Tuesday, 31 March 2015

कुछ प्रश्नोत्तर ( प्रश्न 5 के आगे ……)


कुछ प्रश्नोत्तर ( प्रश्न 5  के आगे ……) 

6. परम चेतना ने यह ब्रह्माण्ड क्यों बनाया?
-निर्गुण ब्रह्म के पास कोई कार्य करने के गुण नहीं होते परंतु प्रकृति के प्रभाव में उसका कुछ भाग सगुण रूप में रूपान्तरित हो जाता है जिसमें ये सब गुण होते हैं। निर्गुण ब्रह्म प्रकृतिविहीन नहीं होता और न ही प्रकृति उसके बाहर होती है क्योंकि निर्गुण ब्रह्म अनन्त होता है अतः उसके बाहर कुछ भी नहीं होता, प्रकृति उसके भीतर ही मूला प्रकृति के रूप में रहती हैं ठीक उसी प्रकार जैसे पेड़ के बीज में उसके उत्पन्न करने की शक्ति सोयी रहती है। अनन्त सगुण ब्रह्म में जब मूला प्रकृति सक्रिय हो उठती है तो वह अपने को आठ रूपों में बदल लेती है वे हैं, मूला प्रकृति, महत् तत्व, व्योम, वायु, अग्नि, जल, और पृथ्वी। इन रूपों के निर्माण करने के बाद भी सगुण ब्रह्म में मूला प्रकृति ,मूला प्रकृति के रूप में ही रहती है। इस प्रक्रिया में सूक्ष्मता से स्थूलता की ओर निर्माण चलता है और पृथ्वी का निर्माण स्थूलतम होता है क्योंकि इसमें अन्य सब गुण होते हैं। यहां ध्यान देने की बात यह है कि सभी निर्माण कार्य अनन्त सगुण ब्रह्म में ही होते हैं अतः उसके बाहर कुछ नहीं हो सकता। मूला प्रकृति के अलावा ये सभी रूप सगुण ब्रह्म के अंतःकरण कहलाते हैं। इकाई चेतना या जीवात्मा के अंतःकरण में केवल दो वृत्तियां ही होती हैं महत्तत्व और अहमतत्व, अन्य सब वहिःकरण कहलाता है। परम चेतना और इकाई चेतना में मन का वह भाग जिसमें विचार तरंगे उठती हैं चित्त कहलाता है, इसलिये सभी जड़ात्मक संरचनायें प्रकृति द्वारा विचार तरंगों के माध्यम से ब्रह्म के चित्त में उत्पन्न की जाती हैं। इस रूपान्तरण की क्रिया में पृथ्वी तक आते आते जड़ता अधिकतम हो जाने के कारण अब पुनः सूक्ष्मता की ओर अपने श्रोत तक वापस जाने के अलावा कोई रास्ता नहीं होता। वापस जाने का यह क्रम ठोस पदार्थ से पौधे , पौधों से प्राणी और फिर मनुष्य और मनुष्यों से वापस परम चेतना में जाने का चक्र चलता रहता है। इस प्रकार यह लगता है कि एक समय आयेगा जब सभी जीव ,जड़ और पदार्थ वापस ब्र्रह्म में मिल जावेंगे। यह समय केवल तब आ सकता है जब सगुण ब्रह्म को निर्विकल्प समाधि प्राप्त हो। वास्तव में यह स्थिति बहुत पहले आ जाना थी पर तमोगुणी चित्त में तमोगुणी संस्कार अभी तक क्षय नहीं हुए हैं और जब तक तमोगुणी विचार तरंगें क्षय नहीं होती यह संसार चलता रहेगा। ब्रह्मांड का निर्माण और पालन, और कुछ नहीं, सगुण ब्रह्म के संस्कारों का प्रारव्ध भोग है।


7. ब्रह्म में सत्व, रज और तम इन तीन गुणों में किस की प्रधानता होती है?

-ब्रह्मांड की रचना ब्रह्म मन के द्वारा की गई और जब अन्य जीवों की उत्पत्ति की जाने लगी तो उन्हें प्रकृति के बंधन से मुक्त होने के लिये साधना करने की रुचि भी दी गयी जो सबके कल्याण और उत्थान  की भावना से की गई है अतः यह सात्विक गुण के अलावा अन्य गुणों से संभव नहीं है। ब्रह्म के प्रति आकर्षण भी सबको स्वतंत्र करने की इच्छा से ही है अतः इकाई मन में साधना करने की योग्यता पाई जाती है। मन का विशेष लक्षण यह होता है कि वह अपने विषय का रूप धारण कर लेता है, यदि उसकी यह विशेषता नहीं होती तो ब्रह्म के आकर्षण का क्या महत्व रहता। चूंकि यह सब सबके उत्थान को ध्यान में रखकर किया जाता है अतः ब्रह्म मन पर सात्विक गुणों का प्राधान्य होता है। ब्रह्म मन की तरंगें अनन्त हैं और वे विना किसी व्यवधान के आगे बढ़ती जा रहीं हैं। यह कार्य लगातार होते रहना प्रकट करता है कि रजोगुण के बिना यह कैसे संभव है अतः यह भी ब्रह्म में पाया जाता है परंतु उसका स्थान सत्वगुण के बाद आता है। इकाई मन में साधना करने की विचार तरंगों के उत्पन्न करने के लिये ब्रह्म में चित्त का होना अनिवार्य है जो विना तमोगुण के संभव नहीं है अतः ब्रह्म में तमोगुण भी होता है पर वह सत व रज की तुलना में न्यून होता है।

8. धारणा और ध्यान क्या हैं और इनमें अंतर क्या है?

-चित्त का लक्षण अपने विषय का रूप ग्रहण करने का होता है जो वह ग्राहिका और विक्षेपिका नामक क्रियाओं के द्वारा कर पाता है, ग्राहिका ज्ञानेद्रियों और विक्षेपिका कर्मेन्द्रियों के द्वारा सम्पन्न होती हैं। इस प्रकार पहले वह संवेदना ग्रहण करता है फिर उसे कार्य रूप देता है। अतः चित्त के अपने विषय के अनुरूप आकार ग्रहण करने के गुण को धारणा अर्थात् पकड़ना कहते हैं। चूंकि आकार संवेदनों द्वारा ग्रहण किया जाता है अतः वह सतत नहीं होता क्योंकि संवेदनायें सतत नहीं होती परंतु यह तेज गति से होने के कारण हमें  सतत होते प्रतीत होती हैं। इसलिये धारणा गतिशील नहीं होती स्थिर होती है। ध्यान भी धारणा की  तरह चित्त की ही अवस्था है, परंतु ध्यान बाहरी विषय का नहीं होता इसलिये, इसे बाहरी संवेदनाओं की आवश्यकता नहीं होती और किन्हीं दो संवेदनाओं में अंतर न होने के कारण चित्त में बने आकार का ध्यान सतत होता है तैल धारावत्। अतः ध्यान का अर्थ हुआ स्थायी स्मरण, विना रुकावट के स्मरण। ध्यान की प्रक्रिया इतनी सतत होती है कि पूरी क्रियात्मकता इसके सातत्य को बनाये रखने में ही व्यय हो जाती है इसलिये ध्यान में अन्य सब क्रियायें समाप्त हो जाती हैं। और जब क्रियायें  समाप्त हो जातीं हैं तो मन भी समाप्त हो जाता है इसे समाधी  कहते हैं, कर्म समाधी। इस प्रकार धारणा और ध्यान दोनों में बहुत भिन्नता है भले ही वे दोनों चित्त से ही उत्पन्न होते हैं। धारणा में चित्त वाह्य बस्तुओं का आकार ग्रहण करता है जबकि ध्यान में सब कुछ आन्तरिक होता है, धारणा स्थिर होती है जबकि ध्यान गतिशील, धारणा में क्रिया हो सकती है पर ध्यान में नहीं , धारणा तमोगुणी होती है जबकि ध्यान रजोगुणी। ध्यान में अंतिम रूप से क्रिया समाप्त हो जाती है जिसका उद्देश्य  सतोगुणी समाधी  होता है।

Monday, 30 March 2015

7.5 कुछ प्रश्नोत्तर

7.5  कुछ प्रश्नोत्तर 
1. खुशी  क्यों और किसके लिये होती है?
  -चित्त अथवा मन संस्कार समूह से शासित होता है। मन जब किसी एक संस्कार समूह के प्रभाव में होता है तो वह इस मानसिक प्रवृत्ति में लंबे समय तक रह सकता है। किसी एक प्रवृत्ति या रूप में लंबे समय तक बने रहने की योग्यता से खुशी  होती है। जैसे बुरे संस्कारों से प्रभावित मन बुरे वातावरण में ही आनंन्दित होता है अन्य वातावरण में उसे अच्छा नहीं लगेगा और चाहेगा कि वह जल्दी ही उस वातावरण में चला जाए जहां उसे अच्छा लगे। स्पष्ट है कि वे परिस्थितियां ही खुशी  दे सकतीं है जो उनसे जुड़े संस्कारों को निर्वाहित कर सकें। अतः मन अपने अस्तित्व को बचाये रखने के लिये विशेष वातावरण को बनाये रखने की इच्छा करता है। चूंकि जहां मनोनुकूल संस्कार नहीं हो सकते वहां मन को खुशी  नहीं होती अतः अपने अस्तित्व को संरक्षित बनाये रखने के लिये मन ही खुशी  ढूंढता है।
2. धर्म क्या है?
-धर्म, अंग्रेजी के ‘रिलीजन‘ और उर्दू के ‘मजहब‘ शब्द से भिन्न है, जिसका अर्थ है पूजा के विश्वास की प्रणाली । परंतु धर्म का अर्थ है आभ्यान्तरिक गुण या लक्षण। जिसके कारण किसी का अस्तित्व बना रहता है वह धर्म है। जैसे, आग का धर्म जलाना है, परंतु यदि वह जलाती नहीं है तो वह आग नहीं हो सकती। अतः अपने आप को संरक्षित बनाये रखने के लिये अपने धर्म का पालन अनिवार्य है।
3. स्वभाव क्या है?
-स्व माने स्वयं और भाव माने विचार अतः स्वभाव का अर्थ है किसी के अपने विचार। चूंकि विचार मन में ही जन्म ले सकते हैं अतः किसी का स्वभाव मानसिक ही हो सकता है भौतिक नहीं। किसी का मन अनेक घटकों से प्रभावित हो सकता है जैसे जन्मजात संस्कार और अर्जित संस्कार। चूंकि विभिन्न लोगों के भिन्न भिन्न संस्कार  होते हैं अतः उनके स्वभाव भी अलग अलग होते हैं। स्वभाव किसी व्यक्ति की अपनी मानसिक रचना होता है। स्वभाव सब मनुष्यों का भिन्न भिन्न होता है और बदलता रहता है जबकि धर्म सबका एक ही है और अपरिवर्तित रहता है।
4. मोक्ष क्यों आवश्यक है?
-आत्मा विशुद्ध चेतना है उसका कोई लक्षण नहीं सिवा प्रकृति ( अर्थात् निर्माणकर्ता शक्ति ) के अस्तित्व की जानकारी रखने के। आत्मा अपने आप कोई काम नहीं कर सकती वरन् वह प्रकृति के द्वारा निर्मित मन की क्रियाओं को अपने में प्रतिविंवित करती है। मन अथवा प्रकृति की किसी भी क्रिया से आत्मा प्रभावित नहीं होती वह केवल मन के कार्यों के होने का साक्ष्य देती है और उन्हें दर्पण की तरह प्रतिविंवित कर देती है। जैसे दर्पण के सामने लाल फूल रखने पर पूरा दर्पण भी लाल दिखता है परंतु वह लाल रंग से प्रभावित नहीं होता। मन की क्रियाओं से निर्मित संस्कारों से जीवभाव उत्पन्न होता है। जब प्रकृति परमचेतना में सुप्तावस्था में रहती है तो मूलाप्रकृति के नाम से जानी जाती है। जब वह सक्रिय होती है और परमचेतना को प्रभावित कर सगुण ब्रह्म में रूपान्तरित करने लगती है तो वह आठ रूपों को निर्मित करती है, मूलाप्रकृति, महत्तत्व, अहमतत्व और पंचमहाभूत। प्रकृति जब परमचेतना में सुप्तावस्था में रहती है तो उसकी कोई इंद्रियां नहीं होती क्योंकि सबकुछ अनन्त परमचेतना के भीतर ही होता है, बाहर कुछ नहीं जिसके लिये इंद्रियों की जरूरत हो। इसलिये सगुण ब्रह्म में प्रकृति के सात प्रकार ही  अंतःकरण बनाते हैं जबकि जीवात्मा में महत्तत्व और अहमतत्व ही केवल अंतःकरण बनाते है बाकी वहिःकरण का निर्माण करते हैं। प्रकृति से प्रभावित जीवात्मा अपने आठप्रकारों में पुनः विकृति करती है और उसके सोलह प्रकार हो जाते हैं, चित्त अर्थात् अंतःकरण और वहिःकरण, पांचज्ञानेन्द्रियां, पांचकर्मेन्द्रियां, पंचतन्मात्राएं। जीवात्मा के ये सोलह प्रकार और सगुण ब्रह्म के आठ प्रकार और एक इन सबका संयुक्त प्रकार, ये सब पच्चीस घटक बनते हैं। परम चेतना और इकाई चेतना या जीवात्मा के चित्त का घटक उभयनिष्ठ होता है। परम चेतना का चित्त पूर्णतः आन्तरिक होता है। आत्मा में इस विकृति के कारण ही जीवभाव उत्पन्न होता है और वह उस विकृति का बंधन अनुभव करती है जिससे वह मुक्त होने की इच्छा करती है। इसकारण उसे साधना करना होती है पर अपने आप वह कोई भी कार्य नहीं कर पाती अतः वह कोई आधार ढूंढती है जिससे वह साधना कर सके। इस विकृति से मुक्त होने की तीब्र इच्छा होते हुए भी वह प्रकृति की मदद के विना कुछ नहीं कर पाती वह केवल प्रेरणा दे सकती है। प्रकृति के जड़ से सूक्ष्म की ओर रूपान्तरण की प्रक्रिया में जीव भाव का जन्म होता है जो सुख और दुख का अनुभव करने के लक्षणों वाला होता है। इसी के कारण वह अपनी वर्तमान स्थिति से संतुष्ठ नहीं रह पाता। इसका निर्माण प्रकृति से होता है और यह प्रकृति के आधीन ही होता है पर उसके चंगुल से भागना चाहता है। वह यह नहीं जानता कि प्रकृति से उसका निर्माण हुआ है और उसके प्रभाव के विरुद्ध जाने का मतलब है प्रकृति के साथ साथ स्वयं को नष्ट करना। वह मन को प्रेरित करता है जिससे मन प्रकृति के विरुद्ध संघर्ष करने की साधना करता है। चूंकि जीवात्मा और मन दोनों ही बंधन में होते हैं और अपनी वर्तमान स्थिति से संतुष्ठ नहीं होते अतः वे मोक्ष पाने के लिये संघर्ष करना आवश्यक  मानते हैं।
5. आत्मा को चितिशक्ति क्यों कहते हैं?
-जीवात्मा अपने आप कोई कार्य नहीं कर सकता वह चेतना का बल है अतः चितिशक्ति कहलाता है । वह केवल प्रेरणा दे सकता है, यही एक कार्य है जो प्रकृति के प्रभाव में रहते हुए वह विना उसकी मदद के कर सकता है। अपनी मुक्ति के लिये उसका यही मात्र योगदान होता है। यह किस प्रकार प्रेरणा देता है? जीवात्मा रूपी चुम्बक  मन रूपी लोहे को अपनी ओर आकर्षित करता है। यह आकर्षण, मन को प्रकृति के विरुद्ध संघर्ष कराकर जीवात्मा में मिला देना चाहता है। प्रश्न  है कि जब जीवात्मा चुम्बक  है और मन लोहे का टुकड़ा तो मन हमेशा  ही क्यों नहीं जीवात्मा से मिला रहना चाहिये और उसे प्रकृति के चंगुल से मुक्त होने के लिये साधना और संघर्ष क्यों करना चाहिये? इसका उत्तर है कि मन हमेशा  जीवात्मा से आकर्षित नहीं रह पाता क्योंकि उसके संस्कार उसे रोक लेते हैं जैसे अशुद्ध लोहे का टुकड़ा चुम्बक  की ओर या तो आकर्षित ही नहीं होता या अशुद्धियों के स्तर के आधार पर धीमें धीमें खिसकता है। किसी व्यक्ति विशेष का मन उसके संस्कारों के आधार पर बनता है अतः यदि संस्कारों का प्रभाव अत्यधिक है तो वह अधिक आकर्षित नहीं होगा और जीवात्मा का प्रेरण केवल यह याद कराने तक ही सीमित होगा कि संस्कारों के विरुद्ध संघर्ष करना है। संस्कार तमोगुण के द्वारा निर्मित होते हैं क्योंकि वे तमोगुण की ही तरह जड़ प्रकृति के होते हैं। जब मन के संस्कार इतने प्रबल होते हैं  कि वह तमोगुण के अत्यधिक प्रभाव में आ जाता है तो जीवात्मा का उत्प्रेरण भी कुछ नहीं कर पाता और प्रकृति के प्रभाव में मन काम करता जाता है। चूंकि जीवात्मा का साधना में योगदान मन को अपनी ओर आकर्षित करने का ही होता है पर यह तभी हो पाता है जब संस्कारों का समूह कमजोर होता है, परंतु मन को संस्कारों से मुक्त करने का उसके पास कोई अधिकार नहीं होता। मन को ही अपने प्रयासों से संस्कारों से मुक्त होना पड़ता है। इसलिये साधना में मन की भूमिका संस्कारों के समाप्त करने तक ही है। उसका यह प्रयास जीवात्मा के आकर्षण के कारण ही संभव हो पाता है अतः वह चितिशक्ति कहलाता है। उसके अन्य नाम पुरुष, चैतन्य और शिव भी हैं।

