पिछले खण्डों में आपने, ज्ञान की प्राप्ति हेतु मेरी खोज यात्रा के दौरान संकलित किये गए कुछ रत्नों की परख की है और आनन्द पाया। है। कुछ मित्रों को भाषा अधिक कठिन लगी जिस का कारण मैं पहले भी बता चुका हूँ कि विषय वस्तु की गंभीरता को देखते हुए संस्कृत भाषा में दिए गए तथ्यों को विना किसी काट छाँट के अर्थात , यथावत रखने के प्रयास में यह हुआ है। आप सभी ने गंभीरता से इसे आत्मसात किया है और सराहा है। सातवें और आठवें खंड में इन रत्नों को विभिन्न वैज्ञानिक आधार देकर नए निष्कर्ष निकलने का प्रयास किया गया है और समय समय पर जिज्ञासुओं के मन में उठने वाले स्वाभाविक, अधिकांश प्रश्नों के उत्तरों को देने का प्रयास भी किया गया है। आशा है कि पिछले खण्डों में भाषा के कारण या अन्य किसी कारण से तथ्यों को समझने में कोई कमी रह गयी होगी तो इन आगामी दोनों खण्डों से अवश्य ही पूरी हो जाएगी।
अन्त ;भाग एक ( उपसंहार)
7.0: विश्लेषण और व्याख्या
जैसे जैसे मैं ज्ञान की खोज में अपना पराक्रम बढ़ाता जाता मुझे हर बार कुछ न कुछ नया और विचि़त्र मिलता जाता और मैं समझने और संरक्षित रखने का प्रयास करता। ग्रंथीय सामग्री के ढेर लगने लगे और मन में संचित की गई सामग्री भी मन से इधर उधर सरकने लगी क्योंकि 12 वर्ष की आयु से लेकर 63 वर्ष की आयु तक केवल ग्रंथों से संतों और मतों से संप्रदायों के चक्कर में सब कुछ गड़बडाने लगा। मेरे मन में विचार आया कि जिस उद्देश्य से अनेक वर्षो से पराक्रम किया गया है कहीं वह व्यर्थ ही न चला जाये क्यों कि अब और अधिक समय नहीं बचा है। एक बात अधिक मन में आती कि ज्ञान की कोई सीमा नहीं है इसलिये अब तक संग्रहित किये गये साहित्य को विवेकपूर्ण, वैज्ञानिक विश्लेषण करने का कार्य करके इतनी लंबी अवधि के सर्वेक्षण का परिणाम निकाल कर सब के सामने रख दिया जावे जिससे अन्य जिज्ञासु लाभान्वित हों और उन्हें इधर उधर भ्रमित होकर भटकने से बचाया जा सके।
# आद्य भाग के नन्हेंलाल से शर्माजी तक और शर्माजी से शुद्धसत्वानन्द जी तक के प्रारंभिक संपर्को से जीवन में आया क्रमिक परिवर्तन प्रकट करता है कि प्रकृति अपना काम नियमानुकूल करती है और संस्कार अपने अपने क्रम में अपने फलों का प्रभाव डालने के लिये यथा समय जीवन में आते रहते हैं। महत्व उस मुहूर्त का होता है जिसमें हमें सामने से आ रहे अनेक प्रकार के अनुकूल और प्रतिकूल प्राकृतिक बलों के साथ सामंजस्य विठाकर तत्व की बात पकड़ने में सफलता मिल जावे। संस्कारों के अनुकूल प्रकृति ने मुझे दोनों प्रकार के अवसर दिये यदि स्वविवेक से निर्णय न लिया होता तो पढ़ाई लिखाई से संपर्क तोड़कर झाड़ फूंक में अपनी प्रतिष्ठा के पीछे भागता और सत्य से दूर हो जाता। इससे यह बात तो स्पष्टतः सिद्ध हो जाती है कि यदि मन में सच्ची लगन हो तो सन्मार्ग और अभीष्ट की प्राप्ति हो ही जाती है चाहे उसमें सहायक या अवरोधक कोई भी हों ।
