती जा रही है ताकि हम कभी सीधे खड़ ही न हो सकें।

यह हमारे देश का ही नहीं , पूरे संसार का रोग है । क्या यह सद्गुणी लोगों का कर्तव्य नहीं है कि इन सरल और सताए हुए लोगों को इस प्रकार के शोषण से बचाने का उपाय करें ? ये  निरपराधी लोग बली का बकरा बनने के लिए क्यों विवश हों? यह असहनीय है। इसलिये यदि आप सच्चे अर्थो में मानव हैं तो  एक ओर तो अथक आध्यात्मिक साधना कर आत्मसाक्षात्कार की ओर बढ़ते जाएं और उतनी ही तेज गति से बाहरी संसार में फैलाए जा रहे अविवेकपूर्ण, अवांछनीय और क्षतिकारक सिद्धान्तों रोकने के लिये कटिबद्ध हों । हमारा मनुष्य होना तभी सार्थक कहलाएगा जब संसार का प्रत्येक व्यक्ति आर्थिक  रूप से स्वतंत्र हो जाएगा।  


340 शोषण की कला (2)

धर्म के ठेकेदार जिन्हें लोग पंडित कहते हैं, वे धनी व्यापारियों को भविष्य में व्यवसाय के फलने फूलने और उन्नति करने का आशीर्वाद देते देखे जाते हैं परन्तु उन गरीब भक्तों का मुंह भी देखना नहीं चाहते जो उन्हें भारी दक्षिणा नहीं दे पाते। यह भी देखा जाता है कि धार्मिक शोषण जारी रखने के लिये अनेक धार्मिक कहानियाॅं गढ़ ली गई हैं जिनका कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है और तर्क पर भी खरी नहीं उतरती, परन्तु वे जानते हैं कि मनुष्य की कमजोरियों को इन कथाओं के द्वारा आसानी से दोहित किया जा सकता है।

अतार्किक और अविवेक आधारित गति को ‘डोग्मा या भावजड़ता’ कहा जाता है। इन डोग्माओं के समूह को ‘वाद अर्थात् इज्म’ कहते हैं। जब इन डोग्माओं और वादों के प्रवर्तकों और अनुयायियों ने अपने व्यक्तित्व से करिश्मा करने का गुण खो दिया तो उन्होंने इसे ईश्वर के नाम पर प्रचारित करना शुरु कर दिया । इस प्रकार कभी वे यह कहते पाये गए कि ईश्वर ने उन्हें स्वप्न में यह करने और उसका पालन कराने को कहा है और जो इसका पालन नहीं करेगा उसे नर्क भोगना पड़ेगा। इस प्रकार लोगों के मनो में भावग्रथियों की जटिलता भर कर और भय फैलाकर इन डोग्माओं द्वारा शोषण किया जाता रहा है और आज भी जारी है।

ईश्वर के नाम पर अवतारवाद को जन्म देकर इन परजीवियों ने अपने काल्पनिक वादों अर्थात् डोग्माओं को फैलाया और जिन्होंने तार्किक और विवेकपूर्ण ढंग से असहमति दी उन्हें नास्तिक कहकर पापी घोषित कर दिया। इस प्रकार अनेक दार्शनिकों के बहुमूल्य अनुसंधानों को अपने व्यक्तिगत हित साधने के उद्देश्य वालों द्वारा नष्ट कर दिया गया।

मनुष्यों के पास उन्नत बुद्धि और निर्णय लेने के लिये विवेक होता है, वे इसके द्वारा उचित अनुचित का निर्णय लेकर सही सही अपने धर्म का पालन करते हुए आध्यात्म की ओर बढ़ें। जिनके पास उन्नत विवेक नहीं है उनके पास यह क्षमता अवश्य है कि वे इसे पाने का प्रयास कर सकते हैं और एक दिन उन्नत बौद्धिक स्तर पा सकते हैं। यदि यह अवसर पाने के बाद भी वे अपनी क्षमता का विवेकपूर्ण उपयोग नहीं करते हैं तो निश्चित ही वे अधोगति पाएंगे। इसलिये उन्हें यह गलती नहीं करना चाहिए।


339 शोषण की कला (1)