Friday, 27 March 2015

इस संसार में लोग कैसे रहें ( पिछले खंड से आगे ---)



इससे पहले बताया जा चुका है कि प्रत्येक क्रिया की प्रतिक्रिया होने के कारण कर्मफल भोगना ही पड़ता है। इससे कोई भी बच नहीं सकता, अपने अपने कर्मों का फल स्वयं को ही भोगना पड़ता है। अनेक लोग ऐसे भी है जो कर्मफल भोगने से बचने के लिये अन्य तरीके अपनाते हैं, उनकी ये विधियाॅं कितनी तार्किक  होती है और क्या वे इस कर्मफल के भोगने से बच पाते हैं उसे नीचे समझाया गया है:-


 *  कुछ लोगों का विश्वास है कि ग्रहशांति करने और प्रायश्चित्त  में या हवन करने से वे कर्मफल भोगने से बच जावेंगे। उनका यह विश्वास गलत है क्योंकि प्रकृति के नियमों के अनुसार प्रत्येक क्रिया की प्रतिक्रिया होना अनिवार्य है, मन अपनी सामान्य अवस्था तभी पायेगा जब वह प्रतिक्रिया प्राप्त कर ले । प्रकृति के इस नियम को कोई नहीं बदल सकता। परंतु कर्मफल भोगने की गति को धीमा या तेज किया जाना संभव है जो मन को वापस सामान्य अवस्था में ले आएगा। जैसे, मानलो कोई कर्मफल को भोगने में एक माह लगता है तो विद्यातंत्र की सहायता से उसे एक दिन में या एक वर्ष में पूरा करना संभव है जो इस बात पर निर्भर करेगा कि उसे कितना त्वरित किया गया है या मंदित, परंतु उसे पूर्णरूप से समाप्त करना कभी भी संभव नहीं है। किसी को एक माह में वापस करने की शर्त पर एक सौ रुपये दिये गये तो यह संभव है कि कर्ज देने वाला एक माह की जगह एक वर्ष में वापस करने को राजी हो जावे पर उधार लिया गया धन तो वापस करना ही पड़ेगा। ऋण वापस करने की अवधि में परिवर्तन संभव है पर धन वापस करने से माफी नहीं हो सकती। इसी प्रकार यदि किसी व्यक्ति के खाते में एक सौ पचास रुपये  इस शर्त पर जमा किये गये हैं कि वह  पाॅंच रुपये प्रति दिन की दर से खर्च करेगा तो वह चाहे उन्हें एक दिन में ही खर्च कर दे या शर्त के अनुसार  एक माह में व्यय करे, जमा किया गया धन जमा कर्ता के द्वारा ही उपयोग किया जावेगा अन्य के द्वारा नहीं , वह एक दिन में करे या एक माह में।
*  विद्याताॅंत्रिक क्रियाओं से कर्मफल के भोगने का प्रकार बदला जा सकता है जैसा कि उपरोक्त उदाहरणों में बताया गया है, परंतु कर्मफल का भोग या भाग्य नहीं बदला जा सकता। कर्मफल तो व्यक्ति को भोगना ही पड़ेगा हाॅं भोग करने के समय को लंबा या छोटा किया जा सकता है। जैसे, ऋणकर्ता को एक साथ रुपये लौटाने में अधिक मानसिक कष्ट होगा परंतु किश्तों  में लौटाने पर समय अधिक लगेगा पर मानसिक कष्ट की मात्रा समय के विस्तार में अधिक प्रतीत नहीं होगी। इस प्रकार विद्यातंत्र की सहायता से कष्ट भोगने के समय का विस्तार हो जाने से कष्ट की तीब्रता घट जाने पर लगता है कि कर्मफल नहीं भोगना पड़ा। उदाहरणार्थ, किसी के भविष्य में हाथ टूटने की घटना होना है तो उसे इसकी मानसिक पीड़ा भोगना पड़ेगी, पर विद्यातंत्र साधना से उसके हाथ के टूटने को रोका जाकर उतना ही मानसिक कष्ट भुगतने के लिये छोटी छोटी घटनाओं में बदलकर लम्बे समय तक चलाया जा सकता है परंतु उसे समाप्त नहीं किया जा सकता। कष्ट लंबे समय तक छोटी छोटी घटनाओं में बदल गया जैसे, हाथ में पहले खरोंच आ जाये फिर बीमार पड़ जाये और उसे कष्ट भले ही किश्तों  में भोगना पड़े पर जब तक हाथ टूटने के कष्ट के बराबर कष्ट नहीं भोग लिया जावेगा तब तक कर्मफल समाप्त नहीं होगा। जिस प्रकार कर्मफल भोगने का समय बढ़ाया जाना संभव है उसी प्रकार उसे घटाना भी संभव है।
*  यही कारण है कि वे लोग जो इसी जीवन में मुक्त होने के लिये परम पुरुष की साधना करते हैं वे कष्ट और सुख अतिशीघ्रता से अनुभव करते हैं जिससे वे यथा संभव कम समय में अपने कर्मफल को भोग लें। इस तरह उन्हें आगे भोगने के लिये और प्रकृति के बंधन में फॅंसाने के लिये कुछ भी नहीं बचता।
*  कुछलोग सोचते हैं कि बुरे कामों के परिणाम भोगने से बचने के लिये उन्हें अच्छे  काम करने से  संतुलित करना चाहिए। उनके अनुसार यदि अच्छे और बुरे कर्म बराबर बराबर हो जावेंगे तो फिर उनके परिणाम एकदूसरे को उदासीन कर देंगे और फिर भोगने के लिये कुछ न बचेगा। पर यह न तो होता है और न ही संभव है। यह स्पष्ट किया जा चुका है कि चाहे अच्छे कर्म हों या बुरे वे मन पर अपना प्रभाव डालकर उसमें विरूपण उत्पन्न करते हैं। मन को पूर्वावस्था में आने के लिये अर्थात् इस विरूपण को दूर करने के लिये बराबर और विपरीत प्रतिक्रिया होना आवश्यक है। इसलिये बुरे कार्य को करने से हुआ मन का विरूपण अच्छे कार्य से नहीं दूर किया जा सकता क्योंकि वह मन पर और अधिक विरूपण ही उत्पन्न करेगा। प्रत्येक कार्य की स्वतंत्र बराबर और विपरीत प्रतिक्रिया होना चाहिए। स्वतंत्र क्रिया से जब मन का प्रत्येक विरूपण हट जाता है तो व्यक्ति को क्रमागत रूप से अच्छे या बुरे कर्म के अनुसार पृथक पृथक परिणाम भोगना पड़ता है। इसलिये  कोई भी व्यक्ति बुरे काम के परिणाम अच्छे कामों से उदासीन नहीं कर सकता। अच्छे काम का अच्छा और बुरे काम का बुरा परिणाम अलग अलग अनुभव किया जाता है यह प्रकृति का नियम है।
*  इसप्रकार, तर्क पूर्वक यह सिद्ध हुआ कि कर्मफल का भोगना टाला नहीं जा सकता। इसलिये भगवान को दोष देना या परिणाम से बचने के लिये उनसे प्रार्थना करना केवल मूर्खता है। जिसने कर्म किया है उसे ही फल भोगना होगा। यदि तुम आग में हाथ डालते हो तो वह जलेगा ही वैसे ही प्रकृति का यह भी नियम है कि कर्म की प्रतिक्रिया होगी ही, भगवान उसके लिये दोषी नहीं हैं उसके लिये कर्म का कर्ता ही उत्तरदायी है।
*  प्रार्थना में कोई वाॅंछित बस्तु की चाह होती है अर्थात् यह एक प्रकार से  परम सत्ता के पास किसी लाभ के लिये भेजे जाने वाली पवित्र याचिका ही है। याचिकाकर्ता सोचता है कि उसे जो चाहिये है वह ईश्वर से माॅंग ले क्योंकि वह केवल अपनी इच्छा से ही उसकी पूर्ति कर सकते हैं। प्रार्थना से या माॅंगकर, क्या वह ईश्वर  की इच्छा को जाग्रत नहीं करता कि उसके पास जो नहीं है वह प्राप्त हो जाये। इसका क्या यह अर्थ नहीं है कि वह ईश्वर  को याद दिला रहा है कि जिन चीजों से उसे वंचित रखा गया है वे दी जावें अन्यथा प्रार्थना की कोई आवश्यकता नहीं थी। मानलो कोई व्यक्ति इस विश्वास के साथ कि केवल भगवान ही मुझे धन दे सकते हैं, प्रार्थना करता है तो क्या यह प्रकट नहीं करता कि ईश्वर  ने उसके साथ भेदभाव किया है क्योंकि जब केवल ईश्वर  ही धन दे सकता है तो उसने अन्य सब को दिया पर उसे वंचित रखा। अतः यह तो ईश्वर पर आक्षेप लगाना और उसकी गलती बताना ही सिद्ध हुआ। इससे केवल यही अनुमान लगाया जा सकता है कि ईश्वर ने भेदभाव कर किसी को धनी और किसी को गरीब बनाया है। अतः जब प्रार्थना से यह निष्कर्ष निकलता है तो प्रार्थना करना व्यर्थ है। किये गये कर्म का फल स्वयं को भोगना पड़ता है ईश्वर पर आरोप लगाना अज्ञानता है। आग में हाथ डालने से वह अवश्य  ही जलेगा प्रार्थना से उसे बचाया नहीं जा सकता, क्योंकि प्रार्थना स्वीकार करने पर या तो ईश्वर को आग के जलाने के गुण को समाप्त करना पड़ेगा या फिर हाथ की संरचना में परिवर्तन कर ऐंसा बनाना पड़ेगा कि वह न जले, जो कि असंभव है। ईश्वर की रचना में कोई  त्रुटि नहीं है क्योंकि  उसकी छोटी या बड़ी सभी चीजें अपने अपने धर्म का पालन करतीं हैं, अन्यथा प्रत्येक पद पर अव्यवस्था उत्पन्न हो जाती। इसलिये किसी की प्रार्थना को स्वीकार करने के लिये ईश्वर अपने नियमों में परिवर्तन नहीं करेंगे। इसलिये प्रार्थना कर कुछ माॅंगने से केवल समय ही नष्ट होगा, वह भाग्य नहीं बदल सकती।
*  स्तुती करना भी ईश्वर के गुणों की भजन या गीत गाकर प्रशंसा  करना ही है। इसे चापलूसी करने से अधिक कुछ नहीं माना जा सकता। जब कोई कुछ देने के योग्य होता है तो याचक उसकी प्रशंसा कर चापलूसी करता है। इसी प्रकार ईश्वर से कुछ पानें के लिये उसे याद कराना कि वे अंतर्यामी हैं, सर्वशक्तिमान हैं,  कृपालु हैं, कल्याणकारी हैं क्या चापलूसी नहीं है? इसलिये स्तुति भी प्रार्थना की तरह अप्रभावी होती है और केवल समय नष्ट करती है।
* परंतु भक्ति इनसे भिन्न है। भक्ति शब्द  संस्कृत की क्रिया " भज् "और प्रत्यय " क्तिन"  को संयुक्त करने पर बनता है, जिसका अर्थ है ‘‘ प्रेमपूर्वक पुकारना‘‘ यह स्तुति या चापलूसी या प्रार्थना नहीं है। यह ईश्वर को प्रेम से पुकारना है। इस पुकार का क्या औचित्य है? वास्तव में स्रष्टि में इकाई चेतना को सगुण ब्रह्म ने अवसर दिया है कि वह अपने सार्वभौमिक मूल स्तर में वापस आने का प्रयास कर सकती हैं जो उन्हें प्रेम से पुकारने पर ही संभव होता है। परम सत्ता की ओर जाने का एकमात्र रास्ता उन्हें प्रेम पूर्वक पुकारने के अलावा दूसरा नहीं है। मानव मन का स्वभाव यह है कि वह वैसा ही हो जाता है जैसा वह विचार करता है, जैसे कोई सोचता रहे कि वह पागल हो जावे तो वह वास्तव में हो जावेगा क्योंकि उसके मन में वही विचार गूॅंजते रहते है। इसलिये इकाई चेतना जो परम चेतना की ओर तेजी से जाना चाहती है उसे उसके प्रति समर्पित होना होगा, इसे ही भक्ति  या उसे प्रेम से पुकारना कहते हैं। इकाई चेतना बार बार यह दुहराती है कि ‘‘मैं वही हूॅं‘‘ अतः समर्पित भाव से एक दिन वह परम चेतना ही हो जाती है। भक्ति, प्रार्थना या स्तुति नहीं है, पर कुछ लोग यह कहते है कि परम चेतना में मिल जाना या मुक्ति की चाह रखना भी एक प्रकार की प्रार्थना ही है। परंतु यह ऐंसा नहीं है, क्योंकि ईश्वर ने मनुष्य को इसी उद्देश्य  से बनाया है कि वह उसी की तरह परम स्तर पर वापस आये। अतः जब यह ईश्वर की ही इच्छा है तो जो कोई भी  भक्ति के द्वारा  ईश्वर की इच्छा पूरा करने का प्रयत्न करता है  उसे प्रार्थना करने की आवश्यकता नहीं है। इसलिये भक्ति ही वह तरीका है जिसमें कोई भी परम चेतना में शीघ्र ही पूरी तरह समर्पित होकर परम पद पा सकता है। कर्मफल के भोग से बचने का कोई उपाय है ही नहीं, इसलिये बुरे काम छोड़ कर , जो दुख भोग रहे हैं उन से शिक्षा लेकर अच्छे काम में लग जाओ। जैसे हाथ को आग में डालने पर जलना ही पड़ेगा कोई प्रार्थना उसे नहीं रोक सकती अतः आगसे जलने से बचने का एक ही उपाय है कि हाथ को आग से बाहर खींच लो। इसी प्रकार जब बुरे कर्म होंगे ही नही तो बुरे परिणाम भी नहीं भोगने पड़ेंगे। कर्मफल भोगने संबंधी कठोर नियम प्रकृति ने मानवता की भलाई के लिये ही बनाया है। सगुण ब्रह्म के द्वारा स्रष्टि निर्माण करने का उद्देश्य  प्रत्येक इकाई को मुक्त करने का है अतः  इस अर्थ में उन्हें सबसे अधिक लाभदायक माना जाना चाहिये। स्पष्ट है कि मनुष्य अज्ञानता के कारण ही कष्ट पाता है और ईष्वर को दोष देता है। परंतु ज्ञानी लोग कष्टों से शिक्षा लेकर बुरे कामों से दूर रहते हैं।

Thursday, 26 March 2015

7.4 इस संसार में लोग कैसे रहें?

7.4 इस संसार में लोग कैसे रहें?

* . मनुष्यों में परम चेतना का पूर्णतः परावर्तन होने के कारण वे स्वतंत्र कार्य करने और अच्छे बुरे के भेद को समझने की क्षमता रखते हैं। सगुण ब्रह्म द्वारा इस संसार की रचना का उद्देश्य  है प्रत्येक इकाई चेतना को अपनी तरह मुक्त अवस्था में लाना। यही कारण है कि सृष्टिचक्र के अंतिम पद में स्थूल से सूक्ष्म की ओर जाते समय ‘मनुष्य‘ जैसी कुछ इकाइयाॅं ही पूर्णतः परावर्तित चेतना में दिखाई देती हैं। इकाई चेतना पर प्रकृति का प्रभाव कम होता जाता है जैसे ही वह सूक्ष्मता की ओर बढ़ती जाती है। मनुष्यों की इकाई चेतना पशुओं की इकाई चेतना की तुलना में प्रकृति से कम प्रभावित पाई जाती है। इकाई चेतना पर प्रकृति के प्रभाव का कम होना सगुण ब्रह्म की कृपा पर निर्भर होता है। सगुण ब्रह्म और प्रकृति में यह समझौता स्रष्टि के प्रारंभ में ही हो गया लगता है अन्यथा प्रकृति जो सगुण ब्रह्म को अधिकाधिक गुणों में बांधे रहना चाहती है, उसे अपने प्रभाव से कैसे मुक्त करेगी। स्रष्टि के प्रारंभ में सूक्ष्म से स्थूल की ओर गति करते समय प्रकृति अपनी इच्छा से पुरुष अर्थात् सगुण ब्रह्म को अपने बंधन से ढील दे देती है, परंतु इकाई चेतना बंधन में ही रहती है क्योंकि स्रष्टि के स्थूल से सूक्ष्म की ओर बढ़ने का क्रम कभी समाप्त नहीं होता, अतः इस वशीकरण की स्थिति में कोई सचेत अस्तित्व आत्मनिर्भरता से कार्य करने लगता है तो प्रकृति अपने स्वभावानुसार उसे दंडित करती है। यही कारण है कि इकाई चेतना के सूक्ष्मता की ओर बढ़ने की गति प्रभावित होती है। स्रष्टि में यह देखा जाता है कि जहां चेतना का परावर्तन स्पष्ट है वहां प्रकृति का प्रभाव कम है। अतः यदि इकाई चेतना अपनी चेतना के परार्वतन को फैलाते हुए बढ़ा सके तो उस पर प्रकृति का प्रभाव कम होता जायेगा और उसे  शीघ्र ही पूर्ण सूक्ष्मता प्राप्त करना संभव होगा। अतः अच्छे कार्य वे हैं जो प्रकृति के नियमों का पालन करते हुए, चेतना के परावर्तन को विस्तारित करते हैं। विस्तारित चेतना के प्रभाव से प्रकृति का बंधन ढीला हो जाता है अतः कर्मफल के भोगने का कष्ट दूर हो जाता है। प्रकृति के नियमों का पालन करने के लिये विद्यामाया के सहयोगी विवेक और वैराज्ञ हैं जो इस प्रकार के उत्तम कार्य कराने में सहायता करते हैं और इकाई चेतना शीघ्र ही परम पद पा लेती है। वैराज्ञ का अर्थ संसार को छोड़ कर एकान्त में अत्यंत सादगी से तपस्वी जीवन जीना नहीं है, यह तो प्रत्येक वस्तु का समुचित उपयोग करते हुए उसे समझने का साधन प्राप्त करने का प्रयास है। जैसे, अलकोहल नशीला पदार्थ है जो मन और तन दोनों को नुकसानदायक है अतः इसे त्यागना चाहिये, परंतु डाक्टर लोग अलकोहल का उपयोग विभिन्न दवाईयों में करने की सलाह देते हैं जिससे वीमारियां दूर हो जाती हैं। इस प्रकार वही अलकोहल उपयोग की भिन्नता से अपना नशीला स्वभाव छोड़कर उपयोगी बन जाता है। अतः दवा के रूप में अलकोहल का उपयोग करना उसका उचित उपयोग कहलायेगा, इस सही उपयोग को वैराज्ञ कहेंगे। वैराज्ञ के विचार से किये गये प्रत्येक वस्तु का उपयोग मन को उसका गुलाम नहीं बनाता वरन् उदासीन बनाता है जिससे मन सूक्ष्म होता जाता है। मन के सूक्ष्म होने का अर्थ है प्रकृति के बंधन कमजोर होना और मुक्ति की ओर बढ़ने में अग्रसर होना। अच्छे और बुरे में भेद करने की क्षमता को विवेक कहते हैं, जैसे अलकोहल का नशे  के रूप में उपयोग बुरा और दवा के रूप में उपयोग अच्छा, यह ज्ञान विवेक कहलायेगा। इस तरह एक ही बस्तु के अलग अलग उपयोग करने से वह अच्छी या बुरी मानी जाती है अतः इस  विभेदन करने की क्षमता को विवेक कहते हैं। इसलिये वैराज्ञ का पालन करने के लिये विवेक का रहना आवश्यक है। बुरे कार्य अविद्यामाया से प्रेरित होते हैं। वे कार्य जो प्रकृति के नियमों के विपरीत होते हैं और चेतना के परावर्तन को फीका कर देते हैं बुरे कार्य हैं। मन को सूक्ष्म और चेतनापूर्ण बनाने पर ही इकाई चेतना की प्रगति होती है। स्थूलता की ओर मन लगा रहने पर वह प्रकृति के प्रभाव में अधिक रहता है परिणामतः इकाई चेतना का अग्रगामी विकास अवरुद्ध हो जाता है। प्रकृति के नियमों के विरुद्ध ले जाने वाली गतिविधियॅाॅं भी सूक्ष्मता की ओर होने वाली प्रगति को रोक देती हैं क्योंकि, आगे की प्रगति होने से पहले प्रकृति के नियमों के उल्लंघन करने का दंड भोगना पड़ता है और उस बीच इकाई चेतना अपनी सूक्ष्मता प्राप्त करने के लिये अवरुद्ध हो जाती है।