# हमारी आॅंखें इस द्रश्य जगत के संपर्क में सबसे पहले आती हैं अतः वही सबसे अधिक प्रभावित करता है और वही हमारा प्रारंभ और अंत बन जाता है। वैज्ञानिक यह रहस्य जानने में दिन रात जुटे हुए हैं कि यह संसार किसने बनाया और यह धरती ,सूर्य , गेलेक्सियाॅं कहाॅं से आ गई। पिछले पाॅंच सौ वर्षों से लगातार प्रयास जारी रहने के बाद भी वे अभी भी यह रहस्य नहीं जान सके । मध्य भाग एक में संकलित किया गया वैज्ञानिक खोजों का कुछ विवरण उनके अपूर्ण ज्ञान को पूरा करने का प्रयास माना जा सकता है। वे मानते हैं कि ब्रह्माॅंड अर्थात् कासमस 13.8 बिलियन वर्ष पहले बिग बेंग के साथ उत्पन्न हुआ जिसका वर्तमान में द्रश्य व्यास 93 बिलियन प्रकाश वर्ष है। इतने विस्त्रित क्षेत्र में फैले कासमस का अधिकांश भाग खाली है, इसमें डार्क एनर्जी, डार्क मैटर के अलावा ब्लेक होल भी हैं जो सभी अरबों खरबों गेलेक्सियों को अपनी ओर खींचते हुए निगल जाने में लगे हुए हैं। वैज्ञानिक अभी भी इस खोज में लगे हैं कि स्पेस, टाइम, गुरुत्व, और पदार्थ में द्रव्यमान की उत्पत्ति कैसे होती है। बिगवेंग किसके द्वारा हुआ और क्यों हुआ इसका उनके पास कोई उत्तर नहीं है। ब्रह्माॅंड में, हम पृथ्वी ग्रह पर रहने वाले मनुष्यों को अभी पृथ्वी के बारे में ही पूरा ज्ञान नहीं है और ब्रह्माॅंड में तो इतने बड़े बड़े पिंड और तारे हैं कि पृथ्वी धूल के कण से भी तुच्छ लगती है और ये बड़े बड़े तारे भी गेलेक्सियों की तुलना में नगण्य हैं। आश्चर्य तो यह है कि इन सब को ब्लेक होल अपनी ओर खींच रहे हैं और उन्हें उदरस्थ करते जा रहे हैं। वैज्ञानिकों का कहना है कि 1040 वर्ष बाद पूरे ब्रह्मांड में केवल ब्लेक होल ही होंगे। ब्रह्मांड में पाये जाने वाले आकाशीय पिंडों अर्थात् ग्रहों, सूर्यों, गेलेक्सियों, ब्लेक होलों या ऊर्जा (अर्थात् प्रकाश , विद्युत, रेडियो, और ब्लेकएनर्जी) और पृथ्वी जैसे ग्रहों के जीवधारी आदि सभी, स्पेस और समय के अत्यंत विस्तारित क्षेत्रों में अपना साम्राज्य जमाये हुए हैं परंतु फिर भी वे अनन्त नहीं हैं अमर नहीं हैं। यह सब
आश्चर्यचकित करने वाले तथ्य सोचने को विवश करते हैं कि इतने विराट ब्रह्माॅंड का निर्माण शून्य से तो नहीं हो सकता, कुछ न कुछ है तो अवश्य , जिसने इसे और इसके फलस्वरूप हमसब को बनाया है पर आधुनिक वैज्ञानिक अभी इसका कोई जबाब नहीं दे पाते हैं।