 आकर्षक सुन्दर और सबसे अलग दिखने की इच्छाओं ने संसार की सभी महिलाओं को नई नई चिन्ताओं में डाल रखा है। जिनका रंग साॅंवला है वे गोरा होना चाहती हैं, जिनकी लम्बाई कम है वे लम्बा होना चाहती हैं, सभी अपने बालों को घना और लम्बा बनाना चाहती हैं। कुछ अपनी नाक और आंखों की बनक ठनक को और निखारना चाहती हैं। अपनी शारीरिक संरचना को और आकर्षक बनाने के लिये कोई कसर नहीं छोड़तीं। सभी सुपर माडल्स की तरह दिखने के लिये अथक प्रयास करते देखी जाती हैं। उनकी इस कमजोरी का फायदा कास्मेटिक उद्योगपतियों द्वारा नये नये प्रकार के उत्पाद बनाकर उठाया जा रहा है और यह उद्योग मल्टी मिलियन डालर तक जा पहॅुंचा है। सच्चाई यह है कि गोरे काले या आकर्षक और अनाकर्षक होने का हीनभाव इन्हीं के द्वारा फैलाया जाता है, महिलाओं में सुन्दर न दिखने पर असम्मान और असुरक्षा की भावनायंे पैदा कर डरा दिया जाता है। और फिर अपने उत्पादों को बेच कर मनोआर्थिक रूप से शोषण करते हुए धन का दोहन करने के उपाय ढूंढे जाते हैं। पूॅंजीपतियों के इस भयावह खेल की विधि यह है कि मनोवैज्ञानिक रूप से पहले यह हीन भावना पैदा करता है जिससे महिलायें अनेक प्रकार के मानसिक लकवे का शिकार हो जाती हैं फिर वे उनका आर्थिक रूपसे शोषण करने में सफल हो जाते हैं। इतना ही नहीं वे स्थानीय भाषा और संस्कृति को दबाकर एक छद्म संस्कृति का रोपण कर इसी का प्रचार करने लगते हैं। 

इस प्रकार युवाओं का मन प्रदूषित कर उनकी जीवन्तता की अनदेखी करते हैं। पुराने अतार्किक और अमनोवैज्ञानिक साहित्य के उदाहरण देकर महिलाओं पर सैकड़ो बंधन लगाये जाते हैं जिससे वे पुरुषों पर आर्थिक रूपसे आश्रित बनी रहें। अपने धन के प्रभाव में ये लोग संचार माध्यमों जैसे समाचार पत्र, रेडियो टेलीविजन आदि को लेकर अपना जाल फैलाये रहते हैं। स्पष्ट है कि यदि सचमुच महिलाओं को अपना स्तर पुरुषों के समान लाना है तो इन धोखेवाजों से सावधान रहकर अपनी मानसिकता को बदलना होगा। इसका अर्थ पुरुषों के समान अधिकार पाना नहीं वरन् अपने अधिकारों को मान्यता दिलाना होना चाहिए। इस अभिशाप से पूरी तरह मुक्त होने के लिये क्या किया जाना चाहिए? न तो पूरी तरह उन उद्योगपतियों को दोष दिया जा सकता है न ही उन महिलाओं को जो अपने को कम सुन्दर मानकर अधिक सुन्दर होने के प्रयासों में इनके द्वारा बार बार शोषित की जाती हैं। इसका उचित समाधान यही है कि शोषकों का हर स्तर पर विरोध हो और शोषितों को इतना शिक्षित किया जाए कि अपनी दशा सुधारने और आगे बढ़ने की समझ आ सके।


Wednesday, 23 September 2020

338 भक्ति के तीन स्तर

 पहले स्तर पर अहंकेन्द्रित लोग होते हैं जो यह मानते हैं कि ‘‘ मैं हॅूं और मेरे भगवान भी हैं।‘‘ इसमें मुख्य बिन्दु अपने को प्राथमिकता देना है और भगवान को दूसरा।

दूसरे स्तर पर भक्त का मन समाज सेवा और साधना के प्रभाव से ईश्वर के अधिक पास आ जाता है और वह उनकी कृपा से उनके ही बारे में अधिक सोचता है और अपने बारे में कम। यह तभी होता है जब वह ईश्वर से प्रेम करने लगता है ठीक उसी प्रकार जैसे माॅं अपने शिशु के बारे में अपने से अधिक सोचने लगती है। वह अनुभव करने लगता है कि , मेरे प्रभु हैं और मैं भी हॅूं। 

जब साधना करते करते ध्यान में स्थिरता आ जाती है तब भक्त अपने अस्तित्व को भूल जाता है और अनुभव करता है कि केवल परमपुरुष का ही अस्तित्व है। यही भक्ति का अंतिम तीसरा स्तर है। तीनों ही स्थितियों में परमपुरुष का होना अनिवार्य होता है। जहाॅं पहले स्तर पर अहंभाव को प्रथमिकता दी गई होती है वहीं दूसरे स्तर पर अनुभव होता है कि परमपुरुष ही मुख्य हैं और चरम स्तर पर परमात्मा के प्रति असीम प्रेम स्थापित हो जाने के कारण भक्त अपने अस्तित्व को भूल जाता है और परमपुरुष के साथ एक हो जाता है।