*   वे गतिविधियाॅं जो मन को स्थूल पदार्थों  की ओर खींचती हैं प्रकृति के नियमों के विरुद्ध कार्य करातीं है ये अविद्यामाया से उत्पन्न होती हैं। अविद्यामाया षडरिपु और अष्टपाश  की जन्मदाता है। काम, क्रोध, लोभ, मद मोह, और मात्सर्य ये षडरिपु और भय, लज्जा, घृणा, शंका, कुल, शील, मान और जुगुप्सा ये अष्ट पाश  है। षड रिपु का अर्थ है छै शत्रु, इन्हें शत्रु इसलिये कहा जाता है क्योंकि ये इकाई चेतना को सूक्ष्मता की  ओर जाने से रोककर स्थूलता में अवशोषित करने का कार्य करते हैं। इकाई चेतना का उच्चतम स्तर सूक्ष्म है अतः उस ओर जाने से रोकने वाला शत्रु हुआ। अष्ट पाश  का अर्थ है आठ बंधन, बंधनों में बंधा हुआ कोई भी व्यक्ति अपनी गति खो देता है। स्रष्टि में हम देखते हैं कि मानव की गति स्थूल से सूक्ष्म की ओर होती है परंतु अष्ट पाश  जैसे लज्जा घृणा और भय आदि स्थूलता से जकड़े रहने के कारण सूक्ष्मता की ओर जाने से रोके रहते हैं। इसलिये विद्यामाया का अनुसरण करना अच्छा और अविद्यामाया का अनुसरण बुरा है। विद्यामाया का अनुसरण करने वाले चार प्रकार के लोग पाये जाते हैं, पहले वे जो प्रकृति के नियमों का पालन करते हैं और अपनी चेतना को सूक्ष्मता की ओर ले जाने में सलग्न रहते हैं ये अच्छी श्रेणी के लोग कहलाते हें। दूसरे वे जो प्रकृति के नियमों का पालन करते हैं पर अपनी चेतना को सूक्ष्मता की ओर ले जाने का प्रयत्न नहीं करते। तीसरे वे जो न तो प्रकृति के नियमों का पालन करते है और न ही चेतना को सूक्ष्मता की ओर ले जाने का कार्य ही करते हैं। ये निम्न स्तर के लोग कहलाते हैं। चौथे  वे हैं जो प्रकृति के नियमों का पालन नहीं करते और अपनी चेतना के अवमूल्यन करने के लिये भागीदार होते हैं। ये निम्न से भी निम्न कोटि के मनुष्य कहलाते हैं। सगुण ब्रह्म का मानवों को निर्मित करने का उद्देश्य  यह है कि वे अपनी गति से सूक्ष्मता की ओर बढ़कर उच्चतम स्तर प्राप्त करें। यह मानव का धर्म है। उच्चतम स्तर पर वापस पहुॅंचने के लिये इकाई चेतना का उन्नयन आवश्यक है अतः उसकी सभी क्रियाएं प्रकृति के नियमों के अनुकूल होना चाहिये जिससे वह प्रगति में रोड़े न अटकाये। अतः प्रथम श्रेणी के व्यक्ति अर्थात् अच्छे व्यक्ति अपने प्राकृत धर्म का पालन करते हुए सूक्ष्मता की ओर बढ़ते जाते हैं, सही अर्थों में ये ही मनुष्य कहलाने के अधिकारी हैं ।


*    पशु  भी प्रकृत धर्म का पालन करते हैं परंतु उनमें चेतना का स्पष्ट परावर्तन न होने के कारण वे अपनी चेतना के उन्नयन का प्रयास नहीं कर पाते । अतः वे जो प्रकृति के नियमों का पालन नहीं करते पशुओं से भिन्न नहीं हैं। वे अपनी इकाई चेतना में होने वाले पूर्ण परवर्तन का उपयोग नहीं कर पाते अतः वे मानव के रूप में परजीवी ही कहे जावेंगे। उपरोक्त तीसरी और चैथी केटेगरी के लोग तो परजीववियों से भी गये गुजरे कहलाते हैं क्योंकि परजीवी तो प्रकृति के नियमों का पालन करते हैं पर अपना उन्नयन इसलिये नहीं कर पाते कि उनमें इकाई चेतना का स्पष्ट परावर्तन नहीं होता है। प्रकृति के नियमों का पालन करते हुए अन्य प्राणी भी समय आने पर अपनें में स्पष्ट परावर्तित चेतना का विकास कर लेते हैं, जबकि तीसरी और चैथी केटेगरी के लोग अपने में इकाई चेतना का स्पष्ट परावर्तन होने के वावजूद प्रकृति के नियमों के विरुद्ध आचरण करते हैं।


मनुष्य जीवन का मूल लक्ष्य परमपुरुष के साथ साक्षात्कार करना है , अतः सात्विक भोजन द्वारा यम नियमों का पालन करते हुए, सात्विक कार्योंं से उतना धन अर्जित करना चाहिये जितना स्वयं के जीवन यापन हेतु अनिवार्य है इससे अधिक नहीं और न ही संग्रह करना चाहिये। यहाॅं यह ध्यान रखना चाहिये कि जिसका भलीभाॅंति, सरलता पूर्वक रक्षण न कर सकें उसका संग्रह कभी न करें , इससे अनावश्यक चिंतायें नहीं आ सकेंगी और भगवद् ध्यान चिंतन के लिये समय मिलता जायेगा नहीं तो चिंताओं का अंबार लगा रहेगा और उसी की उधेड़बुन में सब कुछ धरा रह जायेगा। मन और शरीर पूर्ण स्वस्थ रहें इसके लिये नियमित रूप से दोनों समय ईश्वर  प्रणिधान और योगासनों को करते रहना चाहिये। सामान्यतः सर्वांगासन, मत्स्यासन, मत्यमुद्रा, नौकासन, और शशकासन नियमित रूप से करते रहने से शरीर में अनावश्यक यूरिक एसिड और कैल्सियम आदि का जमाव नहीं हो पाता अतः शरीर लचीला बना रहता है और किसी भी प्रकार के रोगों से शरीर अपना बचाव स्वयं ही करता रहता है। योगासनों और अष्टाॅंगयोग का नियमित पालन करने वाला शरीर सदैव निरोग रहता है उसे औषधियों की आवश्यकता नहीं होती। भोजन का सार तत्व लसिका (lymph)  मस्तिष्क का भोजन है अतः इसे संरक्षित रखना चाहिये। एक माह के भोजन करने में चार दिन के भोजन के बराबर लिंफ अतिरिक्त हो जाता है जिसे शरीर में ही अवशोषित बनाये रखने के लिये दोंनों एकादशियों, अमावश्या  और पूर्णिमा को निर्जल उपवास करना चाहिये। सन्तानोत्पत्ति के लिये ही इस अतिरिक्त लिंफ का उपयोग करना चाहिये अन्यथा नहीं । यह सावधानी रखने पर ही गुणवान और जीवन सार्थक करने वाली संतान पैदा होगी अन्यथा अरबों  की भीड़ में वे भी शामिल होते जावेंगे।

लगातार-----

Wednesday, 25 March 2015

विश्लेषण और व्याख्या ( लगातार----)

विश्लेषण और व्याख्या ( लगातार----)