# वैज्ञानिक अनुसंधानों की तरह दार्शनिक क्षेत्र में भी हजारों वर्ष से इस क्षेत्र में की जा रही व्याख्याएं अपने अपने ढंग से की जाती रही हैं। किसी भी एक मत को आधार नहीं बनाया जा सकता परंतु विवेकपूर्ण तार्किक आधार पर जिन तथ्यों को उभयनिष्ठ पाया गया है उसे मानकर ही निष्कर्षों पर पहुंचा जा सकता है। सभी दर्शनों में यह तथ्य स्वीकार किया गया है कि संसार का निर्माण एक परम सत्ता द्वारा किया गया है जिसे विभिन्न नाम दिये गये हैं जैसे परमब्रह्म , परमपुरुष, भगवान,ईश्वर आदि। वैज्ञानिक इसे, इसलिये अमान्य करते हैं क्योंकि वह दिखाई नहीं देता। दार्शनिक आधार पर तथ्यों को समझने में सरलता हो इसलिये उसकी शब्दावली और परिभाषाओं को मध्य भाग तीन में दिया गया है और इसी लिये भारतीय दर्शन में सर्वाधिक महत्वपूर्ण और मान्य किये गये दो व्यक्तित्वों को जिन्हें महासंभूति कहा गया है, उनके विचारों और मानव समाज के लिये दी गयी उनकी शिक्षाओं को तार्किक और वैज्ञानिक आधार पर मध्य भाग चार में प्रस्तुत किया गया है। समाज में इनसे संबंधित आडंबरपूर्ण , अतार्किक और अवैज्ञानिक कहानियों को पृथक कर उन्हीं मौलिक तथ्यों को संकलित किया गया है जो समाज ने अब तक जान ही नहीं पाये। इस खंड के अध्ययन से इन महासंम्भूतियों के असली व्यक्तित्व का पता चलता है और यह समझ में आ जाता है कि इनके साथ स्वार्थी लोगों ने कितना आडम्बर जोड़ रखा है जिस आधार पर जन सामान्य को लगातार ठगा जा रहा है।
# भारतीय विशुद्ध व्यावहारिक दर्शन तन्त्र और सैद्धान्तिक दर्शन वेदों में दिया गया है जिसे तर्क और वैज्ञानिक आधार पर मध्य भाग पांच में दिया जाकर मनोवैज्ञानिक क्षेत्र में किया गया विश्लेषण भी साथ में ही दिया गया है। मनोआत्मिक क्षेत्र में आगामी शोधकार्य हेतु आवश्यक सुझावों को भी इसी में देखा जा सकता है। मानवशरीर विज्ञान, योगमनोविज्ञान और वेद में ब्रह्म विज्ञान से संबंधित तथ्यों का विवरण मध्य भाग पाॅंच में देखा जा सकता है। इन सभी खंडों को गंभीरता पूर्वक अध्ययन कर लेने पर फिर और कुछ जानने की आवश्यकता नहीं रहती है। यह भी सत्य है कि विश्व के किसी भी मत और सिद्धान्त को मानने वाला क्यों न हो इस ज्ञान को समझ लेने पर वह सभी भ्रमों से मुक्त हो जाता है।
समग्र भौतिक मानसिक और आध्यात्मिक ज्ञान को इस प्रकार विश्लेषित करने और निष्कर्षों को क्रमानुसार प्रस्तुत करने का कार्य आगामी खंडों में किया गया है।
7.1 मानव शरीर एक जीव वैज्ञानिक मशीन