Tuesday, 15 September 2020

337 उन्नत और कमजोर मन


कल्पना करो कि कोई उद्दंड व्यक्ति सामने खड़ा है, वह इतना दुष्ट है कि तुम्हारी इच्छा उसे थप्पड़ मारने की होती है परन्तु वास्तव में तुम यह करते नहीं हो। यह तो तभी होता है जब तुम निर्णय कर लेते हो कि  इस उद्दंडी को सबक सिखाना चाहिए तभी तुम्हारे हाथ उठते हैं और उसे आघात पहुंचाते हैं। अर्थात् आन्तरिक इच्छा बाहर प्रकट होने के लिए प्रबल हो उठती है तभी हाथ कार्य करने लगते हैं। महान व्यक्ति वह है जिसका अपने विचारों के बाहरी प्रदर्शन करने पर नियंत्रण है। कोई विचार भौतिक रूप से हमेशा प्रदर्शित नहीं होगा। किसी के मन में किसी को चोट पहुंचाने अथवा किसी की वस्तु चुराने का विचार आ सकता है परन्तु आत्म नियंत्रण होने के कारण वह हमेशा कार्य रूप में नहीं लाया जा पाता । अब मानलो किसी भिखारी को अंधेरे में, ठंड में सिकुड़े, रोड के किनारे देख कर  तुम्हारी आंखों में उसकी दयनीय दशा पर आंसू आ जाते हैं और उसे खाना और सहारे का प्रबंध करने लगते हो तब यह आंसू आना कमजोर मन का सूचक नहीं है। इस प्रकार का मन सुप्रवृत्तियों वाला उन्नत मन कहा जाएगा। निष्कर्ष यह  कि वे जो अनिष्टकारक वृत्तियों को तत्काल प्रदर्शित करने लगते हैं कमजोर मन कहलाते हैं इसके विपरीत कल्याणकारक वृत्तियों वाले उन्नत मन। किसी को कष्ट में देखकर यदि उसे बचाने दौड़ पड़ते हो तो यह उन्नत मन का द्योतक है।

336 राधा कौन है?


परमपुरुष ही केवल सत्य हैं और निर्पेक्ष सत्ता हैं। जैसे जैसे जीव, परमपुरुष की ओर बढ़ते जाते हैं उनका मन उन्नत होता जाता है। जब वे उन्नति के सूक्ष्म स्तर पर पहॅुंच जाते हैं तब उनका मन एकाग्र होकर उनकी ओर तेजी से दौड़ने लगता है। इस प्रकार की मानसिकता ही राधा कहलाती है। जब ऐसे भक्तगण अपने हृदय की गहराई से यह अनुभव करने लगते हैं कि परमपरुष को पाए बिना उनका एक भी क्षण जीवित रह पाना संभव नहीं है तब कहा जाता है कि उन्होंने राधा भाव को पा लिया है। इस प्रकार के भक्त आराधना (अर्थात् मन का पूर्णरूपेण समर्पण) के अलावा कुछ नहीं जानते और न जानना चाहते हैं। कुछ विद्वान मानते हैं कि राधा, वृन्दावन की किसी महिला का नाम है, परन्तु यह सत्य नहीं है। परमपुरुष के उन्नत भाव में डूबे प्रथम श्रेणी के भक्त ही राधा कहलाते हैं चाहे वे पुरुष हों या महिला।


Saturday, 12 September 2020

 335 राधा का डमरू

‘‘क्या बात है, आज तो बहुत ही उदास लग रहे हो, ऐसा तो कभी नहीं देखा?‘‘

‘ हाॅं, पिछले सत्तर वर्षों का लेखा जोखा देख रहा था, कुल उपलब्धियाॅं शून्य ही आईं हैं।‘‘

‘‘कैसे? मैं कुछ समझी नहीं ।‘‘ 

‘‘देखो न! खूब मेहनत कर अफसर बना, कितने लोग सेल्यूट करने लाइन में लगे रहते, कितना रुतवा था, बच्चों को भी अपने से अधिक अच्छा बनाया, धन भी खूब कमाया, पर आज रिटायर हुए दस वर्ष हो गये अब लगता है कुल उपलब्धियाॅं कुछ नहीं हैं।‘‘ 

‘‘इतना सब क्या कम है?‘‘

‘‘ किसे इतना सब कहती हो? आज भूल से भी कोई नमस्कार नहीं करता, बच्चे सब विदेश में बस गये, दोस्त भी बिछुड़ते जा रहे, नौकर चाकर भी उतने लवलीन नहीं रहे, यह धन भी बीमारियों के कष्ट को तत्काल दूर नहीं कर पाता! क्या मैं गलत कहता हॅूं?‘‘ 

‘‘ अच्छा! अब समझी। शिवजी का डमरू यह समझने लगा कि शिवजी को प्रणाम करने वाले लोग उसे प्रणाम कर रहे हैं ।‘‘

‘‘क्या मतलब?‘‘

‘‘ तुम्हारे दुख का कारण है तुम स्वयं हो जो बार बार कहते हो मैं ऐंसा था, मैंने यह किया, वह किया, मैं, मैं, मैं । यह सबसे बड़ी भूल है उसी डमरू की तरह।‘‘