7.3   ब्रह्माॅंड और यह संसार क्या हैं? इसकी उत्पत्ति संचालन पालन और विनाश  किस प्रकार होता है?
यह द्रश्यमान और अद्रश्य  सब कुछ जिसमें है वह, निर्पेक्ष परमचेतना, परमब्रह्म या परम सत्ता (cosmic entity), असीमित और आदिअन्त रहित है जिसे दार्शनिक गण  सच्चिदानन्दघन कहते हैं। अर्थात् सत्य, चेतना और आनन्द की घनीभूत अवस्था को परम चेतना या परम ब्रह्म कहा गया है। सत्य वह है जो परिवर्तनशील नहीं है हमेशा  एक सा रहता है। चेतना की क्रियात्मक सत्ता को प्रकृति और उसका साक्ष्य देनेवाली सत्ता को पुरुष कहते हैं। निर्पेक्ष अवस्था में प्रकृति और पुरुष साम्यावस्था में  स्वतंत्र रहते हैं। पुरुष इस अवस्था में अपने अस्तित्व को भी भूले रहते हैं। प्रकृति इस अवस्था में तीन प्रकार के बलों या गुणों, जिन्हें सत, रज, और तम के नाम से जाना जाता है, को संतुलित किये रहती है। आधुनिक वैज्ञानिक शब्दावली में इसे पोटेशियल (potential form) रूप कह सकते हैं। इन तीनों बलों का स्वभाव संघर्षमय और एक दूसरे के प्रभाव को नष्ट करने का होता है। प्रकृति और पुरुष के संयुक्त रूप को ब्रह्म कहा जाता है। जब प्रकृति के तीनों बलों में असंतुलन उत्पन्न हो जाता है तो प्रकृति पुरुष को उसके अस्तित्व का बोध कराती है और अपने प्रभाव में लेकर पुरुष को अनन्त रूपों में रूपान्तरित करने की तरंगे निर्मित करती है जिससे ब्राह्मिक मन (cosmic mind) अस्तित्व में आता है। प्रकृति के लगातार संघर्षरत सत रज तम आदि तीनों बलों के पारस्परिक संघर्ष से ब्राह्मिक मन में अपने को अनन्त रूपों में रूपान्तरित करने का विचार आता है और पुरुष, अनन्त संख्यक इकाई चेतनाओं मे तथा  ब्राह्मिक मन, अनन्त संख्यक इकाई मनों में रूपान्तरित हो जाता है। वैज्ञानिक शब्दावली में इसे कायनेटिक रूप (kinetic form) कहते हैं । ठीक उसी प्रकार जैसे मिट्टी से कुंभकार घड़े बनाता है, यहां मिट्टी, पुरुष और कुंभकार, प्रकृति होती है। पुरुष का इस प्रकार प्रकृति के प्रभाव में आकर अपने को अनन्त रूपों में रूपान्तरित कर लेने पर वह सगुण ब्रह्म कहलाते हैं। यह जो कुछ भी दिखाई देता है वह सगुण ब्रह्म ही है।
 इस प्रकार निर्पेक्ष परम चेतना के कुछ भाग, जो कि अनन्त ही होता है को पुरुष, प्रकृति के प्रभाव से इस अनन्त ब्रह्माॅंड को निर्मित करने में प्रयुक्त करता है। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि यह समस्त ब्रह्माॅंड सगुण ब्रह्म की विचार तरंग के अलावा कुछ नहीं है। अपनी विचार तरंग को सूक्ष्म से स्थूल और स्थूल से सूक्ष्म की ओर चलाये रखने के क्रम को ब्रह्म चक्र कहते हैं। यह एक सुव्यवस्थित विकासक्रम है जिसमें पहले व्योम तत्व में स्पेस- टाइम अर्थात् आकाश  और समय निर्मित होता है इसे ही ईथर का नाम दिया गया है। इसके बाद गैसीय और उसके बाद ऊष्मीय और जलीय तथा ठोस अवस्थायें क्रमशः  निर्मित होती जाती हैं। ठोस अवस्था में पहुंचने पर पुरुष, ब्रह्म चक्र का आधा भाग पूरा कर लेता है इसे संचर क्रिया कहते हैं  और इसके बाद वनस्पति जगत, प्राणी जगत और मनुष्य क्रमशः  अनन्त इकाई चेतनाओं के रूप में संसार में आते जाते रहते हैं। ठोस अवस्था अर्थात् पृथ्वी से पुनः अपने मूल स्वरूप अर्थात् परम चैतन्य में पहुंचने का कार्य प्रतिसंचर क्रिया कहलाता है। वही ब्रह्म जब अपनी सगुणता को निर्मित करते हैं तो ब्रह्मा, जब भरण पोषण करते हैं तो विष्णु और जब वापस अपने में मिलाने का काम करते हैं तो महेश  कहलाते हैं। ये कोई अलग अलग सत्तायें नहीं हैं वरन् एक ही सत्ता को उसके द्वारा किये जाने वाले कामों के नाम से उसे पुकारना मात्र हैं। इस प्रकार निर्माण पालन और संहार का क्रम लगातार चलता रहता है इसे ब्रह्म चक्र कहते हैं। यह तब तक चलता रहेगा जब तक समस्त इकाई चेतनायें परम चेतना में और इकाई मन ब्राह्मिक मन में नहीं मिल जाते। इस प्रकार सब कुछ ब्रह्म से ही निर्मित हुआ है और वही इस ब्रह्माॅंड के निर्माता हैं जो उनकी विचार तरंगों के अलावा कुछ नहीं है। इसलिये यह भी स्पष्ट होता है कि यह सब कुछ उन्हीं के भीतर है उनके बाहर कुछ भी नहीं है।
पुरुष चेतनमय हैं और प्रकृति के तमोगुणी प्रभाव से जब वे ज़ड पदार्थ अर्थात् पत्थर आदि पिंड बन जाते हैं तो प्रकृति के प्रभाव से वे जड़ के रूप में दिखाई देते हैं जबकि उनमें चेतना सुप्तावस्था में (potential form) में रहती है अतः यह सब कुछ जड़ या चेतन, ब्रह्म का ही रूपान्तरित प्रकार हैं। स्पष्ट है कि पुरुष के ऊपर जितना अधिक प्रकृति का प्रभाव होगा वह उतना ही अधिक जड़ात्मक गुणों को प्रकट करेगा और जितना कम प्रभाव होगा वह चेतन्यता को प्रकट करेगा। पर यह सब सूक्ष्म ब्रह्म के मन में ही विचार तरंगों के रूप में होता है अतः वास्तव में यह ब्रह्माॅंड निर्माण की घटना, ब्रह्म की कल्पना के अलावा कुछ नहीं है।
अब प्रश्न  उठता है कि जब यह सब ब्रह्म की कल्पना ही है तो हम इसे वास्तविक रूप में क्यों अनुभव करते हैं? और जब यह उनकी कल्पना ही है तो इसे तो  अब तक समाप्त हो जाना चाहिये?
इसका उत्तर यह है कि जब कोई कल्पना करता है तो जब तक कल्पना जारी रहती है तब तक प्रत्येक विचारी हुई बस्तु और कार्य सत्य लगता है और यह तब तक सत्य होता है जब तक कल्पना जीवित  रहती है। और, कल्पना के विचार किस प्रकार कार्य करते हैं? मन का कुछ भाग जो क्रिया में भाग लेता है अहम तत्व कहलाता है और जो भाग क्रिया के परिणाम को प्रकट करता है उसे चित्त कहते हैं। जैसे कोई व्यक्ति पुस्तक की कल्पना अपने मन में करता है तो उसका अहम तत्व पुस्तक का विचार करते हुए चित्त में रूप तन्मात्रा को ग्रहण कराकर पुस्तक का आकार देने का कार्य कराता है। पुस्तक के उदाहरण में यह कहा जा सकता है कि पहले से देखी हुई वस्तु के बारे में इंद्रियों के द्वारा तन्मात्राओं के ग्रहण करने की बात समझ में आती है पर जिस को कभी नहीं देखा उसके बारे में क्या? इस संबंध में मानलो सागर में बैठा कोई व्यक्ति इंग्लेंड के बारे में विचार करे तो स्थान समय और पात्र की सीमित क्षमताओं के कारण इंद्रियों का कार्य समाप्त हो जाता है केवल अहम तत्व के सहारे चित्त में ही इंग्लेंड के आकार प्रकार की रचना होने लगेगी इसे ही कल्पना कहेंगे। जब तक अहमतत्व यह कल्पना करता रहेगा, सागर में बैठा व्यक्ति इंग्लेंड में अपने को अनुभव करेगा और वह उसे सत्य लगेगा परंतु ज्यों ही अहमतत्व विचार करना समाप्त करेगा चित्त तत्व भी लिये हुए रूपों को समाप्त कर देगा और व्यक्ति की इंद्रियाॅं अपने स्थान और पात्र के संबंध को ग्रहण कर लेंगी और वह सागर में होने का अनुभव करने लगेगा। इसके बाद ही वह यह अनुभव करेगा कि अब तक वह कल्पना के इंग्लेंड में था और वह सत्य नहीं था।
अब यह बात सामने आती है कि कुछ भी घटित होने के लिये मन का होना अनिवार्य है। सगुण ब्रह्म की मानसिक तरंगें ही इस विश्व  के होने का आभास देती हैं। सगुण ब्रह्म में सभी इकाई चेतनाओं का समूह पुरुष और सभी इकाई मनों का समूह ब्राह्मिक मन कहलाता है। इस प्रकार इकाई मन के समान ही ब्राह्मिक मन भी महत, अहम और चित्त के रूपों में कार्य करता है। अहम तत्व कार्य करता है और चित्त तत्व उसके परिणाम को कार्य रूप देता है, तथा महत् तत्व साक्षी स्वरूप होता है। स्पष्ट है कि यह ब्रह्माॅंड सगुण ब्रह्म के अहम तत्व की कल्पना के अनुसार चित्त की रचना है। चित्त किसी कल्पना का आकार इंद्रियों की सहायता से जैसे इकाई मन के उदाहरण में, और विना इंद्रियों की सहायता से जैसे ब्राह्मिक मन के उदाहरण में, कर सकता है। चूॅंकि सगुंण ब्रह्म के बाहर या पहले कुछ नहीं था अतः उसका चित्त किसी भी प्रकार का आकार नहीं ले सका भले ही उसका अहम तत्व ऐंसा चाहता रहा हो। इसलिये अहम तत्व के विचार के अनुसार चित्त को काल्पनिक आकार देना अनिवार्य हो गया। इस प्रकार यह ब्रह्माॅंड सगुण ब्रह्म के चित्त का निर्माण है। यह कल्पना सत्य प्रतीत नहीं होती यदि यह केवल सगुण ब्रह्म की ही कल्पना होती परंतु सगुण ब्रह्म की चेतना अनन्त इकाई चेतनाओं का समूह है और उनका मन अनन्त इकाई मनों का समूह है अतः कल्पना जारी रहने के समय तक इसका सत्य प्रतीत होना इकाई मनों के लिये भी लागू होगा। इसी लिये कल्पना होते हुये भी यह विश्व  सत्य प्रतीत होता है। इस संबंध में जादूगर का उदाहरण उचित लगता है, जैसे जादूगर एक रस्सी को वायु में ऊपर की ओर भेजता है और उसपर अपने किसी साथी को कटार लिये चढ़ते हुए दिखाता है फिर थोड़ी ही देर में उस आदमी का कटा सिर और धड़ क्रमशः  नीचे गिरता है। जादूगर दुख मनाते हुए रोने लगता है और द्रष्टालोग मूक होकर इसे आश्चर्य चकित होकर देखते रहते हैं। जादूगर इस हादसे का लाभ उठा कर रोते हुए द्रष्टाओं से पेट पालने के नाम पर पहले से अधिक धन एकत्रित करता है और इसी बीच उसका सहयोगी भीड़ में से हंसते हुए सबके सामने आ जाता है।
इस द्रश्य  को सैकड़ों लोग देखते हैं और उन सभी को यह सत्य लगता है जब कि सब जानते हैं कि रस्सी हवा में बिना सहारे के स्थिर कैसे रह सकती है और फिर जिसका सिर और धड़ कट कर अलग अलग पड़ा हो वह जीवित कैसे हो सकता है? सब से गलती नहीं हो सकती? तो यह सब इतना स्पष्ट कैसे होता है? आइये देखें। कोई भी द्रश्य  आॅंखों द्वारा ही देखा जाता है और इससे पहले अहमतत्व कल्पना करता है और चित्त उसे आकार दे देता है। जादूगर किसी साधना के बल पर प्राप्त शक्ति से अपने मन को इतना विस्तारित कर लेता है कि वह उपस्थित सभी लोगों के अहमतत्व को प्रभावित या सम्मोहित कर सके तो वह वहाॅं पर उपस्थित सब के मनों की गतिविधियाॅ रोक कर जैसा वह सोचेगा उसके अनुसार सोचने को वाध्य कर सकता है। इस अवस्था में जादूगर का विस्तारित मन दर्शकों  का संयुक्त मन बन जाता है। जादूगर का अहमतत्व दर्शकों का अहमतत्व बन जाता है अतः जब तक वह जैसा सोचता है दर्शकों  का चित्त वैसा ही आकार ले लेता है और सोचना बंद होने पर सब समाप्त हो जाता है। इस प्रकार जादूगर की कल्पना दर्शकों  के लिये सत्य प्रतीत होती है। मानलो जादूगर की क्षमता सौ मीटर तक सम्मोहित करने की है तो इस दूरी के आगे के दर्शकों  को वह आॅख बंद किये खड़ा दिखेगा और कोई द्रश्य  दिखाई नहीं देगा। वास्तव में वह आॅंख बंद कर सारे द्रश्य  की जैसी कल्पना करता जाता है वैसा ही दर्शकों  को द्रश्य  दिखाई देता जाता हेै। ब्राह्मिक मन सभी इकाई मनों का संयुक्त मन है अतः वह जैसी कल्पना करेगा इकाई मन वैसा सत्य अनुभव करेंगे। जिन्होंने साधना के बल पर अपने मन को ब्राह्मिक मन से आगे विस्तारित कर लिया है उन्हें यह विश्व  जादूगर के प्रदर्शन  की भाॅंति असत्य लगता है।
जिन्होंने साधना के द्वारा यह अनुभव कर लिया है कि निर्पेक्ष सत्य क्या है वे सत्यद्रष्टा ऋषि कहलाते हैं। चूंकि ब्रह्म के चित्त ने इस ब्रह्माण्ड  का आकार ग्रहण किया है अतः उसे सत्य होना चाहिये और कल्पना होने के कारण उसे असत्य होना चाहिये अतः स्पष्ट हुआ कि यह ब्रह्माॅंड न तो सत्य है और न ही असत्य, यह आपेक्षिक सत्य है। संचर क्रिया में ब्रह्म मन निर्माण की कल्पना करता है और प्रतिसंचर क्रिया में उसे समाप्त करने की। इस प्रकार गैलेक्सियाॅं, स्पेस और अन्य पिंड, वनस्पति, जीवधारी, मनुष्य आदि सभी इकाई मन और चेतनाएं वापस परम चैतन्य में मिलने की कल्पना भी ब्रह्म मन की है। अतः जब तक सभी इकाई मन ब्रह्म मन में नहीं मिल जाते और सभी इकाई चेतनायें परम चेतना में नहीं मिल जाती यह संसार चलता रहेगा। वास्तव में पुरुष पर प्रकृति का अधिकतम प्रभाव ब्रह्म चक्र के आधे भाग तक रहता है इसके अगले आधे चक्र में उसका प्रभाव कम होने लगता है और पुरुष पर चेतना का प्रभाव बढ़ने लगता है मनुष्य तक आते आते वह चेतना अधिकतम प्रतिफलित होने लगती है अतः मनुष्य स्वतंत्र रूप से सोच विचार रखने लगता है। सगुण ब्रह्म में मूला प्रकृति, महत्तत्व, अहम तत्व और पंचभूत सहित आठों मिलकर उनका अंतःकरण बनाते हैं जबकि मनुष्य के अंतःकरण में महत्तत्व और अहमतत्व ही होते हैं अन्य सब वहिःकरण कहलाते हैं अतः उसका अहम तत्व बढ़ा चढ़ा रहने से अपने कर्म और विचारों के लिये स्वतंत्र रहता है और अपने संस्कारों के अनुसार जन्म मृत्यु का अनुभव करता है। सगुण ब्रह्म के अंतःकरण में स्थित रहकर भी वह, इस द्रश्य  जगत को अपने से बाहर मानता है और अनुभव करने लगता है कि यह सब मेरे उपभोग के लिये ही हैं। सगुण ब्रह्म अपने काल्पनिक विचारों से निर्मित संस्कारों को भोगकर सभी इकाई मनों को मुक्त करना चाहते हैं पर मनुष्य नित्य अपने नये नये संस्कारों के कारण इस काल्पनिक विश्व  को बनाये रखने के लिये उन्हें विवश  किये हैं।
सगुण ब्रह्म साधना करके जब मुक्त हो जाते हैं तब वह हिरण्यगर्भ कहलाते हैं और जब प्रकृति के बंधन में बंधे रहते हैं तब वे प्रजापति कहलाते हैं। मनुष्य जब साधना करके निर्गुण ब्रह्म को प्राप्त कर लेते हैं तो वे मुक्त पुरुष कहलाते हैं, वे चाहें तो मुक्त होकर निर्गुण आनन्द में रह सकते हैं या निर्धारित समय के लिये अन्य मनुष्यों को साधना के मार्ग की शिक्षा देकर मुक्ति के मार्ग पर चलाने के लिये अपने उसी शरीर में बने रह सकते हैं, इस अवस्था में वे तारक ब्रह्म या महासम्भूति कहलाते हैं। अतः तारक ब्रह्म, सगुण ब्रह्म और परम ब्रह्म के बीच पुल का काम करते हैं। मुक्त पुरुष प्रकृति के बंधन में फिर नहीं पड़ते हैं। सगुण ब्रह्म भी मुक्त पुरुष होते हैं और सभी जीव उन्हीं से उत्पन्न होते हैं अतः सगुण ब्रह्म अपनी इच्छा से निर्धारित समय में सभी जीवों को मुक्त करने के लिये सहायता करते हैं और जब तक सभी मुक्त नहीं हो जाते वे भी मुक्त नहीं हो पाते। मनुष्य भी अपनी विचार तरंगों को सगुण ब्रह्म की तरह वस्तुओं में बदल सकते हैं परंतु यह सब उनके द्वारा किये गये पुराने अनुभवों और जानकारियों के आधार पर ही होगा जिसे वे देख सुन सकते हैं, जबकि सगुण ब्रह्म के पहले कुछ था ही नहीं जिसकी नकल की जा सके इसलिये उनका हर समय नया विचार ही होगा। मनुष्य और सगुण ब्रह्म में अन्य अंतर उनके धर्म का है। मनुष्य का धर्म है साधना कर शीघ्र ही मुक्तपुरुष बने जबकि सगुण ब्रह्म का धर्म है सभी निर्मित बस्तुओं और जीवधारियों को मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करने के अवसर उत्पन्न करें।
आधुनिक वैज्ञानिक काॅसमिक काॅंशसनैस और काॅसमिक माइंड के संबंध में एक मत नहीं हैं क्योंकि इन्हें लेवोरेटरी में प्रदर्शित  नहीं किया जा सकता।  वे ब्रह्माॅंड की उत्पत्ति के संबंध में बिग बेंग थ्योरी को ही मानते हैं जिसमें एक बड़े धमाके के साथ इस जगत का होना माना गया है पर यह आज भी रहस्य है कि यह धमाका किसने किया और समस्त तारों और गेलेक्सियों में इतना पदार्थ/ऊर्जा की उत्पत्ति का मूल श्रोत क्या है।  स्पेस , टाइम और पदार्थ की उत्पत्ति , द्रब्यमान और उसमें गुरुत्वाकर्षण के गुण का उद्गम आज भी वैज्ञानिकों को पहेली बना हुआ है। क्यों कि कुछ नहीं से कुछ कैसे उत्पन्न हो सकता है? अतः कुछ न कुछ का अस्तित्व अवश्य  होना चाहिये जो बिग बेंग की घटना को घटित करे। अतः काॅसमिक काॅंशसनैस और काॅसमिक माइंड  के अस्तित्व को स्वीकारना ही होगा जब तक कि कोई अन्यथा प्रमाण नहीं मिलता । हाल में ही लार्ज हैड्रान कोलायडर Large Hadron Collider (LHC), नामक प्रयोग के द्वारा बिगवेंग के समय का तापमान उत्पन्न कर गिव्स बोसाॅन नामक उस कण की उत्पत्ति के संबंध में आॅंकड़े प्राप्त किये गये हैं जो यह बतायेंगे कि पदार्थ की उत्पत्ति कैसे होती है। पूरे ब्रह्माॅंड में पदार्थ का परिमाण 3 से 100x1022 तारों के सम्मिलत द्रव्यमान के बराबर है जो 80 बिलियन गेलेक्सियों में वितरित है। ब्रह्माॅंड की स्थानिक वक्रता शून्य के निकट है। हमारे मस्तिष्क में पाये जाने वाले न्यूरानों की संख्या ब्रह्मांड के सभी तारों की संख्या से अधिक है। इससे यह तो स्पष्ट ही है कि इतने जटिल और रहस्यमयी ब्रह्माॅंड को बनाने वाला मस्तिष्क सुपरनेचरल पावर वाला ही होगा जिसे भारतीय दर्शन में ब्रह्म कहा गया है, आशा  ही जा सकती है कि वैज्ञानिकों के प्रयोग भारतीय दर्शन  के सिद्धान्तों को कभी न कभी अवश्य  स्वीकार करेंगे। आधुनिक वैज्ञानिक भी यह मानते हैं कि सभी तारे अपनी ऊर्जा समाप्त करने के बाद ब्लेक होल में बदल जाते हैं जहाॅं से फोटान कण भी निकल कर नहीं भाग पाता। ब्रह्माॅंड की सभी गेलेक्सियों के सभी तारे ब्लेक होल के रूप में बदलकर समाप्त हो जावेंगे। वैज्ञानिकों ने गणना कर पता लगाया है कि 1040 वर्ष बाद पूरे ब्रह्मांड में केवल ब्लेक होल ही होंगे। वे हाकिंग रेडिएशन के अनुसार धीरे धीरे वाष्पीकृत हो जावेंगे। अपने सूर्य के बराबर द्रव्यमान वाला एक ब्लेक होल नष्ट होने में 2x1066 वर्ष  लेता है, परंतु इनमें से अधिकांष अपनी गेलेक्सी के केेन्द्र में स्थित अपनी तुलना में अत्यधिक द्रव्यमान के ब्लेक होल में सम्मिलित हो जाते हैं। चूंकि ब्लेक होल का जीवनकाल अपने द्रव्यमान पर तीन की घात के समानुपाती होता है इसलिये अधिक द्रव्यमान का ब्लेक होल नष्ट होने में बहुत समय लेता है। 100 बिलियन सोलर द्रव्यमान का ब्लेक होल नष्ट होने में 2x1099   वर्ष लेगा 
भारतीय दर्शन  और आधुनिक विज्ञान के सिद्धान्त दोनों ही इस बात से सहमत हैं कि ब्रह्माॅंड का उद्गम बिंदु से होता है और अंत भी बिंदु में ही होता है। दर्शन  में इन्हें क्रमशः  इच्छाबीज या शिवलिंग तथा ईश्वरग्रास कहते हैं परंतु विज्ञान में अभी तक इनका नाम अज्ञात है।

Monday, 23 March 2015

विश्लेषण और व्याख्या ( लगातार---)




7.2  मन की शक्तियाॅं
 हमें मन की शक्तियों को पहचान कर उनका उपयोग समाज हित में करना चाहिये। मन का प्रमुख कार्य है सोचना, अतः साॅंद्रित सोच द्वारा चिंतन करते हुए साधना करना चाहिये। इसका अर्थ है कि शरीर में कहाॅं कौनसा चक्र और ग्रंथियाॅं होती हैं और किस प्रकार कार्य करती हैं इस का ज्ञान रखकर साधना करने पर वह शीघ्र फलदायी हो जाती है। उचित मात्रा में आवश्यकतानुसार हामोन्स का स्राव करना संभव करने के लिये सोचने  की प्रायोगिक विधियों की खोज करना होगी। मन का दूसरा काम है याद रखना मन के द्वारा विभिन्न प्रकार की याद करने की प्रणालियों की खोज की जाती है इस लिये उसमें यह समझ होना चाहिये कि समान मानसिक प्रकृति की चीजें किस प्रकार संबंधित होती हैं इसके लिये भौतिक और मानसिक प्रयासों के साथ साथ आध्यात्मिक प्रयास भी जोड़ना चाहिये। उपग्रंथियों से अवाॅंछित हारमोन्स उत्पन्न न हो और चक्रों के गुणों द्वारा समृति के बढ़ाने की प्रणाली से संबंध जोड़ा जाना चाहिये। तीसरा काम विभिन्न मानसिक क्षेत्रों में वैज्ञानिक ढंग से हस्तान्तरण और विभाजन की पद्धतियों को खोजना होगा। यह पद्धतियाॅं मनुष्यों मनुष्यों, प्राणियों प्राणियों,  और पौधों पौधों के लिये भिन्न भिन्न होंगी। चैथा काम विवेक और बुद्धिवाद के लिये भौतिक मानसिक और आध्यात्मिक सभी प्रकार के अधिक कार्यक्षेत्र तलाशना होंगे परंतु इसके लिये मानसिक क्षेत्र में टेलीपैथी और क्लेयरवोयेंस जैसे विचारों के पक्ष को छोड़ना होगा। आध्यात्मिक क्षेत्र में परमपुरुष से जुड़ने के प्रयास करने को ही सर्वोत्तम माना गया है ओकल्ट अर्थात् अलौकिक शक्तियों के पाने को नहीं।
इसलिये कुछ तथ्य जो बार बार मन को भ्रमित करते हैं जैसे, देवता, देवीशक्ति, और ओंकार। इन्हें अच्छी तरह समझना आवश्यक  है।
7.21 देवता - जब किसी का व्यक्तित्व और दर्शन  पूर्णतः एक समान हो जाते हैं तो वह देवता हो जाता है। ‘‘द्योतते क्रीडते यस्मात् उदयते द्योतते दिवि, तस्मात् देव इति प्रोक्तः स्तूयते सर्व देवतैः।‘‘ अर्थात् ब्रह्मांड के नाभिक से उत्सर्जित होने वाले जीवन के अनंत आकार, जो समग्र ब्रह्मांड में गतिशील हैं और प्रत्येक अस्तित्व के भीतर रहकर उसे नियंत्रित करते हैं और सबको प्रभावित करते हैं देवता कहलाते हैं। उदाहरणार्थ, शिव का आदर्श  उनके जीवन से विलकुल एकीकृत है अतः इस परिभाषा के अनुसार उन्हें देवता कहा जाता है। परंतु शिव के व्यक्तित्व के अनुसार वह तो समग्र देवताओं के समाहार हैं अतः देवता शब्द तो उनके लिये बहुत छोटा लगता है, वे तो देवताओं के भी देवता हैं अर्थात् महादेव हैं।