मनुष्य का शरीर उसकी प्रवृत्तियों के द्वारा प्रशासित होता है। यह शरीर उसका है जिसने इसमें मन को स्थापित किया है। मन को इस शरीर का उपयोग करने का अधिकार दिया गया है, आत्मा या इकाई चेतना इसे अवलोकित करती है और साक्ष्य देती है कि मन क्या सोचता है। यदि आत्मा अवलोकन करना बंद कर दे तो मन काम करना बंद कर देगा। ग्यारह इंद्रियों में से एक अंतःकरण है और दस बहिःकरण। मन का आभ्यान्तरिक भाग शरीर से सीधा जुड़ा रहता है, मन के इसी भाग के द्वारा पेट खाली हो गया है भूख लगी है इसका पता चलता है और वह शरीर को संचालन कर भोजन की तलाश में जुट जाता है। अंतःकरण मन के आभ्यान्तरिक भाग से तथा बहिःकरण पाॅंच ज्ञानेन्द्रियों और पाॅंच कर्मेंद्रियों से मिलकर बनता है। प्रवृत्तियों का निर्देष अंतःकरण से आता है जो कि मन के चेतन और अवचेतन भाग से बना होता है। अंतःकरण सोचता विचारता और स्मरण रखने का कार्य करता है और उसी के अनुसार शरीर कार्य करने लगता है। इस तरह यह जीववैज्ञानिक मशीन प्रवृत्तियों के निर्देशों में कार्य करती है।
7.11 जीव वैज्ञानिक मशीन में महाभारत :
कुरुक्षेत्र का अर्थ है कर्म संसार, जो लगातार कुछ करने को पूछता है, कुरु का अर्थ है करना जो क्षेत्र कह रहा है कि कुछ करो, कुछ करो वह है कुरुक्षेत्र। और धर्मक्षेत्र है , आन्तरिक मानसिक संसार जहाॅं पांडव प्रभावी होते हैं। पूर्व, पश्चिम , उत्तर दक्षिण, ऊर्ध्व और अधः ये छः दिशायें और ईशान, आग्नेय, वायव्य, और नैऋत्य ये चार अनुदिशायें मिलकर कुल दस दिशायें होती है। मन अंधा है अतः वह विवेक के द्वारा देख व समझ पाता है। मन धृतराष्ट्र है और उसके दस एजेंट वहिःकरण की दसों इंद्रियाॅं , इन दसों दिशाओं में एकसाथ कार्य करते हैं अतः ( 10 X 10 = 100 ) यही धृतराष्ट्र के पुत्र हैं। शरीर की रचना करने वाले पंच तत्व पाॅंडव हैं। सहदेव हैं ठोस अवस्था अर्थात्, मूलाधार चक्र जो कि सभी प्रश्नों के उत्तर दे सकते हैं, नकुल स्वाधिष्ठान चक्र अर्थात् जल तत्व, अर्जुन ऊर्जा को प्रदर्षित करते हैं अर्थात् मनीपुर चक्र, भीम वायु तत्व अर्थात अनाहत चक्र को और विषुद्ध चक्र या व्योम तत्व को युधिष्ठिर प्रदर्षित करते हैं। विशुद्ध चक्र तक भौतिक संसार समाप्त हो जाता है और आध्यात्मिक संसार प्रारंभ हो जाता है। इसलिये भौतिकवादियों और आध्यात्मवादियों अर्थात् स्थूल और सूक्ष्म के बीच में होने वाले झगड़े में युधिष्ठिर स्थिर रहते हैं। युद्धे स्थिरः यः सः युधिष्ठिरः। कृष्ण सहस्त्रार में हैं । इकाई जीव चेतना जो कि मूलाधार में कुंडलनी की तरह होती है वह पाॅंडवों की मदद से कृष्ण तक पहुंचना चाहती है। पाॅंडव उसे मदद करना चाहते हैं परंतु अंधे मन धृतराष्ट्र के सौ पुत्र उन्हें यह करने से रोकते हैं और इकाईजीव चेतना को बाहरी संसार में ही फंसाये रखना चाहते हैं। इसलिये युद्ध चलता रहता है। धृतराष्ट्र, संजय अर्थात् विवेेक से पूछते हैं कि युद्ध में क्या हुआ। अंततः जीवात्मा अथवा जीव, पाॅंडवों की सहायता से युद्ध जीतकर कृष्ण के पास पहुंच जाता है। इसतरह महाभारत प्रत्येक के साथ रोज ही चल रहा है यही महाभारत का असली रहस्य है।