‘‘ तो क्या मैं गलत कहता हॅूं?‘‘

‘‘बिलकुल। सुनो! कक्षा दसवीं में वादविवाद प्रतियोगिता हार जाने पर बड़े दुख पूर्वक विलाप करते हुए मैं, माॅं के सामने यही कह रही थी कि मैं ने कितना पराक्रम किया , कितनी पुस्तकें पढ़ी , दिन रात एक कर दिये, सभी श्रोताओं ने मेरे प्रदर्शन को कितना सराहा आदि, पर सब कुछ शून्य में बदल गया। इस पर पिताजी बोले, राधा! जब तक तुम किसी अपेक्षा को लेकर कार्य करती रहोगी तुम्हें दुख ही मिलेगा, पर जब तुम नाटक के कलाकार की तरह यह सोचकर कार्य करोगी कि वह तो निर्देशक के निर्देशों से बंधा है इसलिये अपनी प्रत्येक  भूमिका उसी को प्रसन्न करने के लिये है चाहे उसमें उसे रोना पड़े, हॅंसना पड़े, भीख माॅंगना पड़े, झाड़ू लगाना पड़े या लड़ना भिड़ना पड़े । जिस प्रकार कलाकार को नाटक में जैसी भूमिका दी जाती है उसे वैसा ही प्रदर्शन करना पड़ता है उसी प्रकार इस सृष्टि मंच के हम सब कलाकार हैं और सृजनकर्ता परमात्मा निर्देशक । हमें निर्पेक्ष होकर, उसी की प्रसन्नता के लिये, उसका कार्य समझकर , जीवन के सभी कार्य करना चाहिये तभी सच्चा आनन्द मिलता है, अन्यथा डमरू की तरह दंभ भरते रहो पर अंत में रह जाता है केवल खड़ खड़ खड़ करना।‘‘

‘‘यह क्या दार्शनिकों की तरह बात करती हो?‘‘

‘‘ हाॅं ! यही सच्चा जीवन दर्शन है, मैं ने तो तभी से हर कार्य, ईश्वर  की प्रसन्नता के लिये उन्हीं का कार्य समझते हुये, बिना किसी अपेक्षा के करने का प्रण कर लिया था, चाहे पढ़ना लिखना हो, बालबच्चे पालना हो, घर गृहस्थी सम्हालना हो, या सामाजिक नाते रिश्ते निभाना हो। बस मैं तो सदा यही सोचती हॅूं कि मेरी प्रत्येक भूमिका से उन्हें लगातार प्रसन्नता मिले भले मुझे कितना ही कष्ट क्यों न उठाना पड़े।‘‘

‘‘ ओह, राधा! तुम तो सचमुच की राधा निकलीं परंतु मैं ही शायद अपने को श्याम नहीं बना पाया! ! !‘‘


Tuesday, 8 September 2020

334 ब्लडप्रेशर का आयुर्वेदिक उपचार

 

हाई ब्लडप्रेशर या उच्च रक्तचाप की बीमारी साधारणतः अपरिमित इच्छाओं, आकांक्षाओं, स्पर्धा की दौड़ में आगे बढ़ने के कारण आए तनाव के कारण होता है। कभी कभी यह आनुवांशिकता या दवाईयों के दुष्प्रभाव के कारण भी होता है।

मनुष्य आराम पाने की होड़ में प्रकृति से दूर होता जा रहा है। इसलिए सबसे पहले जरूरी है शरीर और मन के बीच सही तालमेल को बनाए रखना। प्राकृतिक चीजें मन से तनाव को कम करने और मेटाबॉलिज्म को बढ़ाने में मदद करते हैं। इसके साथ ही योग अभ्यास मन को शांत करके रक्तचाप को कम करने में भी सहायता करता है।

इसके उपचार के बारे में जानने के पहले यह जानते हैं कि हाई ब्लड.प्रेशर और हाइपरटेनशन के बीच अंतर क्या है। जब हृदय के  स्पंदन से रक्त संचार पर अतिरिक्त दबाव उत्पन्न होता है तब उस अवस्था को हाई ब्लड प्रेशर या उच्च रक्तचाप कहते हैं।

मगर जब उच्चरक्तचाप की स्थिति लंबे समय तक बनी रहती है तब उस अवस्था को हाइपरटेनशन कहते हैं। हृदय पर रक्त को पंप करने में जो दबाव पड़ता है उसको सिस्टोलिक प्रेशर कहते हैं और हृदय के दो धड़कनों के बीच के आराम के अवस्था को डायस्टोलिक प्रेशर कहते हैं। इन दोनों के बीच सामान्य स्तर 120ः80 (mm of mercury) होना चाहिए।

उच्च रक्तचाप साधारणतः रक्त के गाढ़ा हो जाने के कारण होता है क्योंकि इससे धमनियों और नसों में रक्त का संचार अच्छी तरह से नहीं हो पाता है जिसके कारण हृदय को, रक्त को पंप करने में अधिक दबाव उत्पन्न करना होता है। उच्च रक्तचाप कोई सामान्य बीमारी नहीं हैं, इसको साइलेन्ट किलर भी कहते हैं।