7.22 देवीश शक्ति - जब ब्रह्मांड के नाभिक से कोई रचनात्मक तरंग उत्सर्जित  होती है तो वह अपने संकोच विकासी स्वरूप के साथ विकसित होने के लिये प्रमुख रूप से दो प्रकार के बलों का सहारा लेती है। 

1. चितिशक्ति 2. कालिकाशक्ति। वास्तव में पहला बल उसे आधार जिसे हम ‘‘स्पेस‘‘ कहते हैं, देता है और दूसरा बल ‘‘टाइम‘‘ अर्थात् कालचक्र में बांधता है, इसके बाद ही उस तरंग का स्वरूप, अपना आकार पाता है। ध्यान रहे इस कालिकाशक्ति का तथाकथित कालीदेवी से कोई संबंध नहीं है, काल अर्थात् (eternal time factor) के माध्यम से अपनी क्रियाशीलता बनाये रखने के कारण ही इसे कालिकाशक्ति नाम दिया गया है।

7.23 ओंकार ब्रह्माॅंड के निर्माण होने के समय जो ध्वनि उत्पन्न हुई उसे वेदों में ओंकार ध्वनि के नाम से जाना जाता है जिसमें उत्पत्ति, पालन और संहार तीनों सम्मिलित हैं। मानव कानों की श्रव्यसीमा में आने वाली ये ध्वनि की तरंगें विश्लेषित करने पर पचास प्रकार की पाई जाती हैं जिन्हें काल अर्थात् समय का वर्णक्रम कहा जाता है इन्हें स्वर ‘अ‘ से प्रारंभ (निर्माण का बीज मंत्र) और व्यंजन ‘म‘ (समाप्ति का बीज मंत्र) में अंत मानकर काल को अखंड रूप में प्रकट करने के लिये अथर्ववेदकाल में इस रहस्य को समझाने की दृष्टि से भद्रकाली की कल्पना कर उसके हाथ में ‘अ‘ उच्चारित करता मानव मुंह बनाया गया, अन्य स्वरों और व्यंजनों के प्रत्येक के एक एक मुंह बनाकर शेष 49 अक्षरों के मुंहों की माला भद्र काली को पहनाई गई और कालचक्र पूरा किया गया क्योंकि  अथर्ववेदकाल में लिखना पढ़ना लोगों ने सीख लिया था परंतु वेदों के लिखने पर प्रतिबंध था।  पूर्वोक्त मानव मुंहों को ही वर्णमाला / अक्षमाला का प्रतिनिधि उदाहरण माना गया क्योंकि  उच्चरण मुंह से ही किया जाता है। वास्तव में काल या समय, क्रिया की गतिशीलता का मानसिक परिमाप है और यह अनन्त ध्वनियों/तरंगों का सम्मिलित रूप होने से अखंड नहीं है, यह अलग बात है कि हम अपने कानों से उन सभी को नहीं सुन पाते।



Friday, 20 March 2015

अन्त ;भाग एक ( उपसंहार)

पिछले खण्डों में  आपने, ज्ञान की प्राप्ति  हेतु मेरी  खोज यात्रा के दौरान संकलित किये गए कुछ रत्नों की परख की है और आनन्द पाया। है।  कुछ मित्रों को भाषा अधिक कठिन लगी जिस का कारण मैं पहले भी बता चुका हूँ कि विषय वस्तु की गंभीरता को देखते हुए संस्कृत भाषा में दिए गए तथ्यों को विना किसी काट छाँट के अर्थात , यथावत रखने के प्रयास में यह हुआ है।  आप सभी ने  गंभीरता से इसे आत्मसात किया है और सराहा है।  सातवें और आठवें खंड में इन रत्नों को विभिन्न वैज्ञानिक आधार  देकर नए निष्कर्ष निकलने का प्रयास किया  गया है और समय समय पर जिज्ञासुओं के मन में उठने वाले स्वाभाविक, अधिकांश प्रश्नों के उत्तरों को देने का प्रयास भी किया गया है।  आशा है कि पिछले खण्डों में भाषा के कारण या अन्य किसी कारण  से  तथ्यों को समझने में कोई कमी रह गयी होगी तो इन आगामी दोनों खण्डों से अवश्य ही पूरी हो जाएगी।

अन्त ;भाग एक ( उपसंहार)
7.0: विश्लेषण  और व्याख्या
जैसे जैसे मैं ज्ञान की खोज में अपना पराक्रम बढ़ाता जाता मुझे हर बार कुछ न कुछ नया और विचि़त्र मिलता जाता और मैं समझने और संरक्षित रखने का प्रयास करता। ग्रंथीय सामग्री के ढेर लगने लगे और मन में संचित की गई सामग्री भी मन से इधर उधर सरकने लगी क्योंकि 12 वर्ष की आयु से लेकर 63 वर्ष की आयु तक केवल ग्रंथों से संतों और मतों से संप्रदायों के चक्कर में सब कुछ गड़बडाने लगा।  मेरे मन में विचार आया कि जिस उद्देश्य  से अनेक वर्षो से पराक्रम किया गया है कहीं वह  व्यर्थ ही न चला जाये क्यों कि अब और अधिक समय नहीं बचा है। एक बात अधिक मन में आती कि ज्ञान की कोई सीमा नहीं है इसलिये अब तक संग्रहित किये गये साहित्य को विवेकपूर्ण, वैज्ञानिक विश्लेषण करने का कार्य करके इतनी लंबी अवधि के सर्वेक्षण का परिणाम निकाल कर सब के सामने रख दिया जावे जिससे अन्य जिज्ञासु लाभान्वित हों और उन्हें इधर उधर भ्रमित होकर भटकने से बचाया जा सके।
# आद्य भाग के नन्हेंलाल से शर्माजी तक और शर्माजी से शुद्धसत्वानन्द जी तक के प्रारंभिक संपर्को से जीवन में आया क्रमिक परिवर्तन प्रकट करता है कि प्रकृति अपना काम नियमानुकूल करती है और संस्कार अपने अपने क्रम में अपने फलों का प्रभाव डालने के लिये यथा समय जीवन में आते रहते हैं। महत्व उस मुहूर्त का होता है जिसमें  हमें सामने से आ रहे अनेक प्रकार के अनुकूल और प्रतिकूल प्राकृतिक बलों के साथ सामंजस्य विठाकर तत्व की बात पकड़ने में सफलता मिल जावे। संस्कारों के अनुकूल प्रकृति ने मुझे दोनों प्रकार के अवसर दिये यदि स्वविवेक से निर्णय न लिया होता तो पढ़ाई लिखाई से संपर्क तोड़कर झाड़ फूंक में अपनी प्रतिष्ठा के पीछे भागता और सत्य से दूर हो जाता। इससे यह बात तो स्पष्टतः सिद्ध हो जाती है कि यदि मन में सच्ची लगन हो तो सन्मार्ग और अभीष्ट की प्राप्ति हो ही जाती है चाहे उसमें सहायक या अवरोधक कोई भी हों ।
# हमारी आॅंखें इस द्रश्य  जगत के संपर्क में सबसे पहले आती हैं अतः वही सबसे अधिक प्रभावित करता है और वही  हमारा प्रारंभ और अंत बन जाता है। वैज्ञानिक यह रहस्य जानने में दिन रात जुटे हुए हैं कि यह संसार किसने बनाया और यह धरती ,सूर्य , गेलेक्सियाॅं कहाॅं से आ गई। पिछले पाॅंच सौ वर्षों से लगातार प्रयास जारी रहने के बाद भी वे अभी भी यह रहस्य नहीं जान सके । मध्य भाग एक में संकलित किया गया वैज्ञानिक खोजों का कुछ विवरण उनके अपूर्ण ज्ञान को पूरा करने का प्रयास माना जा सकता है। वे मानते हैं कि ब्रह्माॅंड अर्थात् कासमस 13.8 बिलियन वर्ष  पहले बिग बेंग के साथ उत्पन्न हुआ जिसका वर्तमान में द्रश्य  व्यास 93 बिलियन प्रकाश  वर्ष है। इतने विस्त्रित क्षेत्र में फैले कासमस का अधिकांश  भाग खाली है, इसमें डार्क एनर्जी, डार्क मैटर के अलावा ब्लेक होल भी हैं जो सभी अरबों खरबों गेलेक्सियों को अपनी ओर खींचते हुए निगल जाने में लगे हुए हैं। वैज्ञानिक अभी भी इस खोज में लगे हैं कि स्पेस, टाइम, गुरुत्व, और पदार्थ में द्रव्यमान की उत्पत्ति कैसे होती है। बिगवेंग किसके द्वारा हुआ और क्यों हुआ इसका उनके पास कोई उत्तर नहीं है। ब्रह्माॅंड में, हम पृथ्वी ग्रह पर रहने वाले मनुष्यों को अभी पृथ्वी के बारे में ही पूरा ज्ञान नहीं है और ब्रह्माॅंड में तो इतने बड़े बड़े पिंड और तारे हैं कि पृथ्वी धूल के कण से भी तुच्छ लगती है और ये बड़े बड़े तारे भी गेलेक्सियों की तुलना में नगण्य हैं। आश्चर्य  तो यह है कि इन सब को ब्लेक होल अपनी ओर खींच रहे हैं और उन्हें उदरस्थ करते जा रहे हैं। वैज्ञानिकों का कहना है कि  1040 वर्ष बाद पूरे ब्रह्मांड में केवल ब्लेक होल ही होंगे। ब्रह्मांड में पाये जाने वाले आकाशीय पिंडों अर्थात् ग्रहों, सूर्यों, गेलेक्सियों, ब्लेक होलों या ऊर्जा (अर्थात् प्रकाश , विद्युत, रेडियो, और ब्लेकएनर्जी)  और पृथ्वी जैसे ग्रहों के जीवधारी आदि सभी,  स्पेस और समय के अत्यंत विस्तारित क्षेत्रों में अपना साम्राज्य जमाये हुए हैं परंतु फिर भी वे अनन्त नहीं हैं अमर नहीं हैं। यह सब
आश्चर्यचकित करने वाले तथ्य सोचने को विवश  करते हैं कि इतने विराट ब्रह्माॅंड का निर्माण शून्य  से तो नहीं हो सकता, कुछ न कुछ है तो अवश्य , जिसने इसे और इसके फलस्वरूप हमसब को बनाया है पर आधुनिक वैज्ञानिक अभी इसका कोई जबाब नहीं दे पाते हैं।
# वैज्ञानिक अनुसंधानों की तरह दार्शनिक क्षेत्र में भी हजारों वर्ष  से इस क्षेत्र में की जा रही व्याख्याएं  अपने अपने ढंग से की जाती रही हैं। किसी भी एक मत को आधार नहीं बनाया जा सकता परंतु विवेकपूर्ण तार्किक आधार पर जिन तथ्यों को उभयनिष्ठ पाया गया है उसे मानकर ही निष्कर्षों पर पहुंचा जा सकता है। सभी दर्शनों  में यह तथ्य स्वीकार किया गया है कि संसार का निर्माण एक परम सत्ता द्वारा किया गया है जिसे विभिन्न नाम दिये गये हैं जैसे परमब्रह्म , परमपुरुष, भगवान,ईश्वर  आदि। वैज्ञानिक इसे, इसलिये अमान्य करते हैं क्योंकि वह दिखाई नहीं देता। दार्शनिक आधार पर तथ्यों को समझने में सरलता हो इसलिये उसकी शब्दावली और परिभाषाओं को मध्य भाग तीन में दिया गया है और इसी लिये भारतीय दर्शन  में सर्वाधिक महत्वपूर्ण और मान्य किये गये दो व्यक्तित्वों को जिन्हें महासंभूति कहा गया है, उनके विचारों और मानव समाज के लिये दी गयी उनकी शिक्षाओं को तार्किक और वैज्ञानिक आधार पर मध्य भाग चार में प्रस्तुत किया गया है। समाज में इनसे संबंधित आडंबरपूर्ण , अतार्किक और अवैज्ञानिक कहानियों को पृथक कर उन्हीं मौलिक तथ्यों को संकलित किया गया है जो समाज ने अब तक जान ही नहीं पाये। इस खंड के अध्ययन से इन महासंम्भूतियों के असली व्यक्तित्व का पता चलता है और यह समझ में आ जाता है कि इनके साथ स्वार्थी लोगों ने कितना आडम्बर जोड़ रखा है जिस आधार पर जन सामान्य को लगातार ठगा जा रहा है।

# भारतीय विशुद्ध  व्यावहारिक दर्शन  तन्त्र और सैद्धान्तिक दर्शन  वेदों में दिया गया है जिसे तर्क और वैज्ञानिक आधार पर मध्य भाग पांच में दिया जाकर मनोवैज्ञानिक क्षेत्र में किया गया विश्लेषण भी साथ में ही दिया गया है। मनोआत्मिक क्षेत्र में आगामी शोधकार्य हेतु आवश्यक सुझावों को  भी इसी में देखा जा सकता है। मानवशरीर विज्ञान, योगमनोविज्ञान और वेद में ब्रह्म विज्ञान से संबंधित तथ्यों का विवरण मध्य भाग पाॅंच में देखा जा सकता है। इन सभी खंडों को गंभीरता पूर्वक अध्ययन कर लेने पर फिर और कुछ जानने की आवश्यकता नहीं रहती है। यह भी सत्य है कि विश्व  के किसी भी मत और सिद्धान्त को मानने वाला क्यों न हो इस ज्ञान को समझ लेने पर वह सभी भ्रमों से मुक्त हो जाता है।
समग्र भौतिक मानसिक और आध्यात्मिक ज्ञान को इस प्रकार विश्लेषित करने और निष्कर्षों को क्रमानुसार प्रस्तुत करने का कार्य आगामी खंडों में किया गया है।