अब मानलो यदि इस जीव वैज्ञानिक मशीन के मनीपुर चक्र अर्थात् नाभि के निकट की कोई उपग्रंथी सक्रिय हो जाये जो व्यक्ति को लज्जामुक्त कर दे तो बाद में इसी विंदु को अन्य प्रकार से दबाव देकर लज्जा को बढ़ाया जा सकता है। जब कोई लज्जामुक्त होता है वह कहीं भी किसी भी मानसिक जटिलता के रह सकता है, पर लज्जाग्रस्त व्यक्ति का चेहरा लाल हो जाता है और मन के चाहने पर भी वह बहुत से काम नहीं कर पाता अर्थात् इस प्रकार का भौतिक परिवर्तन हो जाता है । अतः मानव संरचना, ग्रंथियों और उपग्रंथियों के द्वारा नियंत्रित होती है इसलिये वह एक जैववैज्ञानिक मशीन है। इसी कारण किसी एक ही ग्रंथी से हारमोन्स का कम या अधिक मात्रा में स्राव होना इस मशीन में दोष उत्पन्न कर देता है। अतः साधना के द्वारा इन ग्रंथियों पर नियंत्रण कैसे किया जाता है सीख लेना चाहिये।
मनुष्यों का मनोविज्ञान एक समान होता है। जैसे किसी बृद्ध और युवा में बहस हो रही हो तो बृद्ध कहेगा कि अच्छा, तू मुझे सिखाता है? मैं तुझे बताता हूँ आदि। पर यदि बृद्ध के अनाहत चक्र अर्थात् हृदय की उपग्रंथी उचित रूपसे सक्रिय हो तो वह बहस में न पड़कर शांतिपूर्वक जबाव देगा क्योंकि उचित हारमोन स्राव से उसका मन संतुलित बना रहा। स्पष्ट है कि मन के संवेदन बिंदुओं को उचित प्रकार से नियंत्रित करने पर प्रतिक्रियाऐं बदल जाती है। इसी तरह जीववैज्ञानिक परिवर्तन से मनोवैज्ञानिक परावर्तन भी बदल जाते है। आध्यात्मिक साधना से न केवल ग्रंथियों और उपग्रंथियों में नियंत्रण पाया जाता है वरन् नर्व सैलों और नर्व फाइबर में भी परिवर्तन किया जा सकता है। अतः विभिन्न जैव या अजैव वस्तुओं के संपर्क में आने पर उनके लक्षणों और मनोविज्ञान के अनुसार ही कार्य करना चाहिये। साधना के द्वारा सभी चक्रों पर नियंत्रण कर लेने पर आप महामानव बन सकते हैं और अपने निर्धारित लक्ष्य पर पहुंचकर जीवन सफल कर सकते हैं । चूँकि मनुष्य जन्म पाने का मूल उद्देश्य साधना करना ही है इसलिये स्वयं साधना करना चाहिये और दूसरों को भी साधना करने के लिये प्रोत्साहित करना चाहिये। अन्य जीवधारियों की अपेक्षा मनुष्यों के शरीर की रचना ही आध्यात्मिक साधना करने के लिये अनुकूल है। मानव शरीर अनेक जन्मों के पुण्यों के प्रभाव से मिल पाता है इसलिये उसका महत्व समझना चाहिये। मूलाधार चक्र में धर्म अर्थ काम और मोक्ष यह चार मूल प्रवृत्तियों का नियंत्रण होता है अतः आध्यात्म साधना की चाह (urge) मूल वृत्ति है जिससे दूर नहीं भागा जा सकता। मानव मनोविज्ञान, उत्चेतना (urge) उत्वृत्ति (passion) वृत्ति (propensity) और भावप्रवणता (sentiment) इन चारों से नियंत्रित होता है।