उच्च रक्तचाप के मूल कारणों में. अत्यधिक मात्रा में नमक का सेवन, धूम्रपान और शराब का सेवन, महिलाओं में हॉर्मोन के बदलाव के कारण, किसी विशेष दवा के कारण, रात को देर तक जागने के कारण, अत्यधिक मानसिक तनाव, या मोटापे के कारण भी होता है। उच्च रक्तचाप के कारणों के साथ लक्षणों के बारे में भी पता होना चाहिए ताकि आप आसानी से यह समझ सकें कि आप इस बीमारी का शिकार हो रहे हैं. मोटापा, सर दर्द, दिल का धड़कन तेज होना, बार.बार क्रोध आना, कान या चेहरे से आग जैसे गर्म निकल रहा है ऐसा महसूस होना, थकान महसूस होना, नींद न आना, रक्त चाप बहुत बढ़ जाने पर नाक से खून आना आदि। 

निम्नांकित तरीके से भी रक्तचाप को नियंत्रित किया जा सकता है।

1 सबसे पहले खुद को तनावमुक्त और शांत रखने के लिए नियमित रूप से सुबह टहलने के लिए जाएं। हो सके तो नंगे पांव हरी घास पर कम से कम बीस मिनटों तक चलें।

2 रोज सुबह बिना नमक और चीनी के नींबू पानी पीने से उच्च रक्त चाप को नियंत्रण में लाया जा सकता है।

3 एक महीना तक कम से कम आधा किलो पका पपीता खाने से भी रक्तचाप को नियंत्रित किया जा सकता है।

4 जरूरत के अनुसार खसखस और तरबूज के मगज को एक साथ पीस लें और रोज सुबह एक चम्मच खाली पेट तीन.चार हफ्तों तक इसका सेवन करें।

5 सब्जी खाना तो बहुत अच्छा होता है लेकिन उबला हुआ आलू खाना बहुत अच्छा होता है क्योंकि उसमे सोडियम नहीं होता है।

6 पालक और गाजर को पीसकर सुबह शाम एक गिलास पीने से रक्तचाप कम होता है।

7 मदिरा, अंडा, मांस, मिठाई, चॉकलेट का सेवन वर्जित होता है।

8 तुलसी के दस पत्तों के साथ नीम के तीन पत्तों का सेवन सात दिन तक करने से लाभप्रद फल मिलता है।

9 त्रिफला, हाइपरटेनशन पर प्रभावकारी रूप से काम करता है।

10 अश्वगंधा न सिर्फ उच्चरक्तचाप को कम करने में मदद करता है बल्कि सूजन और तनाव को भी कम करने में मदद करता है।

11 अर्जुन की छाल का काढ़ा, तनाव के दौरान जो हॉर्मोन निकलता है उसको नियंत्रित करने में मदद करता है। इस वजह से यह रक्तचाप को कम करने में भी मदद करता है।

इन सबके अलावा आपको अपने आहार में फल और सब्जी की मात्रा, नमक की मात्रा, व्यायाम, स्वास्थ्य  वर्धक जीवनशैली, इन सब बातों पर ध्यान रखना पड़ेगा।


333 सोचने का खतरा


मनोविज्ञान का यह सर्वमान्य सिद्धान्त है कि ‘‘जैसा कोई सोचता है वैसा ही हो जाता है‘‘ इसलिये कुछ भी सोचने के पहले बहुत ही सावधान रहने  की आवश्यकता होती है। इस सिद्धान्त पर मनन करने पर यह स्पष्ट होता है कि हमें अपनी सोचने ओर विचार करने पर नियंत्रण होना चाहिये क्योंकि यदि कोई पदार्थ के संबंध में सोचता है तो धीरे धीरे वह पदार्थ ही होता जायेगा । आध्यात्म में यह प्रमाणित किया गया है कि ‘मन‘ का स्वभाव यह है कि वह सोचने वाले विषय या वस्तु का आकार ग्रहण कर लेता है। मानलो कोई व्यक्ति धन या किसी तुच्छ वस्तु का चिंतन करता है तो एक समय बाद वह उसी का आकार प्राप्त कर लेता है। इसी लिये भगवद्गीता में भी कहा गया है ‘ यादृशी भावना यस्य सिर्द्धिभवति तादृशी‘ अर्थात् जिसकी जैसी भावना होती है उसे वैसा ही फल भी मिलता है। अर्थात् मानलो कोई खाने का ही शौकीन है और जब भी मौका मिलता है खाने को प्राथमिकता देता है तो यह अधिक संभव है कि वह अगले जन्म में सुअर का शरीर पाये, ऐसे ही यदि कोई सबसे तेज दौड़ने  की इच्छा करता रहता है तो वह आगे हिरन का शरीर पाये। इसलिये, एक सेकेंड से अधिक किसी इच्छा पर विचार करते हुए देर की गयी तो उसकी प्रतिक्रिया अवश्य उत्पन्न हो जाती है। चोरों के बारे में कोई लगातार सोचता रहे तो कुछ समय के बाद चोरी करने के विचार उसके मन में जन्म लेने लगते हैं। इसलिये इस प्रकार के अवाॅंछित विचारों को मन में उत्पन्न ही नहीं होने देना चाहिये, यदि कभी भूल से इस प्रकार के निकृष्ट विचार आ ही जायें तो तत्काल उन्हें परमपुरुष की ओर प्रेषित करते हुए कहना चहिये हे प्रभु तुम्हारी इच्छा ही पूरी हो। हमेशा ही आध्यात्मिक भक्तिभाव का ही आदर्श सामने रखना चाहिये परंतु दुर्भाग्य यह है कि इस पूंजीवादी युग में सभी लोग अपने मन को नाम, यश, द्वेष, तनाव, क्रोध, भय, शत्रु , बीमारी, पर ही सोचने में लगाये रहते हैं अतः मन की आधी ऊर्जा तो इसी की उधेड़ बुन में खर्च हो जाती है । स्पष्ट है कि मन जितना पतन की ओर जायेगा समस्या उतनी ही गंभीर होती जायेगी।