7.1 मानव शरीर एक जीव वैज्ञानिक मशीन
मनुष्य का शरीर उसकी प्रवृत्तियों के द्वारा प्रशासित  होता है। यह शरीर उसका है जिसने इसमें मन को स्थापित किया है। मन को इस शरीर का उपयोग करने का अधिकार दिया गया है, आत्मा या इकाई चेतना इसे अवलोकित करती है और साक्ष्य देती है कि मन क्या सोचता है। यदि आत्मा अवलोकन करना बंद कर दे तो मन काम करना बंद कर देगा। ग्यारह इंद्रियों में से एक अंतःकरण है और दस बहिःकरण। मन का आभ्यान्तरिक भाग शरीर से सीधा जुड़ा रहता है, मन के इसी भाग के द्वारा पेट खाली हो गया है भूख लगी है इसका पता चलता है और वह शरीर को संचालन कर भोजन की तलाश  में जुट जाता है। अंतःकरण मन के आभ्यान्तरिक भाग से तथा बहिःकरण पाॅंच ज्ञानेन्द्रियों और पाॅंच कर्मेंद्रियों से मिलकर बनता है। प्रवृत्तियों का निर्देष अंतःकरण से आता है जो कि मन के चेतन और अवचेतन भाग से बना होता है। अंतःकरण सोचता विचारता और स्मरण रखने का कार्य करता है और उसी के अनुसार शरीर कार्य करने लगता है। इस तरह यह जीववैज्ञानिक मशीन प्रवृत्तियों के निर्देशों  में कार्य करती है।
7.11 जीव वैज्ञानिक मशीन में महाभारत :
कुरुक्षेत्र  का अर्थ है कर्म संसार, जो लगातार कुछ करने को पूछता है, कुरु का अर्थ है करना जो क्षेत्र कह रहा है कि कुछ करो, कुछ करो वह है कुरुक्षेत्र। और धर्मक्षेत्र है , आन्तरिक मानसिक संसार जहाॅं पांडव प्रभावी होते हैं। पूर्व,  पश्चिम , उत्तर दक्षिण, ऊर्ध्व  और अधः ये छः दिशायें और ईशान, आग्नेय, वायव्य, और नैऋत्य ये चार अनुदिशायें मिलकर कुल दस दिशायें होती है। मन अंधा है अतः वह विवेक के द्वारा देख व समझ पाता है। मन धृतराष्ट्र है और उसके दस एजेंट वहिःकरण की दसों इंद्रियाॅं , इन दसों दिशाओं में एकसाथ कार्य करते हैं अतः ( 10 X 10 = 100 ) यही धृतराष्ट्र के पुत्र हैं। शरीर की रचना करने वाले पंच तत्व पाॅंडव हैं। सहदेव हैं ठोस अवस्था अर्थात्, मूलाधार चक्र  जो कि सभी प्रश्नों  के उत्तर दे सकते हैं, नकुल स्वाधिष्ठान चक्र अर्थात् जल तत्व, अर्जुन ऊर्जा को प्रदर्षित करते हैं अर्थात् मनीपुर चक्र, भीम वायु तत्व अर्थात  अनाहत चक्र को और विषुद्ध चक्र या व्योम तत्व को युधिष्ठिर प्रदर्षित करते हैं। विशुद्ध चक्र तक भौतिक संसार समाप्त हो जाता है और आध्यात्मिक संसार प्रारंभ हो जाता है। इसलिये भौतिकवादियों और आध्यात्मवादियों अर्थात् स्थूल और सूक्ष्म के बीच में होने वाले झगड़े में युधिष्ठिर स्थिर रहते हैं। युद्धे स्थिरः यः सः युधिष्ठिरः। कृष्ण सहस्त्रार में हैं । इकाई जीव चेतना जो कि मूलाधार में कुंडलनी की तरह होती है वह पाॅंडवों की मदद से कृष्ण तक पहुंचना चाहती है। पाॅंडव उसे मदद करना चाहते हैं परंतु अंधे मन धृतराष्ट्र के सौ पुत्र उन्हें यह करने से रोकते हैं और इकाईजीव  चेतना को बाहरी संसार में ही फंसाये रखना चाहते हैं। इसलिये युद्ध चलता रहता है। धृतराष्ट्र, संजय अर्थात् विवेेक से पूछते हैं कि युद्ध में क्या हुआ।  अंततः जीवात्मा अथवा जीव, पाॅंडवों की सहायता से युद्ध जीतकर कृष्ण के पास पहुंच जाता है।  इसतरह महाभारत प्रत्येक के साथ रोज ही चल रहा है यही महाभारत का असली रहस्य है।
        अब मानलो यदि इस जीव वैज्ञानिक मशीन के मनीपुर चक्र अर्थात् नाभि के निकट की कोई उपग्रंथी सक्रिय हो जाये जो व्यक्ति को लज्जामुक्त कर दे तो बाद में इसी विंदु को अन्य प्रकार से दबाव देकर लज्जा को बढ़ाया जा सकता है। जब कोई लज्जामुक्त होता है वह कहीं भी किसी भी मानसिक जटिलता के रह सकता है, पर लज्जाग्रस्त व्यक्ति का चेहरा लाल हो जाता है और मन के चाहने पर भी वह बहुत से काम नहीं कर पाता अर्थात् इस प्रकार का भौतिक परिवर्तन हो जाता है । अतः मानव संरचना, ग्रंथियों और उपग्रंथियों के द्वारा नियंत्रित होती है इसलिये वह एक जैववैज्ञानिक मशीन है। इसी कारण किसी एक ही ग्रंथी से हारमोन्स का कम या अधिक मात्रा में स्राव होना इस मशीन में दोष उत्पन्न कर देता है। अतः साधना के द्वारा इन ग्रंथियों पर नियंत्रण कैसे किया जाता है सीख लेना चाहिये।
        मनुष्यों का मनोविज्ञान एक समान होता है। जैसे किसी बृद्ध और युवा में बहस हो रही हो तो बृद्ध कहेगा कि अच्छा, तू मुझे सिखाता है? मैं तुझे बताता हूँ  आदि।  पर यदि बृद्ध के अनाहत चक्र अर्थात् हृदय की  उपग्रंथी उचित रूपसे सक्रिय हो तो वह बहस में न पड़कर शांतिपूर्वक जबाव देगा क्योंकि उचित हारमोन स्राव से उसका मन संतुलित बना रहा।  स्पष्ट है कि मन के संवेदन बिंदुओं को उचित प्रकार से नियंत्रित करने पर प्रतिक्रियाऐं बदल जाती है। इसी तरह जीववैज्ञानिक परिवर्तन से मनोवैज्ञानिक परावर्तन भी बदल जाते है। आध्यात्मिक साधना से न केवल ग्रंथियों और उपग्रंथियों में नियंत्रण पाया जाता है वरन् नर्व सैलों और नर्व फाइबर में भी परिवर्तन किया जा सकता है। अतः विभिन्न जैव या अजैव वस्तुओं के संपर्क में आने पर उनके लक्षणों और मनोविज्ञान के अनुसार ही कार्य करना चाहिये। साधना के द्वारा सभी चक्रों पर नियंत्रण कर लेने पर आप महामानव बन सकते हैं और अपने निर्धारित लक्ष्य पर पहुंचकर जीवन सफल कर सकते हैं । चूँकि मनुष्य जन्म पाने का मूल उद्देश्य  साधना करना ही है इसलिये स्वयं साधना करना चाहिये और दूसरों को भी साधना करने के लिये प्रोत्साहित करना चाहिये। अन्य जीवधारियों की अपेक्षा मनुष्यों के शरीर की रचना ही आध्यात्मिक साधना करने के लिये अनुकूल है। मानव शरीर अनेक जन्मों के पुण्यों के प्रभाव से मिल पाता है इसलिये उसका महत्व समझना चाहिये। मूलाधार चक्र में धर्म अर्थ काम और मोक्ष यह चार मूल प्रवृत्तियों का नियंत्रण होता है अतः आध्यात्म साधना की चाह (urge)  मूल वृत्ति है जिससे दूर नहीं भागा जा सकता। मानव मनोविज्ञान, उत्चेतना (urge)   उत्वृत्ति (passion)  वृत्ति (propensity)   और  भावप्रवणता (sentiment)   इन चारों से नियंत्रित होता है।

Wednesday, 18 March 2015

वेद में ब्रह्मविज्ञान ( अंतिम विन्दु )


वेद में ब्रह्मविज्ञान  ( अंतिम विन्दु )

(27 ) जाग्रतावस्थाः  प्रथमपादः स्थूलत्वात् स्थूलभुक्तवाच्च सूक्ष्मत्वात् सूक्ष्मभुकत्वाच्चैक्यादानन्दभेगाच्च, सोयमात्मा चतुष्पाज्जागरितस्तानः स्थूलप्रज्ञ सप्ताॅंग एकोनविंशति मुखः स्थूल भुक् च भूरात्मा विश्वो  वैश्वा  नरः प्रथमः पादः। 
जाग्रत अवस्था ही आत्मा की स्थूलतम अवस्था है, क्योंकि, स्थूल जगत से तन्मात्र ग्रहण करना, या उसके संबंध में  कामना करना, कामना को कार्य रूप देना, कामना को बर्हिमुखी करना, तथा उसका संवेदन और परिणति भी स्थूल भोगात्मक है। इसलिये जाग्रत अवस्था में वह स्थूलभुक् है। वह सूक्ष्म भुक् भी है क्योंकि इन स्थूल भोगात्मक क्रियाओं का प्रेरक मानसिक ही होता है मन ठीक न रहे तो अच्छे से अच्छा भोजन भी ठीक नहीं लगता । इसे चतुष्पाद कहा गया है क्योंकि इस समय उसकी प्रकट या अप्रकट भाव से चार अवस्थायें रहती है। जैसे प्रकट भाव से जाग्रत और अप्रकट भाव से स्वप्न सुषुप्ति और तुरीय। जाग्रत अवस्था स्थूल प्रज्ञ है क्योंकि स्थूल वस्तुओं से ही इसे स्थूल ज्ञान प्राप्त होता है। इसके सात अंग होते हैं पंच भूत, चित्त, महत्तत्व और अहंतत्व। विकासात्मक उन्नीस मुख हैं इस इंद्रियाॅं, पाॅंच वायु, चित्त, महत्तत्व अहंतत्व और मूला प्रकृति। इस जाग्रत अवस्था में सबकुछ ही इसका भक्ष्य है इसलिये इसे वैश्वानर कहा जाता है। इस अवस्था के अभिमानी साक्षी पुरुष को जीव भाव में विश्व  और परमात्म भाव में विराट कहा जाता है। 
स्वप्नावस्था द्वितीयपादः- स्वप्नस्थानः सूक्ष्मप्रज्ञः सप्ताॅंग एकोनविंशतिमुखः सूक्ष्मभुक्चतुरात्मा तैजसो हिरण्यगर्भो द्वितीय पादः। 
इस आत्मा का उपजीव्य संपूर्ण मानस देह रहता है अर्थात् भोग्य वस्तु चिंताजगत में ही सीमित रहती है और इसे स्वप्न अवस्था कहा जाता है।  इसमें हाथ पैर आदि इंद्रियाॅं और उन्नीस मुख भी ठीक ही रहते है। पर स्थूल जगत से कुछ भी भक्ष्य ग्रहण नहीं करता सब कुछ मानसिक ही होता है अतः सूक्ष्म भुक् कहलाता है । यह चतुरात्मा होता है अर्थात् जाग्रत, सुषुप्ति और तुरीय स्वप्नावस्था में निहित रहते हैं। स्वप्नावस्था के अभिमानी जीवात्मा को तैजस और अभिमानी परमात्मा को हिरण्यगर्भ कहते है।
 सुषुप्तावस्था तृतीयपादः- यत्र सुप्तो न कश्चन्  कामं कामयते न कश्चन्  स्वप्नं पश्यति, तत्सुषुप्तं सुषुप्तस्थानः एकीभूतः प्रज्ञानघन एव आनन्दमयो ह्यानन्तभुक् चेतोमुखष्चतुरात्मा प्राज्ञ ईश्वरस्तृतीयः पादः। 
जिस अवस्था में मनोमय और काममय कोश  कोई काम नहीं करते अर्थात् जब जीव कोई विशेष वासना या कामना लेकर अपने शरीर  का नियंत्रण नहीं करते या कोई स्वप्न नहीं देखते इस को सुषुप्ति अवस्था कहा जाता है। उस समय मन का कोई चिंतागत या बाह्यिक विकास  नहीं होता अतः जीवों के लिये वह प्रज्ञानघन अवस्था है। स्थूल या सूक्ष्म मन की क्रिया न रहने के कारण सुख या दुख हर्ष या विषाद कुछ समझ नहीं पाता। पर इस अवस्था में भी एक प्रकार का आनन्द ही पाता हैं। जाग्रत या स्वप्नावस्था की तरह इस अवस्था में वस्तु भेद नहीं रहता अतः जागतिक सभी वस्तुएं उसके समीप एकीभूत हो जाती हैं। किन्तु यह एकीभाव आत्मव्याप्ति और कैवल्य की अवस्था नहीं है। वस्तुगत भेदज्ञान बहुत प्रकाश  अथवा बहुत अंधकार में लुप्त हो जाता है भले ही देखने सुनने की क्षमता रहती है  पर वस्तु को देख नहीं पाते हैं, अतः निद्रा का एकीभाव मोहात्मक अंधकारमय एकीभाव है और इसका आनन्द तामसिक आनन्द है। सुषुप्ति भंग होने पर जीवों में स्वप्नावस्था आ जाती है या जाग्रत अवस्था आ जाती है। स्वप्नावस्था के सप्ताॅंग और एकोनविंशति मुख सुषुप्तावस्था में बीज रूप में रह जाते हैं नष्ट नहीं होते। जीव भाव में इस अवस्था को प्राज्ञ और परमात्मभाव में इसे ईश्वर  कहते हैं।सूत्र में जैसे मणि गुथे रहते हैं उसी प्रकार समस्त जगत इसमें गुथे रहते हैं इसी लिये इसका नाम सूत्रेश्वर  है। इस अवस्था के अभिमानी पुरुष को प्राज्ञ कहने का कारण यह है कि इसमें सर्व ज्ञानशक्ति का बीज निहित रहता है। ज्ञान है स्फुरण की संभावना है पर अंधकार के कारण भेद ज्ञान नहीं है। इसका आनन्द खंडानन्द है पूर्ण नहीं। 
तुरीयावस्था चतुर्थपाद:- एष सर्वेश्वर  एष सर्वज्ञ एषेअन्तर्याम्येष योनिः सर्वस्य प्रभवाप्ययौ हि भूतानां त्रयप्येतत् संषुप्तं स्वप्नं माया मात्रं चिदेकरसो ह्यमात्मा अथ चतुर्थष्चतुरात्मा तुरीयावसितत्वादेकैकस्योतानुज्ञात्रज्ञाअविकल्पैस्त्रयमत्रसपि सुषुप्तं स्वप्नं मायामात्रं चिदेकरसो ह्याथयमादेशो  न स्थूलप्रज्ञं न सूक्ष्मप्रज्ञं नोभयतःप्रज्ञंनाप्रज्ञं प्रज्ञानघनम दृष्टमव्यरहार्यंग्राह्मलक्ष्णामचिन्त्यमव्यपदेश्य - मेकात्मप्रत्यसारं प्रपंचोपशमं  शिवं शा न्तं अद्वेतम मन्यते। 
स एवात्मा स एष विज्ञेय ईश्वरग्राससस्तुरीयस्तुरीय। 
तुरीय अवस्था सर्वज्ञ या सर्वेश्वर  नहीं, क्योंकि कुछ जानने के लिये ज्ञान, ज्ञाता, ज्ञेय आदि विभिन्न सत्ताओं का होना अनिवार्य है। किसी पर नियंत्रणाधिकार रखने के लिये नियंता, नियंत्रण और नियंत्रित के अस्तित्व बिना संभव नहीं। सब कुछ जानने का भाव तब तक रहता है जब तक अपने से भिन्न कोई सत्ता हो तुरीय अवस्था में दूसरी सर्वसत्ताओं का अस्तित्व बोध नहीं रहता केबल एक ही सत्ता रहती है अतः तुरीय किसी का ज्ञाता या ईश्वर  नहीं हो सकता। सर्वज्ञत्व या ईश्वरत्व  भावयुक्त आत्मा को प्राज्ञ कहेंगे तुरीय नहीं। प्राज्ञ ही सबके प्रेरणादाता और जगत के अस्तित्व की सिद्धि के कारण हैं । इसी लिये उनका शरीर कारण शरीर कहलाता है और स्वयं सुषुप्तात्मा या कारणात्मा हैं। तुरीय साक्षी चैतन्य हैं और कारण शरीर खंड खंड अनन्त विकासों के माध्यम से अपने को परम श्रेयत्व के साथ महामिलन की कामना से स्फुरण के पथ पर ले जा रहा है। संचर क्रिया की प्रथमावस्था का नाम है कारण शरीर। कारण शब्द का अर्थ है बीज और इनका शरीर विश्व्वीज  है। समग्र विश्व  के विकास का भाव उनमें इसी अवस्था में रहता है इसी लिये वह सर्व सत्ताओं के मूल भाव के नियंता, सर्वज्ञ और सर्वेश्वर  हैं। प्रतिसंचर की शेष अवस्था संचर की प्रथम अवस्था की तरह है। परंतु दोनोें में अंतर यह है कि संचर के समय कारणात्मक बीज में अंकुर के उद्गम की संभावना होती है पर प्रतिसंचर में इसके विपरीत मूल सत्ता में वापस लौटने की क्रिया होती है। तुरीय ब्रह्म, नृसिंह  या पुरुषोत्तम, कारण शरीर के साथ ओत योग, अनुज्ञातायोग, अनुज्ञा योग, और अविकल्प योग से संबंध रखते हैं। जहाॅं तुरीय , कारण शरीर के साथ ज्ञाता के रूपमें हमे, आदिरूप में सब जगह व्याप्त होकर रहते हैं उसे ओत योग कहते हैं, जब इकाई अणु का साक्षित्व होता है तब ओत योग और जब समष्टि या सबका साक्षित्व होता है उसे प्रोत योग कहते हैं। जहाॅं पुरुषोत्तम ज्ञातृभाव हैं वहाॅं ज्ञेय भाव कारण  शरीर है, ज्ञातृभाव जहाॅं अक्षर है वहाॅं क्षर कारण शरीर है। जहाॅं ज्ञातृभाव परब्रह्म हैं वहाॅं ज्ञेयभाव अपरब्रह्म हैं। जब जीवात्मा कारण शरीर में ब्रह्म भाव का आरोप कर उस ओर दौड़ता है उस समय वह प्रकारान्तर से कारण शरीर में ही तुरीय भाव का आरोप करता है। कारणात्मा ही ब्रह्म है। यह भाव तुरीय स्थिति का पूर्वाभाव होने के कारण इस अवस्था को अनुज्ञाता योग कहते हैं। परिछिन्न सविशेष सत्ता जब ध्यानयोग में अपरिछिन्न निर्विशेष भावात्मक अवस्था में आ जाती है या उसमें आने की चेष्टा चलती है तब उसे अनुज्ञा योग कहते हैं। जब किसी दूसरे विकल्प की संभावना नहीं होती अर्थात् सत्ता यहाॅं एकात्म प्रत्यय सारमात्र रहती है तब इसे अविकल्पयोग कहते हैं। आत्मा यहाॅं केवल ज्ञानस्वरूप है आत्मा इस अवस्था में ज्ञेय, ज्ञान, और ज्ञाता इन सभी प्रकार के भावों से रहित होता है, यही निर्विकल्प समाधि की अवस्था है। इसे ही कैवल्य स्थिति कहते हैं। यह चतुर्थ पाद तुरीय ही एकमात्र सत्य है, इसके पूर्व की तीनों अवस्थायें जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति, सापेक्षिक सत्य है। इसी अवस्था में पहुंचने का अभ्यास करना चाहिये। इसे ही ईश्वरग्रास कहते हैं। इस अवस्था का भाषा में वर्णन नहीं किया जा सकता, इसे पाने के लिये आत्मनिवेदन की साधना करना होती है और करना होता है शतप्रतिशत आत्मसमर्पण।

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भाव                        अवस्था                        बीज
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व्यष्टिभाव           जाग्रत या स्थूल                  विश्व 
                         स्वप्न या सूक्ष्म                   तैजस्
                         सुषुप्त या कारण                    प्राज्ञ
समष्टिभाव         क्षीरसागर या क्षीराब्धि         विराट
                         गर्भोदक                              हिरण्यगर्भ
                         कारणार्णव                           ईश्वर या सूत्रेश्वर
                         तुरीय                                   ईश्वरग्रास
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Monday, 16 March 2015