अनियंत्रित सोच और अनावश्यक चिंतन मानसिक और भौतिक व्याधियों का भी कारण बनता है। इसलिये सभी को इस बात को अवश्य ध्यान में रखना चाहिये कि हम जैसा सोचते हैं वैसा ही हो जाते हैं अतः क्या सोचना चाहिये और क्या नहीं इसकी समझ गंभीरता से विकसित कर लेना चाहिये। आपकी सोच आपके पूरे अस्तित्व को ही बदल देती है। इसलिये इस समस्या के दूसरे पक्ष की सहायता लेकर ही समीकरण संतुलित किया जा सकता है और वह है अपने सभी विचारों को केन्द्रित कर प्रत्येक समय परमपुरुष की ओर प्रेषित करते जाना। इस विधि से मन के अनेक भ्रम और बंधन नष्ट होने में देर नहीं लगती और मन भी परमपुरुष की ओर आगे बढ़ने लगता है। वास्तव में मन के केन्द्रित प्रवाह को जब परमपुरुष की ओर प्रेषित कर दिया जाता है तो इसे ही आध्यात्मिक चिंतन कहते हैं। इससे मन में धनात्मक विचार आते हैं और मन अपने लक्ष्य से पृथक नहीं हो पाता। इस चिंतन में ब्रेन सैल, उच्चतर स्तर का मनोविज्ञान, केन्द्रीकृत मानसिक प्रवाह, गुरुचक्र और भक्ति भाव ये सभी जुड़ जाते हैं। अनेक लोग प्रकृति के विभिन्न रूपों को पूजते हैं उन्हीं के आकार प्रकार का चिंतन करते हैं अतः इस सिद्धान्त के अनुसार अन्त में वे प्रकृतिलीन अवस्था में आ जाते हैं।  वे पत्थर, लकड़ी या धातु के रुप में असीमित समय तक बने रहते हैं, बोलो ! यह कितनी भयावह स्थिति है। चंूकि हमारे विचार हमारी प्रगति को प्रभावित करते हैं अतः हमें अपने विचार प्रत्येक क्षण परमपुरुष के भावों में ही जोड़े रहना चाहिये ताकि अन्त में हम परमपुरुष को ही प्राप्त हों जो कि मानव जीवन का लक्ष्य है।

 स्पष्टतः, अपने मानसिक विषय को बड़ी ही सावधानी से ही चुनना चाहिये। आज कल हम सभी ‘योग‘ के संबंध में अनेक प्रकार की वार्तायें सुनते और प्रदर्शन देखते हैं परंतु वे केवल भौतिक अभ्यासों अर्थात् फिजीकल ट्रेनिंग के अलावा कुछ नहीं होते, इसी प्रकार प्राणायाम की भी अनेक क्रियाएं दिखाई जाती हैं और बड़ी बड़ी बातें की जाती हैं।  ‘योग‘ वह नहीं है जैसा आजकल प्रचारित किया जा रहा है या टीव्ही में दिखाया जाता है, वास्तव में योग के संबंध में  प्रमाणित परिभाषा है‘‘ संयोगो योगो इत्युक्तो आत्मनो परमात्मनः‘‘  अर्थात् इकाई चेतना का परमचेतना के साथ मिल जाना ही योग कहलाता है। यह तभी हो सकता है जब कोई व्यक्ति परमपुरुष के साथ अपना मधुर प्रेम संबंध बना लेता है। इसी प्रकार प्राणायाम केवल एक ओर से साॅंस खींचकर दूसरी ओर छोड़ना और लेना ही नहीं है उसका अर्थ है प्राणों को आन्दोलित करना अर्थात् नया आयाम देना । इसमें, किस प्रकार श्वास छोड़ना या लेना, मन का चिंतन कहाॅं और क्या होना और कितनी संख्या तक किस वातावरण में किया जाना यह सब महत्वपूर्ण विचारणीय विंदु होते हैं जिन्हें इसके कुशल जानकार से ही सीखना चाहिये।  


332 भाभुकता और भक्ति


भाभुकता और भक्ति के बीच अन्तर यह है कि भाभुकता में मन किसी विधि विशेष का पालन नहीं करता परंतु सनक में कहीं भी किसी भी दिशा में बहने लगता है, जबकि भक्ति में वह किसी निर्धारित विधि का पालन करते हुए विशेष रास्ते से अनुशासन में चलता है। इस एकीकृत व्यवस्था का पालन करने वाले लोग मानते हैं कि बौद्धिक सह बोधि, क्रियात्मकता तथा भक्ति सह भाभुकता में पारस्परिक उत्तम मेल होना चाहिये। इनमें से कोई भी महत्वहीन नहीं है, परंतु अन्तिम रूप से भक्ति ही सबका सार निकलता है। एक बात और ध्यान में रखना चाहिये कि भक्ति से बहने वाले आंसु आनन्द देते हैं और यह आनन्द स्थायी होता है जबकि भाभुकता के आंसु उदासी और हानि पर आधारित होते हैं। अपने भूतकाल में बहाये गये आंसुओं की विवेचना करके हम जान सकते हैं कि कौन से आंसु भक्ति में और कौन से भाभुकता में बहे थे। विश्लेषण करने पर हम पाते हैं कि
(1) जिनमें धनात्मक स्थायी परिणाम नहीं मिला वे निर्णय अवश्य ही भाभुकता में लिये गये होगे। जैसे दूसरों को देखकर कार खरीद तो ली परंतु उसका कोई अधिक उपयोग नहीं , एक स्थान पर रखी है ।
(2) जो दीर्घस्थायी और लाभदायी उपलब्धियों से भरे होते हैं वे निर्णय निश्चय ही भक्ति अथवा दिव्यता पर आधारित होते हैं। जैसे किसी ने यह निर्णय ले लिया कि बस अब तो उन्हीं का साथ करेंगे जो सात्विक हैं भक्तिभाव से प्रेरित हैं और मुक्ति मार्ग पर चल रहे हैं तो उनके जीवन में आने वाला परिवर्तन स्थायी आनन्द और भविष्य की उज्ज्वलता लाता है। 
एक और बात यह भी है कि कोई भी केवल तर्क और कारण के आधार पर सक्रिय नहीं होता जब तक कि उसके हृदय में भावना नहीं उठती। जैसे समाचार पत्र में भूकम्प के बारे में पढ़ कर कोई तब तक सक्रिय नहीं होता जब तक उसे यह न बताया जाये कि उस भूकम्प वाले क्षेत्र में उसका अपना निकटतम संबंधी है। इसलिये जीवन के अधिकाॅंश निर्णय भाभुकतावश या फिर दिव्य प्रेम अर्थात् भक्ति भाव से लिये जाते हैं। जैसे , आधी रात में कोई माॅं अपने बीमार बच्चे को अस्पताल ले जा रही है, कोई बच्चा अपने अन्य मित्रों के साथ मिठाई पाने के लिये दौड़ रहा है, किसी अत्यधिक प्रिय की प्रतीक्षा में देर से घूप में खड़े हैं, इन सभी स्थितियों में लोग तभी सक्रिय होते हैं और उपलब्धि पाते हैं जब उनके मन में अपने लक्ष्य के प्रति लगाव और हृदय से भावना जागृत होती है। हृदय की यह भवना भाभुकता वश है या भक्ति के द्वारा मार्गदर्शित, इसी अन्तर के आधार पर महानता फलित होती है। भावनाओं में बह कर लिये गये निर्णय अल्प कालिक होते हैं उनसे सार्वभौमिक कल्याण की आशा नहीं की जा सकती। भक्ति में भक्त का हृदय स्थायी प्रवाह में होता है जो आजीवन अपने लक्ष्य की ओर जाने में सहायता करता है । भक्त की सभी भावनायें परमपुरुष से जुड़ी होने के कारण उसके मन में दुख या क्षोभ प्रवेश ही नहीं कर पाते। इस प्रकार भक्ति और भाभुकता में बहुत अंतर होता है।

भाभुकता प्रेय की ओर अर्थात् भौतिक जगत की ओर मन को खींचती है जबकि भक्ति श्रेय की ओर अर्थात् परमपुरुष की ओर ले जाती है, इसलिये यह कहा जा सकता है कि परमपुरुष की ओर ले जाने वाली भाभुकता ही भक्ति है। भक्ति पूर्णतः व्यावहारिक होती है और वास्तविक जीवन का आनन्द देती है क्योंकि  परमपुरुष आनन्द स्वरूप हैं। भक्ति और भाभुकता में एक बात समान होती है वह है दोनों में आंसुओं का आना । अब प्रश्न यह है कि आंसुओं के आधार पर कैसे जाना जाय कि यह भक्ति के हैं या भाभुकता के? भक्ति के आंसु आनन्दाश्रु कहलाते हैं क्योंकि वे आनन्द प्राप्त होने के  फलस्वरूप आते हैं और आंखों में ये बाहरी किनारों की ओर से गालों पर टपकते हैं। जब किसी कष्ट के कारण या किसी बात से मन के दुखी होने पर मन भावना प्रधान होने लगता है तब आंसु आंखों के भीतरी किनारों से सीधे नीचे गिरने लगते हैं इन्हें शोकाश्रु कहते हैं। भौतिक वस्तुएं कितनी ही प्रिय क्यों न हों वे क्षणभंगुर ही होती हैं, कभी हॅंसाती हैं कभी रुलाती हैं परंतु एक दिन वे तुम्हें छोड़कर चली ही जाती हैं सदा नहीं रहती । इसलिये परमपुरुष से प्रेम करना ही बाॅंछनीय है यही स्थायी आनन्द दे सकता है क्योंकि वह अजर अमर हैं।