वेद में ब्रह्मविज्ञान क्र. 24 से आगे.……


वेद में ब्रह्मविज्ञान क्र. 24 से आगे.…… 

(25 ) यहाॅं यह ध्यान रखने की बात है कि नृसिंह या पुरुषोत्तम में साक्षी भाव रहने से वे तुरीय अवस्था से भिन्न हैं, तुरीय अवस्था निर्गुण या निरक्षर अवस्था है यहाॅं पर सभी ईश्वरीय विभूतियों की समाप्ति हो जाती है। अन्य बात यह भी कि नृसिंह उपासना पंचव्यूहात्मक उपासना कहलाती है और अनुष्टुप मंत्र  इसी के लिये है। प्रणव या ओंकार जहाॅं सम्पूर्ण ब्रह्मचक्र के लिये व्यवहार  किया जाता है वहीं अनुष्टुप केवल मूल व्यूह के लिये अतः ओंकार श्रेष्ठ है। अनुष्ठुप का स्थान भी ओंकार में ही है। 
‘‘ भूतं भवद भविष्यदिति सर्वमोकारण्व, यच्चान्यन्त्रिकालातीतं तदोप्योेंकार एव‘‘। 
ओंकार सगुण ब्रह्म के स्पान्दनिक विकास की ही शाब्दिक अभिव्यक्ति है। अतः जहाॅं स्रष्टि है वह अतीत ,वर्तमान और भविष्य क्यों न हों ओंकार से पृथक नहीं रह सकती। जहाॅं पर स्रष्टि है वहाॅं देश , काल और पात्र भी होगा। इस ओंकारात्मक कल्पनाधारा को छोड़कर सगुण ब्रह्म का अस्तित्व नहीं रह सकता इस लिये सभी वस्तुओं का अस्तित्व उनकी क्रिया के परिमाप पर निर्भर करता है। क्रिया की गतिशीलता के ऊपर मन की कल्पना विशेष का नाम काल है। मन की सहायता से इस गतिशीलता को ग्रहण करने वाला ही पात्र है और पात्र तथा काल का संबंध स्थापित करने वाली सत्ता ही देश  है। तीनों का अस्तित्व मानसिक क्रियाशीलता या ओंकार पर निर्भर है। ओंकार की अर्धमात्रा अर्थात् चंद्रविंदु में साक्षीयुक्त पुरुषोत्तम स्थित हैं इसलिये अ, उ, म और अर्धमात्रा ये ही क्रमशः  स्रष्टि,स्थिति, लय और साक्षित्व इन चारों का द्योतक है। इसलिये, प्रणवात्मकम् ब्रह्म, तस्य वाचकः प्रणवः , यह कहा गया है। इसीलिये ओंकार उच्चारण करने की वस्तु नहीं है मनुष्य का कंठ इसे ठीक ठीक भावरूप नहीं दे सकता। ओंकार के प्रकाशमान रूप को पकड़कर पहले अर्ध मात्रा से और फिर तुरीय के चतुर्थ पाद में निर्गुण, निष्कल ब्रह्म में स्थान पाकर ईश्वरग्रास में परम शान्ति लाभ करना चाहिये। ‘‘ सर्वे वेदा यत्पदमामनन्ति, तपाॅसि सर्वाणि च यद्वदन्ति, यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यंजरंन्ति, तत्ते पदं संग्रहेण ब्रवीम्योमित्येमतत्।  इसलिये ओंकार सगुण और निर्गुण दोनों का द्योतक है। अ, उ, म, सगुण ब्रह्म को, नाद चिन्ह ( ॅ  )   सगुण और निर्गुण के पार्थक्य को और विन्दु  ( . )  निर्गुण ब्रह्म को प्रकट करता है क्योंकि विंदु में स्थिति तो होती है पर परिमाण नहीं।
(26) वेदों में सगुण ब्रह्म के लक्ष्ण इस प्रकार वर्णित हैं, 
कैवल्य श्रुति के अनुसार, 
‘‘ मय्येव सकलं जातं मयि सर्वं प्रतिष्ठितम्, मयि सर्वं लयं याति तद् ब्रह्माद्वयमस्म्यहम्। जाग्रत्.स्वप्नसुषुप्त्यादि प्रपुचं यद् प्रकाशते,तद् ब्रह्माहमिति ज्ञात्वा सर्वबंधैः प्रमुच्यते।‘‘ 
ऋग्वेद के अनुसार
‘‘ यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते येन जातानि जीवन्ति,यत् प्रयन्तभिसंविषन्त तद् विजिज्ञासस्व तदृब्रह्म।‘‘ महानिर्वाण तन्त्र के अनुसार, 
यतो विश्वं  समुद्भूतं येन जा तंज तिष्ठति, यस्मिन सर्वाणि लीयन्ते ज्ञेयं तद् ब्रह्म लक्षणैः। 
नृसिंह उत्तर तापीय श्रुति के अनुसार,
 ‘‘सर्वं ह्येतद् ब्रह्म अयमात्मा ब्रह्म तमेत्मात्मानमोमिति ब्रह्मणैकीकृत्य ब्रह्मचात्मना ओमित्येकीकृत्य तदेकमजरममृतमभयमोमित्यनुभूय तमिन्निदंसर्वं त्रिशरीरं आरोप्य तन्मयंहि तदेवेति संहरेदोमिति।‘‘
 अर्थात् जोकुछ तुम देखते चिंतन करते या अनुभव करते हो या जो कुछ तुम्हारे दर्शन   चिंतन ओर अनुभव के बाहर है सब कुछ सगुण ब्रह्म या ओंकार है तुम्हारा आत्मा भी ब्रह्म ही है। तुम्हारा अस्तित्व या जगत तथा ब्रह्म  और ओंकार के बीच एकी भाव है। तुम्हारे अस्तित्व, जगत, या ब्रह्म ये सब पृथक पृथक सत्तायें नहीं हैं। इस जड़ जगत के साथ आपने आत्मिक अस्तित्व को ब्रह्म के साथ एकीभाव कर दो , तब केवल मात्र अपने को ओंकार स्वरूप ही पाओगे अर्थात्  उस अवस्था में ओंकार के साथ तुम्हारा एकी भाव होगा। इसी प्रकार ओंकार 
के साथ अपने  को एकीभाव में प्रतिष्ठित करने पर केवल एक विकृति रहित सत्ता बच रहेगी । वहाॅं मृत्यु भी नहीं रहेगी। वहाॅं भय भी नहीं है, क्योंकि  विकृति, भय और मृत्यु होने के लिये दूसरी सत्ता होना आवश्यक  है, परंतु जहाॅं वह एकमात्र सत्ता हैं वहाॅं अजरता, निर्भयता और अमरता है। इसी अविकृत, अमर, अभय ओंकार में तुम लोग अपने त्रिशरीर अर्थात् जाग्रत ,स्वप्न और सुसुप्ति को आरोपित करो। प्रत्येक जीव चार सत्ताओं की समष्ठि है, जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति और स्वरूप।  जाग्रत ,स्वप्न और सुषुप्ति ये तीनों ही स्वरूप की विकृतियाॅं है। इसलिये इसी त्रिशरीर को ब्रह्म में अर्थात् ओंकार में आरोपित कर दो और तद्भाव में ही तन्मय हो जाओ। उस अवस्था में यह भावना जागेगी कि मैं ही ओंकार हूँ  और मैं अपने स्वरूप और स्वभाव में ही रहता हॅूं। इसलिये जब कभी भी कोई जड़ चिंता जागे उसमें ब्रह्म भाव का आरोपित कर देने पर वह संस्कार के रूप में स्थान नहीं बना पायेगी। जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति के भेद के कारण जीवों का शरीर रहता है और वह ब्रह्म से अपने को पृथक समझता है। जीवों का विकास यह क्षुद्र देह है पर ब्राह्मी विकास यह अति ब्रहत् विश्वब्रह्माॅंड है। जीवों का पंचभूतात्मक शरीर ब्रह्म के काममय कोश  में ही उत्पन्न हुआ है जिसमें वे असंख्य देह निर्मित करते हैं क्योंकि अपने को सबसे पृथक कर उन्हें अपने व्यष्टिभाव की रक्षा करना होती है अन्यथा उनमें स्वतंत्रता नही रह पाती। ब्राह्मी कल्पना की धरावाहिकता रखने के लिये मनोमय कोश  में जो वस्तु भेद अपरिहार्य हो जाता है उसी के लिये जीवों की अजस़् संख्यक देह स्रष्टि का निष्चय ही प्रयोजन रहता है अन्यथा वस्तुगत भेद नहीं रहने से कल्पना भी स्थाणु हो जाती है। अभुक्त संस्कार के क्षय के  लिये सगुण ब्रह्म को जब कल्पना करनी ही होगी उस समय भेदात्मक जगत की स्रष्टि करना उनका धर्म हो जाता है। जीवों का कर्म और प्रतिकर्म भोग इन्ही आधारों पर होता रहता है और यह जैव सत्ता जब ब्राह्मी सत्ता से अपना पृथक अस्तित्व त्याग करती है तब कोई कर्मफल भोगना शेष न होने के कारण उसके स्वतंत्र दैहिक सत्ता भी नहीं रहती। यह परिदृश्यमान पंचभौतिक जगत उन सगुण ब्रह्म का काममय शरीर है अर्थात् उनकी मानस देह है। उनका कोई सीमित जड़ शरीर नहीं है अतः उन्हें कोई जाग्रत स्वप्न या सुषुप्ति की अवस्था नहीं होती , उनका सब कुछ मानसिक ही है।

Saturday, 14 March 2015

वेद में ब्रह्मविज्ञान क्र. 22 से आगे -----


वेद में ब्रह्मविज्ञान  क्र. 22 से आगे -----

(23 ) अपाणिपादोहं अचिंत्यशक्तिःपश्याम्यचक्षुः च श्रणोम्यकर्णः,अहं विजानामि विविक्तरूपो न चास्ति वेत्ता मम चिद्सदाहम्। वेदैरनेकैरहमेव वेद्यो वेदान्तकृत् वेद विदेव चाहम, न पुण्य पापे मम नास्ति नाशो  न जन्मदेहेन्द्रियबुद्धिरस्ति। न भूमिरापो न वह्निरस्ति नचानिलोमेस्ति न चाम्बरंच, एवं विदित्वा परमात्मरूपम् गुहाशयं निष्कलम् अद्वितीयम। समस्तसाक्षिं सदसदविहीनं प्रयाति शुद्धं परमात्मरूपम्। जब साधक समाधि की अवस्था में पहुंचते हैं तो वे अपने स्वरूप को सदसदविहीन एक शुद्ध परम चैतन्य समझ लेते हैं उस समय मैं कर्ता हूँ  ऐसा मन में प्रतीत नहीं होता और मन में लगता है कि मैं समस्त विश्व  के बारे में एक निश्चेष्ट साक्षी मात्र हॅूं।
(24 ) ब्रह्मचक्र में ब्रह्माॅंड की सभी वस्तुएं अपने अपने केन्द्रक के चक्कर लगाती हैं जैसे परमाणु के केन्द्रक के चारों ओर आवेश  कण। इन सब में संतुलन बनाये रखने के लिये केन्द्रातिगा(centrifugal force)  और केंन्द्रनुगा  (centripetal force)  शक्तियाॅं कार्य करती है। ये क्रमशः  तमोगुण और सत्वगुण प्रधान होती हैं।
 ‘‘सर्वाजीवे सर्वसंस्थे बृहन्ते तस्मिन् हंसो भ्राम्यते ब्रह्मचक्रे , पृथगात्मानं प्रेरितारम्  च मत्वा जुष्टस्ततस्तेनामृतत्वमेति।‘‘ इसी ब्राह्मी केन्द्र के चारों ओर जीव अनादिकाल से घूमता चलता है और तब तक चलता रहेगा जब तक उसका भेदभाव दूर नहीं हो जाता अर्थात् ब्रह्म से अपने पृथक होने का भाव जब तक दूर नहीं होता तब तक उसका यह घूमना बन्द नहीं होगा। घूमते घूमते  जब इस प्राण केन्द्र की अत्यधिक अनुरक्ति जाग जायेगी तो उसे छोड़कर अन्य सब कुछ को भूल जाना चाहेगा। भोगों की साधना में अंधी आखें उस प्राण केन्द्र को नही देख पाती, इसके लिये उनकी कृपा ही सहायक होती है, ‘‘ महत् कृपायैव भगवत् कृपालेशाद्वा‘‘। उनकी कृपा तभी मिलती है जब एकान्त चित्त में, मन उनकी कृपा का चिंतन करता है। जब तक उनकी ओर जाने की चेष्टा नहीं की जाती है कोल्हू के बैल की तरह एक ही स्थान पर चक्कर काटते रहना पड़ता है। इस ब्रह्मचक्र के प्राण केन्द्र को ही पुरुषोत्तम कहते हैं, वे ही कल्पनामय जगत और ब्राह्मी मन के क्षर और अक्षर के अधीश्वर  हैं। अपने मानस विषय ब्रह्माॅंड और साक्षीस्वरूप पुरुषोत्तम मिलकर सगुण ब्रह्म कहलाते हैं। वेद में सगुण ब्रह्म के लिये गाय़त्री छंद में रचित सावितृ ऋक् व्यवहार में लाया जाता है और नाद विंदु को छोड़कर अ, उ और म को  ओंकार के तीन पाद जैसे प्रयुक्त होते हैं। पुरुषोत्तम के लिये रचित अनुष्टुप छंद की आठ अक्षरयुक्त एक एक पंक्ति ओंकार का एक एक पादस्वरूप गिनी जाती है। ‘‘उग्रं वीरं महाविष्णुं ज्वलन्तं सर्वतोमुखम्, नृंससिहं भीषणं भद्रं मृत्युर्मृत्यु नमाम्यहम्।‘‘ उग्रं:-  इस मंत्र में नृंसिह के लक्षणों का वर्णन है, इन्हें उग्र क्यों कहा गया? उत् अर्थ में अनु अर्थात् अनु़+ग्रह जो करते हैं वे उग्र हैं। सत्य है जिन्होंने स्रष्टि की स्थिति और लय क्रिया को धारण कर रखा है , अनादि काल से स्रष्टि जिनकी अनुग्रह धारा से ध्वंसचक्र के बीच घूम रही है वे ही उग्र हैं। इस छोटी सी पृथ्वी  के लिये सूर्य उग्र हैं क्योंकि पृथ्वी  की उत्पत्ति, स्थिति और लय के कारण वे ही हैं इसी प्रकार पुरुषोत्तम ब्रह्मचक्र के लिये उग्र हैं, उनसे अधिक कोई उग्र है और न हो सकता है। वीरं:- अपने अलौकिक साहस के बल पर ब्रह्माॅंड की प्रत्येक समस्या के सामने आकर चलते रहते हैं, साहस के साथ सिद्धान्त पर पहुंचते हैं और तदनुकूल कार्य करते हैं, जो प्रत्येक के साथ यथोचित व्यवहार करते हैं वही वीर हैं। महाविष्णु:- विष्णु का अर्थ है व्यापनशील, जिन्होने अपनी मानस सत्ता द्वारा अपने अस्तित्व को सब तरह के सीमा बंधनों को तोड़ कर असीम में प्रसारित कर दिया है उन्हें विष्णु नहीं कहेंगे तो किसे कहेंगे? ज्वलंन्त:- जो सर्व शक्तियों की मूल शक्ति हैं सर्वद्युति के जो मध्यमणि हैं वे ज्वलन्त तो होंगे ही।  उनसे ही अन्य सब प्रकाशित होते हैं, तस्यभासा सर्वमिदं विभाति। सर्वतोमुखम:-  वे सर्वसाक्षी हैं सभी छोटी बड़ी वस्तुओं की समस्त क्रियाओं के साक्षी हैं।दसों दिशाओं में जो कुछ था अथवा होगा सभी उन्हीं की मानस सत्ता का विकास है इसलिये वे महान साक्षी हैं सर्वतोमुख हैं। नृसिंह:- नृ का अर्थ है नर और पुरुष का अर्थ है चैतन्य। सिंह का अर्थ है श्रेष्ठ, सब को मिलाकर अर्थ हुआ पुरुष श्रेष्ठ, या पुरुषोत्तम। साधना विरोधी शक्तियों से साधकों की रक्षा करते हैं। यह आधे नर और आधे सिंह  के आकार का कोई जन्तु नहीं यह पौराणिक कल्पना है। जो परम सत्ता हैं वे ही नृंसिंह पदवाच्य हैं। भीषण:- जो सर्व कर्म के चरम अध्यक्ष हैं, उन्हें अपने न्याय दंड की मर्यादा बनाये रखने के लिये आपात्द्रष्टि से अनेक क्षेत्रों में भीषण आचरण करने के लिये वाध्य होना पड़ता है, यदि ऐसा न करें तो  एकदेशदर्शिता  का दोष आ जायेगा। स्वार्थवश  उन्हें सीमावद्ध नहीं बनाया जा सकता। जो विद्यावुद्धि या धन या शक्ति में अधिक होते हैं यदि उनसे एकात्मक भाव नहीं होगा तभी उनसे भय होगा अन्यथा नहीं । जो पुरुषेत्तम प्राणों के भी प्राण हैं, आत्मा के आत्मा हैं जिनके साथ एकात्मक भाव जागा हुआ है वे उन से भय क्यों
 खायेंगे? वे उनको प्रेम करेंगे। जो अपनी खंड सत्ता को लेकर चिंतित हैं वे ही उनसे डरेंगे। इसलिये सत्ता विशेष के लिये वे अवश्य  भीषण हैं। भीषः स्माद्वायु पवते। भीषोदेति सूर्यः। भीषस्मादग्निश्चेन्द्रश्य , मृत्युः धावति पंचमः। तस्मादुच्यते भीषणमिति। भद्र:- वे मंगलस्वरूप हैं शिवस्वरूप हैं उनकी चिंता धारा जीवसमूह तथा जगत को कल्याण पथ पर लिये चल रही है, उनके समान कल्याणकारी न हुआ है ओर न होगा। इसलिये वे भद्र हैं । मृत्युर्मृत्यु:-  अर्थात् मृत्यु भी जिनसे भय खाती है, उनके निर्देशानुसार जीवों के पीछे पीछे चलती है अर्थात् जीव मृत्यु से जितना डरता है मृत्यु भी उनसे उतना ही डरती है। दूसरा अर्थ यह है कि संसार में जीव बार बार मरता है पर पुरुषोत्तम को पा लेने पर फिर मृत्यु नहीं आ सकती मृत्यु की भी मृत्यु हो जाती है, 
इसलिये वे मृत्योर्मृत्यु   हैं उन्ही पुरुषोत्तम को मैं प्रणाम करता हूँ ।


(25 ) यहाॅं यह ध्यान रखने की बात है कि नृसिंह या पुरुषोत्तम में साक्षी भाव रहने से वे तुरीय अवस्था से भिन्न हैं, तुरीय अवस्था निर्गुण या निरक्षर अवस्था है यहाॅं पर सभी ईश्वरीय विभूतियों की समाप्ति हो जाती है। अन्य बात यह भी कि नृसिंह उपासना पंचव्यूहात्मक उपासना कहलाती है और अनुष्टुप मंत्र  इसी के लिये है। प्रणव या ओंकार जहाॅं सम्पूर्ण ब्रह्मचक्र के लिये व्यव्हार किया जाता है वहीं अनुष्टुप केवल मूल व्यूह के लिये अतः ओंकार श्रेष्ठ है। अनुष्ठुप का स्थान भी ओंकार में ही है। 

‘‘ भूतं भवद भविष्यदिति सर्वमोकारण्व, यच्चान्यन्त्रिकालातीतं तदोप्योेंकार एव‘‘। 
ओंकार सगुण ब्रह्म के स्पान्दनिक विकास की ही शाब्दिक अभिव्यक्ति है। अतः जहाॅं स्रष्टि है वह अतीत ,वर्तमान और भविष्य क्यों न हों ओंकार से पृथक नहीं रह सकती। जहाॅं पर स्रष्टि है वहाॅं देश , काल और पात्र भी होगा। इस ओंकारात्मक कल्पनाधारा को छोड़कर सगुण ब्रह्म का अस्तित्व नहीं रह सकता इस लिये सभी वस्तुओं का अस्तित्व उनकी क्रिया के परिमाप पर निर्भर करता है। क्रिया की गतिशीलता के ऊपर मन की कल्पना विशेष का नाम काल है। मन की सहायता से इस गतिशीलता को ग्रहण करने वाला ही पात्र है और पात्र तथा काल का संबंध स्थापित करने वाली सत्ता ही देश  है। तीनों का अस्तित्व मानसिक क्रियाशीलता या ओंकार पर निर्भर है। ओंकार की अर्धमात्रा अर्थात् चंद्रविंदु में साक्षीयुक्त पुरुषोत्तम स्थित हैं इसलिये अ, उ, म और अर्धमात्रा ये ही क्रमशः  स्रष्टि,स्थिति, लय और साक्षित्व इन चारों का द्योतक है। इसलिये, प्रणवात्मकम् ब्रह्म, तस्य वाचकः प्रणवः , यह कहा गया है। इसीलिये ओंकार उच्चारण करने की वस्तु नहीं है मनुष्य का कंठ इसे ठीक ठीक भावरूप नहीं दे सकता। ओंकार के प्रकाशमान रूप को पकड़कर पहले अर्ध मात्रा से और फिर तुरीय के चतुर्थ पाद में निर्गुण, निष्कल ब्रह्म में स्थान पाकर ईश्वरग्रास में परम शान्ति लाभ करना चाहिये। ‘‘ सर्वे वेदा यत्पदमामनन्ति, तपाॅसि सर्वाणि च यद्वदन्ति, यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यंजरंन्ति, तत्ते पदं संग्रहेण ब्रवीम्योमित्येमतत्।  इसलिये ओंकार सगुण और निर्गुण दोनों का द्योतक है। अ, उ, म, सगुण ब्रह्म को, नाद चिन्ह ( ॅ  )   सगुण और निर्गुण के पार्थक्य को और विन्दु  ( . )  निर्गुण ब्रह्म को प्रकट करता है क्योंकि विंदु में स्थिति तो होती है पर परिमाण नहीं।

Thursday, 12 March 2015

वेद में ब्रह्म विज्ञान (लगातार)


 वेद में ब्रह्म विज्ञान (लगातार)
(21 ) जीव में जाग्रद अवस्था के अभिमानी पुरुष को विश्व  (दार्शनिक  शब्द) व विषयी पुरुष कहा जाता है। सर्व इंद्रियों के द्वारा विषयभोग जाग्रद अवस्था में ही यथायथ भाव से होने के कारण इस अवस्था के पुरुष को विषयी पुरुष कहते हैं। जीवभाव में स्वप्नावस्था के अभिमानी पुरुष को ‘तेजस‘ और सुषुप्ति के अभिमानी पुरुष को ‘प्राज्ञ‘ कहते हैं। सगुण ब्रह्म की क्षीराब्धि, गर्भोदक और कारणार्णव अवस्था के अभिमानी पुरुष को क्रमशः  विराट, हिरण्यगर्भ और ईश्वर  (दार्शनिक  शब्द) कहते हैं। अतएव हम देखते हैं कि ‘अ‘ विश्व  और विराट का बीजाक्षर है, ‘उ‘ तेजस और हिरण्यगर्भ का और ‘म‘ प्राज्ञ तथा ईश्वर  का बीजाक्षर है। तुरीय अवस्था में जीवभाव और ब्रह्मभाव में कोई भेद नहीं है क्यों कि उस अवस्था में ‘‘मैं हूॅं बोध‘‘ नहीं है। इसलिये इस अवस्था में कोई बीजाक्षर भी नहीं है। क्योंकि बीज, उत्पत्ति के कारण को कहते हैं अतः जहां उत्पत्ति, अनुत्पत्ति, सृष्टि, 
स्थिति और लय का कोई प्रश्न  ही पैदा नहीं होता वहां बीज का प्रश्न  भी पैदा नहीं होता। तुरीयावस्था में ज्ञाता, ज्ञेय और ज्ञान तथा ध्याता, ध्यान और ध्येय तीनों  एक ही हो जाते हैं इसीलिये इसका वाचक नाद विंदु है। उसी परम पद को ईश्वरग्रास कहते हैं अर्थात् उसमें ईश्वर  भी ग्रस्त हो जाता है। यह पुरत्रय निर्गुण में ही लीन हो जाता है अतः इसका नाम ईश्वरग्रास रखना अत्यंन्त समीचीन है।

(22 ) प्रत्येक खंड वस्तु कार्य कारण संबंध के आधीन है। ब्राह्मी मन का कोई कारण नहीं क्यों कि ब्राह्मी  मन के स्रष्ट होने के पूर्व दूसरी क्रियाशील सत्ता नहीं है। सगुण ब्रह्म के जन्म का साक्षित्व दूसरे किसी में नहीं रह सकता। उस समय मन नहीं रहने से देश  काल पात्रादि का भी अस्तित्व नहीं था। सगुण ब्रह्म के जन्म , स्थिति या लय तीनों ही मन के अतीत हैं देशकालपात्रादि से अतीत होने के कारण उन्हें नित्य कहा जाता है। ब्रह्म विज्ञान कार्यकारण तत्वों से बाहर है। ब्रह्म के बाहर कोई नहीं है अतः उनका पूर्व रूप नहीं हो सकता क्योंकि कारण के परिवर्तित रूप को ही कार्य कहा जा सकता है। ब्रह्म अपरिणामी एक मात्र सदवस्तु हैं। पारमार्थिक विचार से यह जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति अवस्थायें और यह प्रपंचमय जगत सब कुछ मैं ही हूँ  , मैंपन की इस प्रकृत संज्ञा को जो समझते हैं वे किसी बंधन को बंधन समझकर भयभीत नहीं होते। तीनोंधामों अर्थात् जाग्रत स्वप्न और सुसुप्ति में जो कुछ भी है वह भोग्य, भोक्ता या भोग रूपमें होती हैं इन तीनों के विपरीत जो चतुर्थ ,तुरीय अवस्था की सत्ता है वह इन सबकी साक्षीसत्ता चैतन्यस्वरूप सदाशिव मैं हॅूं। इस सदाशिव भाव में जो प्रतिष्ठित हैं वे देखते हैं कि सब कुछ उनके मन की ही स्रष्टि है , मन में ही सब कुछ रहता है और अन्त में मैंपन के बीच ही सबका लय होजाता है, मैं ही वह अक्षर ब्रह्म हूँ । वे समझते हैं कि वे अणु से भी छोटे और विराट से भी विराट हैं, जिस स्पंदन से मैं अनन्त विस्तार देता हूँ  उनमें एक के साथ दूसरे का कोई मेल नहीं है।  मैं

 कितना अद्भुद हूॅं,  मेरी उत्पत्ति नहीं हुई है, मैं कार्य कारण तत्वों से बाहर हॅूं, इसी लिये मुझसे पुरातन कोई नहीं , मैं ही ज्ञानस्वरूप हूँ । मैं सबके कल्याण की कामना करता हॅूं। जब साधक इस भाव में स्थापित होकर अपने में अनन्त रूपदेखता है तो तन्मय हो जाता है और उसका बाहरी ज्ञान लुप्त हो जाता है इसे सविकल्प समाधि कहते है। निर्विकल्प में क्षुद्र ब्रहत् का कोई भेद नहीं रहता सब कुछ निर्विशेष  चैतन्य में समाहित हो जाता है, इसमें द्वैतभाव नहीं रहता वे अन्तर्मुखी भाव में रहते हैं। यह जन्म जन्मान्तर की गहन साधना के कारण ही संभव हो पाता है।

Sunday, 8 March 2015

वेद में ब्रह्म विज्ञान लगातार

वेद में ब्रह्म विज्ञान  लगातार ……

(19 ) ‘‘ स एव माया  परिमोहितात्मा शरीरमास्थाय करोति सर्वम्, स्त्रीयन्नपानादि विचित्रभेगैः स एव जाग्रत् परितृप्तमेति।‘‘ जीव जाग्रत अवस्था में ही सबसे अधिक अविद्या से ग्रस्त रहता है। उसके मन में अष्ट पाश  और षडरिपु रहते हैं और बाहर आकर्षणकारी प्रपंच। वह स्त्री अन्न पानादि अत्यंन्त विचि़त्र विषय को अपना भोग समझ इन्हीं के बीच भटकता रहता है। इसलिये बाहरी प्रलोभन से द्रढ़तापूर्वक संयमित और सतर्क रहने की आवश्यकता होती है। ‘‘ स्वप्ने स जीवो सुख दुख भोक्ता स्वमाययाकल्पित जीवलोके, सुषुप्तिकाले सकले विलीने तमोअभिभूतो  सुखरूपमेजि।‘‘ स्वप्नावस्था में जीव ब्रह्म से पृथक अवस्था में रहता है, सुख दुख अधिक परिमाण में भोग सकता है क्योंकि वाह्य जगत के व्यवधान की संभावना नहीं रहती। यहाॅं भोग्य और भोक्ता यही द्वैत रहता है और अन्य सब कल्पित। जाग्रत अवस्था में कल्पित वस्तु मनोमय कोश  के कारण सत्य नहीं लगती वरन् कल्पना की समझ रहती है परंतु स्वप्नावस्था में काममय कोश  समाहित हो जाने के कारण बाहर से जीव का संबंध समाप्त हो जाता है अतः स्वप्नावस्था में भोग्य वस्तुयें सत्य प्रतीत होती हैं , जीव स्वकल्पित सुखदुख के भोक्ता के रूप में रहता है। निद्रा एक ऐंसी अवस्था है जिसके होने पर उसका अनुभव नहीं होता केवल उसके बाद ही लगता है कि कुछ क्षण पूर्व हमारी एक विषयमुक्त अभावावस्था थी। नींद के समय जीव ब्रह्म के कारणार्णव से जुड़ जाता है इसलिये जाग्रत अवस्था की अपेक्षा आनन्द की मात्रा अधिक रहती है। निद्रा और मृत्यु में अंतर यह है कि मृत्यु के बाद स्थूल, सूक्ष्म और कारण  ये तीनों मन के कार्य बन्द हो जाते हैं।निद्रा काल में दसों वायुएं क्रियाशील रहती हैं अतः प्राणशक्ति ठीक रहती है पर मृत्यु में इन दस वायुओं में विकृति आ जाने से मन कार्य करना बंद कर देता है। निद्रा और अचेतन में अंतर यह है कि निद्रकाल में स्थूल और सूक्ष्म मन थक जाने के बाद आराम करते हैं पर अचैतन्य अवस्था में बाहरी आघात से स्थूल और सूक्ष्म मन काम बंद करने को वाध्य हो जाते हैं । निद्रा सामयिक विश्रान्ति है अतः उसके बाद शरीर स्वस्थ मालूम होता है और अचैतन्य अवस्था में बल पूर्वक मन की क्रिया बंद रखने के कारण शरीर थका हुआ लगता है। सविकल्प समाधि और निद्रा में अंतर यह है कि सविकल्प में मन ब्रह्म के मन से एकीभूत हो जाता है, चूंकि ब्रहम मन के बाहर कोई भोग्य सत्ता न होने के कारण बाहरी व्यवधान की संभावना नहीं रहती अतः दैहिक कार्य अन्य जड़ वस्तुओं की तरह ब्रह्म मन से नियंत्रित होता है और अनन्त आनन्द में डूब जाता है पर शरीर का अभुक्त संस्कार उसे अधिक काल तक इस स्थिति में नहीं रहने देता और प्रकृति का रजोगुण संस्कार भोगने के लिये उसे जैव भाव में ले आता है। निर्विकल्प और सविकल्प समाधि में अंतर यह है कि निर्विकल्प समाधि में जैव मन निष्कल पुरुष में समाहित हो जाता है इसलिये भोग,भोग्य और भोक्ता का या ज्ञान, ज्ञेय और ज्ञाता का भाव नहीं रहता । एक अनभिव्यक्त आनन्द में आत्मविस्मृत होकर क्या पाया है और क्या खो दिया यह भूल जाता है। परंतु अभुक्त संस्कार उसे अधिक देर तक वहाॅं नहीं रहने देता और जैव भाव में वापस ले आता है। इसके बाद ही लगता है कि एक अज्ञात लोक से एक अफुरन्त आनन्द की धारा  उसकी सभी सत्ताओं को प्लावित कर रही थी।‘‘ अभावोत्तरानन्दप्रत्ययालम्बनीवृत्तिर्तस्यप्रमाणम्।‘‘ अभाव बोध के बाद मन जब आनन्दश्रोत में डूब जाता है तब समझना चाहिये कि उसके पूर्व की अभावावस्था और कुछ नहीं निर्विकल्प समाधि थी। मन के नहीं रहने पर विषय नहीं था यही अभावावस्था है। जिसके संस्कार बाकी नहीं हैं उसकी निर्विकल्प या सविकल्प समाधि के भंग होने का प्रश्न  ही नहीं है। स्थायी सविकल्प का नाम मुक्ति है और स्थायी निर्विकल्प का नाम मोक्ष  है।

(20 ) प्रकृति के संयोग से पुरुष के जो तीन प्रकार के भाव या अवस्थाओं की सृष्टि होती है उन्हीं को त्रिपुर कहा जाता है। जीवभाव में यह त्रिपुर उसकी जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति अवस्थाएॅं हैं। इन तीनों  भावों से बाहर जो साक्षी स्वरूप शायित हैं वे ही आत्मा या पुरुष हैं। यह विचित्र जगत अर्थात् दृश्यमान जगत पुरत्रयात्मक भाव लेकर ही खड़ा है और जीवों के बीच काम करता चलता है। जीवों का भोग्य यही विराट पुरत्रययुक्त जगत् है जो क्षीराब्धि, गर्भोदक और कारणार्णव नाम से प्रसिद्ध है। उनकी सृष्टि परम पुरुष की कल्पना से हुई है-उन्हीं के सत्वगुण, रजोगुण और तमोगुणात्मक अभिमान के फलस्वरूप। इन तीनों अवस्थाओं का जो आधार है उसी को चतुर्थ पुर कहते हैं। यह चतुर्थपुर त्रिगुणातीत है। इसीलिये इसकी सत्ता देश  काल और पात्र के परिमाप के बाहर है, त्रिपुर के ऊर्ध्व  है। इसी चतुर्थ अवस्था को निर्गुण, कैवल्य या तुरीय अवस्था कहा जाता है। अणु जीव का संस्कार जब तक बाकी रहता है तब तक वह भोग के लिये जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति इन तीनों  पुरों में विचरण करता है और साधना के द्वारा जब संस्कारों से मुक्त हो जाता है तब वह त्रिपुर से बाहर तुरीयपद, परम पद में समाहित हो जाता है। ऊॅं, या प्रणव या ओंकार चार वर्णों से युक्त मंत्र है। वे हैं अ, उ, म, और नाद विंदु। यही नाद विंदु चतुर्थ अवस्था अर्थात् निर्गुण सत्ता का द्योतक है। इसमें सत्व, रज या तम का कोई भी गुण स्फुट अवस्था में नहीं है। जीव भाव का ‘अ‘ सत्वगुण प्राधान्य का द्योतक और जाग्रद अवस्था का सूचक है। ‘उ‘ रजोगुण प्राधान्य का द्योतक और स्वप्नावस्थाका सूचक है। ‘म‘ तमो गुणप्राधान्य का द्योतक और सुषुप्तावस्था का सूचक है। सगुण ब्रह्म में अ,उ,म यथाक्रम से क्षीराब्धि, गार्भोदक और कारणार्णव का सूचक हैं। विन्दु चतुर्थ व तुरीय अवस्था का द्योतक तथा निर्गुण ब्रह्म का सूचक है। गणित में विन्दु को पारिभाषित किया गया है कि उसकी स्थिति होती है परंतु माप नहीं। निर्गुण ब्रह्म के संबंध में हम लोग कुछ न तो कह सकते हैं और न ही सोच सकते हैं। केवल समझाने  के लिये  विन्दु का व्यवहार किया गया है। निर्गुण ब्रह्म वाचक विन्दु(.) और सगुण ब्रह्म वाचक ओम  तथा बीच में लगाया गया चिन्ह (चंद्राकार  ॅ ) अव्यक्ता प्रकृति की व्यक्तावस्था में परिणति का ज्ञापक है।