Wednesday, 2 September 2020

331 पाप, कष्ट और भाग्य

 

इसे अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि किसी को प्राप्त होने वाले कष्ट का वास्तविक प्रकार पूर्व निर्धारित नहीं होता। यह नहीं कहा जा सकता कि किसी प्रतिक्रिया की मूल क्रिया क्या है। यह पूर्वनिर्धारित नहीं होता कि यदि किसी ने कोई वस्तु चुराई है तो प्रतिक्रिया स्वरूप उसे भी उतने मूल्य की चोरी का सामना करना होगा। कष्ट का निर्धारण उस मानसिक कष्ट के तुल्य आंका जाता है जो किसी की चुराई गई वस्तु से उस व्यक्ति को प्राप्त हुआ है। इसलिए क्रिया की प्रतिक्रिया का माप, मानसिक रूप से प्राप्त होने वाले सुख या दुख के स्तर के अनुसार अनुभव होता है। अतः वास्तविक शारीरिक सुख या दुख के अनुभव के प्रकार का अपेक्षतया कोई महत्व नहीं होता। 

एक अन्य परिदृश्य के अनुसार कुछ धर्मो के लोग रास्ते में पड़े किसी व्यक्ति को कष्ट पाते देखकर कहते हैं कि उन्हें इस मामले में हस्तक्षेप की आवश्यकता नहीं है वह तो अपने संस्कारों को भोग रहा है उसे भोगने दो। पर यह उचित नहीं है, हमें अधिक से अधिक लोगों के शारीरिक कष्ट दूर करने के लिए उन्हें मदद करना चाहिए क्योंकि वह अपने संस्कारों का भोग तो पूर्णतः मानसिक रूप में कर रहा होता है। इसलिए भले ही हम कितने ही प्रयास कर किसी को मदद करें परन्तु उसके संस्कारों का चक्र तो आगे चलता रहेगा चाहे वह जिस किसी प्रकार और आकार में हो जैसे, अपमान , अवसाद , हताशा , क्रोध, निराशा या अन्य किसी प्रकार से। 


330 प्रतिभा का शोषण

 330 प्रतिभा का शोषण

शक्तिशाली और धनी लोग साहित्यकों, लेखकों और वक्ताओं को उनकी गरीबी का लाभ उठाकर क्रय कर लेते हैं और अनेक प्रकार से शोषण करते हैं। उनका यह कार्य प्राचीनकाल से चला आ रहा है। राजा और सम्राट लोग अपने राज्य में कर रहित भूमि और सम्पदा देकर दरवारी कवियों को रखा करते थे और इस प्रकार वे केवल उनके कहने के अनुसार साहित्य रचनाएं लिखा करते थे। इसलिए प्रतिभाशाली साहित्यकार और कलाकार अपने संरक्षकों को खुश रखने के लिए परिस्थितियों के दबाव में अपने स्वभाव के विपरीत कार्य करने के लिए विवश रहते थे। यही कारण है कि उन्हें अश्लील साहित्य और मूर्तियों की रचना करना पड़ती थी। अपने संरक्षकों को श्रेष्ठ और उनके शत्रुओं को तुच्छ प्रदर्शित करने के लिए उन्हें असत्य का सहारा लेना पड़ा। इतना ही नहीं अपने संरक्षकों की पोशाक, रंग, जाति, पूर्वज, और उनके परिवारों को ईश्वरतुल्य प्रदर्शित करने के लिए निराधार तथ्यों का सहारा भी लेना पड़ा। कुछ अपवादों को छोड़ दंे तो अधिकाॅंश साहित्यिक लोग, समाज के निम्न आर्थिक स्तर के ही होते पाए जाते हैं। स्वतंत्र रूप से कार्य करने की इच्छा होने के बावजूद, द्रव्य के अभाव ने ही उन्हें किसी संगठन या व्यक्ति विशेष के साथ काम करने के लिए उकसाया है। इतना तक कि वे जो अपने लेखों में साहसी और उत्साही दिखाई देते हैं इन्हीं परिस्थितिजन्य दबावों के कारण राजनैतिक पार्टियों के हाथ के खिलोनंे बनते देखे जाते हैं। स्पष्ट है कि सदा से ही शक्तिशालियों के द्वारा साहित्य, कला और बुद्धि के क्षेत्र में प्रवीण लोगों का शोषण किया जाता रहा है और इन लोगों ने अपनी योग्यता को उनके गुणगान तक ही सीमित कर दिया। दुख तो यह है कि यह सब आज भी जारी है।